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Sep 23 2025

ट्रॉपिकल फॉरेस्ट्स फॉरेवर फैसिलिटी (TFFF) 

हाल ही में, ब्राजील ट्रॉपिकल फॉरेस्ट्स फॉरेवर फैसिलिटी (TFFF) में निवेश की घोषणा करने वाला पहला देश बनने जा रहा है।

ट्रॉपिकल फॉरेस्ट्स फॉरेवर फैसिलिटी (TFFF) के बारे में

  • यह पूरे विश्व में संकटग्रस्त वनों के संरक्षण का समर्थन करने हेतु प्रस्तावित बहुपक्षीय कोष  है।
  • लक्ष्य: ‘ब्लेंडेड फाइनेंस’ के माध्यम से 125 अरब डॉलर एकत्रित करना, जिसमें सार्वजनिक वित्त (जैसे- आधिकारिक विकास सहायता (ODA) और निजी पूँजी दोनों शामिल हों।
  • राजस्व उपयोग: उत्पन्न राजस्व उष्णकटिबंधीय वन आधारित देशों (TFCs) को प्रति हेक्टेयर वन के हिसाब से भुगतान किया जाता है, जिसे वनों की कटाई या क्षरण के लिए समायोजित किया जाता है।
  • समुदायों के लिए समर्थन: कम-से-कम 20% भुगतान स्वदेशी जनजातियों और स्थानीय समुदायों (IPLCs) को आवंटित किया जाता है, शेष धनराशि राष्ट्रीय वन नीतियों का समर्थन करती है।

वित्तीय तंत्र

  • फंड संरचना: यह ट्रॉपिकल फॉरेस्ट इन्वेस्टमेंट फंड (TFIF) के माध्यम से संचालित होता है, जो निम्न स्रोतों से धन एकत्र करता है:
    • प्रायोजक (Sponsors): उच्च-आय वाले देश और परोपकारी संस्थाएँ (कुल का 20%), जो रियायती वित्त प्रदान करते हैं।
    • बाजार निवेशक: संस्थागत निवेशक, संप्रभु संपत्ति कोष और निधियाँ (कुल का 80%), जो ऋण साधनों के माध्यम से निवेश करते हैं।
  • फंड प्रबंधन: धन का प्रबंधन एक बहुपक्षीय विकास बैंक (MDB), जैसे विश्व बैंक, द्वारा किया जाता है।
  • राजस्व उत्पन्न: राजस्व निवेशों और ऋण सेवा के बीच ब्याज-दर में अंतर से उत्पन्न होता है, जो TFCs को परिणाम-आधारित भुगतान का आधार बनता है।
  • भुगतान समायोजन: भुगतान का वार्षिक रूप से मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजन किया जाता है और बाजार अस्थिरता के कारण इसे घटाया भी जा सकता है।

वैश्विक समर्थन

  • चीन ने जुलाई 2025 में अपना प्रारंभिक योगदान देने की घोषणा की, जो जलवायु वित्त के उत्तरदायित्त्व को केवल समृद्ध देशों से हटाकर साझा करने की दिशा में संभावित परिवर्तन का संकेत देता है।
  • रुचि दिखाने वाले अन्य देशों में यूनाइटेड किंगडम, फ्राँस, जर्मनी, नॉर्वे, सिंगापुर और यूएई शामिल हैं।

इंडस्ट्रियल पार्क रेटिंग सिस्टम (IPRS 3)  3.0

मेक इन इंडिया की 10वीं वर्षगाँठ के अवसर पर केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री ने इंडस्ट्रियल पार्क रेटिंग सिस्टम (IPRS 3) लॉन्च किया।

इंडस्ट्रियल पार्क रेटिंग सिस्टम (IPRS) के बारे में

  • लॉन्च: वर्ष 2018 (IPRS 1.0)
  • उद्देश्य: औद्योगिक पार्कों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों (SEZs) का मूल्यांकन और रैंकिंग करना।
  • चार मूल्यांकन स्तंभ
    • आंतरिक अवसंरचना और उपयोगिताएँ
    • बाह्य अवसंरचना और सुविधाएँ
    • व्यावसायिक समर्थन सेवाएँ
    • पर्यावरण और सुरक्षा प्रबंधन
  • श्रेणीकरण: पार्क और SEZs को लीडर्स (Leaders), चैलेंजर्स (Challengers) और एस्पिरेंट (Aspirants) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
  • विकसितकर्ता: उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्द्धन विभाग (DPIIT), एशियाई विकास बैंक (ADB) एवं केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय।
  • एकीकरण: राज्य/केंद्रशासित प्रदेशों की उद्योग-विशिष्ट GIS प्रणाली से एकीकृत, जिससे रीयल-टाइम, प्लॉट-स्तरीय अपडेट प्राप्त होते हैं।
  • IPRS 2.0 (2021): DPIIT द्वारा प्रारंभ, पायलट निष्कर्षों और वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं को शामिल करते हुए प्रणाली को उन्नत किया गया, इसमें अंतरराष्ट्रीय औद्योगिक पार्क और इको-इंडस्ट्रियल पार्क ढाँचे संबंधी दिशानिर्देश शामिल।
  • प्रमुख विशेषताएँ
    • GIS-आधारित: भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) तकनीक का उपयोग कर निवेशकों को पसंदीदा निवेश स्थान पहचानने में मदद करता है।
    • IILB का विस्तार: IPRS, इंडिया इंडस्ट्रियल लैंड बैंक (IILB) पर आधारित है, जो 4,500 से अधिक औद्योगिक पार्कों को कवर करता है।

IPRS 3.0 का उद्देश्य

  • औद्योगिक पार्कों का अवसंरचना, प्रतिस्पर्द्धात्मकता, स्थिरता और निवेशक-मित्रता पर मानकीकरण और मूल्यांकन करना।
  • सर्वोत्तम प्रथाओं को बढ़ावा देना और हितधारकों को सूचित निर्णय लेने हेतु विश्वसनीय डेटा प्रदान करना।
  • मेक इन इंडिया को सशक्त करना, विश्व-स्तरीय औद्योगिक अवसंरचना तैयार करना और भारत की वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता को सुधारना।
  • विस्तारित मापदंड: स्थिरता, हरित अवसंरचना, लॉजिस्टिक कनेक्टिविटी, डिजिटलाइजेशन, कौशल लिंक, और किरायेदारों की प्रतिक्रिया को शामिल किया गया।

लॉजिस्टिक्स डेटा बैंक (LDB)

हाल ही में, केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री ने लॉजिस्टिक्स डेटा बैंक (LDB) 2.0 लॉन्च किया।

लॉजिस्टिक्स डेटा बैंक (LDB)

  • यह एक अगली पीढ़ी का डिजिटल प्लेटफॉर्म है, जिसे लॉजिस्टिक्स दक्षता बढ़ाने, आपूर्ति शृंखला की पारदर्शिता सुधारने और भारत की निर्यात प्रतिस्पर्द्धात्मकता को समर्थन देने के लिए डिजाइन किया गया है।
  • परिचय: वर्ष 2016 में रीयल-टाइम कंटेनर ट्रैकिंग के लिए शुरू किया गया।
  • प्रौद्योगिकी: पोर्ट, राजमार्ग और रेलवे पर RFID तकनीक और उन्नत ट्रैकिंग प्रणाली का उपयोग किया गया है।
  • सुविधा: कंटेनर स्थानों पर रीयल-टाइम अपडेट उपलब्ध कराता है।
  • नोडल मंत्रालय: केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय (भारत सरकार)।

तकनीकी क्षमताएँ

  • हाई-सीज कंटेनर ट्रैकिंग: निर्यातकों को भारतीय बंदरगाहों से प्रस्थान के बाद कंटेनरों की निगरानी करने में सक्षम बनाता है।
  • मल्टी-मोडल शिपमेंट विजिबिलिटी: कंटेनर नंबर, ट्रक/ट्रेलर आईडी और रेलवे फ्रेट नंबर रिकॉर्ड  (FNRs) का उपयोग कर सड़क, रेल और समुद्र मार्ग पर कंटेनरों की निगरानी करता है।
  • लाइव कंटेनर हीटमैप: अवरोधों और रसद असंतुलन की पहचान करने के लिए स्थान-आधारित वितरण को विजुअलाइज करता है।
  • निर्बाध डेटा पहुँच के लिए ‘यूनिफाइड लॉजिस्टिक्स इंटरफेस प्लेटफॉर्म’ (ULIP) APIs के साथ एकीकरण।

संस्थागत व्यवस्था

  • विकसितकर्ता: NICDC लॉजिस्टिक्स डेटा सर्विसेज (NLDSL)।
  • वैश्विक बाजारों में विश्वसनीयता और समन्वय बढ़ाकर MSME और निर्यातकों को समर्थन प्रदान करना।

वर्ष 2023 के लिए दादासाहेब फाल्के पुरस्कार

भारतीय प्रधानमंत्री ने श्री मोहनलाल जी को वर्ष 2023 के दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किए जाने पर बधाई दी, जो सिनेमा के क्षेत्र में प्रदान किया जाने वाला भारत का सर्वोच्च सम्मान है।

दादासाहेब फाल्के पुरस्कार के बारे में

  • उद्देश्य: भारत सरकार द्वारा दादासाहेब फाल्के के सम्मान में स्थापित, जिन्होंने भारत की पहली पूर्ण फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र (वर्ष 1913) का निर्देशन किया।
  • प्रतिवर्ष भारत सरकार द्वारा ‘भारतीय सिनेमा के विकास और प्रगति में उत्कृष्ट योगदान’ हेतु प्रदान किया जाता है।
  • महत्व: भारतीय फिल्म उद्योग में सर्वोच्च सम्मान माना जाता है।
  • प्रथम प्राप्तकर्ता: देविका रानी चौधरी, ​​जिन्हें ‘भारतीय सिनेमा की प्रथम महिला’ के रूप में जाना जाता है।
  • पुरस्कार के घटक: ‘स्वर्ण कमल’ ट्रॉफी, ₹10 लाख नकद, प्रशस्ति-पत्र, एवं शॉल।
  • प्रदानकर्त्ता: भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जाता है।

मोहनलाल के बारे में

  • पेशा: अभिनेता, निर्माता और पार्श्वगायक जो मुख्यतः मलयालम सिनेमा में सक्रिय है।
  • करियर अवधि: लगभग पाँच दशकों का करियर, जिसमें 360 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया है।
  • प्रमुख फिल्म: किरीदम, भरतम, वनप्रस्थम, दृश्यम आदि।
  • प्रतिष्ठा: अपनी बहुमुखी प्रतिभा के कारण व्यापक रूप से ‘द कम्प्लीट एक्टर’ कहलाते हैं।

पुरस्कार और सम्मान

  • पद्मश्री (वर्ष 2001) और पद्मभूषण (वर्ष 2019)
  • 5 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
  • अनेक केरल राज्य फिल्म पुरस्कार
  • भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त।

अंतरराष्ट्रीय मान्यता

  • वनप्रस्थम (वर्ष 1999) को कान फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित किया गया।

संदर्भ

हाल ही में, जर्मनी स्थित जुपिटर (JUPITER) यूरोप का पहला एक्सास्केल सुपरकंप्यूटर बना।

