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Jun 10 2025

विथूट परियोजना

केरल के वन विभाग ने विश्व पर्यावरण दिवस पर ‘विथूट’ (बीज वर्षा) नामक एक अभिनव वनीकरण परियोजना शुरू की।

‘विथूट’ क्या है?

  • यह हरियाली वापस लाने एवं वन स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए समुदाय द्वारा संचालित अभियान है।
    • यह भारत में अपनी तरह का पहला हवाई बीज बॉल वितरण कार्यक्रम है।
  • उद्देश्य: पशु-मानव संघर्ष को कम करना, जैव विविधता में सुधार करना एवं क्षतिग्रस्त पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करना।
  • समर्थन: केरल वन अनुसंधान संस्थान एवं छात्रों तथा जनता की भागीदारी से।
  • वायु सेना जैसी एजेंसियों के समर्थन से, बीज वितरण के लिए ड्रोन एवं हेलीकॉप्टर का उपयोग किया जाता है।
  • ‘विथूट’ के संभावित लाभ
    • जैव विविधता का समर्थन करता है एवं वन क्षेत्र को बढ़ावा देता है।
    • वन्यजीवों एवं मनुष्यों के लिए खाद्य संसाधन प्रदान करता है।
    • वन संरक्षण में भागीदारी को प्रोत्साहित करता है।
    • गैर-लकड़ी वन उत्पादों तक पहुँच को बढ़ाता है।

फ्रेंच ओपन 2025

स्पेन के पेशेवर टेनिस खिलाड़ी कार्लोस अल्काराज ने जैनिक सिनर (इतालवी टेनिस खिलाड़ी) के खिलाफ वर्ष 2025 का फ्रेंच ओपन जीता। 

फ्रेंच ओपन के बारे में

  • फ्रेंच ओपन पेशेवर टेनिस में चार ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंटों में से एक है, जिसमें ऑस्ट्रेलियन ओपन, विंबलडन एवं US-ओपन शामिल हैं। 
  • यह ‘क्ले कोर्ट’ पर खेला जाता है, एवं पेरिस, फ़्रांस के रोलैंड गैरोस स्टेडियम में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है।
  • विजेताओं को कूप डेस मौस्केटेयर्स (पुरुष) एवं सुजैन लेंग्लेन कप (महिला) मिलते हैं।
  • ऐतिहासिक महत्त्व
    • फ्रेंच ओपन की शुरुआत वर्ष 1891 में हुई थी, जो वर्ष 1925 में ग्रैंड स्लैम बन गया।
    • राफेल नडाल रोलैंड गैरोस में इतिहास के सबसे सफल पुरुष खिलाड़ी हैं।

ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट क्या हैं?

  • ग्रैंड स्लैम टूर्नामेंट टेनिस में सबसे प्रतिष्ठित आयोजन हैं, जिसमें विश्व के शीर्ष खिलाड़ी भाग लेते हैं। इनमें शामिल हैं:
    • ऑस्ट्रेलियन ओपन (जनवरी) – मेलबर्न में हार्ड कोर्ट पर खेला जाता है।
    • फ्रेंच ओपन (मई-जून) – रोलैंड गैरोस में क्ले कोर्ट पर खेला जाता है।
    • विंबलडन (जून-जुलाई) – लंदन में ग्रास कोर्ट पर खेला जाता है।
    • US ओपन (अगस्त-सितंबर) – न्यूयॉर्क में हार्ड कोर्ट पर खेला जाता है।
  • प्रत्येक टूर्नामेंट में एकल, युगल एवं मिश्रित युगल चैंपियन की ट्रॉफी प्रदान की जाती है।

टूर्नामेंट श्रेणी

चैंपियंस

एकल पुरुष एकल: कार्लोस अल्काराज

महिला एकल: कोको गौफ

युगल पुरुष युगल: मार्सेल ग्रैनोलर्स एवं होरासियो जेबालोस

महिला युगल: जैस्मीन पाओलिनी एवं सारा इरानी

मिश्रित युगल मिश्रित युगल: सारा इरानी एवं एंड्रिया ववास्सोरी

अमीबिक मेनिंगोएन्सेफेलाइटिस

केरल में राज्य सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयोगशाला (PH Lab) ने मनुष्यों के लिए विषाक्त मुक्त-जीवित अमीबा (Free-Living Amoeba) की पाँच प्रजातियों की पहचान करने के लिए आणविक निदान परीक्षण किट विकसित की है।

आणविक निदान परीक्षण क्या हैं?

  • ये उन्नत चिकित्सा परीक्षण हैं जो आनुवंशिक, कोशिकीय एवं आणविक स्तर पर बीमारियों का पता लगाते हैं।
  • यह आनुवंशिक विकारों, कैंसर एवं संक्रमणों की पहचान करने के लिए RNA, DNA, प्रोटीन या अन्य बायोमार्करों का विश्लेषण करता है।
  • आनुवंशिक सामग्री का विश्लेषण करने के लिए अक्सर पॉलीमरेज चेन रिएक्शन (PCR) एवं नेक्स्ट-जेनरेशन सीक्वेंसिंग (NGS) जैसी तकनीकों पर निर्भर करता है।

फ्री-लिविंग अमीबा (FLA) के बारे में

  • फ्री-लिविंग अमीबा (FLA) जल, मृदा एवं हवा जैसे प्राकृतिक वातावरण में पाए जाने वाले एकल-कोशिका वाले जीव हैं।
  • इनमें अधिकांश हानिरहित हैं, कुछ प्रजातियाँ मनुष्यों में गंभीर संक्रमण उत्पन्न कर सकती हैं।
  • पर्यावरण में मुक्त-जीवित अमीबा की 400 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
    • केवल छह प्रजातियाँ मनुष्यों के लिए हानिकारक मानी जाती हैं।
  • संक्रमण: दूषित जल, कॉन्टैक्ट लेंस की अनुचित स्वच्छता, एवं दूषित वातावरण के संपर्क में आना।
  • PH लैब पाँच खतरनाक प्रजातियों की पहचान कर सकती है:
    • नेगलेरिया फाउलरी – सबसे घातक संक्रमण का कारण बनता है।
    • एकांथोमीबा एसपीपी. – अब एक मरीज के नमूने में इसकी पुष्टि हुई है।
    • वर्मामोइबा वर्मीफॉर्मिस
    • बालामुथिया मैंड्रिलारिस
    • पैरावहलकैम्पफिया फ्रैन्सिना
  • ये अमीबा अमीबिक मेनिंगोएन्सेफलाइटिस का कारण बन सकते हैं, यह केरल में अधिक सामान्य हो गया है।
  • अमीबिक मेनिंगोएन्सेफलाइटिस के बारे में
    • यह एक घातक मस्तिष्क संक्रमण है।
    • नेगलेरिया फाउलरी, एकांथोमीबा एसपीपी, एवं बालमुथिया मैंड्रिलारिस जैसी मुक्त-जीवित अमीबा प्रजातियों के कारण होता है।
    • संक्रमण दूषित जल, धूल एवं कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण हो सकता है।

विकसित कृषि संकल्प अभियान

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के सहयोग से, ‘विकसित कृषि संकल्प अभियान’ नामक एक राष्ट्रव्यापी व्यापक खरीफ-पूर्व अभियान शुरू किया है।

अभियान के बारे में

  • उद्देश्य: किसानों को शामिल करना, फीडबैक एकत्र करना एवं कृषि विकास के लिए माँग-संचालित, समस्या-उन्मुख अनुसंधान कार्यक्रम विकसित करना।

ICAR-भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान (ICAR-IIHR) के बारे में

  • स्थापना: 5 सितंबर 1967 को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) द्वारा।
  • मुख्यालय: हेसरघट्टा, बेंगलुरु।
  • स्थिति: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के तहत प्रमुख संस्थान
  • मिशन: आजीविका सुरक्षा, आर्थिक विकास एवं पोषण सुरक्षा के लिए सतत बागवानी विकास प्राप्त करना।
  • मुख्य योगदान: 327 किस्में/संकर एवं 154 प्रौद्योगिकियाँ विकसित की गईं।

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संदर्भ 

प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान (PMSMA) स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की एक प्रमुख पहल है, तथा इसने सफलतापूर्वक नौ वर्ष पूरे कर लिए हैं।

प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान के बारे में

  • इसे प्रत्येक माह की 9 तारीख को, विशेष रूप से दूसरी एवं तीसरी तिमाही के दौरान, सभी गर्भवती महिलाओं को निशुल्क सुनिश्चित, व्यापक तथा गुणवत्तापूर्ण प्रसवपूर्व देखभाल (ANC) सेवाएँ प्रदान करने के लिए डिजाइन किया गया था।
  • शुभारंभ: जून 2016,
  • लक्ष्य: उच्च जोखिम वाली गर्भावस्थाओं का शीघ्र पता लगाने एवं त्वरित प्रबंधन की सुविधा प्रदान करके मातृ तथा नवजात मृत्यु दर को कम करना।

उद्देश्य

  • PMSMA, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) के तहत प्रजनन, मातृ, नवजात, बाल एवं किशोर स्वास्थ्य तथा पोषण (RMNCAH+N) रणनीति के व्यापक लक्ष्यों के साथ संरेखित है।
    • यह सुनिश्चित करना कि प्रत्येक गर्भवती महिला को दूसरी या तीसरी तिमाही के दौरान चिकित्सक/विशेषज्ञ द्वारा कम-से-कम एक बार जाँच करानी पड़े। 
    • प्रसवपूर्व जाँच के दौरान देखभाल की गुणवत्ता में सुधार करना। 
    • प्रारंभिक अवस्था में उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था (HRP) की पहचान करना एवं उसका प्रबंधन करना। 
    • प्रत्येक गर्भवती महिला के लिए उचित जन्म योजना एवं जटिलताओं के लिए तत्परता सुनिश्चित करना। 
    • कुपोषण से ग्रस्त महिलाओं का उचित प्रबंधन सुनिश्चित करना।
    • किशोरावस्था एवं प्रारंभिक गर्भावस्था पर विशेष ध्यान देना।

मुख्य विशेषताएँ

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर प्रत्येक माह की 9 तारीख को मासिक प्रसवपूर्व जाँच।
  • निजी क्षेत्र के सहयोग से OBGY विशेषज्ञों, रेडियोलॉजिस्ट, चिकित्सकों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाएँ।

  • प्रत्येक महिला के लिए न्यूनतम पैकेज: आवश्यक जाँच (दूसरी तिमाही के अल्ट्रासाउंड सहित) एवं दवाएँ (IFA, कैल्शियम)।
  • सभी ANC सेवाओं एवं जाँचों के लिए एकल विंडो सिस्टम।
  • विशेष ध्यान
    • अपंजीकृत या छूटी हुई ANC महिलाएँ
    • ड्रॉपआउट्स
    • उच्च जोखिम वाली गर्भावस्थाएँ
  • माँ तथा बच्चे का सुरक्षा कार्ड एवं सुरक्षित मातृत्व पुस्तिकाओं का वितरण।
  • उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था की पहचान
    • ग्रीन स्टिकर: कोई जोखिम नहीं।
    • रेड स्टिकर: उच्च जोखिम।

प्रमुख उपलब्धियाँ एवं सफलता

  • अब तक, PMSMA के तहत 6.19 करोड़ गर्भवती महिलाओं की जाँच की जा चुकी है।
  • मातृ मृत्यु दर (MMR) वर्ष 2014-16 में 130 प्रति लाख जीवित जन्मों से घटकर वर्ष 2021-23 में 80 प्रति लाख जीवित जन्मों पर आ गई है।
  • 31 दिसंबर, 2024 तक, सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में 78.27 लाख से अधिक उच्च जोखिमयुक्त गर्भधारण की पहचान की गई है।

विस्तारित प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान (E-PMSMA)

  • सुरक्षित प्रसव तक उच्च जोखिम वाली गर्भवती (HRP) महिलाओं की ट्रेसिंग एवं ट्रैकिंग सुनिश्चित करने के लिए जनवरी 2022 में E-PMSMA रणनीति शुरू की गई थी।

विस्तारित प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान (E-PMSMA) की प्रमुख विशेषताएँ:

