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Sep 29 2025

संदर्भ

भारत सरकार ने भारत के जहाज निर्माण और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्स्थापित करने के लिए 69,725 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की है, जो मार्च 2026 में समाप्त होने वाले वर्ष 2015 के पैकेज का स्थान लेगा।

संबंधित तथ्य

  • इस नीति का उद्देश्य ऊर्जा दक्षता, स्थिरता और रणनीतिक सुरक्षा लक्ष्यों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए, एक वैश्विक समुद्री केंद्र के रूप में भारत की भूमिका को बढ़ाना है।
  • भारत का लगभग 95% विदेशी व्यापार (मात्रा के हिसाब से) समुद्री मार्गों से होता है, लेकिन भारत चीन, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे वैश्विक अग्रणी देशों से पीछे है।

पैकेज के मुख्य स्तंभ

  • जहाज निर्माण वित्तीय सहायता योजना (Shipbuilding Financial Assistance Scheme- SBFAS): ₹24,736 करोड़ की निधि के साथ 31 मार्च, 2036 तक विस्तारित किया गया है।
  • शिपब्रेकिंग क्रेडिट नोट (Shipbreaking Credit Note): पुनर्चक्रण और पर्यावरण-अनुकूल प्रथाओं को प्रोत्साहित करने के लिए ₹4,001 करोड़ का पैकेज जारी किया गया है।
  • समुद्री विकास निधि (Maritime Development Fund- MDF): ₹25,000 करोड़ का कोष, जिसके दो घटक हैं:-
    • समुद्री निवेश कोष (Maritime Investment Fund): इस क्षेत्र के विकास में तेजी लाने के लिए नए जहाज निर्माण उपक्रमों और संबंधित समुद्री बुनियादी ढाँचे में निवेश का समर्थन करता है।
    • ब्याज प्रोत्साहन कोष (Interest Incentivization Fund): जहाज निर्माताओं के लिए ऋणों पर ब्याज दरों में सब्सिडी प्रदान कर वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करता है, जिससे ऋण अधिक किफायती हो जाता है और उद्योग की अधिक भागीदारी को बढ़ावा मिलता है।
  • बुनियादी ढाँचा स्थिति: बड़े वाणिज्यिक जहाजों के लिए दीर्घकालिक, कम लागत वाले वित्त तक पहुँच सक्षम करना।

क्षमता विस्तार

  • जहाज निर्माण विकास योजना (Shipbuilding Development Scheme- SbDS): ₹19,989 करोड़ का परिव्यय किया जाएगा।
  • प्रतिवर्ष 4.5 मिलियन सकल टन भार (Gross Tonnage- GT) जहाज निर्माण क्षमता के सृजन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
  • बड़े जहाज निर्माण समूहों और ब्राउनफील्ड/ग्रीनफील्ड यार्ड विकास को बढ़ावा दिया जा रहा है।
  • परियोजनाओं के लिए बीमा और जोखिम कवरेज सहायता के साथ बुनियादी ढाँचे का विस्तार करना।

तकनीक और कौशल विकास

  • भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय के अंतर्गत भारतीय पोत प्रौद्योगिकी केंद्र की स्थापना की गई है।
  • अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी अपनाने (पूर्वनिर्मित ब्लॉक, उच्च क्षमता वाली क्रेन, हरित नौवहन) पर ध्यान केंद्रित करना।
  • इस क्षेत्र के लिए कुशल कार्यबल तैयार करने हेतु विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करना।

नीति, कानूनी और संस्थागत सुधार

  • समन्वित नीति कार्यान्वयन हेतु राष्ट्रीय जहाज निर्माण मिशन का शुभारंभ।
  • अनुमोदनों को सुव्यवस्थित करने, अनुपालन बोझ को कम करने और निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए कानूनी, कराधान और नियामक सुधार।
  • आत्मनिर्भर भारत के अनुरूप प्रोत्साहन, भारतीय जहाज मालिकों को घरेलू स्तर पर नए निर्माण के ऑर्डर देने के लिए प्रोत्साहित करेंगे।

इस व्यापक पैकेज का महत्त्व

  • आर्थिक प्रभाव: ₹4.5 लाख करोड़ के निवेश को बढ़ावा मिलेगा और लगभग 30 लाख नौकरियाँ उत्पन्न होंगी।
    • विदेशी शिपिंग कंपनियों को जाने वाले भारत के ₹6 लाख करोड़ (लगभग 75 अरब डॉलर) के वार्षिक व्यय को कम किया जा सकेगा।
    • जहाज निर्माण, जिसे ‘मदर ऑफ हेवी इंजीनियरिंग’ कहा जाता है, रोजगार सृजन, निवेश और रणनीतिक स्वतंत्रता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • व्यापार केंद्र: हिंद महासागर के शिपिंग मार्गों पर स्थित भारत, रसद, पोत रखरखाव और निर्यात के केंद्र के रूप में उभर सकता है।
  • वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता: वैश्विक शिपिंग और जहाज निर्माण बाजारों में भारत को एक मजबूत दावेदार के रूप में स्थापित करना।
    • भारत जहाज निर्माण में केवल 0.06% बाजार हिस्सेदारी के साथ वैश्विक स्तर पर 20वें स्थान पर है और वर्ष 2030 तक शीर्ष 10 और वर्ष 2047 तक शीर्ष 5 में शामिल होने का लक्ष्य रखता है।
  • समुद्री व्यापार: भारत के समुद्री क्षेत्र को मजबूत करता है, जो मात्रा के हिसाब से 95% और मूल्य के हिसाब से 70% व्यापार का प्रबंधन करता है।
  • भू-राजनीतिक सुरक्षा: स्वदेशी जहाज निर्माण क्षमता का विस्तार ऊर्जा, खाद्य और समुद्री सुरक्षा को बढ़ाता है।
  • स्थायित्व: हरित, ईंधन-कुशल, कम उत्सर्जन वाले जहाजों के निर्माण को बढ़ावा देना वैश्विक जलवायु नियमों के अनुरूप है।
  • आत्मनिर्भर भारत: घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देता है और विदेशी जहाज निर्माताओं पर निर्भरता कम करता है।

भारत के जहाज निर्माण में वर्तमान चुनौतियाँ

  • बड़े वाणिज्यिक जहाजों केनिर्माण की नगण्य क्षमता: पिछले दशक में, भारत ने अल्प मात्रा में लघु वाणिज्यिक जहाज निर्मित किए हैं, जबकि बड़े जहाजों के निर्माण की क्षमता नगण्य है।
  • तकनीकी कमियाँ: भारतीय जहाज निर्माण क्षेत्र में पूर्वनिर्मित ‘ब्लॉक असेंबली’, भारी-भरकम क्रेन (लगभग 1000 टन) और लंबी असेंबली लाइनों जैसी उन्नत क्षमताओं का अभाव है, जो कोरिया, जापान और चीन में सामान्य हैं।
  • लंबा टर्नअराउंड समय: भारत में जहाज निर्माण में 2-3 वर्ष  लगते हैं, जबकि वैश्विक रूप से जहाजों के निर्माण में लगभग 1 वर्ष का समय लगता है, जिससे पूँजी व्यय बढ़ जाता है और प्रतिस्पर्द्धा कम हो जाती है।
  • सहायक पारिस्थितिकी तंत्र का कमजोर होना: अपर्याप्त आपूर्ति शृंखलाएँ और सहायक उद्योग निर्माण में देरी करते हैं और लागत बढ़ा देते हैं।
  • वित्तपोषण संबंधी अवरोध: लघु जहाज निर्माण (500 गीगाटन और उससे अधिक) को छोड़कर, नीतिगत लाभ (जैसे कम ब्याज दरें) केवल बड़े जहाजों पर लागू होते हैं।
  • माँग की स्पष्टता का अभाव: भारतीय जहाज मालिकों को दीर्घकालिक माँग में अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है, जिससे सब्सिडी के बावजूद घरेलू शिपयार्ड में निवेश हतोत्साहित हो रहा है।

वैश्विक सर्वोत्तम पद्धतियाँ

  • ‘प्रीफैब्रिकेशन’ और ‘असेंबली-लाइन’ आधारित जहाज निर्माण: कोरियाई, जापानी और चीनी शिपयार्ड में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, जिससे लागत और निर्माण समय कम होता है।
  • संस्थागत समर्थन: चीन ने विशेष रूप से बड़े पैमाने पर जहाज निर्माण को समर्थन देने के लिए प्रशिक्षण संस्थान और अनुसंधान सुविधाएँ विकसित की हैं।