सुपरकंप्यूटर के बारे में

  • सुपरकंप्यूटर एक अत्यधिक उन्नत कंप्यूटिंग प्रणाली है, जिसे अत्यंत बड़े पैमाने के, जटिल एवं गणना-गहन कार्यों को करने के लिए डिजाइन किया गया है, जिन्हें सामान्य कंप्यूटर कुशलतापूर्वक नहीं कर सकते।
  • मूल सिद्धांत- पैरेलल कंप्यूटिंग (Parallel Computing): सिंगल प्रोसेसर पर निर्भर रहने के स्थान पर, सुपरकंप्यूटर एक साथ कार्य करने वाले हजारों से लेकर लाखों प्रोसेसर (CPU एवं GPU) का प्रयोग करते हैं।
    • यह पैरेलल कंप्यूटिंग आर्किटेक्चर समस्या के छोटे हिस्सों को स्वतंत्र रूप से हल करने की अनुमति देता है, जिसके परिणामों को तेज एवं अधिक कुशल गणना के लिए एकत्रित किया जाता है।
  • संरचना एवं घटक
    • प्रोसेसर: CPU सामान्य कार्यों का प्रबंधन करते हैं, जबकि GPU वैज्ञानिक सिमुलेशन में उपयोग की जाने वाली गणितीय संक्रियाओं को कुशलतापूर्वक संसाधित करते हैं।
    • नोड्स: मेमोरी वाले प्रोसेसर के समूह छोटी कंप्यूटिंग इकाइयों के रूप में कार्य करते हैं, जबकि सुपरकंप्यूटर में हजारों नोड्स होते हैं।
    • हाई-स्पीड नेटवर्क: नोड्स अल्ट्रा-फास्ट डेटा लिंक के माध्यम से आपस में जुड़े होते हैं, जिससे निर्बाध डेटा एक्सचेंज संभव होता है।
    • मेमोरी एवं स्टोरेज: प्रत्येक नोड में स्थानीय मेमोरी होती है, एवं बड़े पैमाने पर स्टोरेज सिस्टम पेटाबाइट्स डेटा को संभालते हैं, जिससे हजारों नोड्स में व्यवस्थित रीड/राइट ऑपरेशन सुनिश्चित होते हैं।
    • कूलिंग सिस्टम: उच्च कंप्यूटिंग से अत्यधिक ऊष्मा उत्पन्न होती है, जिसके लिए लिक्विड इमर्शन, वाटर पाइप्स, ऑर रेफ्रिजरेशन यूनिट्स की आवश्यकता होती है।
    • विद्युत आपूर्ति: सुपरकंप्यूटर एक छोटे शहर के बराबर मेगावाट विद्युत की खपत करते हैं, जिसके लिए कुशल बिजली वितरण की आवश्यकता होती है।
  • सॉफ्टवेयर एवं कार्य प्रबंधन
    • पैरलल प्रोग्रामिंग: मैसेज पासिंग इंटरफेस (MPI) एवं OpenMP जैसी लैग्वेज, प्रोसेसरों के बीच कार्यों को शेड्यूल करती हैं।
    • लोड संतुलन: एल्गोरिदम कम्प्यूटेशनल लोड का समान वितरण सुनिश्चित करते हैं, जिससे निष्क्रिय प्रोसेसर से बचा जा सकता है।
    • कार्य शेड्यूलिंग: उपयोगकर्ता दूरस्थ रूप से ‘वर्क स्क्रिप्ट’ सबमिट करते हैं, जिसमें गणना संबंधी आवश्यकताएँ निर्दिष्ट होती हैं। एक शेड्यूलर नोड्स को कार्य सौंपता है, जिससे दक्षता का अनुकूलन होता है।
  • प्रदर्शन मेट्रिक्स: फ्लॉप (प्रति सेकंड फ्लोटिंग-पॉइंट ऑपरेशन) में मापा जाता है।
    • शीर्ष सुपरकंप्यूटर: एक्साफ्लॉप्स, प्रति सेकंड क्विंटिलियन ऑपरेशन करते हैं, जो किसी भी व्यक्ति द्वारा कैलकुलेटर का उपयोग करके पूरे जीवनकाल में की जा सकने वाली गणना से कहीं अधिक है।
    • फ्लॉप्स कंप्यूटर के कम्प्यूटेशनल प्रदर्शन की एक माप है, जो दर्शाता है कि वह एक सेकंड में कितनी फ्लोटिंग-पॉइंट गणनाएँ कर सकता है।
  • उपयोगकर्ता इंटरैक्शन
    • दूरस्थ पहुँच: सुपरकंप्यूटरों तक प्रायः टर्मिनल इंटरफेस का उपयोग करके सुरक्षित नेटवर्क के माध्यम से पहुँचा जाता है।
    • डेटा आउटपुट: इसके गणना परिणाम सुपरकंप्यूटर की फाइल प्रणाली में संग्रहीत किए जाते हैं, जिन्हें बाद में विश्लेषण एवं विजुअलाइजेशन के लिए डाउनलोड किया जाता है।

सुपर कंप्यूटर एवं सामान्य कंप्यूटर के बीच अंतर

विशेषता सामान्य कंप्यूटर सुपर कंप्यूटर
उद्देश्य ब्राउजिंग, टाइपिंग या गेमिंग जैसे दैनिक कार्य बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक, औद्योगिक एवं रक्षा संगणनाएँ
प्रसंस्करण सिंगल या मल्टी प्रोसेसर हजारों से लाखों प्रोसेसर समानांतर रूप से कार्य करते हैं
गति अरबों FLOPS एक्साफ्लॉप्स, क्विंटिलियन ऑपरेशन/सेकंड
स्मृति भंडारण गीगाबाइट (Gigabytes- GBs) से टेराबाइट ( Terabytes- TBs) विशेष उच्च गति फाइल सिस्टम के साथ पेटाबाइट्स
शीतलक मानक वायु शीतलन उन्नत तरल शीतलन, प्रशीतन
बिजली का उपयोग न्यूनतम मेगावाट, छोटे शहरों के बराबर
उपयोगकर्ता की पहुंच प्रत्यक्ष, GUI-आधारित दूरस्थ, टर्मिनल-आधारित, कार्य अनुसूचक प्रबंधित

सुपरकंप्यूटिंग के क्षेत्र में भारत की राह

  • उत्पत्ति: पश्चिमी देशों द्वारा उच्च-स्तरीय सुपरकंप्यूटर के निर्यातों से इनकार करने के बाद 1980 के दशक के उत्तरार्ध में इसकी शुरुआत हुई, जिसके परिणामस्वरूप स्वदेशी विकास के लिए वर्ष 1988 में उन्नत कंप्यूटिंग विकास केंद्र (Centre for Development of Advanced Computing- C-DAC) की स्थापना हुई।
  • परम श्रृंखला: परम 8000 (वर्ष 1991) भारत का पहला स्वदेशी सुपरकंप्यूटर था, जिसने पैरेलल कंप्यूटिंग आर्किटेक्चर में अग्रणी भूमिका निभाई।
  • राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटिंग मिशन (NSM): विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) तथा इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) द्वारा वर्ष 2015 में शुरू किया गया, जिसका उद्देश्य टेराफ्लॉप से ​​पेटाफ्लॉप क्षमता वाली 70 से अधिक उच्च-प्रदर्शन कंप्यूटिंग (HPC) सुविधाएँ स्थापित करना है।
  • प्रमुख सुपरकंप्यूटर
    • C-DAC पुणे में AI अनुसंधान विश्लेषण एवं ज्ञान प्रसार मंच – विज्ञान तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता को सशक्त बनाना (AI Research Analytics and Knowledge Dissemination Platform – Powering Science and Artificial Intelligence- AIRAWAT-PSA)
    • भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (IITM), पुणे में प्रत्युष (Pratyush) एवं राष्ट्रीय मध्यम अवधि मौसम पूर्वानुमान केंद्र (NCMRWF), नोएडा में मिहिर – मौसम, जलवायु, महासागर एवं वैज्ञानिक सिमुलेशन के लिए उपयोग किए जाते हैं।

एक्सास्केल सुपरकंप्यूटर ऐसी मशीनें हैं, जो कम-से-कम एक एक्साफ्लॉप (प्रति सेकंड 10¹⁸ फ्लोटिंग-पॉइंट ऑपरेशन) करने में सक्षम हैं, जो उन्हें ‘पेटास्केल मशीनों’ की तुलना में एक हजार गुना अधिक शक्तिशाली बनाता है।

  • तकनीकी सहयोग: भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IITs) एवं निजी विक्रेताओं के साथ साझेदारी में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), रक्षा तथा वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए रुद्र सर्वर एवं AUM HPC नोड्स विकसित किए जाएँगे।
    • AUM भारत के राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटिंग मिशन के अंतर्गत विशिष्ट स्वदेशी HPC आर्किटेक्चर/नाम को संदर्भित करता है।

सुपरकंप्यूटरों का महत्त्व

  • वैज्ञानिक उन्नति: ब्रह्मांड विज्ञान, आणविक गतिकी एवं जलवायु प्रणालियों के सिमुलेशन को सक्षम बनाना।
  • रक्षा एवं सुरक्षा: वॉर-गेम सिमुलेशन, परमाणु अनुसंधान एवं रणनीतिक योजना के लिए महत्त्वपूर्ण।
  • तकनीकी नेतृत्व: राष्ट्रीय नवाचार एवं तकनीकी कौशल का प्रदर्शन, वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता को प्रभावित करना।
  • आपदा प्रबंधन: मानसून का पूर्वानुमान, बाढ़ मॉडलिंग एवं भूकंप सिमुलेशन में सहायता।

सुपरकंप्यूटर की आवश्यकता

  • डेटा-गहन अनुसंधान: आधुनिक विज्ञान उच्च-प्रदर्शन संगणन की आवश्यकता वाले बिग डेटासेट उत्पन्न करता है।
  • AI एवं मशीन लर्निंग: बड़े न्यूरल नेटवर्क का प्रशिक्षण केवल HPC प्लेटफॉर्म पर ही संभव है।
  • वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता: सुपरकंप्यूटिंग क्षमताओं वाले राष्ट्र रणनीतिक, आर्थिक एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों में प्रभुत्व रखते हैं।
  • जलवायु एवं मौसम पूर्वानुमान: सटीक पूर्वानुमान के लिए उच्च-गति सिमुलेशन एवं रियल टाइम  विश्लेषण की आवश्यकता होती है।

वैश्विक पहल एवं विश्व की सर्वोत्तम प्रथाएँ:

  • एक्सास्केल कंप्यूटिंग: JUPITER (जर्मनी) जैसी मशीनें नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके 1 एक्साफ्लॉप से ​​अधिक गति प्राप्त करती हैं। 
  • न्यूरोमॉर्फिक कंप्यूटिंग: ब्रेन इंस्पायर्ड आर्किटेक्चर एक ही चिप पर प्रोसेसिंग एवं मेमोरी को एकीकृत करते हैं, जिससे गति एवं ऊर्जा दक्षता में सुधार होता है।
  • क्वांटम कंप्यूटिंग एकीकरण: कुछ सिमुलेशन क्वांटम सिस्टम में स्थानांतरित हो सकते हैं, जिससे हार्डवेयर एवं ऊर्जा की आवश्यकता कम हो जाती है।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग: PRACE (EU) एवं INCITE (USA) जैसी साझेदारियाँ वैश्विक पहुँच तथा वैज्ञानिक सहयोग को सक्षम बनाती हैं।

संदर्भ

हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा  एक घोषणा पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके अनुसार H-1B वीजा आवेदकों से 100,000 डॉलर (लगभग 88 लाख रुपये) की फीस प्राप्त की जाएगी।

H-1B वीजा प्रोग्राम क्या है?

