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Jun 06 2025

कुलसी नदी

असम एवं मेघालय सरकारों ने गंगा नदी डॉल्फिन के प्रमुख आवास स्थल ‘कुलसी नदी’ पर संयुक्त रूप से एक जल विद्युत परियोजना स्थापित करने का निर्णय लिया है। 

कुलसी नदी के बारे में 

  • कुलसी नदी ब्रह्मपुत्र नदी की एक छोटी लेकिन महत्त्वपूर्ण दक्षिणी तट सहायक नदी है। 
  • यह तीन नदियों, अर्थात् ख्री, कृष्णिया एवं उमसिरी से मिलकर बनी है। 
  • उद्गम एवं मार्ग: तीनों नदियाँ, ख्री, कृष्णिया एवं उमसिरी मेघालय पठार में पश्चिम खासी हिल्स जिले से असम के कामरूप जिले तक प्रवाहित होती हैं।
    • कुलसी नदी ब्रह्मपुत्र में मिलने से पहले चंदूबी झील एवं कुलसी आरक्षित वन से प्रवाहित होती है। 
  • पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्र: इसके किनारों के साथ कुलसी आरक्षित वन विविध वनस्पतियों एवं जीवों का आवास है, जिसमें दुर्लभ ऑर्किड तथा पक्षी शामिल हैं। 
  • जैव विविधता हॉटस्पॉट: नदी अपनी समृद्ध जलीय जैव विविधता के लिए जानी जाती है, विशेष रूप से गंगा नदी डॉल्फिन के आवास के रूप में। 
  • गंगा नदी की डॉल्फिन जीवित रहने के लिए नदी की गहराई (≥2 मीटर) पर निर्भर करती है, लेकिन अवैध रेत खनन एवं बुनियादी ढाँचे ने कुछ हिस्सों में जल स्तर को 70% तक कम कर दिया है।
  • यह परियोजना बहुउद्देश्यीय लाभ (बिजली, सिंचाई, पर्यटन) प्रदान करने पर केंद्रित है, परंतु पर्यावरणविद् नदी पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने वाले जोखिम पर बात कर रहे हैं।
  • इस परियोजना के कारण जल प्रवाह में परिवर्तन एवं निर्माण से होने वाले ध्वनि प्रदूषण के कारण डॉल्फिन के आवास नष्ट हो जाएँगे।

कच्छ में हड़प्पा-पूर्व मानव बस्ती

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान गांधीनगर के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक नवीन अध्ययन में हड़प्पा से 5,000 वर्ष पूर्व यानी वर्तमान से लगभग 9,000 वर्ष पूर्व कच्छ में शिकारी-संग्रहकर्ता समुदायों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

संबंधित तथ्य

  • नए ज्ञात स्थल इस क्षेत्र में परिभाषित सांस्कृतिक एवं कालानुक्रमिक संदर्भ के साथ प्रलेखित किया जाने वाला अपनी तरह का प्रथम स्थल है।
  • यह अध्ययन उस सामान्य धारणा को चुनौती देता है कि कच्छ में शहरीकरण मुख्य रूप से सिंध क्षेत्र के प्रभाव में विकसित हुआ।
  • इस अध्ययन से प्राप्त निष्कर्ष पाकिस्तान एवं ओमान प्रायद्वीप के लास बेला तथा मकरान क्षेत्रों में तटीय पुरातात्त्विक स्थलों के साथ समानताएँ भी प्रदर्शित करते हैं।

कच्छ शिकारी-संग्रहकर्ता अध्ययन में उपयोग की जाने वाली प्रमुख तकनीकें

  • एक्सेलेरेटर मास स्पेक्ट्रोमेट्री (Accelerator Mass Spectrometry- AMS) डेटिंग: प्राचीन नमूनों में कार्बन-14 (C-14) समस्थानिकों के मापन की अति-सटीक विधि है।
  • छोटे नमूनों के साथ भी, उच्च सटीकता के लिए व्यक्तिगत C-14 परमाणुओं की गणना करता है।
  • कार्बन-14 (रेडियोकार्बन) डेटिंग: कार्बनिक अवशेषों में C-14 (अर्द्ध आयु = 5,730 वर्ष) के क्षय को मापता है।
    • यह निर्धारित करता है कि जीवों की मृत्यु कब हुई, जिससे मानव बस्तियों की आयु का पता चलता है।
  • शैल मिडडेन विश्लेषण: प्राचीन मानव उपभोग के प्रमाण के रूप में शैल मिडडेन का अध्ययन किया गया।
    • आहार, पर्यावरण एवं तटीय अनुकूलन रणनीतियों के पुनर्निर्माण में मदद की।
  • पैलियोक्लाइमेट पुनर्निर्माण: कच्छ में पिछली जलवायु स्थितियों का अध्ययन करने के लिए शैल रसायन विज्ञान का उपयोग किया गया।
    • इससे पता चला है कि शिकारी-संग्राहक किस तरह से मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के अनुकूल हो गए।

खोज का महत्त्व

  • कच्छ में मानव बस्ती के सबसे प्राचीन साक्ष्य: खोजों से ज्ञात होता है कि कच्छ में मानव की उपस्थिति हड़प्पा सभ्यता से न्यूनतम 5,000 वर्ष पूर्व की है।
  • कच्छ में पहली बार प्रलेखित शैल-मिडडेन साइटें: इस अध्ययन में पूर्व में हुए ब्रिटिश सर्वेक्षण रिकॉर्ड के विपरीत, स्पष्ट सांस्कृतिक एवं कालानुक्रमिक संदर्भ के साथ शैल मिडडेन की पहचान एवं पुष्टि की गई है।
  • पैलियोक्लाइमेट एवं मानव अनुकूलन में अंतर्दृष्टि: शैल मिडडेन अतीत की जलवायु स्थितियों पुनः विकसित करने में मदद कर सकते हैं, जिससे इस बात का अध्ययन करने में  सहायता मिलती है कि प्रारंभिक मानव ने पर्यावरणीय परिवर्तनों के साथ स्वयं को किस प्रकार अनुकूलन किया।
  • सिंध-केंद्रित शहरीकरण सिद्धांत को चुनौती देता है: यह दर्शाता है कि कच्छ क्षेत्र में हुआ शहरी विकास सिंध क्षेत्र से अचानक बाहरी प्रभाव के बजाय एक क्रमिक, स्वदेशी प्रक्रिया थी।

राजस्थान में दो नए रामसर स्थल

हाल ही में राजस्थान के फलोदी में खीचन एवं उदयपुर में मेनार नामक दो और आर्द्रभूमि को रामसर स्थलों की प्रतिष्ठित सूची में शामिल किया गया है।

रामसर स्थल क्या हैं?

  • रामसर स्थल एक आर्द्रभूमि होती है, जिसे अंतरराष्ट्रीय महत्त्व का माना जाता है, जिसे रामसर कन्वेंशन के तहत मान्यता प्राप्त है, जिसे “आर्द्रभूमि पर कन्वेंशन” भी कहा जाता है।
  • इस संधि पर वर्ष 1971 में ईरान के रामसर में हस्ताक्षर किए गए थे एवं इसे UNESCO द्वारा लॉन्च किया गया था।
  • उद्देश्य: महत्त्वपूर्ण आर्द्रभूमि की पहचान करना एवं उनको संरक्षण प्रदान करना, विशेष रूप से वे जो जलपक्षियों (लगभग 180 प्रजातियाँ) के महत्त्व से संबंधित हैं तथा जैव विविधता के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
  • पश्चिम बंगाल में सुंदरबन भारत का सबसे बड़ा रामसर स्थल है।
  • भारत में पहले रामसर स्थल चिल्का झील (ओडिशा) एवं केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (राजस्थान) थे, जिन्हें वर्ष 1988 में नामित किया गया था।
  • भारत में अब कुल 91 रामसर स्थल हैं।
  • फलोदी में खीचन: फलोदी में खीचन आर्द्रभूमि थार रेगिस्तान में अवस्थित है एवं इसमें रात्रि नदी तथा विजयसागर तालाब शामिल हैं। 
  • उदयपुर में मेनार: यह ब्रह्म तालाब, ढांड तालाब एवं खेरोदा तालाब द्वारा निर्मित एक मीठे जल की आर्द्रभूमि है।
    • पक्षियों की सुरक्षा के लिए इसके मजबूत सामुदायिक प्रयासों के कारण इसे “पक्षी गाँव” के रूप में भी जाना जाता है। 
    • ये आर्द्रभूमि कई प्रजातियों के लिए महत्त्वपूर्ण आवास हैं, जिनमें गंभीर रूप से लुप्तप्राय वाइट रुम्पेड (White-rumped) एवं  लॉन्ग बिलड वल्चर (long-billed vultures) शामिल हैं।

संदर्भ 

भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) एवं राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) द्वारा किए गए एक अध्ययन में चीतल, साँभर तथा इंडियन बाइसन जैसी शिकार प्रजातियों पर चिंता व्यक्त की गई  है।

भारत में बाघ संरक्षण

  • बाघ आबादी की स्थिति
    • वर्ष 2006 में, भारत में बाघों की आबादी लगभग 1,400 के सर्वकालिक निम्नतम स्तर पर आ गई थी।
    • वन्यजीव संरक्षण में प्रयासों से वर्ष 2023 तक भारत में बाघों की संख्या 3,600 से अधिक हो गई।
    • हालाँकि, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, झारखंड एवं ओडिशा में बाघों की संख्या में गिरावट देखी गई है।

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष

  • बाघों की संख्या में असमान वृद्धि: भारत में बाघों की कुल संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन कुछ क्षेत्रों (जैसे- सिमलीपाल, पलामू, उदंती-सीतानदी, गुरु घासीदास) में बाघों की आबादी में गिरावट देखी गई है।
  • शिकार आधारित प्रजातियों में कमी: बाघों के अस्तित्व को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण शाकाहारी जानवरों (चीतल, साँभर, भारतीय बाइसन) प्रजातियों की आबादी इन क्षेत्रों में घट रही है।
    • शिकार की कमी के कारण बाघों को रिजर्व क्षेत्र से बाहर जाना पड़ रहा है, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ रहा है।
  • अवैध शिकार से सामाजिक-आर्थिक संबंध: प्रभावित रिजर्व गरीब या निर्धन जिलों में हैं, जहाँ गरीबी के कारण ‘बुश मीट’ (वन्यजीव प्रजातियों का मांस) की खपत सामान्य है।
  • अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक समाधान
    • अल्पकालिक: शिकारियों से सुरक्षित बाड़ों में प्रजातियों का ऑन-साइट प्रजनन (शाकाहारियों की क्षीण जीवित रहने की प्रवृत्ति के कारण आदर्श नहीं)।
    • दीर्घकालिक: स्थायी बाघ संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए आवास सुधार, सामुदायिक भागीदारी एवं गरीबी उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर बल।

भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII)

  • वर्ष 1982 में स्थापित, WII केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के तहत एक स्वायत्त संस्थान है।
  • यह पूरे भारत में वन्यजीव अनुसंधान, प्रशिक्षण एवं संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करता है।
  • देहरादून, उत्तराखंड में स्थित है।

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA)

  • NTCA, MoEFCC के तहत एक वैधानिक निकाय है।
  • टाइगर टास्क फोर्स की सिफारिश के आधार पर वर्ष 2005 में स्थापित।
  • कानूनी ढाँचा: इसे वन्य जीवन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 के तहत वैधानिक दर्जा दिया गया था।
  • इसे बाघ संरक्षण प्रयासों को मजबूत करने एवं बाघ अभयारण्यों का प्रबंधन करने के लिए बनाया गया था।
  • NTCA प्रोजेक्ट टाइगर की देख-रेख करता है, जिसे भारत की बाघ आबादी की रक्षा के लिए वर्ष 1973 में लॉन्च किया गया था।
  • यह बाघों की निगरानी, ​​आवास संरक्षण एवं अवैध शिकार विरोधी उपायों का संचालन करता है।
  • NTCA बाघ अभयारण्यों के प्रबंधन प्रभावशीलता मूल्यांकन (MEE) के लिए WII के साथ भी सहयोग करता है।

संदर्भ

भारत की हरित अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व गति वृद्धि हो रही है, जिससे भारत हरित संक्रमण में वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित हो रहा है।

हरित अर्थव्यवस्था

  • हरित अर्थव्यवस्था एक आर्थिक ढाँचा है, जो पर्यावरण एवं स्थिरता के लिए विचारों को आर्थिक विकास के साथ एकीकृत करता है।
  • इसका उद्देश्य आर्थिक विकास एवं रोजगार सृजन उत्पन्न करना है, साथ ही यह इस बात को सुनिश्चित करना है कि हम ग्रह के प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट न करें।
  • संयुक्त राष्ट्र हरित अर्थव्यवस्था को “कम कार्बन, संसाधन कुशल एवं सामाजिक रूप से समावेशी” के रूप में परिभाषित करता है।

पारंपरिक अर्थव्यवस्था से भिन्न 

  • पारंपरिक अर्थव्यवस्थाएँ प्राय पर्यावरण की कीमत पर अल्पकालिक विकास को प्राथमिकता देती हैं।
  • हरित अर्थव्यवस्था आर्थिक, पारिस्थितिकी एवं सामाजिक लक्ष्यों को संरेखित करके दीर्घकालिक सतत् विकास की संभावना पर आधारित है।

हरित अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ

  • न्यूनतम कार्बन: नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता एवं सतत् परिवहन के माध्यम से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने पर जोर देती है।
    • अप्रैल 2025 तक 220 गीगावाट से अधिक स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता के साथ भारत वैश्विक स्तर पर तीसरा सबसे बड़ा अक्षय ऊर्जा उत्पादक बन गया है।
  • संसाधन दक्षता: अपशिष्ट एवं प्रदूषण को कम करने के लिए जल, ऊर्जा तथा कच्चे माल जैसे प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग को बढ़ावा देता है।
    • सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध, विस्तारित निर्माता कंपनियों को अपने उत्पादों के जीवन चक्र का प्रबंधन करने हेतु बाध्य करती है।
  • सामाजिक समावेशन: गरीबी एवं असमानता को समाप्त करने के उद्देश्य से अवसरों तथा लाभों तक उचित पहुँच को सुनिश्चित करता है।
    • ILO के अनुसार, हरित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन से वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर 24 मिलियन नौकरियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। 
  • सतत् विकास: पर्यावरणीय स्थिरता को आर्थिक विकास एवं रोजगार सृजन के साथ एकीकृत करता है। ‘शून्य बजट प्राकृतिक कृषि’ की तरह सतत् कृषि, रासायनिक उपयोग को कम करती है तथा आय को बढ़ाती है। 
  • प्रकृति आधारित समाधान: जलवायु एवं विकास चुनौतियों का समाधान करने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित दृष्टिकोण (जैसे- वनीकरण, आर्द्रभूमि संरक्षण) का उपयोग करता है। 
    • भारत ने बॉन चुनौती के तहत वर्ष  2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को बहाल करने का संकल्प लिया है। 

ग्रीन GDP क्या है? 

  • ग्रीन सकल घरेलू उत्पाद (Green Gross Domestic Product) (ग्रीन GDP) एक वैकल्पिक आर्थिक मीट्रिक है, जो आर्थिक विकास से संबंधित पर्यावरणीय लागतों को ध्यान में रखते हुए पारंपरिक GDP को समायोजित करता है। 
  • पारंपरिक GDP के विपरीत जो केवल उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं के कुल मूल्य को माप करती है, ग्रीन GDP उस उत्पादन के नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों को कम करती है। 
  • ग्रीन GDP का सूत्र है:
    • ग्रीन GDP = GDP – पर्यावरणीय लागत – सामाजिक लागत
  • पर्यावरणीय लागत में शामिल हैं:
    • प्राकृतिक संसाधनों की कमी (तेल, कोयला, प्राकृतिक गैस, लकड़ी, धातु)। 
    • पारिस्थितिकी प्रणालियों का क्षरण (जल प्रदूषण, मृदा का कटाव, जैव विविधता का नुकसान)। 
    • क्षतिग्रस्त पर्यावरण की बहाली लागत (अपशिष्ट पुनर्चक्रण, आर्द्रभूमि बहाली)। 
  • सामाजिक लागतों में शामिल हैं:
    • पर्यावरणीय क्षरण के कारण गरीबी। 
    • प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य सेवा व्यय में वृद्धि। 

ग्रीन नेशनल एकाउंट्स

  • ‘ग्रीन नेशनल एकाउंट्स’ (Green National Accounts) पर्यावरण परिसंपत्तियों एवं उनकी कमी को शामिल करने के लिए पारंपरिक राष्ट्रीय लेखा प्रणालियों का विस्तार करते हैं।
  • कई देशों ने ग्रीन एकाउंट्स या हरित लेखांकन के साथ प्रयोग किया है:
    • चीन: वर्ष 2004 में हरित लेखांकन अपनाने में अग्रणी रहा, लेकिन बाद में इसका परित्याग कर दिया।
    • यूरोपीय संघ: अपनी “GDP से परे” पहल के माध्यम से SEEA ढाँचे का उपयोग करता है।

वैश्विक हरित अर्थव्यवस्था सूचकांक

  • वैश्विक हरित अर्थव्यवस्था सूचकांक (Global Green Economy Index- GGEI) 18 संकेतकों में 160 देशों के हरित अर्थव्यवस्था प्रदर्शन का मापन करता है।
  • GGEI पहला हरित अर्थव्यवस्था सूचकांक था, जिसे वर्ष 2010 में लॉन्च किया गया था।
  • इसे Dual Citizen LLC द्वारा विकसित किया गया था।
  • GGEI को चार प्रमुख आयामों द्वारा परिभाषित किया गया है:
    • जलवायु परिवर्तन एवं सामाजिक समानता,
    • क्षेत्र डीकार्बोनाइजेशन,
    • बाजार एवं ESG निवेश, तथा 
    • पर्यावरणीय स्वास्थ्य।

भारत में हरित अर्थव्यवस्था का विकास

  • भारत की हरित अर्थव्यवस्था वर्ष 2030 तक 1 ट्रिलियन डॉलर एवं वर्ष 2070 तक 15 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है।
  • यह वृद्धि अक्षय ऊर्जा, EV, संधारणीय बुनियादी ढाँचे एवं प्रौद्योगिकी में बढ़ते निवेश द्वारा समर्थित है।
  • ‘ग्रीन जॉब्स’: भारत में वित्त वर्ष 2027-28 तक 7.29 मिलियन ‘ग्रीन जॉब्स’ (पर्यावरण से संबंधित) एवं वर्ष 2047 तक 35 मिलियन ‘ग्रीन जॉब्स’ के  सृजित होने की संभावना है।
    • रोजगार पारंपरिक भूमिकाओं से आगे बढ़कर नए युग के ‘ग्रीन करियर’ में विस्तारित हो रही हैं।
  • ऊर्जा, पर्यावरण एवं जल परिषद (CEEW) द्वारा किए गए एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि अकेले ओडिशा की हरित अर्थव्यवस्था में 23 बिलियन डॉलर की बाजार क्षमता है।

हरित अर्थव्यवस्था एवं महिलाओं की भागीदारी

  • न्यूनतम भागीदारी: केवल 18% स्टार्ट-अप महिलाओं द्वारा संचालित हैं, जो हरित नवाचार की संभावनाओं को सीमित करता है।
  • वित्तीय अंतराल: हरित क्षेत्रों में महिला उद्यमियों को महत्त्वपूर्ण वित्तीय चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। महिलाओं द्वारा संचालित 79% उद्यम स्व-वित्तपोषित थे, एवं केवल 1.1% ने वित्तीय संस्थानों से ऋण प्राप्त किया।
  • समावेशी योजनाओं की आवश्यकता: SC/ST महिलाओं के लिए ₹2 करोड़ की योजना जैसी सरकारी ऋण योजना एक कदम आगे है, लेकिन इस प्रकार के और अधिक सहयोग की आवश्यकता है।
  • मेंटरशिप: महिलाओं को हरित क्षेत्रों में लक्षित मेंटरशिप एवं रोल मॉडल तक पहुँच की कमी है।
    • महिला उद्यमिता प्लेटफॉर्म (नीति आयोग) एवं गोल्डमैन सैक्स-IIMB कार्यक्रम जैसे प्लेटफॉर्म एक आधार प्रदान करते हैं, लेकिन प्रभाव को बढ़ाने के लिए व्यापक कॉर्पोरेट समर्थित प्रशिक्षण तथा बूट कैंप आवश्यक हैं।
  • इंजीनियरिंग अंतराल: इंजीनियरिंग छात्रों में महिलाओं की संख्या केवल 19.2% है, जो हरित तकनीक भूमिकाओं में प्रवेश को प्रभावित करती है।
  • वर्ष 2047 के लक्ष्यों के लिए आवश्यक: हरित व्यवसायों में महिलाओं को सशक्त बनाना सिर्फ समानता का प्रश्न नहीं है, यह वर्ष 2047 तक भारत के एक सतत्, विकसित राष्ट्र बनने के लक्ष्य के लिए महत्त्वपूर्ण है।