आगे की राह

  • प्रारंभिक प्रयास करना: बड़े व्यापारिक जहाजों के निर्माण की ओर बढ़ने से पूर्व, 500 गीगावाट और उससे अधिक क्षमता वाले जहाजों के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना ताकि अतिरिक्त क्षमता का निर्माण किया जा सके।
  • बुनियादी ढाँचे का उन्नयन करना: लंबे डॉक, उच्च क्षमता वाले क्रेन और ‘प्रीफैब ब्लॉक’ तकनीक के साथ यार्ड का आधुनिकीकरण करना।
  • सहायक पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करना: जहाज निर्माण घटकों और आपूर्ति शृंखलाओं के लिए कारखानों के समूह विकसित करना।
  • हरित ईंधन नीति का लाभ उठाना: हरित ईंधन निर्यात केंद्रों (जैसे- काकीनाडा, कोच्चि) को हरित जहाज निर्माण पहलों के साथ जोड़ना।
  • दीर्घकालिक तंत्र लागू करना: जहाज मालिकों को सुनिश्चित माँग प्रदान करने के लिए राज्य उपयोगिताओं (कोयला, कच्चे तेल का आयात) के साथ अनुबंध/ चार्टर का निर्माण करना।
  • मानव पूँजी विकास: जहाज निर्माण इंजीनियरों और कुशल श्रमिकों को प्रशिक्षित करने के लिए विशेष संस्थान स्थापित करना।
  • सार्वजनिक-निजी सहयोग: सार्वजनिक क्षेत्र के यार्ड (जैसे- कोचीन शिपयार्ड, हिंदुस्तान शिपयार्ड) संयुक्त उद्यमों, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण समझौतों और डिजाइन साझेदारी के लिए निजी फर्मों तथा वैश्विक प्रमुख कंपनियों के साथ सहयोग कर सकते हैं।
    • वैश्विक जहाज निर्माण मूल्य शृंखलाओं में भारत की भागीदारी सुनिश्चित करना।
  • स्पष्ट मानक: यार्ड प्रदर्शन ऑडिट शुरू करने और इन मानकों को प्राप्त करने के लिए सरकारी प्रोत्साहनों की संबद्धता से जवाबदेही और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित होगी।
    • उदाहरण: जहाँ चीन थोक वाहकों के निर्माण में अग्रणी है, जापान टैंकर निर्माण में उत्कृष्टता प्रदर्शित करता है और दक्षिण कोरिया LNG वाहकों के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाता है, भारत एक विशिष्ट क्षेत्र (जैसे- मध्यम आकार के जहाज या हरित जहाज) का चयन कर वैश्विक जहाज निर्माण उद्योग में अपनी एकीकृत पहचान बना सकता है।

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2007 का राजस्थान सरकार का वह नोटिफिकेशन रद्द कर दिया, जिसमें राज्य में बनी एस्बेस्टस सीमेंट शीट और ईंटों पर मूल्य वर्द्धित कर (VAT) आरोपित करने से छूट प्रदान की गई थी, जबकि बाहर से आने वाले इसी तरह सामग्री पर मूल्य वर्द्धित कर (VAT) आरोपित किया गया गया था। न्यायालय ने इसे संविधान के अनुच्छेद-304(a) के तहत भेदभावपूर्ण माना।

संवैधानिक  प्रावधान

  • अनुच्छेद-304: राज्यों के बीच व्यापार, वाणिज्य और आवागमन पर प्रतिबंध।
    • 304 (a): राज्य, दूसरे राज्यों या केंद्रशासित प्रदेशों से आयातित वस्तुओं पर कर तभी आरोपित कर सकते हैं, जब राज्य के अंदर उत्पादित समान वस्तुओं पर भी उतना ही कर आरोपित किया गया हो।
    • 304 (b): राज्य सार्वजनिक हित में व्यापार पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है, लेकिन ऐसे कानून के लिए राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति आवश्यक है।
  • अनुच्छेद-301 – यह पूरे भारत में व्यापार, वाणिज्य और आवागमन की स्वतंत्रता की गारंटी प्रदान करता है, जिससे आर्थिक एकता सुनिश्चित होती है।

सर्वोच्च न्यायालय के अवलोकन

  • कर का संरक्षण उपाय के तौर पर प्रयोग नहीं: कर का प्रयोग बाह्य वस्तुओं की कीमत बढ़ाकर स्थानीय निर्माताओं को लाभ पहुँचाने के लिए नहीं किया जा सकता।
  • भेदभाव बनाम विभेदन
    • कर तभी वैध है, जब स्थानीय और बाहरी दोनों तरह की वस्तुओं पर समान कर आरोपित किया जाए।
    • जब बाहरी वस्तुओं पर अधिक कर आरोपित किया जाता है तो इसे भेदभावपूर्ण माना जाता है।
  • वैध अपवाद: आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों को सीमित समय के लिए बिना किसी भेदभाव के प्रोत्साहन/राहत देना भेदभाव नहीं है।
  • राजस्थान के नोटिफिकेशन पर
    • यह छूट केवल स्थानीय स्तर पर निर्मित वस्तुओं के लिए थी, जिनमें 25% फ्लाई ऐश का प्रयोग किया गया हो एवं राजस्थान के बाहर निर्मित समान वस्तुओं को इसमें शामिल नहीं किया गया था, भले ही उनमें समान मात्रा में फ्लाई ऐश का प्रयोग किया गया हो।
    • यदि छूट राजस्थान से प्राप्त फ्लाई ऐश का उपयोग करने वाली वस्तुओं पर लागू होती, चाहे वे किसी भी मूल की हों, तो यह भेदभावपूर्ण नहीं होती।

पूर्व के निर्णय 

  • वीडियो इलेक्ट्रॉनिक्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1990)
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बिक्री कर (सेल्स टैक्स) में छूट जो सीधे व्यापार को प्रतिबंधित नहीं करती, वैध है तथा व्यापार पर अप्रत्यक्ष प्रभाव स्वीकार्य है।
  • वर्तमान मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राजस्थान की अधिसूचना वीडियो इलेक्ट्रॉनिक्स के मानदंडों को पूरा नहीं करती है, क्योंकि इससे स्थानीय वस्तुओं के लिए प्रत्यक्ष मूल्य लाभ उत्पन्न होता है।

निर्णय का महत्त्व 

  • आर्थिक एकीकरण: सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से राज्यों को संरक्षणवादी कर नीतियों को अपनाने से रोका गया है।
  • संविधान में स्पष्टता: यह अनुच्छेद-301 और 304 के दायरे को परिभाषित करता है, जिससे पूरे भारत में व्यापार की स्वतंत्रता की रक्षा होती है।
  • राष्ट्रीय बाजार: यह एकीकृत बाजार के विचार को आगे बढ़ाता है, जो GST फ्रेमवर्क के अनुरूप है।
  • संतुलित संघवाद: यह राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता की रक्षा करता है और भेदभाव के विरुद्ध संवैधानिक सुरक्षा सुनिश्चित करता है।

संदर्भ

12वें WTO मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (2022) में अनुमोदित मत्स्यन सब्सिडी पर WTO समझौता, 2025 WTO सदस्यों के दो-तिहाई समर्थन की प्राप्ति के पश्चात् आधिकारिक रूप से लागू कर दिया गया है।

समझौते के मुख्य प्रावधान

  • यह पर्यावरणीय स्थिरता को केंद्र में रखने वाला पहला बहुपक्षीय व्यापार समझौता है।
  • अवैध मत्स्यन सब्सिडी पर प्रतिबंध: अवैध, असूचित और अनियमित (IUU) मत्स्यन गतिविधियों में संलग्न जहाजों या संचालकों को सरकारी सब्सिडी पर प्रतिबंध लगाता है।
  • मत्स्य भंडार का अति दोहन: अति-दोहन किए गए मत्स्य भंडार के लिए सब्सिडी निषिद्ध होगी, सिवाय उन मामलों के जहाँ यह जैविक रूप से स्थायी स्तर तक मत्स्य भंडार के पुनर्निर्माण के उद्देश्य से प्रावधानित हो।
  • ‘हाई सी’ में मत्स्यन: राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर और क्षेत्रीय मत्स्य प्रबंधन संगठनों/व्यवस्थाओं (RFMO/As) द्वारा विनियमित नहीं, अनियमित ‘हाई सी’ में मत्स्यन के लिए सब्सिडी पर प्रतिबंध लगाता है।
  • पारदर्शिता तंत्र: सदस्यों को नियमित रिपोर्टिंग के माध्यम से सब्सिडी और मत्स्यन प्रथाओं की जानकारी साझा करनी होगी।
  • विशेष एवं विभेदक व्यवहार (S&DT): विकासशील देशों और अल्प-विकसित देशों को दायित्वों को लागू करने के लिए लागू होने की तिथि से दो वर्ष की संक्रमण अवधि दी जाती है।
  • मत्स्यन सब्सिडी पर समिति: कार्यान्वयन की निगरानी, ​​प्रथाओं की समीक्षा और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए स्थापित किया गया है।
  • विश्व व्यापार संगठन मत्स्य कोष: विकासशील अर्थव्यवस्थाओं और अल्प-विकसित देशों को स्थायी मत्स्य प्रबंधन हेतु तकनीकी सहायता और क्षमता निर्माण प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया है। इस कोष की घोषणा वर्ष 2022 में की गई और इसके लिए लगभग 18 मिलियन डॉलर की प्रतिबद्धता दर्ज की गई है।

वैश्विक संदर्भ

  • अति-मत्स्य पालन संकट
    • वर्ष 2021 में वैश्विक मत्स्य भंडार का 35.5% अति-मत्स्य पालन किया गया, जबकि वर्ष 1974 में यह आँकड़ा 10% था।
    • समुद्री मत्स्यन सब्सिडी पर प्रतिवर्ष लगभग 35 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च किए जाते हैं; इसमें से 22 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सब्सिडी सीधे तौर पर मत्स्य भंडार में कमी का कारण बनती है।
  • जीविका का संकट: दुनिया भर में करोड़ों लोग भोजन, आय और रोजगार के लिए मत्स्य पालन पर निर्भर हैं।
  • पर्यावरणीय स्थिरता: पहला विश्व व्यापार संगठन समझौता स्पष्ट रूप से सतत् विकास लक्ष्य 14.6 (अति-मत्स्य पालन में योगदान देने वाली सब्सिडी समाप्त करना) को पूरा करने के उद्देश्य से है।

