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Jun 11 2025

DRUM ऐप

IIT खड़गपुर की एक टीम ने हाल ही में “डायनेमिक रूट प्लानिंग फॉर अर्बन ग्रीन मोबिलिटी (DRUM)” नाम से एक ऐप लॉन्च किया है, जो यात्रियों को वायु गुणवत्ता एवं ऊर्जा दक्षता के आधार पर मार्ग चुनने की अनुमति देता है। 

DRUM ऐप के बारे में

  • DRUM ऐप को Google मैप की तरह नेविगेशन ऐप के रूप में डिजाइन किया गया है, लेकिन इसमें उपयोगकर्ताओं को वायु गुणवत्ता एवं ऊर्जा दक्षता डेटा के आधार पर हरित मार्ग चुनने की अतिरिक्त सुविधा है। 
  • उद्देश्य: उपयोगकर्ताओं को वैकल्पिक मार्गों का विकल्प प्रदान करना जो वायु प्रदूषकों की समग्र खपत को कम कर सकते हैं। 
    • उदाहरण: परिवेशी वायु प्रदूषण प्रत्येक वर्ष प्रमुख भारतीय शहरों में 7.2% मौतों के लिए उत्तरदाई है। 
  • मार्ग विकल्प: DRUM उपयोगकर्ताओं को पाँच मार्ग विकल्प प्रदान करता है, 
    • जैसे कि सबसे छोटा, सबसे तीव्र, वायु प्रदूषण के लिए सबसे कम जोखिम (Least Exposure To Air Pollution), सबसे कम ऊर्जा खपत वाला मार्ग (LECR), एवं सुझाए गए मार्ग नामक सभी चार कारकों का संयोजन। 
  • डेटा संग्रह: CPCB एवं विश्व वायु गुणवत्ता सूचकांक से वास्तविक समय आधारित वायु तथा यातायात डेटा एकत्र किया जाता है। 
    • मैपबॉक्स से वास्तविक समय पर यातायात अपडेट प्राप्त करते हुए, ग्राफहॉपर (जावा-आधारित रूटिंग लाइब्रेरी) का उपयोग करके मार्गों का निर्धारण किया जाता है।

भारत में नई ततैया प्रजाति की खोज

चंडीगढ़ में परजीवी ततैया की एक नई प्रजाति, लॉसग्ना ऑक्सीडेंटलिस की खोज की गई है, जो लगभग छह दशकों के बाद भारत में लॉसग्ना जीनस की पुनः खोज को चिह्नित करती है।

मुख्य बिंदु

  • नई खोजी गई प्रजाति ‘लॉस्ग्ना ऑक्सीडेंटलिस’ वर्ष 2023-24 की सर्दियों में चंडीगढ़ के एक शहरी शुष्क झाड़ीदार वन में पाई गई।
    • यह चंडीगढ़ में पाई गयी औपचारिक रूप से वर्णित पहली कीट प्रजाति है।
    • यह इचनेमोनिडे (परजीवी ततैया) परिवार से संबंधित है, जो जैविक कीट नियंत्रण में अपनी भूमिका के लिए जाना जाता है।
  • भारत में लॉसग्ना जीनस को आखिरी बार वर्ष 1965 में दर्ज किया गया था एवं तब से इसकी कोई प्रलेखित उपस्थिति दर्ज नहीं है।
  • ऑक्सिडेंटलिस जीनस की सबसे पश्चिमी घटना के रूप में अपनी स्थिति को दर्शाता है, जिसे पहले केवल पूर्वी भारत एवं दक्षिण-पूर्व एशिया से ही जाना जाता था।

परजीवी ततैया के बारे में

  • परजीवी ततैया, जिन्हें पैरासिटोइड्स के रूप में भी जाना जाता है, एक अलग समूह है जो आमतौर पर कॉलोनियों में नहीं रहते हैं या मधुमक्खियों की तरह छत्ते नहीं बनाते हैं।
  • वयस्क परजीवी आम तौर पर पराग एवं रस का भोजन करते हैं।
  • परजीवी ततैया अपने मेजबान कीटों पर या उनके अंदर अपने अंडे देते हैं, और लार्वा मेजबान के भीतर विकसित होते हैं तथा इसके ऊतकों के माध्यम से भोजन करते हैं।
  • ततैया के लार्वा अपने अस्तित्व और विकास को सुनिश्चित करने के लिए मेजबान के शरीर विज्ञान और व्यवहार में हस्तक्षेप कर सकते हैं। इसमें पक्षाघात, विकासात्मक रुकावट या प्रतिरक्षा दमन शामिल हो सकता है।
  • परजीवी लार्वा अंततः मेजबान को खाकर नष्ट कर देता है, जिससे उसका विकास पूरा हो जाता है।

भारत में हींग की खेती 

हाल ही में, CSIR-IHBT ने पालमपुर में हींग के पहले सफल फूल उत्पादन की सूचना दी, जिससे यह सिद्ध हुआ कि हींग भारतीय परिस्थितियों में भी उग सकती है एवं फल-फूल सकती है।

हींग के बारे में

  • वैज्ञानिक नाम: फेरूला अस्सा-फोएटिडा।
  • कच्ची हींग फेरूला अस्सा-फोएटिडा की मांसल जड़ों से ‘ओलियो-गम’ राल के रूप में निकाली जाती है।
  • लाभ: पाचन, पेट दर्द से राहत एवं स्वाद को बढ़ाना।
  • प्राकृतिक आवास एवं विकास की स्थितियाँ
    • हींग ठंडी, शुष्क जलवायु में पनपती है, मुख्य रूप से ईरान, अफगानिस्तान एवं मध्य एशिया में।
    • यह कम नमी वाली रेतीली, अच्छी जल निकासी वाली मृदा में उगाई जाती है।
    • आदर्श वर्षा: 200 मिमी या उससे कम 
    • तापमान सीमा: 10-20 डिग्री सेल्सियस, -4 डिग्री सेल्सियस से 40 डिग्री सेल्सियस तक चरम सीमा को सहन कर सकता है।

भारत में हींग

  • हींग भारतीय खाद्यान्नों में व्यापक रूप से प्रयोग किया जाने वाला मसाला है
  • भारत में, फेरूला अस्सा-फोएटिडा नहीं होती है, लेकिन पश्चिमी हिमालय (चंबा, हिमाचल प्रदेश) में फेरूला जैशकेना नामक अन्य प्रजाति पाई जाती है, एवं कश्मीर तथा लद्दाख में फेरूला नार्थेक्स  पाई जाती है।
  • चूँकि, हींग का पौधा अपनी वृद्धि के लिए ठंडी एवं शुष्क परिस्थितियों के अनुकूल है, इसलिए भारतीय हिमालयी क्षेत्र के ठंडे रेगिस्तानी इलाके हींग की कृषि के लिए उपयुक्त हैं।
  • भारत में हींग का उत्पादन करने वाला हिमाचल प्रदेश पहला राज्य है।
  • आयात आँकड़े: भारत अफगानिस्तान, ईरान एवं उज्बेकिस्तान से प्रतिवर्ष लगभग 1200 टन कच्ची हींग आयात करता है तथा प्रति वर्ष लगभग 100 मिलियन अमरीकी डॉलर खर्च करता है।
  • हाथरस हींग को वर्ष 2023 में GI टैग मिला था।

विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) नियमों में सुधार

केंद्रीय वाणिज्य विभाग ने सेमीकंडक्टर एवं इलेक्ट्रॉनिक्स घटक विनिर्माण क्षेत्रों की विशेष आवश्यकताओं को संबोधित करने के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) नियमों में सुधारों को अधिसूचित किया है। 

संशोधित नियमों के बारे में

  • SEZ नियम, 2006 का नियम 5: इस क्षेत्र के लिए विशेष रूप से स्थापित SEZ के लिए न्यूनतम 10 हेक्टेयर भूमि क्षेत्र की आवश्यकता होगी, जिसे 50 हेक्टेयर से घटा दिया गया है। 
  • SEZ नियम, 2006 का नियम 7: SEZ के लिए अनुमोदन बोर्ड को SEZ भूमि को केंद्र या राज्य सरकार या उनकी अधिकृत एजेंसियों को गिरवी या पट्टे पर दिए जाने के मामलों में भार-मुक्त होने की शर्त में ढील देने की अनुमति है। 
  • नियम 53: यह नि:शुल्क आधार पर प्राप्त एवं आपूर्ति की गई वस्तुओं के मूल्य को नेट फोरेन एक्सचेंज (NFE) गणना में शामिल करने तथा लागू सीमा शुल्क मूल्यांकन नियमों का उपयोग करके मूल्यांकन करने की अनुमति देगा। 
  • SEZ नियमों का नियम 18: यह दोनों क्षेत्रों में SEZ इकाइयों को लागू शुल्कों के भुगतान के बाद घरेलू टैरिफ क्षेत्र में भी घरेलू आपूर्ति करने की अनुमति देता है।

संशोधनों का महत्त्व 

  • इससे देश में उच्च तकनीक विनिर्माण को बढ़ावा मिलेगा एवं सेमीकंडक्टर विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र के विकास को बढ़ावा मिलेगा।
  • संशोधन के परिणामस्वरूप देश में उच्च कौशलयुक्त नौकरियों का सृजन भी होगा।

विशेष आर्थिक क्षेत्रों के बारे में

  • SEZ देश के भीतर निर्दिष्ट क्षेत्र हैं, जिनके देश के बाकी हिस्सों की तुलना में अलग-अलग व्यवसाय एवं व्यापार नियम हैं।
  • अधिनियम: वर्ष 2005 का विशेष आर्थिक क्षेत्र अधिनियम, 2006 के SEZ नियमों द्वारा समर्थित, 2006 में लागू हुआ, जिसमें सिंगल विंडो क्लीयरेंस एवं सरलीकृत प्रक्रियाएँ प्रदान की गईं।
  • उद्देश्य: SEZ का उद्देश्य आर्थिक विकास को बढ़ावा देना, निर्यात बढ़ाना, विदेशी निवेश आकर्षित करना एवं रोजगार के अवसर उत्पन्न करना है।
  • परिचालन SEZ: भारत में वर्तमान में 276 परिचालित SEZs हैं, जिनमें 6275 इकाइयाँ संचालित हैं, जो लगभग 3.19 मिलियन लोगों को रोजगार देती हैं।

इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान

हाल ही में, सुरक्षा बलों ने छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में संचालित नक्सल विरोधी अभियान के दौरान पाँच और माओवादी कैडरों के शव बरामद किए हैं।

इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान के बारे में

  • स्थान: छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में स्थित, वर्ष 1981 में एक राष्ट्रीय उद्यान एवं वर्ष 1983 में प्रोजेक्ट टाइगर पहल के तहत एक बाघ अभयारण्य के रूप में नामित किया गया।
    • इसका नाम इंद्रावती नदी के नाम पर रखा गया है, जो इसकी उत्तरी सीमा के साथ बहती है एवं इसे महाराष्ट्र से अलग करती है।
  • स्थलाकृति: पहाड़ी क्षेत्र, जिसकी ऊँचाई समुद्र तल से 177 से 599 मीटर तक है।
  • यह एक महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक गलियारे के रूप में कार्य करता है, जो इसे कवाल (तेलंगाना), ताडोबा (महाराष्ट्र) एवं कान्हा (मध्य प्रदेश) जैसे अन्य बाघ अभयारण्यों से जोड़ता है।
  • वनस्पति: मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय नम एवं शुष्क पर्णपाती प्रकार की।
  • वनस्पति: आम पौधों की प्रजातियों में सागौन, अचार, कर्रा, कुल्लू, शीशम, सेमल, हल्दू, अर्जुन, बेल एवं जामुन शामिल हैं। 
  • जीव: यह रिजर्व दुर्लभ जंगली भैंसों का आवास है। 
    • अन्य वन्यजीवों में बाघ, तेंदुए, गौर, सांभर हिरण, चीतल, भालू, नीलगाय एवं काले हिरण शामिल हैं।

संदर्भ 

अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2025) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी आरोपी की सहमति के बिना उस पर नार्को-विश्लेषण परीक्षण नहीं किया जा सकता है, और ऐसे परीक्षणों के परिणाम किसी आपराधिक मामले में दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं बन सकते हैं।

  • सर्वोच्च न्यायलय ने वर्ष 2023 के पटना उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज कर दिया, जिसमें दहेज से संबंधित मामले में अभियुक्तों और गवाहों पर अनैच्छिक नार्को-विश्लेषण परीक्षण की अनुमति दी गई थी।
  • यह निर्णय अनुच्छेद 20(3) और 21 के तहत संवैधानिक सुरक्षा को मजबूत करता है।

निर्णय की मुख्य बिंदु

  • सहमति अनिवार्य है: नार्को-विश्लेषण परीक्षण विषय की सहमति के बिना नहीं किया जा सकता है।
  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: अनैच्छिक परीक्षण अनुच्छेद 20(3) (स्वयं दोषसिद्धि के विरुद्ध अधिकार) और अनुच्छेद 21 (व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करते हैं।
  • पटना उच्च न्यायालय के आदेश को अमान्य करार दिया गया: वर्ष 2023 में पटना उच्च न्यायालय द्वारा ऐसे परीक्षणों को दी गई स्वीकृति असंवैधानिक थी तथा वर्ष 2010 के सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य के निर्णय के विपरीत थी।
    • उदाहरण का मामला: सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) ने माना कि नार्को, पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग परीक्षणों का अनैच्छिक उपयोग मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
  • गोपनीयता का उल्लंघन: जबरन नार्को परीक्षण गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं और पुलिस की असंगत कार्रवाई का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • साक्ष्य मूल्य: स्वैच्छिक नार्को-विश्लेषण परीक्षण भी दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता है।
  • संवैधानिक सर्वोच्चता को दोहराया गया: अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं किया जा सकता; न्यायपालिका अपवाद नहीं बना सकती।

