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Jun 03 2025

फूलों की घाटी

उत्तराखंड में फूलों की घाटी 1 जून को पर्यटकों के आगमन के लिए खोली गई।

फूलों की घाटी के बारे में

  • नाम: घाटी का नाम फ्रैंक एस स्माइथ (Frank S Smythe) के नेतृत्व में तीन ब्रिटिश पर्वतारोहियों द्वारा रखा गया है, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने वर्ष 1931 में इस घाटी की खोज की थी।
  • स्थान: यह घाटी उत्तराखंड के चमोली जिले में नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के भीतर स्थित 87 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है।
    • यह नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के दो मुख्य क्षेत्रों में से एक है।
  • विरासत स्थल: इसे यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थल के रूप में नामित किया गया है।
  • आवास स्थान: यह घाटी पूर्ण रूप से शीतोष्ण अल्पाइन क्षेत्र में स्थित है, जिसमें जॉस्कर एवं महान हिमालय की पर्वत शृंखलाओं के बीच एक अद्वितीय संक्रमण क्षेत्र शामिल है।
  • नदी: यह फूलों की घाटी पुष्पावती नदी घाटी में अवस्थित है।
  • धार्मिक महत्त्व: घाटी को नंदा देवी (गढ़वाल एवं कुमाऊँ की संरक्षक देवी) के संरक्षण में माना जाता है।
    • नंदा देवी भारत का दूसरा सबसे ऊँचा पर्वत (कंचनजंगा के बाद) है।
  • जनजाति: घाटी में भोटिया नामक एक स्थानीय जनजाति निवास करती है।
  • फूल प्रजातियाँ: घाटी में लगभग 600 प्रजातियाँ जैसे- ऑर्किड, खसखस, प्रिमुला, मैरीगोल्ड, डेजी एवं एनीमोन पुष्प प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
    • नंदा देवी को चढ़ाया जाने वाला ब्रह्मकमल भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
  • जीव: यहाँ ग्रे एप, फ्लाइंग स्क्वैरल, हिमालयन वीजल एवं काला भालू, लाल लोमड़ी, लाइम बटरफ्लाई, हिम तेंदुआ आदि जैसी वन्यजीव प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
  • पर्यटन एवं ट्रैकिंग: घाटी आमतौर पर चार महीने यानी जून, जुलाई, अगस्त एवं सितंबर के लिए खुली रहती है।

तेलंगाना का ‘कंपोजिट बैकवर्डनेस इंडेक्स’ 

तेलंगाना ने ‘कंपोजिट बैकवर्डनेस इंडेक्स’ (Composite Backwardness Index- CBI) शुरू किया है, ताकि जातियों के पिछड़ेपन को उनकी जनसंख्या के आकार से स्वतंत्र रूप से ‘0 से 126’ अंकों के पैमाने पर वैज्ञानिक रूप से मापा जा सके।

  • स्कोर जितना अधिक होगा, पिछड़ेपन का स्तर उतना ही अधिक होगा।

‘कंपोजिट बैकवर्डनेस इंडेक्स’ के बारे में

  • विकसितकर्ता: यह सूचकांक तेलंगाना के जाति सर्वेक्षण से डेटा का विश्लेषण एवं व्याख्या करने के लिए सरकार द्वारा गठित 11-सदस्यीय विशेषज्ञ कार्य समूह द्वारा तैयार किया गया है।
  • उद्देश्य: इस रिपोर्ट का उद्देश्य जाति आधारित पिछड़ेपन को सामान्य गरीबी से अलग करना है।
  • डेटा स्रोत: सूचकांक में कुल 245 जातियों का सर्वेक्षण किया गया है तथा 74 प्रश्नों के उत्तर देकर 3.5 करोड़ से अधिक निवासियों से आँकड़े एकत्रित किए गए हैं।
  • संकेतक: सूचकांक में नौ श्रेणियों में 42 संकेतकों को सूचीबद्ध किया गया, जिनमें शिक्षा, जीवन यापन की स्थिति, भूमि स्वामित्व, आय, प्रौद्योगिकी तक पहुँच और सामाजिक भेदभाव शामिल हैं।
  • विश्लेषण: प्रतिक्रियाओं पर सांख्यिकीय महत्त्व परीक्षण किया गया तथा चतुर्थक वितरण के माध्यम से आँकड़ों का विश्लेषण किया गया।
    • प्रत्येक जाति को उनके समग्र अंकों के आधार पर चार श्रेणियों में से एक में रखा गया।
  • महत्त्व
    • यह अपनी तरह का पहला मापदंड है, जिसे सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने के लिए डिजाइन किया गया है। 
    • मापनीय पिछड़ापन: यह सूचकांक किसी जाति के वास्तविक पिछड़ेपन को मापने पर समग्र रूप से केंद्रित है।

खीर भवानी मेला

कश्मीर में खीर भवानी मेले के लिए 5,000 से अधिक कश्मीरी पंडित रवाना हुए।

खीर भवानी मेले के बारे में

  • यह एक वार्षिक हिंदू तीर्थयात्रा एवं त्योहार है, जो देवी रागन्या देवी को समर्पित है, जिन्हें विशेष रूप से कश्मीरी पंडित पूजते हैं।
  • यह ज्येष्ठ अष्टमी (हिंदू महीने ज्येष्ठ- मई/जून के शुक्ल पक्ष के आठवें दिन) को मनाया जाता है।

संबंधित प्रमुख तीर्थस्थल

  • तुलमुल्ला, गंदेरबल (मुख्य तीर्थस्थल)
  • टिक्कर, कुपवाड़ा
  • लक्तिपोरा ऐशमुकाम, अनंतनाग
  • त्रिपुरसुंदरी देवसर, कुलगाम
  • मंजगाम, कुलगाम।

अनुष्ठान एवं मान्यताएँ

  • भक्त पवित्र झरने को खीर (चावल का हलवा), दूध, फूल एवं मिट्टी के दीपक अर्पित करते हैं।
  • माना जाता है कि झरने के जल का रंग भविष्य की घटनाओं का संकेत देता है:
    • स्वच्छ जल: शुभ।
    • गहरा या धुँधला जल: चेतावनी माना जाता है।

संदर्भ

व्यापक मॉड्यूलर सर्वेक्षण: दूरसंचार (Comprehensive Modular Survey: Telecom -CMS:T) के परिणामों के अनुसार, मोबाइल फोन एवं इंटरनेट का उपयोग करने वाले भारतीयों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

  • इंटरनेट तक पहुँच सशक्तीकरण के लिए एक शक्तिशाली उपकरण हो सकती है, जो व्यक्तियों को जानकारी तक पहुँचने, दूसरों से जुड़ने एवं नागरिक तथा आर्थिक जीवन में भाग लेने में सक्षम बनाती है।

व्यापक मॉड्यूलर सर्वेक्षण: दूरसंचार (CMS:T) के बारे में

  • व्यापक मॉड्यूलर सर्वेक्षण: दूरसंचार (CMS:T) जनवरी से मार्च 2025 तक राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (National Sample Survey- NSS) के 80वें दौर के हिस्से के रूप में आयोजित किया गया था।
  • यह राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (National Statistics Office- NSO) द्वारा आयोजित किया गया था।
  • अन्य NSS सर्वेक्षणों के विपरीत, CMS:T में राज्य की कोई भागीदारी नहीं थी।
  • यह सर्वेक्षण NSS के 80वें दौर के तहत संचालित ‘घरेलू सामाजिक उपभोग: स्वास्थ्य’ सर्वेक्षण के साथ-साथ आयोजित किया गया था।
  • इसने निम्नलिखित पर डेटा एकत्र किया 
    • मोबाइल एवं इंटरनेट उपयोग (घरेलू तथा व्यक्तिगत स्तर) 
    • चयनित ICT कौशल। 
  • कंप्यूटर-सहायता प्राप्त व्यक्तिगत साक्षात्कार (Computer-Assisted Personal Interviews- CAPI) के माध्यम से डेटा एकत्र किया गया था। 
  • मोबाइल स्वामित्व: व्यक्तिगत उपयोग के लिए एक सक्रिय सिम कार्ड होना (नियोक्ता द्वारा प्रदान किए गए फोन शामिल हैं)। 
    • संयुक्त स्वामित्व की गणना नहीं की जाती है, स्वामित्व बहुमत के उपयोग पर आधारित होता है। 

भारत में मोबाइल फोन एवं इंटरनेट उपयोग पर मुख्य बिंदु 

  • घरेलू स्मार्टफोन: 85.5% भारतीय घरों में न्यूनतम एक स्मार्टफोन है। 
  • इंटरनेट तक पहुँच: 86.3% घरों में उनके परिसर में इंटरनेट तक पहुँच है। 
  • ऑनलाइन बैंकिंग एवं UPI अपनाना: जो लोग ऑनलाइन बैंकिंग लेन-देन कर सकते हैं, उनमें से 99.5% ने यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) का उपयोग करने की सूचना दी। 