  • HRP की नाम-आधारित लाइन लिस्टिंग।
  • अतिरिक्त PMSMA सत्र का प्रावधान (एक महीने में अधिकतम 4 बार)।
  • स्वस्थ परिणाम तक HRP की व्यक्तिगत निगरानी (प्रसव के 45वें दिन तक)। 
  • HRP के पंजीकरण एवं अनुवर्ती दौरों के लिए लाभार्थी के साथ-साथ आशा को SMS अलर्ट।

अन्य सरकारी पहल

  • जननी सुरक्षा योजना (JSY): सशर्त नकद हस्तांतरण के माध्यम से संस्थागत प्रसव को प्रोत्साहित करने के लिए शुरू की गई।
    • मार्च 2025 तक इस योजना से 11.07 करोड़ से अधिक महिलाएँ लाभान्वित हुई हैं।
  • जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (JSSK): निःशुल्क संस्थागत प्रसव एवं नवजात शिशु देखभाल को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया।
  • वर्ष 2014-15 से अब तक 16.60 करोड़ से अधिक लाभार्थियों को सेवा प्रदान की गई है।
  • लक्ष्य: प्रसव कक्षों में देखभाल की गुणवत्ता में सुधार के लिए पहल।
  • सुरक्षित मातृत्व आश्वासन (SUMAN): गर्भवती महिलाओं के लिए सम्मानजनक एवं गुणवत्तापूर्ण देखभाल को मजबूत करने के लिए शुरू किया गया।
    • मार्च 2025 तक देश भर में 90,015 SUMAN स्वास्थ्य सुविधाएँ अधिसूचित की गई हैं।
  • पोषण अभियान: पोषण सेवाओं में सुधार करके सर्वाधिक संवेदनशील व्यक्तियों, बच्चों, किशोरियों, गर्भवती महिलाओं एवं स्तनपान कराने वाली माताओं को लक्षित करने के लिए प्रारंभ किया गया।
    • वर्तमान में, देश भर में 6.97 करोड़ पोषण पखवाड़ा मनाए जा रहे हैं। 
  • प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना (PMMVY): संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने एवं मातृ स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए शुरू की गई यह योजना गर्भवती तथा स्तनपान कराने वाली महिलाओं को 5,000 रुपये का प्रत्यक्ष नकद लाभ प्रदान करती है।

संदर्भ

हाल ही में, यूनेस्को और इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने भारत में AI रेडीनेस असेसमेंट मेथोडोलॉजी (RAM) पर 5वें हितधारक परामर्श बैठक का आयोजन किया है।

AI रेडीनेस असेसमेंट मेथोडोलॉजी (RAM) पहल क्या है?

  • AI रेडीनेस असेसमेंट मेथोडोलॉजी (RAM) का अर्थ है, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस रेडीनेस असेसमेंट मेथोडोलॉजी।
  • यह AI को अपनाने के लिए भारत की तत्परता का मूल्यांकन करने के लिए एक रूपरेखा है।
  • रेडीनेस असेसमेंट मेथोडोलॉजी क्या है?
    • RAM एक ऐसा उपकरण है, जिसे मात्रात्मक और गुणात्मक मूल्यांकन विधियों का उपयोग करके किसी देश के AI पारिस्थितिकी तंत्र का मूल्यांकन करने के लिए डिजाइन किया गया है
    • RAM, AI विकास के लिए कानूनों, नीतियों और संस्थानों को बेहतर बनाने में मदद करने के लिए एक नैदानिक ​​उपकरण के रूप में कार्य करता है।

  • रेडीनेस असेसमेंट मेथोडोलॉजी द्वारा मूल्यांकित प्रमुख आयाम: RAM, AI तत्परता के पाँच प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करता है:
    • कानूनी और विनियामक: AI के उपयोग को नियंत्रित करने वाले कानूनों और नीतियों की जाँच करता है।
    • सामाजिक और सांस्कृतिक: सामाजिक स्वीकृति और नैतिक चिंताओं का आकलन करता है।
    • आर्थिक: उद्योगों और रोजगार बाजारों पर AI के प्रभाव का मूल्यांकन करता है।
    • वैज्ञानिक और शैक्षिक: AI अनुसंधान, शिक्षा और कौशल विकास की समीक्षा करता है।
    • तकनीकी और अवसंरचनात्मक: AI अवसंरचना और नवाचार क्षमताओं का विश्लेषण करता है।
  • प्रत्येक आयाम का मूल्यांकन संरचित प्रश्नों का उपयोग करके किया जाता है, जो अन्य AI तत्परता उपकरणों की तुलना में RAM को अद्वितीय बनाता है।

रेडीनेस असेसमेंट मेथोडोलॉजी (RAM) का क्रियान्वयन कैसे किया जाता है?

RAM को प्रत्येक देश की विशिष्ट परिस्थितियों और उपलब्ध संसाधनों के आधार पर अनुकूलित किया जाता है।

  • एक राष्ट्रीय टीम द्वारा समर्थित, जिसमें निम्नलिखित सदस्य शामिल हैं:
    • सरकारी एजेंसियाँ
    • यूनेस्को सचिवालय और राष्ट्रीय आयोग
    • शिक्षाविद, नागरिक समाज और निजी क्षेत्र के विशेषज्ञ

यह विविध सहयोग व्यापक और प्रभावी AI नीति विकास सुनिश्चित करता है।

भारत का AI शासन और रेडीनेस असेसमेंट मेथोडोलॉजी (RAM)

  • यूनेस्को और इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का लक्ष्य भारत के पारिस्थितिकी तंत्र में वैश्विक AI सिद्धांतों को लागू करना है।
  • AI रेडीनेस असेसमेंट मेथोडोलॉजी (RAM) सत्र जारी रहेंगे, जिसमें समावेशी, जिम्मेदार और नैतिक AI नीति रोडमैप निर्माण हेतु बहु-हितधारक चर्चाओं को प्रोत्साहित किया जाएगा।

संदर्भ

‘अर्थ्स फ्यूचर’ (Earth’s Future) में प्रकाशित एक नए अध्ययन में ‘स्ट्रेटोस्फेरिक एरोसोल इंजेक्शन’ (SAI) के लिए लागत प्रभावी दृष्टिकोण की खोज की गई है, जो सौर भू-इंजीनियरिंग का एक रूप है जिसका उद्देश्य पृथ्वी को ठंडा करना है।

स्ट्रेटोस्फेरिक एरोसोल इंजेक्शन (SAI) के बारे में

  • SAI एक भू-इंजीनियरिंग तकनीक है जिसमें सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने और ग्रह को ठंडा करने के लिए समताप मंडल में परावर्तक कणों (जैसे सल्फर डाइऑक्साइड) को इंजेक्ट करना शामिल है।
    • यह वर्ष 1991 में माउंट पिनातुबो जैसे प्रमुख ज्वालामुखी विस्फोटों के बाद देखे गए प्राकृतिक शीतलन प्रभाव के सामान है।
    • वर्तमान में, इसका उद्देश्य जलवायु हस्तक्षेप रणनीति के रूप में अस्थायी रूप से ग्लोबल वार्मिंग को कम करना है।

SAI के संबंध में हालिया अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष

  • कम ऊँचाई पर इंजेक्ट: संशोधित मौजूदा विमान का उपयोग करके 13 किमी. ऊँचाई पर एरोसोल इंजेक्ट करना तकनीकी रूप से संभव है और उच्च तरीकों की तुलना में कम खर्चीला है।
  • शीतलन क्षमता का परिमाणन: 13 किमी. पर प्रतिवर्ष 12 मिलियन टन सल्फर डाइऑक्साइड का छिड़काव करने से पृथ्वी लगभग 0.6°C तक ठंडी हो सकती है।
  • शीतलन और एरोसोल: कम ऊंचाई पर 1°C शीतलन प्राप्त करने के लिए, 21 मिलियन टन/वर्ष की आवश्यकता होती है, जो उच्च ऊँचाई पर आवश्यक मात्रा से लगभग तीन गुना है। इस प्रकार, अधिक शीतलन के लिए अधिक एरोसोल की आवश्यकता होती है।
  • अधिक ऊँचाई पर इंजेक्ट: उच्च उपोष्णकटिबंधीय ऊँचाई पर इंजेक्ट करने के लिए समान शीतलन प्रभाव के लिए केवल 7.6 मिलियन टन/वर्ष की आवश्यकता होती है और यह अधिक प्रभावी है, क्योंकि कणों का प्रभावी समय अधिक होता है।
  • ध्रुवीय क्षेत्र: ध्रुवीय क्षेत्रों में शीतलन प्रभाव अधिक मजबूत है।

SAI प्रशासन पर वैश्विक दृष्टिकोण

  • वर्ष 2021: अमेरिकी राष्ट्रीय अकादमियों ने पारदर्शिता के साथ SAI अनुसंधान को वित्तपोषित करने की सलाह दी।
  • वर्ष 2022: ‘इंटरनेशनल स्कोलर अलायंस’ ने SAI को “अनियंत्रित” और लोकतांत्रिक रूप से अप्रबंधनीय बताते हुए स्थगन की माँग की।
  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) SAI पर निर्भरता के विरुद्ध चेतावनी देता है और इसके बजाय शमन और अनुकूलन को बढ़ावा देता है।

  • तीव्र तैनाती संभव: मौजूदा विमानों के उपयोग से शीघ्र तैनाती सुनिश्चित की जा सकती है इसलिए, नए विमानों की प्रतीक्षा की तुलना में वर्तमान उपलब्ध संसाधनों का उपयोग अधिक व्यावहारिक एवं समय-संवेदनशील विकल्प है।

SAI की तैनाती से संबंधित जोखिम

  • पर्यावरणीय जोखिम
    • अम्लीय वर्षा: सल्फर के बढ़ते उपयोग से पारिस्थितिकी तंत्र में अम्लता बढ़ सकती है।
    • ओजोन परत को हानि: SAI का प्रयोग ओजोन को नष्ट करने वाली रासायनिक प्रतिक्रियाओं को बढ़ाकर ओजोन परत की रिकवरी में विलम्ब कर सकती है।
    • असमान जलवायु प्रभाव: ध्रुवीय क्षेत्रों में ठंड अधिक स्पष्ट है, जिससे उष्णकटिबंधीय क्षेत्र अधिक असुरक्षित हैं।
  • सामाजिक और भू-राजनीतिक चिंताएँ
    • एकतरफा कार्रवाई: वर्तमान में कोई वैश्विक विनियामक ढाँचा मौजूद नहीं है। यदि कोई एक देश SAI को लागू करता है, तो यह वैश्विक जलवायु पैटर्न को बदल सकता है, जिससे नैतिकता और संप्रभुता संबंधी मुद्दे उठ सकते हैं।
    • संघर्ष का जोखिम: SAI अंतरराष्ट्रीय विवादों को जन्म दे सकता है और वैश्विक जलवायु शासन ढाँचों पर दबाव उत्पन्न कर सकता है।

एरोसोल

  • एरोसोल गैस में छोटे ठोस कणों या तरल बूंदों का निलंबन है, जो आमतौर पर वायु में होता है।
  • वे प्राकृतिक या मानवजनित (मानव-जनित) हो सकते हैं।
  • वे जलवायु, मौसम, वायु गुणवत्ता और यहाँ तक ​​कि मानव स्वास्थ्य को भी महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं।

एरोसोल के प्रकार

1. प्राथमिक एरोसोल

  • सीधे वायुमंडल में उत्सर्जित।
  • उदाहरण: समुद्री स्प्रे, खनिज धूल, ज्वालामुखीय राख और दहन से उत्सर्जित धुआँ, आदि।

2.द्वितीयक एरोसोल

  • पूर्ववर्ती गैसों से जुड़ी रासायनिक प्रतिक्रियाओं के माध्यम से वायुमंडल के भीतर निर्मित।
  • उदाहरण
    • ज्वालामुखी या औद्योगिक SO₂ से सल्फेट एरोसोल
    • NOx उत्सर्जन से नाइट्रेट एरोसोल

3. जैविक एरोसोल (बायोएरोसोल [Bioaerosols])

  • वायु में मौजूद जैविक कणों द्वारा निर्मित होते हैं।
  • उदाहरण: वायरस, बैक्टीरिया, फंगल बीजाणु और परागकण, आदि।