हरित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए सरकारी पहलें 

  • राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन: इसका उद्देश्य भारत को हरित हाइड्रोजन उत्पादन (वर्ष 2030 तक 5 MMT/वर्ष) का वैश्विक केंद्र बनाना एवं जीवाश्म ईंधन के आयात में कटौती करना है।
  • ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम: पर्यावरण अधिनियम के तहत कंपनियों/व्यक्तियों द्वारा पर्यावरण के अनुकूल कार्यों को प्रोत्साहित करना, स्थिरता परियोजनाओं के लिए संसाधन एकत्र करना।
  • PM-PRANAM एवं गोबरधन योजना: PM-PRANAM वैकल्पिक उर्वरकों के उपयोग को बढ़ावा देती है, गोबरधन से ‘चक्रीय अर्थव्यवस्था’  में 500 अपशिष्ट-से-संपदा संयंत्र (₹10,000 करोड़) का निर्माण करती है।
  • FAME इंडिया एवं PM ई-ड्राइव योजना: सब्सिडी (फेम) एवं स्वच्छ गतिशीलता के लिए $1.3 बिलियन प्रोत्साहन पूल (ई-ड्राइव) के माध्यम से EV के उपयोग को बढ़ावा देती है।
  • राष्ट्रीय शीतलन कार्य योजना (National Cooling Action Plan- NCAP): यह ऊर्जा दक्षता, रेफ्रिजरेंट चरण-’डाउन एंड हीट डक्टिलिटी’ (नेट-शून्य लक्ष्यों के साथ संरेखित) के माध्यम से स्थायी शीतलन को लक्षित करती है।

हरित रोजगार का भौगोलिक विस्तार

  • प्रमुख हरित रोजगार केंद्र: मुंबई, बंगलूरू, दिल्ली।
  • टियर II एवं III शहरों में उभरते केंद्र: जयपुर, इंदौर, विजाग, कोयंबटूर, भुवनेश्वर, चंडीगढ़, अहमदाबाद।
  • ये छोटे शहर वित्त वर्ष 2028 तक 35-40% हरित रोजगार का सर्जन करने हेतु उत्तरदायी हैं, जो सतत् कृषि, लाजिस्टिक एवं भंडारण द्वारा संचालित हैं।

हरित अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने वाले क्षेत्र

  • नवीकरणीय ऊर्जा (सौर, पवन, जलविद्युत)
  • इलेक्ट्रिक वाहन एवं हरित परिवहन
  • अपशिष्ट प्रबंधन एवं पुनर्चक्रण
  • सतत् कृषि
  • हरित निर्माण एवं शहरी नियोजन
  • स्वच्छ विनिर्माण एवं परिपत्र अर्थव्यवस्था

हरित अर्थव्यवस्था का महत्त्व 

  • प्रदूषण एवं उत्सर्जन को कम करती है: स्वच्छ ऊर्जा, हरित गतिशीलता एवं अपशिष्ट में कमी को बढ़ावा देता है, जिससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सीधे कटौती होती है।
    • अंतरराष्ट्रीय स्वच्छ परिवहन परिषद (ICCT) ने पाया कि EV पेट्रोल कारों की तुलना में 50-60% कम जीवनकाल उत्सर्जन करते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन शमन एवं अनुकूलन: हरित अर्थव्यवस्था पेरिस समझौते जैसे वैश्विक जलवायु लक्ष्यों के साथ संरेखित होती है, जिससे देशों को तापमान को 2°C से नीचे सीमित रखने में मदद मिलती है।
    • जलवायु परिवर्तन पर भारत की कार्य योजनाएँ हरित अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों को एकीकृत करती हैं।
  • आर्थिक विकास एवं नवाचार: अक्षय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन, टिकाऊ कृषि एवं हरित इमारतों जैसे क्षेत्रों में सतत् औद्योगीकरण तथा नवाचार को बढ़ावा देता है।
    • भारत की हरित अर्थव्यवस्था वर्ष 2030 तक $1 ट्रिलियन एवं वर्ष 2070 तक $15 ट्रिलियन तक बढ़ने का अनुमान है।
  • संसाधन दक्षता एवं परिपत्र अर्थव्यवस्था: पुनर्चक्रण, पुन: उपयोग एवं सतत् उत्पादन के माध्यम से जल, खनिजों तथा ऊर्जा के अति प्रयोग एवं अपव्यय को कम करती है।
    • यूरोपीय संघ की सर्कुलर इकोनॉमी एक्शन प्लान का लक्ष्य वर्ष 2030 तक सर्कुलर सामग्री उपयोग दरों को दोगुना करना है।
  • सामाजिक समावेशन एवं गरीबी में कमी: प्रकृति आधारित आजीविका एवं स्वच्छ ऊर्जा तक पहुँच के माध्यम से ग्रामीण तथा कमजोर समुदायों को सशक्त बनाता है।
    • ग्रामीण भारत में सौर माइक्रोग्रिड ने लाखों घरों के लिए बिजली की पहुँच में सुधार किया है, जिससे शिक्षा एवं आजीविका में वृद्धि हुई है।

हरित अर्थव्यवस्था के समक्ष चुनौतियाँ

  • उच्च आरंभिक निवेश लागत: हरित अवसंरचना (सौर, पवन, EV, आदि) में परिवर्तन के लिए बड़ी अग्रिम पूँजी की आवश्यकता होती है।
  • तकनीकी अंतराल एवं अवसंरचना घाटा: उन्नत हरित प्रौद्योगिकियों तक पहुँच की कमी, विशेष रूप से कम आय वाले देशों में।
    • अपर्याप्त अवसंरचना (जैसे- EV चार्जिंग स्टेशन, स्मार्ट ग्रिड) अपनाने में बाधा डालती है।
  • स्थापित उद्योगों से प्रतिरोध: कोयला, तेल एवं ऑटोमोबाइल विनिर्माण जैसे पारंपरिक क्षेत्र रोजगार छूटने तथा निवेश डूबने के डर से हरित बदलाव का विरोध करते हैं।
    • भारत की विद्युत का उत्पादन लगभग 70% कोयला से किया जाता है – इसे चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने से लाखों लोगों की आजीविका प्रभावित होती है।
  • कौशल एवं रोजगार परिवर्तन: हरित अर्थव्यवस्था के लिए नए कौशल सेट (जैसे- सौर तकनीशियन, बैटरी इंजीनियर) की आवश्यकता होती है, लेकिन कार्यबल का पुनः प्रशिक्षण धीमा है।
    • ILO का अनुमान है कि वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर कार्बन-गहन क्षेत्रों में 6 मिलियन नौकरियाँ समाप्त हो सकती हैं।
  • सामाजिक एवं समानता के मुद्दे: यदि हरित समाधान गरीब समुदायों के लिए वहनीय नहीं हैं, तो असमानता बढ़ने का जोखिम है। 
    • शहरी भारत में रूफटॉप सोलर अपनाने की दर ग्रामीण या वंचित क्षेत्रों की तुलना में बहुत अधिक है। 
  • भू-राजनीतिक एवं व्यापार बाधाएँ: हरित प्रौद्योगिकियाँ, वैश्विक व्यापार राजनीति में फँसी हुई हैं – उदाहरण के लिए, एंटी-डंपिंग शुल्क, दुर्लभ मृदा खनिज निर्भरताएँ। 
    • अक्षय ऊर्जा सुरक्षा में अब लीथियम, कोबाल्ट आदि को सुरक्षित करना शामिल है, जो कि बड़े पैमाने पर कुछ देशों (जैसे- चीन, DRC) द्वारा नियंत्रित है।

आगे की राह

  • हरित वित्तपोषण तंत्र को बढ़ावा देना: समर्पित हरित बैंक, सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड एवं मिश्रित वित्त मॉडल स्थापित करना।
    • भारत ने वर्ष 2023 में अपना पहला ₹8,000 करोड़ का सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड जारी किया, जो सौर, पवन एवं हरित हाइड्रोजन परियोजनाओं का समर्थन करेगा।
  • मजबूत हरित अवसंरचना विकसित करना: EV चार्जिंग स्टेशनों, नवीकरणीय ऊर्जा ग्रिड एवं अपशिष्ट-से-ऊर्जा संयंत्रों का तेजी से विस्तार आवश्यक है।
    • भारत के राष्ट्रीय इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन का लक्ष्य वर्ष 2030 तक 30% EV के उपयोग को बढ़ावा देना  है, जिसके लिए बड़े पैमाने पर अवसंरचना का विस्तार करना होगा।
  • श्रमिकों के लिए न्यायसंगत परिवर्तन का समर्थन करना: जीवाश्म ईंधन के कार्यों  में संलग्न श्रमिकों के लिए बड़े स्तर पर पुनर्प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करना।
    • ILO एक “न्यायसंगत परिवर्तन” दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, भारत कौशल भारत मिशन जैसी योजनाओं में हरित कौशल को एकीकृत करके इसे अपना सकता है।
  • घरेलू आपूर्ति शृंखला बनाना: उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (PLI) योजनाओं के तहत सौर सेल, बैटरी एवं पवन घटकों के घरेलू विनिर्माण में निवेश करना।
    • साझेदारी के माध्यम से खनिजों को सुरक्षित करके आयात पर निर्भरता कम करना (उदाहरण के लिए, महत्वपूर्ण खनिजों पर भारत-ऑस्ट्रेलिया समझौता ज्ञापन, 2023)। 
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं प्रौद्योगिकी हस्तांतरण: जलवायु वित्त एवं स्वच्छ तकनीक के उपयोग हेतु अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन तथा G-20 हरित पहल जैसे प्लेटफॉर्मों का लाभ उठाना।

निष्कर्ष

हरित अर्थव्यवस्था का अर्थ केवल पर्यावरण की रक्षा करना नहीं है, बल्कि यह सतत् विकास, रोजगार सृजन, गरीबी उन्मूलन एवं वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा के लिए एक रणनीतिक अनिवार्यता है। भारत के लिए, यह विकसित भारत 2047 को प्राप्त करने, जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने तथा विभिन्न पीढ़ीगत अंतरालों के मध्य समानता को सुनिश्चित करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण ढाँचा प्रदान करता है।

संदर्भ

हाल ही में भारत सरकार के उपक्रम गार्डन रीच शिपबिल्डर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड (Garden Reach Shipbuilders and Engineers Limited-GRSE) ने भारत के पहले ‘पोलर रिसर्च व्हीकल’ (PRV) को स्वदेशी रूप से डिजाइन एवं निर्माण करने के लिए नॉर्वेजियन फर्म कोंग्सबर्ग के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए।

