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Sep 19 2025

संदर्भ

यूरोपीय संघ (EU) ने व्यापार, प्रौद्योगिकी, रक्षा, संपर्क एवं जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रों में द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए एक नया रणनीतिक EU-भारत एजेंडा अपनाया है।

  • इस रोडमैप का उद्देश्य वर्ष के अंत तक एक मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को अंतिम रूप देना एवं वैश्विक भू-राजनीतिक परिवर्तनों के बीच सहयोग को मजबूत करना है।

प्रमुख घोषणाएँ

  • मुक्त व्यापार समझौता (FTA): यूरोपीय संघ ने वर्ष 2025 के अंत तक भारत के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को अंतिम रूप देने की प्रतिबद्धता जाहिर की है एवं इसे वैश्विक स्तर पर अपनी तरह का सबसे बड़ा समझौता बताया है।
  • साझा मूल्य: यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयन ने ‘साझा हितों पर आधारित एवं समान मूल्यों द्वारा निर्देशित’ साझेदारियों पर जोर दिया।
  • उच्च-स्तरीय सहभागिता: यूरोपीय संघ (EU) एवं उसके उच्च प्रतिनिधि काजा कल्लास द्वारा अपनाया गया संयुक्त संचार, एक व्यापक रणनीतिक दृष्टिकोण की रूपरेखा प्रस्तुत करता है।

असहमति के बिंदु

  • रूस संबंधी कारण: यूरोपीय संघ (EU) ने रूसी सैन्य अभ्यासों में भारत की भागीदारी एवं रूसी तेल की खरीद पर चिंता व्यक्त की, जो घनिष्ठ संबंधों में बाधा उत्पन्न करता हैं।
  • भू-राजनीतिक चिंताएँ: यूरोपीय संघ (EU) के उच्च प्रतिनिधि ने कहा कि ये असहमतियाँ साझा हितों को कमजोर करती हैं।

एजेंडे में चिह्नित सहयोग के क्षेत्र

  • व्यापार एवं निवेश
    • वर्तमान में जारी मुक्त व्यापार समझौते (FTA) वार्ताओं को अंतिम रूप देना।
    • वाणिज्यिक संबंधों को मजबूत करना एवं आपूर्ति शृंखलाओं में विविधता लाना।
  • प्रौद्योगिकी एवं डिजिटल सहयोग
    • यूरोपीय संघ-भारत व्यापार एवं प्रौद्योगिकी परिषद (TTC) के अंतर्गत सहभागिता।
    • यूरोपीय संघ-भारत स्टार्ट-अप साझेदारी का प्रस्ताव।
    • भारत को होराइजन यूरोप कार्यक्रम में शामिल होने का निमंत्रण।
  • रक्षा एवं सुरक्षा
    • प्रस्तावित यूरोपीय संघ-भारत सुरक्षा एवं रक्षा साझेदारी।
    • संकट प्रबंधन, समुद्री सुरक्षा, साइबर सुरक्षा, आतंकवाद निरोध एवं रक्षा औद्योगिक सहयोग पर संयुक्त पहल।
    • गोपनीय सूचनाओं के आदान-प्रदान को सुगम बनाने के लिए सूचना सुरक्षा समझौते पर वार्ता।
  • संपर्क एवं गतिशीलता
    • भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (IMEC) एवं ग्लोबल गेटवे परियोजनाओं को सुदृढ़ बनाना।
    • श्रम गतिशीलता को सुगम बनाने के लिए पायलट यूरोपीय लीगल गेटवे ऑफिस का शुभारंभ।
    • अध्ययन, कार्य एवं अनुसंधान गतिशीलता के लिए एक ढाँचा विकसित करना।
  • वैश्विक एवं क्षेत्रीय सहयोग
    • वैश्विक शासन, अंतरराष्ट्रीय कानून एवं बहुपक्षीय मंचों पर संयुक्त सहभागिता।
    • यूक्रेन में रूस के युद्ध, संकर खतरों, प्रतिबंधों तथा हिंद-प्रशांत स्थिरता पर सहयोग।

महत्त्व

  • रणनीतिक संरेखण: परिवर्तित वैश्विक व्यवस्था, विशेष रूप से आर्थिक सुरक्षा एवं आपूर्ति शृंखला लचीलेपन के संदर्भ में, भारत को यूरोपीय संघ का एक स्वाभाविक भागीदार बनाता है।
  • आर्थिक क्षमता: मुक्त व्यापार समझौता (FTA) वार्ता, यदि संपन्न होती है, तो वैश्विक व्यापार ढाँचे को नया रूप देगी, जिससे भारतीय निर्यात एवं यूरोपीय संघ के निवेश को लाभ होगा।
  • रक्षा सहयोग: हिंद-प्रशांत क्षेत्र सहित संस्थागत सुरक्षा सहयोग की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
  • वैश्विक शासन: भारत के बढ़ते वैश्विक प्रभाव एवं नियम-आधारित व्यवस्था बनाए रखने के लिए भारत को आवश्यक मानने की यूरोपीय संघ की मान्यता को सुदृढ़ करता है।

‘पैसिफिक एंजेल 25’

भारत ने अमेरिका और श्रीलंका के साथ ‘पैसिफिक एंजेल 25’ अभ्यास में भाग लिया, जिसे इंडो-पैसिफिक क्षेत्र का सबसे बड़ा आपदा प्रतिक्रिया और मानवीय सहयोग अभ्यास माना जाता है।

‘पैसिफिक एंजेल 25’ अभ्यास के बारे में

  • प्रारंभ:पैसिफिक एंजेल 25’ अभ्यास का शुभारंभ 9 सितंबर, 2025 को श्रीलंका के कटुनायके वायुसेना अड्डे पर हुआ।
  • उद्देश्य: इस अभ्यास का उद्देश्य मानवीय सहायता और आपदा राहत अभियानों के लिए क्षेत्रीय तैयारी को सुदृढ़ करना है।
  • भागीदारी: लगभग 90 अमेरिकी सैन्यकर्मी और 120 श्रीलंका वायुसेना सदस्य, भारत, ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, जापान और मालदीव के सैनिकों व प्रेक्षकों के साथ शामिल हुए।
  • महत्त्व: यह अभ्यास खोज एवं बचाव, चिकित्सीय तैयारी, विमानन सुरक्षा और इंजीनियरिंग सहयोग को सुदृढ़ करता है, जिससे क्षेत्रीय सहयोग और संकट प्रतिक्रिया क्षमता बढ़ती है।

ऑपरेशन ‘वीड आउट’ 

हाल ही में राजस्व आसूचना निदेशालय (DRI) ने ‘ऑपरेशन वीड आउट’ के तहत संपूर्ण भारत में 108.67 किलोग्राम हाइड्रोपोनिक वीड (गांजा) जब्त किया।

ऑपरेशन वीड आउट के बारे में

  • स्वरूप: यह एक अखिल-भारतीय अभियान है, जिसका उद्देश्य हाइड्रोपोनिक कैनबिस की तस्करी करने वाले ड्रग सिंडिकेट्स को पकड़ना है।
    • हाइड्रोपोनिक खरपतवार की कृषि एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें खरपतवार को मृदा रहित प्रणाली में उगाया जाता है तथा पौधों को जीवित रखने के लिए पोषक तत्त्वों से भरपूर समाधानों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
  • कानूनी ढाँचा: सभी कार्रवाइयाँ स्‍वापक‍ ओषधि‍ और‍ मन: प्रभावी‍ पदार्थ‍ अधिनियम,‍ 1985 (NDPS Act) के तहत की जाती हैं।
  • प्रवृत्ति: हाल के वर्षों में थाईलैंड से भारत में अनेक हवाई अड्डों के माध्यम से हाइड्रोपोनिक वीड (गांजा) की तस्करी में तेजी आई है।
  • महत्त्व: यह अभियान “नशा मुक्त भारत” की दृष्टि को समर्थन देता है, ड्रग सिंडिकेट्स पर कानूनी कार्यवाही करता है और मादक पदार्थों की तस्करी को कम करता है।

राजस्व आसूचना निदेशालय (DRI) के बारे में

  • स्थापना: वर्ष 1957 में।
  • स्वरूप: यह केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर एवं सीमा शुल्क बोर्ड (CBIC) के अंतर्गत भारत की प्रमुख खुफिया और प्रवर्तन एजेंसी है।
  • कार्य: तस्करी, मादक पदार्थ व्यापार, वाणिज्यिक धोखाधड़ी और आर्थिक अपराधों से निपटना तथा राष्ट्रीय आर्थिक सुरक्षा की रक्षा करना।

चीता स्थानांतरण

हाल ही में प्रोजेक्ट चीता की तीसरी वर्षगाँठ पर एक मादा चीता को कूनो राष्ट्रीय उद्यान से गांधीसागर वन्यजीव अभयारण्य में स्थानांतरित किया गया।

  • इस स्थानांतरण का उद्देश्य कुनो राष्ट्रीय उद्यान पर दबाव कम करना तथा चीतों के आवासों में विविधता लाना है।

प्रोजेक्ट चीता के बारे में

  • प्रोजेक्ट चीता को औपचारिक रूप से वर्ष 2022 में लॉन्च किया गया, जिसमें नामीबिया से आठ चीतों को कूनो नेशनल पार्क में स्थानांतरित किया गया था।
    • इस परियोजना के तहत फरवरी 2023 में 12 चीतों को दक्षिण अफ्रीका से भारत के कुनो राष्ट्रीय उद्यान में स्थानांतरित किया गया।
  • उद्देश्य: वर्ष 1952 में विलुप्त हो चुके चीतों को भारत में पुनः स्थापित करना, पारिस्थितिकी संतुलन बहाल करना और चरागाह संरक्षण को मजबूत करना।
  • प्राधिकरण: केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के अंतर्गत राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) इस परियोजना की देख-रेख करता है।
  • प्रगति: भारत में अब 27 चीते हैं।

कूनो राष्ट्रीय उद्यान के बारे में

  • परिचय: वर्ष 2018 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया कूनो, मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में अवस्थित है, जिसे प्रारंभ में एशियाई शेरों के पुनर्वास के लिए तैयार किया गया था।
  • अवस्थिति: विंध्य की पहाड़ियाँ और उत्तरी मध्य प्रदेश का अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र, चंबल नदी बेसिन के पास।
  • वनस्पतियाँ और वन्य जीवन: शुष्क पर्णपाती वनों और घास के मैदानों से युक्त, यह उद्यान स्थानांतरित चीतों के अतिरिक्त तेंदुए, चिंकारा, नीलगाय, धारीदार लकड़बग्घा एवं सियार जैसी प्रजातियों का आश्रय स्थल है।

गांधीसागर वन्यजीव अभयारण्य के बारे में

  • परिचय: वर्ष 1974 में स्थापित, यह अभयारण्य मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में अवस्थित है।
    • यह चंबल नदी पर निर्मित गांधीसागर बाँध के निकट स्थित है।
  • परियोजनाएँ और महत्त्व: इसे चीता पुनर्वास के रूप में नामित किया गया है (कूनो के बाद दूसरा)। वर्तमान में यहाँ 3 चीते हैं।
    • यह आवास पुनर्स्थापन, शिकार आधार प्रबंधन और पारिस्थितिकी पर्यटन विकास जैसी संरक्षण पहलों का समर्थन करता है।
  • वनस्पतियाँ: यह खटियार-गिर शुष्क पर्णपाती वन का हिस्सा है, इसलिए यहाँ सलाई, करधई, धौड़ा, तेंदू, पलाश आदि के वृक्ष पाए जाते है।
  • जीव-जंतु: दुर्लभ वन्यजीव प्रजातियाँ जैसे जंगली कुत्ते (ढोल), चिंकारा, तेंदुआ, ऊदबिलाव, मगरमच्छ,चित्तीदार हिरण, साँभर, ग्रे ऐप आदि।

SPIN90 प्रोटीन

CSIR-कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB), हैदराबाद के वैज्ञानिकों ने कोशिका की गति और आकार को विनियमित करने में SPIN90 प्रोटीन की महत्त्वपूर्ण भूमिका की खोज की है।

  • ये निष्कर्ष जर्नल नेचर स्ट्रक्चरल एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी में प्रकाशित हुए।