भारत की स्थिति

  • स्थायित्व सिद्धांत: भारत ‘प्रदूषणकर्ता भुगतान सिद्धांत’ और ‘साझा लेकिन विभेदित उत्तरदायित्वों’ (CBDR) का समर्थन करता है और माँग करता है कि ऐतिहासिक रूप से मत्स्य भंडार में कमी के लिए जिम्मेदार देशों को अधिक दायित्व वहन करने चाहिए।
  • न्यूनतम सब्सिडी: भारत उन्नत मत्स्य पालन देशों की तुलना में मत्स्य पालन पर न्यूनतम सब्सिडी प्रदान करता है। इसका मत्स्य पालन क्षेत्र लघु-स्तरीय और पारंपरिक है, औद्योगिक नहीं।
  • आजीविका संबंधी चिंताएँ: यह समझौता भारत के छोटे मछुआरों की रक्षा इस प्रकार करता है:-
    • जहाँ अत्यधिक मत्स्य भंडार के पुनर्निर्माण के उपाय किए जाते हैं, वहाँ सब्सिडी की अनुमति देना।
    • औद्योगिक बेड़ों द्वारा बड़े पैमाने पर IUU मत्स्य पालन को रोकना, जो भारतीय तटीय समुदायों को संसाधनों से वंचित करते हैं।

महत्त्व

  • बहुपक्षीय सहयोग: यह दर्शाता है कि विश्व व्यापार संगठन के सदस्य पर्यावरणीय क्षरण जैसी साझा चुनौतियों के लिए वैश्विक समाधान प्रदान कर सकते हैं।
  • हितों का संतुलन: छोटे मछुआरों की आजीविका की रक्षा करते हुए समुद्री संसाधनों की रक्षा करता है।
  • बहुपक्षवाद को मजबूत करना: व्यापार से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों के समाधान में विश्व व्यापार संगठन की प्रासंगिकता को सुदृढ़ करता है।
  • खाद्य सुरक्षा: स्थायी मत्स्य भंडार सुनिश्चित करता है, जो लाखों लोगों के लिए प्रोटीन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

सब्सिडी वाली प्रमुख योजनाएँ

  • प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (PMMSY): विभिन्न मत्स्य पालन गतिविधियों के लिए 40% (सामान्य वर्ग) और 60% (महिला, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति) तक की सब्सिडी।
  • नीली क्रांति योजना: एकीकृत मत्स्य विकास, जलीय कृषि और शीत-शृंखला सुविधाओं के लिए सहायता।
  • मत्स्य पालन और जलीय कृषि अवसंरचना विकास निधि (Fisheries and Aquaculture Infrastructure Development Fund- FIDF): मत्स्यन बंदरगाह, शीत-शृंखला और प्रसंस्करण इकाइयों जैसी बड़ी अवसंरचना परियोजनाओं के लिए रियायती वित्त तथा ब्याज सहायता।
  • मछुआरों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड (KCC): कार्यशील पूँजी और निवेश आवश्यकताओं के लिए संस्थागत ऋण प्रदान करने हेतु मछुआरों और मत्स्यपालकों को प्रदान किया गया है।

माही बाँसवाड़ा राजस्थान परमाणु ऊर्जा परियोजना

भारतीय प्रधानमंत्री ने माही बाँसवाड़ा राजस्थान परमाणु ऊर्जा परियोजना एवं सौर आधारित, राजमार्ग, रेलवे तथा कल्याणकारी परियोजनाओं सहित कई विकास परियोजनाओं का उद्घाटन एवं शिलान्यास किया।

माही बाँसवाड़ा राजस्थान परमाणु ऊर्जा परियोजना के बारे में

  • अवस्थिति: माही नदी के दाहिने किनारे पर, राजस्थान में माही बजाज सागर बाँध के पास अवस्थित है।
  • क्षमता एवं रिएक्टर
    • चार स्वदेशी दाबित भारी जल रिएक्टर (Pressurised Heavy Water Reactors- PHWRs) जिनमें प्रत्येक 700 मेगावाट क्षमता का है।
    • कुल क्षमता: 2,800 मेगावाट।
  • विकासकर्ता: अणुशक्ति विद्युत निगम लिमिटेड (ASHVINI)।
    • अणुशक्ति विद्युत निगम लिमिटेड (ASHVINI), भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम लिमिटेड (NPCIL) एवं NTPC लिमिटेड का एक संयुक्त उद्यम है।
  • समय-सीमा: निर्माण शुरू होने के बाद 6.5 वर्षों में पूर्ण होने का अनुमान
  • राजस्थान के लिए महत्त्व: रावतभाटा (Rawatbhata- RAPP) (2,580 मेगावाट क्षमता) के बाद राज्य का दूसरा परमाणु संयंत्र।

भारत की परमाणु ऊर्जा क्षमता

  • वर्तमान क्षमता: भारत 24 रिएक्टरों (8,180 मेगावाट) का संचालन करता है, जिनका प्रबंधन NPCIL द्वारा किया जाता है।
  • लक्ष्य: वर्ष 2031-32 तक 22,480 मेगावाट तक विस्तार (10 नए रिएक्टर निर्माणाधीन, 10 एवं पर परियोजना-पूर्व कार्य)।
  • दीर्घकालिक दृष्टिकोण: वर्ष 2047 तक 100 गीगावाट परमाणु ऊर्जा।

कोडाईकनाल के मेगालिथिक डोलमेंस

कोडाईकनाल के 5,000 वर्ष से भी प्राचीन मेगालिथिक ‘डोलमेंस’, उपेक्षा, वनस्पति आवरण की हानि एवं विनाश के कारण लुप्त हो रहे हैं।

डोलमेंस क्या हैं?

  • डोलमेंस महापाषाणकालीन संरचनाएँ हैं, आमतौर पर शवाधान स्थल, जो एक वृहद शिलाखंड को सहारा देने वाले चार ऊर्ध्वाधर स्तंभ द्वारा निर्मित होते हैं।
  • ये चट्टानी चोटियों एवं ढलानों में पाए जाते हैं, जो प्रायः प्राकृतिक खदानों के साथ संरेखित होते हैं।
  • महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों/आदिवासी नेताओं के लिए स्मारक के रूप में थे।

ऐतिहासिक अभिलेख

  • पहला सर्वेक्षण रेवरेंड A. एंग्लेड एवं रेवरेंड L.V. न्यूटन (जेसुइट प्रीस्ट, 1910 के दशक) द्वारा किया गया।
  • ‘द डोलमेंस ऑफ द पलानी हिल्स’ (वर्ष 1928, ASI के संस्मरण) में प्रलेखित।
  • सड़क निर्माण कार्य के दौरान डोलमेन को नष्ट होते देखा गया है, जिनके स्लैब का पुनः उपयोग पुलिया और दीवारों के निर्माण में किया जाता था।

कोडाईकनाल डोलमेंस की मुख्य विशेषताएँ

  • निर्माण तकनीक: पत्थरों पर बहुत कम या बिल्कुल भी सजावट नहीं दिखाई देती, जिससे पता चलता है कि इन्हें न्यूनतम आकार दिया गया एवं साधारण औजारों से बनाया गया था।
  • प्राकृतिक रूप से उपलब्ध स्लैब का प्रयोग करके चट्टानी चोटियों/ढलानों पर निर्मित।
  • ‘कैपस्टोन’ डिजाइन: वर्षा जल निकासी के लिए ढलान, जलभराव को रोकने के लिए कक्षों में छिद्र थे।
  • मुख्य रूप से थांडीकुडी, पेथुपराई, माचूर एवं पेरुमलमलाई जैसे स्थलों में पाए जाते हैं।

पुरातात्त्विक साक्ष्य

  • उत्खनन से प्राप्त कलाकृतियाँ: काले एवं लाल मृदभाँड, कार्नेलियन मोती।
  • लौह युग से लेकर ऐतिहासिक काल तक के संकेत देते हैं।
  • प्राचीन व्यापार मार्गों (पोल्लाची, पलानी, डिंडीगुल होते हुए मुसिरी-मदुरै) के किनारे स्थित हैं।
  • काली मिर्च और इलायची के बागानों की उपलब्धता के कारण ऊँचाई (4,000-5,000 फीट) पर बसावट अनुकूल थी।

मध्य अमेरिकी एकीकरण प्रणाली (SICA)

न्यूयॉर्क में भारत-SICA विदेश मंत्रियों की बैठक में, भारतीय विदेश मंत्री ने मध्य अमेरिकी एकीकरण प्रणाली (Central American Integration System- SICA) देशों के साथ भारत के बढ़ते संबंधों पर प्रकाश डाला, जिसमें व्यापार, निवेश एवं डिजिटल भुगतान सहयोग पर ध्यान केंद्रित किया गया।

मध्य अमेरिकी एकीकरण प्रणाली (SICA) के बारे में

  • स्थापना: वर्ष 1962 के ODECA चार्टर में संशोधन करते हुए, तेगुसिगाल्पा प्रोटोकॉल के माध्यम से 13 दिसंबर, 1991 को इसकी स्थापना की गई।
    • यह 1 फरवरी, 1993 को लागू हुआ।
  • मुख्यालय: इसका सचिवालय ‘अल सल्वाडोर’ में अवस्थित है।
  • सदस्यता
    • संस्थापक सदस्य: कोस्टा रिका, अल साल्वाडोर, ग्वाटेमाला, होंडुरास, निकारागुआ, पनामा।
    • अन्य सदस्य: बेलीज एवं डोमिनिकन गणराज्य (पूर्ण सदस्य)।
    • पर्यवेक्षक: क्षेत्रीय (जैसे, मेक्सिको, चिली, ब्राजील, अमेरिका) एवं अन्य (जैसे, यूरोपीय संघ, जापान, भारत, UK)।
  • उद्देश्य
    • शांति, स्वतंत्रता, लोकतंत्र एवं विकास को बढ़ावा देना।
    • एक मुक्त व्यापार क्षेत्र एवं बाद में एक सीमा शुल्क संघ का गठन।
    • उन्नत बुनियादी ढाँचा एकीकरण, समान पासपोर्ट/वीजा नीतियाँ एवं वैश्विक मुद्दों पर एकीकृत दृष्टिकोण।
  • संरचना एवं संचालन
    • अध्यक्षता प्रत्येक छह माह में बदलती रहती है।
    • द्विवार्षिक शिखर सम्मेलन एवं नियमित मंत्रिस्तरीय बैठकें संचालित होती है।
    • सफलता: एक सीमा शुल्क संघ की स्थापना (ग्वाटेमाला, होंडुरास, अल सल्वाडोर पूर्ण सदस्य एवं  डोमिनिकन गणराज्य पर्यवेक्षक)।