  • प्रकार: यह एक नॉन-इमिग्रेंट वीजा है जो अमेरिकी कंपनियों को सैद्धांतिक या तकनीकी विशेषज्ञता वाले विशेष पदों (STEM, IT, इंजीनियरिंग, फाइनेंस, आर्किटेक्चर) पर विदेशी कर्मचारियों को कार्य पर रखने की अनुमति देता है।
  • इसे वर्ष 1990 में अमेरिकी नियोक्ताओं को कौशल की कमी को पूरा करने में मदद करने के लिए शुरू किया गया था।
  • वीजा अवधि: शुरू में 3 वर्ष, जिसे 6 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। 6 वर्ष के बाद, वीजा धारकों को 12 महीने के लिए अमेरिका छोड़ना होगा या स्थायी निवास (ग्रीन कार्ड) के लिए आवेदन करना होगा।
  • वार्षिक सीमा
    • 65,000 नियमित H-1B वीजा।
    • 20,000 सीटें अमेरिकी विश्वविद्यालयों से उच्च डिग्री प्राप्त करने वालों के लिए आरक्षित।
    • छूट: उच्च शिक्षा संस्थान, संबद्ध गैर-लाभकारी संगठन, अनुसंधान संस्थान।
  • लॉटरी सिस्टम: जब आवेदन की संख्या निर्धारित सीमा से अधिक हो जाती है, तो आवेदकों का चयन यादृच्छिक लॉटरी के माध्यम से किया जाता है।
  • भारतीयों का दबदबा: वर्ष 2015 से, प्रत्येक वर्ष 70-72% अनुमोदन भारतीय बीजा आवेदनकर्ताओं को मिलते हैं, जबकि चीन को लगभग 12-13% अनुमोदन मिलते हैं।

भारत पर प्रभाव

  • IT इंडस्ट्री: ‘अमेरिकी कॉन्ट्रैक्ट’ में कमी के कारण राजस्व में गिरावट (150 बिलियन डॉलर का IT निर्यात क्षेत्र खतरे में)।
  • कुशल श्रमिक: भारतीय इंजीनियरों और पेशेवरों के लिए कम अवसर; रिवर्स ब्रेन ड्रेन की संभावना।
  • रेमिटेंस: अमेरिका में कार्य करने वाले भारतीयों से आने वाले धन में कमी।
  • कूटनीति: भारत व्यापार वार्ता में मोबिलिटी एग्रीमेंट की माँग कर सकता है; भारत-अमेरिका संबंधों में तनाव की संभावना।

अन्य अमेरिकी ‘गैर-इमिग्रेंट’ वीजा

वीजा श्रेणी

यात्रा का उद्देश्य

O

विज्ञान, कला, शिक्षा, व्यवसाय, एथलेटिक्स में असाधारण क्षमता

H-2A

अस्थायी कृषि श्रमिक

H-2B

अस्थायी मौसमी/सेवा कर्मी

B-2

पर्यटन, मनोरंजन, चिकित्सा यात्रा

V

कानूनी रूप से स्थायी निवासी के पति/पत्नी/बच्चे

संदर्भ

वर्ष 2025 में ब्राजील के ‘बेलेम’ में जलवायु और स्वास्थ्य पर आयोजित वैश्विक सम्मेलन में 90 देशों के प्रतिनिधियों ने ‘बेलेम हेल्थ एक्शन प्लान’ को अंतिम रूप देने के लिए एक साथ मिलकर कार्य किया।

जलवायु और स्वास्थ्य पर वैश्विक सम्मेलन के बारे में

  • स्थान: इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर, ब्रासिलिया, ब्राजील
  • आयोजक: ब्राजील सरकार, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और पैन अमेरिकन हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (PAHO)
  • महत्त्व: यह जलवायु और स्वास्थ्य पर परिवर्तनकारी कार्रवाई के लिए गठबंधन (Alliance for Transformative Action on Climate and Health- ATACH) की वार्षिक व्यक्तिगत बैठक थी।
  • मुख्य परिणाम
    • बेलेम हेल्थ एक्शन प्लान (COP30 में लॉन्च किया जाएगा) के मसौदे के लिए इनपुट देना।
    • प्लान का समर्थन करने के लिए ATACH के तहत देशों के दायित्वों को परिभाषित किया।
    • वैश्विक जलवायु कार्रवाई के मुख्य स्तंभ के रूप में स्वास्थ्य को स्थापित किया।
    • प्लान को लागू करने के लिए वैज्ञानिक दिशानिर्देश देना।
  • भारत की अनुपस्थिति: भारत का आधिकारिक रूप से प्रतिनिधित्व नहीं किया गया, जो जलवायु और स्वास्थ्य संबंधी खतरों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होने के बावजूद अपने विकास मॉडल को प्रदर्शित करने में असमर्थ रहा।

बेलेम हेल्थ एक्शन प्लान के बारे में

  • उद्देश्य: इस योजना का उद्देश्य एक वैश्विक रोडमैप निर्मित करना जिसे स्वास्थ्य संबंधी प्राथमिकताओं को व्यापक जलवायु एजेंडे में शामिल शामिल करना ।
  • सभी क्षेत्रों से संबंधित प्राथमिकताएँ
    • स्वास्थ्य समानता और जलवायु न्याय।
    • सामाजिक भागीदारी (महिलाएंँ, युवा, आदिवासी समुदाय, सुभेद्य वर्ग) के साथ बेहतर शासन।
  • प्रतिक्रिया 
    • निगरानी और शुरुआती चेतावनी: जलवायु संबंधी स्वास्थ्य निगरानी, ​​रियल-टाइम डेटा और दवाओं तथा वैक्सीन का रणनीतिक भंडारण।
    • साक्ष्य-आधारित नीति और क्षमता निर्माण: स्वास्थ्य कर्मियों को प्रशिक्षण, पाठ्यक्रम में जलवायु संबंधी सामग्री शामिल करना, लैंगिक दृष्टिकोण से अनुकूलन और समुदाय की अनुकूलित क्षमता।
    • नवाचार और उत्पादन: जलवायु-प्रतिरोधी बुनियादी ढांँचा, स्वास्थ्य सुविधाओं में नवीकरणीय ऊर्जा, सतत् आपूर्ति शृंखला और सुभेद्य समूहों के लिए न्यायसंगत परिवर्तन।
  • भारत का अनुभव क्यों महत्त्वपूर्ण है?
    • ये कार्यक्रम दर्शाते हैं कि गैर-स्वास्थ्य संबंधी हस्तक्षेप भी जलवायु चुनौतियों से निपटने के साथ-साथ स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण लाभ दे सकते हैं।
    • ये एक व्यावहारिक शासन मॉडल प्रदान करते हैं, जहाँ कल्याण, पर्यावरण और जन स्वास्थ्य एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।
    • भारत के कल्याण कार्यक्रम, भले ही वे जलवायु नीतियों के रूप में न हों, लेकिन उन्होंने स्वास्थ्य और जलवायु दोनों क्षेत्रों में उल्लेखनीय लाभ प्राप्त किए हैं, जो दुनिया भर में एकीकृत जलवायु-स्वास्थ्य शासन हेतु एक मानक प्रदान करते  हैं।

जलवायु-स्वास्थ्य शासन में भारत एक उदहारण के रूप में

  • राजनीतिक नेतृत्व नीति समन्वय सुनिश्चित करता है: उच्च-स्तरीय भागीदारी मंत्रालयों के बीच समन्वय को बढ़ावा देती है और कार्यान्वयन को तेज करती है।
    • उदाहरण: ‘स्वच्छ भारत’ और ‘पीएम उज्ज्वला योजना’ को प्रधानमंत्री का प्रत्यक्ष सहयोग  कई विभागों को एक साथ लाया और पूरे देश में सकारात्मक परिणाम दिए।
  • समुदाय की भागीदारी से जुड़ाव को बढ़ावा देता है: सांस्कृतिक मूल्यों और सतही स्तर पर भागीदारी से नीतियांँ अधिक प्रासंगिक और टिकाऊ बनती हैं।
    • उदाहरण: ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में गांधी जी के स्वच्छता के दृष्टिकोण को शामिल किया गया, जबकि ‘पीएम पोषण योजना’ सामुदायिक समर्थन के लिए ‘पेरेंट्स-टीचर्स एसोसिएशन’ पर निर्भर रही।
  • मौजूदा संस्थाओं का उपयोग से बेहतर डिलीवरी होती है: मौजूदा नेटवर्क का उपयोग करने से दोहराव से बचा जा सकता है और अंतिम स्तर तक पहुंँच सुनिश्चित होती है।
    • उदाहरण: आशा कार्यकर्ता, पंचायतें और स्व-सहायता समूह कल्याण कार्यक्रमों को लागू करने के लिए प्रभावी माध्यम बन गए।
  • वैश्विक दक्षिण के लिए उपयोगी मॉडल: भारत के कल्याण-आधारित हस्तक्षेप यह दर्शाते  हैं कि न्यूनतम लागत वाली नीतियों से किस प्रकार स्वास्थ्य, जलवायु और विकास के लक्ष्यों को एक साथ प्राप्त किया जा सकता है।
    • उदाहरण: PM पोषण (पोषण + जलवायु-प्रतिरोधी फसलें) और पीएम उज्ज्वला योजना (स्वच्छ ऊर्जा + स्वास्थ्य लाभ) जैसी योजनाएंँ ऐसा मार्ग प्रदान करती है, जिन्हें अन्य विकासशील देश SDG-3 (स्वास्थ्य), SDG-7 (स्वच्छ ऊर्जा) और SDG-13 (जलवायु कार्रवाई) के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपना सकते हैं।

भारत के कल्याणकारी कार्यक्रम और उनके जलवायु-स्वास्थ्य संबंधी सह-लाभ

हालाँकि इनमें से कोई भी योजना जलवायु परिवर्तन से संबंधित पहल के रूप में शुरू नहीं हुई थी, लेकिन इनसे स्वास्थ्य में सुधार के साथ-साथ पर्यावरण को भी अत्यधिक लाभ प्राप्त हुआ है।

  • प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (PMUY): भोजन पकाने के लिए बायोमास की जगह LPG का उपयोग शुरू होने से घरेलू वायु प्रदूषण और श्वसन संबंधित रोगों में कमी आई, साथ ही कार्बन उत्सर्जन भी कम हुआ।
  • पीएम पोषण (मिड-डे मील योजना): यह कार्यक्रम कुपोषण के विरुद्ध है, स्कूल के भोजन में मोटे अनाज को शामिल करता है, जिससे बच्चों का स्वास्थ्य बेहतर होता है और जलवायु-प्रतिरोधी खाद्य प्रणाली विकसित होती है (यह वर्ष 2023 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित ‘अंतरराष्ट्रीय बाजार वर्ष’ के अनुरूप है)।

  • स्वच्छ भारत अभियान: देशव्यापी स्वच्छता मिशन से स्वच्छता की स्थिति में सुधार हुआ, जिससे पेचिस रोग में कमी, लोगों की जीवन शैली में सुधार , साथ ही स्वच्छ जल स्रोत और सुरक्षित अपशिष्ट प्रबंधन के माध्यम से पर्यावरण संबंधी लक्ष्यों को भी बढ़ावा मिला।
  • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम [मनरेगा (MNREGA)]: मजदूरी पर आधारित रोजगार सुनिश्चित कर इस योजना ने ग्रामीण लोगों की आजीविका की स्थिति में सुधार किया और साथ ही वृक्षारोपण, जल-क्षेत्र प्रबंधन और मृदा संरक्षण जैसे पर्यावरणीय कार्यों के लिए धन उपलब्ध कराया, जिससे समुदाय की जलवायु अनुकूलन क्षमता मजबूत हुई।