SPIN90 प्रोटीन के बारे में

  • SPIN90 एक कोशिकीय प्रोटीन है, जो कोशिकाओं के आंतरिक संरचनात्मक पुनर्गठन को नियंत्रित करने में शामिल है।
  • यह कोशिका गतिशीलता और अनुकूलनशीलता के लिए आवश्यक साइटोस्केलेटल गतिशीलता में केंद्रीय भूमिका निभाता है।
  • कोशिका गति में भूमिका
    • एक्टिन फिलामेंट रिअरेंजमेंट को प्रभावित करके, SPIN90 कुशल और निर्देशित कोशिका संचलन सुनिश्चित करता है।
      • कोशिका का आकार उसकी झिल्ली के पास एक्टिन के सघन, शाखित जाल द्वारा निर्धारित होता है।
      • एक्टिन’ अणु अत्यधिक गतिशील होते हैं और कोशिका झिल्ली पर दबाव डालने की अपनी क्षमता के लिए जाने जाते हैं।
    • SPIN90 प्रोटीन, कोशिकाओं के विस्तार में मदद करती है, क्योंकि यह एक्टिन के एक नए मैट्रिक्स का निर्माण करती है जो वांछित दिशा में दाब डालता है।
    • ये विस्तार श्वेत रक्त कोशिकाओं जैसी कोशिकाओं को रोगजनकों की निगरानी और उन्हें नष्ट करने में सक्षम बनाते हैं।
  • स्वास्थ्य और रोग संबंधी निहितार्थ: SPIN90 में दोष प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं को बाधित कर सकते हैं और कैंसर मेटास्टेसिस जैसी बीमारियों में योगदान कर सकते हैं।

महत्त्व

  • यह खोज कोशिकीय व्यवहार को नियंत्रित करने वाली मूलभूत प्रक्रियाओं पर आधारित है और विभिन्न रोगों को बेहतर ढंग से समझने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।

मोरन समुदाय की अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की माँग 

हाल ही में असम में मोरान समुदाय ने अनुसूचित जनजाति (ST) दर्जे की माँग को लेकर तिनसुकिया जिले में आर्थिक नाकेबंदी की है।

वर्तमान आंदोलन

  • अनुसूचित जनजाति (ST) दर्जे की माँग: मोरान असम के छह समुदायों में से एक हैं, जिनमें आदिवासी (चाय जनजाति), मोटोक, ताई अहोम, चुटिया और कोच-राजबोंगशी शामिल हैं, जो लंबे समय से अनुसूचित जनजाति (ST) मान्यता की माँग कर रहे हैं।

मोरान समुदाय के बारे में

  • परिचय: मोरन एक मूल असमिया समुदाय है, जो ऐतिहासिक रूप से कृषि प्रधान है और ऊपरी असम, विशेष रूप से तिनसुकिया और डिब्रूगढ़ जिलों में केंद्रित है।
  • जातीयता और उत्पत्ति: वे अपने पूर्वजों का अनुमान असमिया जनजातीय समूहों से लगाते हैं और ब्रह्मपुत्र घाटी के शुरुआती बसने वालों में से एक माने जाते हैं।
  • भाषा: समुदाय मुख्य रूप से असमिया भाषा बोलते है, हालाँकि कुछ परंपराओं में ताई-अहोम भाषायी प्रभाव उपस्थित है।

अनुसूचित जनजाति सूची में समुदायों को शामिल करना 

  • संवैधानिक आधार: भारतीय संविधान का अनुच्छेद-342 राष्ट्रपति को संबंधित राज्य के परामर्श के बाद किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित करने का अधिकार देता है।
    • दिशा-निर्देश: पहली बार 15 जून, 1999 को जारी किए गए और बाद में 25 जून, 2002 और 14 सितंबर, 2022 को संशोधित किए गए।
  • प्रक्रिया
    • राज्य सरकार/संघ राज्य क्षेत्र का प्रस्ताव: प्रस्ताव संबंधित राज्य सरकार/संघ राज्य क्षेत्र प्रशासन द्वारा प्रस्तुत और उचित ठहराया जाना चाहिए।
    • भारत के महापंजीयक (RGI) द्वारा परीक्षण: आरजीआई प्रस्ताव की जाँच करता है।
      • यदि अनुशंसित नहीं किया जाता है, तो राज्य सरकार से अतिरिक्त आँकड़े या स्पष्टीकरण प्रदान करने के लिए कहा जाता है।
    • राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) द्वारा परीक्षण: प्रस्ताव की समीक्षा NCST द्वारा की जाती है, जो अपनी सिफारिशें देता है।
    • अंतिम निर्णय: अंतिम निर्णय केंद्रीय मंत्रिमंडल और राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचना पर निर्भर करता है।
    • विधायी संशोधन: अनुसूचित जनजाति सूची में अंतिम परिवर्तन (समावेश/निष्कासन) के लिए संबंधित राष्ट्रपति आदेश में संसदीय संशोधन की आवश्यकता होती है।

संदर्भ

विमुक्त, घुमंतू एवं अर्द्ध-घुमंतू समुदायों के विकास एवं कल्याण बोर्ड (Denotified, Nomadic, and Semi-Nomadic Communities- DWBDNC) के सदस्यों ने भारतीय प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सभी चिह्नित समुदायों को वैधानिक समर्थन, वित्तीय शक्तियाँ, स्थायी आयोग का दर्जा एवं मान्यता प्रदान करने की माँग की है।

विमुक्त, घुमंतू एवं अर्द्ध-घुमंतू समुदायों के विकास एवं कल्याण बोर्ड (DWBDNC) के सदस्यों की माँगें

  • वैधानिक मान्यता: राजपत्रित अधिसूचनाओं के माध्यम से अनुसूचित जाति/विमुक्त जनजाति, अनुसूचित जनजाति/विमुक्त जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग/विमुक्त जनजाति, या सामान्य/विमुक्त जनजाति के रूप में पूरी सूची को कानूनी मान्यता प्रदान करने का आग्रह किया गया।
  • स्थायी आयोग: बोर्ड को वैधानिक शक्तियों सहित एक स्थायी आयोग में परिवर्तित करने का आह्वान किया गया, जैसा कि मूल रूप से ‘इडेट (Idate) कमीशन’ द्वारा अनुशंसित किया गया था।
  • वित्तीय सहायता: केंद्र एवं राज्य स्तर पर समर्पित बजट आवंटन तथा बोर्ड के लिए अधिक वित्तीय अधिकार की माँग की गई है।
  • प्रशासनिक सुदृढ़ीकरण: उप सचिवों, अवर सचिवों, एक वित्तीय सलाहकार की नियुक्ति तथा संयुक्त सचिव स्तर के समान वेतनमान का अनुरोध किया गया।
  • योजना सुधार: DNT के आर्थिक सशक्तीकरण हेतु योजना (SEED) में प्रस्तावित संशोधनों में निम्नलिखित शामिल हैं:
    • आवास एवं भूमि खरीद के लिए सहायता।
    • 20 वर्षों से अधिक समय से कच्चे घरों में रहने वाले परिवारों के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र।
    • अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के छात्रों के समान शैक्षिक लाभ।
  • मानकीकृत प्रमाण-पत्र: सामुदायिक प्रमाण-पत्रों को मानकीकृत करने के लिए राष्ट्रव्यापी निर्देश, जो वर्तमान में केवल सात राज्यों में जारी किए जाते हैं।
  • अनुसंधान केंद्र: क्षेत्र-विशिष्ट डेटा की कमी के कारण प्रत्येक राज्य एवं केंद्रशासित प्रदेश में अनुसंधान तथा क्षमता निर्माण केंद्रों की स्थापना का आह्वान किया गया।

विमुक्त, घुमंतू एवं अर्द्ध-घुमंतू समुदायों के लिए विकास एवं कल्याण बोर्ड के बारे में

  • कानूनी स्थिति: सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत पंजीकृत एक सोसायटी।
  • संविधान: वर्ष 2019 में स्थापित।
  • मुख्यालय: नई दिल्ली में स्थित।
  • संरचना
    • अध्यक्ष: भारत सरकार द्वारा नियुक्त।
    • सदस्य सचिव/मुख्य कार्यकारी अधिकारी: भारत सरकार के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी।
    • पदेन सदस्य
      • सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग के संयुक्त सचिव।
      • जनजातीय कार्य मंत्रालय से एक प्रतिनिधि।
      • स्कूल शिक्षा विभाग से एक प्रतिनिधि।
    • मनोनीत सदस्य: इन समुदायों के लिए कार्यरत पाँच प्रतिष्ठित व्यक्ति, जिन्हें भारत सरकार द्वारा नामित किया जाता है।
    • कार्यक्षेत्र
      • इन समुदायों के लिए कल्याणकारी एवं विकास कार्यक्रम तैयार करना तथा उन्हें लागू करना।
      • उन स्थानों की पहचान करना, जहाँ ये समुदाय केंद्रित हैं एवं मौजूदा योजनाओं तक पहुँच में कमियों का आकलन करना।
      • सामुदायिक आवश्यकताओं के अनुसार कार्यक्रमों को अनुकूलित करने के लिए मंत्रालयों एवं कार्यान्वयन एजेंसियों के साथ सहयोग करना।
      • इन समूहों से संबंधित केंद्रीय एवं राज्य/संघ राज्य क्षेत्र की योजनाओं की प्रगति की निगरानी तथा मूल्यांकन करना।
      • सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा सौंपे गए अन्य कार्य करना।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871: ब्रिटिश शासन के दौरान, लगभग 200 समुदायों को “आपराधिक जनजातियाँ” के रूप में अधिसूचित किया गया था एवं उन पर निगरानी एवं  ​​प्रतिबंध लगाया गया था।
  • अधिनियम को रद्द करना (वर्ष 1952): स्वतंत्रता के बाद, आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 को निरस्त कर दिया गया एवं इन समूहों को आधिकारिक तौर पर इस सूची से बाहर कर दिया गया।
  • कई समूह मुख्यधारा की जाति श्रेणियों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग) से बाहर रह गए, जिसके कारण वे कल्याणकारी लाभों से वंचित रह गए।

विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियों (NTDNTs) की पृष्ठभूमि

  • इडेट (Idate) आयोग की रिपोर्ट (वर्ष 2017): लगभग 1,200 विमुक्त (Denotified- DNT), घुमंतू (Nomadic- NT) एवं अर्द्ध-घुमंतू (Semi-Nomadic- SNT) समुदायों की पहचान की गई है जो पहले से ही SC, ST, या OBC सूचियों में शामिल हैं, तथा 269 समुदायों को अभी तक वर्गीकृत नहीं किया गया है।
  • भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण: इन समुदायों का अध्ययन किया गया एवं उनके वर्गीकरण की सिफारिश की गई, सामाजिक न्याय मंत्रालय ने इन सिफारिशों पर कोई कार्रवाई नहीं की है।
  • संवेदनशीलता: ये समूह सबसे वंचित समूहों में से हैं, जिन्हें मान्यता, सामाजिक सुरक्षा एवं कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँच का अभाव है।

वर्तमान स्थिति

  • जनसंख्या: भारत में 1,200 समुदायों में लगभग 10 करोड़ लोग (रेनके आयोग, 2008 के अनुसार) अनुमानित हैं।
  • वर्गीकरण: कई विमुक्त एवं घुमंतू जनजातियाँ SC, ST एवं OBC श्रेणियों में विस्तृत हैं तथा लगभग 269 समुदाय अवर्गीकृत हैं।
  • सुभेद्यता: विश्वसनीय पहचान दस्तावेजों के अभाव में उन्हें गरीबी, भूमिहीनता, राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी एवं सरकारी योजनाओं तक पहुँचने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

प्रमुख चुनौतियाँ

  • भेदभाव: “आपराधिक जनजाति” होने की निरंतर धारणा रोजगार, आवास एवं शिक्षा में भेदभाव का कारण बनती है।
  • पहचान दस्तावेज: केवल कुछ ही राज्य सामुदायिक प्रमाण-पत्र जारी करते हैं, जिससे आरक्षण एवं कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँच सीमित हो जाती है।
  • नीतिगत उपेक्षा: आयोगों (इडेट आयोग, रेनके आयोग) के बावजूद, गैर-अधिसूचित, घुमंतू एवं गैर-अधिसूचित जनजातियों के लिए कोई व्यापक राष्ट्रीय नीति नहीं है।
  • आँकड़ों का अभाव: क्षेत्र-विशिष्ट एवं समुदाय-स्तरीय आँकड़ों की कमी साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण में बाधा उत्पन्न करती है।
  • सामाजिक-आर्थिक अभाव: कम साक्षरता, उच्च बाल श्रम, स्थायी आजीविका का अभाव एवं खानाबदोश जीवनशैली के कारण बार-बार विस्थापन।

कल्याणकारी उपाय एवं पहल

  • रेनके आयोग (वर्ष 2008): अत्यधिक वंचितों की समस्या पर प्रकाश डाला एवं लक्षित कल्याणकारी उपायों की सिफारिश की।
  • इडेट आयोग (वर्ष 2017): 1,200 समुदायों की पहचान की एवं गैर-अधिसूचित जनजातियों के लिए एक स्थायी आयोग की स्थापना का आह्वान किया।
  • DWBDNC (2019): केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय के तहत विमुक्त, घुमंतू एवं अर्द्ध-घुमंतू समुदायों के लिए विकास तथा कल्याण बोर्ड की स्थापना की गई थी, लेकिन इसे वैधानिक समर्थन का अभाव है।
  • सीड योजना (वर्ष 2022): गैर-अधिसूचित जनजातियों के आर्थिक सशक्तीकरण के लिए योजना का उद्देश्य आवास, आजीविका, शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी हस्तक्षेप करना है।