भारत में महिलाओं के बीच मोबाइल स्वामित्व 

  • महिलाओं द्वारा सबसे कम मोबाइल स्वामित्व: छत्तीसगढ़ (39%), त्रिपुरा (40.4%), एवं मध्य प्रदेश (42.4%) में महिलाओं (15+ आयु वर्ग) के बीच सबसे कम मोबाइल फोन स्वामित्व है।
    • 10 राज्य/केंद्रशासित प्रदेश 56.2% महिलाओं के पास मोबाइल फोन होने से संबंधित  राष्ट्रीय औसत से नीचे हैं।
    • महिलाओं द्वारा सर्वाधिक मोबाइल स्वामित्व: गोवा एवं लद्दाख (92%) सबसे आगे हैं, उसके बाद मिजोरम (88.5%), केरल (85%) तथा पुडुचेरी (83%) हैं।
  • शहरी बनाम ग्रामीण विभाजन
    • शहरी क्षेत्र: 72% महिलाओं के पास मोबाइल फोन हैं।
    • ग्रामीण क्षेत्र: केवल 48% महिलाओं के पास मोबाइल फोन हैं।
    • पुरुषों का स्वामित्व: 90% (शहरी) एवं 80.7% (ग्रामीण)।
  • मोबाइल उपयोग के रुझान: पिछले तीन महीनों में 79.8% महिलाओं ने मोबाइल फोन का उपयोग किया।
  • यह डेटा महिलाओं के लिए मोबाइल एक्सेस में महत्त्वपूर्ण असमानताओं को प्रदर्शित करता है, विशेषकर ग्रामीण एवं कम प्रदर्शन करने वाले राज्यों में।

युवाओं (आयु समूह 15-29 वर्ष) के बीच डेटा

  • मोबाइल फोन का उपयोग
    • ग्रामीण क्षेत्र: 96.8% व्यक्तियों (आयु समूह 15-29 वर्ष) ने पिछले तीन महीनों में व्यक्तिगत कॉल या इंटरनेट एक्सेस के लिए मोबाइल फोन का उपयोग किया।
    • शहरी क्षेत्र: 97.6% व्यक्तियों ने इसी अवधि में मोबाइल फोन का उपयोग किया।
  • स्मार्टफोन स्वामित्व
    • ग्रामीण क्षेत्र: इस आयु समूह के 95.5% मोबाइल फोन मालिकों के पास स्मार्टफोन है।
    • शहरी क्षेत्र: इस आयु समूह के 97.6% मोबाइल फोन मालिकों के पास स्मार्टफोन है।
  • इंटरनेट उपयोग
    • ग्रामीण क्षेत्र: पिछले तीन महीनों में 92.7% व्यक्तियों ने न्यूनतम एक बार इंटरनेट का उपयोग किया।
    • शहरी क्षेत्र: इसी अवधि में 95.7% व्यक्तियों ने इंटरनेट का उपयोग किया।
  • ये निष्कर्ष भारत के युवाओं एवं परिवारों के बीच मोबाइल फोन, स्मार्टफोन तथा इंटरनेट सेवाओं के व्यापक उपयोग को प्रदर्शित करते हैं।

संदर्भ

हाल ही में किए गए पुरातात्त्विक सर्वेक्षण ने असम के दीमा हसाओ जिले के दाओजाली हेडिंग (Daojali Hading) में नवपाषाणकालीन आवास की पुष्टि की है।

  • एक भट्टी एवं लौह धातुमल की खोज से 2,700 वर्ष पूर्व प्रारंभिक धातुकर्म गतिविधियों का पता चलता है।
  • पूर्वोत्तर भारत में प्रागैतिहासिक सामुदायिक जीवन और तकनीकी उन्नति की समझ को बढ़ाता है।

दाओजाली हेडिंग (Daojali Hading) के बारे में

  • स्थान: लांगटिंग-मुपा रिजर्व फॉरेस्ट (Langting-Mupa Reserve Forest), दीमा हसाओ, असम।

पाई गई प्रमुख कलाकृतियाँ

  • भट्ठी और लौह धातुमल → प्रारंभिक धातुकर्म गतिविधि।
  • रज्जु-चिह्नित मृद्भांड, पॉलिश सेल्ट्स, पीसने वाले पत्थर, ताड़वृंत (हत्था युक्त काष्ठ एवं पत्थर निर्मित उपकरण), तीर के सिरे, जेडाइट (एक कठोर और दुर्लभ हरा पत्थर) निर्मित उपकरण।
  • चारकोल और चूना पत्थर निक्षेप।
  • इस स्थल पर पत्थर निर्मित उपकरणों के उत्पादन की भी पुष्टि हुई है।
  • यह केवल उपकरण बनाने की बजाय एक स्थायी नवपाषाण आवास को इंगित करता है।

 भारत में अन्य महत्त्वपूर्ण नवपाषाण स्थल

क्षेत्र

स्थल

राज्य

उत्तर भारत बुर्जहोम (Burzahom) जम्मू और कश्मीर
दक्षिण भारत पैयंपल्ली (Paiyampalli) तमिलनाडु
पूर्वी भारत चिरांद (Chirand) बिहार
मध्य भारत महागरा (Mahagara) उत्तर प्रदेश
पूर्वोत्तर भारत दाओजली हेडिंग (Daojali Hading) असम

नवपाषाण काल: पाषाण युग का अंतिम चरण

विशेषता

विवरण

भारत में अवधि लगभग 7000 ईसा पूर्व – 1000 ईसा पूर्व
प्रमुख विशेषताएँ पॉलिश किए गए पत्थर निर्मित औजार, मृदभांड, स्थायी जीवन
कृषि खेती की शुरुआत (गेहूँ, जौ, चावल)
औजार सेल्ट्स, कुल्हाड़ी, पीसने वाले पत्थर
मिट्टी के बर्तनों हस्तनिर्मित, रज्जु-चिह्नित मृद्भांड, कम ताप पर पकाए गए मृदभांड 
आवास गोलाकार/आयताकार झोपड़ियाँ
अर्थव्यवस्था खाद्य उत्पादन (आजीविका खेती, पशुपालन)।

संदर्भ

जर्नल नेचर में प्रकाशित माइक्रोसॉफ्ट और WSP ग्लोबल के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक नए अध्ययन से पता चलता है कि उन्नत शीतलन विधियाँ डेटा केंद्रों के पर्यावरणीय प्रभाव को अत्यधिक सीमा तक कम कर सकती हैं।

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष

  • उत्सर्जन और ऊर्जा में कमी: पारंपरिक एयर कूलिंग की तुलना में ‘कोल्ड प्लेट और इमर्शन कूलिंग’ से डेटा सेंटर उत्सर्जन में 15-21%, ऊर्जा उपयोग में 15-20% और जल की खपत में 31-52% की कमी आ सकती है।
  • जीवन चक्र मूल्यांकन: अध्ययन में आरंभिक जीवन से मृत्यु तक के जीवन चक्र मूल्यांकन का उपयोग किया गया, जिससे एयर-कूल्ड, कोल्ड-प्लेट और इमर्शन कूलिंग सिस्टम में पर्यावरणीय प्रभावों को मापने में मदद मिली।
  • नवीकरणीय ऊर्जा की भूमिका: 100% नवीकरणीय ऊर्जा के साथ, कूलिंग उत्सर्जन में 85-90%, जल के उपयोग में 55-85% और ऊर्जा उपयोग में 6-7% की कमी आई, जो स्वच्छ बिजली के बढ़ते लाभ को दर्शाता है।

डेटा सेंटर क्या हैं?

  • डेटा सेंटर समर्पित सुविधाएँ हैं, जो डिजिटल डेटा की विशाल मात्रा को प्रबंधित, संगृहीत और संसाधित करने के लिए कंप्यूटर सिस्टम, सर्वर, नेटवर्किंग उपकरण और स्टोरेज सिस्टम रखती हैं।
  • अनुप्रयोग: वे क्लाउड सेवाओं को शक्ति प्रदान करते हैं, वेबसाइटों को होस्ट करते हैं, एंटरप्राइज IT संचालन का प्रबंधन करते हैं, वित्तीय लेन-देन का समर्थन करते हैं और वास्तविक समय संचार, एआई प्रोसेसिंग तथा बिग डेटा एनालिटिक्स को सक्षम बनाते हैं।

डेटा सेंटरों में कूलिंग की आवश्यकता

  • ऊष्मा उत्पादन: डेटा सेंटर सघन पैक इलेक्ट्रॉनिक घटकों द्वारा निरंतर उच्च गति प्रसंस्करण के कारण महत्त्वपूर्ण ऊष्मा उत्पन्न करते हैं।
  • विफलता का जोखिम: ओवरहीटिंग से हार्डवेयर में खराबी, कम प्रदर्शन और उपकरण का जीवनकाल कम हो सकता है।
  • शीतलन आवश्यकता: संतुलित ऑपरेटिंग तापमान बनाए रखने, सिस्टम की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने, ऊर्जा दक्षता बढ़ाने और डाउनटाइम को रोकने के लिए कुशल शीतलन प्रणाली आवश्यक है।

शीतलन की आधुनिक तकनीकें

  • कोल्ड प्लेट कूलिंग (डायरेक्ट-टू-चिप कूलिंग): इस विधि में चिप्स पर सीधे संलग्न किए गए माइक्रोचैनल हीट एक्सचेंजर्स का उपयोग किया जाता है।
    • यह बुखार से पीड़ित व्यक्ति के सिर पर बर्फ का पैक रखने, गर्मी को अवशोषित करने और शीतलक समाधानों का उपयोग करने के समान है।
  • विसर्जन शीतलन: इसमें हार्डवेयर को ऊष्मीय रूप से प्रवाहकीय तरल पदार्थों में डुबोया जाता है।
    • एकल-चरण प्रणालियों में, शीतलक तरल रहता है और ऊष्मा प्रसारित करता है।
      • उपयोग किए जाने वाले शीतलक: आमतौर पर सिंथेटिक तरल पदार्थ, जैसे खनिज तेल, सिंथेटिक एस्टर और सिलिकॉन-आधारित तरल पदार्थ का उपयोग किया जाता है।
    • दो-चरण प्रणालियों में, शीतलक वाष्पित हो जाता है, संघनित हो जाता है और पुनर्चक्रित हो जाता है, जो कि ‘मड पॉट कूलिंग’ तंत्र के समान है।
      • ये प्रणालियाँ अधिक कुशल, शांत होती हैं और हार्डवेयर क्षरण को कम करती हैं।
      • प्रयुक्त शीतलक: विशेष रूप से तैयार किए गए फ्लोरोकार्बन-आधारित तरल पदार्थों का उपयोग करता है, जिसमें इंजीनियर्ड फ्लूइड्स और फ्लोरिनेटेड कीटोन शामिल हैं।