अंटार्कटिका में दक्षिण गंगोत्री

  • इसकी स्थापना वर्ष 1983 में भारत के पहले अभियान के दो वर्ष बाद की गई थी।
  • दक्षिण गंगोत्री अब बर्फ से आच्छादित  है, लेकिन भारत के दो अन्य स्टेशन, मैत्री और भारती, उपयोग में हैं।
  • यह अंटार्कटिक संधि द्वारा शासित है।
    • भारत, जो वर्ष 1983 में संधि में शामिल हुआ था, अंटार्कटिक संधि का एक सलाहकार पक्षकार भी है।

‘पोलर रिसर्च व्हीकल’ (PRV) के बारे में 

  • ‘पोलर रिसर्च व्हीकल’ एक शिप है, जो ध्रुवीय क्षेत्रों (उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों के आस-पास के क्षेत्र) में अनुसंधान के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है।
    • यह वैज्ञानिकों को महासागर क्षेत्र में अनुसंधान करने में भी मदद कर सकता है।
  • विशेषता: PRV गहरे समुद्र और ध्रुवीय अनुसंधान के लिए वैज्ञानिक उपकरणों से सुसज्जित होगा, जिसमें समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का अध्ययन भी शामिल है।
  • नोडल एजेंसी: भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत संचालित राष्ट्रीय ध्रुवीय और महासागर अनुसंधान केंद्र (National Centre for Polar and Ocean Research-NCPOR) आर्कटिक, अंटार्कटिक और हिमालय में अनुसंधान अभियानों की योजना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए जिम्मेदार नोडल एजेंसी है।
  • रणनीतिक महत्त्व: PRV भारत के तीन ध्रुवीय अनुसंधान केंद्रों- भारती और मैत्री (अंटार्कटिका), और हिमाद्री (आर्कटिक) में भारत के संचालन में मदद करेगा।
    • जहाज को राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (National Centre for Polar and Ocean Research-NCPOR) की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तैयार किया जाएगा।
    • GRSE कोलकाता में अपने शिपयार्ड में PRV का निर्माण करेगा, जिससे भारत की जहाज निर्माण क्षमताओं में वृद्धि होगी (‘मेक इन इंडिया’ पहल में योगदान)।

पोलर रिसर्च व्हीकल वेसल्स (Global Polar Research Vessels) 

  • नॉर्वे का आर.वी. क्रोनप्रिंस हाकोन (RV Kronprins Haakon) (2018): यह 1 मीटर मोटी बर्फ को तोड़ सकता है और उन्नत सेंसर और रोबोटिक्स से युक्त है।
  • रूस का एकेडमिक ट्रायोशनिकोव (Akademik Tryoshnikov) (2012): यह एक भारी-भरकम आर्कटिक पोत है, जिसका उपयोग लंबे मिशनों और हाइड्रोएकॉस्टिक अध्ययनों के लिए किया जाता है।
  • यू.एस.ए. का आर.वी. सिकुलियाक (RV Sikuliaq) (2014): यह पीआरवी 0.76 मीटर तक की बर्फ को तोड़ सकता है और इसे गतिशील, बहु-विषयक अनुसंधान के लिए डिजाइन किया गया है।
  • चीन का जू लॉन्ग 2 (Xue Long 2) (2019): यह एक द्वि-दिशात्मक आइसब्रेकर (1.5 मीटर मोटी बर्फ) है, जिसमें उच्च-स्तरीय अनुसंधान और रसद क्षमता है।

भारत की समुद्री पहल

  • सागर (SAGAR) (क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा और विकास) पहल: सागर आर्थिक सहयोग, क्षेत्रीय सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण, आपदा प्रबंधन और सूचना साझाकरण पर केंद्रित है।
  • महासागर (MAHASAGAR): महासागर [(क्षेत्रों में सुरक्षा के लिए पारस्परिक और समग्र उन्नति (Mutual and Holistic Advancement for Security Across the Regions)] की घोषणा सागर के विस्तार के रूप में की गई थी, ताकि क्षेत्रीय एकीकरण को और अधिक मजबूत किया जा सके।
  • सागरमाला 2.0 (Sagarmala 2.0): भारत का नया समुद्री अवसंरचना कार्यक्रम, जिसका उद्देश्य  बंदरगाह और रसद अंतराल को समाप्त करना, जहाज निर्माण, मरम्मत तथा पुनर्चक्रण को बढ़ावा देना, भारत को वैश्विक समुद्री प्रमुख के रूप में स्थापित करना।

संदर्भ

भारत और नॉर्वे द्वारा ‘ग्रीन मैरीटाइम टेक्नोलॉजी’ (Green Maritime Technologies), ‘सतत् विकास’ और ‘आर्कटिक नेविगेशन पर सहयोग’ को मजबूत करने के लिए ओस्लो में नॉर-शिपिंग 2025 के दौरान द्विपक्षीय बैठकें आजोजित की गई। 

संबंधित तथ्य

  • भारत ने नॉर्वे के साथ उत्तरी समुद्री मार्ग (Northern Sea Route) को चालू करने के लिए संयुक्त व्यवहार्यता अध्ययन करने की माँग की है।

ग्रीन कोस्टल शिपिंग प्रोग्राम एंड ग्रीन वॉयेज 2050 (Green Coastal Shipping Programme and Green Voyage 2050) के बारे में

  • ग्रीन कोस्टल शिपिंग प्रोग्राम: यह भारत के तटीय क्षेत्र और अंतर्देशीय जलमार्गों पर कम उत्सर्जन वाली शिपिंग के लिए किए जा रहे प्रयासों का हिस्सा है।
    • इसका उद्देश्य विद्युतीकरण, जैव ईंधन और लाजिस्टिक दक्षता को बढ़ावा देकर कार्गो और यात्री जहाजों के कार्बन फुटप्रिंट को कम करना है।
  • ग्रीन वॉयेज, 2050 (Green Voyage 2050): यह अंतरराष्ट्रीय समुद्री संगठन (IMO) के साथ साझेदारी में नॉर्वे द्वारा संचालित एक वैश्विक पहल है।
    • विकासशील देशों को कम/शून्य कार्बन समुद्री परिचालन में बदलाव में मदद करता है।
    • फोकस क्षेत्रों में विनियामक संरेखण, हरित ईंधन, ऊर्जा दक्षता और प्रशिक्षण शामिल हैं।

ग्रीन मैरीटाइम टेक्नोलॉजी के बारे में

  • ग्रीन मैरीटाइम टेक्नोलॉजी से तात्पर्य उन नवोन्मेषी, पर्यावरण अनुकूल समाधानों से संबंधित है, जिनका उपयोग शिपिंग और बंदरगाह क्षेत्रों में पर्यावरणीय प्रभाव, विशेष रूप से कार्बन उत्सर्जन, समुद्री प्रदूषण और ईंधन की खपत को कम करने के लिए किया जाता है।
    • उदाहरण: ‘डिजिटल ट्विन टेक्नोलॉजी’ बेहतर ईंधन दक्षता के लिए बंदरगाह संचालन और जहाज डिजाइन को अनुकूलित करने में मदद करती है।
      • डिजिटल ट्विन किसी भौतिक परिसंपत्ति, जैसे- जहाज, बंदरगाह या इंजन प्रणाली की रियल टाइम की आभासी प्रतिकृति है, जो सेंसर, डेटा एनालिटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) का उपयोग करके उसके संचालन को प्रतिबिंबित करती है।

बैठक के मुख्य बिंदु

  • हरित समुद्री सहयोग: भारत और नॉर्वे हरित शिपिंग प्रौद्योगिकियों, विशेष रूप से नौका प्रणाली विद्युतीकरण, वैकल्पिक ईंधन और कम कार्बन लॉजिस्टिक्स पर सहयोग को मजबूत करने पर सहमत हुए।
  • संधारणीय जहाज निर्माण और पुनर्चक्रण: दोनों पक्षों ने पर्यावरण अनुकूल जहाजों के निर्माण के लिए नॉर्वे की डिजाइन विशेषज्ञता और भारत की शिपयार्ड क्षमता का लाभ उठाने पर सहमति व्यक्त की।
    • गुजरात में अलंग शिप रिसाइक्लिंग यार्ड (Alang Ship Recycling Yard) को अपग्रेड करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए, सतत् जहाज रीसाइक्लिंग में सहयोग के लिए बातचीत की हुई।
  • ब्लू इकोनॉमी और महासागरीय नवीकरणीय ऊर्जा: अपतटीय पवन, ज्वारीय ऊर्जा, गहरे समुद्र में अन्वेषण और संधारणीय मत्स्यपालन में संयुक्त उद्यमों पर जोर दिया गया।
  • नाविक प्रशिक्षण: नॉर्वे को ध्रुवीय नेविगेशन, साइबर सुरक्षा और समुद्री कौशल में प्रशिक्षण का समर्थन करने के लिए आमंत्रित किया गया था।
  • लैंगिक समावेशन: भारत ने सागर में सम्मान पहल पर प्रकाश डाला।
    • “सागर में सम्मान” (Saagar Mein Samman) पहल भारत सरकार का एक प्रयास है, जिसका उद्देश्य नाविकों से लेकर बंदरगाह पेशेवरों तक की भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देकर समुद्री क्षेत्र में लैंगिक विविधता और समावेशिता को बढ़ाना है।

उत्तरी समुद्री मार्ग (Northern Sea Route-NSR) के बारे में

  • उत्तरी समुद्री मार्ग (NSR) एक शिपिंग लेन है, जो रूस के उत्तरी तट के साथ-साथ कारा सागर (नोवाया जेमल्या के पास) से बेरिंग जलडमरूमध्य (रूस और अलास्का के बीच) तक विस्तृत है।
  • यह व्यापक आर्कटिक शिपिंग मार्गों का हिस्सा है तथा आर्कटिक की बर्फ पिघलने के कारण इस पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है, जिससे यह मार्ग प्रत्येक वर्ष लंबी अवधि हेतु अधिक नौगम्य हो रहा है।

संदर्भ

हाल ही में तमिलनाडु के वेल्लोर इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (VIT) के शोधकर्ताओं ने बिहार के नालंदा में राजगीर हॉट स्प्रिंग झील में थर्मोफिलिक एक्टिनोबैक्टीरिया (Thermophilic Actinobacteria) की खोज की है। 

  • उन्होंने सूक्ष्मजीव विविधता का अध्ययन करने के लिए 16S rRNA मेटाजीनोमिक्स का प्रयोग किया।