संदर्भ

हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री (MoEFCC) ने कहा कि भारत विश्व के पहले कुछ देशों में शामिल हो गया है, जिसने कूलिंग एक्शन प्लान लागू किया है।

  • भारत ने 16 सितंबर को विश्व ओजोन दिवस, 2025 मनाया, जिसकी थीम “विज्ञान से वैश्विक कार्रवाई तक” थी।

भारत की वैश्विक ओजोन संरक्षण में भागीदारी

  • विएना कन्वेंशन (1985): ओजोन की रक्षा के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय ढाँचा।
  • मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (1987): CFC और हैलॉन जैसे ओजोन क्षयकारी पदार्थों (ODS) को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण संधि।
    • भारत एक पक्ष के रूप में: वर्ष 1992 में हस्ताक्षर किया; हानिकारक रसायनों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध।
  • ओजोन क्षयकारी पदार्थों (ODS) के उत्पादन, खपत, आयात और निर्यात को नियंत्रित करने के लिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को लागू करने के उद्देश्य से ODS विनियमन और नियंत्रण नियम (2000) बनाए गए थे।
    • इन नियमों के अनुसार, ODS के उत्पादन के लिए 2000 के आधार वर्ष के अनुसार कोटा तय किया गया था, निर्दिष्ट देशों के अलावा अन्य देशों के साथ व्यापार पर रोक लगाई गई थी, निर्दिष्ट देशों के साथ आयात/निर्यात के लिए लाइसेंस अनिवार्य किया गया था और भारत में ODS बेचने, भंडारण या वितरण करने वाले सभी लोगों के लिए पंजीकरण अनिवार्य किया गया था।
  • ‘HFC फेज डाउन’ रणनीति: वर्ष 2023 में अंतिम रूप दी गई ‘HFC फेज डाउन’ रणनीति हेतु भारत की राष्ट्रीय रणनीति, HFC के उपयोग की मात्रा और कम GWP वाले विकल्पों की उपलब्धता के आधार पर क्षेत्रों को प्राथमिकता देती है, जो ‘किगाली समझौते’ के लक्ष्यों के अनुरूप है।
    • चरण I (2012–2016): HCFC में कमी।
    • चरण II (2017–2024): वर्तमान में संचालित, भारत ने वर्ष 2020 तक 44% की कमी हासिल कर ली है, जो 35% के लक्ष्य से अधिक है।
  • किगाली संशोधन समझौता (वर्ष 2016, भारत द्वारा वर्ष 2021 में अनुमोदित): HFC पर दायित्वों का विस्तार, ओजोन संरक्षण को जलवायु कार्रवाई से जोड़ना।

कूलिंग के बारे में

  • ‘कूलिंग’ का आशय स्थानों, उत्पादों अथवा उपकरणों के तापमान को औद्योगिक आवश्यकताओं हेतु घटाने अथवा नियंत्रण में बनाए रखने से है।
  • यह क्यों महत्त्वपूर्ण है:
    • कूलिंग मानव स्वास्थ्य, उत्पादकता एवं खाद्य सुरक्षा से संबद्ध एक मौलिक विकासात्मक आवश्यकता है।
    • भारत और पूरे विश्व में बढ़ती आय, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण कूलिंग की माँग तेजी से बढ़ रही है।
      • उदाहरण के लिए: परिवहन में एसी रेफ्रिजरेंट का प्रयोग वर्ष 2017 में 6,000 MT से बढ़कर वर्ष 2038 तक 25,000 MT तक हो सकता है। अगर इस पर कोई रोक नहीं लगाई गई तो इससे ऊर्जा के अधिक प्रयोग और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा।
    • हालाँकि, ‘कूलिंग सिस्टम’ में प्रायः ऐसे रेफ्रिजरेंट का प्रयोग होता है, जो ओजोन परत को नुकसान पहुँचाते हैं (जैसे CFCs/HCFCs) या जो जलवायु परिवर्तन में योगदान देते हैं (उच्च ग्लोबल वार्मिंग क्षमता वाले HFCs)।

इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (India Cooling Action Plan- ICAP) के बारे में

  • ICAP का अवलोकन
    • प्रारंभ: मार्च 2019 में, भारत दुनिया का पहला देश बन गया, जिसने एक व्यापक कूलिंग प्लान अपनाया।
    • उद्देश्य: पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक लाभ सुनिश्चित करते हुए सभी को स्थायी रूप से ‘कूलिंग’ और ‘थर्मल’ सुविधाएँ प्रदान करना।
  • क्रियान्वयन ढाँचा

    • कार्य समूह: ICAP की सिफारिशों को लागू करने के लिए, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने छह विषयगत कार्य समूहों के गठन का निर्णय लिया है।
      1. भवन में स्पेस कूलिंग
      2. कोल्ड चेन रेफ्रिजरेशन
      3. ट्रांसपोर्ट एयर-कंडीशनिंग
      4. रेफ्रिजरेशन और एयर-कंडीशनिंग सेवा क्षेत्र
      5. रेफ्रिजरेंट की माँग और घरेलू उत्पादन
      6. अनुसंधान और विकास (R&D)
    • मंत्रालयों के बीच समन्वय: ICAP के विषयगत कार्य समूहों द्वारा तैयार किए गए दस्तावेजीकरण, रिपोर्ट और सिफारिशों को निर्देशित और समीक्षा करने के लिए विभिन्न मंत्रालयों के प्रतिनिधियों वाली एक ‘स्टीयरिंग कमेटी’ बनाई गई।
    • मौजूदा नीतियों और प्राथमिकताओं से तालमेल: ICAP की सिफारिशें HFCs को कम करने के लिए किगाली संशोधन समझौते के अनुरूप हैं और कम GWP वाले रेफ्रिजरेंट, वाहनों के लिए ग्रीन लेबलिंग, बेहतर सर्विसिंग प्रथाओं और ऊर्जा दक्षता में सुधार जैसे राष्ट्रीय पहलों जैसे ऊर्जा दक्षता (BEE), शहरी विकास (MoHUA), कौशल प्रशिक्षण (MSDE/NCVET) और अनुसंधान कार्यक्रम (DST) के साथ एकीकृत हैं, खासकर ट्रांसपोर्ट एयर कंडीशनिंग (TAC) क्षेत्र में।

इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP) के विषयगत क्षेत्र

  • भवन में स्पेस कूलिंग: भवनों में ‘कूलिंग’ की माँग का बड़ा हिस्सा निहित है, विशेषकर शहरी भारत में, जहाँ आराम और उत्पादकता हेतु एयर कंडीशनर अनिवार्य होते जा रहे हैं। इस संदर्भ में, ICAP ऐसी आवश्यकताओं की पूर्ति को बढ़ावा देता है।
    • ग्रीन बिल्डिंग कोड: पैसिव कूलिंग, बेहतर इंसुलेशन और प्राकृतिक वेंटिलेशन को शामिल करना।
    • ऊर्जा-कुशल AC: उपभोक्ताओं को ऊर्जा-कुशल मॉडल खरीदने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (BEE) के स्टार-रेटिंग प्रोग्राम का विस्तार।
    • शहरी नियोजन: “अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट” को कम करने के लिए रिफ्लेक्टिव रूफिंग और बेहतर सामग्री का प्रचार।
  • कोल्ड चेन और रेफ्रिजरेशन: भारत में भंडारित होने वाले खाद्य पदार्थों का लगभग 30-40% हिस्सा खराब हो जाता है, क्योंकि उनके भंडारण और परिवहन की व्यवस्था सही नहीं है।
  • कोल्ड चेन में कूलिंग से
    • खाद्य अपशिष्ट कम होता है: इससे यह सुनिश्चित होता है कि फल, सब्जियाँ, दूध और मछली फार्म से बाजार तक ताजे रहें।
    • किसानों की आय दोगुनी होती है: खराब होने से बचाने से किसान अपने उत्पादों की बेहतर कीमत पा सकते हैं।
    • पोषण और निर्यात को बढ़ावा मिलता है: कोल्ड चेन से सुरक्षित डिलीवरी होती है और कृषि निर्यात बढ़ता है।
  • ट्रांसपोर्ट एयर-कंडीशनिंग: वाहनों की बढ़ती संख्या के साथ, वर्ष 2038 तक ट्रांसपोर्ट एसी में रेफ्रिजरेंट की माँग चार गुना होने की उम्मीद है। ICAP सुझाव देता है:
    • कम GWP वाले रेफ्रिजरेंट: HFCs की जगह पर्यावरण-अनुकूल गैसों का प्रयोग  करना।
    • कारों के लिए ग्रीन लेबल: खरीदारों को ऊर्जा-कुशल वाहन चुनने के लिए प्रोत्साहित करना।
    • सार्वजनिक परिवहन और इलेक्ट्रिक वाहन: मेट्रो, इलेक्ट्रिक बस नेटवर्क और साझा परिवहन प्रणाली व्यक्तिगत कूलिंग की माँग को कम कर सकते हैं।
  • सर्विसिंग सेक्टर: भारत में लाखों स्थानीय एसी और रेफ्रिजरेशन टेक्नीशियन हैं। लेकिन, उनमें से कई को सुरक्षित तरीके से रेफ्रिजरेंट हैंडल करने की ट्रेनिंग नहीं है। ICAP का सुझाव है:
    • सर्टिफिकेशन प्रोग्राम: स्किल इंडिया मिशन के तहत 1,00,000 टेक्नीशियनों को प्रशिक्षित करें।
    • लीकेज में कमी: रेफ्रिजरेंट का सही तरीके से प्रयोग और निपटान से बर्बादी और उत्सर्जन कम होता है।
    • बेहतर जीवनयापन: कुशल श्रमिक अधिक कमा सकते हैं और पर्यावरण सुरक्षा में योगदान दे सकते हैं।
  • रेफ्रिजरेंट की आपूर्ति और स्वदेशी उत्पादन: वर्तमान में, भारत आयातित रेफ्रिजरेंट पर बहुत निर्भर है। ICAP जोर देता है:-
    • देशी उत्पादन: भारतीय कंपनियों को विकल्प निर्माण में मदद करना।
    • सर्कुलर इकोनॉमी: निर्भरता कम करने के लिए रेफ्रिजरेंट का रीसाइक्लिंग और रीक्लेमेशन।
    • रणनीतिक सुरक्षा: माँग बढ़ने पर आपूर्ति में स्थिरता सुनिश्चित करना।
  • अनुसंधान और विकास (R&D): टिकाऊ कूलिंग के लिए नवाचार अत्यावश्यक  है। ICAP का दृष्टिकोण:
    • वैकल्पिक रेफ्रिजरेंट: अमोनिया, CO₂, और हाइड्रोकार्बन जैसे प्राकृतिक विकल्पों की खोज।
    • नई कूलिंग टेक्नोलॉजी: सोलर पावर वाली कूलिंग, डिस्ट्रिक्ट कूलिंग सिस्टम।
    • सार्वजनिक-निजी सहयोग: तेजी से लागू करने के लिए अनुसंधान संस्थानों को उद्योग से जोड़ना।

भारत कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP) के लाभ

  • पर्यावरण: ओजोन परत की सुरक्षा के लिए ODS/HFC का चरणबद्ध तरीके से कम करना और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी लाकर जलवायु परिवर्तन से बचाव।
    • उदाहरण के लिए, भारत में CO₂ उत्सर्जन में कमी 2020 में 4.26 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर 2023 में 7.69 मिलियन मीट्रिक टन हो गई।
  • आर्थिक: कोल्ड चेन से कृषि उत्पादों का नुकसान कम होता है और किसानों की आय बढ़ती है। कुशल कूलिंग से घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के बिजली बिल कम होते हैं।
  • सामाजिक: यह सभी के लिए तापीय नियंत्रण सुनिश्चित करता है, जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के आवास भी शामिल हैं, जिससे गर्म जलवायु में जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है।
  • औद्योगिक: यह मेक इन इंडिया को बढ़ावा देता है, क्योंकि इससे एसी, रेफ्रिजरेंट और कूलिंग उपकरण का घरेलू स्तर पर उत्पादन बढ़ता है।
  • स्वास्थ्य: यूवी विकिरण के संपर्क में कमी से स्किन कैंसर और मोतियाबिंद का खतरा कम होता है और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा होती है।

क्रियान्वयन में चुनौतियाँ

  • शुरुआती लागत अधिक: कम-GWP वाले रेफ्रिजरेंट और कुशल AC पारंपरिक विकल्पों की तुलना में महँगे होते हैं।
  • कानून लागू करने में दिक्कतें: रेफ्रिजरेंट के इस्तेमाल और निपटान की निगरानी करना मुश्किल है, खासकर दूर-दराज के क्षेत्रों में।
  • उपभोक्ताओं में जागरूकता की कमी: कई उपभोक्ता रेफ्रिजरेंट रिसाव या कम क्षमता वाले उपकरणों के पर्यावरण पर पड़ने वाले असर के बारे में अनजान रहते हैं।
  • वैश्विक निर्भरता: कई रेफ्रिजरेंट रसायन और तकनीकें अभी भी आयात की जाती हैं, जिससे भारत सप्लाई में गड़बड़ी के प्रति संवेदनशील रहता है।