वायु शीतलन, डायरेक्ट-टू-चिप (DTC) तरल शीतलन, और विसर्जन तरल शीतलन

पहलू

वायु शीतलन

डायरेक्ट-टू-चिप  कूलिंग

विसर्जन शीतलन

शीतलन का माध्यम CRAC/CRAH, पंखे की दीवारों या ‘इन-रो’ इकाइयों के माध्यम से प्रसारित वायु ठंडे प्लेटों के माध्यम से तरल (आमतौर पर जल या उपचारित शीतलक) परावैद्युत द्रव (एकल-चरण या दो-चरण)
ऊष्मा स्थानांतरण दक्षता कम – वायु की कम तापीय चालकता द्वारा सीमित उच्च – ठंडी प्लेटों के माध्यम से गर्म घटकों के साथ सीधा संपर्क बहुत उच्च – तरल पदार्थ द्वारा सभी घटकों में समान रूप से ऊष्मा निष्कर्षण
शमिल घटक सभी उपकरणों सहित संपूर्ण वातावरण CPU, GPU पर ध्यान केंद्रित; अन्य भी वायु द्वारा ठंडे किए जा रहे हैं पूर्ण प्रणाली जलमग्न, सभी ताप स्रोत ठंडे
विद्युत घनत्व  ~20 kW/रैक तक (अनुकूलन के साथ) ~50–100 किलोवाट/रैक तक 500 किलोवाट/रैक या उससे अधिक
रखरखाव और अनुकूलता आसान रखरखाव; सार्वभौमिक अनुकूलता मध्यम जटिलता; सीमित समर्थन उच्च जटिलता; विशेष रूप से तैयार हार्डवेयर की आवश्यकता होती है।
परिनियोजन जटिलता सरल एवं व्यापक रूप से अपनाया गया मध्यम – द्रव लूप, प्लेट, रिसाव प्रबंधन की आवश्यकता होती है। उच्च – टैंक, तरल पदार्थ से निपटने, रिसाव का पता लगाने की जरूरत होती है।
स्थिरता क्षमता निम्न – उच्च पंखे ऊर्जा, सीमित गर्मी पुन: उपयोग मध्यम – कम ऊर्जा उपयोग, कुछ ऊष्मा का पुनः उपयोग संभव उच्च कुशल ऊर्जा उपयोग और बेहतर ऊष्मा पुनःउपयोग क्षमता।

हरित प्रौद्योगिकी से संबंधित चुनौतियाँ

  • विनियामक जटिलताएँ: शीतलक तरल पदार्थ अलग-अलग विनियमों के अधीन होते हैं और जटिल तंत्र डिजाइन के आधार पर उन्नत शीतलन प्रौद्योगिकियों को व्यापक पैमाने पर अपनाने में देरी कर सकते हैं।
  • स्थिरता संबंधी समझौता: जबकि नई प्रौद्योगिकियाँ पर्यावरण के अनुकूल हैं, वे समझौते के साथ संरेखित हैं।
    • उदाहरण के लिए, शीतलक की सोर्सिंग और निपटान से अन्य पर्यावरणीय नुकसान हो सकते हैं, जैसे- प्लास्टिक के स्ट्रॉ को कागज से बदलना।
  • बिजली का स्रोत: कोयला आधारित बिजली से संचालित होने पर शीतलन तकनीक में अभी भी उच्च कार्बन फुटप्रिंट हो सकता है, जो कि जीवाश्म ईंधन ग्रिड द्वारा संचालित इलेक्ट्रिक कारों के समान है।

आगे की राह

  • स्थिरता में प्रणालीगत सोच: नीति निर्माताओं, वैज्ञानिकों और उद्योग को प्रदूषण को एक चरण या क्षेत्र से दूसरे चरण में स्थानांतरित होने से बचाने के लिए अलग-अलग तकनीकी सुधारों से एकीकृत जीवन चक्र आकलन की ओर स्थानांतरित होना चाहिए।
  • नवीकरणीय ऊर्जा के साथ एकीकरण: नवीकरणीय ऊर्जा के साथ उन्नत शीतलन का संयोजन उत्सर्जन और जल की बचत को बढ़ाता है, जिससे यह पुष्ट होता है कि स्वच्छ ऊर्जा तथा कुशल शीतलन को एक साथ काम करना चाहिए।
  • नीति समर्थन और मानकीकरण: सामंजस्यपूर्ण विनियमन, शीतलक के लिए वैश्विक मानकों और हरित प्रौद्योगिकियों के लिए त्वरित स्वीकृति की आवश्यकता है।
  • उद्योग-व्यापी रूप से अपनाना और निवेश: डेटा केंद्रों को स्केलेबल कोल्ड-प्लेट और विसर्जन प्रणालियों में निवेश करना चाहिए तथा उन्हें दीर्घकालिक ऊर्जा एवं उत्सर्जन में कमी सुनिश्चित करने के लिए नए निर्माण के साथ एकीकृत करना चाहिए।
  • विकास और जलवायु लक्ष्यों को संतुलित करना: जैसे-जैसे क्लाउड सेवाओं और डिजिटल बुनियादी ढाँचे की वैश्विक माँग बढ़ती है, विकास और स्थिरता को संतुलित करने के लिए स्मार्ट कूलिंग प्रौद्योगिकियों को अपनाना महत्त्वपूर्ण होगा।

संदर्भ

हाल ही में बार काउंसिल ऑफ इंडिया (Bar Council of India- BCI) ने आधिकारिक तौर पर नियमों को अधिसूचित किया है, जो विदेशी कानूनी फर्मों और वकीलों को सीमित क्षेत्रों में भारत में अभ्यास करने की अनुमति देता है।

नए नियमों के प्रमुख प्रावधान

  • केवल सामान्य संबंधी कार्य: विदेशी कानूनी फर्मों और वकीलों को केवल सामान्य संबंधी मामलों में कार्य करने की अनुमति है, जैसे सलाहकार कार्य और अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता।
  • विदेशी और अंतरराष्ट्रीय कानून का प्रतिबंधित उपयोग: उन्हें केवल विदेशी और अंतरराष्ट्रीय कानून पर सलाह देने की अनुमति है, भारतीय कानूनी मामलों पर नहीं।
  • पारस्परिक पहुँच आवश्यक: अनुमति केवल पारस्परिक आधार पर दी जाती है, जिसका अर्थ है कि भारतीय वकीलों को वि देश में समान पहुँच प्राप्त होनी चाहिए।
  • दोहरा पंजीकरण विकल्प: भारतीय वकील और फर्म भारतीय कानून का अभ्यास करने के अपने अधिकार को त्यागे बिना विदेशी कानून अभ्यास के लिए पंजीकरण कर सकते हैं।

बार काउंसिल ऑफ इंडिया (Bar Council of India-BCI)

  • बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) भारत में कानूनी पेशे और कानूनी शिक्षा को विनियमित करने के लिए अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के तहत स्थापित एक वैधानिक निकाय है।
  • संरचना: BCI में राज्य बार काउंसिल द्वारा चुने गए सदस्य होते हैं और भारत के अटॉर्नी जनरल और भारत के सॉलिसिटर जनरल पदेन सदस्य के रूप में कार्य करते हैं।
  • नियामक कार्य: BCI अधिवक्ताओं के लिए पेशेवर मानक और आचरण निर्धारित करता है, अनुशासनात्मक दिशा-निर्देशों को लागू करता है तथा भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों से प्राप्त विधि डिग्रियों को मान्यता देता है।
  • कानूनी शिक्षा में भूमिका: यह विधि संस्थानों को मंजूरी देता है, पाठ्यक्रम मानकों को निर्धारित करता है तथा भारत में विधि शिक्षा के लिए नियम बनाता है।
  • परीक्षा और नामांकन: BCI विधि स्नातकों के लिए अखिल भारतीय बार परीक्षा (All India Bar Examination-AIBE) आयोजित करता है तथा राज्य बार काउंसिल के माध्यम से अधिवक्ताओं के नामांकन की देख-रेख करता है।

भारत में विदेशी चिकित्सकों के प्रवेश का इतिहास

  • विधि आयोग का प्रस्ताव: वर्ष 2000 में विधि आयोग द्वारा तैयार किए गए कार्य पत्र में विदेशी कानूनी परामर्श के लिए अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में संशोधन की सिफारिश की गई थी।
  • व्यापक विरोध: फरवरी 2000 में, 40,000 से अधिक वकीलों ने घरेलू कानूनी संप्रभुता के लिए खतरों का हवाला देते हुए विदेशी चिकित्सकों को अनुमति देने वाले प्रस्तावित कानूनी सुधारों का विरोध किया।
  • न्यायिक स्थिति: सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में निर्णय सुनाया कि विदेशी वकील और कानूनी फर्म भारत में मुकदमेबाजी और सामान्य दोनों क्षेत्रों में कानून का अभ्यास नहीं कर सकते।
  • नीति परिवर्तन: BCI ने मार्च 2023 में एक अधिसूचना जारी की, जिसमें विदेशी वकीलों को सामान्य मामलों से संबंधित सुनवाई करने की अनुमति दी गई।
    • हालाँकि, इसे दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और यह मामला अभी भी लंबित है।