भारत-SICA सहयोग

  • प्रारंभिक सहभागिता (वर्ष 2004): अल सल्वाडोर के विदेश मंत्री एवं SICA महासचिव के नेतृत्व में 18 सदस्यीय SICA प्रतिनिधिमंडल का भारत दौरा।
    • भारत के साथ राजनीतिक सहयोग एवं संवाद पर घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर।
  • वर्ष 2008: नई दिल्ली में भारत-SICA विदेश मंत्रियों की दूसरी बैठक एवं संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान द्विवार्षिक बैठकों एवं वार्षिक परामर्श पर सहमति। भारत-SICA व्यापार मंच तथा संयुक्त तकनीकी समिति की स्थापना।
  • वर्ष 2015: तीसरी मंत्रिस्तरीय बैठक (ग्वाटेमाला)।

डुगोंग

IUCN ने विश्व संरक्षण कांग्रेस 2025 में भारत के पहले डुगोंग संरक्षण रिजर्व (पाक खाड़ी, तमिलनाडु में 448 वर्ग किमी.) को मान्यता प्रदान की, जिसे तमिलनाडु सरकार ने वर्ष 2022 में घोषित किया था।

डुगोंग के बारे में

  • डुगोंग या “सी काउ” समुद्री स्तनपायी है, जो समुद्र की उथली तटीय जलराशि में पाई जाने वाली समुद्री घास पर निर्भर रहता है। 
  • आवास: वे उथले तटीय जल में, आमतौर पर 10 मीटर की गहराई में, उष्णकटिबंधीय एवं उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में रहते हैं।
  • आहार: डुगोंग विशेष रूप से समुद्री घास के मैदानों, विशेष रूप से साइमोडोसिया जैसी प्रजातियों पर भोजन के लिए आश्रित होते हैं, जो उनके प्राथमिक खाद्य आश्रय हैं।
  • वितरण
    • वैश्विक: वे पूर्वी अफ्रीका एवं लाल सागर से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक, हिंद-प्रशांत क्षेत्र के 40 देशों में विस्तृत हैं।
    • भारत: भारत में, डुगोंग मुख्य रूप से मन्नार की खाड़ी, पाक खाड़ी, कच्छ की खाड़ी एवं अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में पाए जाते हैं।
  • संरक्षण स्थिति
    • वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972: अनुसूची I के अंतर्गत सूचीबद्ध,
    • IUCN स्थिति: सुभेद्य (Vulnerable)।

IUCN विश्व संरक्षण कांग्रेस

  • प्रत्येक चार वर्ष में आयोजित होने वाला IUCN विश्व संरक्षण कांग्रेस, पर्यावरण संरक्षण एवं सतत् विकास के लिए समर्पित एक वैश्विक मंच है।
  • प्रतिभागी: यह सहयोगात्मक कार्रवाई को बढ़ावा देने के लिए सरकारों, नागरिक समाज, स्वदेशी समूहों, व्यवसायों एवं शिक्षा जगत के व्यक्तियों तथा निर्णयकर्ताओं को एक साथ लाता है।
  • उद्देश्य: इस कांग्रेस का उद्देश्य पर्यावरण शासन को मजबूत करना, प्रकृति-आधारित समाधानों के माध्यम से वैश्विक चुनौतियों का समाधान करना एवं संरक्षण जिम्मेदारियों तथा लाभों का समान वितरण सुनिश्चित करना है।
  • वर्ष 2025 की IUCN विश्व संरक्षण कांग्रेस: ​​अबू धाबी, संयुक्त अरब अमीरात।

राष्ट्रीय दिव्यांग सशक्तीकरण केंद्र (NCDE)

घायल केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (CAPF) कर्मियों को हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय दिव्यांग सशक्तीकरण केंद्र (NCDE) में पैरा-एथलीट और आईटी पेशेवर के रूप में प्रशिक्षित किया जा रहा है।

दिव्यांग वॉरियर्स (Divyang warriors) के बारे में

  • “दिव्यांग वॉरियर्स” (Divyang Warriors) उन CAPF कर्मियों को कहा जाता है, जो नक्सलियों, आतंकवादियों या उग्रवादियों के विरुद्ध अभियानों के दौरान अंग-विच्छेदन या दृष्टि हानि जैसी गंभीर चोटों से ग्रसित होते हैं।

राष्ट्रीय दिव्यांग सशक्तीकरण केंद्र (NCDE) के बारे में

  • NCDE को ड्यूटी के दौरान दिव्यांग हुए CAPF कर्मियों के पुनर्वास और सशक्तीकरण के लिए ’सिंगल विंडो सिस्टम’ के रूप में डिजाइन किया गया है।
  • स्थापना: NCDE की परिकल्पना पूर्व CRPF महानिदेशक ए. पी. महेश्वरी द्वारा की गई थी और दिसंबर 2020 में इसका उद्घाटन किया गया। 
  • अवस्थिति: CRPF समूह केंद्र, हकीमपेट, हैदराबाद।
  • उद्देश्य: गरिमा को पुनर्स्थापित करना, आत्मविश्वास जागृत करना और खेल एवं कौशल प्रशिक्षण के माध्यम से नए कॅरियर मार्ग प्रदान करना।
  • सरकारी समर्थन: कृत्रिम अंग उपलब्ध कराना और वित्तीय सहायता CRPF वेलफेयर फंड और ‘भारत के वीर’ प्लेटफॉर्म के माध्यम से प्रदान की जाती है।
  • उपलब्धियाँ: वर्ष 2020 से अब तक 219 दिव्यांग वॉरियर्स को NCDE में प्रशिक्षित किया गया है।
    • ये पैरा-एथलीट के रूप में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में पदक जीत चुके हैं।
    • कई वॉरियर्स को IT तथा डेस्क-आधारित कार्यक्षेत्र में प्रशिक्षित कर खुफिया तथा डाटा प्रबंधन में सार्थक योगदान देने हेतु तैयार किया जा रहा है।
  • NCDE में सुविधाएँ
    • समग्र पुनर्वास के लिए कृत्रिम अंग उपलब्ध कराना, फिजियोथेरेपी एवं आघात संबंधी परामर्श।
    • IT पाठ्यक्रमों के लिए BITS पिलानी के साथ कौशल विकास समझौता।
    • जिम, पैरा-स्पोर्ट्स उपकरण, फिजियोथेरेपी कक्ष एवं ध्यान सत्र सहित खेल अवसंरचना।

सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, 1958

हाल ही में गृह मंत्रालय ने मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में AFSPA को अगले छह माह के लिए बढ़ा दिया है।

वर्तमान स्थिति में AFSPA का क्षेत्रीय दायरा

  • नागालैंड: नौ जिलों एवं पाँच जिलों के कुछ थाना क्षेत्रों में लागू।
  • असम: कुछ जिलों में प्रभावी।
  • मणिपुर: पूरे राज्य में लागू, केवल पाँच घाटी जिलों के 13 थाना क्षेत्रों को छोड़कर।
  • अरुणाचल प्रदेश: तिरप, चांगलांग, लोंगडिंग तथा नामसाई जिले के कुछ हिस्सों में लागू।
  • जम्मू एवं कश्मीर: यहाँ AFSPA सशस्त्र बल (जम्मू और कश्मीर) विशेष शक्तियाँ अधिनियम,1990 के अंतर्गत लागू है, जो उत्तर-पूर्व में 1958 अधिनियम जैसी ही शक्तियाँ प्रदान करता है।

AFSPA के बारे में

  • सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, 1958 सशस्त्र बलों को “अशांत क्षेत्रों” में सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने हेतु विशेष शक्तियाँ प्रदान करता है।
    • वर्ष 1958 में नागा हिल्स में विद्रोह से निपटने के लिए लागू किया गया, बाद में असम में भी विस्तारित किया गया।
  • प्रवर्तन की शर्तें: AFSPA केवल उन क्षेत्रों में लागू होता है, जिन्हें “अशांत क्षेत्र” घोषित किया गया हो।
    • राज्य एवं केंद्र सरकार दोनों किसी क्षेत्र को अशांत घोषित कर सकते हैं। 
  • अशांत क्षेत्र की परिभाषा (धारा 3): ऐसा क्षेत्र, जहाँ कानून-व्यवस्था बनाए रखने हेतु नागरिक प्राधिकरण की सहायता के लिए सशस्त्र बलों की आवश्यकता हो।
    • धार्मिक, जातीय, भाषायी या क्षेत्रीय विवादों के आधार पर भी क्षेत्र अशांत घोषित किया जा सकता है।
    • एक बार घोषित होने पर विक्षुब्ध क्षेत्र (विशेष न्यायालय) अधिनियम, 1976 के तहत स्थिति न्यूनतम तीन माह तक बनी रहती है। 

सशस्त्र बलों की विशेष शक्तियाँ

  • पाँच या अधिक व्यक्तियों की सभा पर रोक लगाने का अधिकार।
  • कानून उल्लंघन करने पर चेतावनी के बाद बल प्रयोग अथवा गोली चलाने का अधिकार।
  • उचित संदेह पर बिना वारंट गिरफ्तारी का अधिकार।
  • बिना वारंट तलाशी एवं हथियार रखने पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार।
  • गिरफ्तार व्यक्ति तथा रिपोर्ट को निकटतम थाने में सौंपना अनिवार्य।