थर्मोफिलिक एक्टिनोबैक्टीरिया (Thermophilic Actinobacteria) के बारे में

  • यह एक्टिनोबैक्टीरिया संघ के अंतर्गत हीट लविंग बैक्टीरिया (Heat-loving bacteria) का एक समूह है, जो उच्च तापमान (आमतौर पर 45-70 डिग्री सेल्सियस) पर विकसित होते हैं।
  • प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ: थर्मोफिलिक बैक्टीरिया प्रतिकूल परंतु खनिज समृद्ध स्थानों में अन्य सूक्ष्मजीवों से प्रतिस्पर्द्धा करने के लिए एंटीबायोटिक्स का उत्पादन करते हैं।
  • प्राकृतिक आवास: हॉट स्प्रिंग, गहरे समुद्र में हाइड्रोथर्मल वेंट, भू-तापीय क्षेत्र (जैसे- ज्वालामुखी स्थल, टेक्टॉनिक क्षेत्र), पीट बोग, खाद के ढेर और सड़ते हुए कार्बनिक पदार्थ।
  • जीवित रहने हेतु तंत्र: कुछ थर्मोफिलिक बैक्टीरिया इन उच्च तापमान, न्यूनतम प्रतिस्पर्द्धा वाले वातावरण में सूक्ष्मजीवी प्रतिस्पर्द्धियों को समाप्त करने के लिए रोगाणुरोधी यौगिकों का निर्माण करते हैं। उदाहरण: बैसिलस स्ट्रेन, स्ट्रेप्टोमाइसेस स्ट्रेन।
    • जीवित रहने के लिए इसमें कुछ अन्य शारीरिक अनुकूलन जैसे ऊष्मा-स्थिर एंजाइम (Heat-Stable Enzymes) या मोटी कोशिका भित्ति पाई जाती है।
  • महत्त्व
    • थर्मोफिलिक एंजाइमों का उपयोग औद्योगिक अनुप्रयोगों में किया जाता है, उदाहरण: PCR परीक्षणों में इस्तेमाल किया जाने वाला थर्मस एक्वाटिकस एंजाइम (Thermus Aquaticus enzyme)।
    • कृषि उपयोगिता: भारत के गर्म जल के झरनों या हॉट स्प्रिंग (जैसे- चुमाथांग, लेह) में थर्मोफिलिक जीवाणु संघ में पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देने वाले गुण पाए जाते हैं।

शोधकर्ताओं के मुख्य निष्कर्ष

  • एक्टिनोबैक्टीरिया की प्रचुरता: शोधकर्ताओं ने पाया कि राजगीर में एक्टिनोबैक्टीरिया की 40-43% उपस्थिति है, जो अन्य हॉट स्प्रिंग की तुलना में असामान्य रूप से अधिक है, जहाँ यह सामान्य तौर पर लगभग 20% होती है।
  • एंटीबायोटिक उत्पादक के रूप में एक्टिनोबैक्टीरिया: बैक्टीरिया के इस समूह को स्ट्रेप्टोमाइसिन (Streptomycin) और टेट्रासाइक्लिन (Tetracycline) जैसे एंटीबायोटिक्स का उत्पादन करने के लिए जाना जाता है, जिससे राजगीर में उनकी प्रचुरता रोगाणुरोधी प्रतिरोध के विरुद्ध महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
    • विश्व स्तर पर एंटीबायोटिक, प्रतिरोध को बढ़ रहा है तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने चेतावनी दी है कि प्रतिरोधी संक्रमणों के कारण वर्ष 2050 तक स्वास्थ्य देखभाल लागत 1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच जाएगी।
  • बैक्टीरियल स्ट्रेन की पहचान: शोधकर्ताओं ने ई. कोलाई, साल्मोनेला, क्लेबसिएला, स्यूडोमोनास, स्टैफाइलोकोकस जैसे रोगजनकों के विरुद्ध शक्तिशाली रोगाणुरोधी गतिविधियों वाले 7 एक्टिनोबैक्टीरिया स्ट्रेनों की पहचान की।
  • डायथाइल फथलेट: राजगीर हॉट स्प्रिंग में पाए जाने वाले एक्टिनोमाइसीटेल्स बैक्टीरिया से प्राप्त किए गए ‘डायथाइल फथलेट’ लिस्टेरिया मोनोसाइटोजेन्स नामक घातक खाद्य जनित रोगाणु को रोकने में सक्षम पाया गया, जो नए एंटीबायोटिक के विकास की संभावना को दर्शाता है।

संदर्भ

विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर, ‘विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र’ (CSE) तथा ‘डाउन टू अर्थ’ (DTE) ने वर्ष 2025 में भारत में पर्यावरण की स्थिति पर आँकड़े प्रकाशित किए हैं।

रिपोर्ट के बारे में

  • इस रिपोर्ट में भारत के पर्यावरण क्षरण, सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियों और आर्थिक विषमताओं की गंभीर तस्वीर प्रस्तुत की गई है, जो नीतिगत हस्तक्षेप की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है।
  • चार श्रेणियों में 48 संकेतकों के आधार पर: पर्यावरण, कृषि, सार्वजनिक स्वास्थ्य, मानव विकास।
  • कोई भी राज्य/केंद्रशासित प्रदेश सभी क्षेत्रों में उत्कृष्ट नहीं है, प्रदर्शन असमान और चिंताजनक है।
  • प्रगति का आकलन करने के लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सरकारी डेटा का उपयोग करने पर बल दिया गया है।

पर्यावरण संकट

  • वर्ष 2024 भारत का अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा, जिसमें 25 राज्यों में अभूतपूर्व वर्षा हुई।
  • जलवायु प्रवास: वर्ष 2024 में 88% दिनों में चरम मौसम की घटनाएँ घटित हुई, जिसके कारण 5.4 मिलियन आंतरिक विस्थापन हुए, जिनमें से लगभग आधे केवल असम राज्य में हैं।
    • बाढ़ के कारण दो-तिहाई विस्थापन हुआ, जो वर्ष 2013 के बाद से जलवायु से संबंधित सबसे अधिक प्रवासन है।
  • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन: वैश्विक उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी वर्ष 2023 में 7.8% तक पहुँच गई, जो वर्ष 1970 के बाद सर्वाधिक है।
    • उत्सर्जन की वृद्धि दर में तेजी आई है, जो वर्ष 2020 से 2023 के बीच लगभग 1 प्रतिशत बढ़ जाएगी।
  • वनोन्मूलन: वर्ष 2023-24 में 29,000 हेक्टेयर वन भूमि समाप्त हुई, जो एक दशक में सबसे अधिक है, मुख्यतः झारखंड और उत्तर प्रदेश में।
  • वन्य-जीव संकट: मानव-पशु संघर्ष में वृद्धि हुई, हाथियों के हमलों के कारण 36% अधिक मौतें हुईं (वर्ष 2020-23 बनाम वर्ष 2023-24) और बाघों के हमलों में 82 लोग मारे गए।
  • निगरानी में शामिल नदी स्थलों में से लगभग 50% में जहरीली भारी धातुएँ पाई गईं (वर्ष 2022)।
  • ई-कचरा 7 वर्षों में 147% बढ़ा; प्लास्टिक कचरा 4.14 मिलियन टन (वर्ष 2022-23) तक पहुँच गया।

कृषि और भूमि उपयोग

  • सिक्किम जैविक कृषि और सतत् भूमि उपयोग प्रथाओं में सबसे आगे है।
    • लेकिन यह किसान कल्याण में पिछड़ा हुआ है, जो विकास में असंतुलन को दर्शाता है।
  • भूजल की कमी: 135 जिले 40 मीटर से अधिक गहराई से भूजल निकालते हैं, जो वर्ष 2014 से लगभग दोगुना है।
    • अस्थायी जल उपयोग और बढ़ते जल संकट को दर्शाता है।

प्रदूषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट

  • वायु प्रदूषण संकट: दिल्ली समेत 13 राजधानियों में रहने वाले लोग वर्ष 2021 से प्रत्येक तीसरे दिन में एक बार अस्वच्छ वायु में साँस ले रहे हैं।
    • खराब वायु गुणवत्ता के कारण दिल्ली में जीवन प्रत्याशा 8 वर्ष और लखनऊ में 6 वर्ष कम हो गई है।
  • स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर अत्यधिक भार: भारत में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की 36% कमी और विशेषज्ञों की 80% कमी है।
    • स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च बढ़कर 45% हो गया है, जिसमें उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला दो-तिहाई खर्च व्यक्तियों द्वारा वहन किया जा रहा है।
  • भारत में वर्ष 2020-21 में 3.06 मिलियन अतिरिक्त मौतें हुईं, जो आधिकारिक कोविड-19 महामारी से होने वाली मौतों से छह गुना अधिक है।

आर्थिक और सामाजिक कमजोरियाँ

  • मुद्रास्फीति के लिए समायोजित किए जाने पर वेतनभोगी और स्व-नियोजित श्रमिकों (वर्ष 2017-2023) की आय में गिरावट आई है।
  • भारत का 73% कार्यबल अनौपचारिक है, जिसमें से आधे से अधिक के पास बुनियादी रोजगार सुरक्षा का अभाव है।
  • लैंगिक असमानता: केवल 20% महिलाएँ पूर्णकालिक कार्यरत हैं, जबकि 60% पुरुष पूर्णकालिक कार्यरत हैं।

अनुशंसाएँ और सुझाए गए उपाय

  • विस्थापन और चरम मौसम प्रभावों को कम करने के लिए जलवायु अनुकूलन रणनीतियों को मजबूत करना।
    • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) में उत्सर्जन को कम करने और लचीलापन बढ़ाने के लिए 8 मिशन (जैसे- सौर मिशन, ग्रीन इंडिया मिशन) शामिल हैं।
  • अपशिष्ट प्रबंधन कानूनों के सख्त प्रवर्तन सहित प्रदूषण नियंत्रण उपायों को बढ़ाना।
    • रवांडा में नॉन-बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक पर प्रतिबंध (वर्ष 2008) के कारण शहर स्वच्छ हुए और इको-टूरिज्म को बढ़ावा मिला।
  • सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढाँचे को बढ़ावा देना और जेब से होने वाले खर्च को कम करना।
    • प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PM-JAY) 500 मिलियन गरीबों को अस्पताल में भर्ती होने की सुविधा प्रदान करती है, जिससे जेब से होने वाले खर्च में 60% तक की कमी आती है।
  • कार्यबल को औपचारिक बनाना और अनौपचारिक श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना।
    • सामाजिक सुरक्षा संहिता (वर्ष 2020) के माध्यम से गिग श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना, डिजिटल वेतन भुगतान को बढ़ावा देना (जैसे- मनरेगा के लिए DBT)।
  • साक्ष्य-आधारित नीति निर्माण को सक्षम करने के लिए डेटा पारदर्शिता में सुधार करना।