नए नियमों की आलोचना

  • मौजूदा कानून के साथ टकराव: कानूनी विशेषज्ञों का तर्क है कि BCI का कदम सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2018 के निर्णय के विपरीत है और अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के साथ संरेखित नहीं है।
  • संशोधन की माँग: विशेषज्ञों का सुझाव है कि संसद को प्रशासनिक अधिसूचनाओं पर निर्भर रहने के बजाय अधिवक्ता अधिनियम में संशोधन करना चाहिए।
  • नियम में अस्पष्टता: नए नियम यह स्पष्ट नहीं करते हैं कि विदेशी वकील भारतीय कानून से जुड़ी अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में प्रस्तुत हो सकते हैं या नहीं, जिससे कानूनी अनिश्चितताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • पारस्परिकता रहित: बार काउंसिल के नेताओं का तर्क है कि वास्तविक पारस्परिकता मौजूद नहीं है, क्योंकि भारत के उदार दृष्टिकोण के बावजूद भारतीय वकीलों को विदेशों में कई प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।

आगे की राह

  • अधिनियम में संशोधन: विशेषज्ञ कानूनी स्थिरता सुनिश्चित करने और न्यायिक अस्पष्टता को दूर करने के लिए अधिवक्ता अधिनियम में स्पष्ट विधायी संशोधन की अनुशंसा करते हैं।
  • कार्यक्षेत्र स्पष्ट करना: BCI को विदेशी वकीलों के लिए परिचालन सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना चाहिए, विशेष रूप से मध्यस्थता और परामर्श कार्य में।
  • वास्तविक पारस्परिकता सुनिश्चित करना: पहुँच का विस्तार करने से पहले, भारत को पारस्परिक मान्यता समझौतों पर वार्ता करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भारतीय वकीलों को विदेश में समान अधिकार प्राप्त हों।
  • वैश्विक एकीकरण और कानूनी संप्रभुता: नियामक सुधारों का उद्देश्य भारत की कानूनी प्रणाली की अखंडता और स्वायत्तता की रक्षा करते हुए अंतरराष्ट्रीय कानूनी सहयोग को बढ़ावा देना होना चाहिए।

संदर्भ

कृषि मंत्रालय ने राजपत्र के माध्यम से एक अधिसूचना जारी की और 34 नए बायोस्टिमुलेंट्स को मंजूरी दी, जिससे कुल संख्या 45 से अधिक हो गई।

संबंधित तथ्य

  • बायोस्टिमुलेंट्स को पहली बार वर्ष 2021 में उर्वरक नियंत्रण आदेश (FCO) में एक विशेष उर्वरक श्रेणी के रूप में शामिल किया गया था।
  • उर्वरक नियंत्रण संशोधन आदेश, 2021 की अनुसूची VI के अनुसार, निर्माताओं और आयातकों के लिए बायोस्टिमुलेंट्स को बेचने से पहले उन्हें पंजीकृत करना अनिवार्य है।

बायोस्टिमुलेंट्स क्या हैं?

  • बायोस्टिमुलेंट्स (जिन्हें प्लांट कंडीशनर भी कहा जाता है) प्राकृतिक या जैविक उत्पाद हैं, जो पोषक तत्त्वों के अवशोषण और तनाव के प्रति प्रतिरोध को बेहतर बनाकर पौधों को वृद्धि एवं विकास में सहायता करते हैं।
  • इनमें शामिल हैं:
    • समुद्री शैवाल के अर्क
    • ह्यूमिक और फुल्विक एसिड के फॉर्मूलेशन
    • प्रोटीन हाइड्रोलिसेट्स और अमीनो एसिड
    • विटामिन और एंटीऑक्सीडेंट
    • माइक्रोबियल और एंजाइमेटिक बायोस्टिमुलेंट
    • लाभकारी कवक (जैसे माइकोराइजा)
    • लाभकारी बैक्टीरिया (जैसे राइजोबैक्टीरिया)

  • वे पौधों की वृद्धि को बढ़ाते हैं, अजैविक तनावों के प्रति सहनशीलता में सुधार करते हैं तथा उपज और गुणवत्ता में वृद्धि करते हैं।
    • अजैविक तनावों में सूखा, लवणता, ठंड और अत्यधिक तापमान शामिल हैं।
    • ये कारक पौधों की वृद्धि और खाद्य उत्पादकता को अत्यंत कम कर देते हैं। वे उर्वरकों की आवश्यकता को कम करने में भी मदद करते हैं।
  • इनमें कीटनाशक या पौधों की वृद्धि नियामक शामिल नहीं हैं, जो कीटनाशक अधिनियम, 1968 के अंतर्गत आते हैं।
  • जैव उत्प्रेरक पदार्थ जैविक खेती के साथ अच्छी तरह से संतुलित होते हैं क्योंकि वे प्रकृति को संतुलित रखने, मृदा स्वास्थ्य में सुधार करने और कम कृत्रिम रसायनों का उपयोग करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

बायोस्टिमुलेंट्स के लाभ

  • पौधों को जलवायु चुनौतियों से लड़ने में मदद करना, जिसमें जैविक (कीट, रोग) और अजैविक तनाव (सूखा, गर्मी) आपदाएँ शामिल हैं।
  • मौजूदा मृदा के पोषक तत्त्वों के अवशोषण में सुधार करना।
  • रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करना।
  • मजबूत और स्वस्थ फसलें प्रदान करना।

उर्वरक नियंत्रण आदेश (Fertilizer Control Order-FCO) 1985

  • उर्वरक नियंत्रण आदेश (FCO) भारत में उर्वरकों के उत्पादन, गुणवत्ता, बिक्री और उपयोग को नियंत्रित करने के लिए सरकार द्वारा बनाए गए नियमों का एक समूह है।
  • FCO निम्नलिखित के लिए नियम निर्धारित करता है:
    • पोषक तत्त्व सामग्री (N, P, K स्तर)।
    • भौतिक विशेषताएँ (जैसे रंग, बनावट)।
    • अशुद्धियाँ और हानिकारक पदार्थ।
    • उर्वरक बैग पर उचित लेबलिंग।
  • निम्न-गुणवत्ता वाले या मिलावटी उर्वरकों की बिक्री को रोकता है, जो मृदा और फसलों को नुकसान पहुँचा सकते हैं।

संदर्भ

हाल ही में तेलंगाना सरकार ने वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत कुमराम भीम संरक्षण रिजर्व को एक प्रमुख बाघ गलियारा घोषित किया है।

कुमराम भीम संरक्षण रिजर्व के बारे में

  • कुमराम भीम संरक्षण रिजर्व को अधिसूचित करने का उद्देश्य कवाल टाइगर रिजर्व (तेलंगाना) और तादोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व (महाराष्ट्र) के बीच एक सुरक्षित बाघ गलियारे की स्थापना करना है। 
    • यह गलियारा छत्तीसगढ़ के इंद्रावती टाइगर रिजर्व से भी जुड़ता है, जिससे तीन राज्यों के बीच बाघों की आवाजाही संभव होती है।

  • स्थान: यह रिजर्व कुमराम भीम आसिफाबाद जिले में आसिफाबाद और कागजनगर डिवीजनों में 1,492.88 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है।
  • वनस्पतियाँ और आवास: इस क्षेत्र में उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन हैं, जिनमें खुले वन, घास के मैदान और नदी के किनारे के क्षेत्र शामिल हैं, जो वनस्पतियों और जीवों दोनों के लिए समृद्ध आवास प्रदान करते हैं।
  • जीव विविधता: स्थानीय और अस्थायी बाघों के अलावा, इस क्षेत्र में तेंदुए, जंगली कुत्ते, भालू, भेड़िये, लकड़बग्घे, हनी बेजर और जंगली बिल्लियाँ भी पाई जाती हैं।
    • यहाँ गौर, साँभर, नीलगाय, चीतल, मुंतजेक (Muntjac), चार सींग वाले मृग और भारतीय हिरन जैसे शाकाहारी जानवर भी पाए जाते हैं।
    • यहाँ 240 से अधिक पक्षी प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें मालाबार ‘पाइड हॉर्नबिल’ और ‘लॉन्ग बिल्ड वल्चर’ शामिल हैं।
  • पारिस्थितिकी महत्त्व: यह रिजर्व बाघों के विस्तार और कवाल, तादोबा-अंधारी, कन्हारगाँव, टिपेश्वर, चपराला, (महाराष्ट्र) और इंद्रावती टाइगर (छत्तीसगढ़) रिजर्व के बीच संपर्क के लिए एक महत्त्वपूर्ण गलियारे के रूप में कार्य करता है।
    • कैमरा ट्रैप डेटा से पता चलता है कि पिछले दशक में 45 से अधिक बाघों ने इस गलियारे का उपयोग किया है।
  • बाघों के जन्म और तेंदुए की उपस्थिति से संकेत मिलता है कि यह प्रजनन स्थल और विस्तारित क्षेत्र दोनों में है।