आगे की राह

  • सस्ती तकनीक का विस्तार करना: कम GWP वाले रेफ्रिजरेंट और कूलिंग के लिए सब्सिडी और प्रोत्साहन बढ़ाना।
  • मॉनिटरिंग को मजबूत करना: डिजिटल रजिस्टर के माध्यम से रेफ्रिजरेंट के उत्पादन, उपयोग और निपटान की निगरानी करना।
  • मिशन LiFE को शामिल करना: पंखे का उपयोग, AC की सही सेटिंग और सर्विसिंग जैसे जिम्मेदार उपभोक्ता व्यवहार को बढ़ावा देना।
  • किगाली समझौते का पालन करना: प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, जलवायु वित्त और वैकल्पिक तरीकों को चरणबद्ध तरीके से अपनाने के माध्यम से किगाली समझौते के तहत भारत के HFC कम करने की प्रतिबद्धता को पूर्ण करना।
    • किगाली संशोधन: ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले पदार्थों पर मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के सदस्य देशों ने रवांडा के किगाली में अपनी 28वीं बैठक (2016) में हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFCs) के उपयोग को धीरे-धीरे कम करने पर सहमति व्यक्त की।

ओजोन और ओजोन क्षयकारी पदार्थ

  • ओजोन परत (गुड ओजोन): समताप मंडल (पृथ्वी से 10-40 किमी ऊपर) में पाई जाती है। यह पृथ्वी की पराबैंगनी (UV) सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करती है, त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद और फसलों को होने वाले नुकसान को रोकती है।
  • क्षोभमंडलीय ओजोन (बैड ओजोन): सूर्य के प्रकाश की वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (VOCs) तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (NOx) के साथ अभिक्रिया द्वारा निर्मित यह स्थलीय ओजोन परत, मानव स्वास्थ्य और वनस्पति दोनों के लिए हानिकारक है।
  • ओजोन क्षरण के कारण: मुख्य रूप से मानव निर्मित रसायनों जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs), हैलोन, कार्बन टेट्राक्लोराइड, मिथाइल क्लोरोफॉर्म और मिथाइल ब्रोमाइड के कारण।
    • ये पदार्थ बहुत स्थिर होते हैं और वर्षा के जल में नहीं घुलते, इसलिए ये स्ट्रेटोस्फीयर तक पहुँच जाते हैं, जहाँ मजबूत पराबैंगनी विकिरण इन्हें विखंडित कर क्लोरीन या ब्रोमीन उत्सर्जित करता है।
    • स्ट्रेटोस्फीयर में लगभग 85% क्लोरीन इन मानव निर्मित रसायन से आता है।
    • ज्वालामुखी विस्फोट से निकलने वाले एरोसोल भी ओजोन परत को नुकसान पहुँचा सकते हैं, क्योंकि ये CFC से निकलने वाले क्लोरीन को ओजोन को नष्ट करने में और भी अधिक प्रभावी बना देते हैं।

ओजोन परत के क्षरण के पर्यावरणीय प्रभाव

  • मानव स्वास्थ्य के लिए खतरे: ओजोन परत में कमी से UV विकिरण बढ़ता है, जिससे त्वचा कैंसर, सनबर्न, समय से पहले त्वचा पर झुर्रियाँ, मोतियाबिंद, अंधापन और कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली का खतरा बढ़ जाता है।
    • ओजोन में 1% की कमी से हानिकारक UV विकिरण लगभग 2% बढ़ जाता है, जिससे प्रत्येक वर्ष 20 लाख नए मोतियाबिंद के मामले सामने आ सकते हैं।
  • कृषि पर प्रभाव: अधिक UV स्तर से चावल, गेहूँ, मक्का और सोयाबीन जैसी फसलों को नुकसान होता है, जिससे उनकी वृद्धि, प्रकाश संश्लेषण और फूलने की प्रक्रिया प्रभावित होती है।
    • UV-B में 1% की बढोतरी से खाद्य उत्पादन 1% तक कम हो सकता है, जिससे भारत की कृषि पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।
  • समुद्री जीवों को नुकसान: UV में वृद्धि से प्लवक को खतरा होता है, जिससे जलीय खाद्य शृंखला बाधित होती है।
    • छोटी मछलियों, झींगा और केकड़े के लार्वा को भी खतरा होता है, जिससे मछली उत्पादन और समुद्री जैव विविधता कम हो सकती है।
  • पशु स्वास्थ्य: UV किरणों के अधिक संपर्क से पालतू और समुद्री जानवरों में आंखों और त्वचा का कैंसर हो सकता है।
  • सामग्री का क्षय: UV विकिरण लकड़ी, प्लास्टिक, रबर, कपड़े और निर्माण सामग्री को नुकसान पहुँचाता है, जिससे महँगे प्रतिस्थापन या सुरक्षा उपायों की आवश्यकता होती है।

ओजोन क्षयकारी पदार्थ

रासायनिक

क्षेत्र / उपयोग

वायुमंडलीय जीवनकाल

चरण-अंतराल स्थिति

क्लोरोफ्लोरोकार्बन (Chlorofluorocarbons- CFC) एरोसोल, मेडिकल उपकरणों के लिए कीटाणुनाशक, खाद्य पदार्थों को फ्रीज करना, तंबाकू का अधिक उपयोग, कैंसर का उपचार, फोम (पॉलीयुरेथेन, फेनोलिक, पॉलीस्टायरीन, पॉलीओलेफिन), एयर कंडीशनर, रेफ्रिजरेटर, स्प्रे कैन। 50–1,700 वर्ष पूर्ण रूप से चरणबद्ध
कार्बन टेट्राक्लोराइड (Carbon Tetrachloride) CFC-11 और CFC-12, फार्मास्यूटिकल्स, कृषि रसायन, सॉल्वेंट के लिए फीडस्टॉक 42 वर्ष नियंत्रित
ब्रोमोफ्लोरोकार्बन (हैलोन: 1211, 1301, 2402) आग बुझाने वाले उपकरण, औद्योगिक, समुद्री, रक्षा, वाणिज्यिक, विमानन क्षेत्र 65 वर्ष धीरे धीरे हटाया गया
हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन (HCFCs, जैसे HCFC-22) रेफ्रिजरेशन, एयर-कंडीशनिंग, फोम, सॉल्वेंट, एरोसोल, अग्निशमन क्षेत्र, केमिकल्स के लिए कच्चा माल 1.4–19.5 वर्ष समाप्त किया जा रहा है
ब्रोमोमेथेन (मिथाइल ब्रोमाइड, CH₃Br) कृषि में फमिगेशन, संरचनाओं और संगृहीत वस्तुओं में कीट नियंत्रण, क्वारंटाइन उपचार 0.7 वर्ष केवल नियंत्रित उपयोग के लिए
ट्राइक्लोरोट्राइफ्लोरोएथेन (CFC-113) औद्योगिक सॉल्वेंट, धातु से स्नेहक हटाना, इलेक्ट्रॉनिक असेंबली की सफाई, कोटिंग, स्नेहक पदार्थ, ड्राई क्लीनिंग
1,1,1-ट्राइक्लोरोएथेन (मिथाइल क्लोरोफॉर्म) औद्योगिक सॉल्वेंट, सामान्य धातु सफाई 5.4 वर्ष धीरे धीरे हटाया गया
ब्रोमोक्लोरोमेथेन (Bromochloromethane- BCM) औद्योगिक सॉल्वेंट अनुप्रयोग नहीं/उपलब्ध नहीं तत्काल चरणबद्ध समाप्ति
हाइड्रोब्रोमोफ्लोरोकार्बन (Hydrobromofluorocarbons- HBFC) सीमित उपयोग भिन्न नए उपयोग को रोकना

निष्कर्ष

ICAP के माध्यम से भारत की कूलिंग रणनीति यह प्रदर्शित करती है कि ओजोन परत की सुरक्षा और जलवायु कार्रवाई को समानांतर रूप से आगे बढ़ाया जा सकता है। विश्व ओजोन दिवस की प्रतिबद्धताओं को दीर्घकालिक राष्ट्रीय कूलिंग रोडमैप से जोड़कर भारत ने विज्ञान को नीति में रूपांतरित करने और नीति से मापनीय परिणाम प्राप्त करने में अग्रणी भूमिका निभाई है। अब प्रमुख चुनौती यह है कि समाधान सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध हों, जिससे प्रत्येक भारतीय, स्थायी कूलिंग सुविधा का लाभ उठा सके और साथ ही भविष्य भी सुरक्षित रहे।

संदर्भ

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने अपनी 25वीं विशेषज्ञ समिति की बैठक में आवश्यक दवाओं की मॉडल सूची (EML) को अपडेट किया।

ग्लूकागोन-लाइक पेप्टाइड-1 (GLP-1) रिसेप्टर के बारे में

  • GLP-1 एगोनिस्ट दवाओं का एक समूह है, जिसका उपयोग मुख्य रूप से टाइप 2 डायबिटीज वाले लोगों में ब्लड शुगर लेवल को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है और इनमें से कुछ दवाएँ मोटापा के उपचार में भी प्रभावी हैं।
  • इन दवाओं को आमतौर पर ‘सबक्यूटेनियस इंजेक्शन’ (Subcutaneous Injections) के रूप में दिया जाता है, जिसमें दवा को त्वचा के ठीक नीचे वसायुक्त ऊतक में इंजेक्ट किया जाता है।

अद्यतित सूची के बारे में

  • नई दवाएँ: सेमाग्लुटाइड, डुलैग्लुटाइड, लिरैग्लुटाइड और टिरजेपेटाइड, ये सभी GLP-1 रिसेप्टर एगोनिस्ट EML में शामिल किए गए हैं।
  • उपयोग: इन दवाओं का प्रयोग टाइप 2 डायबिटीज मेलिटस, कार्डियोवैस्कुलर रोग, क्रोनिक किडनी रोग और मोटापे से प्रभावित वयस्कों में ग्लूकोज कम करने के लिए किया जाता है।
  • वैज्ञानिक तर्क: साक्ष्यों से पता चला है कि ये ग्लूकोज को नियंत्रित करने, वजन कम करने और कार्डियो-मेटाबॉलिक स्वास्थ्य में सुधार करने में प्रभावी हैं।

वैश्विक स्वास्थ्य चुनौती

  • डायबिटीज का प्रसार: पूरे विश्व में 80 करोड़ से अधिक लोग डायबिटीज से पीड़ित हैं; इनमें से आधे लोगों का उपचार नहीं हो पाता (WHO, 2022)।
  • मोटापा: पूरे विश्व में 1 अरब से अधिक लोग मोटापे से पीड़ित हैं, और कम एवं मध्यम आय वाले देशों में इसकी दर बढ़ रही है।
  • आवश्यकता: WHO ने डायबिटीज और मोटापे को वर्तमान समय की सबसे गंभीर स्वास्थ्य चुनौती के रूप में बताया है।

भारत में मधुमेह

  • भारत में अनुमानित 7.7 करोड़ वयस्क (18 वर्ष और उससे अधिक आयु के) टाइप 2 डायबिटीज से पीड़ित हैं, जो दुनिया में डायबिटीज रोगियों की सबसे बड़ी आबादी में से एक है।
  • इसके अलावा, लगभग 2.5 करोड़ लोग प्री-डायबिटिक हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें शीघ्र ही डायबिटीज होने का खतरा अधिक है।

मधुमेह

  • डायबिटीज एक पुरानी मेटाबोलिक बीमारी है, जिसमें ब्लड ग्लूकोज का स्तर अधिक रहता है। समय के साथ यह बीमारी हृदय, किडनी, आँखों, नसों और रक्त वाहिकाओं को नुकसान पहुँचा सकती है।
  • टाइप 2 डायबिटीज (जो सबसे सामान्य है) इंसुलिन रेसिस्टेंस या इंसुलिन की कमी के कारण होती है, जबकि टाइप 1 डायबिटीज अग्न्याशय द्वारा इंसुलिन के कम या बिल्कुल भी उत्पादन न होने के कारण होती है।

मोटापा

  • मोटापा एक ऐसी चिकित्सकीय स्थिति है, जिसमें शरीर में अतिरिक्त वसा जमा हो जाती है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकती है। इसे आमतौर पर वयस्कों में बॉडी मास इंडेक्स (BMI) 30 या उससे अधिक होने के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  • यह मधुमेह, हृदय रोग, कुछ प्रकार के कैंसर और मांसपेशियों एवं हड्डियों से संबंधित विकारों जैसी गैर-संक्रामक बीमारियों का एक प्रमुख जोखिम कारक है।

WHO की आवश्यक दवाओं की सूची (EML)