संविधान संबंधी और नैतिक आयाम

  • राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत: अनुच्छेद 47 राज्य को सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने का कर्तव्य देता है, जबकि अनुच्छेद 48A उसे पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने का निर्देश देता है।
  • मौलिक अधिकारों का संबंध: सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) की व्याख्या करते हुए इसे स्वच्छ पर्यावरण और स्वास्थ्य के अधिकार तक विस्तारित किया है, जिससे जलवायु-स्वास्थ्य शासन संवैधानिक दायित्व बन गया है।
  • नागरिकों के मौलिक कर्तव्य: अनुच्छेद 51A(g) प्रत्येक  नागरिक को प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने का कर्तव्य बताता है, जिससे सामुदायिक भागीदारी के लिए नैतिक और संवैधानिक आधार बनता है।
  • पीढ़ी-दर-पीढ़ी समानता का नैतिक महत्त्व: जलवायु और स्वास्थ्य को एक साथ जोड़ने से आने वाली पीढ़ियों के लिए न्याय सुनिश्चित होता है, और उन्हें वर्तमान में हुई  गलतियों का भार नहीं उठाना होगा।
  • गांधीवादी ट्रस्टीशिप और सामाजिक न्याय: स्वास्थ्य और जलवायु से जुड़ी कल्याणकारी योजनाएंँ गांधीवादी ट्रस्टीशिप के सिद्धांतों को दर्शाती हैं, जिसमें संसाधन सामूहिक हितों के लिए, विशेषकर सर्वाधिक सुभेद्य लोगों के लिए, प्रबंधित किए जाते हैं।

कल्याणकारी नीतियों के माध्यम से स्वास्थ्य और जलवायु को एक साथ लाने में उत्पन्न होने वाली चुनौतियाँ

  • प्रशासनिक अलगाव: मंत्रालय और विभाग अलग-अलग कार्य करते हैं, जिससे स्वास्थ्य, ऊर्जा, कृषि और पर्यावरण जैसे क्षेत्रों के बीच आपसी सहयोग नहीं हो पाता है।
    • उदाहरण: भारत का ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ (Environment Impact Assessment-EIA) प्रक्रिया में ‘स्वास्थ्य प्रभाव आकलन’ (Health Impact Assessments- HIA) अनिवार्य नहीं है, जिसका मतलब है कि जलवायु नीतियों और परियोजनाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का व्यवस्थित तरीके से मूल्यांकन शायद ही कभी किया जाता है।
  • आर्थिक बाधाएँ: खर्च की क्षमता और व्यावसायिक हितों में टकराव, कल्याण से जुड़ी जलवायु नीतियों के दीर्घकालिक प्रभाव को कम कर देते हैं।
    • उदाहरण: PMUY के तहत LPG रिफिल की ऊंँची कीमत इसके निरंतर उपयोग को कम करती है, क्योंकि तेल विपणन कंपनियांँ प्राय: लाभार्थियों की जरूरतों की तुलना में अपनी प्राथमिकताओं को अधिक महत्त्व देती हैं।
  • सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिरोध: पुरानी मान्यताएंँ, लैंगिक रूढ़ियाँ और व्यवहार में बदलाव न करना, स्वच्छ और स्वस्थ विकल्पों को अपनाने में बाधा बनते हैं।
    • उदाहरण: LPG वितरण के बावजूद, घरों में भोजन पकाने की अपनी पसंद और सांस्कृतिक आदतों के कारण बायोमास का उपयोग निरंतर बना हुआ है।
  • समानता संबंधी चिंताएँ: हाशिए पर स्थिति समूह पहुँच और लाभ प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं, जिससे स्वास्थ्य और जलवायु अनुकूलन में असमानताएँ और बढ़ जाती हैं।
    • उदाहरण: आदिवासी और दूर-दराज के समुदाय अक्सर स्वच्छता सुविधाओं, पोषण योजनाओं और स्वच्छ ऊर्जा तक पहुँच के मामले में दिक्कतों का सामना करते हैं।
    • राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) की पाँचवीं रिपोर्ट के अनुसार, 30% घरों में अभी भी बेहतर स्वच्छता सुविधा उपलब्ध नहीं है, और यह ग्रामीण क्षेत्रों में (35%) और भी अधिक है।

निष्क्रियता की आर्थिक लागत (Economic Costs of Inaction)

  • जलवायु से सम्बन्धित रोगों का अत्यधिक भार: WHO के अनुसार, वर्ष  2030-2050 के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण कुपोषण, मलेरिया, पेचिस और गर्मी से होने वाली बीमारियों से प्रति वर्ष  250,000 अतिरिक्त मौतें हो सकती हैं।
  • प्रदूषण से होने वाले रोगों के कारण GDP का नुकसान: वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि वायु प्रदूषण से स्वास्थ्य संबंधी खर्च के कारण भारत को प्रत्येक वर्ष GDP का लगभग 1.7% नुकसान होता है। इससे ज्ञात होता है कि बचाव के उपाय, इलाज पर खर्च करने की तुलना में अधिक लाभदायक हैं।
  • गर्मी के कारण उत्पादकता में कमी: लैंसेट काउंटडाउन (2022) की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में भारत को गर्मी के कारण लगभग 167.2 बिलियन संभावित श्रम-घंटे का नुकसान हुआ, जिसका मुख्य प्रभावर कृषि और निर्माण क्षेत्र में खुले में कार्य करने वाले श्रमिकों पर हुआ।
  • जीविका और कृषि पर प्रभाव: अनियमित मानसून और बढ़ते तापमान से फसल की पैदावार कम होती है, जिससे किसानों की आय में कमी होती है और खाद्य सुरक्षा के समक्ष संकट उत्पन्न होता है।
    • इससे कुपोषण और आर्थिक असुरक्षा जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएंँ भी उत्पन्न होती हैं।

भारत के जलवायु-स्वास्थ्य शासन के लिए आगे की राह

  • राजनीतिक नेताओं द्वारा रणनीतिक प्राथमिकता: जलवायु कार्रवाई को तत्काल स्वास्थ्य और कल्याण के मुद्दे के रूप में प्रस्तुत करने से राजनीतिक इच्छाशक्ति मजबूत होती है और जनता का सहयोग प्राप्त होता है।
    • उदाहरण: PMUY को केवल ऊर्जा सुधार के बजाय, महिलाओं को सशक्त बनाने और स्वास्थ्य से संबंधित पहल के रूप में प्रस्तुत करने से उसे लोकप्रियता प्राप्त हुई।
  • मंत्रालयों में प्रक्रियात्मक एकीकरण: सभी जलवायु संबंधी नीतियों में स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों  को शामिल करने से विभिन्न क्षेत्रों में तालमेल सुनिश्चित होता है।
    • उदाहरण: जैसे बड़े प्रोजेक्ट के लिए पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अनिवार्य है, वैसे ही ऊर्जा, परिवहन और शहरी नियोजन नीतियों के लिए स्वास्थ्य प्रभाव मूल्यांकन को अनिवार्य किया जा सकता है।
  • समुदाय स्तर पर सहभागी कार्यान्वयन: स्थानीय संस्थाओं के माध्यम से समुदायों को शामिल करने से जलवायु-स्वास्थ्य नीतियों में स्वामित्व और स्थिरता बढ़ती है।
    • उदाहरण: जागरूकता अभियानों में आशा कार्यकर्ताओं और पंचायतों को शामिल करने से जलवायु कार्रवाई और रोजमर्रा के स्वास्थ्य परिणामों के बीच संबंध को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
  • परिणाम-आधारित मॉनिटरिंग तंत्र: केवल आउटपुट के बजाय स्वास्थ्य में सुधार के आधार पर परिणामों को मापने से जवाबदेही और प्रभावशीलता सुनिश्चित होती है।
    • उदाहरण: वितरित किए गए LPG सिलेंडरों की संख्या गिनने के बजाय, मॉनिटरिंग में श्वास संबंधित रोगों की बीमारियों में वास्तविक कमी और स्वच्छ ईंधन के उपयोग की दर को ट्रैक किया जाना चाहिए।
  • अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व और ज्ञान साझा करना: भारत अपने कल्याण से जुड़े जलवायु-स्वास्थ्य की सफलताओं को वैश्विक स्तर पर रखकर वैश्विक योजनाओं को प्रभावित कर सकता है।
    • उदाहरण: पोषण, स्वच्छ भारत और मनरेगा से सीख को COP30 जैसे मंचों के माध्यम से साझा किया जा सकता है, ताकि ‘ग्लोबल साउथ’ के लिए एक मजबूत ‘हेल्थ एक्शन प्लान’को बेहतर बनाया जा सके।
  • गर्मी से सुरक्षा के प्लान को बढ़ाना: भारत अहमदाबाद हीट एक्शन प्लान (2013) को लागू कर सकता है, जो दक्षिण एशिया का पहला जलवायु-स्वास्थ्य ‘अर्ली वार्निंग सिस्टम’ है, और इसे संवेदनशील क्षेत्रों में भी लागू किया जा सकता है।
    • ऐसे प्लान में अर्ली वार्निंग, मेडिकल तैयारी और समुदाय में जागरूकता शामिल होती है, जिससे हीट वेव से होने वाली मौतों और उत्पादकता में कमी को कम किया जा सकता है।

निष्कर्ष

भारत का अनुभव बताता है कि कल्याण-केंद्रित, अंतर-क्षेत्रीय शासन से जलवायु और स्वास्थ्य दोनों के लिए लाभकारी समाधान प्राप्त हो सकते हैं। जलवायु नीतियों में स्वास्थ्य को शामिल करके, मौजूदा संस्थानों का उपयोग करके और समानता सुनिश्चित करके, भारत एक ऐसा स्वास्थ्य-आधारित जलवायु शासन मॉडल विकसित कर सकता है जो विकास, पर्यावरण और जन कल्याण के मध्य संतुलन बनाए रखे।

संदर्भ

हाल ही में, मोरक्को हाई सी ट्रीटी (High Seas Treaty) का अनुसमर्थन करने वाला 60वाँ देश बन गया, जो अंतरराष्ट्रीय जल में जैव विविधता की रक्षा के उद्देश्य से पहला अंतरराष्ट्रीय कानूनी ढाँचा है।

हाई सी क्या हैं?

  • वर्ष 1958 के जिनेवा कन्वेंशन के अनुसार, हाई सी (High Seas) वे महासागरीय क्षेत्र हैं जो किसी भी राज्य के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं।
  • यह किसी देश के विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) से आगे तक विस्तृत होता है, जो आमतौर पर उसके तट से 200 समुद्री मील की दूरी तक होता है।

हाई सी ट्रीटी (High Seas Treaty) क्या है?