संरक्षण रिजर्व बनाम सामुदायिक रिजर्व

मापदंड

संरक्षण रिजर्व

सामुदायिक रिजर्व

परिचय संरक्षण रिजर्व जैव विविधता संरक्षण के लिए नामित सरकारी स्वामित्व वाले क्षेत्र हैं। सामुदायिक रिजर्व सामुदायिक या निजी स्वामित्व वाली भूमि है, जिसे संरक्षण के लिए स्वेच्छा से संरक्षित किया जाता है।
उद्देश्य बफर जोन, वन्यजीव गलियारे या राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों और वनों के बीच संयोजक के रूप में कार्य करना। संरक्षित क्षेत्रों के बाहर जैव विविधता के संरक्षण में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देना।
द्वारा नामित स्थानीय समुदायों के साथ परामर्श के बाद राज्य सरकार द्वारा इस पर निर्णय लिया जाएगा। राज्य सरकार, स्वैच्छिक सामुदायिक प्रस्तावों या निजी भू-स्वामियों के आधार पर।
मान्यता का कानूनी आधार वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की धारा 36(A)। वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की धारा 36(C)।
स्वामित्व सरकार के स्वामित्व में। स्थानीय समुदाय या निजी व्यक्तियों के स्वामित्व में।
प्रबंध संरक्षण रिजर्व प्रबंधन समिति द्वारा प्रबंधित। स्थानीय हितधारकों सहित सामुदायिक रिजर्व प्रबंधन समिति द्वारा प्रबंधित।
निवासियों के अधिकार स्थानीय निवासियों के पारंपरिक अधिकार बरकरार हैं और उनका सम्मान किया जाता है। निवासियों के पास पूर्ण स्वामित्व और परंपरागत अधिकार बने रहते हैं; भागीदारी स्वैच्छिक है।
उदाहरण तिरुपुदईमरुथुर, तमिलनाडु (प्रथम संरक्षण रिजर्व), सोरसन और खिचन, (राजस्थान) कडालुंडी-वल्लिक्कुन्नु, केरल – मीनाचिल नदी, केरल।

संदर्भ

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुमान के अनुसार, भारत वर्ष 2025 तक नॉमिनल जीडीपी के आधार पर जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति

  • अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुसार, वर्ष 2025 में भारत का नाममात्र सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 4,187.03 बिलियन डॉलर होने का अनुमान है, जो जापान के GDP से थोड़ा अधिक है।
  • बाजार विनिमय दर (MER) GDP के हिसाब से, भारत अब संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और जर्मनी के बाद चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
  • भारत में प्रति व्यक्ति GDP वर्ष 2024 में मौजूदा डॉलर के हिसाब से 2,711 डॉलर थी, जिसने इसे “निम्न मध्यम आय वाले देशों” की सूची में सबसे निचले पायदान पर रखा।

बाजार विनिमय दर (Market Exchange Rate-MER) बनाम क्रय शक्ति समता (Purchasing Power Parity-PPP)

पहलू

जीडीपी @ बाजार विनिमय दर (MER)

जीडीपी @ क्रय शक्ति समता (PPP)

परिभाषा वर्तमान बाजार विनिमय दरों का उपयोग करके सकल घरेलू उत्पाद को अमेरिकी डॉलर में परिवर्तित किया गया। सकल घरेलू उत्पाद को वस्तुओं/सेवाओं की एक सामान्य टोकरी के लिए सापेक्ष घरेलू मूल्य स्तरों के आधार पर समायोजित किया जाता है।
उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रवाह, निवेश और विदेशी भंडार का आकलन करने के लिए उपयोगी। घरेलू जीवन स्तर और उपभोग क्षमता की अधिक यथार्थवादी तुलना प्रदान करता है।
संवेदनशीलता अत्यधिक अस्थिर; अल्पकालिक मुद्रा उतार-चढ़ाव और वित्तीय बाजारों से प्रभावित। समय के साथ अधिक स्थिर; वास्तविक जीवन यापन लागत में अंतर और घरेलू मूल्य स्तरों को दर्शाता है।
उदाहरण MER विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में वस्तुओं या सेवाओं के मूल्य अंतर को प्रतिबिंबित नहीं करता है। PPP मूल्य अंतर को दर्शाता है, जो घरेलू स्तर पर भारतीय मुद्रा के उच्च वास्तविक मूल्य को दर्शाता है।

न्यूयॉर्क में एक बिग मैक की कीमत $12 और मुंबई में ₹385 (~$4.50) है।

भारत की रैंक (2025) विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था। वर्ष 2009 के बाद से तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था।
भारत की जीडीपी (2025) लगभग 4.19 ट्रिलियन डॉलर। लगभग 15 ट्रिलियन डॉलर।
गलत व्याख्या का जोखिम अल्पकालिक मुद्रा गतिविधियों के आधार पर आर्थिक शक्ति को बढ़ा-चढ़ाकर या कम करके बताया जा सकता है। कम मजदूरी और मूल्य स्तर के कारण गरीब देशों में सकल घरेलू उत्पाद का आकार बढ़ सकता है।
नीतिगत प्रासंगिकता आमतौर पर वित्तीय बाजारों, निवेशक निर्णयों और बजटीय योजना में उपयोग किया जाता है। दीर्घकालिक विकास विश्लेषण, गरीबी आकलन और वैश्विक तुलना के लिए अधिक प्रासंगिक।

‘विकसित भारत’ के तहत भारत का लक्ष्य

  • विजन: भारतीय स्वतंत्रता की शताब्दी के अनुरूप, वर्ष 2047 तक एक विकसित, उच्च आय वाला देश बनना।

भारत की विकास गाथा की चुनौतियाँ

  • भ्रामक कथन: MER पर आधारित GDP वास्तविक घरेलू कल्याण पर विचार किए बिना रैंकिंग पर अधिक जोर देती है।
  • कम प्रति व्यक्ति आय: भारत में प्रति व्यक्ति जीडीपी (2024):
    • $2,711 (MER), 196 देशों में से 144वें स्थान पर है।
    • PPP आधारित प्रति व्यक्ति GDP रैंक 127वें स्थान पर है।
    • भारत कुल मिलाकर एक बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद प्रति व्यक्ति GDP (MER) में श्रीलंका ($4,325) और वियतनाम ($4,536) से पीछे है।
  • अनौपचारिक क्षेत्र: जीडीपी वृद्धि के साथ-साथ रोजगार की गुणवत्ता या आय सुरक्षा में आनुपातिक वृद्धि नहीं हुई है।
    • बड़े अनौपचारिक क्षेत्र और अवैतनिक महिला श्रम औपचारिक जीडीपी गणना से बाहर रहते हैं।
    • कृषि में 76% और निर्माण में 70% आकस्मिक श्रमिक न्यूनतम मजदूरी से कम कमाते हैं (ILO, 2024)।
  • क्षेत्रीय असमानताएँ और कम प्रदर्शन: स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास जैसे गैर-व्यापारिक क्षेत्रों को कम वित्तपोषित किया जाता है।
    • आर्थिक लाभ असमान रूप से वितरित किए गए हैं, जिससे श्रम की तुलना में पूँजी को अधिक लाभ हुआ है।
    • जीडीपी में विश्वसनीय सामाजिक संकेतकों की अनुपस्थिति पोषण स्तर, शिक्षा तक पहुँच और स्वास्थ्य बुनियादी ढाँचे जैसी मूलभूत परिदृश्यों को कम करके आँकती है।

भारतीय विकास के कारक: घरेलू संरचनात्मक सुधार

  • एकीकृत अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था (GST): भारत के खंडित कर ढाँचे को सुव्यवस्थित किया, अनुपालन और राजस्व स्थिरता को बढ़ावा दिया।
    • उदाहरण: वित्त वर्ष 2024-25 की शुरुआत में सकल GST संग्रह औसतन ₹1.84 लाख करोड़ प्रति माह रहा, जो वर्ष-दर-वर्ष 9.1 प्रतिशत अधिक है।
  • उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजनाएँ: घरेलू मूल्य संवर्द्धन को प्रोत्साहित करके इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्यूटिकल्स और ऑटोमोबाइल में विनिर्माण को बढ़ावा दिया।
    • उदाहरण: मोबाइल फोन का विनिर्माण मूल्य वित्त वर्ष 2014 में ₹18,900 करोड़ से बढ़कर वित्त वर्ष 2024 में ₹4,22,000 करोड़ हो गया है।
  • संरचनागत पूँजीगत व्यय: राजमार्गों, रेल और ऊर्जा परियोजनाओं में तेजी, रसद लागत में कटौती और बाधाओं को कम करना।
    • उदाहरण: वित्त वर्ष 2014 में बुनियादी ढाँचे का पूँजीगत व्यय जीडीपी के 1 प्रतिशत से बढ़कर वित्त वर्ष 2024 में 3.5 प्रतिशत हो गया।
  • डिजिटल सार्वजनिक-वस्तुएँ और वित्तीय समावेशन: UPI और संबंधित सुधारों ने भुगतान और ऋण तक पहुँच को व्यापक बनाया, जिससे खपत और SME गतिविधियों को बढ़ावा मिला।
    • उदाहरण: एकीकृत भुगतान इंटरफेस (UPI) ने एक महीने में 16.58 बिलियन वित्तीय लेन-देन को संसाधित करके एक ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की।
  • श्रम और व्यापार करने में आसानी के सुधार: पंजीकरण, अनुपालन और विवाद समाधान को सरल बनाया, जिससे विनिर्माण और सेवाओं में निवेश आकर्षित हुआ।
    • उदाहरण: भारत की ‘डूइंग बिजनेस रैंकिंग’ वर्ष 2014 में 142वें स्थान से बढ़कर वर्ष 2019 में 63वें स्थान पर पहुँच गई।