नार्को-विश्लेषण परीक्षण के बारे में

  • एक फोरेंसिक तकनीक जिसमें संदिग्ध को मनोविकार रोधी दवाइयाँ (जैसे- सोडियम पेंटोथल) दी जाती हैं ताकि अवरोध को कम किया जा सके और रोकी गई जानकारी निकाली जा सके।
  • स्वैच्छिक सहयोग की कमी होने पर जानकारी एकत्रित करने के लिए जाँच एजेंसियों द्वारा इसका उपयोग किया जाता है।

PWOnlyIAS विशेष

अनुच्छेद 20(3): स्वयं दोषसिद्धि के विरुद्ध संरक्षण

  • “किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति को खुद के विरुद्ध गवाह बनने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा।”
  • यह केवल आपराधिक मामलों में आरोपी व्यक्तियों पर लागू होता है।
  • सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) में पुष्ट किया गया: अनैच्छिक नार्को-विश्लेषण, पॉलीग्राफ और ब्रेन मैपिंग अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन करते हैं।

अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण

  • “किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा।”
    • व्यापक रूप से इसकी व्याख्या निजता के अधिकार, गरिमा के अधिकार और शारीरिक स्वायत्तता आदि को शामिल करने के लिए की गई है।
    • मेनका गांधी मामले, 1978 में सुदृढ़ किया गया: स्वतंत्रता से किसी भी तरह का वंचित करने के लिए न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए।
    • जबरन नार्को-विश्लेषण जैसी बलात् तकनीकें मानसिक स्वायत्तता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करती हैं।

संदर्भ

वैश्विक व्यापार युद्ध के बीच, चीन ने दुर्लभ मृदा तत्वों (REEs) के निर्यात को निलंबित कर दिया है, जिनका उपयोग स्मार्टफोन, अर्द्धचालक निर्माण और रक्षा उपकरणों जैसी प्रौद्योगिकियों में किया जाता है।

दुर्लभ मृदा तत्व (Rare Earth Elements-REEs) क्या हैं?

  • दुर्लभ मृदा तत्व (REEs) 17 धातु तत्वों का एक समूह है जो अपने अद्वितीय चुंबकीय, प्रवाहकीय और चमकदार गुणों के लिए जाने जाते हैं।
  • निष्कर्षण और परिवर्तन कठिन: उनका खनन करना और आर्थिक रूप से संसाधित करना कठिन है, और वर्तमान में, उनके उच्च-तकनीकी अनुप्रयोगों के लिए कोई आसान विकल्प मौजूद नहीं है।

दुर्लभ मृदा तत्वों (REEs) के भौगोलिक हॉटस्पॉट

  • असमान वितरण: दुर्लभ मृदा तत्व (REE) संपूर्ण विश्व में असमान रूप से फैले हुए हैं, कुछ विशिष्ट क्षेत्र प्रमुख हॉटस्पॉट हैं।
  • चीन: चीन के पास दुनिया के दुर्लभ मृदा तत्त्व (REE) भंडार का सबसे बड़ा 44 मिलियन मीट्रिक टन हिस्सा है और वह वार्षिक रूप से 2,70,000 मीट्रिक टन का उत्पादन करता है।
    • यूनाइटेड स्टेट्स जियोलॉजिकल सर्वे (2025) के अनुसार, चीन दुनिया के कुल REE उत्पादन का एक तिहाई से अधिक उत्पादन करता है।
    • चीन वैश्विक चुंबक उत्पादन क्षमता के 90% से अधिक को नियंत्रित करता है, जिससे वैश्विक उद्योगों के समक्ष कई प्रकार की चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं।
    • बायन ओबो निक्षेप (Bayan Obo Deposit): इनर मंगोलिया में बायन ओबो निक्षेप ने चीन को 1990 के दशक से REE की वैश्विक आपूर्ति में अपनी प्रमुख स्थिति बनाए रखने में सक्षम बनाया है।
  • ब्राजील: ब्राजील के पास दूसरा सबसे बड़ा भंडार (21 मिलियन मीट्रिक टन) है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: अमेरिका के पास 1.9 मिलियन मीट्रिक टन भंडार है।
    • कैलिफोर्निया में अपने पर्याप्त भंडार के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका 1970 और 1980 के दशक के दौरान दुर्लभ मृदा तत्त्व के अग्रणी वैश्विक उत्पादक के रूप में उभरा।
    • हालाँकि, 1990 के दशक में पर्यावरणीय और राजनीतिक कारकों के कारण यह प्रभुत्व समाप्त हो गया।
  • भारत: भारत के पास, विश्व में दुर्लभ मृदा तत्वों का पाँचवाँ सबसे बड़ा भंडार है।

दुर्लभ मृदा तत्वों के प्रमुख गुण

  • उच्च चुंबकीय शक्ति: कई REE, विशेष रूप से नियोडिमियम और डिस्प्रोसियम, मजबूत चुंबकीय गुण प्रदर्शित करते हैं, जो उन्हें उच्च-प्रदर्शन चुंबकों में आवश्यक बनाता है।
  • उच्च चालकता: REE में उत्कृष्ट विद्युत चालकता होती है, जो इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में उनके उपयोग में योगदान देती है।
  • उच्च गलनांक: अधिकांश REE में उच्च गलनांक होते हैं, जो उन्हें उच्च तापमान अनुप्रयोगों के लिए उपयुक्त बनाते हैं।
  • उत्प्रेरक गुण: वे विभिन्न रासायनिक प्रतिक्रियाओं में उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकते हैं, जो उन्हें शोधन और औद्योगिक प्रक्रियाओं में मूल्यवान बनाता है।
  • ऑप्टिकल गुण: यूरोपियम और टेरबियम जैसे कुछ REE का उपयोग फॉस्फोर और लेजर में प्रकाश उत्सर्जित करने की उनकी क्षमता के कारण किया जाता है।

REEs का उपयोग

  • उच्च तकनीक अनुप्रयोग: स्मार्टफोन, अर्द्धचालक, पवन टर्बाइन, EVs और रक्षा प्रणालियाँ (जैसे- मिसाइल मार्गदर्शन, रडार) में उपयोग किया जाता है।
  • हरित ऊर्जा संक्रमण: पवन टर्बाइन (नियोडिमियम) और EV मोटर्स (डिस्प्रोसियम) में स्थायी चुंबकों के लिए आवश्यक होता है।
  • रक्षा और एयरोस्पेस: जेट इंजन, सोनार सिस्टम और सैटेलाइट तकनीक में उपयोग किया जाता है।
  • बैटरी: लैंटेनम जैसे REE हाइब्रिड वाहनों में उपयोग की जाने वाली निकल-धातु हाइड्राइड (NiMH) बैटरियों का अभिन्न अंग हैं।
  • मेडिकल इमेजिंग: अपने चुंबकीय गुणों के कारण MRI स्कैनर, PET स्कैन और अन्य इमेजिंग उपकरणों में उपयोग किया जाता है।

दुर्लभ मृदा तत्वों (REEs) में भारत की स्थिति

  • भारत के दुर्लभ मृदा भंडार: भारत में विश्व स्तर पर दुर्लभ मृदा तत्वों का पाँचवाँ सबसे बड़ा भंडार है, जिसका अनुमान 6.9 मिलियन मीट्रिक टन है।
  • ये भंडार मुख्य रूप से निम्नलिखित स्थानों पर पाए जाते हैं:
    • आंध्र प्रदेश (सबसे अधिक भंडार)
    • कर्नाटक
    • ओडिशा
    • केरल (मोनाज़ाइट रेत से समृद्ध)
  • बड़े भंडार के बावजूद, भारत वैश्विक REEs उत्पादन में 1% से भी कम योगदान देता है।
  • प्रमुख खनिज
    • मोनाजाइट: मोनाजाइट भारत में REEs का प्राथमिक स्रोत है, जिसमें दुर्लभ मृदा तत्त्व और थोरियम (एक रेडियोधर्मी पदार्थ) होता है।
    • हल्के REEs (भारत में प्रचुर मात्रा में): लैंटेनम (Lanthanum), सेरियम (Cerium), सैमरियम (Samarium)।
    • भारी REEs (सीमित आपूर्ति): डिस्प्रोसियम, टर्बियम (चीन वैश्विक उत्पादन पर शीर्ष पर  है)।

REE उत्पादन और शोधन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी पहल

  • MMDR अधिनियम संशोधन, 2023: दुर्लभ खनिजों को ‘महत्त्वपूर्ण खनिजों’ के रूप में वर्गीकृत करने के लिए खान और खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम में संशोधन किया गया।
    • इससे केंद्र द्वारा उनकी नीलामी की अनुमति मिलेगी और अन्वेषण तथा खनन में निजी क्षेत्र की भागीदारी को सक्षम बनाया जा सकेगा।
  • राष्ट्रीय महत्वपूर्ण खनिज मिशन (National Critical Minerals Mission) (2025): इस मिशन का उद्देश्य अन्वेषण, प्रसंस्करण, पुनर्चक्रण और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी के माध्यम से REEs जैसे महत्वपूर्ण खनिजों तक सुरक्षित और स्थायी पहुँच सुनिश्चित करना है, जो भारत के ऊर्जा संक्रमण और आत्मनिर्भर भारत लक्ष्यों के अनुरूप है।
  • निजी क्षेत्र के लिए खोलना: पहले सार्वजनिक क्षेत्र (IREL) तक सीमित, सरकार ने अब निजी कंपनियों को अवपरमाण्विक REEs की खोज और खनन की अनुमति दे दी है।
  • इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (Indian Rare Earths Limited-IREL) को मजबूत बनाना: IREL मोनाजाइट रेत से REE निष्कर्षण के लिए नोडल PSUs है। सरकार IREL की प्रसंस्करण क्षमता का विस्तार कर रही है और कुशल पृथक्करण एवं शोधन के लिए प्रौद्योगिकी को उन्नत कर रही है।
  • रणनीतिक अंतरराष्ट्रीय सहयोग: भारत ने अन्वेषण, प्रौद्योगिकी साझाकरण और REEs आपूर्ति श्रृंखलाओं को सुरक्षित करने पर सहयोग करने के लिए ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों के साथ समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए हैं।
  • REEs थीम पार्क: दुर्लभ पृथ्वी और टाइटेनियम थीम पार्क, भोपाल, मध्य प्रदेश में IREL (इंडिया) लिमिटेड द्वारा विकसित एक भविष्य की अवधारणा है। 
    • इसका उद्देश्य दुर्लभ पृथ्वी तत्त्वों के प्रसंस्करण और उपयोग के लिए प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन करना है।

REEs आत्मनिर्भरता में चुनौती

  • IREL का एकाधिकार: इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (IREL), एक सरकारी संस्था है, जिसका REEs खनन और प्रसंस्करण पर लगभग एकाधिकार है, जिससे निजी निवेश हतोत्साहित हो रहा है।
    • हालाँकि भारत ने वर्ष 2025 में निजी हितधारकों के लिए REEs खनन खोल दिया है, लेकिन नौकरशाही की देरी और अस्पष्ट नीतियों के कारण प्रगति धीमी है।
  • कमजोर शोधन और प्रसंस्करण: भारत में REEs को अलग करने और परिष्कृत करने के लिए उन्नत सुविधाओं का अभाव है, जिससे मूल्य-वर्धित उत्पादों के स्थान पर कच्चे खनिजों (जैसे- जापान को नियोडिमियम) का निर्यात करना पड़ता है।
  • बड़े पैमाने पर उत्पादन नहीं: चीन दुर्लभ मृदा तत्त्वों के उत्पादन के 90% को नियंत्रित करता है, जबकि भारत में EV, पवन टर्बाइन और रक्षा प्रणालियों के लिए शून्य घरेलू उत्पादन है।
  • पर्यावरण और विनियामक बाधाएँ: मोनाजाइट रेत (भारत का प्राथमिक REE स्रोत) में थोरियम होता है, जिसके लिए परमाणु ऊर्जा कानूनों के तहत सख्त प्रबंधन की आवश्यकता होती है।
    • पिछले अवैध खनन के कारण प्रतिबंध लगे हैं, हाल ही में दी गई छूट के बावजूद नई परियोजनाओं में देरी हो रही है।
  • तकनीकी और वित्तीय अंतर: भारत अनुसंधान एवं विकास पर GDP का 0.6-0.7% खर्च करता है, जबकि चीन 2.6% खर्च करता है, जिससे निष्कर्षण एवं विकल्पों में नवाचार सीमित हो जाता है।
    • प्रस्तावित ₹16,300 करोड़ का राष्ट्रीय महत्वपूर्ण खनिज मिशन पूर्ण आपूर्ति-श्रृंखला विकास के लिए अपर्याप्त हो सकता है।
  • धीमी अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी: हालाँकि भारत अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ सहयोग करता है, लेकिन विस्तार करने में वर्षों लग जाते हैं, चीन ने दशकों में प्रभुत्व स्थापित किया है।