निष्कर्ष 

दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन करने के लिए व्यापक अनुकरण के साथ आगे के अध्ययन आवश्यक हैं। हालाँकि, SAI को उत्सर्जन में कटौती का स्थान नहीं लेना चाहिए और दुरुपयोग एवं टकराव से बचने के लिए वैश्विक नियमों की आवश्यकता है।

संदर्भ

हाल ही में, दुर्लभ रोग से ग्रसित रोगियों ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के माध्यम से सरकार से भारतीय पेटेंट अधिनियम, 1970 के तहत अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रावधानों को लागू करने का आग्रह किया है।

अनिवार्य लाइसेंसिंग (CL) के बारे में

  • अनिवार्य लाइसेंस (CL) एक सरकारी प्राधिकरण है जो किसी तीसरे पक्ष को आमतौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति, अनुपलब्धता या उच्च लागत के मामलों में पेटेंटधारक की सहमति के बिना पेटेंट उत्पाद या प्रक्रिया का उत्पादन करने की अनुमति देता है।

अंतरराष्ट्रीय कानूनी आधार

  • विश्व व्यापार संगठन का ट्रिप्स समझौता (अनुच्छेद-31): सदस्य देशों को पेटेंटधारक की सहमति के बिना कुछ शर्तों के तहत पेटेंट लाइसेंस जारी करने की अनुमति देता है। 
  • TRIPS और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर दोहा घोषणा (वर्ष 2001): सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा करने और सभी के लिए दवाओं तक पहुँच को बढ़ावा देने के लिए विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों के अधिकारों की पुष्टि करता है।
    • महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पेटेंट वैध होने पर भी लाइसेंस जारी किया जा सकता है।

भारत में अनिवार्य लाइसेंसिंग

  • कानूनी प्रावधान: भारतीय पेटेंट अधिनियम, 1970 की धारा 84।
  • पात्रता: पेटेंट दिए जाने की तिथि से 3 वर्ष बाद लागू की जा सकती है।
  • अनिवार्य लाइसेंसिंग के लिए आधार
    • जनहित: जनता की उचित आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा रहा है।
    • वहनीयता: पेटेंट किया गया आविष्कार उचित रूप से वहनीय मूल्य पर उपलब्ध नहीं है।
    • उपलब्धता: पेटेंट किया गया आविष्कार भारत के क्षेत्र में कार्यान्वित नहीं किया जा रहा है, अर्थात् वह न तो पर्याप्त मात्रा में निर्मित हो रहा है और न ही भारतीय बाजार में व्यापक रूप से उपलब्ध कराया जा रहा है।
  • प्रक्रिया: कोई तीसरा पक्ष (जरूरी नहीं कि सरकार ही हो) पेटेंट महानियंत्रक के पास पेटेंट लाइसेंस के लिए आवेदन कर सकता है।
  • नियंत्रक संबंधी अधिकार: जबकि अधिनियम मार्गदर्शक शर्तें प्रदान करता है, नियंत्रक के पास पेटेंट लाइसेंस देने या अस्वीकार करने का अंतिम अधिकार होता है, जो निम्न पर आधारित होता है:
    • आविष्कार की प्रकृति।
    • आवेदक की इसे प्रभावी ढंग से उपयोग करने की क्षमता।
    • जनता को संभावित लाभ।
  • स्वामित्व प्रतिधारण: पेटेंट धारक पेटेंट का स्वामित्व बरकरार रखता है।
    • लाइसेंसधारी को आविष्कार के निर्माण/उपयोग के लिए केवल सीमित अधिकार प्राप्त होते हैं। 
    • पेटेंट धारक उचित मुआवजे/रॉयल्टी का हकदार है।
  • उदाहरण: पेटेंट अधिनियम के तहत भारत के अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रावधान का उपयोग दो दशकों में केवल एक बार किया गया है।
    • नैटको फार्मा को वर्ष 2012 में नेक्सावर नामक कैंसर की दवा के निर्माण के लिए पहला और एकमात्र लाइसेंस प्राप्त हुआ, जो कि बायर द्वारा पेटेंट की गई थी।

दुर्लभ रोगों के बारे में

  • परिभाषा: दुर्लभ रोग ऐसी स्थितियाँ हैं जिनका प्रचलन कम है, और जो एक छोटी आबादी को प्रभावित करती हैं।
  • WHO मानदंड: यदि कोई बीमारी 1,000 व्यक्तियों में से 1 या उससे कम को प्रभावित करती है, तो उसे दुर्लभ के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
  • प्रकार: आनुवंशिक विकार (जैसे- स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी, डचेन मस्कुलर डिस्ट्रॉफी), दुर्लभ कैंसर रोग, उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग, अपक्षयी और स्वप्रतिरक्षी विकार आदि।

दुर्लभ रोगों के लिए राष्ट्रीय नीति, 2021

  • दुर्लभ रोगों का वर्गीकरण: दुर्लभ रोगों को तीन समूहों में वर्गीकृत किया गया है-
    • समूह 1: एक बार का उपचारात्मक उपचार उपलब्ध है।
    • समूह 2: आजीवन/दीर्घकालिक उपचार की आवश्यकता, कम लागत के साथ।
    • समूह 3: उच्च लागत, आजीवन उपचार जिसमें रोगी चयन संबंधी चुनौतियाँ हैं।
  • वित्तीय सहायता: अधिसूचित उत्कृष्टता केंद्रों (CoEs) में प्रति मरीज 50 लाख रुपये तक, राष्ट्रीय आरोग्य निधि (RAN) योजना से अलग, जो अधिकतम 20 लाख रुपये प्रदान करती है।
  • उत्कृष्टता केंद्र (CoE): 12 CoE की पहचान की गई, प्रमुख सरकारी अस्पताल।
  • राष्ट्रीय रजिस्ट्री: डेटा एकत्र करने और दुर्लभ बीमारियों में अनुसंधान का समर्थन करने के लिए एक अस्पताल-आधारित राष्ट्रीय रजिस्ट्री विकसित की जा रही है।
    • पंजीकरण के तुरंत बाद उपचार शुरू हो जाता है।
  • नैदानिक सहायता: नैदानिक केंद्र आनुवंशिक परीक्षण एवं परामर्श प्रदान करते हैं।
  • कर छूट: दुर्लभ बीमारियों के लिए आयातित दवाओं पर GST और सीमा शुल्क माफ किया जाता है।
  • अनुसंधान और औषधि विकास: राष्ट्रीय अनुसंधान, विकास एवं प्रौद्योगिकी परिषद (NCRDTRD) सस्ती कीमतों पर अनुसंधान और विकास तथा स्थानीय दवा निर्माण को बढ़ावा देता है।

दुर्लभ रोग से ग्रस्त रोगियों द्वारा अनिवार्य लाइसेंस की माँग के कारण

  • दवा की कीमतें: रिस्डिप्लाम (स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी के लिए) और ट्राइकाफ्टा (सिस्टिक फाइब्रोसिस के लिए) जैसी आयातित दवाइयों की कीमत तीन महीने के कोर्स के लिए 70 लाख रुपये तक हो सकती है।
    • विदेश से आने वाली सस्ती जेनेरिक दवाइयाँ भी अधिकांश भारतीय परिवारों के लिए वहनीय नहीं हैं।
  • सरकारी कोष की सीमा: दुर्लभ रोग नीति 2021 के तहत, दुर्लभ रोगों के लिए अधिसूचित उत्कृष्टता केंद्रों (CoE) में उपचार के लिए प्रति मरीज 50 लाख रुपये तक की वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
  • आयात पर निर्भरता: परिवार दवाएँ मँगाने के लिए विदेश में रहने वाले भारतीयों से संपर्क करने के लिए सोशल मीडिया पर निर्भर रहते हैं।
  • बाजार में विलंबित प्रवेश: कुछ फार्मा कंपनियाँ, जैसे- वर्टेक्स फार्मास्यूटिकल्स, भारत में पेटेंट तो प्राप्त कर लेती हैं, लेकिन दवा का पंजीकरण या बिक्री नहीं करती हैं, जिससे जीवन रक्षक दवाओं तक उनकी पहुँच सीमित हो जाती है, जबकि एकाधिकार उनके पास बना रहता है।

अनिवार्य लाइसेंसिंग से संबंधित मुद्दे

  • व्यापार और कूटनीतिक दबाव: पेटेंट लाइसेंस जारी करने वाले देशों को विकसित देशों और दवा कंपनियों की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ सकता  (उदाहरण के लिए, USTR ने नेक्सावर पेटेंट लाइसेंस के बाद भारत को प्राथमिकता निगरानी सूची में रखा) है।
  • नवाचार को हतोत्साहित करना: पेटेंट धारकों का तर्क है कि पेटेंट लाइसेंस अनुसंधान और विकास प्रोत्साहन को कमजोर करता है और वैश्विक IP व्यवस्था को कमजोर करता है।
    • पेटेंट लाइसेंस पर अत्यधिक निर्भरता स्वैच्छिक लाइसेंसिंग और विदेशी निवेश को रोक सकती है, साथ ही इसके वाणिज्यिक लाभ के लिए उपयोग किए जाने की आशंका भी है।
  • जटिल कानूनी प्रक्रियाएँ: पेटेंट लाइसेंस के लिए आवेदन करना और उसे प्रदान करना एक लंबी, नौकरशाही प्रक्रिया है, जिससे महत्त्वपूर्ण दवाओं तक समय पर पहुँच में विलंब होता है।
    • कानूनी रूप से अनुमति दिए जाने के बावजूद, भारत ने राजनीतिक सावधानी और संस्थागत जड़ता के कारण केवल एक पेटेंट लाइसेंस (नेटको-बेयर मामला, 2012) जारी किया है।
  • सीमित विनिर्माण क्षमता: पेटेंट लाइसेंस दिए जाने के बाद सभी स्थानीय फर्मों के पास पेटेंट दवाओं का प्रभावी ढंग से उत्पादन करने की तकनीकी या अवसंरचनात्मक क्षमता नहीं होती है।
  • रॉयल्टी और मुआवजा विवाद: ‘उचित पारिश्रमिक’ का निर्धारण करने से प्रायः कानूनी विवाद उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे वहनीयती विकल्पों की समय पर उपलब्धता प्रभावित होती है।

आगे की राह 

  • दुर्लभ रोग से ग्रसित रोगियों के लिए जीवन रक्षक दवाओं तक पहुँच सुनिश्चित करना
  • मूल्य विनियमन और सामान्य प्रतिस्थापन
    • राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (National Pharmaceutical Pricing Authority) के तहत पेटेंट दवाओं पर मूल्य सीमा लागू करना।
    • स्थानीय उत्पादन बढ़ने तक विश्वसनीय स्रोतों से कम लागत वाली जेनेरिक दवाओं के आयात और लाइसेंसिंग को प्रोत्साहित करना।
  • अनिवार्य लाइसेंसिंग (Compulsory Licensing का सक्रिय उपयोग
    • सरकार और न्यायालयों को अत्यधिक अफोर्डेबिलिटी और सार्वजनिक स्वास्थ्य आवश्यकता के मामलों में, विशेष रूप से ग्रुप 3 की दुर्लभ बीमारियों के लिए, पेटेंट अधिनियम की धारा 84 और धारा 92 को सक्रिय रूप से लागू करना चाहिए।
  • मरीजों के लिए वित्तीय सहायता बढ़ाना
    • दुर्लभ रोगों के लिए राष्ट्रीय नीति के अंतर्गत वित्तीय सहायता का विस्तार निम्नलिखित तरीकों से किया जाएगा:
      • 50 लाख रुपये से ऊपर की सीमा बढ़ाना, विशेषतः ग्रुप 3 की बीमारियों के लिए
      • CSR फंड, क्राउडफंडिंग प्लेटफॉर्म और राज्य के योगदान को एक साथ लाना।
  • स्वदेशी अनुसंधान एवं विकास तथा औषधि विकास को बढ़ावा देना
    • दुर्लभ रोगों के लिए चिकित्सा विज्ञान के अनुसंधान एवं विकास के लिए राष्ट्रीय संघ (NCRDTRD) के लिए वित्त पोषण में वृद्धि करना।
    • अकादमिक संस्थानों और स्टार्ट-अप्स को फास्ट-ट्रैक परीक्षणों और विनियामक समर्थन के साथ दवाओं को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करना।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग
    • विकासशील देशों के बीच किफायती चिकित्सीय नवाचारों को साझा करने के लिए दक्षिण-दक्षिण सहयोग का लाभ उठाना।
    • पेटेंट पूल समझौतों पर वार्ता करना ताकि वे मेडिसिन पेटेंट पूल (Medicines Patent Pool- MPP) जैसी वैश्विक पहलों में शामिल हों सके।
  • न्यायिक संवेदनशीलता और नीति संरेखण
    • न्यायालयों को IP कानून की व्याख्या अधिकार-आधारित दृष्टिकोण से करनी चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि स्वास्थ्य तक पहुँच को लाभ से अधिक प्राथमिकता दी जाए।
    • दुर्लभ बीमारी के मामलों में अनिवार्य लाइसेंसिंग के लिए फास्ट-ट्रैक अनुमोदन तंत्र के माध्यम से कानूनी प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना। एक सुसंगत राष्ट्रीय ढाँचे के तहत IP, स्वास्थ्य और दवा नीति को संरेखित करना।
  • निष्कर्ष: भारत में दुर्लभ बीमारी के रोगियों के स्वास्थ्य के अधिकार को बनाए रखने के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग जैसे कानूनी साधनों को नीतिगत सुधारों, विनिर्माण क्षमता और वित्तीय सहायता के साथ संयोजित करने वाला एक मजबूत और सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण आवश्यक है।
    • सरकार, न्यायपालिका, उद्योग और नागरिक समाज को समानता, सामर्थ्य और पहुँच सुनिश्चित करने के लिए मिलकर कार्य करना चाहिए।