  • इसे बायोडायवर्सिटी बियॉन्ड नेशनल ज्यूरिसडिक्शन (Biodiversity Beyond National Jurisdiction [BBNJ]) एग्रीमेंट के नाम से भी जाना जाता है।
  • मार्च 2023 में अपनाई गई संयुक्त राष्ट्र की ‘हाई सीज ट्रीटी’, एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन (Exclusive Economic Zones [EEZ]) से परे महासागर क्षेत्रों को नियंत्रित करने के लिए एक वैश्विक समझौता है।
  • यह संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून पर कन्वेंशन (United Nations Convention on the Law of the Sea [UNCLOS]) के तहत एक अंतरराष्ट्रीय संधि है।

संधि के मुख्य उद्देश्य

  • समुद्री संरक्षित क्षेत्र (Marine Protected Areas [MPA])
    • समुद्री संरक्षित क्षेत्र बनाने के लिए कानूनी ढाँचा, इससे पहले खुले समुद्र का केवल 1.45% हिस्सा संरक्षित था।
    • वर्ष 2030 तक 30% महासागरों की सुरक्षा के “30×30” लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रमुख तंत्र।
  • समुद्री आनुवंशिक संसाधन, जिसमें लाभों का उचित और समान वितरण शामिल है
    • यह संधि अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र में MGRs, जिसमें डिजिटल सीक्वेंस जानकारी (DSI) भी शामिल है, को नियंत्रित करती है।
    • लाभ-साझाकरण में मौद्रिक योगदान (राष्ट्रीय आय के आधार पर) और गैर-मौद्रिक हस्तांतरण जैसे प्रौद्योगिकी साझाकरण, क्षमता निर्माण और संयुक्त अनुसंधान शामिल हैं।
  • पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (Environmental Impact Assessments [EIA])
    • अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रभाव वाली गतिविधियों के लिए व्यापक EIA आवश्यक है।
    • इस प्रक्रिया में स्क्रीनिंग, स्कोपिंग, मूल्यांकन, सार्वजनिक सूचना और मॉनिटरिंग शामिल है।
    • यह नियम ‘हाई सी’ को प्रभावित करने वाली राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों पर लागू होता है।
    • यह पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक तरीकों के साथ एकीकृत करता है।
  • क्षमता निर्माण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (Capacity Building & Technology Transfer)
    • प्रशिक्षण कार्यक्रम, अनुसंधान फेलोशिप और संस्थागत साझेदारी स्थापित करता है।
    • समुद्री प्रौद्योगिकी के लिए क्षेत्रीय केंद्र विकसित करता है, जिससे सहयोग और स्थानीय क्षमता को बढ़ावा मिलता है।
    • यह सुनिश्चित करता है कि विकासशील देश भी ‘हाई सी’ के प्रबंधन में प्रभावी ढंग से भाग ले सकें।

हस्ताक्षर और पुष्टि

  • लागू करना: कम-से-कम 60 देशों द्वारा औपचारिक पुष्टि दस्तावेज जमा करने के 120 दिनों के बाद यह संधि अंतरराष्ट्रीय कानून बन जाएगी।
  • वैश्विक स्थिति: 22 सितंबर 2025 तक, 143 देशों ने ‘हाई सी ट्रीटी’ पर हस्ताक्षर किए हैं।
  • पुष्टि: अब तक 60 देशों ने इसे पुष्टि की है।
  • भारत की स्थिति: भारत ने वर्ष 2024 में इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन अभी तक इसकी पुष्टि नहीं की है।

हाई सी क्या हैं?

वर्ष 1958 के जिनेवा कन्वेंशन के अनुसार, ‘हाई सी’ क्षेत्र ऐसे समुद्री क्षेत्र होते हैं जो किसी भी देश के अधिकार क्षेत्र से बाहर होते हैं। ये किसी देश के विशेष आर्थिक क्षेत्र (EEZ) से आगे तक विस्तृत होते हैं, जो आमतौर पर उसके तट से 200 समुद्री मील की दूरी विस्तृत होता है।

‘हाई सी’ का महत्त्व

  • विशाल क्षेत्र: यह महासागरों का 64% और पृथ्वी की सतह का 43% हिस्सा कवर करता है, जिसमें लगभग 22 लाख समुद्री प्रजातियाँ और खरबों सूक्ष्मजीव रहते हैं।
  • पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने वाला: यह विश्व की 25% CO₂ का अवशोषण करता  है, विश्व की आधी ऑक्सीजन उत्पन्न करता है और ऊष्मा को वितरित करके जलवायु का संतुलन बनाए रखता है।
  • संसाधनों का भंडार: यह मनुष्यों के लिए आवश्यक समुद्री भोजन, खनिज, जेनेटिक संसाधन और औषधीय तत्व प्रदान करता है।
  • जैव विविधता का केंद्र: यह समृद्ध समुद्री जीवन का समर्थन करता है, जिसमें ऐसी प्रजातियाँ भी शामिल हैं जो वैज्ञानिक रूप से अभी अज्ञात हैं।
  • चुनौतियां: स्वामित्व की कमी के कारण अत्यधिक मत्स्यन, जैव विविधता का हास्, प्लास्टिक अपशिष्ट (वर्ष 2021 में 17 मिलियन टन), अम्लीकरण और प्रदूषण जैसी समस्याएँ होती हैं।

संदर्भ

केंद्र सरकार का मेघालय के डोमियासैट और वाकजी में यूरेनियम खनन का निर्णय, प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों, आदिवासी अधिकारों, पर्यावरण पर प्रभाव और शासन संबंधी चिंताओं को बढ़ावा देता है।

स्थानीय समुदायों का विरोध और चिंताएँ

  • ऐतिहासिक विरोध: खासी समूह वर्ष 1980 के दशक से इस क्षेत्र में यूरेनियम की खोज और खनन का लगातार विरोध करते आ रहे हैं।
  • छठी अनुसूची का उपयोग: स्थानीय समूहों ने खासी हिल्स स्वायत्त जिला परिषद से संविधान की छठी अनुसूची के तहत अपने अधिकारों का उपयोग कर आदिवासी अधिकारों की रक्षा करने का आग्रह किया है।
  • पर्यावरणीय प्रभाव: यूरेनियम खनन एक अत्यधिक प्रदूषक गतिविधि है जो इस भूपरिदृश्य को हमेशा के लिए बदल सकती है, जो स्थानीय निवासियों के लिए मुख्य चिंता का विषय है।
  • अन्याय की धारणा: इस कदम से आदिवासी समुदायों में यह धारणा और मजबूत होती है कि उनकी भूमिशेष भारत’ के लिए एक संसाधन का क्षेत्र’ बनी हुई है, जहाँ उनकी सहमति को महत्त्व नहीं दिया जाता।

छठी अनुसूची के प्रावधान

  • अनुच्छेद 244(2): यह असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन पर लागू होता है।
  • स्वायत्त जिले और स्वायत्त क्षेत्र
    • चार राज्यों के आदिवासी क्षेत्र स्वायत्त जिलों के रूप में प्रशासित होते हैं।
    • यदि किसी जिले में कई अनुसूचित जनजाति समुदाय रहते हैं, तो राज्यपाल उसे स्वायत्त क्षेत्रों में विभाजित कर सकते हैं।
    • राज्यपाल के पास जिलों का पुनर्गठन करने, सीमाओं में परिवर्तन करने या उनका नाम बदलने का अधिकार है।
  • परिषदों का गठन
    • जिला परिषद: प्रत्येक स्वायत्त जिले के लिए एक जिला परिषद होगी, जिसमें अधिकतम 30 सदस्य (गवर्नर द्वारा नामित अधिकतम 4 सदस्य एवं शेष वयस्क मताधिकार द्वारा चुने गए) होंगे।
    • क्षेत्रीय परिषद: प्रत्येक स्वायत्त क्षेत्र के लिए अलग परिषद होगी।
  • परिषदों की विधायी शक्तियाँ
    • भूमि, वन प्रबंधन (सुरक्षित वन क्षेत्रों को छोड़कर), वसीयत और स्थानीय व्यापार नियमों जैसे विषयों पर कानून बनाए जा सकते हैं।
    • जनजातीय क्षेत्रों में गैर-जनजातीय लोगों द्वारा धन उधार देने या व्यापार करने को नियंत्रित करने वाले कानून।
    • सभी कानूनों को राज्यपाल की मंजूरी की आवश्यकता होती है।
  • राजस्व और कर
    • परिषदें भूमि राजस्व का आकलन और संग्रह कर सकती हैं और व्यवसाय, व्यापार, पशु, वाहन आदि पर कर लगा सकती हैं।
    • वे अपने अधिकार क्षेत्र में खनिज उत्खनन के लिए लाइसेंस या लीज जारी करने का अधिकार रखती हैं।
  • न्याय प्रशासन
    • परिषदें केवल अनुसूचित जनजाति के सदस्यों से संबंधित विवादों के लिए ग्राम एवं जिला परिषद न्यायालय स्थापित कर सकती हैं।
    • राज्यपाल द्वारा निर्दिष्ट मामलों पर उच्च न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र बना रहता है।
    • परिषद न्यायालय मृत्युदंड या पाँच वर्ष से अधिक की सजा वाले मामलों की सुनवाई नहीं कर सकते।
  • कानूनों का लागू होना: संसद या राज्य विधानमंडल के कानून स्वायत्त जिलों/क्षेत्रों पर प्रत्यक्ष लागू नहीं होते या उनमें कुछ बदलाव/अपवाद के साथ लागू होते हैं।
  • राज्यपाल की शक्तियाँ: स्वायत्त जिलों या क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित मुद्दों की जाँच के लिए आयोग नियुक्त कर सकते हैं।

यूरेनियम के बारे में

  • यूरेनियम एक भारी, रेडियोसक्रिय तत्व है जो पृथ्वी की सतह पर पाई जाती है।
  • यह यूरेनियम युक्त खनिजों जैसे-यूरेननाइट (पिचब्लेन्ड), ब्रैनेराइट, कार्नोटाइट से निष्कर्षित किया जाता है।
  • यह फॉस्फेट चट्टानों और मोनाजाइट रेत में भी पाया जाता है।
  • यह परमाणु ऊर्जा के लिए ईंधन के रूप में कार्य करता है (परमाणु ऊर्जा रिएक्टर में यूरेनियम-235 मुख्य ईंधन है)।
  • यह रेडिएशन थेरेपी, रेडियोग्राफी एवं आइसोटोप उत्पादन में भी उपयोगी है।
  • सैन्य उपयोग: यह परमाणु पनडुब्बियों को ऊर्जा प्रदान करता है और परमाणु हथियारों में भी प्रयोग होता है।

भारत में यूरेनियम के भंडार

  • प्रथम खोज: यूरेनियम का पहला भंडार वर्ष 1951 में झारखंड के पूर्वी सिंहभूम थ्रस्ट बेल्ट में जादूगोड़ा में पाया गया था।
    • जादूगोड़ा में यूरेनियम की खनन और प्रसंस्करण वर्ष 1968 में शुरू हुई।
  • अन्य यूरेनियम भंडार:
    • आंध्र प्रदेश: कडप्पा बेसिन
    • मेघालय: महादेक बेसिन– डोमियासैट, वाखिन और मासिनराम में बलुआ पत्थर के भंडार।
  • संभावित क्षेत्र: राजस्थान, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में भविष्य में यूरेनियम भंडार के लिए प्रबल संभावनाएँ हैं।
विश्व स्तर पर यूरेनियम के प्रमुख भंडार: वर्ष 2022 में, कजाकिस्तान सबसे अधिक यूरेनियम का उत्पादन किया (वैश्विक आपूर्ति का 43%), इसके बाद कनाडा (15%) और नामीबिया (11%) का स्थान रहा।

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संदर्भ 

सितंबर 2025 में कतर की राजधानी दोहा पर हमास नेताओं को निशाना बनाकर किए गए इजरायली हवाई हमले को कतर की संप्रभुता का उल्लंघन माना गया और इस घटना ने अरब और इस्लामी राष्ट्रों के बीच नाटो जैसे सैन्य गठबंधन को लेकर पुनः चर्चा शुरू हो गई।

  • हाल ही में दोहा में आयोजित अरब-इस्लामिक शिखर सम्मेलन में अरब लीग (Arab League) और इस्लामिक सहयोग संगठन (Organisation of Islamic Cooperation- OIC) के 40 से अधिक देशों के नेताओं ने भाग लिया।

अरब नाटो (Arab NATO) के बारे में 

  • अरब और/या इस्लामी देशों के बीच प्रस्तावित सैन्य गठबंधन है।
  • नाटो के अनुच्छेद 5 पर आधारित: एक सदस्य पर हमला सभी पर हमला माना जाता है।
  • उद्देश्य: बाह्य खतरों (जैसे- इजराइली हवाई हमले, क्षेत्रीय संघर्ष) के विरुद्ध सामूहिक रक्षा करना।

उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (North Atlantic Treaty Organization- NATO)