  • स्थापना: इसे पहली बार वर्ष 1977 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा 208 दवाओं के साथ प्रकाशित किया गया था।
    • इसे आवश्यक दवाओं के चयन और उपयोग पर WHO की विशेषज्ञ समिति द्वारा प्रत्येक दो वर्ष में अपडेट किया जाता है।
  • उद्देश्य: यह सुनिश्चित करना कि सभी लोगों को प्राथमिक स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक महत्त्वपूर्ण दवाएँ प्राप्त हो सकें।
  • लक्ष्य
    • यह देशों को अपनी राष्ट्रीय आवश्यक दवाओं की सूची तैयार करने के लिए एक दिशा-निर्देश के रूप में काम करता है।
    • यह दवाओं तक समान पहुँच, उनकी किफायती कीमत और उनके उचित उपयोग को बढ़ावा देता है।
    • यह खरीद, आपूर्ति शृंखला प्रबंधन और स्वास्थ्य नीति योजना में सरकारों को सहायता प्रदान करता है।
  • शामिल करने के मानदंड
    • जन स्वास्थ्य: दवा को एक महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य समस्या का समाधान करना चाहिए।
    • प्रभावशीलता और सुरक्षा: विश्वसनीय प्रमाणों और स्वीकार्य जोखिम प्रोफाइल के आधार पर।
    • लागत-प्रभावशीलता: उपलब्ध संसाधनों के मुकाबले सर्वोत्तम स्वास्थ्य परिणाम प्रदान करती हो।
  • भारत का संदर्भ: भारत के पास अपनी एक राष्ट्रीय आवश्यक दवाओं की सूची (National List of Essential Medicines- NLEM) है, जो WHO के EML के अनुरूप है। इसका उद्देश्य आवश्यक दवाओं की खरीद को प्राथमिकता देना और दवाओं की कीमतों को नियंत्रित करना है।

संदर्भ

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत, चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान सहित 23 देशों को प्रमुख ड्रग तस्करी या अवैध ड्रग उत्पादन करने वाले देशों की सूची में शामिल किया।

‘मेजर्स लिस्ट’ (Major’s List) में उन देशों को शामिल किया जाता है, जो अमेरिका में ड्रग्स की तस्करी के मुख्य स्रोत या मार्ग के रूप में कार्य करते हैं।

वर्ष 2025 की ‘मेजर्स सूची’

  • कुल देश: इस सूची में 23 देशों को सूचीबद्ध किया गया, जिनमें अफगानिस्तान, बहामास, बेलीज, बोलीविया, बर्मा, चीन, कोलंबिया, कोस्टा रिका, डोमिनिकन गणराज्य, इक्वाडोर, अल सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, हैती, होंडुरास, भारत, जमैका, लाओस, मैक्सिको, निकारागुआ, पाकिस्तान, पनामा, पेरू और वेनेजुएला शामिल हैं।
  • विफल राष्ट्र: अफगानिस्तान, बोलीविया, बर्मा, कोलंबिया और वेनेजुएला को मादक पदार्थों के विरुद्ध कार्रवाई में पर्याप्त प्रयास करने में ‘स्पष्ट रूप से विफल’ (Failed Demonstrably) बताया गया।
  • स्पष्टीकरण: अमेरिकी विदेश विभाग ने कहा कि सूची में शामिल करना आवश्यक रूप से किसी सरकार के सहयोग को नहीं दर्शाता, बल्कि यह भौगोलिक, वाणिज्यिक और आर्थिक कारकों पर आधारित है, जो मादक पदार्थों के परिवहन या उत्पादन को संभव बनाते हैं।

महत्त्व

  • भू-राजनीतिक प्रभाव: भारत को चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ शामिल करने से, नशीले पदार्थों के खिलाफ घरेलू प्रयासों के बावजूद भारत की वैश्विक छवि पर दबाव पड़ता है।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग: ड्रग्स और अपराध पर संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (United Nations Office on Drugs and Crime- UNODC) और वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (FATF) जैसे ढाँचे के तहत नशीली दवाओं के नियंत्रण में द्विपक्षीय और बहुपक्षीय समन्वय के निरंतर महत्त्व पर प्रकाश डाला गया।
  • देश में प्रभाव: इस सूची में भारत की उपस्थिति से उसके मादक पदार्थ नियंत्रण प्रवर्तन की जाँच तेज हो सकती है, विशेष रूप से मादक पदार्थों की तस्करी से प्रभावित क्षेत्रों (गोल्डन ट्रायंगल, गोल्डन क्रीसेंट) में।
  • वैश्विक दृष्टिकोण: यह अमेरिका के इस दृष्टिकोण को पुष्ट करता है कि अवैध दवाएँ और सिंथेटिक प्रीकर्सर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट और सुरक्षा चुनौती दोनों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

गोल्डन क्रिसेंट (Golden Crescent)

  • भूगोल: इस क्षेत्र के अंतर्गत अफगानिस्तान, ईरान और पाकिस्तान आते हैं।
  • महत्त्व: यह दुनिया के सबसे बड़े अफीम उत्पादक क्षेत्रों में से एक है और ऐतिहासिक रूप से हेरोइन ड्रग तस्करी का वैश्विक केंद्र रहा है।
  • भारत की चिंता: पंजाब, जम्मू-कश्मीर और राजस्थान की निकटता के कारण भारत हेरोइन तस्करी और सीमा पार ड्रग कार्टेल के खतरे के प्रति संवेदनशील हो जाता है।

गोल्डन ट्रायंगल (Golden Triangle)

  • भूगोल: म्याँमार, लाओस और थाईलैंड का सीमावर्ती क्षेत्र।
  • महत्त्व: यह दूसरा सबसे बड़ा अफीम और हेरोइन उत्पादक क्षेत्र है, जो अब सिंथेटिक ड्रग्स (मेथाफेटामाइन) की ओर बढ़ रहा है।
  • भारत की चिंता: उत्तर-पूर्वी राज्य (मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड) में खुली सीमाओं और विद्रोहियों के नेटवर्क के कारण ड्रग्स की बड़े पैमाने पर तस्करी होती है।

भारत का नशीले पदार्थों पर नियंत्रण के लिए घरेलू ढाँचा

स्वापक औषधि और मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (NDPS अधिनियम)

  • अवलोकन: यह स्वापक औषधियों और मन:प्रभावी पदार्थों से संबंधित कार्यों को विनियमित करने वाला प्राथमिक कानून है। यह अपराधों पर नियंत्रण, विनियमन और दंड का प्रावधान करता है।
  • संशोधन: हालिया सुधारों में सिंथेटिक दवाओं के लिए जुर्माने में बढोतरी, संपत्ति जब्त करने का प्रावधान और बार-बार अपराध करने वालों के लिए सख्त नियम शामिल हैं।
  • प्रीकर्सर विनियमन: भारत, NDPS अधिनियम के तहत पूर्ववर्ती रसायनों (जैसे- इफेड्रिन और स्यूडोइफेड्रिन) के उत्पादन एवं व्यापार पर निगरानी रखता है, ताकि इनका दुरुपयोग रोका जा सके।

संस्थागत तंत्र 

  • नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (Narcotics Control Bureau- NCB): केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत शीर्ष प्रवर्तन एजेंसी, जो राज्यों और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के साथ समन्वय करती है।
  • केंद्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो (Central Bureau of Narcotics- CBN): वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग के अंतर्गत, यह अफीम के कानूनी उत्पादन का प्रबंधन करता है और इसके अवैध उपयोग को रोकता है।
  • राज्य पुलिस और DRI: राज्य प्रवर्तन एजेंसियाँ ​​और राजस्व आसूचना निदेशालय, नशीली दवाओं की तस्करी रोकने और उन्हें जब्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताएँ

  • UN कन्वेंशन: भारत वर्ष 1961 के नशीले पदार्थों पर एकल अभिसमय (Single Convention on Narcotic Drugs), वर्ष 1971 के साइकोट्रोपिक पदार्थों पर अभिसमय (Psychotropic Substances Convention) और वर्ष 1988 के अवैध व्यापार के विरुद्ध अभिसमय (Convention against Illicit Traffic) का हस्ताक्षरकर्ता है।
  • FATF और UNODC सहयोग: भारत वैश्विक मनी लॉण्ड्रिंग रोधी और नशीले पदार्थों की तस्करी रोधी पहलों में सहयोग करता है।
  • द्विपक्षीय समझौते: भारत ने अमेरिका, म्याँमार और अफगानिस्तान जैसे देशों के साथ सूचना साझा करने और संयुक्त ऑपरेशन के लिए समझौते किए हैं।

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने शिवांगी बंसल बनाम साहिल बंसल (2025) मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय (2022) द्वारा IPC की धारा 498A (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85) के दुरुपयोग को रोकने के लिए जारी दिशा-निर्देशों को मंजूरी दी।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय (2022) द्वारा जारी मुख्य दिशा-निर्देश

मुकेश बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने IPC की धारा 498A के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए।

  • ‘कूलिंग पीरियड’: उच्च न्यायालय ने FIR या शिकायत दर्ज होने के बाद जबरन कार्रवाई के लिए दो महीने का ‘कूलिंग पीरियड’ लागू किया है।
  • फैमिली वेलफेयर कमेटी (Family Welfare Committee- FWC): इस दौरान मामला फैमिली वेलफेयर कमेटी (FWC) को भेजा जाता है।
  • चिंता: इससे न्यायिक प्रयोगवाद पर बहस फिर से शुरू हो गई है, क्योंकि ऐसे उपायों का उद्देश्य दुरुपयोग रोकना है, लेकिन इससे पीड़ित को जल्द न्याय मिलने के अधिकार में देरी हो सकती है और कानूनी प्रक्रियाएँ भी प्रभावित हो सकती हैं।

धारा 498A और मौजूदा सुरक्षा उपायों के बारे में

  • उद्देश्य: वर्ष 1983 में महिलाओं को क्रूरता और दहेज संबंधी उत्पीड़न से बचाने के लिए कानून बनाया गया था।
  • गलत प्रयोग संबंधी चिंता: न्यायालयों ने अवलोकित किया कि कुछ लोग बिना वजह FIR दर्ज करवाते हैं और इसका गलत प्रयोग करके पति और ससुराल वालों को परेशान करते हैं।
  • न्यायिक और कानूनी सुरक्षा उपाय पहले से मौजूद हैं।
    • लता कुमारी (2013): घरेलू विवादों में FIR दर्ज करने से पूर्व प्रारंभिक जाँच की अनुमति दी।
    • CrPC संशोधन (2008): गिरफ्तारी के लिए आवश्यकता के सिद्धांत को शामिल किया।
    • अरनेश कुमार (2014): चेकलिस्ट और “उपस्थित होने का नोटिस” के माध्यम से मनमाने ढंग से गिरफ्तारी पर रोक लगाई।
    • सतेंद्र कुमार एंटील (2022): गिरफ्तारी के निर्देशों की अनदेखी करने पर जमानत के अधिकारों को मजबूत किया।
  • प्रभाव
    • सांख्यिकी: NCRB के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016 तक धारा 498A गिरफ्तारी के लिए टॉप 5 अपराधों में शामिल थी, बाद में यह टॉप 10 में रही।
    • वर्ष 2015 में 1,13,403 से बढ़कर वर्ष 2022 में 1,40,019 तक दर्ज अपराधों में वृद्धि के बावजूद, इसी अवधि में गिरफ्तारियों की संख्या 1,87,067 से घटकर 1,45,095 हो गई।
    • इससे पता चलता है कि मौजूदा सुरक्षा उपायों ने पीड़ितों को न्याय मिलने के अधिकार को प्रभावित किए बिना दुरुपयोग को कम कर दिया है।

न्यायिक प्रयोगवाद के बारे में

  • न्यायिक प्रयोगवाद: इसका अर्थ है कि न्यायालय कानून की व्याख्या करने के बजाय, संभावित कमियों को दूर करने के लिए नए तरीके अपनाती हैं।
  • मुख्य विशेषताएँ
    • नया तरीका: ‘कूलिंग-ऑफ पीरियड’ या गैर-कानूनी कमेटियों जैसे उपाय।
    • नीति पर प्रभाव: न्यायपालिका एक तरह से विधायिका का कार्य करती है और विधायिका/कार्यपालिका के क्षेत्र में दखल देती है।
    • परीक्षण और त्रुटि: अगर ऐसे प्रयोग व्यावहारिक या संवैधानिक नहीं पाए जाते हैं तो उन्हें प्रायः वापस लेना पड़ता है।
  • उदाहरण: विशाखा दिशा-निर्देश (1997): कार्यस्थल पर उत्पीड़न के मामले में, यह वर्ष 2013 के POSH अधिनियम तक कानूनी रिक्तता को भरने का कार्य करता रहा।
    • प्रकाश सिंह मामला (2006): पुलिस सुधार के लिए बाध्यकारी निर्देश जारी किए गए।
    • राजेश शर्मा (2017): 498A मामलों के लिए FWC शुरू किए गए, बाद में सोशल एक्शन फोरम (2018) ने इसे खारिज कर दिया।
  • इस मामले में न्यायिक प्रयोगवाद के निहितार्थ
    • सकारात्मक पहलू
      • यह निर्दोष पति/परिवार को गलत गिरफ्तारी से बचाता है।
      • विवाहित विवादों में सुलह को बढ़ावा देता है।
    • नकारात्मक पहलू
      • पीड़ितों को समय पर न्याय और तत्काल सुरक्षा नहीं मिलती।
      • कानूनी प्रक्रियाओं की उपेक्षा करके यह आपराधिक न्याय संस्थाओं को कमजोर करता है।
      • राजेश शर्मा मामले से संबंधित दिशा-निर्देशों जैसे पुराने असफल प्रयोगों को दोहराने का खतरा रहता है।