संदर्भ

भारत का लक्ष्य वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म आधारित विद्युत ऊर्जा स्थापित क्षमता प्राप्त करना है, जिसमें पवन ऊर्जा से 100 गीगावाट ऊर्जा प्राप्त करना शामिल है।

  • यद्यपि विस्तार आवश्यक है, लेकिन बड़ी चुनौतियाँ पवन ऊर्जा क्षेत्र में साइबर सुरक्षा, स्थानीयकरण और नवाचार में हैं।

पवन ऊर्जा के बारे में

  • पवन ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा का एक रूप है जो पवन टर्बाइन नामक उपकरणों का उपयोग करके पवन की गतिज ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करके उत्पन्न की जाती है।
    • जैसे ही पवन टरबाइन के ब्लेडों को घुमाती है, यह विद्युत उत्पन्न करने के लिए जनरेटर शाफ्ट को घुमाती है।
  • पवन ऊर्जा के प्रकार
    • तटीय पवन ऊर्जा: भूमि पर स्थापित टर्बाइन के माध्यम से प्राप्त की जाती है।
    • अपतटीय पवन ऊर्जा: समुद्र या महासागर के जल में स्थापित टर्बाइन के माध्यम से प्राप्त की जाती है जो आमतौर पर मजबूत, स्थिर पवनों के कारण अधिक कुशल होते हैं।

भारत में पवन ऊर्जा की वर्तमान स्थिति

  • स्थापित पवन ऊर्जा क्षमता: 50.04 गीगावाट (नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, 2025 अप्रैल डेटा के अनुसार)।
  • भारत के ऊर्जा उत्पादन में हिस्सा: पवन ऊर्जा भारत की कुल स्थापित विद्युत उत्पादन क्षमता का लगभग 10% है।
  • भारत की रैंक (वैश्विक): स्थापित पवन क्षमता में चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका और जर्मनी के बाद भारत चौथा सबसे बड़ा देश है।
  • राज्यवार पवन क्षमता वृद्धि: भारत ने वर्ष 2024 में 3.4 गीगावाट की नई पवन क्षमता जोड़ी है, जिसमें गुजरात (1,250 मेगावाट), कर्नाटक (1,135 मेगावाट) और तमिलनाडु (980 मेगावाट) सबसे आगे हैं।
    • इन राज्यों में नई पवन ऊर्जा क्षमता में 98% वृद्धि हुई है।
  • COP-26 (ग्लासगो, 2021)- पंचामृत प्रतिबद्धता: भारत वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म आधारित विद्युत क्षमता हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है।
    • इसमें से 100 गीगावाट से अधिक पवन ऊर्जा (ऑनशोर + ऑफशोर) से हासिल करने का लक्ष्य है।

पवन ऊर्जा के लाभ

  • स्वच्छ और नवीकरणीय: कार्बन उत्सर्जन को कम करता है, जिससे पेरिस समझौते के तहत भारत के NDC को प्राप्त करने में मदद मिलती है।
  • उच्च क्षमता: भारत में अनुमानित पवन ऊर्जा क्षमता 300 गीगावाट से अधिक है।
  • ग्रामीण विकास: पवन फार्म रोजगार उत्पन्न करते हैं, स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देते हैं और गैर-कृषि योग्य भूमि का उपयोग करते हैं।

पवन ऊर्जा क्षेत्र में चुनौतियाँ

  • भूमि और ट्रांसमिशन मुद्दे: उच्च पवन क्षेत्रों में सन्निहित भूमि अधिग्रहण में कठिनाइयाँ और ट्रांसमिशन अवसंरचना का अभाव।
  • ग्रिड एकीकरण: पवन पैटर्न में परिवर्तनशीलता ग्रिड स्थिरता और ऊर्जा पूर्वानुमान के लिए चुनौतियाँ उत्पन्न करती है।
  • पुरानी अवसंरचना और कम क्षमता वाली टर्बाइनें: तमिलनाडु में, एक प्रमुख पवन ऊर्जा केंद्र है, कई टर्बाइन, जिनमें से कुछ 30 वर्ष से अधिक पुरानी हैं, अभी भी चालू हैं और अपनी समाप्ति के करीब हैं।
    • राज्य में लगभग 20,000 टर्बाइनों में से लगभग 10,000 लघु टर्बाइन हैं, जिनकी क्षमता 1 मेगावाट से कम है, जिससे उत्पादकता में काफी कमी आ रही है।
  • साइबर सुरक्षा जोखिम: पर्यवेक्षी नियंत्रण और डेटा अधिग्रहण (Supervisory Control and Data Acquisition-SCADA) प्रणाली और पवन फर्मों की ‘रिमोट-कंट्रोल सुविधाएँ’ हैकिंग के प्रति संवेदनशील हैं।
  • विदेशी नियंत्रण जोखिम: विदेशी मूल उपकरण निर्माताओं (OEM) द्वारा रिमोट एक्सेस रणनीतिक जोखिम उत्पन्न करता है। भारत के बाहर डेटा भंडारण राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताएँ उत्पन्न करता है।
  • आयात निर्भरता: आयातित टर्बाइन घटकों पर अत्यधिक निर्भरता आत्मनिर्भरता को कम करती है और लागत बढ़ाती है।
    • आयातित मॉडल, हीट वेव (> 45 डिग्री सेल्सियस), तटीय पवन, मानसून, ग्रिड वोल्टेज में उतार-चढ़ाव आदि जैसी स्थितियों का सामना करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं।
  • स्वदेशी अनुसंधान एवं विकास का अभाव: अधिकांश मूल उपकरण निर्माता (OEM) यहाँ केवल असेंबली तक सीमित हैं, जबकि नवाचार और प्रौद्योगिकी विकास में उनकी भागीदारी न्यूनतम है। स्थानीय अनुसंधान एवं विकास के इस अभाव के कारण भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप अनुकूलित प्रौद्योगिकियों का विकास बाधित होता है।

पवन ऊर्जा क्षेत्र के विकास और विस्तार के लिए प्रस्तावित नीतिगत उपाय

  • अनिवार्य डेटा स्थानीयकरण: विदेशी निगरानी या साइबर हमलों को रोकने के लिए सभी परिचालन पवन टर्बाइन डेटा को भारतीय क्षेत्र में संग्रहीत किया जाना चाहिए।
  • विदेशी दूरस्थ पहुँच पर प्रतिबंध: OEM सहित विदेशी संस्थाओं को अब भारतीय पवन फार्मों तक दूरस्थ रूप से पहुँचने या उन्हें नियंत्रित करने की अनुमति नहीं होगी।
  • स्थानीय नवाचार: भारत की विविध जलवायु परिस्थितियों के अनुरूप अनिवार्य अनुसंधान एवं विकास सुविधाएँ और प्रोटोटाइप परीक्षण लागू किए जाने चाहिए।
    • पवन टर्बाइन के डिजाइन को ‘भारत के लिए इंजीनियर’ दृष्टिकोण के तहत भारतीय परिचालन चुनौतियों के अनुरूप बनाया जाना चाहिए।
  • भारतीय प्राधिकारियों द्वारा प्रमाणन: सभी विक्रेताओं और OEM को देश में परिचालन की अनुमति देने से पहले भारतीय नियामक निकायों से सुरक्षा और परिचालन मंजूरी प्राप्त करनी होगी।

भारत में पवन ऊर्जा के विकास के लिए सरकारी पहल

  • राष्ट्रीय पवन-सौर हाइब्रिड नीति, 2018: पवन और सौर उत्पादन को मिलाकर इष्टतम भूमि उपयोग को प्रोत्साहित करती है।
  • राष्ट्रीय अपतटीय पवन ऊर्जा नीति: भारतीय अनन्य आर्थिक क्षेत्र (EEZ) में 7600 किलोमीटर की भारतीय तटरेखा के साथ अपतटीय पवन ऊर्जा विकसित करना।
  • अपतटीय पवन परियोजनाओं के लिए VGF योजना: सरकार ने भारत की पहली अपतटीय पवन परियोजनाओं के 1 गीगावाट-गुजरात और तमिलनाडु में 500 मेगावाट को विकसित करने के लिए व्यवहार्यता अंतर वित्तपोषण (VGF) योजना के तहत 7,453 करोड़ रुपये मंजूर किए।
  • राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान (NIWE) द्वारा पवन एटलस: राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान (NIWE) ने ऑनलाइन भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) प्लेटफॉर्म पर जमीनी स्तर से 100 मीटर ऊपर भारत का पवन ऊर्जा संसाधन मानचित्र और जमीनी स्तर पर सौर विकिरण मानचित्र लॉन्च किया है।

आगे की राह 

  • भारत-विशिष्ट डिजाइन अनुकूलन: भारत की विविध पवन व्यवस्थाओं, विशेष रूप से कम से मध्यम पवन गति वाले क्षेत्रों के लिए अनुकूलित पवन टर्बाइन प्रौद्योगिकियों के विकास को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
  • हाइब्रिड एकीकरण: पवन प्रणालियों को इस तरह से डिजाइन किया जाना चाहिए कि उन्हें सौर और भंडारण प्रणालियों के साथ आसानी से एकीकृत किया जा सके, जिससे हाइब्रिड अक्षय ऊर्जा पार्कों के लिए भारत के प्रयासों को समर्थन मिले।
  • स्वदेशी अनुसंधान एवं विकास: स्थानीय भूभाग और सामाजिक-आर्थिक संदर्भों के अनुकूल लागत प्रभावी, मॉड्यूलर पवन समाधान विकसित करने के लिए भारतीय अनुसंधान संस्थानों और उद्योग के बीच सहयोग को मजबूत करना।

निष्कर्ष 

भारत का पवन ऊर्जा भविष्य सिर्फ पैमाने पर ही नहीं, बल्कि इस बात पर भी निर्भर करता है कि यह क्षेत्र कितना सुरक्षित, लचीला और आत्मनिर्भर है। भारत के स्वच्छ ऊर्जा दृष्टिकोण की रक्षा के लिए निष्क्रिय असेंबली प्रक्रिया से सक्रिय नवाचार और साइबर सुरक्षा की ओर परिवर्तन आवश्यक है।

संदर्भ

भारतीय प्रधानमंत्री ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए आपदा रोधी अवसंरचना पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (2025) को संबोधित किया।