विश्व पर्यावरण दिवस

  • प्रत्येक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है।
  • इसकी स्थापना वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के दौरान की गई थी।
  • वर्ष 1973 में पहला विश्व पर्यावरण दिवस ‘केवल एक पृथ्वी’ (Only One Earth) थीम के साथ मनाया गया था।
  • इसका नेतृत्व संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा किया जाता है।
  • थीम: विश्व पर्यावरण दिवस 2025 का विषय है:- ‘प्लास्टिक प्रदूषण को हराना’ (Beat Plastic Pollution)
  • मेजबानी: वर्ष 2025 में विश्व पर्यावरण दिवस का मेजबान कोरिया गणराज्य (दक्षिण कोरिया) है। 

निष्कर्ष

वर्ष 2025 के आँकड़ों में भारत के पर्यावरण की स्थिति एक महत्त्वपूर्ण चेतावनी है। हालाँकि भारत ने कई क्षेत्रों में प्रगति की है, लेकिन खराब होती जलवायु, स्वास्थ्य और आर्थिक संकेतक तत्काल कार्रवाई की माँग करते हैं। नीति निर्माताओं को राष्ट्र के लिए एक अनुकूलित भविष्य को सुनिश्चित करने हेतु सतत् विकास, समान विकास और पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देनी चाहिए।

संदर्भ

हाल ही में केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि अत्यधिक विलंब होने वाली जनगणना वर्ष 2021 को दो चरणों में आयोजित किया जाएगा, जो 1 अक्टूबर, 2026 और 1 मार्च, 2027 को शुरू होगी।

जनगणना-2027 के बारे में

  • जनगणना-2027 भारत की 16वीं दशकीय जनगणना है, जिसका उद्देश्य व्यापक जनसांख्यिकीय, सामाजिक, आर्थिक और जातिगत डेटा एकत्र करना है।
  • प्राधिकरण: गृह मंत्रालय के महापंजीयक और जनगणना आयुक्त कार्यालय द्वारा जनगणना अधिनियम, 1948 तथा जनगणना नियम, 1990 के तहत आयोजित किया जाता है।
  • मुख्य विशेषताएँ
    • डिजिटल जनगणना: डेटा संग्रहण के लिए मोबाइल और वेब अनुप्रयोगों का उपयोग।
      • भारत में पहली डिजिटल जनगणना।
      • CMMS पोर्टल: जनगणना गतिविधियों के प्रबंधन और निगरानी से संबंधित।
    • दो-चरणीय प्रक्रिया
      • आवास सूचीकरण और आवास अनुसूची (1 अप्रैल – सितंबर 2026): इस चरण में आवास और घरेलू सुविधाओं के बारे में जानकारी एकत्र की जाती है।
      • जनगणना (27 फरवरी – 1 मार्च, 2027): इस चरण में स्वतंत्रता उपरांत  भारत में पहली बार जातिगत विस्तृत सामाजिक-आर्थिक डेटा सहित व्यक्तियों की गणना पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।
    • स्व-गणना: राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (National Population Register- NPR) को ऑनलाइन अपडेट करने वाले परिवारों हेतु विकल्प उपलब्ध है।
    • जाति गणना: वर्ष 1931 के बाद पहली बार जाति से संबंधित डेटा (SC/ST से परे) एकत्र किया जाएगा।
      • डेटा में होने वाले दोहराव से बचने के लिए मोबाइल ऐप में ड्रॉप-डाउन जाति निर्देशिका।

भारत में जनगणना का ऐतिहासिक अवलोकन

स्वतंत्रता-पूर्व जनगणना

  • प्राचीन एवं मध्यकालीन काल
    • ऋग्वेद (800-600 ई.पू.): जनसंख्या गणना का उल्लेख करता है।
    • कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र (321-296 ई.पू.): कराधान के लिए जनगणना की का समर्थन करता है।
    • मुगल सम्राट अकबर के अंतर्गत ‘आइन-ए-अकबरी’ (1595): जनसंख्या, उद्योग और धन को सम्मलित करते हुए  प्रथम विस्तृत जनगणना।
  • ब्रिटिश औपनिवेशिक युग
    • प्रारंभिक प्रयास (1800-1850 के दशक)
      • भारत में पहली जनगणना 1800 में की गई थी, हालाँकि इसमें  आंशिक डेटा ही एकत्र किया गया था।
      • भारत की प्रथम पूर्ण जनगणना वर्ष 1830 में हेनरी वाल्टर द्वारा ढाका (अब ढाका) में आयोजित की गई थी।
      • वर्ष 1824 में, पहली नगर जनगणना इलाहाबाद में हुई, उसके बाद वर्ष 1827-28 में जेम्स प्रिंसेप द्वारा बनारस में जनगणना की गई थी।
    • वर्ष 1871 की जनगणना: ब्रिटिश शासन के तहत पहली राष्ट्रव्यापी जनगणना।
      • गवर्नर-जनरल लॉर्ड मेयो के शासनकाल के दौरान संपूर्ण ब्रिटिश भारत में जनसांख्यिकीय डेटा एकत्र करने का यह पहला संरचित प्रयास था।
      • जनगणना में धर्म, जाति, व्यवसाय और भाषा से संबंधित प्रश्न शामिल थे।
    • वर्ष 1881 की जनगणना
      • यह ब्रिटिश भारत (कश्मीर के अलावा) के सभी क्षेत्रों को शामिल करते हुए पहली आधुनिक समकालिक जनगणना थी । इसका फोकस पूर्ण कवरेज और जनसांख्यिकीय वर्गीकरण पर था।
      • हिंदुओं के लिए लैंगिक वैवाहिक स्थिति और विस्तृत जाति संबंधी जानकारी पर आधारित प्रश्नों को शामिल किया गया।
    • वर्ष 1931 की जनगणना
      • यह व्यापक जाति पर आधारित डेटा को शामिल करने वाली अंतिम जनगणना। इसमें 4,147 जातियों की गणना की गई।
      • इसने परवर्ती आरक्षण नीतियों को आकार प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, विशेष रूप से वर्ष 1980 की मंडल आयोग रिपोर्ट में।

स्वतंत्रता के बाद की जनगणना

  • वर्ष 1951 की जनगणना: इसे स्वतंत्रता के बाद जनगणना अधिनियम, 1948 के तहत आयोजित किया गया।
    • सामान्य जनसंख्या में जाति आधारित जनगणना को शामिल नहीं किया गया, लेकिन अनुसूचित जातियों (Scheduled Castes- SC) और अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes- ST) से संबंधित डेटा को दर्ज किया गया।
    • शिक्षा, साक्षरता और रोजगार की स्थिति जैसे सामाजिक-आर्थिक मापदंडों पर पर ध्यान केंद्रित किया गया।
  • बाद की जनगणनाएँ (1961-2001)
    • वर्ष 1961 की जनगणना: उद्योग के आधार पर श्रमिकों को वर्गीकृत करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए प्रवास, साक्षरता और रोजगार पर विस्तृत डेटा शामिल करने हेतु  दायरे का विस्तार किया गया।
    • वर्ष 1971 की जनगणना: दो-चरणीय प्रणाली- हाउसलिस्टिंग और जनसंख्या गणना शुरू की गई। प्रजनन दर और प्रवास पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • वर्ष 1981 की जनगणना: शौचालय सुविधाओं और आवास सुविधाओं पर प्रश्नों के साथ दायरे का और अधिक विस्तार किया गया, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य डेटा के महत्त्व को दर्शाता है। 
    • वर्ष 1991 की जनगणना: भूतपूर्व सैनिकों, आर्थिक स्थिति, साक्षरता और रोजगार की परिष्कृत परिभाषाओं से संबंधित नवीन प्रश्नों को शामिल किया गया।
  • वर्ष 2001 की जनगणना: हस्तलिखित डेटा का डिजिटलीकरण करने हेतु इंटेलिजेंट कैरेक्टर रीडिंग (Intelligent Character Reading- ICR) के उपयोग सहित तकनीकी प्रगति।
    • संपत्ति, स्वच्छता और भूमि स्वामित्व पर ध्यान केंद्रित किया गया, साथ ही दिव्यांगता, परिवहन के तरीके और रोजगार की स्थिति पर नवीन प्रश्न पूछे गए।
  • 2011 की जनगणना: कंप्यूटर, इंटरनेट उपयोग और मोबाइल फोन एक्सेस पर डेटा सहित आधुनिक सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • दिव्यांगता से संबंधित प्रश्नों और प्रवासन डेटा संग्रह को गाँव/कस्बों के नामों को शामिल करने के लिए विस्तारित किया गया।

इंटेलिजेंट कैरेक्टर रिकॉग्निशन (Intelligent Character Reading- ICR) एक तकनीक है, जिसका उपयोग हस्तलिखित या मुद्रित पाठ को मशीन पठनीय डेटा में डिजिटल रूप से परिवर्तित करने हेतु किया जाता है।

समय के साथ जनगणना में प्रमुख बदलाव

  • जाति गणना से लेकर अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) मान्यता तक
    • स्वतंत्रता पूर्व: जाति को व्यवस्थित रूप से शामिल  किया जाता था, जिससे मूल्यवान सामाजिक-आर्थिक जानकारी मिलती थी।
      • वर्ष 1931 की जनगणना में 4,147 जातियों की गणना की गई थी।
    • स्वतंत्रता पश्चात्: जाति गणना केवल अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) तक सीमित थी, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को औपचारिक रूप से इसमें शामिल नहीं किया गया था।
    • हाल ही में बदलाव: वर्ष 2027 की जनगणना में स्वतंत्र भारत में पहली बार जाति गणना को पुनः शुरू किया जाएगा, जिसमें सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को बेहतर ढंग से संबोधित करने के लिए OBC को लक्षित किया जाएगा।
  • तकनीकी विकास
    • पूर्ववर्ती जनगणनाएँ (वर्ष 2001 से पूर्व): आँकड़ों का संग्रहण मुख्यतः मैनुअल था, तथा प्रपत्रों को हाथ से तैयार किया जाता था।
    • वर्ष 2001 की जनगणना के बाद: इंटेलिजेंट कैरेक्टर रिकॉग्निशन (ICR) जैसी डिजिटल डेटा संग्रह विधियों की शुरुआत, जिससे डेटा का तेज और अधिक सटीक प्रसंस्करण संभव हो गया।
    • वर्ष 2027 की जनगणना: पहली डिजिटल जनगणना, जिसका उद्देश्य डेटा संग्रह और विश्लेषण में सटीकता और दक्षता में सुधार करना है।
  • डेटा का दायरा बढ़ाना
    • वर्ष 2001 से पहले की जनगणना: मुख्य रूप से बुनियादी जनसांख्यिकीय डेटा- आयु, लिंग, धर्म, साक्षरता और रोजगार पर केंद्रित थी।
    • वर्ष 2001 की जनगणना के बाद: दिव्यांगता, संपत्ति, भूमि स्वामित्व, आवास सुविधाओं और गतिशीलता पैटर्न जैसे अधिक सूक्ष्म सामाजिक-आर्थिक डेटा को कवर करने के लिए विस्तारित किया गया।
    • वर्ष 2027 की जनगणना: इसमें जाति गणना और डिजिटल तरीके शामिल होंगे, साथ ही सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर निरंतर बल दिया जाएगा।