भारत में REEs उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए आगे की राह

  • निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करना: REEs की खोज और खनन में अधिक निजी निवेश की अनुमति देना।
    • जापान के टोयोटा त्सुशो** (आंध्र प्रदेश संयंत्र) के साथ IREL की साझेदारी उन्नत प्रसंस्करण के लिए एक मॉडल है, इसी तरह के संयुक्त उद्यमों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • तकनीकी क्षमता में वृद्धि: विशेष रूप से भारी REEs के लिए उन्नत निष्कर्षण, शोधन और पृथक्करण प्रौद्योगिकियों में निवेश करना।
    • भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (Bhabha Atomic Research Centre-BARC), CSIR-NML और DRDO जैसे संस्थानों के तहत REEs R&D क्लस्टर स्थापित करना।
  • रणनीतिक अंतरराष्ट्रीय भागीदारी का निर्माण करना: ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान जैसे देशों के साथ महत्त्वपूर्ण खनिज गठबंधनों का विस्तार करना।
    • खानिज बिदेश इंडिया लिमिटेड (KABIL) अर्जेंटीना, चिली और अफ्रीका में लिथियम/कोबाल्ट परिसंपत्तियों की तलाश कर रही है। अफ्रीकी खदानों में चीन का प्रभुत्व एक बाधा है, भारत को बेहतर शर्तें और सतत् खनन मॉडल प्रस्तुत करने चाहिए।
  • REE-आधारित औद्योगिक पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करना: REE का उपयोग करके इलेक्ट्रॉनिक्स, EV, रक्षा और नवीकरणीय ऊर्जा में डाउनस्ट्रीम उद्योगों को बढ़ावा देना।
    • भारत ने वर्ष 2030 तक 30% EV बिक्री का लक्ष्य रखा है, जिससे EV मोटरों में उपयोग होने वाले नियोडिमियम-आयरन-बोरॉन (NdFeB) मैग्नेट की माँग बढ़ेगी।
  • ई-अपशिष्ट पुनर्चक्रण को बढ़ावा देना: इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट से REEs के शहरी खनन को बढ़ावा देना चाहिए।
    • कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और भारतीय विज्ञान संस्थान चुंबक और फ्लोरोसेंट लैंप से दुर्लभ पृथ्वी तत्त्वों को निकालने पर कार्य कर रहे हैं।
  • पर्यावरणीय स्थिरता पर ध्यान देना: REEs उत्पादन में पर्यावरण के अनुकूल और शून्य-अपशिष्ट प्रौद्योगिकियों को अनिवार्य करना।
    • सामुदायिक सहभागिता मॉडल (जैसे- यू.एस. ‘राइट-टू-नो’ कानून) सतत् खनन सुनिश्चित कर सकते हैं।

निष्कर्ष

स्मार्टफोन से लेकर सैटेलाइट तक, इलेक्ट्रिक वाहनों से लेकर उन्नत हथियार प्रणालियों तक, 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था के लिए दुर्लभ मृदा तत्व अपरिहार्य हैं। एक महत्त्वपूर्ण REEs हितधारक के रूप में भारत की क्षमता का अभी तक दोहन नहीं हुआ है। प्रभावी नीतिगत समर्थन, प्रौद्योगिकी संचार और स्थिरता पर ध्यान केंद्रित करने के साथ, REE भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और स्वच्छ तकनीक के भविष्य को शक्ति प्रदान कर सकते हैं।

संदर्भ 

11.2 गीगावाट की सियांग अपर बहुउद्देशीय परियोजना स्थानीय विरोध के कारण फिलहाल विलंबित है।

अपर सियांग (Upper Siang) के बारे में

  • प्रारंभ में इसे दो अलग-अलग परियोजनाओं के रूप में प्रस्तावित किया गया था, लेकिन वर्ष 2017 में इसे एक बड़ी परियोजना में समेकित कर दिया गया, जिसका निर्माण राष्ट्रीय जलविद्युत निगम (NHPC) द्वारा किया जाना था, जिसमें 300 मीटर ऊंचा बांध भी शामिल है।
    • यह परियोजना वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम 2023 के तहत पर्यावरण मंजूरी आवश्यकताओं से मुक्त है।

सियांग नदी के बारे में

  • तिब्बत में कैलाश पर्वत के पास से निकलने वाली सियांग नदी [जहाँ इसे यारलुंग त्सांगपो (Yarlung Tsangpo) के नाम से जाना जाता है] 1,000 किलोमीटर से अधिक पूर्व की ओर प्रवाहित होती है और सियांग/दिहांग के रूप में अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है।
  • यह असम में दिबांग और लोहित नदियों से मिलकर ब्रह्मपुत्र बन जाती है।

सामरिक महत्त्व

  • इसका उद्देश्य चीन की जलविद्युत अवसंरचना, विशेष रूप से तिब्बत के मेडोग काउंटी में प्रस्तावित 60,000 मेगावाट के ‘सुपर बांध’ का मुकाबला करना है।
  • चीनी बांध (Chinese Dam)
    • थ्री गॉर्जेस डैम (Three Gorges Dam) की क्षमता लगभग तीन गुना है।
    • इसे उत्तरी चीन की ओर जल मोड़ने के लिए डिजाइन किया गया है, जिससे जल के प्रवाह में व्यवधान, अचानक बाढ़ और नीचे की ओर जल की कमी संबंधी चिंताएँ बढ़ रही हैं।
  • भारत की परियोजना को एक रणनीतिक जल विज्ञान और भू-राजनीतिक मुद्दे के रूप में देखा जाता है।

पर्यावरण और सामाजिक चिंताएँ

  • बांध विरोधी संगठन परियोजना के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव के बारे में चिंता व्यक्त करते हैं।
  • अरुणाचल प्रदेश में संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र, वन्यजीव आवास और जैव विविधता के लिए खतरा बना हुआ है।
  • समुदायों का विस्थापन: यह परियोजना आदिम जनजाति के 300 से अधिक गांवों को जलमग्न कर सकती है।
  • वर्ष 2022 में, गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने सियांग नदी पर प्रस्तावित सभी 44 बांधों को रद्द कर दिया।
    • रद्दीकरण के बावजूद, सियांग नदी पर बांध बनाने की योजना अभी भी अस्तित्त्व में है।

संदर्भ

केंद्रीय गृह मंत्रालय (MAH) सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन (Suspension Of Operations- SoO) समझौते के आधारभूत नियमों की समीक्षा करने के लिए कुकी-जो विद्रोही समूहों के साथ चर्चा कर रहा  है।

  • हिंसा के ताजा प्रकरण के कारण समीक्षा बैठक हुई।

बैठक में चर्चा किए गए विषय

  • राष्ट्रीय राजमार्ग खोलना: राष्ट्रीय राजमार्ग-2 एवं 37 (भूमि से घिरे इम्फाल घाटी को क्रमशः नागालैंड तथा असम से जोड़ने वाले) को खोलना, जो कुकी-जो आबादी वाले क्षेत्रों से होकर गुजरते हैं।
  • केंद्रशासित प्रदेश की माँग: विद्रोही समूहों ने कुकी-जो लोगों के लिए विधानसभा युक्त केंद्र शासित प्रदेश की अपनी माँग दोहराई।
  • आधारभूत नियमों का उल्लंघन: कुकी-जो विद्रोही समूह को आधारभूत नियमों के उल्लंघन के बारे में बताया गया एवं उन्हें मैतेई आबादी वाले क्षेत्रों के पास स्थित शिविरों को बंद करने या स्थानांतरित करने का भी निर्देश दिया गया।

सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन (SoO) समझौते के बारे में

  • हस्ताक्षरकर्ता: ‘सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन’ पर सबसे पहले 22 अगस्त, 2008 को भारत सरकार, मणिपुर सरकार एवं कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन (Kuki National Organisation (KNO) के बीच संघर्ष समाप्त करने के लिए हस्ताक्षर किए गए थे।
    • यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट (UPF) एवं कुकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन (KNO) से मिलकर बने 30 विद्रोही समूहों में से 25 SoO का हिस्सा हैं जो मणिपुर के पहाड़ी जिलों में 14 नामित शिविरों में रह रहे हैं।

  • पृष्ठभूमि: वर्ष 1990 के दशक में कुकी-नागा संघर्ष के मद्देनजर SoO समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, जिसमें कुकी-जो समुदायों  के लिए एक स्वतंत्र भूमि की माँग की गई थी।
    • शांति वार्ता में निरंतर अनुपालन एवं प्रगति के आधार पर प्रत्येक वर्ष समझौते की समीक्षा की जाती है तथा इसे नवीनीकृत किया जाता है।
  • वर्तमान स्थिति: मणिपुर सरकार जमीनी नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए 29 फरवरी, 2024 को एकतरफा समझौते से अलग हो गई। तब से यह समझौता निलंबित है।
  • संयुक्त निगरानी समूह (JMG): सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन समझौते के अधिदेश को क्रियान्वित करने के लिए एक JMG की स्थापना की गई थी एवं इसे प्रत्येक महीने बैठक कर यह जाँचने का कार्य सौंपा गया था कि क्या आतंकवादी समूह समझौते की शर्तों का पालन कर रहे हैं। 
    • JMG में प्रमुख सचिव (गृह), महानिरीक्षक एवं अतिरिक्त महानिदेशक (खुफिया), सेना, अर्द्धसैनिक बलों तथा गृह मंत्रालय के प्रतिनिधि शामिल होंगे। 
  • समझौते की शर्तें
    • संघर्ष विराम समझौता: विद्रोही समूहों को सभी सशस्त्र गतिविधियों को बंद करना होगा, सरकार उनके खिलाफ सभी सैन्य अभियानों को रोक देगी।
    • नामित शिविर: आतंकवादी समूहों के कैडरों को नामित शिविरों में रहना होगा एवं पुनर्वास पैकेज के रूप में उन्हें ₹6,000 का मासिक वजीफा दिया जाएगा।
      • ऐसे शिविर आबादी वाले क्षेत्रों एवं राष्ट्रीय राजमार्गों के करीब नहीं होंगे। साथ ही, ऐसे शिविर अंतरराष्ट्रीय सीमा से दूर स्थित होंगे। 
    • निरस्त्रीकरण: सभी हथियार शिविर के शस्त्रागार में डबल लॉकिंग सिस्टम में रखे जाएंगे, जिसमें एक चाबी समूह के पास एवं दूसरी संबंधित सुरक्षा बल के पास होगी। 
      • कैडरों को अतिरिक्त हथियार, गोला-बारूद या सैन्य उपकरण हासिल करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
    • अपवर्जन: विद्रोही समूहों को कैडरों की नई भर्ती करने या अतिरिक्त सैन्य/नागरिक संगठन/फ्रंट संगठन बनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
      • वे स्मारक नहीं बनाएंगे, झंडे नहीं फहराएंगे या सशस्त्र कैडरों की परेड नहीं निकालेंगे।
    • राजनीतिक संवाद: यह समझौता शांतिपूर्ण वार्ता के माध्यम से राजनीतिक शिकायतों को दूर करने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है।

मणिपुर में जातीय हिंसा की शुरुआत कैसे हुई?

  • मैतेई समुदाय द्वारा ST दर्जे की माँग: मणिपुर की अनुसूचित जनजाति माँग समिति (STDCM) ने वर्ष 2012 से मणिपुर में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा दिए जाने की माँग की है।
  • मणिपुर उच्च न्यायालय का आदेश: मणिपुर उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को “मैतेई  समुदाय को अनुसूचित जनजाति (ST) सूची में शामिल किए जाने के अनुरोध पर विचार करने” का निर्देश दिया, जिससे कुकी समुदाय में आक्रोश उत्पन्न हो गया।
    • जनजातीय समूहों ने राज्य सरकार की कार्रवाई के विरोध में 28 अप्रैल 2023 को पूर्ण बंद का आह्वान किया।
  • कुकी समुदाय की चिंता: मैतेई को ST का दर्जा दिए जाने से शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में आरक्षित कोटा प्रभावित हो सकता है, साथ ही संरक्षित पहाड़ी क्षेत्रों में मैतेई भूमि के स्वामित्व की संभावना भी प्रभावित हो सकती है।
  • मणिपुर राज्य बेदखली अभियान: मणिपुर सरकार ने सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के खिलाफ कुकी आदिवासियों की आबादी वाले पहाड़ी क्षेत्रों में बेदखली अभियान चलाया, जिससे आदिवासियों में गुस्सा भड़क गया कि उन्हें अपने घरों से जबरन निकाला जा रहा है।
  • SoO समझौते से वापसी: मणिपुर सरकार ने समझौते के आधारभूत नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन  समझौते से एकतरफा वापसी कर ली।

कुकी विद्रोह की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • नागा आंदोलन के साथ-साथ उभरना: कुकी विद्रोह, नागा आंदोलन के समानांतर विकसित हुआ, दोनों स्वायत्तता एवं अपनी विशिष्ट जातीय पहचान की मान्यता के लिए प्रयास कर रहे थे।
    • कुकी सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1987 में कुकी राजनीतिक समाधान खोजने के लिए की गई थी।
  • वर्ष 1990 के दशक के दौरान वृद्धि: वर्ष 1990 के दशक की शुरुआत में मणिपुर में कुकी एवं नागाओं के बीच जातीय संघर्ष ने कुकी विद्रोह को अत्यधिक सीमा तक तीव्र कर दिया, जो कुकी द्वारा नागा आक्रामकता के रूप में माना जाने वाले प्रतिक्रिया के रूप में उभरा।
  • कुकी मातृभूमि बनाम नागा मातृभूमि: कुकी दावा करते हैं कि मणिपुर की पहाड़ियाँ उनकी “मातृभूमि” हैं, यह दावा ग्रेटर नागालैंड या नागालिम के लिए नागा आकांक्षा के साथ संघर्ष करता है, जिसमें वही क्षेत्र शामिल है।
  • टेंग्नौपाल नरसंहार: वर्ष 1993 में, नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड-इसाक-मुइवा (NSCN-IM) ने टेंग्नौपाल में कथित तौर पर लगभग 115 कुकी लोगों की हत्या कर दी थी। इस दुखद घटना को कुकी समुदाय द्वारा ‘काला दिन’ के रूप में याद किया जाता है।

संदर्भ

फिनलैंड के जैवस्कुले विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने एस्टेटाइन-188 (¹⁸⁸At) के क्षय का सफलतापूर्वक पता लगाया है और उसकी विशेषता बताई है।

प्रोटॉन उत्सर्जन क्या है?