  • उत्पत्ति: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत विस्तार का मुकाबला करने के लिए वाशिंगटन संधि के तहत वर्ष 1949 में स्थापित किया गया था।
  • मुख्यालय: ब्रुसेल्स, बेल्जियम।
  • स्वरूप: यूरोप और उत्तरी अमेरिका के 32 देशों का राजनीतिक और सैन्य गठबंधन।
  • मुख्य सिद्धांत: अनुच्छेद 5 के तहत सामूहिक रक्षा (9/11 के बाद केवल एक बार लागू)।
  • संस्थापक सदस्य (12): अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, कनाडा, बेल्जियम, नीदरलैंड, लक्जमबर्ग, डेनमार्क, नॉर्वे, पुर्तगाल, आइसलैंड।
  • नवीनतम सदस्य: स्वीडन (2024)
  • यूक्रेन: वर्ष 2022 में आवेदन किया गया; विलनियस शिखर सम्मेलन (2023) में आश्वासन प्राप्त हुआ।
  • नाटो में यूरोपीय संघ के गैर-सदस्य: ऑस्ट्रिया, साइप्रस, आयरलैंड, माल्टा।
  • उद्देश्य: रक्षा, संकट प्रबंधन और निवारण के लिए ट्रान्साटलांटिक संपर्क प्रदान करता है।
  • वित्तपोषण: सकल राष्ट्रीय आय पर आधारित लागत-साझाकरण सूत्र के माध्यम से।
  • भागीदारियाँ
    • शांति के लिए साझेदारी (Partnership for Peace- PfP): रूस (निलंबित) सहित 8 देश।
    • भूमध्यसागरीय संवाद (Mediterranean Dialogue- MD): उत्तरी अफ्रीकी देश।
    • इस्तांबुल सहयोग पहल (Istanbul Cooperation Initiative- ICI): मध्य पूर्व के साझेदार।
    • संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ अंतरराष्ट्रीय साझेदार हैं।

इस विचार में निहित प्रेरक

  • सुरक्षा खतरे: कतर पर इजराइली हवाई हमले ने क्षेत्र की सुरक्षा संरचना की कमजोरियों को उजागर किया और एक एकीकृत रक्षा तंत्र की आवश्यकता पर बल दिया।
    • गाजा, यमन और सीरिया में चल रहे संघर्षों ने क्षेत्रीय स्थिरता को और भी तनावपूर्ण बना दिया है, जिससे सामूहिक रक्षा व्यवस्था की माँग उठ रही है।
  • आंतरिक वैधता: अरब और मुस्लिम बहुल देशों के नेता बाहरी खतरों के विरुद्ध एकजुट मोर्चा बनाकर घरेलू समर्थन को मजबूत करना चाहते हैं।
    • सामूहिक रक्षा तंत्र का प्रस्ताव राजनीतिक सुदृढ़ीकरण और क्षेत्रीय नेतृत्व के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य करता है।
  • अमेरिका की घटती विश्वसनीयता: सुरक्षा प्रदाता  के रूप में अमेरिका के कथित अलगाव ने अरब और मुस्लिम देशों को आत्मनिर्भर रक्षा तंत्रों पर विचार करने के लिए प्रेरित किया है।
    • उदाहरण: गाजा में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की सतर्कता, संयुक्त राज्य अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता को कम करने की दिशा में पुनर्संतुलन को दर्शाती है।
  • सामरिक प्रतिस्पर्द्धा: इसमें शामिल देश इजराइल के सैन्य लाभ को संतुलित करने और उन्नत रक्षा क्षमताओं को साझा करने का प्रयास करेंगे।
    • उदाहरण: जॉर्डन ने पहले क्षेत्रीय सुरक्षा नेटवर्क के लिए इजराइल की वायु रक्षा विशेषज्ञता की माँग की थी।
  • भू-राजनीतिक संकेत: अरब नाटो की अवधारणा बाहरी शक्तियों को एक संदेश है, जिससे वैश्विक मंचों पर सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति मजबूत होती है।
    • उदाहरण: इस्लामिक नाटो के लिए ईरान का समर्थन पश्चिम एशिया में अमेरिका-विरोधी प्रभाव की महत्त्वाकांक्षाओं का संकेत है।

चुनौतियाँ एवं विरोधाभास

  • पृथक सुरक्षा चिंताएँ: विभिन्न सदस्य अलग-अलग सुरक्षा चिंताओं को प्राथमिकता देते हैं, जिससे एकीकृत कार्रवाई करना कठिन होता है।
    • उदाहरण: मिस्र, इजराइल को मुख्य खतरा मानता है, तुर्किए कुर्द अलगाववाद पर ध्यान केंद्रित कर रहा है और ईरान अमेरिकी सैन्य उपस्थिति को प्रतिसंतुलित करने पर जोर दे रहा है।
  • शिया-सुन्नी विभाजन: सांप्रदायिक मतभेद सदस्य देशों के बीच विश्वास और परिचालन समन्वय को जटिल बनाते हैं।
    • उदाहरण: ईरान (शिया बहुल) की सुन्नी नेतृत्व वाले सऊदी अरब और मिस्र के साथ परस्पर विरोधी प्राथमिकताएँ हो सकती हैं।
  • अब्राहम एकाॅर्ड के साथ ओवरलैप: संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन जैसे देश, जिन्होंने ‘अब्राहम एकाॅर्ड’ के तहत इजराइल के साथ संबंधों को सामान्य किया है, एक सामूहिक रक्षा समझौते में शामिल होने से हिचकिचा सकते हैं जो इजराइल को नाराज कर सकता है।
  • क्षमता की सीमाएँ: सदस्य देशों के बीच सैन्य क्षमताओं में असमानताएँ सामूहिक रक्षा व्यवस्था की प्रभावशीलता में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं।
    • उदाहरण: मिस्र के पास एक आधुनिक सेना और वायु सेना है। बहरीन या ओमान जैसे छोटे देश केवल प्रतीकात्मक रूप से ही सहयोग ही दे सकते हैं।
  • राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता: प्रतिस्पर्द्धी महत्त्वाकांक्षाएँ और विश्वास का अभाव गठबंधन की एकजुटता में बाधा उत्पन्न करते हैं।
    • उदाहरण: सऊदी अरब क्षेत्रीय नेतृत्व चाहता है, मिस्र सैन्य श्रेष्ठता का दावा करता है, और ईरान व्यापक स्तर पर इस्लामी नेतृत्व करता है।

नैतिक और दीर्घकालिक चिंतन

  • सैन्य गुटों की स्थिरता: हालाँकि सैन्य गठबंधन अल्पकालिक सुरक्षा लाभ प्रदान कर सकते हैं, उनकी दीर्घकालिक स्थिरता साझा हितों, आपसी विश्वास और प्रभावी संघर्ष समाधान तंत्रों पर निर्भर करती है।
  • सामूहिक रक्षा बनाम कूटनीति: सैन्य समाधानों पर अत्यधिक निर्भरता कूटनीतिक प्रयासों को कमजोर कर सकती है और संघर्षों के शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में बाधा उत्पन्न कर सकती है।

भारत के लिए निहितार्थ

  1. सामरिक और सुरक्षा संबंधी चिंताएँ
    • गठबंधन में पाकिस्तान की भूमिका: इस्लामिक नाटो के लिए पाकिस्तान का प्रयास, विशेषकर सऊदी अरब के साथ उसके हालिया रक्षा समझौते के कारण, उसके सैन्य रुख को और मजबूत कर सकता है।
      • यह घटनाक्रम भारत की सुरक्षा प्रणाली के लिए अनिश्चितताएँ उत्पन्न कर सकता है।
    • संभावित परमाणु निहितार्थ: सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौता सऊदी अरब को एक परमाणु समाधान प्रदान करता है। यह क्षेत्रीय सुरक्षा गतिशीलता को परिवर्तित कर सकता है और भारत की रणनीतिक स्थिति को प्रभावित कर सकता है।
  2. कूटनीतिक संतुलन 
    • खाड़ी देशों के साथ जुड़ाव: भारत ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात सहित खाड़ी देशों के साथ ऊर्जा सुरक्षा, व्यापार और निवेश पर ध्यान केंद्रित करते हुए मजबूत संबंध विकसित किए हैं।
      • एक सैन्यीकृत अरब नाटो भारत के राजनयिक संबंधों को जटिल बना सकता है, जिससे इन साझेदारियों को बनाए रखने के लिए एक संवेदनशील संतुलन की आवश्यकता होगी।
    • इजराइल के साथ संबंध: द्विपक्षीय निवेश समझौते के उदाहरण के रूप में, इजराइल के साथ भारत के बढ़ते रक्षा और तकनीकी सहयोग को चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, अगर एक अरब नाटो इजराइली हितों के विरुद्ध नीतियाँ अपनाता है।
  3. आर्थिक और ऊर्जा निहितार्थ
    • ऊर्जा सुरक्षा जोखिम: तेल आयात के लिए खाड़ी देशों पर भारत की निर्भरता उसे क्षेत्रीय संघर्षों के प्रति संवेदनशील बनाती है।
      • एक सैन्यीकृत अरब नाटो तनाव बढ़ा सकता है, जिससे ऊर्जा आपूर्ति बाधित हो सकती है और भारत की ऊर्जा सुरक्षा प्रभावित हो सकती है।
    • व्यापार और निवेश गतिशीलता: जैसा कि वाणिज्य और उद्योग मंत्री ने रेखांकित किया है, भारत, संयुक्त अरब अमीरात से अधिक निवेश चाहता है, लेकिन एक सैन्य गठबंधन से व्यापार संबंधों और निवेश प्रवाह में अनिश्चितताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  4. क्षेत्रीय प्रभाव और रणनीतिक गठबंधन
    • चीन का बढ़ता प्रभाव: संभवतः इस क्षेत्र में भारत के समुद्री और व्यापारिक हितों की कीमत पर, खाड़ी देशों के साथ चीन के सामरिक संबंध बढ़ रहे हैं।

भारत के लिए आगे की राह

  • इजराइल और अरब संबंधों में संतुलन: भारत को इस क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिए अरब देशों के साथ मजबूत संबंध बनाए रखते हुए इजराइल के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी को निरंतर मजबूत करने के दिशा में प्रयास करना चाहिए।
  • भारत की वैचारिक भूमिका: भारत को मध्य पूर्व में स्थायी शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए संवाद, विश्वास-निर्माण उपायों और समावेशी सुरक्षा व्यवस्था का समर्थन करना चाहिए।
  • ऊर्जा कूटनीति और विविधीकरण: भारत को नवीकरणीय साझेदारी और हरित सहयोग का विस्तार करके एक संतुलित ऊर्जा रणनीति अपनानी चाहिए।
    • अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) और संयुक्त हरित हाइड्रोजन पहल जैसे मंच पारंपरिक हाइड्रोकार्बन संबंधों को पूरक बनाते हुए एक स्थायी और सुरक्षित ऊर्जा भविष्य का आधार निर्मित कर सकते हैं।
  • निगरानी और अनुकूलन: अरब नाटो से जुड़े घटनाक्रमों की निरंतर निगरानी करना और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए भारत की विदेश और सुरक्षा नीतियों को तदनुसार अनुकूलित करना।
  • बहुपक्षीय जुड़ाव: भारत को मध्य पूर्व में सुरक्षा ढांँचे को प्रभावित करने और स्थिरता को बढ़ावा देने हेतु क्षेत्रीय मंचों और पहलों में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए।
  • भारतीय प्रवासियों का लाभ लेना: खाड़ी देशों (जैसे- सऊदी अरब में 30 लाख से अधिक) में भारत के विशाल कार्यबल को द्विपक्षीय सद्भावना बढ़ाने के लिए शामिल करना।
    • प्रवासी हितों की रक्षा से क्षेत्रीय नीतिगत गणनाओं में भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ और रणनीतिक प्रभाव बढ़ता है।