“कूलिंग पीरियड”

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय (2022): आदेश दिया कि धारा 498A के अंतर्गत प्रत्येक शिकायत को फैमिली वेलफेयर कमेटी (FWC) को भेजा जाए और 2 महीने तक कोई जबरदस्ती वाला कदम न उठाया जाए।
    • इसका उद्देश्य दुरुपयोग रोकना और सुलह को बढ़ावा देना था।
  • सर्वोच्च न्यायालय (2025): शिवांगी बंसल मामले में इन दिशा-निर्देशों को मंजूरी दी और कानूनी कार्रवाई से पहले अनिवार्य ‘कूलिंग पीरियड’ के सिद्धांत को कानूनी मान्यता प्रदान की।

राजेश शर्मा (2017) मामले के दिशा-निर्देशों को सोशल एक्शन फोरम (2018) ने खारिज कर दिया

  • राजेश शर्मा दिशा-निर्देश (2017): किसी भी कार्रवाई से पहले धारा 498A के तहत दर्ज सभी शिकायतों की जाँच के लिए परिवार कल्याण समितियों को अनिवार्य किया गया।
  • सोशल एक्शन फोरम (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया और पीड़ितों को जल्द न्याय पाने का अधिकार बहाल किया।

न्यायिक प्रयोगवाद की चुनौतियाँ

  • न्याय में देरी: प्रायोगिक तरीकों में प्रायः अतिरिक्त कदम शामिल होते हैं (जैसे- अनिवार्य कूलिंग पीरियड या स्क्रीनिंग कमेटी)।
    • उदाहरण के लिए: पीड़ित को FIR/शिकायत दर्ज करने के बाद भी 2 महीने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, जिससे उनकी स्थिति और खराब हो जाती है।
  • अधिकार क्षेत्र से बाहर: न्यायालय कभी-कभी कानूनी मंजूरी के बिना ही समाधान तय कर देती हैं, जिससे कानूनी ढाँचे के बाहर समानांतर संरचनाएँ निर्मित होती हैं।
    • उदाहरण के लिए: FWCs को कानूनी समर्थन नहीं मिलता, जिससे उनके अधिकार क्षेत्र और शक्तियों के बारे में अस्पष्टता रहती है।
  • पिछली व्यवस्था से टकराव: न्यायिक प्रयोग पिछली व्यवस्थाओं से टकरा सकते हैं।
    • उदाहरण के लिए: राजेश शर्मा (2017) मामले के दिशा-निर्देशों को प्रगति विरोधी बताया गया और सोशल एक्शन फोरम (2018) में खारिज कर दिया गया।
  • क्रिमिनल जस्टिस एजेंसियों की क्षमता कम होती है: गैर-कानूनी जाँच रिपोर्ट लगाकर न्यायालय पुलिस, मजिस्ट्रेट और सरकारी एजेंसियों की स्वतंत्रता को सीमित करते हैं।
  • मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव: पीड़ितों को लंबे समय तक परेशान किया जाता है, उन्हें त्वरित सुरक्षा नहीं मिलती और न्याय प्रणाली पर उनका विश्वास कम हो जाता है।
  • प्रभावित पक्षों में मतभेद: कुछ प्रयोग एक समूह को तो प्रसन्न कर सकते हैं (जैसे- आरोपी पक्षों द्वारा कानून के दुरुपयोग को रोकना), लेकिन दूसरे समूह (पीड़ित, कार्यकर्ता) को असंतुष्ट  कर सकते हैं।
    • इससे न्यायिक निर्देशों की वैधता पर सवाल उठते हैं।

आगे की राह

  • फैसले पर पुनर्विचार: सर्वोच्च न्यायालय को सोशल एक्शन फोरम (2018) के आलोक में पुनर्विचार करना चाहिए, जिसने पीड़ितों के त्वरित न्याय के अधिकार को बहाल किया।
  • विधायी स्पष्टता: किसी भी सुलह तंत्र को कानूनी रूप से लागू किया जाना चाहिए, न्यायिक रूप से थोपा नहीं जाना चाहिए।
  • मौजूदा सुरक्षा उपायों को मजबूत करना: पुलिस प्रशिक्षण के माध्यम से अर्नेश कुमार मामले के निर्देशों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना।
  • स्वैच्छिक मध्यस्थता को प्रोत्साहित करना: मुकदमे-पूर्व मध्यस्थता को बढ़ावा दिया जा सकता है, लेकिन केवल एक विकल्प के रूप में, अनिवार्यता के रूप में नहीं।
  • आँकड़ों पर आधारित नीति: NCRB के आँकड़े बताते हैं कि गिरफ्तारियाँ पहले ही कम हो रही हैं, इसलिए अतिरिक्त बाधाएँ अनावश्यक हैं।

निष्कर्ष

न्यायिक प्रणाली को नवाचार और संयम के मध्य संतुलन बनाए रखना चाहिए। धारा 498A के दुरुपयोग की रोकथाम एक वैध चिंता है, किंतु न्याय में विलंब, न्याय से वंचित करने के समान है। न्यायिक व्याख्या को विधायिका की इच्छा का पूरक होना चाहिए, उसका विकल्प नहीं।

  • त्वरित न्याय तक पहुँच संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत एक संवैधानिक गारंटी है और किसी भी नए बदलाव से यह सुनिश्चित होना चाहिए कि पीड़ित को न्याय मिलने का अधिकार प्रभावित न हो।

संदर्भ

आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (OOPE) लंबे समय से भारतीय परिवारों पर बोझ डालता रहा है, जिसके कारण अनेक लोग गरीबी के कुचक्र में फँस गए हैं।

आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (Out-of-Pocket Expenditure-OOPE) के बारे मे

  • परिभाषा: इसका तात्पर्य परिवारों द्वारा डॉक्टर से परामर्श, दवाइयाँ, निदान और अस्पताल में रहने जैसी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बिना किसी प्रतिपूर्ति के प्रत्यक्ष भुगतान से है।
  • व्यय की प्रकृति: इसमें प्रायः सब्सिडी रहित दवाइयाँ, नैदानिक ​​परीक्षण और अस्पताल में भर्ती होने का व्यय शामिल होता है, जिससे यह एक भारी वित्तीय बोझ बन जाता है।
  • नीतिगत प्रासंगिकता: उच्च OOPE को कमजोर सार्वजनिक स्वास्थ्य वित्तपोषण और कम बीमा पहुँच का सूचक माना जाता है।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा वर्ष 2021- 2022 के लिए जारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा अनुमानों के प्रमुख निष्कर्ष

  • OOPE में गिरावट: OOPE वर्ष 2017- 2018 में 48.8% से घटकर वर्ष 2021- वर्ष 2022 में कुल स्वास्थ्य व्यय (Total Health Expenditure- THE) का 39.4% रह गया।
  • सरकार की हिस्सेदारी में वृद्धि: THE में सरकार की हिस्सेदारी 40.8% से बढ़कर 48% हो गई।
  • लक्ष्य: वर्ष 2025-26 तक OOPE को THE के 35% तक कम करना।

कुल स्वास्थ्य व्यय (Total Health Expenditure -THE)

  • कुल स्वास्थ्य व्यय (Total Health Expenditure -THE) किसी देश में एक निश्चित अवधि में स्वास्थ्य सेवाओं पर किए गए सभी सार्वजनिक और निजी व्यय का योग है। इसमें सरकारी व्यय, बीमा भुगतान और परिवारों द्वारा अपनी जेब से किया गया व्यय शामिल होता है।

भारत में OOPE की स्थिति

  • आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 के अनुसार, भारत का OOPE 39.4% है, जिससे स्वास्थ्य सेवा कई लोगों के लिए वहनीय नहीं रह गई है।
  • यू.के. और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में OOPE लगभग 13% है, क्योंकि वे सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों पर निर्भर हैं।

OOPE में गिरावट के प्रमुख कारण

  • सरकारी स्वास्थ्य व्यय (Government Health Expenditure- GHE) में वृद्धि: GHE का हिस्सा सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 1.13% (वर्ष 2014-15) से बढ़कर 1.84% (वर्ष 2021-22) हो गया, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अधिक किफायती हो गई।
  • सामाजिक सुरक्षा व्यय (Social Security Expenditure- SSE) का विस्तार: कुल स्वास्थ्य व्यय (Total Health Expenditure- THE) में इसका हिस्सा 5.7% से बढ़कर 8.7% हो गया, जिससे अत्यधिक व्यय से सुरक्षा मिली।
  • गैर-संचारी रोगों (Non-Communicable Diseases- NCD) के लिए लक्षित कार्यक्रम: मधुमेह, उच्च रक्तचाप और कैंसर के उपचार के लिए सब्सिडी युक्त पहलों ने दीर्घकालिक घरेलू स्वास्थ्य लागत को कम किया।
  • कोविड-19 प्रतिक्रिया: परीक्षण, ऑक्सीजन संयंत्रों, ICU बिस्तरों और टीकों में निवेश ने स्थायी बुनियादी ढाँचे का निर्माण किया, जिससे अप्रत्यक्ष रूप से OOPE में कमी आई।

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य अवसंरचना एवं कार्यबल: आयुष्मान आरोग्य मंदिरों की स्थापना, बेहतर सुविधाओं से युक्त जिला अस्पताल और प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मचारियों ने किफायती पहुँच का विस्तार किया।
    • आयुष्मान आरोग्य मंदिर (Ayushman Arogya Mandirs- AAMs): 1.76 लाख केंद्र निवारक, प्रोत्साहक, उपचारात्मक, उपशामक और पुनर्वास सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं, जिससे देखभाल सार्वभौमिक और समुदायों के करीब निःशुल्क हो रही है।

  • नीतिगत हस्तक्षेप
    • राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (National Health Mission- NHM): राज्य स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढाँचे, मानव संसाधन और वंचित समूहों के लिए सेवाओं को मजबूत करना।

    • राष्ट्रीय निःशुल्क दवाएँ और निःशुल्क निदान सेवाएँ: आवश्यक दवाओं और परीक्षणों की उपलब्धता सुनिश्चित करना, सार्वजनिक सुविधाओं पर रोगियों के लिए OOPE को कम करना।
    • प्रधानमंत्री आयुष्मान भारत स्वास्थ्य अवसंरचना मिशन (Pradhan Mantri Ayushman Bharat Health Infrastructure Mission- PM-ABHIM): प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक स्वास्थ्य सेवा में क्षमता निर्माण के लिए ₹64,180 करोड़ का परिव्यय।
    • सरकार द्वारा वित्तपोषित बीमा योजनाएं: आयुष्मान भारत-PMJAY और राज्य स्वास्थ्य योजनाएँ जैसी पहल कमजोर समूहों के लिए अस्पताल में भर्ती होने की लागत को कवर करती हैं।
      • आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (AB-PMJAY): भारत की आबादी के निचले 40% हिस्से का प्रतिनिधित्व करने वाले 55 करोड़ लाभार्थियों (12.37 करोड़ परिवार) को द्वितीयक और तृतीयक स्वास्थ्य सेवा के लिए प्रति परिवार प्रतिवर्ष ₹5 लाख का कवर प्रदान करती है।
      • हाल ही में इसका विस्तार सामाजिक-आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना 6 करोड़ वरिष्ठ नागरिकों (70+ वर्ष) को कवर करने के लिए किया गया है।
      • प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (PMBJP) और किफायती दवाएँ और उपचार के लिए विश्वसनीय प्रत्यारोपण (AMRIT) फार्मेसी: किफायती कीमतों पर गुणवत्तापूर्ण जेनेरिक दवाओं तक पहुँच सुनिश्चित करना।

कम OOPE के निहितार्थ

  • बेहतर स्वास्थ्य सेवा पहुँच: परिवार, विशेष रूप से ग्रामीण और निम्न-आय वाले क्षेत्रों में, अब बिना किसी बड़ी वित्तीय बाधा के उपचार प्राप्त कर सकते हैं।
  • सुदृढ़ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली: अधिक धनराशि ने सरकारी सुविधाओं में संसाधन वितरण और सेवा विश्वसनीयता में सुधार किया है।
  • बेहतर स्वास्थ्य परिणाम: निवारक देखभाल और शीघ्र निदान से रुग्णता और मृत्यु दर कम होती है, जिससे प्रणाली-व्यापी बोझ कम होता है।
  • परिवारों के लिए वित्तीय स्थिरता: स्वास्थ्य पर कम खर्च पोषण, शिक्षा और घरेलू लचीलेपन के लिए संसाधन उपलब्ध कराता है।
  • स्वास्थ्य कार्यबल को बढ़ावा: अधिक सरकारी व्यय डॉक्टरों, नर्सों और पैरामेडिक्स की भर्ती और प्रशिक्षण को संभव बनाता है, जिससे सेवा वितरण में सुधार होता है।
  • सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (Universal Health Coverage- UHC) का मार्ग: OOPE में गिरावट SDG 3 (उत्कृष्ट स्वास्थ्य और कल्याण) और स्वास्थ्य सेवा को एक अधिकार के रूप में देखने की दिशा में भारत की प्रगति को मजबूत करती है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य खातों (National Health Accounts- NHA) के बारे में