आपदा रोधी अवसंरचना (Disaster Resilient Infrastructure-DRI) के बारे में

  • DRI का तात्पर्य बुनियादी ढाँचे की प्रणालियों (भवन, सड़कें, विद्युत ग्रिड, आदि) से है, जो प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं (जैसे- चक्रवात, भूकंप, बाढ़) का सामना करने, उनसे अनुकूलन करने और उनसे जल्दी उबरने के लिए डिजाइन की गई हैं।
  • आपदा जोखिम बुनियादी ढाँचे पर वैश्विक पहल
    • आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना गठबंधन (Coalition for Disaster Resilient Infrastructure-CDRI): भारत द्वारा वर्ष 2019 प्रारंभ किया गया।
    • संयुक्त राष्ट्र की ‘सभी के लिए प्रारंभिक चेतावनी’: वर्ष 2027 तक प्रत्येक व्यक्ति की सुरक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया गया।
    • OECD की प्रतिरोधी अवसंरचना नीति: अनुकूली परिवहन नेटवर्क पर G20 देशों का मार्गदर्शन करती है।
    • आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंडाई फ्रेमवर्क (2015-2030)

आपदा रोधी अवसंरचना पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (International Conference on Disaster Resilient Infrastructure-ICDRI) 2025 

  • ICDRI आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना गठबंधन (CDRI) का प्रमुख वार्षिक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन है।
  • यह नीति निर्माताओं, विशेषज्ञों, चिकित्सकों और हितधारकों के लिए आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना पर ज्ञान और सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के लिए एक वैश्विक मंच के रूप में कार्य करता है।
  • यह अनुसंधान, क्षमता निर्माण और तकनीकी सहायता के माध्यम से मजबूत अवसंरचना प्रणालियों के निर्माण में देशों का समर्थन करता है।
  • वर्ष 2025 में ICDRI का 7वाँ संस्करण था, जिसे पहली बार फ्राँस सरकार के सहयोग से यूरोप (नाइस, फ्राँस) में आयोजित किया गया था।
  • थीम: ‘तटीय क्षेत्रों के लिए एक लचीले भविष्य को आकार देना’ (Shaping a Resilient Future for Coastal Regions)- जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील लघु द्वीपीय विकासशील राष्ट्रों (Small Island Developing States-SIDS) और तटीय समुदायों पर ध्यान केंद्रित करना।

भारत की पाँच प्रमुख प्राथमिकताएँ

  • शिक्षा: कुशल कार्यबल निर्माण के लिए उच्च शिक्षा में आपदा लचीलापन एकीकृत करना।
  • ग्लोबल डिजिटल रिपॉजिटरी: आपदा के बाद पुनर्निर्माण के लिए सर्वोत्तम प्रथाओं का दस्तावेजीकरण करना।
  • नवाचारपूर्ण वित्तपोषण: सुनिश्चित करना कि विकासशील राष्ट्र लचीले बुनियादी ढाँचे के लिए धन तक पहुँच प्राप्त कर सकें।
  • ‘बड़े महासागरीय देशों’ के रूप में SIDS: उनकी समस्याओं पर विशेष ध्यान देना।
  • पूर्व चेतावनी प्रणाली: आपदा प्रतिक्रिया के लिए समय पर समन्वय को मजबूत करना।

आपदा रोधी अवसंरचना गठबंधन (CDRI) के बारे में

  • वर्ष 2019 में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा संयुक्त राष्ट्र जलवायु कार्रवाई शिखर सम्मेलन, न्यूयॉर्क में लॉन्च किया गया।
  • यह एक बहु-हितधारक वैश्विक साझेदारी है जिसका उद्देश्य जलवायु एवं आपदा जोखिमों के लिए बुनियादी ढाँचे की प्रणालियों के लचीलेपन को बढ़ावा देना है।
  • मुख्यालय: CDRI सचिवालय का मुख्यालय नई दिल्ली, भारत में है।
  • सदस्य: 46 सदस्य देश और 8 भागीदार संगठन।
  • कार्य
    • यह आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंडाई फ्रेमवर्क (2015-2030) के अनुरूप है।
    • SDG 9 (उद्योग, नवाचार और अवसंरचना) और SDG 13 (जलवायु कार्रवाई) को प्राप्त करने में योगदान देता है।
    • विकासशील और जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण अवसंरचना की भेद्यता को संबोधित करता है।
  • CDRI की पहल
    • IRIS कार्यक्रम: CDRI के इंफ्रास्ट्रक्चर फॉर रेसिलिएंट आइलैंड स्टेट्स (Infrastructure for Resilient Island States-IRIS) कार्यक्रम को COP26, ग्लासगो, 2021 में लॉन्च किया गया था, ताकि लघु द्वीपीय विकासशील राष्ट्रों (SIDs) में बुनियादी ढाँचा प्रणालियों के लचीलापन को बढ़ाया जा सके।
    • ग्लोबल इंफ्रास्ट्रक्चर रेसिलिएंस इंडेक्स (Global Infrastructure Resilience Index-GIRI): विद्युत और ऊर्जा, परिवहन, दूरसंचार और जल जैसे प्रमुख बुनियादी ढाँचे के क्षेत्रों में लचीलापन मापता है।
    • इंफ्रास्ट्रक्चर रेसिलिएंस एक्सेलेरेटर फंड (Infrastructure Resilience Accelerator Fund-IRAF): सदस्य देशों में तकनीकी सहायता और क्षमता निर्माण का समर्थन करने के लिए वर्ष 2022 में लॉन्च किया गया।
    • आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (International Conference on Disaster Resilient Infrastructure-ICDRI): यह वार्षिक प्रमुख कार्यक्रम है। यह नीति निर्माताओं, इंजीनियरों, शोधकर्ताओं के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए एक मंच है।
    • ग्लोबल इंफ्रास्ट्रक्चर रेसिलिएंस प्रोग्राम (Global Infrastructure Resilience Program-GIRP): ज्ञान प्रसार के लिए CDRI के तहत तकनीकी कार्यक्रम है।

आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना का महत्त्व

  • मानव जीवन की रक्षा: लचीला बुनियादी ढाँचा (जैसे- भूकंप-रोधी इमारतें, चक्रवात आश्रय) आपदाओं के दौरान होने वाली मौतों को कम करता है।
  • आर्थिक नुकसान को कम करना: आपदाओं के कारण प्रतिवर्ष $2.3 ट्रिलियन का अप्रत्यक्ष नुकसान होता है (जैसे- आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान, उत्पादकता में कमी)।
  • जलवायु परिवर्तन अनुकूलन: DRI बाढ़ (पारगम्य फुटपाथ), वनाग्नि (अग्नि-रोधी सामग्री) और तूफान जैसे बढ़ते खतरों को संबोधित करता है।
  • तटीय और SIDS भेद्यता: लघु द्वीपीय विकासशील राज्य (SIDS), जिन्हें भारत द्वारा ‘बड़े महासागरीय देश’ (Large Ocean Countries) कहा जाता है, अस्तित्व संबंधी खतरों का सामना करते हैं।
  • सतत् विकास और समानता: लचीला बुनियादी ढाँचा हाशिए पर स्थित समूहों के लिए महत्त्वपूर्ण सेवाओं (स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा) की निरंतरता सुनिश्चित करता है।
    • विकासशील देश, जो आपदाओं के कारण सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 46% की हानि महसूस करते हैं (उत्तरी अमेरिका में यह हानि 0.23% है), DRI वित्तपोषण (जैसे- ग्रीन क्लाइमेट फंड) से लाभान्वित होते हैं।

आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना में भारत सरकार की पहल

  • पीएम गति शक्ति- राष्ट्रीय मास्टर प्लान (2021): 16 मंत्रालयों की बुनियादी ढाँचे की योजना को एकीकृत करने वाला एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है।
    • आपदा और जलवायु तन्यता को मुख्य उद्देश्य मानते हुए समन्वित अवसंरचना विकास को बढ़ावा देता है।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (National Disaster Management Plan-NDMP), 2016: सेंडाई फ्रेमवर्क के साथ संरेखित पहली राष्ट्रीय योजना है।
    • महत्त्वपूर्ण अवसंरचना क्षेत्रों (ऊर्जा, परिवहन, जल, दूरसंचार) में जोखिम कम करने पर ध्यान केंद्रित करना। आपदा के बाद पुनर्निर्माण में बेहतर निर्माण को बढ़ावा देता है।
  • आपदा प्रतिरोधक क्षमता के लिए BIS मानक: भारतीय मानक ब्यूरो ने संरचनात्मक कोड विकसित किए हैं (जैसे- भूकंप-रोधी डिजाइन के लिए IS 1893)।
    • भूकंपीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण के लिए अनिवार्य है। इसमें चक्रवात, भूस्खलन और बाढ़-प्रवण क्षेत्रों के लिए कोड शामिल हैं।
  • अमृत ​​2.0 और स्मार्ट सिटी मिशन: जलवायु जोखिमों (स्टॉर्म वाटर निकासी, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली) के प्रति तन्यता के साथ शहरी बुनियादी ढाँचे को उन्नत किया गया।
    • स्मार्ट सिटी आपदा प्रबंधन प्रणालियों को एकीकृत करती हैं, जैसे कि कमांड और कंट्रोल सेंटर।
  • जल जीवन मिशन और नमामि गंगे: विशेष रूप से सूखा/बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में लचीले जल बुनियादी ढाँचे पर ध्यान केंद्रित करना।
    • नदी पुनरुद्धार प्रयासों में आपदा न्यूनीकरण घटक शामिल हैं।
  • आपदा प्रतिरोधी विद्युत प्रणालियाँ: पुनर्निर्मित वितरण क्षेत्र योजना (Revamped Distribution Sector Scheme-RDSS) में आपदा प्रतिरोध के लिए भूमिगत केबलिंग और स्मार्ट मीटर शामिल हैं।
  • NAPCC के तहत जलवायु लचीला बुनियादी ढाँचा: जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (जैसे- सतत् आवास पर राष्ट्रीय मिशन) के तहत मिशन लचीले शहरी नियोजन को बढ़ावा देते हैं।
  • क्षमता निर्माण और जोखिम मूल्यांकन उपकरण: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (NIDM) प्रशिक्षण और नीति परामर्श आयोजित करता है।
    • जलवायु लचीला अवसंरचना सेवा कार्यक्रम (CRISP) जैसे उपकरण नगर-स्तरीय लचीलापन योजना को बढ़ावा देते हैं।

आपदा-रोधी अवसंरचना (DRI) अपनाने में चुनौतियाँ

  • निर्माण की उच्च लागत: मौजूदा बुनियादी ढाँचे को पुनः तैयार करने या नई लचीली प्रणालियों के निर्माण के लिए पर्याप्त निवेश की आवश्यकता होती है।
    • उदाहरण के लिए, बाढ़-रोधी निर्माण की लागत पारंपरिक तरीकों की तुलना में 30-50% अधिक हो सकती है।
  • फंडिंग गैप: विकासशील राष्ट्र और लघु द्वीपीय विकासशील राष्ट्र (SIDS) वित्त प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं। वैश्विक आपदा फंडिंग का केवल 5% आपदा-पूर्व तन्यता के लिए आवंटित किया जाता है।
  • कमजोर विनियामक ढाँचा और प्रवर्तन: कई क्षेत्रों में लचीलेपन के लिए लागू करने योग्य भवन संहिताओं का अभाव है।
    • भारत में, अनधिकृत निर्माण और पुराने नियम जोखिम को बढ़ाते हैं।
  • नीति विखंडन: विभिन्न क्षेत्रों (जैसे- शहरी नियोजन, ऊर्जा, परिवहन) में असंगत नीतियाँ एकजुट DRI कार्यान्वयन में बाधा डालती हैं।
  • तकनीकी और भौतिक सीमाएँ: डायरेक्ट रिड्यूस्ड आयरन (DRI) स्टीलमेकिंग के लिए 67% से अधिक लौह (Fe)-सामग्री वाले लौह अयस्क की आवश्यकता होती है, जो दुर्लभ और महंगा है।
  • सामाजिक और संस्थागत प्रतिरोध: नीति निर्माता और समुदाय प्रायः दीर्घकालिक लचीलेपन की तुलना में अल्पकालिक लाभ को प्राथमिकता देते हैं।
    • मुंबई और दिल्ली में खतरे की आशंका वाले क्षेत्रों में शहरी विस्तार और झुग्गी-झोपड़ियाँ राजनीतिक और आर्थिक दबावों के कारण बनी हुई हैं।
  • जलवायु अनिश्चितता और जोखिम मूल्यांकन: मिश्रित आपदाओं (जैसे- बाढ़ एवं भूस्खलन) की बढ़ती आवृत्ति लचीलापन योजना को जटिल बनाती है।

आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंडाइ फ्रेमवर्क (2015–2030)

  • आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंडाई फ्रेमवर्क (2015-2030) आपदा जोखिमों को कम करने और लचीलापन बढ़ाने के लिए वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाया गया एक 15 वर्षीय वैश्विक समझौता है।
  • इसने ह्योगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन (2005-2015) का स्थान लिया है और पेरिस समझौते एवं सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) जैसे अन्य वैश्विक एजेंडों के साथ संरेखित है।  

सेंडाइ फ्रेमवर्क के प्रमुख घटक

  • कार्रवाई के लिए चार प्राथमिकताएँ निर्धारित की गई हैं; यह रूपरेखा आपदा जोखिम न्यूनीकरण (DRI) प्रयासों के मार्गदर्शन के लिए चार प्राथमिकता क्षेत्रों की पहचान करती है:-
    • आपदा जोखिम को समझना: जोखिम मूल्यांकन पर ध्यान केंद्रित करता है, जिसमें भेद्यता, जोखिम और जोखिम विश्लेषण शामिल है।
    • आपदा जोखिम शासन को मजबूत करना: नीतियों, कानूनों और बहु-हितधारक सहयोग को बढ़ावा देता है।
    • लचीलेपन के लिए DRR में निवेश करना: संरचनात्मक (जैसे- बाढ़ अवरोध) और गैर-संरचनात्मक (जैसे- प्रारंभिक चेतावनी) उपायों में सार्वजनिक/निजी निवेश को प्रोत्साहित करता है।
    • तैयारी बढ़ाना और ‘बेहतर तरीके से पुनर्निर्माण करना’: प्रतिक्रिया प्रणालियों में सुधार करना और आपदा के बाद की रिकवरी में DRR को एकीकृत करना इसका उद्देश्य है।
  • UNDRR की भूमिका: आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (UNDRR) ‘सेंडाई फ्रेमवर्क मॉनिटर’ के माध्यम से वैश्विक प्रगति निगरानी का समन्वय करता है।
  • SDG से संबंध: स्पष्ट रूप से SDG 13 (जलवायु कार्रवाई) और SDG 11 (सतत् शहर) से संबंधित है।

आगे की राह 

  • नीति और शासन ढाँचे को मजबूत करना: DRI अनुपालन को राष्ट्रीय भवन संहिताओं में एकीकृत करना (उदाहरण के लिए, भारत का आपदा प्रबंधन संशोधन अधिनियम 2025 शहरी नियोजन में लचीलापन अनिवार्य करता है)।
  • स्थानीयकृत आपदा प्रबंधन: विकेंद्रीकृत कार्रवाई के लिए जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों (District Disaster Management Authorities-DDMA) को सशक्त बनाना।
    • उच्च जोखिम वाले शहरों में शहरी आपदा प्रबंधन प्राधिकरण स्थापित करना (जैसे– मुंबई की बाढ़-रोधी तटीय सड़क परियोजना)।
  • प्रौद्योगिकी और नवाचार का लाभ उठाना: बाढ़, चक्रवात और भूस्खलन को शामिल करने के लिए भारत की सुनामी चेतावनी प्रणाली (जिससे 29 देशों को लाभ होगा) का विस्तार करना।
    • AI-संचालित जोखिम मॉडलिंग का उपयोग करना (उदाहरण के लिए, हैदराबाद के बाढ़ पूर्वानुमान उपकरण)।
  • वित्तपोषण और निवेश को बढ़ावा देना: सार्वजनिक निधियों को निजी पूँजी के साथ जोड़ना (उदाहरण के लिए, लघु द्वीपीय राष्ट्रों के लिए CDRI का $50M फंड)।
    • कम कार्बन वाली DRI प्रौद्योगिकियों को सब्सिडी देना (जैसे– हाइड्रोजन का उपयोग करके भारत के ₹4.55B ग्रीन स्टील पायलट)।
  • उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना: लघु द्वीपीय देशों को ‘बड़े महासागरीय देशों’ के रूप में समझना और उनके लिए अनुकूलित समाधान (जैसे- 25 SIDS के लिए CDRI का IRIS कार्यक्रम) अपनाना।
    • तटीय और द्वीपीय देशों में तूफानी लहरों को कम करने के लिए प्रकृति-आधारित समाधानों (मैंग्रोव, प्रवाल भित्तियों) में निवेश करना।
  • क्षमता निर्माण और वैश्विक सहयोग: विश्वविद्यालयों में DRI पाठ्यक्रमों को एकीकृत करना। समुदाय के पहले उत्तरदाताओं को प्रशिक्षित करना (जैसे– भारत के आपदा मित्र स्वयंसेवक)।
    • CDRI की सदस्यता (54 से अधिक राष्ट्र) का विस्तार करना ताकि अधिक अफ्रीकी और द्वीपीय देशों को शामिल किया जा सके।

निष्कर्ष

DRI को अपनाने के लिए नीतिगत सुसंगतता, अत्याधुनिक तकनीक, सतत् वित्तपोषण और समावेशी शासन की आवश्यकता है। भारत का CDRI नेतृत्व और वैश्विक भागीदारी विशेषतः कमजोर तटीय और द्वीपीय देशों के लिए एक लचीले भविष्य को आकार दे रही है।

संदर्भ

हाल ही में एक शोध पत्र ‘कृषि वानिकी: हरित संरक्षक’ (Agroforestry: The Green Guardian) प्रकाशित हुआ, जिसमें यह पता लगाया गया कि कृषि वानिकी को किसानों की आजीविका का समर्थन करने, कार्बन को पृथक करने और पूरे भारत में पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्स्थापित करने के लिए कैसे बढ़ाया जा सकता है।

कृषि वानिकी के बारे में

  • कृषि वानिकी एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें एक ही भूमि इकाई पर स्थानिक या कालक्रमानुसार फसलों और/या पशुधन के साथ वृक्षों एवं झाड़ियों का एकीकृत और उद्देश्यपूर्ण ढंग से उपयोग किया जाता है।
  • यह कृषि, वानिकी और पारिस्थितिक स्थिरता को एकीकृत करता है, घटकों के बीच सहक्रियात्मक अंतःक्रियाओं को बढ़ावा देता है।

कृषि वानिकी प्रणालियों के प्रकार

  • कृषि-वन-संवर्द्धन: वृक्ष + फसलें (जैसे- मक्का या दालों के साथ सागौन की फसल उगाना)।
    • मृदा की उर्वरता और फसल की पैदावार को बढ़ाता है।
  • सिल्विपैस्टोरल (Silvipastoral): पेड़ + चारागाह/पशुधन (जैसे- चरने वाले जानवरों के साथ सुबाबुल जैसे चारे के पेड़)।
    • पशुधन उत्पादकता और मृदा संरक्षण का समर्थन करता है।
  • कृषि-वन-पशुपालन: पेड़ + फसलें + पशुधन (जैसे- फलों के पेड़, फसलें और बकरियाँ)।
    • भूमि उत्पादकता और विविधीकरण को अधिकतम करता है।
  • घरेलू उद्यान: पेड़ों, झाड़ियों और फसलों (जैसे- केरल में नारियल, केला और सब्जियाँ) के साथ घरों के पास बहु-स्तरीय प्रणालियाँ।
    • खाद्य सुरक्षा और आय सुनिश्चित करता है।
  • अवनलिका फसल (Alley Cropping): अवनलिका में उगाई जाने वाली फसलों के साथ पेड़ों की पंक्तियाँ (जैसे- बाजरा के साथ ल्यूकेना)।
    • मृदा की संरचना और पोषक चक्रण में सुधार करता है।
  • वायुरोधक/आश्रय बेल्ट: फसलों को हवा से बचाने के लिए लगाए गए पेड़ (जैसे- खेत की सीमाओं के साथ नीलगिरी)।
    • मृदा के कटाव और फसल की क्षति को कम करता है।
  • पेड़ों के साथ मधुमक्खी पालन: परागण और शहद उत्पादन के लिए पेड़ों के साथ एकीकृत मधुमक्खी पालन।
    • जैव विविधता और आय को बढ़ाता है।

भारत में कृषि वानिकी

  • पारंपरिक जड़ें: केरल में घरेलू उद्यान, नगालैंड में जाबो खेती और राजस्थान में खेती-वाड़ी जैसी स्वदेशी प्रणालियाँ भारत की कृषि वानिकी विरासत को दर्शाती हैं।
  • वर्तमान कवरेज: कृषि वानिकी का अभ्यास 28.42 मिलियन हेक्टेयर पर किया जाता है, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्र (FSI, 2021) का 8.65% है।
    • वर्ष 2011-2021 के बीच वृक्ष आवरण में 490,400 हेक्टेयर की वृद्धि हुई।

भारत में कृषि वानिकी के सर्वोत्तम अभ्यास

  • पंजाब और हरियाणा में चिनार आधारित कृषि-वन-पालन: किसान कृषि चक्र (6-8 वर्ष) में गेहूँ, गन्ना और हल्दी जैसी फसलों के साथ तेजी से बढ़ने वाले चिनार के पेड़ों (पॉपुलस डेल्टोइड्स) को एकीकृत करते हैं।
    • कृषि वानिकी मृदा जैविक कार्बन (Soil Organic Carbon- SOC) को 0.62% (मोनोकल्चर) से बढ़ाकर 1.14% कर देती है और 10-15 tCO₂/ha/वर्ष (ICAR, 2020) को अलग कर देती है।
  • केरल और तमिलनाडु में नारियल आधारित होमगार्डन: बहु-स्तरीय प्रणालियाँ नारियल के पेड़ों को मसालों (काली मिर्च, जायफल), फलों (केला, आम) और सब्जियों के साथ जोड़ती हैं, जिससे वर्ष भर आय सुनिश्चित होती है।
    • जैव विविधता (जैसे- परागणकर्ता, पक्षी) और खाद्य सुरक्षा को बढ़ाता है, जिसमें 80% गृहस्थी घरेलू पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करती हैं (ICAR, 2019)।
  • ओडिशा और पूर्वोत्तर भारत में बांस आधारित कृषि वानिकी: बांस (जैसे- बम्बूसा बम्बोस) को बाजरा, दालों या सब्जियों के साथ उगाया जाता है, जिससे आजीविका और भूमि पुनर्स्थापन में सहायता मिलती है।
    • राष्ट्रीय बांस मिशन रोपण और प्रसंस्करण इकाइयों के लिए सब्सिडी प्रदान करता है।
  • राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में सिल्वी-पशुपालन प्रणाली: पशुओं के चरने के लिए चारण वृक्षों (जैसे- प्रोसोपिस सिनेरिया, बबूल निलोटिका) को चारागाहों के साथ एकीकृत किया जाता है, जिससे सूखे के प्रति लचीलापन बढ़ता है।
    • मृदा की उर्वरता में सुधार होता है (SOC  में 0.5-0.8% की वृद्धि होती है) और सूखे के मौसम के दौरान चारा उपलब्ध होता है (ICAR, 2020)।
  • बुंदेलखंड में किसान-प्रबंधित प्राकृतिक पुनर्जनन (Farmer Managed Natural Regeneration- FMNR): किसान खराब हो चुकी कृषि भूमि पर देशज पेड़ों के तने [जैसे- एनोगेइसस पेंडुला (Anogeissus Pendula), ब्यूटिया मोनोस्पर्मा (Butea Monosperma)] को पुनर्जीवित करते हैं, जिसके लिए न्यूनतम इनपुट की आवश्यकता होती है।
    • कृषि वानिकी पर उप-मिशन (Sub-Mission on Agroforestry- SMAF) और ‘डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स’ जैसे गैर सरकारी संगठनों द्वारा समर्थित, 10,000 से अधिक किसानों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
  • पश्चिमी घाट में कॉफी एवं सुपारी आधारित कृषि वानिकी: कॉफी और सुपारी के बागान छायादार पेड़ों (जैसे- सिल्वर ओक, कटहल) के नीचे उगाए जाते हैं, जो जैव विविधता और प्रीमियम बाजारों का समर्थन करते हैं।
    • 15-25 tCO₂/ha/वर्ष को एकत्रित करता है और मृदा की नमी को 20-30% तक बढ़ाता है (ICAR, 2021)।
  • नागालैंड में जाबो खेती: स्वदेशी जाबो प्रणाली, पेड़ों (जैसे- एल्डर, फलों के पेड़) और पहाड़ी क्षेत्रों में पशुधन को एकीकृत करती है, जिससे जल और मृदा का संरक्षण होता है।
    • 10-18 tCO₂/ha/वर्ष को एकत्रित करता है और स्थानीय खाद्य आवश्यकताओं का 90% बनाए रखता है (ICAR-NRC ऑन एग्रोफॉरेस्ट्री, 2022)।