  • प्रोटॉन उत्सर्जन रेडियोधर्मी क्षय का एक दुर्लभ रूप है जिसमें एक अस्थिर नाभिक अधिक स्थिर बनने के लिए एक प्रोटॉन का उत्सर्जन करता है।
  • प्रोटॉन उत्सर्जन क्यों होता है?
    • जब किसी नाभिक में बहुत अधिक प्रोटॉन जुड़ जाते हैं, तो वह एक ऐसे बिंदु पर पहुँच जाता है जहाँ अंतिम प्रोटॉन संयुक्त नहीं रह पाता और उत्सर्जित हो जाता है।
    • इसके परिणामस्वरूप प्रोटॉन उत्सर्जन होता है, जिसका निरीक्षण और अध्ययन करना कठिन होता है, क्योंकि ऐसे नाभिकों का उत्पादन दुर्लभ होता है तथा जीवनकाल भी अल्प होता है।

  • यह अन्य क्षय प्रकारों से किस प्रकार भिन्न है?
    • अधिकांश रेडियोधर्मी क्षय में अल्फा, बीटा या गामा उत्सर्जन शामिल होता है।
    • हालाँकि, प्रोटॉन उत्सर्जन, सीधे एक प्रोटॉन को बाहर निकालता है, जिससे यह बहुत दुर्लभ हो जाता है।
    • प्रोटॉन-उत्सर्जक समस्थानिकों के उदाहरण
      • एस्टेटाइन-188 (188At) को हाल ही में प्रोटॉन उत्सर्जन द्वारा क्षय होते हुए देखा गया था।
      • टेल्यूरियम-111 (111Te) और बिस्मथ-185 (185Bi) भी प्रोटॉन उत्सर्जक के रूप में जाने जाते हैं।
  • वैज्ञानिक महत्त्व
    • वैज्ञानिकों को परमाणु स्थिरता, परमाणु संरचना की सीमाओं को समझने और दुर्लभ परमाणु घटनाओं का पता लगाने में मदद करता है।
      • यह खगोल भौतिकी को समझने में मदद करता है, तारों में तत्वों के निर्माण को प्रभावित करता है।
      • सैद्धांतिक मॉडल में भी मदद करता है जो पूर्वानुमान लगता है कि भारी तत्व का क्षय  कैसे होते हैं।

एस्टेटाइन (Astatine- At) के बारे में

  • एस्टेटाइन (At) एक अत्यंत दुर्लभ और अत्यधिक रेडियोधर्मी तत्व है, जिसका परमाणु क्रमांक 85 है।
  • यह आवर्त सारणी में हैलोजन समूह (समूह 17) से संबंधित है
  • अन्य हैलोजनों के विपरीत, एस्टेटाइन का कोई स्थिर समस्थानिक नहीं है।
  • विशेषताएँ
    • अत्यधिक रेडियोधर्मी: सभी समस्थानिक अस्थिर हैं, 41 ज्ञात समस्थानिक (द्रव्यमान संख्या 188, 190-229)।
    • भौतिक गुण: संभवतः गहरे रंग का ठोस, आयनीकृत वायु के कारण नीली चमक उत्सर्जित करता है।
    • क्षय प्रक्रिया: 188-एस्टेटाइन एक प्रोटॉन उत्सर्जित करता है, जो 187-पोलोनियम में परिवर्तित हो जाता है, जो तीव्रता से 183-लेड में विघटित हो जाता है।
    • रासायनिक व्यवहार: आयोडीन के समान, लेकिन इसमें अधिक धात्विक गुण होते हैं।

संदर्भ

IISER भोपाल के शोधकर्ताओं ने बताया है, कि किस प्रकार एक प्रोटीन, BBX32, पौधों को भूमिगत से प्रकाश परिदृश्य में आने में मदद करता है, जो कि सफल पौध विकास के लिए एक महत्त्वपूर्ण कदम है।

मुख्य खोज

  • पौधों में पाया जाने वाला प्रोटीन BBX32, अंकुर के मृदा से प्रकाश परिदृश्य की ओर बढ़ने पर उसके सुरक्षात्मक नोड्स को खोलने पर नियंत्रण करने में मदद करता है।
  • इस नोड्स को, जिसे शीर्ष नोड्स कहा जाता है, मृदा से बाहर निकलते समय अंकुरण के शीर्ष की रक्षा करता है। इसके अंकुरण का समय महत्त्वपूर्ण है, तो अत्यधिक अंकुरण क्षतिग्रस्त हो सकता है; तो विकास रुक सकता है।

यह कैसे कार्य करता है?

  • अध्ययन से पता चलता है कि BBX32 नोड्स को लंबे समय तक बंद रखता है, जिससे अंकुरण अपनी भूमिगत यात्रा के दौरान बेहतर तरीके से सुरक्षित रहता है।
  • एथिलीन, एक प्लांट हार्मोन है जो भूमिगत रूप से निर्मित होता है, BBX32 को सक्रिय करता है, जबकि प्रकाश BBX32 को नष्ट होने से बचाता है।
  • BBX32 एक अन्य प्रोटीन (PIF3) को सक्रिय करता है, जो एक जीन (HLS1) को क्रियान्वित करता है जो नोड्स को बंद रखता है।

पौधों का आकार हुक जैसा क्यों होता है?

  • जब कोई बीज जमीन के नीचे अंकुरित होता है, तो उसका तना संवेदनशील अंकुर के शीर्ष की रक्षा के लिए एक हुक का निर्माण करता है।
  • जब तक अंकुर सतह पर नहीं पहुँच जाता और प्रकाश का सामना नहीं करता, तब तक नोड्स को बंद रहना चाहिए।
  • नोड्स के खुलने को नियंत्रित करने वाले मुख्य कारक
    • एथिलीन, एक पौधा हार्मोन है, जो भूमिगत रूप से बनता है और विकास समायोजन का संकेत देता है।
      • उच्च एथिलीन स्तर नोड्स के खुलने में देरी करता है जब तक कि अंकुर सतह पर नहीं पहुँच जाता, जिससे समय से पहले संपर्क को रोका जा सकता है।
    • प्रकाश संपर्क BBX32 को विनियमित करने में मदद करता है, जिससे समय से पहले नोड्स खुलने से रोका जा सकता है।

BBX32 क्या है?

  • BBX32 एक जीन है जो नोड्स को लंबे समय तक बंद रखने में मदद करता है।
  • यह एथिलीन द्वारा सक्रिय होता है।
    • प्रकाश BBX32 को पौधे के अंदर विखंडित होने से बचाता है।
  • अन्य प्रोटीनों के साथ अंतःक्रिया
    • BBX32 PIF3 (फाइटोक्रोम-इंटरैक्टिंग फैक्टर 3) की गतिविधि को बढ़ाता है, जो HLS1 (नोड्सलेस 1) को सक्रिय करता है, जिससे नोड्स बंद रहता है।
    • अगर PIF3 मौजूद है, तो BBX32 नोड्स को खुलने से नहीं रोक सकता।

अध्ययन का महत्त्व:

  • निष्कर्ष बताते हैं कि पौधे किस तरह हार्मोनल (एथिलीन) और पर्यावरण (प्रकाश) संकेतों को एकीकृत करके सटीक विकासात्मक निर्णय लेते हैं।
  • BBX32 का निर्माण केवल तभी होता है जब यह उपयोगी होता है: एथिलीन के साथ अंधेरे में और जब पहली बार प्रकाश दिखाई देता है।
    • यह प्रणाली पौधे को मृदा से बाहर निकलने के तनाव से बचने के लिए अपने विकास का सही समय निर्धारित करने में मदद करती है।
  • BBX32 की भूमिका को समझने से वैज्ञानिकों को ऐसी फसलें उगाने में मदद मिल सकती है जो सघन मृदा से भी आसानी से निकल सकती हैं। इस ज्ञान का उपयोग करके, हम ऐसी मजबूत फसलें विकसित कर सकते हैं जो कठिन परिस्थितियों में भी बेहतर तरीके से जीवित रह सकती हैं।

संदर्भ

मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट द्वारा नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन में निकेल निकालने के लिए कार्बन-मुक्त, हाइड्रोजन प्लाज्मा विधि का प्रस्ताव दिया गया है।

निकल के बारे में

  • निकल एक चांदी जैसी सफेद धातु है जो अपनी मजबूती, संक्षारण प्रतिरोध और मिश्र धातु बनाने की क्षमता के लिए जानी जाती है।
  • प्राकृतिक उपस्थिति: यह प्राकृतिक रूप से अपने शुद्ध, धातु रूप में शायद ही कभी पाया जाता है।
    • इसके स्थान पर इसे सल्फाइड और लेटराइट अयस्कों से प्रायः तांबे, कोबाल्ट और लोहे जैसी अन्य धातुओं के साथ निष्कासित किया जाता है, ।
  • प्राथमिक अयस्क: सल्फाइड अयस्क: जैसे, पेंटलैंडाइट।
    • लैटेराइट अयस्क: जैसे, गार्नियराइट (निकल-समृद्ध हरा खनिज)।
  • शीर्ष वैश्विक उत्पादक: इंडोनेशिया सबसे बड़ा निकल उत्पादक है।
    • यह अपने प्रचुर लैटेराइट भंडार और घरेलू मूल्य संवर्धन पर रणनीतिक ध्यान केंद्रित करने के कारण विश्व के निकेल उत्पादन में 50% से अधिक का योगदान देता है।
  • भारत में निकेल
    • ओडिशा के जाजपुर जिले में सुकिंदा घाटी अपने निकेलिफेरस लैटेराइट अयस्क भंडार के लिए जानी जाती है।
      • यह एक प्रमुख क्रोमाइट भंडार है और भारत में निकेल का एकमात्र ज्ञात भंडार है।
      • ये भंडार क्रोमाइट खदानों के लैटेराइट क्रोमाइट ओवरबर्डन (Chromite Overburden- COB) के भीतर निकेलिफेरस लिमोनाइट के रूप में पाए जाते हैं।
    • झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में तांबे के खनिजीकरण के साथ-साथ निकेल सल्फाइड के रूप में भी पाया जाता है।
      • इसके अलावा, यह झारखंड के जादुगोडा में यूरेनियम भंडार के साथ भी पाया जाता है।
    • निकल की अन्य रिपोर्ट कर्नाटक, केरल और राजस्थान से प्राप्त हुई हैं।
    • पॉलीमेटेलिक नोड्यूल्स निकल का एक अन्य स्रोत हैं।
  • अनुप्रयोग: यह लिथियम-आयन बैटरी, इलेक्ट्रिक वाहन (EV) और नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्रों में एक प्रमुख घटक है।
    • निकल को जब लोहे में थोड़ी मात्रा में मिलाया जाता है, तो इसके गुण कई गुना बढ़ जाते हैं और उत्पाद कठोर एवं स्टेनलेस बन जाता है।
    • निकल के अन्य उपयोग सिरेमिक, विशेष रासायनिक बर्तन, रिचार्जेबल निकेल-कैडमियम भंडारण बैटरी, इलेक्ट्रॉनिक सर्किट, कंप्यूटर हार्ड डिस्क, आभूषण, काँच का हरा रंग और निकल यौगिकों की तैयारी से संबंधित है।
  • बढ़ती वैश्विक माँग: वैश्विक माँग तेजी से बढ़ रही है और वर्ष 2040 तक इसके वार्षिक रूप से 6 मिलियन टन को पार कर जाने की उम्मीद है (IEA)।

पारंपरिक निकल निष्कर्षण:

  • कई चरण: कैल्सीनेशन, स्मेल्टिंग, रिडक्शन और रिफाइनिंग।
  • कार्बन को ‘रिड्यूसिंग एजेंट’ के रूप में उपयोग करता है, जिससे CO₂ का उत्सर्जन उच्च होता है।
  • ऊर्जा-गहन और प्रदूषण जनित प्रक्रिया।