  • NHA किसी देश में स्वास्थ्य संसाधनों के प्रवाह की निगरानी करता है। व्यय, वित्त पोषण स्रोतों और विभिन्न क्षेत्रों में संसाधन वितरण का विश्लेषण करता है।
  • NHA के प्रमुख तत्त्व
    • स्वास्थ्य व्यय संबंधी निगरानी: सरकारी, निजी बीमा, OOPE और विदेशी सहायता से होने वाले व्यय का विश्लेषण करता है।
    • वित्तपोषण के स्रोत: सरकारी, सामाजिक स्वास्थ्य बीमा, निजी क्षेत्र और घरेलू व्यय से होने वाले व्यय का विश्लेषण करता है।
    • सेवा क्षेत्र: अस्पताल देखभाल, बाह्य रोगी सेवाओं, दवाइयों आदि पर होने वाले व्यय को वर्गीकृत करता है।
    • प्रणाली अंतर्दृष्टि: स्वास्थ्य सेवा वित्तपोषण में दक्षता और समता का आकलन करने में मदद करता है।
    • प्रदर्शन निगरानी: वित्तीय स्थिरता पर नजर रखता है और स्वास्थ्य परिणामों को बेहतर बनाने के लिए निर्णय लेने में मदद करता है।
  • NHA फ्रेमवर्क और मानक
    • आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD) और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा स्वास्थ्य लेखा प्रणाली (SHA) NHA के लिए अंतरराष्ट्रीय मानक है, जिसे स्वास्थ्य वित्तपोषण में नए रुझानों को प्रतिबिंबित करने के लिए नियमित रूप से अद्यतन किया जाता है।

भारत में NHA

  • भारत का NHA सार्वजनिक और निजी स्वास्थ्य सेवा व्यय की निगरानी करता है और सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (Universal Health Coverage -UHC) की दिशा में देश की प्रगति की जानकारी देता है।
  • प्रवृत्ति: NHA में OOPE में गिरावट आई है, लेकिन CPHS में, विशेष रूप से कोविड के बाद, कमी धीमी रही है।
  • महत्त्व: स्वास्थ्य वित्तपोषण लक्ष्यों की जानकारी देता है, जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को सकल घरेलू उत्पाद के 2.5% तक बढ़ाना।

आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (Out-of-Pocket Expenditure- OOPE) की चुनौतियाँ

  • परिवारों पर वित्तीय बोझ: उच्च OOPE परिवारों को बचत खर्च करने, ऋण लेने या संपत्ति बेचने के लिए विवश करता है, जिसके परिणामस्वरूप भोजन, शिक्षा और आजीविका से संसाधन हटकर प्रायः स्वास्थ्य पर अत्यधिक व्यय हो जाता है।
    • उदाहरण: विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, परिवार अपनी आय का 10-25% स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करते हैं, जिससे कई लोग गरीबी के जाल में फँस जाते हैं।
  • पहुँच में समानता: AB-PMJAY जैसी योजनाएँ मुख्य रूप से अस्पताल में भर्ती होने को कवर करती हैं, जबकि बाह्य रोगी देखभाल और दवाइयाँ OOPE का अधिकांश हिस्सा हैं जो इसमें शामिल नहीं होतीं।
    • उदाहरण: लैंसेट रिपोर्ट, 2023 में पाया गया कि अकेले दवाइयाँ OOPE का 60% से अधिक हिस्सा हैं, जिससे ग्रामीण गरीबों पर असमान रूप से बोझ पड़ता है।
  • स्वास्थ्य सेवा की बढ़ती लागत: सरकारी पहलों के बावजूद, निदान, दवाओं और उपचारों की कीमतों में वृद्धि जारी है।
    • उदाहरण: NPPA वर्ष 2024 ने आवश्यक दवाओं की कीमतों में 12% की वृद्धि दर्ज की, जिससे घरेलू वित्तीय तनाव बढ़ गया।
  • आँकड़ों की विश्वसनीयता: NSS (वर्ष 2017-18) और NHA के अनुमानित आँकड़ों पर अत्यधिक निर्भरता आंकड़ों की सटीकता को कमजोर करती है।
    • उदाहरण: नीति आयोग, 2021 ने घरेलू स्वास्थ्य व्यय के NHA और राष्ट्रीय आय लेखा अनुमानों के बीच विसंगतियों को प्रदर्शित किया।
  • कोविड-19 व्यय: महामारी से संबंधित ऑक्सीजन, अस्पताल के बिस्तरों और दवाओं का खर्च मुख्यतः जेब से वहन किया गया और NHA में दर्ज नहीं किया गया।
    • उदाहरण: अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय वर्ष 2022 ने अनुमान लगाया है कि स्वास्थ्य सेवा व्यय के कारण 20 करोड़ भारतीय गरीबी में चले जाएँगे।
  • कम सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय: सकल घरेलू उत्पाद के 1.84% पर, भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय, विश्व स्वास्थ्य संगठन के 5% के मानक से नीचे बना हुआ है, जिससे OOPE से सुरक्षा सीमित हो जाती है।
    • उदाहरण: आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 के अनुरूप, वर्ष 2025 तक स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 2.5% तक बढ़ाने पर बल दिया है।

आगे की राह

  • स्वास्थ्य डेटा प्रणालियों को मजबूत बनाना: एक समग्र, वास्तविक समय NHA बनाने के लिए कई सर्वेक्षणों (NSS, NFHS, CES, LASI, CPHS) को एकीकृत करना।
  • अस्पताल में भर्ती होने से परे कवरेज का विस्तार करना: AB-PMJAY और राज्य योजनाओं का विस्तार करके बाह्य रोगी देखभाल, निदान और दवाओं को शामिल करना, जो OOPE के मुख्य कारक हैं।
  • दवाओं की कीमतों को विनियमित और कम करना: प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना का विस्तार करना और राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण के माध्यम से दवा मूल्य विनियमन को मजबूत करना।
  • महामारी-प्रतिक्रियात्मक वित्तपोषण: आपातकालीन स्वास्थ्य वित्तपोषण तंत्र विकसित करना और महामारियों के लिए बीमा कवरेज का विस्तार करना।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय बढ़ाएँ: राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अनुसार, वर्ष 2025 तक सरकारी स्वास्थ्य व्यय (Government Health Expenditure- GHE) को सकल घरेलू उत्पाद के कम-से-कम 2.5% तक बढ़ाना और WHO द्वारा अनुशंसित 5% के करीब पहुँचना।

निष्कर्ष

आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (Out-of-Pocket Expenditure -OOPE) में कमी, सतत् विकास लक्ष्य 3 (उत्कृष्ट स्वास्थ्य और कल्याण) के प्रति भारत की प्रतिबद्धता के अनुरूप है, जो सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं तक समान पहुँच सुनिश्चित करता है। दीर्घकालिक स्वास्थ्य सेवा स्थिरता प्राप्त करने के लिए निरंतर सरकारी निवेश, समावेशी बीमा योजनाएँ और स्वास्थ्य समानता पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है।

संदर्भ

विश्व रोगी सुरक्षा दिवस (17 सितंबर) पर, वैश्विक स्वास्थ्य समुदाय, स्वास्थ्य देखभाल सुरक्षा में लगातार व्याप्त खामियों पर प्रकाश डालता है।

विश्व रोगी सुरक्षा दिवस के बारे में

  • तिथि: प्रतिवर्ष 17 सितंबर को मनाया जाता है।
  • वैश्विक महत्त्व: रोगी सुरक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालता है और स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रों में नुकसान को कम करने के लिए वैश्विक प्रयासों का आह्वान करता है।
  • भागीदारी: यह दिवस रोगियों, परिवारों, देखभाल करने वालों, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, स्वास्थ्य सेवा नेताओं और नीति-निर्माताओं को सभी के लिए सुरक्षित स्वास्थ्य सेवा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने हेतु सहभागी बनाता है।
  • विश्व स्वास्थ्य सभा संकल्प (WHA 72.6) – रोगी सुरक्षा पर वैश्विक कार्रवाई: विश्व स्वास्थ्य सभा (World Health Assembly- WHA) द्वारा समर्थित यह संकल्प, रोगी सुरक्षा को वैश्विक स्वास्थ्य प्राथमिकता के रूप में नामित करता है।
    • महत्त्व: , दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवा में होने वाली हानि को कम करने पर बल देते हुए विश्व रोगी सुरक्षा दिवस की स्थापना और रोगी सुरक्षा में सुधार के लिए वैश्विक कार्रवाई का समर्थन।

वर्ष 2025 का विषय: ‘प्रत्येक नवजात शिशु और प्रत्येक बच्चे के लिए सुरक्षित देखभाल’

मुख्य फोकस क्षेत्र (2025)

  • नवजात शिशु एवं बाल सुरक्षा: नवजात शिशुओं और बच्चों, जो स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों में सबसे कमजोर समूहों में से हैं, के लिए सुरक्षित स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के महत्त्व पर जोर दिया गया है।
    • नवजात शिशु की असुरक्षा को रोकने और गुणवत्तापूर्ण देखभाल सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
  • सुरक्षित देखभाल तक सार्वभौमिक पहुँच: प्रत्येक नवजात शिशु और बच्चे, विशेष रूप से कम संसाधन वाले क्षेत्रों में, सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण देखभाल प्रदान करने पर जोर देते हुए सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज को बढ़ावा दिया गया है।
  • स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों को मजबूत बनाना: उपचार और देखभाल के लिए सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने हेतु नवजात शिशु देखभाल और बाल स्वास्थ्य प्रणालियों में सुधार का आह्वान किया गया है।
    • बच्चों की सुरक्षित देखभाल के लिए कुशल स्वास्थ्य कर्मियों और उचित सुविधाओं की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।

प्रासंगिकता

  • वैश्विक प्रतिबद्धता: विश्व रोगी सुरक्षा दिवस, 2025 सरकारों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और समाज के लिए एक अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है कि वे वैश्विक स्तर पर नवजात शिशुओं और बच्चों की सुरक्षा को प्राथमिकता देना।
  • कमजोर आबादी: नवजात शिशुओं और बच्चों की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करता है, जिन्हें अपरिपक्व प्रतिरक्षा प्रणाली, अनुभवहीन देखभालकर्ताओं और सीमित स्वास्थ्य सेवा पहुँच के कारण नुकसान का अधिक जोखिम होता है।

रोगी सुरक्षा के बारे में

  • परिभाषा: रोगी सुरक्षा का तात्पर्य स्वास्थ्य सेवा प्रदान करते समय होने वाली त्रुटियों, प्रतिकूल घटनाओं और रोगियों को होने वाले नुकसान की रोकथाम से है। यह सुनिश्चित करता है कि स्वास्थ्य सेवा हस्तक्षेप, रोगियों के जीवन या कल्याण को खतरे में न डालें।
    • विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, ‘किसी को नुकसान न पहुँचाने’ का सिद्धांत रोगी सुरक्षा का मूल आधार है। हालाँकि इसके चिकित्सा लाभ अलग-अलग होते हैं।
  • प्रमुख पहलू
    • त्रुटि निवारण: निदान, उपचार और औषधि प्रशासन में चिकित्सीय त्रुटियों को कम करना।
    • सुरक्षित व्यवहार: मानक प्रोटोकॉल, संक्रमण नियंत्रण और सुरक्षित शल्य चिकित्सा पद्धतियों का कार्यान्वयन।
    • निगरानी एवं रिपोर्टिंग: जोखिमों की पहचान करने और देखभाल की गुणवत्ता में सुधार के लिए घटना रिपोर्टिंग प्रणालियाँ स्थापित करना।
    • प्रशिक्षण एवं जागरूकता: स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों और रोगियों को सुरक्षा प्रोटोकॉल के बारे में शिक्षित करना।
  • संबंधित परिदृश्य
    • वैश्विक चुनौती: स्वास्थ्य सेवा में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद, पूरे विश्व में लाखों लोग अभी भी असुरक्षित उपचार प्राप्त करते हैं।
      • वैश्विक स्तर पर, अस्पताल में भर्ती 10 में से 1 मरीज और बाह्य-रोगियों में से 4 को नुकसान पहुँचता है, जिससे विशेष रूप से भारत में, जहाँ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, मजबूत रोगी सुरक्षा ढाँचे की आवश्यकता है।