निष्कर्ष

अरब नाटो की अवधारणा क्षेत्र की उभरती सुरक्षा गतिशीलता और रक्षा मामलों में अधिक स्वायत्तता की इच्छा को दर्शाती है। हालाँकि, आंतरिक मतभेद, खतरे के अलग-अलग प्रतिरूप और भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इसके कार्यान्वयन में महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ प्रस्तुत करती हैं। भारत के लिए, ऐसे गठबंधन के निर्माण हेतु सामरिक हितों की रक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए सावधानीपूर्वक कूटनीतिक जुड़ाव आवश्यक है।

संदर्भ

हाल ही में ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, पुर्तगाल और कनाडा ने औपचारिक रूप से फिलिस्तीन राज्य (स्टेट) को मान्यता दी।

संबंधित तथ्य 

  • न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा की पूर्व संध्या पर पुर्तगाल ने फिलिस्तीन को मान्यता देने की पुष्टि की, जबकि फ्रांस ने इसके पक्ष में मतदान करने का वचन दिया, जिससे वह पहले से ही समर्थन कर रहे लगभग 150 संयुक्त राष्ट्र सदस्यों में शामिल हो गया।

फिलिस्तीन का एक भौगोलिक अवलोकन

  • फिलिस्तीन पश्चिमी एशिया में, मध्य पूर्व के संक्रमण क्षेत्र में अवस्थित है।
  • भौगोलिक विस्तार: यह मुख्यतः वेस्ट कोस्ट (पूर्वी यरुशलम सहित) और गाजा पट्टी के क्षेत्र को संदर्भित करता है।

  • सीमाएँ
    • पश्चिम: भूमध्य सागर
    • पूर्व: जॉर्डन
    • उत्तर: लेबनान और सीरिया
    • दक्षिण-पश्चिम: मिस्र
    • वेस्ट कोस्ट: जॉर्डन नदी के पश्चिम में स्थित स्थलरुद्ध क्षेत्र, जो इजराइल और जॉर्डन की सीमा से लगा हुआ है।।
    • गाजा पट्टी: भूमध्य सागर के किनारे अवस्थित एक संकरा तटीय क्षेत्र, इजराइल और मिस्र की सीमा से लगा हुआ।
  • सामरिक महत्त्व
    • यह लेवेंट क्षेत्र (Levant Region) का हिस्सा है।
    • एशिया और अफ्रीका के बीच आवागमन मार्गों को नियंत्रित करता है।
    • यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम के पवित्र स्थलों (विशेषकर यरुशलम में) के निकट अवस्थित है।

फिलिस्तीन को मान्यता देने संबंधी पृष्ठभूमि

  • ऐतिहासिक संदर्भ: फिलिस्तीनी समस्या का इतिहास ब्रिटिश शासनादेश (1920-48) से संबंधित है, जब यहूदियों और अरबों से किए गए परस्पर विरोधी वादों की परिणति वर्ष 1947 की संयुक्त राष्ट्र विभाजन योजना के रूप में हुई।
  • इजराइल का निर्माण (1948): इजराइल की स्वतंत्रता की घोषणा के बाद, नकबा (आपदा) की घटना के दौरान लगभग 7,00,000 फिलिस्तीनियों को विस्थापित होना पड़ा।
  • युद्ध और अधिकार: वर्ष 1967 के छह-दिवसीय युद्ध के परिणामस्वरूप वेस्ट कोस्ट, गाजा पट्टी और पूर्वी यरुशलम पर इजराइल का अधिकार हो गया, ये वे क्षेत्र हैं जिन्हें फिलिस्तीनी राज्य की माँग के लिए प्रमुख माना जाता है।
  • शांति प्रक्रिया का विकास: ओस्लो समझौते (1993) से लेकर शांति के रोडमैप (2003) तक, बार-बार प्रयास किए गए, फिर भी बस्तियों, सुरक्षा चिंताओं और विभाजित फिलिस्तीनी नेतृत्व (वेस्ट कोस्ट में फतह, गाजा में हमास) ने प्रगति को रोक दिया।
    • फतह (Fatah): वेस्ट कोस्ट पर फिलिस्तीनी प्राधिकरण (Palestinian Authority- PA) का नेतृत्व करने वाली धर्मनिरपेक्ष फिलिस्तीनी पार्टी, इजराइल के साथ वार्ता के जरिए समाधान की पक्षधर है।
    • हमास: गाजा पट्टी को नियंत्रित करने वाला यह इस्लामी संगठन, राजनीतिक और उग्रवादी गुटों को जोड़ता है, इजराइल के अस्तित्व का विरोध करता है और स्थानीय स्तर पर सामाजिक सेवाएँ प्रदान करता है।
    • फतह-हमास प्रतिद्वंद्विता: वर्ष 2006 के चुनावों के बाद से, वेस्ट कोस्ट (फतह) और गाजा (हमास) के बीच विभाजन के कारण शासन खंडित हो गया है, जिससे शांति वार्ता जटिल हो गई है।
  • अंतरराष्ट्रीय मान्यता: 140 से अधिक संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों (अधिकतम ग्लोबल साउथ के देश) ने फिलिस्तीन को मान्यता दी है, लेकिन प्रमुख पश्चिमी शक्तियों द्वारा मान्यता न मिलने से इसकी वैधता लंबे समय से कमजोर रही है।
    • ‘वर्ष 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 67/19 द्वारा फिलिस्तीन को गैर-सदस्य पर्यवेक्षक राज्य का दर्जा दिया गया था, और 140 से अधिक संयुक्त राष्ट्र सदस्य देश इसे मान्यता देते हैं, जो प्रमुख पश्चिमी शक्तियों की हिचकिचाहट के बावजूद व्यापक वैश्विक समर्थन को दर्शाता है।’

राष्ट्र/राज्य (स्टेट) मान्यता के मानदंड

  • पृष्ठभूमि
    • अंतरराष्ट्रीय कानून में मान्यता की अवधारणा वेस्टफालियन प्रणाली (Westphalian System) (1648) से उत्पन्न हुई है, जहाँ संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता राज्यत्व की आधारशिला बन गई।
    • राज्यों के अधिकारों और कर्तव्यों पर मोंटेवीडियो कन्वेंशन (Montevideo Convention) (1933) राज्यत्व के लिए सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत मानदंड प्रदान करता है।
    • मान्यता एक कानूनी प्रक्रिया (अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिए क्षमता को परिभाषित करना) और एक राजनीतिक कार्य (मौजूदा राज्यों के रणनीतिक हितों से प्रेरित) दोनों है।
  • राज्य का दर्जा देने के कानूनी मानदंड (मोंटेवीडियो कन्वेंशन, 1933)
    • परिभाषित क्षेत्र: किसी राज्य का भौगोलिक क्षेत्र स्पष्ट रूप से सीमांकित होना चाहिए, भले ही सीमाएँ विवादित हों (जैसे- इजराइल-फिलिस्तीन)।
    • स्थायी जनसंख्या: एक स्थिर समुदाय का अस्तित्व जो उस क्षेत्र से जुड़ा हो (केवल अस्थायी या खानाबदोश नहीं)।
    • सरकार: एक कार्यशील राजनीतिक प्राधिकरण, जो क्षेत्र और जनसंख्या पर प्रभावी नियंत्रण रखता हो।
    • अन्य राष्ट्रों के साथ संबंध बनाने की क्षमता: संधि, कूटनीतिक और अंतरराष्ट्रीय संगठनों में शामिल होने की क्षमता को दर्शाता हो।
    • फिलिस्तीन मुख्यतः मोंटेवीडियो मानदंडों को पूरा करता है: इसका एक परिभाषित क्षेत्र (वेस्ट कोस्ट और गाजा), एक स्थायी जनसंख्या (लगभग 50 लाख) और विदेशी संबंधों की क्षमता है।
      • हालाँकि, फतह और हमास के बीच आंतरिक विभाजन इसकी सरकार की प्रभावशीलता को सीमित करते हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत पूर्ण मान्यता प्रभावित होती है।
  • मान्यता के प्रकार
    • विधि सम्मत मान्यता: अंतरराष्ट्रीय कानून में किसी राज्य की संप्रभुता की पूर्ण और औपचारिक मान्यता (उदाहरण के लिए, वर्ष 1988 में भारत द्वारा फिलिस्तीन को मान्यता)।
    • वास्तविक मान्यता: अस्थायी मान्यता, जहाँ राज्य का दर्जा व्यवहार में स्वीकार किया जाता है, लेकिन अभी तक कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है (उदाहरण के लिए, कुछ राज्यों द्वारा ताइवान को मान्यता)।
    • सामूहिक मान्यता: संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ या क्षेत्रीय समूहों जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं के माध्यम से मान्यता प्रदान की जाए।
    • सशर्त मान्यता: विशिष्ट राजनीतिक या कानूनी अपेक्षाओं से जुड़ी (उदाहरण के लिए, कोसोवो की स्वतंत्रता यूरोपीय संघ में प्रवेश के ढाँचों से संबंधित)।
  • मान्यता के सिद्धांत
    • प्रलक्षित सेवामुक्‍ति सिद्धांत (Constitutive Theory): एक राज्य तभी राज्य बनता है जब उसे मौजूदा राज्यों द्वारा मान्यता प्राप्त हो।
    • घोषणात्मक सिद्धांत (Declaratory Theory): एक राज्य तभी अस्तित्व में आता है जब वह मोंटेवीडियो मानदंडों को पूरा करता है, चाहे उसे मान्यता मिले या न मिले (वर्तमान में यह प्रचलित दृष्टिकोण है)।
  • केस स्टडी
    • फिलिस्तीन: 140 से अधिक देशों द्वारा मान्यता प्राप्त, लेकिन प्रमुख पश्चिमी शक्तियों द्वारा मान्यता न मिलने के कारण इसका पूर्ण राज्य का दर्जा सीमित है।
    • कोसोवो (2008): 100 से अधिक देशों द्वारा मान्यता प्राप्त, लेकिन रूस, चीन या भारत द्वारा नहीं, जिससे इसकी संयुक्त राष्ट्र सदस्यता सीमित हो गई है।
    • ताइवान: एक संप्रभु इकाई के रूप में कार्य करता है, लेकिन ‘वन- चाइना’ नीति के कारण बहुत कम देशों द्वारा आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त है।
    • दक्षिण सूडान (2011): जनमत संग्रह के बाद इसे विश्व स्तर पर शीघ्र मान्यता मिली, जो दर्शाता है कि अंतरराष्ट्रीय सहमति कैसे वैधता को गति प्रदान करती है।
  • भारत का दृष्टिकोण
    • भारत व्यावहारिक, मामला-दर-मामला दृष्टिकोण अपनाता है।
      • उपनिवेश-विरोधी एकजुटता के अनुरूप, वर्ष 1988 में फिलिस्तीन को मान्यता दी गई।
      • वन- चाइना नीति के कारण ताइवान को मान्यता नहीं दी गई।
      • अलगाववादी आंदोलनों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करने से बचने के लिए कोसोवो को मान्यता नहीं दी गई।