नई पद्धति: हाइड्रोजन प्लाज्मा-आधारित निष्कर्षण

  • यह एक एकल-चरण धातुकर्म प्रक्रिया है जो विद्युत चाप भट्टी में संचालित होती है।
  • हाइड्रोजन प्लाज्मा का उपयोग करता है (हाइड्रोजन गैस, जब विद्युत चाप में उच्च-ऊर्जा इलेक्ट्रॉनों के अधीन होती है, तो उच्च-ऊर्जा आयनों में विभाजित हो जाती है, जो प्लाज्मा अवस्था में प्रवेश करती है)।
    • प्लाज्मा पदार्थ की चौथी अवस्था है जो अत्यधिक गर्म, प्रतिक्रियाशील और तेजी से कार्य करने वाली होती है।
  • हाइड्रोजन अपचायक के रूप में कार्बन का स्थान ग्रहण करता है।

हाइड्रोजन प्लाज्मा-आधारित निकल निष्कर्षण का महत्त्व

  • कार्बन-मुक्त प्रक्रिया: जल (H₂O) एकमात्र उपोत्पाद है और यह पारंपरिक तरीकों की तुलना में CO₂ उत्सर्जन को 84% तक कम करता है।
  • ऊर्जा कुशल: 18% तक अधिक ऊर्जा कुशल।
  • गतिज रूप से बेहतर प्रक्रिया: प्लाज्मा की अत्यधिक प्रतिक्रियाशील और अस्थिर प्रकृति के कारण रासायनिक प्रतिक्रिया अधिक ऊर्जावान रूप से अनुकूल है।

संदर्भ

अमेरिकी शोधकर्ताओं ने मैग्नेटिक आइसोलेशन एंड कंसन्ट्रेशन (MagIC) नामक एक नई क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी विधि विकसित की है, जो पहले की तुलना में 100 गुना कम सांद्रता पर जैविक अणुओं की इमेजिंग की अनुमति देती है।

क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी के बारे में 

  • क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (cryo-EM) एक उन्नत इमेजिंग तकनीक है, जिसका उपयोग प्रोटीन, वायरस या डीएनए जैसे जैविक अणुओं की विस्तृत संरचना का अध्ययन करने के लिए बहुत उच्च रिजाॅल्यूशन पर किया जाता है।
  • मुख्य सिद्धांत: जैविक नमूनों को तेजी से काँच के समान (गैर-क्रिस्टलीय) दिखने वाली बर्फ में जमाया जाता है और फिर क्रायोजेनिक परिस्थितियों में इलेक्ट्रॉन बीम का उपयोग करके उनकी इमेज बनाई जाती है।
    • इससे उनकी प्राकृतिक संरचना सुरक्षित रहती है और विकिरण क्षति से बचाव होता है।
  • सीमाएँ: क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (Cryo-EM) के लिए जैविक अणुओं की उच्च सांद्रता की आवश्यकता होती है।
    • दुर्लभ या अलग करने में कठिन अणुओं की कम उपलब्धता के कारण उनकी इमेज बनाना मुश्किल है।
  • नेशनल क्रायो EM (National Cryo EM) सुविधाएँ: पहली नेशनल क्रायो-EM सुविधा वर्ष 2017 में राष्ट्रीय जैविक विज्ञान केंद्र (NCBS) में स्थापित की गई थी और उसके बाद IISc, बंगलूरू और RCB फरीदाबाद, IIT कानपुर में स्थापित की गई थी।

MagIC (मैग्नेटिक आइसोलेशन एंड कंसन्ट्रेशन) की मुख्य विशेषताएँ

  • चुंबकीय क्लस्टरिंग: नई विधि नमूने में रुचि के अणुओं को 50-NM बीड्स (Beads) से जोड़कर कार्य करती है, फिर बीड्स को एक साथ जोड़ने के लिए चुंबक का उपयोग करती है।
  • कम सांद्रता पर दक्षता: यह तकनीक 0.0005 मिलीग्राम/ML जितनी कम सांद्रता वाले नमूने के साथ भी इमेजिंग की अनुमति देती है, जिससे नमूने की आवश्यकताएँ काफी कम हो जाती हैं।
  • त्वरित माइक्रोस्कोपी: बीड्स (Beads) कम आवर्धन पर भी आसानी से दिखाई देती हैं, जिससे कण-समृद्ध क्षेत्रों की तेजी से पहचान और डेटा अधिग्रहण संभव होता है।
  • नॉइस रिडक्शन स्ट्रेटेजी: छोटे कण प्रायः बैकग्राउंड नॉइज में छिप जाते हैं।
    • उन्हें बाहर निकालने के लिए, शोधकर्ताओं ने डुप्लिकेटेड सिलेक्शन टू एक्सक्लूड रबिश (Duplicated Selection To Exclude Rubbish-DuSTER) नामक एक ‘कंप्यूटर वर्कफ्लो’  का निर्माण किया।
    • दो-चरणीय सत्यापन: DuSTER एल्गोरिदम ने प्रत्येक कण को ​​दो बार चुना, 2D या 3D वर्गीकरण के दो दौर के बाद उसी स्थान पर उतरने वाले कणों को रखा और बाकी को निष्कासित कर दिया।
    • यहाँ तक ​​कि जब क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप (cryo-EM) इमेज नॉइज से भरी होती हैं और अनुपयोगी लगती हैं, तब भी DuSTER सॉफ्टवेयर उनसे उपयोगी, उच्च-गुणवत्ता वाले पार्टिकल इमेज की पहचान करने और उन्हें निकालने में सक्षम है।

मैजिक (MagIC) का महत्त्व

  • वैज्ञानिक उन्नति: दुर्लभ, कम सांद्रता वाले जैव-अणुओं के संरचनात्मक अध्ययन की अनुमति देता है।
  • नमूना दक्षता: नमूना माँग को घटाकर केवल 5 नैनोग्राम प्रति ग्रिड कर देता है।
  • डेटा गुणवत्ता: बेहतर सटीकता के लिए चुंबकीय लक्ष्यीकरण को कंप्यूटर फिल्टरिंग के साथ जोड़ता है।
  • गति: वैज्ञानिक तेजी से कण समृद्ध क्षेत्रों में माइक्रोस्कोप ले जा सकते हैं, जिससे डेटा संग्रहण में तेजी आती है।

संदर्भ 

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2026 को अंतरराष्ट्रीय महिला किसान वर्ष (International Year of the Woman Farmer) घोषित किया है।

  • यह पहल कृषि और खाद्य सुरक्षा में महिलाओं की आवश्यक भूमिका को मान्यता देती है, साथ ही भूमि स्वामित्व, बाजार पहुँच, ऋण और प्रौद्योगिकी में लैंगिक असमानताओं को भी दूर करती है।

मुख्य बिंदु: कृषि में महिलाओं की भूमिका

  • महिलाएँ वैश्विक खाद्य आपूर्ति में लगभग 50% का योगदान देती हैं।
  • विकासशील देशों में महिलाएँ 60-80% खाद्य उत्पादन करती हैं।
  • दक्षिण एशिया में, महिलाएँ कृषि श्रमिकों का 39% हिस्सा हैं।
  • भारत में, आर्थिक रूप से सक्रिय महिलाओं में से लगभग 80% कृषि कार्य में संलग्न हैं, लेकिन केवल 8.3% के पास कृषि भूमि है और 14% के पास भूमि स्वामित्व है (नवीनतम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार)।
  • PLFS 2023-24 के अनुसार, तीन-चौथाई (76.95%) से अधिक ग्रामीण महिलाएँ अब कृषि कार्य में संलग्न हैं, जो कृषक और मजदूर के रूप में उनकी भूमिका में उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाता है।

महिला किसानों के समक्ष चुनौतियाँ

  • कार्य का दोहरा बोझ: महिलाएँ प्रायः कृषि कार्य के साथ-साथ अवैतनिक घरेलू जिम्मेदारियाँ भी निभाती हैं।
    • इससे उनका समय, उत्पादकता और निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सीमित हो जाती है।
  • भूमि स्वामित्व कम होना: ऋण, प्रौद्योगिकी और सरकारी योजनाओं तक पहुँच को सीमित करता है।
  • कृषि-सलाह तक सीमित पहुँच: डिजिटल डिवाइड (मोबाइल/इंटरनेट उपयोग) के कारण कृषि संबंधी सलाह तक सीमित पहुँच है।
    • 15 वर्ष से अधिक आयु की 51% ग्रामीण महिलाओं के पास मोबाइल फोन नहीं है (NSO)।
  • जलवायु संवेदनशीलता: महिलाओं के घरेलू और कृषि संबंधी बोझ में वृद्धि करता है।
    • उदाहरण के लिए: विदर्भ, महाराष्ट्र में आत्महत्या करने वाले किसानों की विधवाएँ ऋण चुकौती और कानूनी भूमि स्वामित्व के मुद्दों से जूझ रही हैं।
  • अपर्याप्त वित्तपोषण: माइक्रोफाइनेंस सहायता करता है, लेकिन प्रायः पूंजी निवेश के लिए अपर्याप्त होता है।

महिला किसानों के लिए सरकारी हस्तक्षेप

  1. महिला किसान सशक्तीकरण परियोजना (Mahila Kisan Sashaktikaran Pariyojana)
    • इसका उद्देश्य महिला किसानों के लिए कौशल निर्माण और संसाधनों तक पहुँच उपलब्ध कराना है।
  2. कृषि मशीनीकरण पर उप-मिशन (Sub-Mission on Agricultural Mechanisation)
    • मशीनरी पर 50-80% सब्सिडी प्रदान करता है।
  3. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (National Food Security Mission-NFSM)
    • कुछ राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में महिलाओं के लिए 30% धनराशि निर्धारित की गई।

केस स्टडी: ENACT प्रोजेक्ट (असम)

  • ENACT प्रोजेक्ट मुख्य रूप से महिला किसानों को सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से विशेषज्ञों से जोड़ती है, तथा उन्हें उनके फोन के माध्यम से साप्ताहिक रूप से कृषि एवं जलवायु संबंधी सलाह उपलब्ध कराती है।
    • ENACT: प्रकृति-आधारित समाधान और लैंगिक परिवर्तनकारी दृष्टिकोण के माध्यम से जलवायु अनुकूलन को बढ़ाना। 
  • विश्व खाद्य कार्यक्रम असम सरकार द्वारा संचालित, नॉर्वे द्वारा वित्तपोषित किया गया है।
  • फोकस
    • जलवायु-अनुकूल किस्मों (जैसे- बाढ़-प्रतिरोधी चावल) को बढ़ावा देना।
    • मोबाइल फोन के माध्यम से साप्ताहिक जलवायु सलाह।
    • महिलाओं द्वारा संचालित स्मार्ट बीज उत्पादन प्रणाली।
    • जलवायु अनुकूलन सूचना केंद्रों का उपयोग।
    • राज्य विभागों और कृषि विश्वविद्यालयों के साथ संस्थागत सहयोग।

अन्य उल्लेखनीय उदाहरण: बिहार में जीविका कार्यक्रम।

आगे की राह: नीतिगत सिफारिशें

  • लैंगिक-संवेदनशील नीतिगत डिजाइन
    • महिलाओं की विशिष्ट चुनौतियों के लिए लक्षित हस्तक्षेप के लिए विस्तृत, लैंगिक आधारित  डेटा एकत्र करना।
      • उदाहरण के लिए: प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना ने महिला किसानों के लिए सिंचाई योजनाओं तक पहुँच के लिए विशेष प्रावधान प्रस्तुत किए हैं।
  • संसाधनों तक पहुँच
    • भूमि, ऋण, डिजिटल तकनीक, मौसम संबंधी जानकारी सेवाओं आदि तक पहुँच में सुधार लाना।
    • संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, कृषि संसाधनों, कौशल विकास और अवसरों तक पुरुषों और महिलाओं की समान पहुँच सुनिश्चित करके विकासशील देशों में कृषि उत्पादन को 2.5 से 4% तक बढ़ाया जा सकता है।
  • महिलाओं के नेतृत्व वाली कृषि-मूल्य शृंखलाएँ
    • महिला स्वयं सहायता समूहों, सामूहिक कार्रवाई और मूल्य-श्रृंखला भागीदारी को समर्थन प्रदान करना।
  • क्षमता निर्माण एवं व्यवहार परिवर्तन
    • योजना, प्रौद्योगिकी प्रसार, निर्णय लेने में भागीदारी सुनिश्चित करना।
  • महिला किसानों के प्रति सामाजिक धारणा में परिवर्तन: कृषि में महिलाओं को समान योगदानकर्ता के रूप में मान्यता देने से लैंगिक पूर्वाग्रहों को चुनौती मिल सकती है और उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार हो सकता है।
    • उदाहरण के लिए: महाराष्ट्र में “किसान सखी” पहल महिलाओं के नेतृत्व वाले किसान समूहों को बढ़ावा देती है, जिससे उन्हें बाजार में पहचान और नेतृत्व की भूमिका मिलती है।

निष्कर्ष 

वर्ष 2026 को अंतरराष्ट्रीय महिला कृषक वर्ष घोषित किया जाना, लचीले कृषि विकास और लैंगिक समानता को आगे बढ़ाने के लिए एक ऐतिहासिक अवसर प्रस्तुत करता है।

  • महिला किसानों को मान्यता देकर, उन्हें सशक्त बनाकर और उनमें निवेश करके हम खाद्य सुरक्षा को मजबूत कर सकते हैं, समावेशी आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकते हैं तथा सतत, जलवायु-अनुकूल कृषि प्रणालियों को बढ़ावा दे सकते हैं।