भारत में कृषि वानिकी का महत्त्व एवं लाभ

  • आर्थिक महत्त्व
    • आय विविधीकरण: कई आय स्रोत प्रदान करता है: लकड़ी, फल, ईंधन की लकड़ी, चारा, NTFP (जैसे- बाँस, औषधीय पौधे)।
      • अकेले सागौन से 40-50 रुपये प्रति किलोग्राम की आय हो सकती है, जो समान परिस्थितियों में यूकेलिप्टस से 10 गुना अधिक है।
    • लकड़ी पर आत्मनिर्भरता: भारतीय वन अनुसंधान और शिक्षा परिषद (ICFRE) के अनुसार, भारत की 93 प्रतिशत से अधिक घरेलू लकड़ी ‘जंगलों के बाहर के पेड़ों’ से उत्पन्न होती है, जिनमें से अधिकांश कृषि वानिकी भूखंड हैं।
      • आयातित लकड़ी पर निर्भरता कम करता है; वर्ष 2023 में भारत का लकड़ी आयात बिल $2.7 बिलियन था।
    • संबद्ध उद्योगों के लिए सहायता: राष्ट्रीय स्तर पर 60% लुगदी की लकड़ी, 50% ईंधन की लकड़ी और 11% चारे की माँग की आपूर्ति करता है।
      • कृषि वानिकी का कच्चा माल कागज, फर्नीचर, निर्माण और पशुधन क्षेत्रों का समर्थन करता है।
  • पर्यावरणीय लाभ
    • कार्बन पृथक्करण: कृषि वानिकी प्रणालियाँ प्रजातियों और घनत्व के आधार पर 13.7-27.2 tCO₂/ha/वर्ष कार्बन पृथक्करण करती हैं।
      • बहुस्तरीय प्रणालियाँ वर्ष 2050 तक वैश्विक स्तर पर 23.94 GtCO₂e तक योगदान कर सकती हैं, जिससे उच्च लाभप्रदता प्राप्त हो सकती है।
    • उर्वरक पर निर्भरता कम होती है: कृषि वानिकी नाइट्रोजन-स्थिरीकरण वृक्षों को शामिल करके उर्वरक पर निर्भरता कम करती है, जो प्रति हेक्टेयर वार्षिक रूप से 50-100 किलोग्राम नाइट्रोजन की आपूर्ति कर सकते हैं।
    • मृदा स्वास्थ्य संवर्द्धन: पेड़ मृदा के कार्बनिक कार्बन (SOC) और संरचना में सुधार करते हैं।
      • उदाहरण के लिए, पंजाब में, पॉपलर कृषि वानिकी के तहत SOC 0.62% (मोनोकल्चर) से बढ़कर 1.14% हो गया।
    • जल प्रबंधन: पेड़ों की जड़ें जल के रिसाव को बढ़ाती हैं, अपवाह को कम करती हैं।
      • ‘जल्टोल मॉडल’ प्रजातियों के चयन को अनुकूलित करने के लिए फसल-पेड़ जल प्रतिस्पर्द्धा का मूल्यांकन करता है।
    • जैव विविधता संरक्षण: कृषि वानिकी परागणकों, प्राकृतिक कीट शिकारियों और बीज फैलाने वाली प्रजातियों को संरक्षित करती है।
      • कृषि परिदृश्य में आवास निरंतरता प्रदान करता है।
  • सामाजिक और आजीविका लाभ
    • ग्रामीण रोजगार और कौशल विकास: CAFRI-ICRAF प्रशिक्षण के माध्यम से 25,000 से अधिक किसानों को शामिल किया गया है।
      • 35% प्रशिक्षु महिलाएँ हैं, विशेष रूप से रेशम उत्पादन और घरेलू कृषि वानिकी में।
    • आजीविका लचीलापन: पेड़ सूखे, फसल विफलताओं और जलवायु तनावों के विरुद्ध प्राकृतिक बीमा के रूप में कार्य करते हैं।
      • संपूर्ण विश्व के रोजगार के माध्यम से मौसमी पलायन को कम करता है।
    • पोषण और खाद्य सुरक्षा: फल और चारा आधारित प्रणालियाँ आहार विविधता और पशुधन उत्पादकता को बढ़ाती हैं।
      • रसोई उद्यान, घरेलू और आदिवासी खाद्य प्रणालियों को मजबूत करता है।
  • राष्ट्रीय एवं वैश्विक प्रासंगिकता 
    • नीति एकीकरण: कृषि वानिकी भारत के NDC लक्ष्यों और कई SDG (2, 13, 15) का समर्थन करती है।
      • इसके मुख्य घटक:
        • राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति (2014)
        • हरित भारत मिशन
        • भारत बांस मिशन, महात्मा गांधी नरेगा
    • अंतरराष्ट्रीय मॉडल: भारत के कृषि वानिकी मॉडल को ASEAN, नेपाल, रवांडा, इथियोपिया ने अपनाया है।
      • कृषि वानिकी पर आसियान दिशा-निर्देश (2018) भारत के NAP से प्रेरित हैं।

  • SDG 2:  शून्य भुखमरी (Zero Hunger)
  • SDG 13:  जलवायु कार्रवाई (Climate Action)
  • SDG 15:  स्थल पर जीवन (Life on Land)

भारत में कृषि वानिकी पर सरकारी नीतियाँ एवं पहल

  • राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति (NAP), 2014: भारत कृषि वानिकी पर समर्पित नीति अपनाने वाला विश्व का पहला देश बन गया।
    • मुख्य विशेषताएँ
      • निजी और सामुदायिक भूमि पर एकीकृत कृषि-वानिकी प्रणालियों को बढ़ावा देना।
      • कृषि, पर्यावरण और ग्रामीण विकास मंत्रालयों के बीच सामंजस्य का आह्वान।
    • अनुशंसाएँ
      • वृक्षोन्मूलन और पारगमन विनियमों को सरल बनाना।
      • संस्थागत समर्थन स्थापित करना (जैसे- CAFRI)।
      • अनुसंधान-विस्तार संबंधों को प्रोत्साहित करना।
    • परिणाम: कृषि वानिकी पर उप-मिशन (SMAF) की नींव रखी।
      • जलवायु-अनुकूल कृषि में भारत की भूमिका को मजबूत किया।
      • वैश्विक नीतियों (ASEAN, रवांडा, नेपाल, इथियोपिया) को प्रेरित किया।
  • राष्ट्रीय सतत् कृषि मिशन (NMSA) के तहत कृषि वानिकी पर उप-मिशन (SMAF)
    • यह मिशन वर्ष 2016 से परिचालन में है।
    • उद्देश्य
      • कृषि भूमि पर वृक्षारोपण को बढ़ावा देना (विशेष रूप से लघु एवं सीमांत किसानों के लिए)।
      • पौध खरीद, रोपण, संरक्षण और विस्तार के लिए प्रोत्साहन प्रदान करना।
      • MNREGA, RKVY, NABARD परियोजनाओं के साथ जुड़ना।
  • कृषि वानिकी पर अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (All India Coordinated Research Project- AICRP)
    • वर्ष 1983 में, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) की स्थापना विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों के लिए उपयुक्त कृषि-वानिकी पद्धतियों का अध्ययन और विकास करने के लिए अनुसंधान केंद्रों के समन्वित नेटवर्क के रूप में की गई थी।
    • उद्देश्य: पूरे भारत में कृषि-वानिकी प्रणालियों की जाँच एवं सुधार करना।
  • GROW: कृषि वानिकी के साथ बंजर भूमि का हरितीकरण और पुनरुद्धार (GROW: Greening and Restoration of Wasteland with Agroforestry)
    • नीति आयोग द्वारा शुरू की गई GROW एक राष्ट्रीय पहल है, जिसका उद्देश्य कृषि वानिकी आधारित हस्तक्षेपों के माध्यम से भारत में क्षरित और कम उपयोग की गई भूमि को पुनःस्थापित करना है।
    • भूमि पुनर्स्थापन और जलवायु परिवर्तन शमन पर भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का समर्थन करने के लिए शुरू की गई।
    • भुवन (Bhuvan) पर होस्ट किया गया GROW पोर्टल, राज्य और जिला स्तर पर कृषि वानिकी उपयुक्तता डेटा तक अखिल भारतीय पहुँच प्रदान करता है, जिससे सतत् कृषि के लिए सूचित निर्णय लेने में सुविधा होती है।
    • मुख्य उद्देश्य
      • भारत की बॉन चैलेंज प्रतिबद्धता के अनुरूप, वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को पुनः स्थापित करना।
      • पेरिस समझौते के तहत भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) के अनुसार 2.5 से 3 बिलियन टन CO₂ समतुल्य अतिरिक्त कार्बन सिंक स्थापित करना।
    • प्रयुक्त प्रौद्योगिकी एवं उपकरण
      • रिमोट सेंसिंग और GIS: कृषि वानिकी के लिए भूमि की उपयुक्तता का मानचित्रण करने के लिए उपयोग किया जाता है।
      • कृषि वानिकी उपयुक्तता सूचकांक (Agroforestry Suitability Index- ASI)
        • विषयगत घटक (मृदा, वर्षा, भूमि उपयोग, आदि) का उपयोग करके विकसित एक वैज्ञानिक उपकरण।
        • राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर कृषि वानिकी कार्यान्वयन के लिए क्षेत्रों को प्राथमिकता देने में मदद करता है।
  • राज्य स्तरीय कृषि वानिकी नीतियाँ
    • ओडिशा कृषि वानिकी नीति (2025 प्रारूप): देशज लकड़ी, फल और बांस की प्रजातियों को बढ़ावा देने के लिए ₹2000 करोड़ के निवेश का लक्ष्य निर्धारित किया गया।
      • आजीविका, कार्बन बाजार और जनजातीय भागीदारी पर ध्यान केंद्रित करना।
    • तमिलनाडु कृषि वानिकी नीति (2025 प्रारूप): महोगनी, लाल चंदन और चंदन जैसी बाजार से जुड़ी उच्च मूल्य वाली लकड़ी पर जोर देती है।
      • शहरी कृषि वानिकी मॉडल और अनुसंधान-विस्तार लिंकेज को एकीकृत करता है।
    • कृषि वानिकी के माध्यम से पंजाब फसल विविधीकरण (Crop Diversification through Agroforestry- CDAF) योजना: प्रत्येक रोपित पेड़ पर ₹8-10 का प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) प्रदान करता है।
      • CAFRI के मार्गदर्शन में प्लाईवुड उद्योग के लिए चिनार और नीलगिरी के बागानों को बढ़ावा देता है।
  • कानूनी एवं नियामक सुधार
    • राष्ट्रीय पारगमन पास प्रणाली (National Transit Pass System- NTPS): केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा विकसित, जिसे ‘एक राष्ट्र-एक पास’ व्यवस्था के रूप में देखा गया है।
      • इसका उद्देश्य राज्यों में पेड़ों के पारगमन के लिए QR-कोडेड, डिजिटल परमिट जारी करना है।
      • सुधारों में प्रगति: केरल में TiGram ऐप परमिट को डिजिटाइज करने के लिए जियोटैगिंग और फोटो-सत्यापन का उपयोग करता है।
    • भारतीय वन एवं लकड़ी प्रमाणन योजना (Indian Forest and Wood Certification Scheme- IFWCS): केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा शुरू की गई।
      • उद्देश्य: भारत में स्थायी वन प्रबंधन और कृषि वानिकी प्रथाओं को बढ़ावा देना।
    • प्रजाति छूट सूची: 20 से अधिक तेजी से बढ़ने वाली प्रजातियाँ (जैसे- बांस, नीम, सुबाबुल) अब अधिकांश राज्यों में पारगमन/कटाई नियमों से मुक्त हैं।
      • हालाँकि, सागौन, महोगनी, शीशम जैसी मूल्यवान देशी प्रजातियाँ अभी भी विनियमित हैं।