कानूनी प्रतिरक्षा: AFSPA के अंतर्गत कार्रवाई करने वाले सशस्त्र बल कर्मियों पर मुकदमा तभी चल सकता है, जब केंद्र सरकार से अनुमति प्राप्त हो।

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में हरित पटाखों (ग्रीन क्रैकर्स) के निर्माण की अनुमति दी है, लेकिन दिल्ली-NCR में उनकी बिक्री पर रोक लगा दी है।

सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश

  • निर्णय का कारण: राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (NEERI) और पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव सेफ्टी ऑर्गनाइजेशन (PESO) द्वारा प्रमाणित तथा अनुमोदित निर्माता कठोर शर्तों के अधीन हरित पटाखों के निर्माण की अनुमति प्राप्त कर सकते हैं, ताकि लोगों की आजीविका की रक्षा हो सके।
  • प्रतिबंध: दिल्ली-NCR में प्रदूषण बढ़ने से रोकने के लिए, निर्माताओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे प्रतिबंधित क्षेत्रों में पटाखे न बेचें।
    • हालाँकि हरित पटाखे पारंपरिक पटाखों की तुलना में कम प्रदूषण करते हैं, लेकिन फिर  भी वे दिल्ली-NCR में प्रदूषण का स्तर बढ़ा सकते हैं।

हरित पटाखों के बारे में

  • ये पर्यावरण अनुकूल पटाखे हैं, जिन्हें वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पर्यावरण एवं अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (NEERI) द्वारा CSIR के तहत विकसित किया गया।
  • पारंपरिक पटाखों की तुलना में ये वायु और ध्वनि प्रदूषण को 30–40% तक कम करते हैं तथा इनमें विषैले बेरियम नाइट्रेट्स के स्थान पर पोटेशियम नाइट्रेट और एल्युमिनियम जैसे सुरक्षित विकल्पों का प्रयोग किया जाता है।
    • इन पटाखों में ध्वनि प्रदूषण का स्तर 100-130 dB होता है, जो पूर्व में प्रयुक्त पटाखों (160-200 dB) से कम है।
  • इनकी प्रामाणिकता के लिए QR कोड और हरित लोगो होता है।

हरित पटाखों के प्रकार

  • सेफ वाटर  रिलीजर (SWAS): जलवाष्प उत्सर्जित करता है, SO₂ और कणिकीय पदार्थ में लगभग 30% कमी।
  • सेफ मिनिमल एल्युमीनियम (SAFAL): फ्लैश पाउडर में कम एल्युमिनियम,  पार्टीकुलेट मैटर में 35–40% कमी।
  • सेफ थर्माइट क्रैकर (STAR): KNO₃ और सल्फर का कम उपयोग, SO₂ और NOx उत्सर्जन में कमी।

हरित पटाखों से संबंधित चुनौतियाँ

  • आंशिक प्रदूषण में कमी: PM2.5, PM10, सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड 30-40% तक कम हो जाते हैं, परंतु अल्ट्राफाइन पार्टिकल्स (UFP) का उत्सर्जन काफी बढ़ जाता है।
  • अल्ट्राफाइन पार्टिकल्स (UFP): हरित पटाखों से UFP (PM1, 1 माइक्रोन = 1000 nm) का उच्च स्तर निकलता है, जो PM2.5 और PM10 से अधिक हानिकारक होते हैं।
    • ये कण फेफड़ों, ऊतकों और रक्तप्रवाह में गहराई तक जा सकते हैं, जिससे गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण की सीमाएँ: ध्वनि उत्सर्जन को 120 डेसिबल से कम रखा जाता है, लेकिन UFP के कारण पर्यावरण सुरक्षा पूरी नहीं हो पाती।
  • आर्थिक और परिचालन चुनौतियाँ: हरित पटाखों की लागत अधिक होती है और उन्हें सुखाने में अधिक समय लगता है, जबकि पर्यावरण के अनुकूल परिवर्तन के लिए वित्तीय सहायता सीमित है।
  • बाजार से जुड़ी समस्याएँ: महामारी और राज्य के प्रतिबंधों के कारण माँग कम हो गई, जबकि अवैध बिक्री और गलत लेबलिंग के जोखिम से पर्यावरण और श्रमिकों की आय दोनों को खतरा है।

आगे की राह 

  • कड़ी निगरानी और अनुपालन: यह सुनिश्चित करने के लिए नियमित निरीक्षण और ऑडिट करना कि निर्माता NEERI और PESO प्रमाण-पत्रों का पालन करें तथा प्रतिबंधित क्षेत्रों में अवैध बिक्री को रोका जा सके।
  • लाइसेंसिंग और नियंत्रित वितरण: डिजिटल ट्रैकिंग वाले लाइसेंस प्राप्त उत्पादन केंद्र स्थापित करना, जिससे उत्पादित, परिवहन और संग्रहण मात्रा का पता चले तथा स्थानीय बाजारों में अवैध बिक्री कम हो।
  • जागरूकता और प्रवर्तन: व्यापारियों और उपभोक्ताओं के लिए जागरूकता अभियान संचालित करना और सर्दियों में प्रदूषण के चरम समय के दौरान अवैध पटाखे जलाने या बेचने से रोकने के लिए कानून प्रवर्तन को मजबूत करना।

संदर्भ

भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने वर्ष 2027 की जनगणना के लिए शहरी क्षेत्रों की परिभाषा के तौर पर वर्ष 2011 की जनगणना वाली परिभाषा को बनाए रखने का प्रस्ताव दिया है, लेकिन जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि यह पुराना ढाँचा शहरी आबादी की सही गणना में कमी का खतरा उत्पन्न कर सकता है।

मौजूदा शहरी परिभाषा (वर्ष 2011 जनगणना)

  • कानूनी शहर: वे क्षेत्र, जिन्हें राज्य सरकारों ने औपचारिक रूप से शहरी क्षेत्र घोषित किया हो और जिनमें शहरी स्थानीय निकाय (नगर निगम, परिषदें, नगर पंचायतें) हों।
  • जनगणना शहर: वे स्थान जो तीन मानदंडों को पूरा करते हों:
    • कम-से-कम 5,000 की जनसंख्या।
    • घनत्व 400 व्यक्ति/वर्ग किमी. या उससे अधिक।
    • कम-से-कम 75% पुरुष श्रमिक जनसंख्या गैर-कृषि कार्य में संलग्न हो।
  • जनगणना के अनुसार, ये शहर प्रशासनिक रूप से ग्रामीण ही रहते हैं, भले ही वे शहरी क्षेत्रों की तरह कार्य करते हों।

वर्तमान परिभाषा की सीमाएँ

  • दोहरे वर्गीकरण: ग्रामीण बनाम शहरी वर्गीकरण में संक्रमणकालीन और अर्द्ध-शहरी आवास क्षेत्रों की उपेक्षा की जाती है।
  • शहरीकरण को कम आँकना: संकीर्ण परिभाषात्मक मानदंड भारत की शहरी आबादी के आँकड़ों को कम आँका हुआ दर्शाते हैं, जिससे कई ऐसे समुदाय, जो वास्तविक रूप में शहरी जीवन यापन करते हैं, सरकारी रिकॉर्ड में ‘ग्रामीण’ श्रेणी में शामिल हो जाते हैं।
  • रूढ़िवादी विरासत: तुलनात्मकता बनाए रखने और शहरी वर्गीकरण में कृत्रिम वृद्धि को रोकने के उद्देश्य से ये मानदंड वर्ष 1961 में एक रूढ़िवादी दृष्टिकोण के तहत विकसित किए गए थे।।
  • प्रशासन में असंगति: प्रशासन में असंगति यह है कि कई बड़े शहरी-ग्रामीण क्षेत्र जनगणना में शहरी इकाइयों के रूप में दर्ज होते हैं, किंतु उनका प्रशासन ग्रामीण व्यवस्थाओं के अंतर्गत संचालित होता है।
  • वास्तविकता से संरेखित नहीं: वर्ल्ड बैंक का एग्लोमरेशन इंडेक्स बताता है कि वर्ष 2010 में 55.3% भारतीय शहरी जैसी परिस्थितियों में रहते थे, जो सरकारी आँकड़े 31% से बहुत अधिक है।
  • पुराना कार्यबल नियम: केवल पुरुषों और कृषि पर आधारित मापदंड महिलाओं के अनौपचारिक कार्य, गिग इकोनॉमी और मौसमी प्रवास की उपेक्षा करते हैं।

आशय

  • योजना में कमी: शहर के समान क्षेत्रों को शहरी बुनियादी ढाँचे, सेवाओं और योजनाओं से बाहर रखा गया है।
  • सेवाओं में कमी: जल, स्वच्छता, परिवहन, आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी।
  • प्रशासन में अक्षमता: ग्रामीण प्रशासन शहरी चुनौतियों से निपटने के लिए उपयुक्त नहीं है।
  • गलत सांख्यिकीय जानकारी: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, शहरी आबादी 31% थी, लेकिन घनत्व के आधार पर यह 35-57% बताई गई।
  • नीतिगत त्रुटियाँ: त्रुटिपूर्ण वर्गीकरण से SDG लक्ष्य और समावेशी शहरीकरण की नीतियाँ प्रभावित होती हैं।

वैश्विक विकल्प: संयुक्त राष्ट्र का शहरीकरण स्तर (DEGURBA)