संदर्भ

केरल ने वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 में संशोधन की माँग की है ताकि उसे मानव जीवन और संपत्तियों के लिए खतरा उत्पन्न करने वाले जंगली जानवरों (अनुसूची 1) को मारने की अनुमति मिल सके।

केरल में वन्यजीव समस्याओं के बारे में

  • केरल सरकार ने 941 गाँवों में से 273 स्थानीय निकायों को वन्यजीव हमलों के लिए संवेदनशील क्षेत्रों के रूप में चिन्हित किया है।
    • जनहानि: सरकारी आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016-17 से वर्ष 2024-25 तक केरल में वन्यजीवों के हमलों में 919 से अधिक लोग मारे गए और 8,967 अन्य घायल हुए।
  • वे जानवर जिनकी वजह से समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं: 
    • केरल सरकार वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की धारा 62 के तहत जंगली सूअरों को एक निश्चित अवधि के लिए हानिकारक जानवर घोषित करना चाहती है।
    • बोनट मकाॅक (Bonnet Macaque) को अनुसूची I की श्रेणी से हटाए जाने की सिफारिश की गई है।
  • केरल में मानव-वन्यजीव संघर्ष का कारण
    • जंगली सूअरों और बंदरों की विभिन्न प्रजातियों (बोनेट मकाॅक) की संख्या में वृद्धि मानव बस्तियों में हानिकारक प्रभाव उत्पन्न कर रही है।
    • वन्यजीव आबादी में क्षेत्रीय उतार-चढ़ाव देखा जा रहा है।
    • आवास में कमी: अतिक्रमण एवं विकास गतिविधियों के कारण जानवरों के आवास में कमी आ रही है, जिससे उन्हें संरक्षित स्थानों से बाहर जाना पड़ रहा है।
    • वन क्षेत्रों में घरेलू मवेशियों का चरना।
    • कृषि विस्तार और फसल पद्धति में परिवर्तन।
    • बोनेट मकाॅक और मयूर पक्षी के बार-बार आक्रमण ने किसानों को कृषि भूमि के विशाल भू-भाग को छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (WPA) 1972

  • WPA भारतीय कानून का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जिसका उद्देश्य वन्यजीव संरक्षण और प्रबंधन तथा जंगली जानवरों, पौधों और उनसे बने उत्पादों के व्यापार के विनियमन एवं नियंत्रण के लिए एक कानूनी ढाँचा प्रदान करके वन्यजीवों और उनके आवासों की रक्षा करना है।
  • अधिनियम के तहत संरक्षित क्षेत्र: इस अधिनियम के तहत पाँच प्रकार के संरक्षित क्षेत्र बनाए गए हैं:-
    • वन्यजीव अभयारण्य, राष्ट्रीय उद्यान, संरक्षण रिजर्व, सामुदायिक रिजर्व और बाघ रिजर्व।
  • अधिनियम के अंतर्गत वन्यजीवन हेतु प्रमुख पहल
    • प्रोजेक्ट टाइगर: इसे बाघों की आबादी को संरक्षित करने के लिए वर्ष 1973 में लॉन्च किया गया था।
    • प्रोजेक्ट एलीफेंट: इसे हाथियों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 1992 में लॉन्च किया था।
    • वन्यजीव गलियारे: इस अधिनियम के तहत कुल 88 गलियारों की पहचान की गई थी।
      • उदाहरण: भारत का पहला शहरी वन्यजीव गलियारा नई दिल्ली और हरियाणा के बीच असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य (Asola Bhatti wildlife sanctuary) के पास बनने जा रहा है।
  • वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 में वन्य जीवों को मारने का प्रावधान
    • अधिनियम की धारा 11(1)(a): यह मुख्य वन्यजीव वार्डन को अनुसूची I में सूचीबद्ध जानवरों के शिकार के लिए परमिट देने का अधिकार देता है, यदि वे मानव जीवन के लिए खतरनाक हो जाते हैं या असाध्य रूप से बीमार हो जाते हैं।
    • धारा 11(1)(b): यह मुख्य वन्यजीव वार्डन या किसी प्राधिकृत अधिकारी को अनुसूची II, III या IV में सूचीबद्ध जंगली जानवरों के शिकार के लिए परमिट देने की अनुमति देता है, यदि वे मानव जीवन या संपत्ति के लिए खतरनाक हो जाते हैं या विकलांग या बीमार हो जाते हैं, जिन्हें ठीक नहीं किया जा सकता।
    • धारा 62: यह केंद्र सरकार को अनुसूची I और अनुसूची II में निर्दिष्ट जानवरों के अलावा किसी भी जंगली जानवर को किसी भी क्षेत्र और निर्दिष्ट अवधि के लिए ‘पीड़क’ (Vermin) घोषित करने की शक्ति प्रदान करता है।
      • एक बार ‘पीड़क’ घोषित होने के बाद, यह प्रजाति सभी कानूनी संरक्षण खो देती है, और इसका अप्रतिबंधित शिकार किया जा सकता है।
    • अन्य प्रावधान: सरकार को मानव-वन्यजीव संघर्ष से निपटने के दौरान बाघ संरक्षण प्राधिकरण और ‘प्रोजेक्ट एलीफेंट स्कीम’ की सलाह का भी पालन करना होगा।
  • वन्यजीव संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2022
    • संरक्षण: इस अधिनियम का उद्देश्य कानून के तहत संरक्षित प्रजातियों की संख्या बढ़ाना और CITES को लागू करना है।
    • श्रेणियाँ: अनुसूचियों की संख्या पहले की 6 से घटाकर चार कर दी गई है:-
      • अनुसूची I: इसमें उच्चतम स्तर की सुरक्षा प्राप्त पशु प्रजातियाँ शामिल हैं।
        • उदाहरण: चिंकारा/इंडियन गजल, अंडमान हॉर्सशू बैट, एशियाई जंगली कुत्ता/ढोल।
      • अनुसूची II: कम संरक्षण के अधीन पशु प्रजातियों के लिए।
        • उदाहरण: नीलगाय, चित्तीदार हिरण/चित्तल, भारतीय हाथी।
      • अनुसूची III: संरक्षित पौधों की प्रजातियों के लिए।
        • उदाहरण: वृक्ष हल्दी, नीलकुरिंजी, नीला वांडा।
      • अनुसूची IV: CITES के अंतर्गत अनुसूचित नमूनों के लिए।
        • उदाहरण: रेड पांडा, ऊदबिलाव आदि।
      • यह अधिनियम हाथियों को ‘धार्मिक या किसी अन्य उद्देश्य’ के लिए उपयोग करने की अनुमति देता है।

जानवरों को मारने के नकारात्मक प्रभाव

  • संपार्श्विक क्षति: मानव-वन्यजीव संघर्ष के घातक नियंत्रण के तरीके लक्षित प्रजातियों को खतरे में डालते हैं, लेकिन जाल एवं फंदे प्रायः गैर-लक्षित जानवरों के लिए घातक सिद्ध होते हैं।
    • उदाहरण: कर्नाटक के नागरहोल नेशनल पार्क में जंगली सूअरों को मारने के लिए लगाए गए जाल में बाघ, तेंदुए और भालू जैसे संरक्षित जानवर फँस रहे थे।
  • संघर्ष में वृद्धि: बड़े पैमाने पर अवैज्ञानिक शिकार प्रजातियों के बीच शक्ति पदानुक्रम को बाधित करता है क्योंकि जब समूह का नेतृत्त्वकर्त्ता सदस्य मर जाता है, तो बच्चे या उप-वयस्क तबाही मचा सकते हैं और अधिक संघर्ष उत्पन्न कर सकते हैं।
    • उदाहरण: वर्ष 2020 की गणना के अनुसार, हिमाचल प्रदेश में ‘रीसस मकाॅक’ की आबादी में 33.5 प्रतिशत की कमी आई है, फिर भी संघर्ष बढ़ रहे हैं।
  • पारिस्थितिकी असंतुलन: किसी विशेष प्रजाति को सामूहिक रूप से निशाना बनाने से गंभीर पारिस्थितिकी असंतुलन उत्पन्न होता है क्योंकि इससे खाद्य श्रृंखला में रिक्तता उत्पन्न होगी, जिससे पारिस्थितिकी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
  • आनुवंशिकी: विशिष्ट लक्षणों के आधार पर शिकार करने से मजबूत चयन दबाव उत्पन्न हो सकता है, जिससे संभावित रूप से आबादी से लाभकारी लक्षण समाप्त हो सकते हैं और आनुवंशिक विविधता कम हो सकती है।
  • प्रतिशोधी हत्याओं में वृद्धि: शिकार का समर्थन करने वाली एक सरकारी नीति अन्य वन्यजीव प्रजातियों की अवैध प्रतिशोधी हत्याओं को भी बढ़ा सकती है, जब जानकारी और जागरूकता की कमी होती है, जिससे कमजोर प्रजातियों को खतरा होता है।
    • उदाहरण: फसल पर हमला करने की घटनाओं के कारण पलक्कड़ में हाथियों को अवैध रूप से विशेष दिया जाना, संघर्ष-प्रेरित हत्याओं में वृद्धि को दर्शाता है।
  • जूनोटिक रोग जोखिम: यदि मारे गए जानवर को ठीक से प्रबंधित और निपटाया नहीं जाता है, तो जूनोटिक रोगों का जोखिम बढ़ सकता है।
  • कोई वास्तविक संख्या लाभ नहीं: कई अध्ययनों से पता चला है कि लक्षित जानवरों की आबादी में एक संक्षिप्त गिरावट अवधि के बाद काफी वृद्धि हुई है क्योंकि कुछ व्यक्तियों को हटाने से अधिक भोजन के लिए स्थान बनती है और बचे हुए लोगों में प्रजनन दर में वृद्धि होती है।

आगे की राह

  • मानव-वन्यजीव संघर्ष प्रबंधन के गैर-घातक साधन: मानव-वन्यजीव संघर्ष प्रबंधन में पशुधन की रक्षा करने वाले पशु, निवारक उपाय, विकर्षक (Repellents), विपथनकारी भोजन, और नसबंदी जैसे गैर-घातक साधन, घातक उपायों की तुलना में अधिक प्रभावी सिद्ध हुए हैं।
  • वैज्ञानिक डेटाबेस बनाए रखना: फसल क्षति की सीमा पर डेटाबेस बनाए रखना और समस्या उत्पन्न करने वाले जानवरों और संघर्ष पैटर्न पर वैज्ञानिक सर्वेक्षण या गणना करना।
    • उदाहरण: स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाने के लिए स्थान विशिष्ट वैज्ञानिक जानकारी एकत्र करना और लक्षित शमन योजनाएँ बनाना, ताकि वे कमजोर क्षेत्रों के आसपास बायो-फेंसिंग और पावर फेंसिंग स्थापित और बनाए रख सकें।
  • सामुदायिक भागीदारी: स्थानीय समुदायों को संघर्षों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए ज्ञान और संसाधनों से सशक्त बनाने की आवश्यकता है और प्राकृतिक संसाधनों पर उनकी निर्भरता को कम करने और संघर्ष को कम करने के लिए एक स्थायी आजीविका विकल्प प्रदान किया जाना चाहिए।
    • उदाहरण: वायनाड में समुदाय द्वारा संचालित फसल सुरक्षा उपायों से हाथियों के हमलों में 30% की कमी आई।
  • पर्यावास प्रबंधन: संरक्षित क्षेत्रों, बफर जोन और वन्यजीव गलियारों के माध्यम से वन्यजीव आवासों की सुरक्षा और पुनर्स्थापना जानवरों को स्वतंत्र रूप से घूमने और आवास विखंडन को कम करने की अनुमति देकर मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम कर सकती है।
  • तकनीकी विधि: SMS आधारित अलर्ट के माध्यम से स्वचालित वन्यजीव पहचान और चेतावनी प्रणाली, ड्रोन के माध्यम से वन्यजीव निगरानी और त्वरित प्रतिक्रिया जैसे आधुनिक तकनीकी तरीकों का उपयोग करना ताकि संघर्षों की निगरानी और उन्हें कम किया जा सके, फसलों, संपत्ति और मानव जीवन को बचाया जा सके।
  • निवारक उपाय अपनाना: ध्वनि, चमकदार रोशनी या अप्रिय गंध जैसे अप्रिय निवारक उपाय अपनाना वन्यजीवों को मानव क्षेत्रों में आने से हतोत्साहित करता है।
    • उदाहरण: फसल पर हमला करने वालों को रोकने के लिए बाघ की दहाड़ या हाथी की आवाज जैसी ध्वनि का उपयोग करना।
  • मुआवजा नीति: वन्यजीवों द्वारा होने वाले नुकसान को राष्ट्रीय फसल/कृषि बीमा कार्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि किसानों को फसल हानि की भरपाई सुनिश्चित की जा सके। इससे न केवल किसानों को आर्थिक सुरक्षा मिलेगी, बल्कि वन्यजीवों को भी साझा ग्रामीण पारिस्थितिकी तंत्र का स्वाभाविक हिस्सा मानने की दिशा में सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ेगी।

संदर्भ

केंद्रीय श्रम मंत्रालय के अध्ययन के अनुसार, भारत में गिग कार्यबल वर्ष 2047 तक 62 मिलियन तक बढ़ जाएगा।