भारतीय विकास के कारक: वैश्विक आर्थिक पुनर्गठन

  • आपूर्ति शृंखला विविधीकरण (‘चीन+1’): बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन पर अत्यधिक निर्भरता कम करने के लिए उत्पादन को भारत में स्थानांतरित कर दिया।
    • उदाहरण: फॉक्सकॉन ने वैश्विक iPhone उत्पादन का बड़ा हिस्सा आपूर्ति करने के लिए वर्ष 2025 में तमिलनाडु में $1.5 बिलियन का डिस्प्ले-मॉड्यूल प्लांट लगाने की घोषणा की।
  • बढ़ता हुआ FDI प्रवाह: उदारीकृत कैप और निवेशक-अनुकूल नीतियों ने रिकॉर्ड विदेशी पूँजी आकर्षित की।
    • उदाहरण: भारत ने वित्त वर्ष 2024-25 में $81 बिलियन का FDI दर्ज किया, जो वर्ष 2013-14 के स्तर से दोगुना से भी अधिक है।
  • जनसांख्यिकी लाभांश: युवा कार्यबल ने श्रम पूल का विस्तार किया, जिससे सेवाओं, विनिर्माण और उपभोग में वृद्धि को बल मिला।
    • उदाहरण: कार्यशील आयु वर्ग की आबादी का हिस्सा बढ़कर 65 प्रतिशत हो गया, जो प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक है।
  • IT-BPM निर्यात में उछाल: भू-राजनीतिक तनावों ने वैश्विक फर्मों को अपतटीय प्रौद्योगिकी और बैक-ऑफिस कार्य के लिए भारत की ओर आकर्षित किया।
    • उदाहरण: वित्त वर्ष 2024 में IT-BPM राजस्व 254 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया, जबकि निर्यात 200 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया।
  • हरित ऊर्जा और जलवायु वित्त: वैश्विक डीकार्बोनाइजेशन अभियान के तहत भारत के अक्षय ऊर्जा निर्माण में अंतरराष्ट्रीय पूँजी प्रवाहित हुई।
    • उदाहरण: भारत के कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) प्रवाह में अक्षय ऊर्जा (RE) की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2021 से लगभग 1 प्रतिशत से बढ़कर वित्त वर्ष 2024-25 में लगभग 8 प्रतिशत हो गई है।

आगे की राह

  • पूरक संकेतकों को अपनाना: आर्थिक कल्याण के समग्र दृष्टिकोण के लिए GDP के साथ मानव विकास सूचकांक (HDI), गिनी गुणांक और रोजगार डेटा जैसे मैट्रिक्स को एकीकृत करना।
  • डेटा पारदर्शिता और गुणवत्ता में सुधार करना: सांख्यिकीय प्रणालियों को मजबूत करना, पद्धतिगत स्थिरता सुनिश्चित करना और राष्ट्रीय खातों की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप को कम करना।
  • रोजगार की गुणवत्ता और औपचारिकता में सुधार करना: न्यूनतम वेतन प्रवर्तन और श्रम बाजार सुधारों को मजबूत करना।
    • कौशल विकास और डिजिटल समावेशन पर ध्यान देना।
  • मानव पूँजी में निवेश करना: दीर्घकालिक विकासात्मक प्रभाव पैदा करने के लिए स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और पोषण पर सार्वजनिक व्यय बढ़ाना।
  • आर्थिक आख्यान में सुधार करना: हेडलाइन जीडीपी रैंकिंग पर अत्यधिक निर्भरता से बचना।
    • आय असमानता, रोजगार सृजन और संस्थागत क्षमता में संरचनात्मक चुनौतियों को पहचानना।

सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के बारे में

  • GDP एक निश्चित अवधि में किसी देश में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के कुल बाजार मूल्य का मौद्रिक माप है।
  • उद्देश्य: किसी देश या क्षेत्र की आर्थिक स्थिति का आकलन करने के लिए उपयोग किया जाता है।

GDP के प्रकार

  • नॉमिनल जीडीपी मुद्रास्फीति के लिए समायोजन किए बिना वर्तमान कीमतों का उपयोग करके आर्थिक उत्पादन को मापता है।
    • गणना: सभी वस्तुओं और सेवाओं का मूल्यांकन उनके उत्पादन के वर्ष में उनकी बिक्री कीमतों पर किया जाता है।
  • वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद: आर्थिक उत्पादन का मुद्रास्फीति-समायोजित माप, जो उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं की वास्तविक मात्रा को दर्शाता है।
    • वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की गणना “स्थिर” कीमतों का उपयोग करके की जाती है, जिसमें मुद्रास्फीति या मूल्य परिवर्तनों का प्रभाव नहीं होता है।

    • वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान लगाना
      • आधार वर्ष का उपयोग वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान लगाने के लिए किया जाता है और इसे प्रत्येक 5-10 वर्ष में अद्यतित किया जाता है।
      • राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) कीमतों और आर्थिक उत्पादन में परिवर्तन को दर्शाने के लिए जीडीपी आधार वर्ष को संशोधित करने के लिए जिम्मेदार है।
      • गणना: चालू वर्ष और आधार वर्ष के बीच मूल्य परिवर्तनों को ध्यान में रखने के लिए जीडीपी मूल्य डिफ्लेटर का उपयोग करता है।
    • वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद प्राप्त करने के लिए नॉमिनल जीडीपी को अपस्फीतिकारक से विभाजित किया जाता है।

निष्कर्ष

नॉमिनल जीडीपी के आधार पर भारत का चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना उल्लेखनीय है, लेकिन यह केवल आंशिक परिदृश्य प्रस्तुत करता है। सार्थक तुलना और नीतिगत दिशा के लिए, समग्र सामाजिक-आर्थिक संकेतकों को जीडीपी रैंकिंग का पूरक होना चाहिए। वास्तविक विकास को पूर्ण आर्थिक आकार की तुलना में समावेशी विकास, रोजगार की गुणवत्ता और सामाजिक कल्याण को प्राथमिकता देनी चाहिए।

संदर्भ

हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री (EFCC) ने ताजिकिस्तान गणराज्य के दुशांबे में 29 से 31 मई, 2025 तक आयोजित ग्लेशियरों के परिरक्षण पर उच्च स्तरीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के पूर्ण सत्र को संबोधित किया।

संबंधित तथ्य

  • ताजिकिस्तान सरकार ने यूनेस्को और विश्व मौसम संगठन के सहयोग से वैश्विक पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने और जल-संबंधी चुनौतियों से निपटने में ग्लेशियरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालने के लिए इस सम्मेलन का आयोजन किया।

ग्लेशियर के बारे में

  • ग्लेशियर सघन बर्फ का एक स्थायी द्रव्यमान है, जो सदियों से बर्फ के संचय, संघनन और पुनःक्रिस्टलीकरण के माध्यम से बनता है और अपने भार के कारण धीरे-धीरे आगे बढ़ता है।
  • मुख्य रूप से ध्रुवीय क्षेत्रों और हिमालय, आल्प्स एवं एंडीज जैसी पर्वत शृंखलाओं में पाए जाने वाले ग्लेशियर पृथ्वी की जलवायु और जल प्रणालियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • दुनिया में 2,75,000 से अधिक ग्लेशियर हैं, जो लगभग 7,00,000 वर्ग किमी. के क्षेत्र को शामिल करते हैं।

ग्लेशियर क्यों महत्त्वपूर्ण हैं?

  • वैश्विक जल संसाधन: ग्लेशियर मीठे जल का एक प्रमुख स्रोत हैं, जो पीने, कृषि और उद्योग के लिए जल उपलब्ध कराते हैं।
    • ग्लेशियर दुनिया के लगभग 69% मीठे जल को संगृहीत करते हैं और गंगा, सिंधु एवं ब्रह्मपुत्र जैसी विश्व की प्रमुख नदियों के लिए जल के प्राथमिक स्रोत के रूप में कार्य करते हैं।

  • कृषि और मानव बस्तियों के लिए जल सुरक्षा: ग्लेशियर पिघलने से भारत-गंगा के मैदानों में कृषि के लिए आवश्यक मौसमी जल प्रवाह प्राप्त होता है।
    • भागा बेसिन में बड़े पैमाने पर नुकसान (वर्ष 2008-2021 से 6-9 मीटर जल स्तर के बराबर) हिमालय पर निर्भर क्षेत्रों में सिंचाई और पेयजल के लिए दीर्घकालिक जल की कमी प्रदर्शित करता है।
  • आपदा विनियमन और जोखिम सृजन: हालाँकि ग्लेशियर जल प्रवाह को नियंत्रित करते हैं, तेजी से पिघलने से आपदा जोखिम बढ़ता है, विशेष रूप से ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOFs), हिमस्खलन और अचानक बाढ़ जैसी आपदाओं का खतरा बढ़ता है।
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) ने इन खतरों से निपटने के लिए GLOF जोखिम मानचित्रण और प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली शुरू की है।

  • पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को समर्थन: ग्लेशियर और आस-पास के परिदृश्य बड़े पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं और उनका संरक्षण जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के लचीलेपन को बनाए रखने में मदद करता है।
    • ग्लेशियर विविध पौधों के समुदायों और परागण नेटवर्क का समर्थन करते हैं, जो अल्पाइन पारिस्थितिकी तंत्र की समग्र स्थिरता में योगदान करते हैं। उदाहरण के लिए- नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान उत्तराखंड।
  • जलवायु विनियमन (Climate Regulation): ग्लेशियर जलवायु प्रणाली में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हैं और वैश्विक तापमान को नियंत्रित करते हैं।
    • जैसे-जैसे ग्लेशियर सिकुड़ते जाते हैं, परावर्तकता में कमी के कारण तापमान में वृद्धि होती है, यह एक फीडबैक लूप है, जो उष्णकटिबंधीय हिंद महासागर की सतह के तापमान में 1°C (वर्ष 1951-2015) की वृद्धि के रूप में देखा गया है।
  • वैज्ञानिक अभिलेख: ग्लेशियरों में अतीत की जलवायु और पर्यावरण के बारे में बहुमूल्य जानकारी होती है, जो पृथ्वी के इतिहास का एक अनूठा संग्रह प्रस्तुत करती है।
    • ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के नव प्रकाशित शोध से यह जानकारी मिलती है कि पिछले 41,000 वर्षों में वायरस ने पृथ्वी की बदलती जलवायु के साथ किस प्रकार अनुकूलन किया है।

ग्लेशियरों के पिघलने में योगदान देने वाले कारक

  • जलवायु परिवर्तन: बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे उनका द्रव्यमान और विस्तार कम हो रहा है।
    • संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि तापमान वृद्धि के कारण हिमालय के ग्लेशियर वर्ष 2100 तक अपने द्रव्यमान का 30-50% खो सकते हैं।
  • वायु प्रदूषण में वृद्धि: औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों और बायोमास दहन से उत्पन्न ‘ब्लैक कार्बन’ ग्लेशियरों पर जम जाता है, जिससे उनका एल्बिडो कम हो जाता है और ऊष्मा अवशोषण बढ़ जाता है, जिससे ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ जाती है।
    • UNEP की अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों पर वर्ष 2024 की रिपोर्ट में दक्षिण एशिया और हिमालय में ग्लेशियरों के पिघलने में ब्लैक कार्बन को प्रमुख योगदानकर्ता बताया गया है।
  • चरम मौसम पैटर्न: बार-बार होने वाली भारी वर्षा और गर्म हवाएँ ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने में योगदान करती हैं।
    • उदाहरण: वर्ष 2025 की स्विस बाढ़, कई दिनों तक गर्म, आर्द्र परिस्थितियों के बाद आई थी, जो कि हिमाच्छादित क्षेत्रों में तेजी से सामान्य हो रही है।
  • मानवीय गतिविधियाँ: वनों की कटाई, शहरीकरण और पर्यटन से हिमनद पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है और हिमनदों के पिघलने की क्रिया और तीव्र हो जाती है।
    • ऐसा माना जाता है कि उत्तराखंड में चार धाम परियोजना जैसी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं ने पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील हिमनद क्षेत्रों को नुकसान पहुँचाया है।
  • ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (Glacial Lake Outburst Floods-GLOFs): तेजी से पिघलने से अस्थिर ग्लेशियल झीलों का निर्माण होता हैं, जिससे विनाशकारी बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।
    • वर्ष 2013 केदारनाथ आपदा, वर्ष 2021 उत्तराखंड में चमोली बाढ़ और वर्ष 2023 सिक्किम बाढ़ ग्लेशियर पिघलने और GOLF से जुड़ी थीं।

ग्लेशियर पिघलने के प्रभाव

  • समुद्र स्तर में वृद्धि तटीय क्षेत्रों के लिए खतरा: पिघलते ग्लेशियर वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, जिससे निचले तटीय क्षेत्र खतरे में पड़ जाते हैं।
    • वर्ष 1961 से, ग्लेशियर पिघलने से समुद्र का स्तर लगभग 2.7 सेमी. बढ़ गया है, जिससे वार्षिक रूप से 335 बिलियन टन बर्फ का नुकसान हो रहा है।
  • बुनियादी ढाँचे और आवासों का विनाश: ग्लेशियर पिघलने से होने वाले भूस्खलन और बाढ़ मानव बस्तियों और पारिस्थितिकी तंत्र को तबाह कर सकते हैं। 
    • मई 2025 में, बर्फ ग्लेशियर के ढहने से बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुआ, जिससे स्विस गाँव ‘ब्लैटन’ का 90% हिस्सा नष्ट हो गया।
  • त्वरित जलवायु प्रतिक्रिया : ग्लेशियर कवरेज में कमी से पृथ्वी का एल्बेडो कम हो जाता है, जिससे अत्यधिक गर्मी उत्पन्न हो जाती है।
    • ग्लेशियर के पिघलने से सतहें काली हो जाती हैं, जिससे गर्मी का अवशोषण बढ़ जाता है और ग्लोबल वार्मिंग बढ़ जाती है।
  • पर्यटन और आजीविका पर आर्थिक प्रभाव: ग्लेशियर के नष्ट होने से पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है, जो ग्लेशियर परिदृश्यों पर निर्भर हैं।
    • आइसलैंड में, ग्लेशियरों के पीछे हटने से पर्यटन को खतरा है, जो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिम: स्थायी हिमपात और ग्लेशियर की बर्फ हजारों वर्षों तक वायरस, बैक्टीरिया और बीजाणुओं को प्रग्रहित कर सुरक्षित रख सकती है। जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघलते हैं, ये निष्क्रिय रोगजनक पर्यावरण में छोड़े जा सकते हैं।
    • उदाहरण: साइबेरिया (2016) में हीटवेव के कारण पर्माफ्रॉस्ट पिघला गया और एक हिरन के शव से एंथ्रेक्स जीवाणु उत्सर्जित हुए, जिससे मनुष्य और जानवर संक्रमित हो गए।

ग्लेशियर संरक्षण के लिए भारत सरकार की पहल

  • हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय मिशन (National Mission for Sustaining the Himalayan Ecosystem-NMSHE): जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan on Climate Change-NAPCC) के तहत एक उप-मिशन है।
    • इसका उद्देश्य हिमालयी क्रायोस्फीयर पर जलवायु प्रभावों को समझना, संरक्षण को बढ़ावा देना और पर्वतीय समुदायों से संबंधित लचीलेपन का निर्माण करना है।
  • क्रायोस्फीयर और जलवायु परिवर्तन अध्ययन केंद्र: इसे भारतीय हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर की गतिशीलता, ग्लेशियल झीलों और पर्माफ्रॉस्ट पर उन्नत शोध को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया गया है।
    • वास्तविक समय डेटा संग्रह, मॉडलिंग और जोखिम पूर्वानुमान का समर्थन करता है।
  • इसरो द्वारा रिमोट सेंसिंग और जीआईएस का उपयोग: इसरो ग्लेशियर क्षेत्र, द्रव्यमान और गति में परिवर्तनों की निगरानी करने के लिए उपग्रह-आधारित ग्लेशियर निगरानी का उपयोग करता है।
    • ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GOLF) की प्रारंभिक चेतावनी प्रदान करने को सक्षम बनाता है और दीर्घकालिक जलवायु मॉडलिंग का समर्थन करता है।
  • NDMA द्वारा ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GOLF) जोखिम मानचित्रण: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने GOLF-प्रवण क्षेत्रों की जोनिंग और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों के निर्माण की पहल की है।
    • इसका उद्देश्य उच्च संवेदनशील क्षेत्रों में आपदा जोखिम को कम करना है।
  • राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा अनुसंधान: कई संस्थान भारत के ग्लेशियोलॉजी प्रयासों का समर्थन करते हैं:

हिमनद निगरानी और संरक्षण में शामिल संगठन

  • विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization-WMO): ग्लेशियर पिघलने सहित वैश्विक जलवायु प्रवृत्तियों की निगरानी करता है और ग्लेशियर से संबंधित खतरों के लिए प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को बेहतर बनाने का कार्य करता है। WMO ग्लेशियरों और हिम शृंखलाओं की निगरानी के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का समर्थन करता है।
    • WMO थर्ड पोल रीजनल क्लाइमेट सेंटर नेटवर्क (TPRCC-नेटवर्क) हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर परिवर्तनों का नियमित आकलन तैयार करता है और प्रसारित करता है।
  • विश्व ग्लेशियर निगरानी सेवा (World Glacier Monitoring Service- WGMS): स्विट्जरलैंड में स्थित, यह दुनिया भर में ग्लेशियर द्रव्यमान संतुलन और बर्फ के नुकसान की निगरानी करता है, जलवायु अनुसंधान के लिए महत्त्वपूर्ण डेटा प्रदान करता है।

    • राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (National Centre for Polar and Ocean Research- NCPOR): ध्रुवीय एवं उच्च-तुंगता अनुसंधान केंद्र से संबंधित है।
    • NIH (रुड़की): जल विज्ञान और नदियों में ग्लेशियर पिघलने के योगदान पर अध्ययन करता है।
    • वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान और जी.बी. पंत संस्थान: क्रायोस्फीयर अध्ययन और पारिस्थितिकी निगरानी में सहयोग करता है।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग और जलवायु कूटनीति: भारत ने वर्ष 2025 के दुशांबे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में ग्लेशियर संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की।
    • विकासशील देशों के लिए समानता, CBDR-RC, तथा उन्नत प्रौद्योगिकी एवं वित्त प्रवाह की आवश्यकता पर बल दिया गया।