  • UN सांख्यिकी आयोग (वर्ष 2020) द्वारा अनुमोदित।
  • यूरोपीय संघ, खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO), अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO), आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OECD), संयुक्त राष्ट्र मानव आवास कार्यक्रम (UN-Habitat) और विश्व बैंक द्वारा विकसित।
  • ‘हाई रिजॉल्यूशन बेस्ड सैटेलाइट इमेज’ एवं जनसंख्या ग्रिड (1 किमी.²) का प्रयोग करता है।
  • क्षेत्रों को तीन मुख्य श्रेणियों और सात उप-श्रेणियों में वर्गीकृत करता है:
    • शहरी केंद्र
    • शहरी समूह (घने, अर्द्ध-सघन, उप-शहरी/परि-शहरी)
    • ग्रामीण क्षेत्र (समूह, कम घनत्व वाले, बहुत कम घनत्व वाले)।
  • लाभ 
    • यह प्रशासनिक सीमाओं से परे बस्तियों के वास्तविक भौगोलिक विस्तार को दर्शाता है।
    • यह शहरीकरण और बुनियादी ढाँचे की आवश्यकताओं की बेहतर समझ में मदद करता है।
    • यह SDG और सेवाओं तक पहुँच की निगरानी में सुधार करता है।
  • सीमाएँ
    • कम घनत्व सीमा के कारण कृषि भूमि या कम आबादी वाले क्षेत्रों को गलत तरीके से शहरी रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
    • यह मशीन लर्निंग और सेटेलाइट डेटा पर निर्भर है, जिससे कम या अधिक पहचान की संभावना बनी रहती है।

संदर्भ

हाल ही में, केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (Ministry of Statistics and Programme Implementation- MoSPI) ने चंडीगढ़ में केंद्रीय और राज्य सांख्यिकी संगठनों के 29वें सम्मेलन (Conference of Central and State Statistical Organizations- CoCSSO) के दौरान ‘चिल्ड्रन इन इंडिया, 2025′ (Children in India 2025) रिपोर्ट का चौथा अंक जारी किया।

रिपोर्ट के बारे में

  • प्रकाशक: केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI)।
  • शीर्षक: चिल्ड्रन इन इंडिया, 2025′ रिपोर्ट (वर्ष 2008 के बाद यह चौथा संस्करण है)। 
  • प्रकृति: भारत में बच्चों की स्थिति और कल्याण पर तदर्थ प्रकाशन।
  • फोकस क्षेत्र: शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, बाल संरक्षण, आदि।
  • डेटा स्रोत: विभिन्न सरकारी मंत्रालयों, विभागों और संगठनों से प्राप्त द्वितीयक डेटा।

केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (Ministry of Statistics and Programme Implementation- MoSPI) के बारे में

  • प्राथमिक भूमिका: नीति निर्माण हेतु सांख्यिकीय आँकड़ों का संग्रह, विश्लेषण और प्रसार।
  • प्रमुख एजेंसियाँ
    • केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (Central Statistical Organisation- CSO): समष्टि-आर्थिक आँकड़े, राष्ट्रीय खाते, सकल घरेलू उत्पाद (GDP), उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI)।
    • राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (National Sample Survey Office- NSSO): रोजगार, उपभोग और कल्याण पर सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण।
    • कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन (Programme Evaluation Organisation- PEO): सरकारी योजनाओं की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करता है।
  • कार्यक्रम निगरानी: मनरेगा जैसी प्रमुख योजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी करता है।
  • महत्त्व: साक्ष्य-आधारित नीति, पारदर्शिता सुनिश्चित करता है और सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) की रिपोर्टिंग का समर्थन करता है।

रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ

  • शिशु मृत्यु दर (Infant Mortality Rate- IMR): 44 (वर्ष 2011) से घटकर 25 प्रति 1,000 जीवित जन्म (वर्ष 2023) हो गई; नवजात बालकों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक अर्थात् 26 है।
    • IMR किसी वर्ष में प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर एक वर्ष से कम आयु के शिशुओं की मृत्यु की संख्या को संदर्भित करता है।

  • पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर (Under-five Mortality Rate- U5MR): वर्ष 2023 में यह बढ़कर 29 हो गई, ग्रामीण क्षेत्रों में यह 33 और शहरी क्षेत्रों में 20 हो गई।
  •  ड्रॉपआउट दर: माध्यमिक विद्यालय ड्रॉपआउट दर 13.8% (वर्ष 2022-23) से घटकर 8.2% (वर्ष 2024-25) हो गई; प्रारंभिक और माध्यमिक स्तर पर ड्रॉपआउट संख्या में भी तेजी से गिरावट आई।
  • शीघ्र विवाह: 18 वर्ष से पहले विवाहित 20-24 वर्ष की महिलाओं का प्रतिशत 26.8% (वर्ष 2015-16) से घटकर 23.3% (वर्ष 2019-21) हो गया।

  • गोद लेने के रुझान: देश में गोद लेने की संख्या बढ़कर 4,155 (वर्ष 2024-25) हो गई, जिसमें लड़कों की तुलना में लड़कियों को अधिक बार गोद लिया गया।
  • शिक्षा में लैंगिक समानता: लैंगिक मानदंड कॅरियर की संभावनाओं और कार्य समानता को प्रभावित करते हैं। GER और जनसंख्या-समायोजित पर आधारित लैंगिक समानता सूचकांक (GPI) वर्ष 2024-25 में सभी शिक्षा स्तरों में राष्ट्रीय समानता दर्शाता है, जिसमें माध्यमिक स्तर 1.1 के साथ सबसे अधिक है।

  • बच्चों में उच्च ट्राइग्लिसराइड्स (Triglycerides): 5-9 वर्ष की आयु के एक-तिहाई से अधिक भारतीय बच्चों में ट्राइग्लिसराइड का उच्च स्तर है, जिससे भविष्य में हृदय रोग, मधुमेह और मोटापे का खतरा बढ़ जाता है।
    • उच्चतम प्रसार वाले राज्य: पश्चिम बंगाल (67%), सिक्किम (64%), नागालैंड (55%), असम (57%), जम्मू और कश्मीर (50%)।
    • सबसे कम प्रसार वाले राज्य: केरल (16.6%), महाराष्ट्र (19.1%)।
    • 16% किशोरों में उच्च ट्राइग्लिसराइड्स पाया जाता है, जो जीवन शैली से संबंधित स्वास्थ्य जोखिमों की शीघ्र शुरुआत का संकेत देता है।
  • किशोरों में उच्च रक्तचाप: लगभग 5% भारतीय किशोर उच्च रक्तचाप से ग्रस्त हैं; दिल्ली में यह सबसे अधिक (10%) है, इसके बाद उत्तर प्रदेश (8.6%), मणिपुर (8.3%), छत्तीसगढ़ (7%) का स्थान है।
    • युवाओं में उभरते हृदय संबंधी जोखिमों को दर्शाता है।
  • नवजात मृत्यु के कारण: 48% नवजात मृत्यु समय से पहले जन्म और कम वजन के कारण होती है, इसके बाद जन्म के समय श्वास में उत्पन्न अवरोध और आघात (16%) और निमोनिया (9%) का स्थान आता है।
    • यह मातृ एवं नवजात शिशु देखभाल की बेहतर आवश्यकता को इंगित करता है।
  • साक्षरता दर: 63.1% बच्चे और किशोर साक्षर हैं।
    • आयु-विशिष्ट साक्षरता
      • लड़के: 7–9 वर्ष: 80%, 10–14 वर्ष: 92%, 15–19 वर्ष: 91%।
      • लड़कियाँ: 7–9 वर्ष: 81.2%, 10–14 वर्ष: 90%, 15–19 वर्ष: 86.2%।
    • सार्वभौमिक शिक्षा और लैंगिक समानता में प्रगति दर्शाता है।
  • बच्चों के विरुद्ध अपराध में वृद्धि: बच्चों के विरुद्ध अपराध की घटनाएँ (भारतीय दंड संहिता और विशेष और स्थानीय कानून) 1,28,531 (वर्ष 2020) से बढ़कर 1,62,449 (वर्ष 2022) हो गईं।
    • वर्ष 2015-2022 के बीच प्रति 1,00,000 बच्चों पर अपराध का अनुपात बढ़ रहा है।
    • बच्चों के विरुद्ध हिंसा: इसमें शारीरिक, यौन, भावनात्मक दुर्व्यवहार और उपेक्षा शामिल है; यह घर, स्कूलों और संस्थानों में देखी जाती है।
    • लैंगिक जोखिम: लड़के और लड़कियों को शारीरिक और भावनात्मक दुर्व्यवहार का समान रूप से खतरा है; लड़कियों को यौन दुर्व्यवहार का अधिक खतरा है।
    • उच्च जोखिम वाले समूह: दिव्यांग बच्चे, अत्यधिक गरीबी में रहने वाले, शरणार्थी/प्रवासी, संस्थागत देखभाल में रहने वाले तथा हाशिए पर स्थित सामाजिक समूह (विविध यौन अभिविन्यास/लैंगिक पहचान सहित)।
  • अतिरिक्त संकेतक: इस रिपोर्ट में मृत्यु के कारणों, मोबाइल और डिवाइस के उपयोग, तथा समग्र प्रदर्शन तुलना पर आधारित नए आँकड़े शामिल हैं, जिससे इसकी नीतिगत प्रासंगिकता बढ़ जाती है।

बच्चों की परिभाषा

  • बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UN Convention on the Rights of the Child- CRC, 1989): ‘एक बच्चे का अर्थ 18 वर्ष से कम आयु का प्रत्येक व्यक्ति है, जब तक कि बच्चे पर लागू कानून के तहत, वयस्कता पहले प्राप्त न हो जाए।”
  • भारतीय कानून
    • बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986: बालक की परिभाषा उस व्यक्ति के रूप में की गई है, जिसने 14 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं की है।
    • किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015: बालक की परिभाषा उस व्यक्ति के रूप में की गई है, जिसने 18 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं की है।
    • शिक्षा का अधिकार (RTIRTE) अधिनियम, 2009: 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों पर लागू होता है।
  • जनसंख्या एवं जनसांख्यिकी: 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे भारत की जनसंख्या का 26% हैं, जिसके कारण स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा में लक्षित हस्तक्षेप की आवश्यकता है।