भारत में जनगणना का संवैधानिक और कानूनी ढाँचा

 संवैधानिक अधिदेश

  • अनुच्छेद-246: सातवीं अनुसूची में संघ सूची की प्रविष्टि 69 के तहत जनगणना पर केंद्र सरकार को अधिकार प्रदान करता है।
    • दसवर्षीय आवधिकता के लिए कोई कानूनी आवश्यकता नहीं है, लेकिन परंपरागत रूप से वर्ष 1881 से प्रत्येक 10 वर्ष में जनगणना की जाती है।
  • अनुच्छेद-81: वर्ष 2026 के बाद प्रथम जनगणना के आधार पर लोकसभा सीटों की कुल संख्या निर्धारित की जाएगी।
  • अनुच्छेद-82: परिसीमन आयोग को अपना कार्य वर्ष 2026 के बाद पहली जनगणना के जनगणना डेटा पर आधारित करना चाहिए।

जनगणना के लिए कानूनी ढाँचा

  • जनगणना अधिनियम, 1948
    • धारा 3: सरकार को यह अधिकार देता है कि जब भी वह इसे आवश्यक या वांछनीय समझे, जनगणना कराए।
    • धारा 4: जनगणना आयुक्त को डेटा एकत्र करने और प्रकाशित करने का अधिकार प्रदान करती है।
    • धारा 6: जनगणना प्रक्रिया का अनुपालन न करने पर दंड आरोपित करती है।
    • धारा 8: सरकार को जनगणना के दौरान व्यक्तियों से जानकारी माँगने की अनुमति प्रदान करती है।
  • जनगणना नियम, 1990
    • डेटा संग्रह की प्रक्रिया, गणनाकर्ताओं की जिम्मेदारियों और डेटा की गोपनीयता के बारे में विस्तृत जानकारी।
    • व्यक्तिगत जानकारी के अनधिकृत प्रकटीकरण पर रोक लगाकर उत्तरदाताओं की गोपनीयता सुनिश्चित करता है।

कानूनी और संवैधानिक परिवर्तन

  • 84वाँ संविधान संशोधन (2002): वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर लोकसभा सीटों की संख्या को वर्ष 2026 के बाद पहली जनगणना तक निर्धारित रखता है।
    • यह निर्धारित करता है कि परिसीमन वर्ष 2027 की जनगणना के आधार पर होगा।
  • परिसीमन अधिनियम, 2002: जनगणना के आँकड़ों के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं के पुनर्निर्धारण को नियंत्रित करता है।
  • जाति गणना की पुनः शुरुआत (वर्ष 2027): वर्ष 1931 में अंतिम बार एकत्र किए गए जाति डेटा को वर्ष 2027 की जनगणना में शामिल किया जाएगा।

जाति जनगणना क्या है?

  • जाति जनगणना के दौरान नागरिकों की जातिगत पहचान के बारे में डेटा एकत्र करना शामिल है।
  • अंतिम  जाति-आधरित जनगणना वर्ष 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुई थी।
  • वर्तमान में केंद्रीय सूची में लगभग 2,650 ओबीसी समुदाय, SC श्रेणी में 1,170 और ST सूची में 890 समुदाय हैं।
    • राज्य सरकारें OBC समूहों की अपनी सूची बनाए रखती हैं।
  • जाति जनगणना को वर्ष 2027 की जनगणना में शामिल किया जाएगा।

सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (Socio-Economic and Caste Census- SECC)

  • वर्ष 2011 में शुरू की गई SECC का उद्देश्य परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन करना एवं जाति विवरण एकत्र करना था।
  • यह नियमित जनगणना से अलग थी तथा वंचितों की पहचान करने और कल्याण लक्ष्यीकरण में सहायता के लिए आयोजित की गई थी।
  • SECC से डेटा सामाजिक न्याय मंत्रालय को सौंप दिया गया।
  • हालाँकि, असंगत जाति नाम प्रविष्टियों (46 लाख से अधिक भिन्नताएँ) और वर्गीकरण चुनौतियों जैसे मुद्दों के कारण SECC से जाति डेटा अप्रकाशित है।

जनसंख्या जनगणना का महत्त्व

  • नीति नियोजन और शासन: जनगणना के आँकड़े विकास और शासन के लिए नीति निर्माण का मार्गदर्शन करते हैं।
    • यह बुनियादी ढाँचे में ग्रामीण-शहरी असमानताओं की पहचान करने में मदद करता है, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए लक्षित नीतियाँ सुनिश्चित होती हैं।
  • परिसीमन और चुनावी सुधार: वर्ष 2026 के बाद, 84वें संशोधन अधिनियम, 2001 (1971 की जनगणना के आधार पर वर्ष 2026 तक सीटें स्थिर) के अनुसार, लोकसभा और राज्य विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के लिए डेटा प्रदान करता है।
    • संसद और राज्य विधानसभाओं में 33% महिला आरक्षण के कार्यान्वयन को सक्षम बनाता है।
  • सामाजिक न्याय और कल्याण कार्यक्रम: जनगणना के आँकड़ों का उपयोग SC, ST और ओबीसी के लिए सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को डिजाइन करने के लिए किया जाता है।
    • अंतर-समूह असमानताओं को दूर करने के लिए पिछड़े वर्गों (जैसे- OBC के लिए न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग) के भीतर उप-वर्गीकरण का समर्थन करता है।
  • सामाजिक-आर्थिक विकास: जनगणना के आँकड़े शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं।
    • वर्ष 1991 की जनगणना में साक्षरता दर में अंतर दिखा, जिससे ग्रामीण शिक्षा में सुधार के लिए नीतियाँ बनाई गईं।
  • बुनियादी ढाँचा नियोजन: जनगणना डेटा आवास, परिवहन और बुनियादी सुविधाओं के लिए योजना निर्माण में सहायता करता है।
    • वर्ष 2011 की जनगणना से प्राप्त डेटा ने सरकार को स्वच्छता आवश्यकताओं को संबोधित करने के लिए स्वच्छ भारत अभियान की योजना बनाने में मदद की।
  • सामाजिक और आर्थिक असमानता को संबोधित करना: जनगणना जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर सामाजिक-आर्थिक असमानताओं की पहचान करती है।
    • वर्ष 1931 की जनगणना के डेटा के अनुसार ही मंडल आयोग की रिपोर्ट आई, जिसमें OBC के लिए आरक्षण की सिफारिश की गई।
  • अनुसंधान और विश्लेषण: जनगणना डेटा अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में अकादमिक अनुसंधान का समर्थन करता है।
    • NSS तथा NFHS गरीबी और भेदभाव का अनुमान लगाने के लिए जनगणना डेटा का उपयोग करते हैं।
  • राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (National Population Register- NPR) और सुरक्षा: यदि NPR अपडेट को शामिल किया जाता है (जैसा कि वर्ष 2021 के लिए योजना बनाई गई है), तो यह शासन और सुरक्षा के लिए जनसांख्यिकीय डेटाबेस को मजबूत करता है।
    • संभावित NRC लिंकेज के कारण विवादास्पद, जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए सावधानीपूर्वक कार्यान्वयन की आवश्यकता है।

जनगणना संबंधी चुनौतियाँ

  • डेटा की सटीकता और कवरेज: सभी आबादी, विशेष रूप से दूरदराज के क्षेत्रों में, का पूर्ण कवरेज सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती है।
    • वर्ष 2011 की जनगणना में, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में भौगोलिक चुनौतियों के कारण देरी तथा अपूर्ण गणना का सामना करना पड़ा।
  • राजनीतिक और सामाजिक संवेदनशीलता: जाति, धर्म और जातीयता पर डेटा एकत्र करना राजनीतिक विवादों को जन्म दे सकता है।
    • वर्ष 2027 की जनगणना में जाति गणना को शामिल करने से इसके संभावित राजनीतिक निहितार्थों के कारण कुछ क्षेत्रों में बहस और विरोध हुआ है।
  • तार्किक और प्रशासनिक कठिनाइयाँ: जनगणना प्रक्रिया की विशालता इसे प्रशासनिक अक्षमताओं और तार्किक मुद्दों से ग्रस्त बनाती है।
    • वर्ष 2027 की जनगणना में नए डिजिटल तरीकों के माध्यम से गणनाकर्ताओं को प्रशिक्षित करना एक बड़े पैमाने का कार्य है, जिसमें देरी का सामना करना पड़ सकता है।
  • सार्वजनिक अनिच्छा और गैर-अनुपालन: कुछ व्यक्ति डेटा के दुरुपयोग या गोपनीयता संबंधी चिंताओं के डर से सटीक जानकारी देने में अनिच्छुक हो सकते हैं।
    • पिछली जनगणनाओं में, आदिवासी समुदायों के कुछ लोगों ने प्रक्रिया में अविश्वास के कारण भाग लेने से इनकार कर दिया था।
  • तकनीकी एकीकरण: डिजिटल जनगणना विधियों को लागू करना प्रौद्योगिकी अपनाने और डिजिटल साक्षरता से संबंधित चुनौतियों को प्रस्तुत करता है।
    • वर्ष 2027 की जनगणना में डिजिटल प्रारूप में बदलाव के लिए स्मार्टफोन और इंटरनेट कनेक्टिविटी तक व्यापक पहुँच की आवश्यकता होगी, जो ग्रामीण क्षेत्रों में सीमित हो सकती है।
  • जाति वर्गीकरण के मुद्दे: विभिन्न क्षेत्रों में जातियों को सटीक रूप से वर्गीकृत करने से विसंगतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
    • वर्ष 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (Socio-Economic and Caste Census- SECC) के दौरान जाति वर्गीकरण में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जिसमें अनियमित रिपोर्टिंग के कारण 46 लाख से अधिक जाति प्रविष्टियाँ हुईं।
  • वित्तीय और मानव संसाधन: जनगणना के लिए महत्त्वपूर्ण धन और मानव संसाधनों की आवश्यकता होती है, जो हमेशा उपलब्ध नहीं हो सकते हैं।
    • वर्ष 2021 की जनगणना में आंशिक रूप से धन की कमी और COVID-19 महामारी के कारण देरी हुई।