अन्य राष्ट्रीय मिशनों में कृषि वानिकी

उद्देश्य

कृषि वानिकी की प्रासंगिकता

हरित भारत मिशन 

(Green India Mission)

बंजर भूमि पर कृषि वानिकी के माध्यम से पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना।
राष्ट्रीय बांस मिशन 

(National Bamboo Mission)

निजी एवं सामुदायिक भूमि पर बांस आधारित कृषि वानिकी को प्रोत्साहित करता है।
मनरेगा 

(MGNREGA)

अभिसरण मोड के तहत वृक्षारोपण और संरक्षण गतिविधियों का समर्थन करता है।
प्रतिपूरक वनरोपण निधि अधिनियम (CAMPA) प्रतिपूरक वृक्षारोपण क्षेत्रों में कृषि वानिकी घटकों की अनुमति देता है।

अंतरराष्ट्रीय साझेदारियाँ एवं पहल

  • भारत में वनों के बाहर पेड़ (TOFI): कार्बन क्रेडिट और किसान सहायता के लिए केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) और संयुक्त राज्य अमेरिका अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसी (USAID) परियोजना।
  • FAO-ICRAF सहयोग: तकनीकी सहायता, क्षमता निर्माण और डिजिटल निगरानी उपकरणों का समर्थन करता है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्स्थापन पर संयुक्त राष्ट्र दशक (2021-2030): कृषि वानिकी को एक प्रमुख पुनर्स्थापन मार्ग के रूप में मान्यता दी गई।

कृषि वानिकी में सर्वोत्तम वैश्विक अभ्यास

  • पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए भुगतान (PES)– कोस्टा रिका
    • सरकारें और निजी संस्थाएँ कृषि वानिकी के माध्यम से कार्बन पृथक्करण, जल शोधन और जैव विविधता संरक्षण जैसी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए किसानों को मुआवजा प्रदान करती हैं।
  • FAO समर्थित ‘फार्मर फील्ड स्कूल’ (FFS)– इंडोनेशिया
    • समुदाय आधारित FFS भागीदारी प्रदर्शनों और डिजिटल उपकरणों के माध्यम से प्रजातियों के चयन, मृदा प्रबंधन और बाजार तक पहुँच के बारे में किसानों को प्रशिक्षित करते हैं।
  • वृक्ष-वस्तु एकीकरण– ब्राजील (कृषि वानिकी कोको सिस्टम)
    • कोको को अमेजन में देशज पेड़ों (जैसे- महोगनी, फलों के पेड़) के साथ उगाया जाता है, जिससे आय में विविधता आती है और जैव विविधता बहाल होती है।
  • किसान-प्रबंधित प्राकृतिक पुनर्जनन (Farmer Managed Natural Regeneration- FMNR)– नाइजर
    • किसान प्राकृतिक रूप से पुनर्जीवित होने वाले पेड़ों के तने (जैसे- गुएरा सेनेगलेंसिस) की छंटाई करके खराब हो चुकी भूमि को पुनर्स्थापित करते हैं, जिसके लिए न्यूनतम बाह्य लागत की आवश्यकता होती है।

भारत में कृषि वानिकी की चुनौतियाँ

  • कानूनी एवं नियामक चुनौतियाँ
    • पेड़ों की कटाई और परिवहन के लिए सख्त नियम: अधिकतर राज्यों में निजी कृषि भूमि पर भी सागौन, शीशम और चंदन जैसे पेड़ों की कटाई या परिवहन के लिए परमिट की जरूरत होती है।
      • ये नियम सभी राज्यों में एक समान नहीं हैं, जिससे भ्रम और उत्पीड़न होता है।
    • न्यायिक बाधा: गोदावर्मन मामले (1996) ने ‘वन’ की व्यापक व्याख्या की, वन नियमों को निजी वृक्षारोपण तक बढ़ा दिया और कृषि वानिकी के विस्तार को प्रतिबंधित कर दिया।
    • क्षेत्राधिकारों का ओवरलैप होना: किसानों को कई विभागों (वन, राजस्व, कृषि) से मंजूरी की आवश्यकता हो सकती है, जिससे वृक्षरोपण हतोत्साहित होता है।
  • बाजार और आर्थिक बाधाएँ
    • MSP और औपचारिक बाजार पहुँच का अभाव: कृषि वानिकी उत्पाद (लकड़ी, बांस, औषधीय पौधे) MSP या नियमित खरीद के लिए पात्र नहीं हैं।
      • अधिकांश बिक्री असंगठित चैनलों के माध्यम से होती है, जिसमें खराब मूल्य प्राप्ति होती है।
    • अपर्याप्त ऋण और बीमा: कृषि वानिकी को कई बैंकों में प्राथमिकता क्षेत्र ऋण से बाहर रखा गया है।
      • वृक्ष फसलों के लंबे समय तक विकास प्रक्रिया के जोखिमों को शामिल करने के लिए कोई अनुकूलित बीमा उत्पाद नहीं है।
    • लकड़ी के आयात पर निर्भरता: घरेलू क्षमता के बावजूद, भारत कानूनी बाधाओं और खराब मूल्य श्रृंखला विकास के कारण वार्षिक रूप से 2.7 बिलियन डॉलर की लकड़ी का आयात करता है।
  • तकनीकी और विस्तार सीमाएँ
    • डेटा और शोध अंतराल: क्षेत्र-विशिष्ट, विज्ञान-समर्थित वृक्ष-फसल अनुकूलता मॉडल की कमी।
      • जल्टोल, एग्रोकनेक्ट या जैव विविधता-आधारित नियोजन प्रणालियों जैसे उपकरणों को कम अपनाया जाना।
    • कृषि वानिकी पर कम ध्यान: खाद्य फसलों की तुलना में कृषि वानिकी पर कम ध्यान दिया जाता है।
      • कृषि और वन विस्तार विभागों के बीच समन्वय खराब है।
  • संस्थागत और नीतिगत चुनौतियाँ
    • NAP 2014 का अधूरा क्रियान्वयन: बहुत कम राज्यों (जैसे- ओडिशा, तमिलनाडु) ने राज्य स्तरीय कृषि वानिकी नीतियों को अधिसूचित किया है।
      • कृषि वानिकी पर उप-मिशन (SMAF) कार्यरत है, लेकिन कई क्षेत्रों में इसका कम उपयोग किया जा रहा है।
    • खंडित संस्थागत संरचना: कृषि वानिकी 6 मंत्रालयों (कृषि, पर्यावरण, ग्रामीण विकास, पंचायती राज, जनजातीय मामले, वित्त) को जोड़ती है, लेकिन इसका समन्वय कमजोर है।
  • पर्यावरण और पारिस्थितिकी संबंधी चिंताएँ
    • विदेशी एकल कृषि का अत्यधिक उपयोग: यूकेलिप्टस और चिनार जैसी तेजी से बढ़ने वाली प्रजातियाँ व्यावसायिक मूल्य के कारण प्रभावी हैं, इसके नुकसान हैं:-
      • कम जैव विविधता
      • जल की अधिक खपत
      • मृदा की उर्वरता को कम कर सकती है।
    • फसल-वृक्ष प्रतिस्पर्द्धा: वैज्ञानिक नियोजन के बिना, गहरी जड़ों वाले पेड़, विशेष रूप से वर्षा आधारित क्षेत्रों में, जल और पोषक तत्वों के लिए फसलों के साथ प्रतिस्पर्द्धा कर सकते हैं।
  • सामाजिक-सांस्कृतिक और लैंगिक बाधाएँ
    • संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच: प्रशिक्षुओं में 35% महिलाएँ होने के बावजूद, कई कृषि वानिकी परियोजनाओं में वृक्षों के स्वामित्व के अधिकार और निर्णय लेने की भूमिका का अभाव है।
    • कम जागरूकता और जोखिम से बचना: कई किसान पेड़ लगाने को कानूनी रूप से जोखिम भरा, धीमी गति से मिलने वाले लाभ और वार्षिक कृषि चक्र के साथ असंगत मानते हैं।

भारत में कृषि वानिकी के लिए आगे की राह

  • कानूनी और विनियामक सरलीकरण: राष्ट्रीय ढाँचे के माध्यम से राज्यों में पेड़ों की कटाई और पारगमन नियमों में सामंजस्य स्थापित करना।
    • पारदर्शिता सुनिश्चित करने, नौकरशाही की देरी को कम करने और किसानों को उच्च मूल्य वाली देशज प्रजातियों के पौधे लगाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए TiGram जैसे डिजिटल उपकरणों के साथ राष्ट्रीय पारगमन पास प्रणाली (NTPS) के कार्यान्वयन को तेज करना।
  • बाजार सुधार और समर्थन तंत्र: प्रमुख कृषि वानिकी उत्पादों (जैसे- लकड़ी, बांस, NTFP) के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) जैसा आश्वासन या मूल्य स्थिरीकरण तंत्र प्रदान करना।
    • औपचारिक चैनलों के माध्यम से उपज को एकत्र करने, संसाधित करने और बाजार में बेचने के लिए किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) को मजबूत बनाना।
  • ऋण और बीमा नवाचार: अनुकूलित, कम ब्याज वाले ऋण के साथ कृषि वानिकी को प्राथमिकता क्षेत्र ऋण के तहत वर्गीकृत करना।
    • विशेषतः लघु और सीमांत किसानों के लिए ऐसी बीमा योजनाएँ विकसित करना जो वृक्ष आधारित फसल के जोखिमों को शामिल करती हैं।
  • अनुसंधान, नवाचार और डिजिटल विस्तार: एग्रोकनेक्ट, जलटोल और रिमोट सेंसिंग जैसे डिजिटल उपकरणों का उपयोग करके पेड़-फसल-पशुधन के बीच संबंधों पर क्षेत्र-विशिष्ट अनुसंधान और विकास को बढ़ावा देना।
    • कृषि विज्ञान केंद्रों (Krishi Vigyan Kendras- KVK) और विस्तार सेवाओं में कृषि वानिकी को मुख्यधारा में लाने के लिए ICAR, CAFRI, ICRAF और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना।
  • समावेशी और लैंगिक-संवेदनशील दृष्टिकोण: महिलाओं के लिए भूमि और वृक्ष स्वामित्व सुरक्षा सुनिश्चित करना।
    • महिलाओं के नेतृत्व वाली कृषि वानिकी सहकारी समितियों का निर्माण करना और लक्षित नीतियों और सब्सिडी के माध्यम से प्रशिक्षण, विपणन और स्वामित्व में उनकी भागीदारी को प्रोत्साहित करना।
  • देशज विविधता के माध्यम से पारिस्थितिक स्थिरता: एकल फसलों की तुलना में देशज प्रजातियों का उपयोग करके बहु-प्रजाति, जलवायु-लचीले कृषि वानिकी मॉडल को बढ़ावा देना।
    • मृदा स्वास्थ्य, जल संरक्षण और कार्बन पृथक्करण के साथ आय सृजन को संतुलित करने के लिए जैव विविधता-आधारित योजना को प्रोत्साहित करना।
  • संस्थागत समन्वय और राज्य नीतियों को मजबूत बनाना: सभी राज्यों को समर्पित नीतियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करके राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति (NAP) 2014 को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करना। 
    • नरेगा, नाबार्ड, ग्रीन इंडिया मिशन और आदिवासी विकास योजनाओं के तहत नियोजन और वित्त पोषण के समन्वय के लिए अंतर-मंत्रालयी कार्यबल का निर्माण करना।

निष्कर्ष 

भारत में कृषि वानिकी में किसानों की आजीविका को बढ़ाने, कार्बन को पृथक करने और पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करने की अपार संभावनाएँ हैं, लेकिन इसे बढ़ाने के लिए मजबूत नीतिगत सुधारों और समावेशी रणनीतियों के माध्यम से कानूनी, आर्थिक और तकनीकी बाधाओं को दूर करना होगा। राष्ट्रीय और वैश्विक स्थिरता के साथ सामंजस्य स्थापित कर, कृषि वानिकी जलवायु अनुकूल कृषि और ग्रामीण विकास को आगे बढ़ा सकती है।

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