संबंधित तथ्य

  • केंद्रीय श्रम मंत्रालय से संबद्ध वी.वी. गिरि राष्ट्रीय श्रम संस्थान (VV Giri National Labour Institute- VVGNLI) द्वारा किए गए अध्ययन में गिग श्रमिकों पर नीति आयोग की वर्ष 2022 की रिपोर्ट के अनुमानों का उपयोग किया गया।

गिग इकॉनमी के बारे में

  • गिग इकॉनमी एक ऐसा श्रम बाजार है जो पूर्णकालिक स्थायी कर्मचारियों के बजाय स्वतंत्र ठेकेदारों एवं फ्रीलांसरों पर निर्भर करता है।
  • हाल के वर्षों में, वैश्विक रोजगार बाजार में ‘गिगिफिकेशन’ (Gigification) या गिग मॉडल को अपनाने के साथ एक परिवर्तनकारी बदलाव देखा गया है, जो हमारे कार्य करने के तरीके को बदल रहा है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:-
    • फ्रीलांसर जिन्हें प्रति कार्य भुगतान मिलता है। 
    • स्वतंत्र ठेकेदार जो कार्य करते हैं और अनुबंध-दर-अनुबंध आधार पर भुगतान प्राप्त करते हैं। 
    • परियोजना-आधारित कर्मचारी, जिन्हें परियोजना के अनुसार भुगतान प्राप्त होता है। 
    • अस्थायी कर्मचारी, जिन्हें एक निश्चित समय के लिए कार्य पर रखा जाता है। 
    • अंशकालिक कर्मचारी, जो पूर्णकालिक घंटों से कम कार्य करते हैं।
  • गिग वर्कर (Gig Worker): वह व्यक्ति जो पारंपरिक नियोक्ता-कर्मचारी संबंध वाले पूर्णकालिक कर्मचारी के बजाय, आमतौर पर एक स्वतंत्र ठेकेदार या फ्रीलांसर के रूप में, अल्पकालिक, लचीले कार्य में संलग्न होता है।

गिग इकॉनमी का वर्गीकरण

  • प्लेटफॉर्म-आधारित: वे कार्य खोजने और करने के लिए ऑनलाइन ऐप या डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करते हैं, जैसे कि राइड-हेलिंग, फूड डिलीवरी, ई-कॉमर्स, ऑनलाइन फ्रीलांसिंग, आदि।
  • गैर-प्लेटफॉर्म-आधारित गिग वर्कर: वे पारंपरिक नियोक्ता-कर्मचारी संबंध से बाहर कार्य करते हैं, जैसे कि निर्माण, घरेलू कार्य, कृषि आदि जैसे क्षेत्रों में आकस्मिक वेतन वाले कर्मचारी।

गिग इकॉनमी के लाभ

  • श्रमिकों के लिए: गिग इकॉनमी अधिक लचीलापन, स्वायत्तता, आय के अवसर, कौशल विकास एवं समावेशन प्रदान कर सकती है। 
  • नियोक्ताओं के लिए: यह प्रतिभा के एक बड़े और विविध पूल तक पहुँच, कम निश्चित लागत, उच्च मापनीयता और बेहतर ग्राहक संतुष्टि को सक्षम कर सकती है। 
  • ग्राहकों के लिए: यह अधिक विकल्प, सुविधा, गुणवत्ता और सामर्थ्य प्रदान कर सकती है।

गिग और प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था संबंधी अनुमान 

  • गिग कार्यबल
    • नीति आयोग के अध्ययन का अनुमान है कि वर्ष 2020-21 में 77 लाख (7.7 मिलियन) कर्मचारी गिग इकॉनमी में संलग्न थे।
    • वर्ष 2020 में लगभग 11 प्लेटफॉर्म कंपनियों द्वारा 3 मिलियन से अधिक कर्मचारी नियोजित थे।
    • वर्तमान में लगभग 47% गिग कार्य मध्यम कौशल युक्त नौकरियों में, लगभग 22% उच्च कौशल युक्त और लगभग 31% कम कौशल युक्त नौकरियों में है।
  • गिग कार्यबल वृद्धि (केंद्रीय श्रम मंत्रालय द्वारा किया गया अध्ययन)
    • वर्ष 2029-30 तक गिग कार्यबल का विस्तार 2.35 करोड़ (23.5 मिलियन) श्रमिकों तक होने की उम्मीद है।
    • वर्ष 2047 तक गिग कार्यबल के 61.6 मिलियन तक पहुँचने का अनुमान है, जो गैर-कृषि कार्यबल का 14.89% होगा (वर्ष 2020-21 में 2.6% से ऊपर)।
    • वैकल्पिक परिदृश्य
      • रूढ़िवादी अनुमान: बाहरी बाधाओं (जैसे- तकनीकी व्यवधान, विनियामक परिवर्तन, आर्थिक तनाव) के तहत वर्ष 2047 तक 32.5 मिलियन।
      • आकांक्षी अनुमान: अनुकूल परिस्थितियों के साथ वर्ष 2047 तक 90.8 मिलियन ‘गिग जॉब्स’ उत्पन्न करने की क्षमता।
  • आर्थिक प्रभाव
    • वर्ष 2030 तक गिग इकॉनमी का लेन-देन 250 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है, जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 1.25% का योगदान देगा।
    • वर्ष 2047 तक, क्षेत्रीय विविधीकरण और तकनीकी प्रगति के कारण सकल घरेलू उत्पाद में 4% तक योगदान देने की उम्मीद है।
    • चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (CAGR): एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (ASSOCHAM) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की गिग इकॉनमी वार्षिक रूप से 17 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) से बढ़ रही है।

गिग इकॉनमी के विकास के प्रमुख कारक

  • प्रौद्योगिकी और डिजिटल अवसंरचना
    • 4G/5G और स्मार्टफोन: किफायती इंटरनेट और डिवाइस कर्मचारियों को ओला, उबर, जोमैटो जैसे प्लेटफॉर्म से जोड़ते हैं।
      • एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2025 तक भारत में 900 मिलियन से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता होंगे।
    • AI और मशीन लर्निंग: AI कार्य आवंटन और सेवा वितरण को अनुकूलित करता है, राइड-शेयरिंग, डिलीवरी और फ्रीलांसिंग को बढ़ाता है।
    • प्लेटफॉर्म वृद्धि: वेब-आधारित (जैसे- अपवर्क) और स्थान-आधारित (जैसे- स्विगी) प्लेटफॉर्म वैश्विक स्तर पर 142 (वर्ष 2010) से बढ़कर 777 (वर्ष 2020) हो गए, जिससे भारत में रोजागर के विकल्पों में वृद्धि हुई।
  • वैकल्पिक कार्य की माँग
    • स्वायत्तता: कर्मचारी घंटों और कार्यों का चयन करते हैं, जो लचीलेपन की आवश्यकता वाले लोगों को आकर्षित करते हैं।
    • गैर-पारंपरिक नौकरियाँ: कई ऐप-आधारित कार्य ऐसे होते हैं जो एक साथ कई ऐप्स पर किए जा सकते हैं, जिससे आय में जोखिम कम हो जाता है।
    • आर्थिक लचीलापन: गिग जॉब्स ने वर्ष 2008 के संकट और COVID-19 के दौरान आय प्रदान की।
      • डिलीवरी जैसी भूमिकाओं के लिए न्यूनतम कौशल की आवश्यकता होती है, जिससे विविध श्रमिकों को आकर्षित किया जा सकता है।
  • जनसांख्यिकीय लाभ
    • युवा कार्यबल: भारत की 65% आबादी 15-64 वर्ष की है, औसत आयु 29 है; युवा (51% 30 वर्ष से कम) गिग कार्य को अपनाते हैं।
    • महिलाओं की भागीदारी: देखभाल, सौंदर्य और शिक्षा में लचीली भूमिकाएँ महिलाओं को सशक्त बनाती हैं, विकासशील देशों में 81% शिक्षित महिला फ्रीलांसर हैं।
    • शिक्षित कर्मचारी: विकासशील देशों में 73% उच्च शिक्षित व्यक्ति औपचारिक नौकरियों की कमी के कारण वेब प्लेटफॉर्म पर कार्य करते हैं।
    • समावेशन: गिग कार्य शारीरिक रूप से सक्षम और ग्रामीण युवाओं सहित हाशिए पर स्थित समूहों के लिए उपयुक्त है।
  • नीतिगत समर्थन
    • सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020: गिग श्रमिकों को मान्यता देता है, ई-श्रम पोर्टल के माध्यम से लाभ प्रदान करता है।
    • राज्य कानून: राजस्थान (2023) और कर्नाटक (2025) विधेयक श्रमिक कल्याण को बढ़ावा देते हैं।
    • विजन 2047: सरकार का लक्ष्य युवाओं और महिलाओं के जीवन में सुधार लाने के लिए गिग इकॉनमी का लाभ उठाना है।
    • कौशल: प्रशिक्षण कार्यक्रम उच्च कौशल युक्त गिग इकॉनमी के लिए डिजिटल और तकनीकी कौशल को बढ़ावा देते हैं।
  • शहरीकरण और उपभोक्ता माँग
    • शहरी विकास: मध्यम वर्ग की बढ़ती जनसंख्या डिलीवरी, राइड-हेलिंग, ई-कॉमर्स की माँग को बढ़ाती है।
    • टियर-2/3 शहर: गिग कार्य अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों तक प्रसारित हो रहा है, जिससे उन जगहों पर नौकरियाँ उत्पन्न हो रही हैं जहाँ औपचारिक कार्य दुर्लभ है।
    • क्षेत्र विस्तार: स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, रचनात्मक सेवाओं और परामर्श में वृद्धि विविध आवश्यकताओं को पूरा करती है।
  • वैश्विक बाजार तक पहुँच
    • वैश्विक हिस्सेदारी: भारत वैश्विक गिग/फ्रीलांसरों (2024) की 27% आपूर्ति करता है, जो अंग्रेजी बोलने वाले, प्रौद्योगिकी आधारित श्रमिकों द्वारा संचालित है।
    • विकसित देशों से माँग: अमेरिका, ब्रिटेन भारत के सॉफ्टवेयर, लेखन, मल्टीमीडिया कौशल की तलाश कर रहे हैं।
    • माइक्रो-उद्यमिता: उबर, Airbnb जैसे प्लेटफॉर्म श्रमिकों को कम लागत के साथ कौशल का मुद्रीकरण करने में सक्षम बनाते हैं।

भारत में गिग इकॉनमी के लाभ

  • बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन: अनुमान है कि भारत की गिग इकॉनमी वर्ष 2047 तक 62 मिलियन श्रमिकों को रोजगार देगी, जो गैर-कृषि कार्यबल का 15% है।
  • प्रवेश में कम बाधाएँ और कार्य का लोकतंत्रीकरण: गिग कार्य विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के लोगों, विशेष रूप से युवाओं, महिलाओं और दिव्यांग व्यक्तियों को न्यूनतम योग्यता एवं डिजिटल पहुँच आवश्यकताओं के कारण भाग लेने की अनुमति देता है।
  • महिला श्रम शक्ति: महिला गिग श्रमिकों को गिग इकॉनमी की आय-सृजन क्षमता, विकल्प और लचीले कार्य के तौर-तरीकों से लाभ होता है।
    • गिग इकॉनमी में महिलाओं की भागीदारी 18% से बढ़कर 36% हो गई है।
  • क्षेत्रीय विविधीकरण: गिग कार्य परिवहन और वितरण से आगे बढ़कर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, वित्त, बीमा, रचनात्मक सेवाएँ और IT परामर्श को भी शामिल कर रहा है।
    • वर्ष 2019-20 तक, 2.7 मिलियन गिग कर्मचारी खुदरा और बिक्री में, 1.3 मिलियन परिवहन में और 0.6 मिलियन से अधिक वित्त, बीमा और विनिर्माण में थे।
  • कौशल उन्नयन और तकनीकी एकीकरण की संभावना: हालाँकि वर्तमान प्रवृत्ति सीमित कौशल विकास प्रदर्शित करते हैं, लेकिन उत्पादकता बढ़ाने और भारत की 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से सामंजस्य स्थापित करने के लिए प्लेटफॉर्म-आधारित कौशल की उच्च संभावना है।