भारत में बच्चों के सामने प्रमुख चुनौतियाँ

  • स्वास्थ्य एवं पोषण: कुपोषण, बौनापन और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी व्यापक रूप से प्रसारित है, विशेषकर ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में, जो बच्चों के शारीरिक और संज्ञानात्मक विकास में बाधा डाल रही है। इसके अतिरिक्त, बच्चों में उच्च ट्राइग्लिसराइड्स स्तर और उच्च रक्तचाप बढ़ते हृदय संबंधी जोखिमों का संकेत देते हैं।
  • शिक्षा: स्कूल ड्रॉपआउट दर अभी भी उच्च स्तर पर बनी हुई है, विशेषकर वंचित क्षेत्रों में, जहाँ लैंगिक असमानताएँ लड़कियों की शिक्षा और कॅरियर के अवसरों तक पहुँच को सीमित कर रही हैं। डिजिटल विभाजन ग्रामीण क्षेत्रों में ई-लर्निंग में बाधा डालता है।
  • बाल संरक्षण: बच्चों को घरों, स्कूलों और संस्थानों में शारीरिक, यौन और भावनात्मक दुर्व्यवहार सहित हिंसा का सामना करना पड़ता है तथा उच्च जोखिम वाले समूह (जैसे- विकलांग, शरणार्थी) शोषण के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।
  • लैंगिक असमानता: सांस्कृतिक मानदंड लड़कियों की शिक्षा और कॅरियर के अवसरों को प्रतिबंधित करते हैं, और कम आयु में विवाह प्रचलित है, हालाँकि यह 26.8% (वर्ष 2015-16) से घटकर 23.3% (वर्ष 2019-21) हो गया है।
  • बाल श्रम एवं तस्करी: प्रगति के बावजूद, बाल श्रम, बाल विवाह और तस्करी जारी है, जो विशेष रूप से संस्थागत देखभाल में रहने वाले बच्चों को प्रभावित कर रही है।
  • शिशु एवं बाल मृत्यु दर: शिशु मृत्यु दर में कमी आई है, लेकिन लड़कों के लिए यह अभी भी अधिक है। ग्रामीण क्षेत्रों में पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर (33) शहरी क्षेत्रों (20) की तुलना में काफी अधिक है।
  • गोद लेने की प्रवृत्ति: देश में गोद लेने की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई है तथा बालिकाओं को अधिक संख्या में गोद लिया जा रहा है, जो गोद लेने की प्रथाओं में लैंगिक वरीयता को दर्शाता है।

सतत् विकास के संदर्भ में बच्चों में निवेश का महत्त्व

  • भविष्य की प्रगति का आधार: बच्चे किसी भी राष्ट्र के भविष्य के निर्माण खंड हैं; उनकी स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा सुनिश्चित करना समाज के सामाजिक तथा आर्थिक विकास को सीधे प्रभावित करता है।
  • मानव पूँजी विकास: बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण में निवेश करने से अधिक स्वस्थ, अधिक सक्षम कार्यबल का निर्माण होता है, जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलता है और सतत् विकास को बढ़ावा मिलता है।
  • शिक्षा के माध्यम से सशक्तीकरण: बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने से सशक्तीकरण, आर्थिक स्वतंत्रता और लैंगिक समानता के अवसर खुलते हैं तथा निर्धनता का दुश्चक्र टूटता है।
  • सामाजिक और भावनात्मक विकास: बच्चों को हिंसा, दुर्व्यवहार और उपेक्षा से बचाना उनके मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है, जिससे वे सहानुभूतिपूर्ण वयस्क बन सकें।
  • गरीबी के दुश्चक्र को तोड़ना: बाल श्रम, बाल विवाह और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दों को संबोधित करने से बच्चों को सशक्त बनाया जाता है, विशेष रूप से हाशिए पर स्थित बच्चों को, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि उन्हें शिक्षा तथा सामाजिक भागीदारी के समान अवसर प्राप्त हों।
  • सतत् विकास लक्ष्यों के मूल में बच्चे: शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और संरक्षण के लिए बच्चों के अधिकार वैश्विक विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के केंद्रीय विषय हैं, जिनमें गरीबी उन्मूलन, भूखमरी शून्य, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और लैंगिक समानता शामिल हैं।
  • दीर्घकालिक समृद्धि सुनिश्चित करना: बच्चों के कल्याण, स्वस्थ, शिक्षित और उत्पादक नागरिकों का निर्माण करके दीर्घकालिक सामाजिक समृद्धि सुनिश्चित करती है, जो राष्ट्रीय विकास और स्थिरता को बढ़ावा देती है।

बच्चों के मुद्दों के समाधान के लिए उठाए गए कदम

राष्ट्रीय नीतियाँ और चार्टर
  • नेशनल पॉलिसी फॉर चिल्ड्रन (National Policy for Children- NPC): विशेष रूप से अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और हाशिए पर स्थित बच्चों के लिए व्यापक स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, मनोरंजन और संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करती है।
  • नेशनल चार्टर फॉर चिल्ड्रन (National Charter for Children) (2004): जीवन रक्षा, पोषण, शिक्षा, सशक्तीकरण और दुर्व्यवहार एवं शोषण से सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध।
  • नेशनल प्लान ऑफ एक्शन फॉर चिल्ड्रन (National Plan of Action for Children) (2005): संयुक्त राष्ट्र महासभा के विशेष सत्र के लक्ष्यों, दसवीं पंचवर्षीय योजना के लक्ष्यों और राज्य-विशिष्ट कार्यक्रमों के साथ संरेखित किया गया है।
  • वैश्विक प्रतिबद्धताएँ: UNCRC, सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों (MDGs) और बाल कल्याण एवं तस्करी विरोधी सार्क सम्मेलनों के अनुरूप है।
विधिक प्रावधान
  • बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006: बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाता है, उल्लंघन पर गैर-जमानती अपराधों के साथ दंडित करता है।
  • POSCO अधिनियम, 2012: बच्चों को यौन उत्पीड़न और शोषण से बचाता है, बाल-अनुकूल न्यायालयों और प्रक्रियाओं की स्थापना करता है।
  • किशोर न्याय अधिनियम, 2015: पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करते हुए देखभाल की आवश्यकता वाले बच्चों और कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
स्वास्थ्य एवं पोषण कार्यक्रम
  • एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (Integrated Child Development Services- ICDS): आंगनवाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषण, टीकाकरण, स्वास्थ्य जाँच, रेफरल सेवाएँ, प्रीस्कूल शिक्षा और स्वास्थ्य शिक्षा प्रदान करती है।
  • राष्ट्रीय पोषण मिशन एवं प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना: कुपोषण को लक्षित करती है, यह विशेषतः पिछड़े एवं जनजातीय क्षेत्रों में क्रियान्वित की जा रही है।
  • प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (Reproductive and Child Health Programme- RCH): टीकाकरण, सूक्ष्म पोषक तत्त्व अनुपूरण और किशोर प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करता है।
  • पल्स पोलियो एवं सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम: पाँच वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों को टीकाकरण एवं नवजात शिशु देखभाल के लिए कवर किया जाता है।
शैक्षिक पहल
  • सर्व शिक्षा अभियान (Sarva Shiksha Abhiyan- SSA): सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित करना, बुनियादी ढाँचे में सुधार करना और लैंगिक अंतर को कम करना।
  • कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय (Kasturba Gandhi Balika Vidyalaya- KGBV): यह वंचित वर्ग की लड़कियों के लिए आवासीय विद्यालय उपलब्ध कराता है, जिससे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक उनकी पहुँच सुनिश्चित होती है।
  • मध्याह्न भोजन योजना: स्कूल जाने वाले बच्चों के नामांकन, ठहराव और पोषण में सहायता करती है।
  • बालिका शिक्षा के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम: इसका लक्ष्य स्कूल छोड़ चुकी, कामकाजी और वंचित बालिकाओं को शिक्षा तथा सामुदायिक सहभागिता के माध्यम से सशक्त बनाना है।
बाल संरक्षण उपाय
  • सड़क पर रहने वाले बच्चों और किशोर न्याय योजनाओं के लिए एकीकृत कार्यक्रम: कमजोर बच्चों के लिए पुनर्वास, पालन-पोषण देखभाल और संस्थागत देखभाल प्रदान करता है।
  • चाइल्ड हेल्पलाइन (1098): 72 शहरों में 24/7 टोल-फ्री सेवा, जो संकटग्रस्त बच्चों को आपातकालीन सहायता प्रदान करती है।
  • शिशु गृह योजना: देश में गोद लेने की सुविधा प्रदान करती है तथा अनाथ/परित्यक्त बच्चों के लिए न्यूनतम देखभाल मानक निर्धारित करती है।
  • बाल श्रम उन्मूलन: 150 राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजनाएँ व्यावसायिक प्रशिक्षण, शिक्षा और पुनर्वास प्रदान करती हैं।
  • तस्करी से निपटने के लिए पायलट परियोजनाएँ: स्रोत और गंतव्य क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों को व्यावसायिक यौन शोषण से बचाती हैं।
वैश्विक पहल और प्रतिबद्धताएँ
  • UNCRC के साथ संरेखण: भारत के बाल कल्याण कार्यक्रम बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UN Convention on the Rights of the Child- UNCRC) के साथ संरेखित हैं, जो बच्चों के अधिकारों और संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय मानकों हेतु प्रतिबद्ध हैं।
  • सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (MDGs) और सार्क सम्मेलन: भारत बाल जीवन रक्षा, संरक्षण और कल्याण से संबंधित अंतरराष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रतिबद्ध है।