ग्लेशियर संरक्षण के लिए वैश्विक पहल

  • ग्लेशियरों के संरक्षण का अंतरराष्ट्रीय वर्ष (2025): इसे वैश्विक जागरूकता बढ़ाने और ग्लेशियर से संबंधित अनुसंधान तथा अनुकूलन को प्राथमिकता देने के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित किया गया है।
    • दुशांबे में ग्लेशियर संरक्षण पर उच्च स्तरीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में समर्थन प्राप्त हुआ, जिसमें भारत ने सक्रिय रूप से भाग लिया।
  • क्रायोस्फेरिक विज्ञान के लिए कार्रवाई का दशक (2025-2034): संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा ग्लेशियोलॉजी, जलवायु अनुसंधान और जोखिम न्यूनीकरण को बढ़ावा देने के लिए एक प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक सहयोग दशक।
  • ग्लेशियरों के लिए विश्व दिवस: ग्लेशियरों के लिए पहला विश्व दिवस 21 मार्च, 2025 को मनाया जाएगा।
    • उद्देश्य: ग्लेशियरों की सुरक्षा और पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए वैश्विक जागरूकता बढ़ाना और कार्रवाई को प्रोत्साहित करना।
    • यह दिन ग्लेशियरों के संरक्षण के अंतरराष्ट्रीय वर्ष 2025 का हिस्सा है।
  • पेरिस समझौता और राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (NDC): क्रायोस्फीरिक क्षरण को कम करने के लिए वैश्विक तापमान को 2°C से कम रखने के लिए प्रतिबद्ध देश।
  • क्रायोस्फीयर मॉनिटरिंग प्रोग्राम: वर्ल्ड ग्लेशियर मॉनिटरिंग सर्विस (World Glacier Monitoring Service-WGMS), NASA के ऑपरेशन आइसब्रिज और ESA के क्रायोसैट मिशन जैसे संगठनों द्वारा संचालित।
    • ग्लेशियर की मात्रा, वेग और द्रव्यमान संतुलन पर महत्त्वपूर्ण डेटा प्रदान करना, वैश्विक जलवायु मॉडल और नीति निर्माण का समर्थन करना।
  • अंतरराष्ट्रीय एकीकृत पर्वतीय विकास केंद्र (International Centre for Integrated Mountain Development-ICIMOD): आठ हिंदू कुश हिमालय (HKH) राष्ट्रों की सेवा करने वाला एक क्षेत्रीय अंतर-सरकारी निकाय: अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, चीन और म्याँमार।
    • यह हिमालय में सीमा पार ग्लेशियर अनुसंधान, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और जलवायु लचीलापन को बढ़ावा देता है।
  • आर्कटिक परिषद: आर्कटिक ग्लेशियर और समुद्री बर्फ संरक्षण को संबोधित करने वाला अंतर-सरकारी मंच, जिसमें भारत एक पर्यवेक्षक है।

ग्लेशियर संरक्षण में चुनौतियाँ

  • जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते रुझान: वैश्विक तापमान में वृद्धि ग्लेशियरों के तेजी से पीछे हटने का मूल कारण है और उत्सर्जन के लिए मौजूदा प्रतिबद्धता अपर्याप्त हैं।
    • वर्ष 2023 में, वैश्विक स्तर पर ग्लेशियरों की रिकॉर्ड 604 बिलियन टन बर्फ पिघली।
  • वास्तविक समय और स्थानीयकृत डेटा की कमी: अधिकांश ग्लेशियर दूरदराज के क्षेत्रों में हैं, जहाँ न्यूनतम दीर्घकालिक क्षेत्र अध्ययन या स्वचालित द्रव्यमान संतुलन निगरानी की कमी है।
  • विकासशील देशों में कम वित्तीय और तकनीकी क्षमता: पहाड़ी देशों में अत्याधुनिक क्रायोस्फीयर अनुसंधान उपकरण, पूर्वानुमान मॉडल और शमन वित्त तक पहुँच की कमी है।
    • भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देशों ने दुशांबे, 2025 शिखर सम्मेलन में वैश्विक वित्तपोषण में वृद्धि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
  • ग्लेशियर प्रणालियों की सीमा पार प्रकृति: ग्लेशियर राजनीतिक सीमाओं (जैसे- हिमालय) में विस्तृत हैं, जो संयुक्त अनुसंधान, डेटा साझाकरण और आपदा प्रतिक्रिया को जटिल बनाते हैं।
    • हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में 8 राष्ट्र शामिल हैं, जिन्हें निरंतर राजनयिक सहयोग की आवश्यकता है। (ICIMOD)
  • उच्च-तुंगता युक्त बुनियादी ढाँचे और पर्यटन का खराब विनियमन: ग्लेशियर क्षेत्रों के पास निर्माण, अनियमित तीर्थयात्राएँ और पर्यटन ऊष्मा अवशोषण को बढ़ाते हैं और ग्लेशियल प्रणालियों को अस्थिर करते हैं।
    • उत्तराखंड (2021) और हिमाचल (2023) में अचानक आई बाढ़ ‘ग्लेशियल’ जलग्रहण क्षेत्रों के पास अत्यधिक विकास से जुड़ी थी।
  • सामुदायिक ज्ञान और स्थानीय क्षमता का कम उपयोग: नीतियाँ प्रायः ग्लेशियल जोखिमों और मौसमी परिवर्तनों के बारे में स्वदेशी और स्थानीय अंतर्दृष्टि को अनदेखा करती हैं।
    • स्थानीय शेरपा और हिमालयी समुदायों के पास प्रायः ‘ग्लेशियल’ आपदा के शुरुआती संकेतक होते हैं, लेकिन उन्हें प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों में एकीकृत नहीं किया जाता है।

ग्लेशियर संरक्षण के लिए आगे की राह

  • वैश्विक जलवायु कार्रवाई में तेजी लाना: ग्लेशियरों के पिघलने की गति को धीमा करने के लिए पेरिस समझौते के तहत उत्सर्जन में कटौती को तेजी से आगे बढ़ाना आवश्यक है।
    • अध्ययनों से पता चलता है कि तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने से वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के मौजूदा द्रव्यमान का ~50% हिस्सा संरक्षित किया जा सकता है।
  • ग्लेशियर निगरानी के बुनियादी ढाँचे को मजबूत बनाना: स्वचालित मौसम केंद्रों, उपग्रह डेटा और फील्ड रिसर्च का उपयोग करके वास्तविक समय निगरानी का विस्तार करना।
  • GLOF प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को बढ़ाना: पूर्वानुमान मॉडलिंग, सायरन नेटवर्क और समुदाय के नेतृत्व वाली आपदा प्रतिक्रिया अभ्यास में निवेश करना।
    • NDMA के प्रयासों को सभी उच्च जोखिम युक्त हिमालयी ग्लेशियल झीलों तक बढ़ाया जाना चाहिए, न कि केवल चुनिंदा क्षेत्रों तक।
  • सीमा पार सहयोग को संस्थागत बनाना: डेटा साझा करने, संयुक्त जोखिम मानचित्रण और पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन के लिए हिमालयी जलवायु कूटनीति को बढ़ावा देना।
    • समन्वित क्षेत्रीय हिमनद प्रबंधन (ICIMOD) जैसे प्लेटफॉर्म को सशक्त बनाया जाना चाहिए।
  • पर्यावरण के प्रति संवेदनशील विकास और पर्यटन को बढ़ावा देना: बुनियादी ढाँचे के लिए पर्यावरणीय मंजूरी लागू करना और कमजोर हिमनद क्षेत्रों में पर्यटन को विनियमित करना।
    • पीछे हटते ग्लेशियरों और संवेदनशील घाटियों के पास निर्माण कार्य से बचना, जैसा कि केदारनाथ और जोशीमठ के मामले में हुआ है।
  • पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय क्षमता का लाभ उठाना: जमीनी स्तर पर लचीलेपन के लिए स्वदेशी अवलोकनों को वैज्ञानिक प्रणालियों के साथ एकीकृत करना।
    • हिमालयी समुदाय मौसमी परिवर्तनों, हिमस्खलन के जोखिम और हिमनद जल पैटर्न के बारे में शुरुआती जानकारी देते हैं।
  • जलवायु वित्त और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण सुनिश्चित करना: वैश्विक दक्षिण में ग्लेशियर अनुकूलन क्षमता बनाने के लिए समान वित्तपोषण और प्रौद्योगिकी साझाकरण पर जोर देना।
    • दुशांबे में वर्ष 2025 में भारत के आह्वान ने ग्लेशियर संरक्षण के लिए साझा लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों (CBDR-RC) पर जोर दिया।

निष्कर्ष 

वर्ष 2025 के दुशांबे सम्मेलन में ग्लेशियर संरक्षण के लिए भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि जलवायु-संचालित प्रभावों से निपटने में उसके नेतृत्व को रेखांकित करती है। NMSHE जैसी राष्ट्रीय पहलों को ग्लेशियरों के संरक्षण के अंतरराष्ट्रीय वर्ष जैसे वैश्विक प्रयासों के साथ एकीकृत करके, भारत का लक्ष्य हिमालयी ग्लेशियरों की सुरक्षा करना है, जिससे लाखों लोगों के लिए जल सुरक्षा और पारिस्थितिकी स्थिरता सुनिश्चित हो सके।

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