भारत के लिए रोगी सुरक्षा क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • क्षति संबंधी उच्च घटना: विश्व स्तर पर, अस्पताल में भर्ती 10% मरीज और 40% बाह्य-रोगी असुरक्षित स्वास्थ्य सेवा प्रथाओं के कारण नुकसान का सामना करते हैं। भारत में, व्यस्त अस्पतालों और अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे जैसी प्रणालीगत चुनौतियों के कारण यह दर अधिक होने की संभावना है।
  • महामारी विज्ञान संबंधी बदलाव और उपचार की जटिलता: भारत संक्रामक रोगों (जैसे- टीबी, मलेरिया) से जीवनशैली संबंधी बीमारियों (जैसे- मधुमेह, हृदय रोग, कैंसर) की ओर बदलाव का अनुभव कर रहा है, जिनके लिए दीर्घकालिक उपचार और बहु-विशिष्ट देखभाल की आवश्यकता होती है।
    • इससे देखभाल की जटिलता और सुरक्षा चूक की संभावना बढ़ जाती है।
  • रोगी सुरक्षा जोखिम में वृद्धि: पुरानी बीमारियों के प्रबंधन के लिए विभिन्न विशेषज्ञताओं में समन्वित देखभाल की आवश्यकता होती है, जिससे त्रुटियों, गलत संचार और समय पर हस्तक्षेप की कमी की संभावना बढ़ जाती है, जिससे सुरक्षा जोखिम पैदा होते हैं।
  • असुरक्षित चिकित्सा पद्धतियाँ: असुरक्षित इंजेक्शन, दवा की त्रुटियाँ और अस्पताल से होने वाले संक्रमण जैसे मुद्दे भारत में रोगी को होने वाले नुकसान में महत्त्वपूर्ण रूप से योगदान करते हैं।
    • अस्वच्छता की कमी, गलत नुस्खे और अपर्याप्त प्रशिक्षण इन जोखिमों को बढ़ा देते हैं।
  • अत्यधिक बोझ से दबी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली: ग्रामीण क्षेत्रों में 10,000 लोगों पर एक डॉक्टर होने के कारण, भारतीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर अत्यधिक दबाव है, जिससे त्रुटिपूर्ण देखभाल की समस्या पैदा होती है।
    • इसके अतिरिक्त, केवल 5% भारतीय अस्पताल ही NABH द्वारा मान्यता प्राप्त हैं, जिससे रोगी सुरक्षा मानकों पर और भी अधिक समझौता होता है।
  • आर्थिक और सामाजिक प्रभाव: असुरक्षित स्वास्थ्य सेवा प्रथाओं के कारण अस्पताल में रहने की अवधि और चिकित्सा लागत बढ़ जाती है, जिससे परिवारों पर वित्तीय बोझ पड़ता है।
    • इसके अलावा, एक मजबूत सुरक्षा संस्कृति का अभाव स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में जनता के विश्वास को कम करता है।

भारत में रोगी को होने वाले नुकसान के प्रमुख रूप

  • अस्पताल-जनित संक्रमण (Hospital-Acquired Infections -HAI): अस्पतालों में होने वाले संक्रमण, जैसे कि ICU में वेंटिलेटर संबंधी संक्रमण, जो अस्वच्छता के कारण होते हैं।
  • असुरक्षित इंजेक्शन: सिरिंज का बार-बार प्रयोग करने से एचआईवी और हेपेटाइटिस बी जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं।
  • दवा संबंधी त्रुटियाँ: गलत नुस्खे, गलत खुराक और दवाओं के बीच प्रतिकूल प्रतिक्रिया।
  • विलंबित निदान: गलत निदान, जैसे कि डेंगू को सामान्य बुखार समझ लेना।

रोगी सुरक्षा को मजबूत करने के लिए भारत द्वारा उठाए गए कदम

  • राष्ट्रीय रोगी सुरक्षा कार्यान्वयन ढाँचा (वर्ष 2018-वर्ष 2025): यह ढाँचा रोगी सुरक्षा को प्राथमिकता देने, प्रतिकूल घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिए प्रणालियाँ शुरू करने और गुणवत्ता मानक स्थापित करने का एक रोडमैप है।
  • अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के लिए राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड (National Accreditation Board for Hospitals and Healthcare Providers- NABH): NABH सुरक्षा मानकों के आधार पर अस्पतालों का ऑडिट करता है, हालाँकि 5% से भी कम भारतीय अस्पताल पूरी तरह से मान्यता प्राप्त हैं, जो सुधार की काफी संभावना दर्शाता है।
  • फार्माकोविजिलेंस नेटवर्क: भारत की फार्माकोविजिलेंस सोसायटी और अन्य नेटवर्क प्रतिकूल दवा प्रतिक्रियाओं की निगरानी करते हैं, जिससे सुरक्षित दवा पद्धतियाँ सुनिश्चित होती हैं।
  • गैर-सरकारी संगठनों की भागीदारी: ‘पेशेंट्स फॉर पेशेंट सेफ्टी’ फाउंडेशन जैसे गैर-सरकारी संगठन, भारत के 1,100 से अधिक अस्पतालों में जागरूकता बढ़ाते हैं और सुरक्षित स्वास्थ्य सेवा पद्धतियों को बढ़ावा देते हैं।

स्वास्थ्य सेवा को सुरक्षित बनाने के लिए वैश्विक पहल

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) वैश्विक रोगी सुरक्षा कार्य योजना (वर्ष 2021- वर्ष 2030): इसका उद्देश्य सुरक्षित देखभाल सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों को मजबूत करके वैश्विक स्तर पर रोगियों को होने वाले नुकसान को कम करना है।
    • मुख्य लक्षित क्षेत्र
      • राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणालियों का निर्माण।
      • सुरक्षा में रोगी की भागीदारी को बढ़ावा देना।
      • सुरक्षा प्रोटोकॉल पर स्वास्थ्य सेवा कर्मियों की शिक्षा को बढ़ावा देना।
      • सुरक्षित शल्य चिकित्सा और दवा सुरक्षा को बढ़ावा देना।
  • ‘सुरक्षित सर्जरी जीवन बचाती है’ पहल: विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा शुरू की गई यह पहल शल्य चिकित्सा प्रक्रियाओं की सुरक्षा में सुधार लाने पर केंद्रित है।
    • मुख्य रणनीतियाँ
      • शल्य चिकित्सा संबंधी जटिलताओं को कम करने के लिए शल्य चिकित्सा सुरक्षा जाँच सूची प्रस्तुत करना।
      • शल्य चिकित्सा के दौरान सुरक्षित प्रथाओं और संक्रमण नियंत्रण को बढ़ावा देना।
  • वैश्विक रोगी सुरक्षा नेटवर्क (Global Patient Safety Network- GPSN): GPSN रोगी सुरक्षा पहलों पर काम करने वाले देशों और संगठनों को ज्ञान तथा सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के लिए एक मंच प्रदान करता है।
    • फोकस: यह अस्पतालों में रोगी सुरक्षा प्रथाओं के कार्यान्वयन का समर्थन करता है और रोगी को होने वाली हानि को न्यूनतम करने के लिए सहयोगात्मक प्रयासों को प्रोत्साहित करता है।
  • रोगी सुरक्षा आंदोलन फाउंडेशन: इस गैर-लाभकारी संगठन का उद्देश्य अस्पतालों में सर्वोत्तम प्रथाओं को बढ़ावा देकर और नीतिगत परिवर्तनों का समर्थन करके रोकी जा सकने वाली रोगी मौतों को कम करना है।
    • मुख्य कार्य
      • अस्पतालों के लिए सुरक्षा प्रोटोकॉल।
      • अस्पताल सुरक्षा में सुधार के लिए नीतिगत सुधारों पर जोर देना।
      • चिकित्सा त्रुटियों को कम करने के लिए उपकरण प्रदान करना, जिसमें स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के लिए चेकलिस्ट और सुरक्षा प्रशिक्षण शामिल हैं।
  • स्वास्थ्य देखभाल में गुणवत्ता के लिए अंतरराष्ट्रीय सोसायटी (International Society for Quality in Health Care-ISQua): ISQua मान्यता और शिक्षा के माध्यम से देखभाल की गुणवत्ता और रोगी सुरक्षा में सुधार के लिए कार्य करता है।
    • मुख्य गतिविधियाँ
      • विश्व स्तर पर स्वास्थ्य सेवा संगठनों को मान्यता प्रदान करना।
      • गुणवत्ता सुधार और रोगी सुरक्षा मानकों पर प्रशिक्षण प्रदान करना।
  • वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंडा (Global Health Security Agenda- GHSA): इसका उद्देश्य वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा को बढ़ाना है, जिसमें विशेषतः महामारी जैसी आपात स्थितियों के दौरान स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों की सुरक्षा भी शामिल है।
    • लक्षित क्षेत्र
      • मजबूत स्वास्थ्य प्रणालियों का निर्माण।
      • इबोला या कोविड-19 के प्रकोप जैसी संकटकालीन स्थितियों में भी सुरक्षित स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करना।

भारत में रोगी सुरक्षा संबंधी चुनौतियाँ

  • अत्यधिक बोझिल स्वास्थ्य सेवा प्रणाली: डॉक्टरों की कम संख्या और लंबी शिफ्टों के कारण, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, थकान और त्रुटि-प्रवण देखभाल होती है।
  • सांस्कृतिक और सामाजिक बाधाएँ: स्वास्थ्य सेवा के प्रति मरीजों का निष्क्रिय दृष्टिकोण प्रायः मरीजों और डॉक्टरों के बीच सूचना की असमानता से उपजा है, जहाँ मरीज विश्वास तथा कम स्वास्थ्य साक्षरता के कारण उपचारों पर सवाल उठाने से हिचकिचाते हैं।
  • सीमित गुणवत्ता मानक: हालाँकि NABH मानक निर्धारित करता है, लेकिन व्यापक मान्यता का अभाव अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता में काफी भिन्नता का कारण बनता है।
  • प्रौद्योगिकी का अप्रभावी उपयोग: यद्यपि कृत्रिम बुद्धिमत्ता और डिजिटल स्वास्थ्य अभिलेखों में अपार संभावनाएँ निहित हैं, किंतु अनेक अस्पतालों में इनका सीमित उपयोग रोगी सुरक्षा में प्रगति को बाधित करता है।
  • अपर्याप्त स्टाफिंग: कई वार्डों में, पर्याप्त स्टाफ की कमी (जैसे- 40 मरीजों पर 2 नर्सें) देखभाल की गुणवत्ता को कम करती है।
  • मरीजों की निष्क्रियता: डॉक्टरों के प्रति सांस्कृतिक लगाव, कम स्वास्थ्य साक्षरता के कारण कई मरीजों को प्रश्न पूछने या चिकित्सा उपचारों को समझने से रोकती है।

आगे की राह

  • डेटा सिस्टम को मजबूत बनाना: रोगी सुरक्षा निगरानी और निर्णय लेने की प्रक्रिया में सुधार के लिए कई सर्वेक्षणों (जैसे- NSS, NFHS, CES) से प्राप्त रियल-टाइम डेटा को एकीकृत करना।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि: बेहतर बुनियादी ढाँचा, पर्याप्त स्टाफ और बेहतर रोगी देखभाल सुनिश्चित करने के लिए GHE (सरकारी स्वास्थ्य व्यय) बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना।
  • रोगी सुरक्षा पहलों का विस्तार करना: NABH मान्यता को और अधिक अस्पतालों तक बढ़ाना, जिससे रोगी सुरक्षा प्रोटोकॉल पूरे देश में एक मानक बन जाना।
  • रोगियों को सशक्त बनाना: रोगियों और उनके परिवारों को प्रश्न पूछकर, चिकित्सा रिकॉर्ड बनाए रखकर और घर पर सुरक्षित प्रथाओं का पालन करके स्वास्थ्य सेवा में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना।
  • तकनीकी समाधान अपनाना: दवा संबंधी त्रुटियों को कम करने, रोगी की सही पहचान सुनिश्चित करने और उपचार की सटीकता बढ़ाने के लिए एआई-संचालित उपकरणों और क्यूआर कोड-आधारित प्रणालियों का लाभ उठाना।
  • सांस्कृतिक बदलाव को बढ़ावा देना: रोगी की निष्क्रिय भागीदारी से अधिक सक्रिय भागीदारी की ओर बदलाव, जहाँ रोगियों को चर्चाओं में शामिल होने और सूचित स्वास्थ्य सेवा विकल्प चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

निष्कर्ष

स्वास्थ्य सेवा में सुरक्षा की संस्कृति का निर्माण करने के लिए प्रदाताओं, रोगियों, परिवारों और समाज के सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। NABH जैसी पहलों से प्रगति तो दिख रही है, लेकिन भारत को सुरक्षित स्वास्थ्य सेवा के लिए गुणवत्ता, स्टाफिंग और रोगी सहभागिता में कमियों को दूर करना होगा।

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