भारत में गिग इकोनॉमी नियामक ढाँचा

  • केंद्रीय विधान
    • वेतन संहिता, 2019: गिग वर्कर्स सहित सभी संगठित और असंगठित क्षेत्रों को एक सार्वभौमिक न्यूनतम वेतन और न्यूनतम वेतन प्रदान किया जाना चाहिए।
    • सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020: इसके तहत गिग वर्कर्स को एक नई व्यावसायिक श्रेणी के रूप में मान्यता प्रदान की जाती है।
      • इसे लागू नहीं किया गया है क्योंकि सरकार ने अभी तक नियम नहीं बनाए हैं।
    • मोटर वाहन एग्रीगेटर दिशा-निर्देश, 2020: इसके तहत, गिग वर्कर्स को 15 लाख रुपये का टर्म इंश्योरेंस और 10 लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा मिलता है, जिसका आधार वर्ष 2020-21 है और प्रत्येक वर्ष 5% की वृद्धि होती है।
      • गिग वर्कर्स के अत्यधिक कार्य के घंटों पर अंकुश लगाने के लिए, दिशा-निर्देशों में सिफारिश की गई है कि प्रत्येक ड्राइवर को कैलेंडर दिवस में 12 घंटे से अधिक लॉग इन नहीं करना चाहिए, जिसमें वे सभी एग्रीगेटर ऐप शामिल हैं, जिनसे वे जुड़े हुए हैं।
      • यदि कर्मचारी 12 घंटे लॉग इन करते हैं तो 10 घंटे का ब्रेक अनिवार्य था।
    • पीएम जन आरोग्य योजना (PM-JAY): केंद्रीय बजट 2025-26 में PM जन आरोग्य योजना (PM-JAY) के तहत स्वास्थ्य कवरेज की घोषणा की गई।
      • गिग वर्कर्स के लिए प्रति वर्ष प्रति परिवार 5 लाख रुपये।
    • ई-श्रम पोर्टल (2021): गिग और प्लेटफॉर्म वर्कर्स सहित असंगठित श्रमिकों का एक राष्ट्रीय डेटाबेस है।
      • वर्ष 2025 की शुरुआत तक, 30.58 करोड़ से अधिक श्रमिक पंजीकृत थे।
  • राजस्थान: पहला राज्य गिग वर्कर्स कानून
    • राजस्थान प्लेटफॉर्म-आधारित गिग वर्कर्स (पंजीकरण एवं कल्याण) अधिनियम, 2023
    • मुख्य विशेषताएँ
      • राज्य पोर्टल पर गिग वर्कर्स और एग्रीगेटर्स का अनिवार्य पंजीकरण।
      • कल्याण बोर्ड और कल्याण कोष का निर्माण (प्रति लेनदेन 1-2% उपकर द्वारा वित्तपोषित)।
      • शिकायत निवारण, भुगतान में पारदर्शिता और अधिकारों के प्रति जागरूकता के प्रावधान।
      • राज्य सरकार के अनुदान और गिग वर्कर्स द्वारा दिए जाने वाले अंशदान को भी कोष में जमा किया जाएगा।
  • कर्नाटक गिग वर्कर्स (सेवा की शर्तें और कल्याण) विधेयक, 2024: यह मसौदा राजस्थान के कानून पर आधारित है, लेकिन इसमें श्रमिकों की सुरक्षा और कल्याण के लिए अधिक प्रावधान हैं।
    • इसमें एग्रीगेटर्स गिग वर्कर्स के कल्याण शुल्क को वसूलने का प्रावधान करने की योजना बनाई जा रही है, जो प्रति लेनदेन गिग वर्कर के वेतन का एक प्रतिशत होगा।

भारत में गिग वर्कर से जुड़ी प्रमुख चिंताएँ

  • सामाजिक सुरक्षा कवरेज का अभाव: अधिकतर गिग वर्कर्स के पास स्वास्थ्य बीमा, भविष्य निधि या पेंशन लाभ जैसी बुनियादी सुरक्षा का अभाव है।
    • वर्ष 2024 तक, भारत में लगभग 90% गिग वर्कर्स के पास आपात स्थिति के समय सहायता के लिए कोई बचत नहीं थी। वेतनभोगी कर्मचारियों के विपरीत, जो कर्मचारी भविष्य निधि (EPF) में योगदान करते हैं और रिटायरमेंट तक ₹50-60 लाख तक जुटा सकते हैं, गिग वर्कर्स को न तो ऐसी कोई सुविधा मिलती है और न ही वे रिटायरमेंट के लिए सुरक्षित होते हैं। उन्हें पूरी तरह से असुरक्षित भविष्य का जोखिम उठाना पड़ता है।
  • अनिश्चित आय और लंबे कार्य घंटे: गिग वर्कर प्रायः अपेक्षाकृत कम और अस्थिर वेतन पर लंबे समय तक कार्य करते हैं।
    • वर्ष 2023 के फेयरवर्क इंडिया अध्ययन में पाया गया कि डिलीवरी और राइड-हेलिंग वर्कर लगभग ₹15,000-20,000/माह कमाते हैं, वे प्रायः दिन में कार्य किए गए समय के हिसाब से समायोजित किए जाने पर न्यूनतम वेतन से कम 10-12 घंटे कार्य करते हैं।
  • औपचारिक रोजगार की स्थिति का अभाव: गिग वर्कर को कानूनी तौर पर स्वतंत्र ठेकेदारों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जो उन्हें श्रम कानून सुरक्षा से बाहर रखता है।
    • इस वर्गीकरण का अर्थ है कि गिग वर्कर्स को न तो न्यूनतम वेतन की गारंटी मिलती है, न ही ओवरटाइम वेतन का अधिकार। इसके अलावा, उन्हें अनुचित बर्खास्तगी से कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं होती और मौजूदा श्रम कानूनों के तहत उनके पास शिकायत निवारण की कोई प्रभावी व्यवस्था भी उपलब्ध नहीं होती।
  • एल्गोरिदम प्रबंधन और पारदर्शिता की कमी: श्रमिकों को अपारदर्शी एल्गोरिदम द्वारा प्रबंधित किया जाता है जो मानवीय निगरानी के बिना कार्य आवंटित करते हैं और वेतन निर्धारित करते हैं।
    • गिग प्लेटफॉर्म पर कार्यरत श्रमिकों को प्रायः ग्राहकों की रेटिंग या ऑर्डर रद्द करने के आधार पर अपने खातों के निष्क्रिय होने का सामना करना पड़ता है, जिसमें न तो उन्हें कोई पूर्व सूचना दी जाती है और न ही अपील करने या कारण जानने का उचित अवसर दिया जाता है।
  • लैंगिक जोखिम और सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: महिलाओं को गिग भूमिकाओं में सुरक्षा संबंधी जोखिम और भेदभाव का सामना करना पड़ता है, विशेषतः उन भूमिकाओं में जिनमें निजी घरों में प्रवेश करना या देर रात तक कार्य करना शामिल होता है।
    • अधिकांश प्लेटफॉर्म में मातृत्व लाभ या लैंगिक हिंसा को संबोधित करने के लिए मजबूत तंत्र का अभाव है।
  • कौशल विकास या आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं: गिग इकॉनमी में उपलब्ध अधिकांश कार्य, जैसे कि ड्राइविंग और डिलीवरी, स्वाभाविक रूप से दोहराव वाले होते हैं। इन कार्यों में न तो श्रमिकों को कोई औपचारिक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है और न ही उनके कौशल उन्नयन या करियर प्रगति के अवसर उपलब्ध होते हैं।
    • विश्व बैंक की वर्ष 2023 की रिपोर्ट में पाया गया कि भारत में केवल 5% गिग वर्कर ही हस्तांतरणीय कौशल हासिल करते हैं, जबकि आईटी या विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में यह 40% है।
  • मौजूदा कानूनों और लाभों का कमजोर प्रवर्तन: हालाँकि सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 जैसे कानून प्लेटफॉर्म योगदान को अनिवार्य बनाते हैं, लेकिन प्रवर्तन खराब है।
    • ई-श्रम या PM जन आरोग्य योजना के तहत लाभ सैद्धांतिक रूप से मौजूद हैं, लेकिन जागरूकता, डिजिटल साक्षरता या प्लेटफॉर्म सहयोग की कमी के कारण पूरी तरह से सुलभ नहीं हैं।

गिग श्रमिकों की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए वैश्विक सर्वोत्तम अभ्यास

स्पेन: कर्मचारियों के रूप में कानूनी पुनर्वर्गीकरण

  • वर्ष 2021 में, स्पेन ने राइडर कानून पारित किया, जिसके तहत गिग डिलीवरी श्रमिकों को स्वतंत्र ठेकेदारों के बजाय कर्मचारियों के रूप में पुनर्वर्गीकृत किया गया।

फ्राँस: अनिवार्य सामाजिक सुरक्षा अंशदान

  • गिग प्लेटफार्मों को प्राधिकारियों के पास पंजीकरण कराना होगा तथा अपने कर्मचारियों की ओर से सामाजिक सुरक्षा कोष में योगदान देना होगा।

कनाडा: पोर्टेबल लाभ पायलट परियोजनाएँ

  • ब्रिटिश कोलंबिया और ओंटारियो जैसे प्रांत पोर्टेबल लाभ योजनाओं के साथ प्रयोग कर रहे हैं:-
    • गिग वर्कर्स को स्वास्थ्य बीमा और सेवानिवृत्ति बचत जैसे लाभ सभी प्लेटफॉर्म पर मिलते रहते हैं।

कैलिफोर्निया, संयुक्त राज्य अमेरिका: AB5 और प्रस्ताव 22

  • कैलिफोर्निया ने शुरू में कई गिग वर्कर्स को कर्मचारियों के रूप में वर्गीकृत करने के लिए AB5 पारित किया।
  • प्रस्ताव 22 (2020): Uber और Lyft जैसी कंपनियों द्वारा समर्थित एक काउंटर-बैलट ने एक हाइब्रिड स्थिति का निर्माण किया:-
    • कर्मचारियों को न्यूनतम आय की गारंटी मिलती है।
    • सब्सिडी युक्त स्वास्थ्य बीमा।
    • घटना की क्षतिपूर्ति।

प्लेटफॉर्म कार्य पर यूरोपीय संघ के निर्देश

  • इसका उद्देश्य डिजिटल श्रम प्लेटफॉर्म के जरिए कार्य करने वाले लोगों की कार्य स्थितियों में सुधार करना है, जिन्हें प्रायः ‘गिग वर्कर’ कहा जाता है।
    • कंपनियों पर साक्ष्य का बोझ डालना (उन्हें सिद्ध करना होगा कि कर्मचारी स्व-नियोजित है)।

भारत की गिग और प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था के लिए आगे की राह

  • व्यापक राष्ट्रीय कानून: गिग वर्कर्स के अधिकारों को परिभाषित करने, न्यूनतम वेतन, अधिकतम कार्य घंटे और अनुचित बर्खास्तगी के विरुद्ध सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक समर्पित कानून बनाना।
  • सामाजिक सुरक्षा कार्यान्वयन को मजबूत करना: सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 के तहत स्वास्थ्य बीमा, पेंशन और मातृत्व कवरेज जैसे सामाजिक सुरक्षा लाभों तक सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करना।
  • एल्गोरिदम प्रबंधन को विनियमित करना: कार्य आवंटन या निष्क्रियता में शोषण और भेदभाव को रोकने के लिए प्लेटफॉर्म एल्गोरिदम में पारदर्शिता और निष्पक्षता को बढ़ावा देना।
    • EU के प्लेटफॉर्म वर्क डायरेक्टिव से आकर्षित होकर, एल्गोरिदमिक मानदंड का खुलासा करने और अपील तंत्र प्रदान करने के लिए प्लेटफॉर्म को अनिवार्य करना।
  • सुरक्षा और लैंगिक-समावेशी नीतियों को बढ़ाना: भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए, विशेष रूप से महिलाओं के लिए शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य जोखिमों को संबोधित करके कार्यकर्ता सुरक्षा में सुधार करना (वर्तमान में 36% महिला गिग कार्यकर्ता हैं)।
  • कौशल विकास और कैरियर गतिशीलता को बढ़ावा देना: प्लेटफॉर्म-आधारित प्रशिक्षण कार्यक्रमों की पेशकश करके गिग कार्य को औपचारिक रोजगार के लिए एक कदम में बदलना।
    • विजन इंडिया@2047 के अंतर्गत कौशल विकास पहलों का विस्तार करके उच्च कौशल वाले कार्यों (नौकरियों का 22%) पर ध्यान केंद्रित करना, तथा अर्बन कंपनी जैसे प्लेटफार्मों के साथ साझेदारी करना।
  • सामूहिक सौदेबाजी के अधिकार को सक्षम करना: गिग वर्कर्स को बेहतर वेतन और शर्तों के लिए वार्ता करने के लिए यूनियन का निर्माण करना और प्रभावी शिकायत निवारण तक पहुँच का अधिकार देना।
    • डेनमार्क के सामूहिक सौदेबाजी मॉडल से प्रेरित होकर श्रमिकों, प्लेटफार्मों और सरकार के साथ त्रिपक्षीय बोर्ड स्थापित करना।
  • राज्य और केंद्रीय नीतियों में सामंजस्य स्थापित करना: राज्य-स्तरीय पहलों (जैसे- कर्नाटक का वर्ष 2025 का विधेयक) को राष्ट्रीय नीतियों के साथ जोड़कर एक सुसंगत नियामक ढाँचा का निर्माण करना।
    • क्षेत्रों में समान योजनाएँ, नवीन वित्तपोषण और पहुँच सुनिश्चित करने के लिए नीति आयोग के RAISE ढाँचे को अपनाना।

निष्कर्ष 

भारत की गिग इकॉनमी, जिसके वर्ष 2047 तक 61.9 मिलियन लोगों को रोजगार देने का अनुमान है, में परिवर्तनकारी क्षमता है, लेकिन श्रमिकों की सुरक्षा एवं स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए मजबूत विनियमन की आवश्यकता है। राष्ट्रीय कानून, सामाजिक सुरक्षा और कौशल विकास को एकीकृत करने वाला एक संतुलित दृष्टिकोण भारत को निष्पक्ष गिग कार्य में वैश्विक नेतृत्त्वकर्त्ता के रूप में स्थापित कर सकता है।

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