नई मान्यता का महत्त्व

  • पश्चिमी सहमति में मतभेद: पश्चिमी गुट की कूटनीति में एक ऐतिहासिक बदलाव का संकेत, क्योंकि ये देश लंबे समय से अमेरिका और इजराइली दृष्टिकोण के साथ जुड़े रहे हैं।
  • फिलिस्तीन की वैधता में वृद्धि: फिलिस्तीनी राज्य की अंतरराष्ट्रीय वैधता को बढ़ाता है, जिससे फिलिस्तीनी प्राधिकरण को हमास के विरुद्ध एक मजबूत कूटनीतिक स्थिति प्राप्त होती है।
  • द्वि-राज्य समाधान को मजबूत करना: ‘द्वि-राज्य’ समाधान को विश्व स्तर पर स्वीकार्य ढाँचे के रूप में पुष्ट करता है, अनिश्चितकालीन अधिकार को सामान्य बनाने के प्रयासों का प्रतिकार करता है।
  • इजराइल पर दबाव: इजराइल बस्तियों के विस्तार और सैन्य कार्रवाइयों के प्रति बढ़ती अधीरता का संकेत, संभवतः इजराइल को अपने कठोर दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करता है।
  • भू-राजनीतिक तरंग प्रभाव (Geopolitical Ripple Effects): भारत, तुर्किए, ब्राजील जैसी मध्यम स्तर की शक्तियों के लिए मध्यस्थता की भूमिका निभाने के लिए जगह बनाता है, साथ ही चीन और रूस के लिए राजनयिक अवसर भी प्रस्तुत करता है।
  • आर्थिक कूटनीति और राज्य-निर्माण: इस मान्यता के आर्थिक निहितार्थ हैं। दुनिया के विभिन्न देश कुछ शर्तों (सुधार, भ्रष्टाचार-विरोधी, अहिंसा) के साथ वित्तीय सहायता प्रदान कर सकते हैं, इजराइली बस्तियों के साथ व्यापार पर पुनर्विचार कर सकते हैं, और वेस्ट कोस्ट में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को बढ़ावा दे सकते हैं, जिससे फिलिस्तीनी संस्थाओं और अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी।
  • नैतिक और मानवीय प्रतीकवाद: गाजा के मानवीय संकट के बीच यह मान्यता दी गई है, जो पश्चिमी देशों को मानवाधिकार संबंधी चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता को दर्शाती है।

द्वि-राज्य समाधान (Two-State Solution) के बारे में

  • दो स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करके इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष को हल करने के लिए एक प्रस्तावित ढाँचा:-
    • इजराइल: एक संप्रभु राज्य के रूप में जारी रहेगा।
    • फिलिस्तीन: वर्ष 1967 में अधिकार किए गए क्षेत्रों (वेस्ट कोस्ट, गाजा, पूर्वी यरुशलम) पर स्थापित किया जाएगा।
  • उद्देश्य: सीमाओं, शरणार्थियों और यरुशलम पर विवादों को सुलझाते हुए, दोनों देशों के लोगों के लिए पारस्परिक मान्यता, सुरक्षा और संप्रभुता सुनिश्चित करना।

भारत का दृष्टिकोण

  • ऐतिहासिक समर्थन: भारत फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO, 1974) को मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश था और बाद में वर्ष 1988 में फिलिस्तीन को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता दी।
  • संतुलित नीति: इजराइल के साथ मजबूत संबंध (रक्षा, प्रौद्योगिकी, कृषि) बनाए रखते हुए, भारत संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों पर आधारित द्वि-राज्य/राष्ट्र समाधान की वकालत करता रहा है।
  • रणनीतिक कूटनीति: भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा और यूनेस्को में लगातार फिलिस्तीन के पक्ष में मतदान किया है, फिर भी इजराइल के साथ संबंधों की रक्षा के लिए विवादास्पद बयान देने से बचता रहा है।
  • वर्तमान स्थिति: भारत द्वारा इस मान्यता का स्वागत किए जाने की संभावना है, क्योंकि यह उसकी दीर्घकालिक स्थिति की अंतरराष्ट्रीय वैधता को मजबूत करता है, साथ ही भारत को पश्चिम एशिया में निष्पक्षता और संतुलन की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करता है।
    • यह मान्यता अरब देशों के साथ भारत के राजनयिक प्रभाव को मजबूत करती है, उसके ऊर्जा, प्रवासी और व्यापारिक हितों का समर्थन करती है, और भारत को पश्चिम एशिया में एक निष्पक्ष और संतुलित व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान करती है।

मान्यता के भू-राजनीतिक और राजनयिक परिणाम

  • क्षेत्रीय प्रतिक्रियाएँ
    • इजराइल: इजराइल सरकार ने इस मान्यता की निंदा करते हुए इसे एक ‘एकतरफा निर्णय’ बताया है जो वार्ता को कमजोर करता है और ‘सुरक्षा-प्रथम’ के उसके दृष्टिकोण को मजबूत करता है।
    • फिलिस्तीनी प्राधिकरण (PA): इस निर्णय का स्वागत अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में एक लंबे समय से लंबित सुधार के रूप में किया, जिससे हमास के विरुद्ध इसकी वैधता मजबूत हुई है। 
    • अरब देश: अधिकतम अरब देशों (विशेषतः अरब लीग) ने इस कदम की सराहना की है, और इसे फिलिस्तीनी संप्रभुता के उनके दशकों पुराने आह्वान के अनुरूप माना है।
    • खाड़ी देश: हालाँकि सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और कतर ने समर्थन व्यक्त किया है, लेकिन अमेरिका और इजराइल के साथ उनकी रणनीतिक सतर्कता प्रभाव को कम कर रही है।
  • वैश्विक प्रतिक्रियाएँ
    • संयुक्त राज्य अमेरिका: अमेरिका ने मान्यता देने से इनकार किया है और अपने इस रुख पर दृढ़ है कि फिलिस्तीनी राज्य का दर्जा सीधी वार्ता के जरिए हासिल किया जाना चाहिए। यह ट्रांस अटलांटिक संबंधी मतभेदों को रेखांकित करता है।
    • यूरोपीय संघ: यूरोप इस मुद्दे पर विभाजित है, स्पेन, आयरलैंड, स्वीडन और नॉर्वे पहले से ही फिलिस्तीन को मान्यता दे चुके हैं, जबकि फ्राँस और जर्मनी सतर्क दृष्टिकोण अपनाते हुए वार्ता के परिणाम की प्रतीक्षा करना पसंद करते हैं।
    • ग्लोबल साउथ: व्यापक रूप से समर्थन, क्योंकि मान्यता उनके उपनिवेश-विरोधी एकजुटता के आख्यानों और वैश्विक शासन में सुधार के व्यापक आह्वान के अनुरूप है।
    • रूस और चीन: दोनों ने फिलिस्तीनी राज्य के लिए अपने समर्थन को दोहराया है, और इसका इस्तेमाल पश्चिमी गुट के विरुद्ध मध्य पूर्व में राजनयिक प्रभाव बढ़ाने के लिए किया है।

मान्यता को प्रभाव में बदलने में चुनौतियाँ एवं बाधाएँ

  • अमेरिकी प्रतिरोध: अमेरिकी समर्थन के बिना, मान्यता प्रतीकात्मक तो हो सकती है, लेकिन परिवर्तनकारी नहीं, क्योंकि अमेरिका मध्य पूर्व शांति वार्ता में केंद्रीय भूमिका में है।
  • इजराइली विरोध: इजराइल इस तरह की मान्यता को प्रत्यक्ष वार्ता को कमजोर करने वाला मानता है, जिससे उसकी घरेलू राजनीति और दक्षिणपंथी दृष्टिकोण और सख्त हो सकता है।
  • विखंडित फिलिस्तीनी नेतृत्व: फतह-हमास प्रतिद्वंद्विता मान्यता की प्रभावशीलता को कमजोर करती है, क्योंकि गाजा और वेस्ट कोस्ट में शासन विभाजित बना हुआ है।
  • क्षेत्रीय अस्थिरता: व्यापक पश्चिम एशियाई अस्थिरता (ईरान-इजराइल तनाव, हिजबुल्लाह-इजराइल संघर्ष, हूती हमले) फिलिस्तीनी मुद्दे को कमजोर करते हैं।
  • यूरोपीय संघ में विभाजन: एकीकृत यूरोपीय संघ दृष्टिकोण का अभाव गति को कम कर सकता है, क्योंकि फ्राँस और जर्मनी जैसे प्रमुख देश अभी भी सतर्क हैं।
  • प्रतीकात्मकता बनाम कार्यान्वयन: केवल मान्यता जमीनी स्तर पर संप्रभुता में परिवर्तित नहीं होती है, क्योंकि अधिकार और नाकाबंदी की वास्तविकताएँ बनी रहती हैं।
  • कानूनी और सुरक्षा संबंधी परिणाम: मान्यता प्रदान करने से अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) और अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) में फिलिस्तीन को समर्थन प्राप्त होगा, राजनयिक मिशनों को पूर्ण दूतावासों में उन्नत किया जा सकेगा और अंतरराष्ट्रीय कानून में उसकी कानूनी स्थिति मजबूत होगी। हालाँकि, इससे इजराइल के साथ ख़ुफ़िया सहयोग और आतंकवाद-रोधी समन्वय पर दबाव पड़ने का खतरा है।

आगे की राह

  • अंतरराष्ट्रीय सहमति को सुदृढ़ करना: मान्यता को सार्थक महत्त्व देने के लिए यूरोपीय संघ, संयुक्त राष्ट्र और ‘ग्लोबल साउथ’ में व्यापक समन्वय आवश्यक है।
  • शांति वार्ता को पुनर्जीवित करना: फिलिस्तीन को मान्यता देने वाले देशों को एक नए सिरे से वार्ता ढाँचे के लिए प्रयास करना चाहिए, संभवतः संयुक्त राष्ट्र या बहुपक्षीय मध्यस्थता के तहत, न कि केवल अमेरिका के नेतृत्व में।
  • फिलिस्तीनी शासन के लिए समर्थन: फिलिस्तीनी प्राधिकरण को वित्तीय और तकनीकी सहायता संस्थानों और शासन क्षमता को मजबूत करने में मदद कर सकती है।
  • फिलिस्तीनी क्षेत्रों के बीच सुलह: फतह-हमास के बीच साझेदारी को प्रोत्साहित करना बाह्य मान्यता को प्रभावी शासन में बदलने के लिए महत्त्वपूर्ण है, जिससे फिलिस्तीन को जमीनी स्तर पर संप्रभुता का प्रयोग करने और इजराइल तथा अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ वार्ता में अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद मिलेगी।
  • मानवीय कूटनीति: इस मान्यता को गाजा और वेस्ट कोस्ट में ठोस मानवीय राहत से जोड़ा जाना चाहिए, जिससे लोगों को तत्काल लाभ मिल सके।
  • इजराइल के साथ सशर्त जुड़ाव: व्यापार, कूटनीतिक और रक्षा संबंधों का लाभ उठाकर इजराइल पर बस्तियों को रोकने और बातचीत के लिए प्रतिबद्ध होने का दबाव डालना।
  • द्वि-राज्य समाधान को सुदृढ़ करना: यह मान्यता वर्ष 1967 के सीमा सिद्धांत की पुष्टि करती है, बस्तियों के विस्तार को चुनौती देती है, और ओस्लो समझौते में परिकल्पित द्वि-राज्य ढाँचे को पुनर्जीवित करती है। हालाँकि एक-राज्य या परिसंघ मॉडल मौजूद हैं, फिर भी उन्हें गहरी राजनीतिक और जनसांख्यिकीय बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
  • भारत की भूमिका: भारत एक सेतु-निर्माता के रूप में कार्य कर सकता है, फिलिस्तीन के प्रति अपने दीर्घकालिक समर्थन को बनाए रखते हुए और इजराइल, अमेरिका तथा अरब देशों के साथ अपने संबंधों का लाभ उठाकर क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा दे सकता है।

निष्कर्ष

ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा द्वारा फिलिस्तीन को मान्यता देना पश्चिम एशियाई भू-राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है, जो पश्चिमी कूटनीतिक दृष्टिकोण में क्रमिक बदलाव का संकेत देता है। हालाँकि इससे संघर्ष का तुरंत समाधान तो नहीं होगा, लेकिन यह फिलिस्तीनी राज्य की आकांक्षाओं को मानक, राजनीतिक और कूटनीतिक बल प्रदान करता है।

  • भारत के लिए, यह उसकी संतुलित पश्चिम एशिया नीति के अनुरूप है और एक उभरती हुई बहुध्रुवीय व्यवस्था में इसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करता है।

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