जनगणना-2027 में जातिगत आँकड़ों को शामिल करना: तर्क और वितर्क

सकारात्मक पहलू

  • लक्षित कल्याण कार्यक्रम: जातिगत डेटा अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के अंतर्गत सामाजिक-आर्थिक असमानताओं की पहचान करने में मदद करता है, जिससे लक्षित सकारात्मक कार्रवाई और कल्याणकारी योजनाओं को सक्षम बनाया जा सकता है।
    • मंडल आयोग (1980) ने सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश करने के लिए वर्ष 1931 की जनगणना से जातिगत डेटा का उपयोग किया।
  • ओबीसी के लिए सटीक प्रतिनिधित्व: जातिगत डेटा को शामिल करने से ओबीसी के लिए सटीक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होगा, जिससे सरकार को संसाधनों को अधिक निष्पक्ष रूप से आवंटित करने में मदद मिलेगी।
    • वर्ष 2027 की जनगणना ओबीसी की संख्या की अधिक सटीक पहचान करने की अनुमति देगी, जिससे बेहतर आरक्षण नीतियों और कल्याणकारी सहायता में सहायता मिलेगी।
  • नीति नियोजन और सामाजिक न्याय: जातिगत डेटा नीतिगत निर्णयों के लिए अनुभवजन्य साक्ष्य प्रदान करेगा, जिससे जाति आधारित भेदभाव और हाशिए पर जाने को संबोधित करना आसान हो जाएगा।
    • वर्ष 2011 की जनगणना के आँकड़ों से पता चला है कि SC और ST को महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे वित्तीय सहायता और शैक्षिक कोटा जैसी नीतियों को बढ़ावा मिला है।
  • असमानताओं पर नजर रखना: जनगणना जाति आधारित आर्थिक असमानताओं की स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करेगी, जिससे केंद्रित नीतिगत हस्तक्षेप संभव होगा।
    • जाति संबंधी डेटा सरकार को शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में अंतर की निगरानी करने में मदद करेगा।

नकारात्मक पहलू

  • राजनीतिक हस्तक्षेप: जातिगत डेटा के संग्रह से जनगणना का राजनीतीकरण हो सकता है, क्योंकि विभिन्न राजनीतिक दल जाति आधारित समूहों से समर्थन जुटाने के लिए डेटा का उपयोग कर सकते हैं।
    • जातिगत डेटा को शामिल करने से वोट बैंक की राजनीति हो सकती है, जिसमें पार्टियाँ चुनावी लाभ के लिए विशिष्ट समूहों को लक्षित कर सकती हैं।
  • सामाजिक विभाजन: जातिगत डेटा सामाजिक विभाजन को गहरा कर सकता है, जिससे आरक्षण और संसाधनों के लिए जातियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा की भावना पैदा हो सकती है, जिससे संभावित रूप से सामाजिक अशांति हो सकती है।
    • ओबीसी आरक्षण पर बहस ने तमिलनाडु जैसे राज्यों में तनाव पैदा कर दिया है, जहाँ जनसंख्या आधारित परिसीमन के विरुद्ध प्रतिरोध है।
  • जाति पर अत्यधिक जोर: नीति-निर्माण के लिए जातिगत डेटा पर बहुत अधिक निर्भर रहना आर्थिक स्थिति, शिक्षा और क्षेत्रीय विकास जैसे अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों को प्रभावित कर सकता है।
    • मंडल आयोग की रिपोर्ट को जातियों के भीतर आर्थिक पिछड़ेपन पर विचार किए बिना मुख्य रूप से जाति पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा।
  • डेटा सटीकता में चुनौतियाँ: जातिगत डेटा के साथ वर्गीकरण के मुद्दे अशुद्धि को जन्म दे सकते हैं, जिससे संसाधनों को प्रभावी ढंग से आवंटित करना मुश्किल हो जाता है।
    • वर्ष 2011 की SECC में जाति वर्गीकरण में समस्याएँ आईं, जिसके कारण 46 लाख से अधिक जाति प्रविष्टियाँ हुईं, जिससे जाति डेटा संग्रह की जटिलता उजागर हुई।
  • समुदायों का प्रतिरोध: कुछ समुदाय भेदभाव या लाभों से वंचित होने के डर से जाति गणना का विरोध कर सकते हैं।
    • पिछली जनगणनाओं में, कुछ समुदायों, विशेष रूप से आदिवासी समूहों ने प्रणाली में अविश्वास के कारण भाग लेने से इनकार कर दिया था।

भारत में संघवाद पर जनगणना का प्रभाव

  • राजनीतिक शक्ति का पुनर्वितरण: जनगणना के आँकड़ों से निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन पर प्रभाव पड़ेगा। इससे राज्यों के बीच राजनीतिक शक्ति में बदलाव आ सकता है।
    • वर्ष 2027 की जनगणना संसद और राज्य विधानसभाओं में सीट आवंटन का मार्गदर्शन करेगी। अधिक जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों को अधिक सीटें मिल सकती हैं।
  • असमान प्रतिनिधित्व: दक्षिण की तरह कम जनसंख्या वृद्धि वाले राज्य राजनीतिक प्रभाव खो सकते हैं।
    • उत्तर प्रदेश की तुलना में कम जनसंख्या वृद्धि के कारण तमिलनाडु अपनी सीटें खो सकता है।
  • संसाधन आवंटन विवाद: परिसीमन से विशेषतः कल्याणकारी कार्यक्रमों और बुनियादी ढाँचे के लिए संसाधन वितरण पर विवाद हो सकता है।
    • बिहार अपनी बड़ी आबादी के कारण अधिक संसाधनों की माँग कर सकता है, जबकि छोटे राज्य वंचित महसूस कर सकते हैं।
  • क्षेत्रीय तनाव: नियंत्रित जनसंख्या वृद्धि वाले राज्य राष्ट्रीय निर्णय लेने में कम प्रतिनिधित्व महसूस कर सकते हैं।
    • दक्षिणी राज्य संघीय शासन में अपने प्रभाव में कमी आने के डर से बदलावों का विरोध कर सकते हैं।
  • राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (National Population Register- NPR): हालाँकि वर्ष 2027 के लिए पुष्टि नहीं की गई है, लेकिन वर्ष 2021 की जनगणना के लिए NPR अपडेट की योजना बनाई गई थी, जिससे राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (National Register of Citizens- NRC) से इसके जुड़ाव को लेकर चिंताएँ बढ़ गई थीं।
    • पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने अल्पसंख्यकों और आदिवासी समूहों के हाशिए पर जाने की आशंकाओं का हवाला देते हुए वर्ष 2021 में NPR का विरोध किया।
  • सहकारी संघवाद को मजबूत करना: जनगणना से प्राप्त सटीक डेटा राज्य की आवश्यकताओं के हिसाब से कल्याणकारी योजनाओं में सुधार कर सकता है, जिससे सहकारी संघवाद को बढ़ावा मिलेगा।
    • जाति और जनसंख्या डेटा उन राज्यों को अधिक निष्पक्ष रूप से संसाधन आवंटित करने में मदद कर सकता है, जिन्हें उनकी सबसे अधिक आवश्यकता है।

जनगणना-2027 के लिए आगे की राह

  • बेहतर प्रौद्योगिकी एकीकरण: सटीकता और दक्षता बढ़ाने के लिए डेटा संग्रह और प्रसंस्करण के लिए डिजिटल उपकरणों के उपयोग का विस्तार करना।
    • वास्तविक समय डेटा सत्यापन (जैसे- जाति संबंधी गलत रिपोर्टिंग का पता लगाना) के लिए AI का उपयोग करना तथा CMMS पोर्टल के माध्यम से सुरक्षित भंडारण के लिए क्लाउड-आधारित सिस्टम का उपयोग करना।
  • जाति डेटा का मानकीकरण: विसंगतियों और गलत व्याख्या से बचने के लिए जाति वर्गीकरण के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश स्थापित करना।
    • वर्ष 2011 के SECC में 46 लाख से अधिक जाति प्रविष्टियों के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ा, जिससे मानकीकृत जाति सूचियों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया।
  • जागरूकता अभियान: जनगणना में जनता का विश्वास और भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान संचालित करना।
    • आदिवासी भाषा सामग्री और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील गणनाकर्ताओं का उपयोग करके अविश्वास (जैसे- सेंटिनली, नागालैंड जनजातियों का 2011 का प्रतिरोध) को दूर करने के लिए आदिवासी परिषदों, गैर-सरकारी संगठनों और स्थानीय नेताओं के साथ भागीदारी करना।
  • समावेशी डेटा संग्रह: सुनिश्चित करना कि आदिवासी और प्रवासी समुदायों जैसे हाशिए पर पड़े समूहों को डेटा संग्रह प्रक्रिया में शामिल किया जाए।
    • वर्ष 2027 की जनगणना में सटीक जानकारी जुटाने के लिए दूरदराज के इलाकों तक पहुँचने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
  • स्पष्ट कानूनी और नीतिगत ढाँचा: डेटा की गोपनीयता सुनिश्चित करने और राजनीतिक दुरुपयोग को रोकने के लिए कानूनी सुरक्षा उपायों को मजबूत करना।
    • उदाहरण: डेटा सुरक्षा कानूनों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जाति और व्यक्तिगत जानकारी गोपनीय रहे।
  • निरंतर निगरानी और मूल्यांकन: किसी भी चुनौती का तुरंत समाधान करने के लिए जनगणना प्रक्रिया की निरंतर निगरानी के लिए तंत्र स्थापित करना।
    • उदाहरण: जनगणना-2027 के दौरान संचालित मूल्यांकन वास्तविक समय में समस्याओं की पहचान करने और उन्हें हल करने में मदद कर सकते हैं।
  • क्षेत्रीय चिंताओं को संबोधित करना: राजनीतिक तनाव को रोकने के लिए प्रतिनिधित्व और संसाधन आवंटन के बारे में क्षेत्रीय चिंताओं को सक्रिय रूप से संबोधित करना।
    • दक्षिणी राज्यों के नुकसान को कम करने के लिए लोकसभा सीटों को बढ़ाने पर विचार करते हुए, प्रतिनिधित्व को संतुलित करने के लिए अंतर-राज्यीय परिषद की बैठकों के माध्यम से राज्यों को शामिल करना।

निष्कर्ष 

जनसंख्या जनगणना-2027, अपने डिजिटल दृष्टिकोण और जाति गणना के साथ, भारत के नीतिगत परिदृश्य, सामाजिक न्याय ढाँचे और संघीय गतिशीलता को नया आकार देने के लिए तैयार है। हालाँकि, इसकी सफलता सटीक डेटा और न्यायसंगत परिणाम सुनिश्चित करने के लिए तार्किक, राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियों का समाधान करने पर निर्भर करती है।

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