सतत विकास लक्ष्य (SDG) और बच्चे – समावेशी और सतत् विकास का मार्ग

  • सतत विकास लक्ष्य (SDG): वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाए गए वर्ष 2030 एजेंडा में 17 लक्ष्य और 169 लक्ष्य शामिल हैं, जिनका उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देना है तथा बच्चों के अधिकारों और कल्याण को बढ़ावा देने पर विशेष ध्यान दिया गया है।
  • सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) के अंतर्गत बाल अधिकार: सतत् विकास लक्ष्य (SDG) बच्चों के मौलिक अधिकारों, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, संरक्षण, भागीदारी और समानता शामिल हैं, के संरक्षण और संवर्धन को प्राथमिकता देते हैं। ये अधिकार बच्चों के विकास और समाज में पूर्ण योगदान के लिए आवश्यक हैं।
  • परिवर्तन के उत्प्रेरक के रूप में बच्चे: बच्चे न केवल लाभार्थी हैं, बल्कि सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने में परिवर्तन के वाहक भी हैं। भविष्य के नेताओं, नागरिकों और हितधारकों के रूप में, उनकी सक्रिय भागीदारी यह सुनिश्चित करती है कि विकास समावेशी हो और “किसी को पीछे न छोड़ना” (LNOB) के सिद्धांत के अनुरूप हो।
  • सतत् विकास लक्ष्यों में बच्चों की प्रगति की निगरानी
    • बाल-विशिष्ट संकेतक: बच्चों के कल्याण की प्रभावी निगरानी सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) की प्रगति के लिए महत्त्वपूर्ण है। स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण, सुरक्षा और भागीदारी से जुड़े बाल-केंद्रित संकेतक प्रगति की निगरानी करने के लिए महत्त्वपूर्ण आँकड़े प्रदान करते हैं।
    • भारत का सतत् विकास लक्ष्य निगरानी ढाँचा: भारत NFHS, PLFS, ICDS और SRS जैसे सर्वेक्षणों के माध्यम से बाल-विशिष्ट आँकड़ों की निगरानी करता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि बाल स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और सुरक्षा राष्ट्रीय सतत् विकास लक्ष्य ढाँचे का अभिन्न अंग हैं।
    • स्थानीयकृत निगरानी: क्षेत्रीय स्तर पर अनुकूलित हस्तक्षेप यह सुनिश्चित करते हैं कि बाल-केंद्रित रणनीतियाँ स्थानीय चुनौतियों का समाधान करें, जिससे सतत् विकास लक्ष्यों का अधिक प्रभावी कार्यान्वयन हो सके।
  • बच्चों से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित सतत् विकास लक्ष्य
    • लक्ष्य 1: गरीबी उन्मूलन: गरीबी उन्मूलन से बच्चों को शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य सेवा तक बेहतर पहुँच प्राप्त होगी।
    • लक्ष्य 2: शून्य भुखमरी: सभी बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन सुनिश्चित करना, कुपोषण और बौनेपन को कम करना।
    • लक्ष्य 3: अच्छा स्वास्थ्य और कल्याण: टीकाकरण और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल के माध्यम से बाल स्वास्थ्य को बढ़ावा देना, बाल मृत्यु दर को कम करना।
    • लक्ष्य 4: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा: सार्वभौमिक शिक्षा की गारंटी, लैंगिक समानता को बढ़ावा देना और स्कूल ड्रॉपआउट दर को कम करना।
    • लक्ष्य 5: लैंगिक समानता: लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने और लड़कियों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित करता है।
    • लक्ष्य 6: शांति, न्याय और मजबूत संस्थाएँ: बच्चों के लिए न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करते हुए हिंसा, शोषण और दुर्व्यवहार से बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करना।

आगे की राह

  • स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा कवरेज का विस्तार: गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करने, बाल जीवन रक्षा तथा सीखने के परिणामों में सुधार लाने के लिए जनजातीय एवं हाशिए पर स्थित क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना।
  • डिजिटल निगरानी और बाल बजट को मजबूत करना: बाल संकेतकों की निगरानी करने के लिए UDISE+ और SRS जैसी प्रणालियों का उपयोग करते हुए वास्तविक समय के डिजिटल डैशबोर्ड को लागू करना, साथ ही बाल कल्याण के लिए अनुकूलित संसाधन आवंटन सुनिश्चित करने के लिए बाल बजट का उपयोग करना।
  • जागरूकता अभियान चलाना: स्कूलों, समुदायों और मीडिया में आउटरीच कार्यक्रमों के माध्यम से लैंगिक समानता, बाल विवाह रोकथाम और बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देना, जिससे अधिक समावेशी समाज का निर्माण हो सके।
  • राष्ट्रीय और राज्य सतत् विकास लक्ष्यों को संरेखित करना: बेहतर नीति समन्वय के साथ न्यायसंगत और समावेशी बाल विकास सुनिश्चित करने के लिए सतत् विकास लक्ष्यों को राष्ट्रीय तथा राज्य नियोजन में एकीकृत करना।
  • सामुदायिक भागीदारी और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना: बाल कल्याण कार्यक्रमों को सशक्त करने और वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के सहयोगात्मक कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए माता-पिता, स्थानीय निकायों, गैर-सरकारी संगठनों तथा अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को शामिल करना।
  • बच्चों के अधिकारों और कमजोरियों के लिए लक्षित कार्रवाई: बच्चों के अधिकारों और उनकी भेद्यता को संबोधित करने हेतु लक्षित कार्रवाई आवश्यक है, जिसमें दिव्यांगता तथा सामाजिक रूप से हाशिए पर स्थित होने जैसी कमजोरियों को समाप्त कर बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा एवं सभी के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना शामिल है।
  • बच्चों को हितधारकों के रूप में सशक्त बनाना: सतत् विकास लक्ष्यों और बाल-केंद्रित नीतियों के निर्णयन में भाग लेने के लिए बच्चों को सशक्त बनाना, यह सुनिश्चित करना कि उनके भविष्य को आकार देने में उनकी आवाज सुनी जाए।

निष्कर्ष 

‘बच्चे दुनिया के सबसे मूल्यवान संसाधन हैं और भविष्य के लिए सबसे अच्छी उम्मीद हैं।’ – जॉन एफ. कैनेडी

  • बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और सुरक्षा सुनिश्चित करने से न केवल संवैधानिक अधिकारों की रक्षा होती है, बल्कि सतत् विकास लक्ष्य 3, 4, 5 और 16 को भी बढ़ावा मिलता है। लक्षित नीतियों, डिजिटल निगरानी और सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से, भारत बाल कल्याण में वृद्धि कर सकता है, समानता को बढ़ावा दे सकता है और भावी मानव पूँजी का निर्माण कर सकता है।

संदर्भ

नागरिकता, अधिवास और प्रवास पर वर्तमान में संचालित बहस प्रांतीय नागरिकता (Provincial Citizenship) के उदय को रेखांकित करती है, जो मूलनिवासीवाद (Nativism) से प्रेरित होकर एकल भारतीय नागरिकता की अवधारणा को चुनौती देती है और बहिष्कार, भेदभाव तथा क्षेत्रीय विखंडन के जोखिम को बढ़ाती है।

संबंधित तथ्य   

  • बहस का संदर्भ: NRC अपडेट, अधिवास नीतियों और शहरी भारत में प्रवासियों के साथ दुर्व्यवहार के संदर्भ में प्रांतीय नागरिकता के विचार पर बहस चल रही है।
  • विद्वानों का दृष्टिकोण: कई विद्वान इस ओर संकेत करते हैं कि झारखंड, जम्मू-कश्मीर और असम जैसे राज्यों में अधिवास की राजनीति एक ऐसे नए स्तर का निर्माण कर रही है, जो राष्ट्रीय नागरिकता की अवधारणा से प्रतिस्पर्द्धा करता प्रतीत होता है।
  • वैश्विक आयाम: यह प्रवृत्ति एक व्यापक वैश्विक परिघटना का हिस्सा है, जहाँ गतिशीलता और प्रवासन जैसे मुद्दे स्थायित्व आधारित राजनीति से टकराते हैं और इसके परिणामस्वरूप ‘स्थानीय’ तथा ‘बाहरी’ के बीच का संघर्ष उभरता है।

ऐतिहासिक और सैद्धांतिक संदर्भ

  • प्रगति के रूप में गतिशीलता: व्यापारियों और पशुपालकों के प्राचीन व्यापार मार्गों से लेकर आज के वैश्वीकृत श्रम प्रवाह तक, गतिशीलता ने ऐतिहासिक रूप से सभ्यता को गति दी है।
    • इसके विपरीत, स्थायी निवास वंश, भूमि और संसाधनों को बहिष्कारवादी राजनीति से जोड़ता है।
  • संवैधानिक ढाँचा: भारत में एकल और राष्ट्रीय नागरिकता का प्रावधान है, जो नागरिकता अधिनियम, 1955 द्वारा विनियमित है, वहीं समानता, भेदभाव रहित और मुक्त आवागमन के अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 (कानून के समक्ष समानता और कानूनों का समान संरक्षण), अनुच्छेद-15 (भेदभाव का निषेध), अनुच्छेद-16 (सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता) और अनुच्छेद-19 (नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण) के अंतर्गत संरक्षित हैं।।
  • राज्य पुनर्गठन आयोग (States Reorganisation Commission- SRC) की चेतावनी (1955): SRC ने चेतावनी दी कि अधिवास नियम सामान्य भारतीय नागरिकता (Common Indian Citizenship) की अवधारणा को कमजोर कर देंगे और यदि सुधारात्मक कानून न बनाए गए तो संवैधानिक प्रावधान निरर्थक हो जाएँगी।

महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ

  • नागरिकता: भारतीय संविधान और नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत गारंटीकृत एक विशिष्ट राष्ट्रीय पहचान है। प्रत्येक भारतीय नागरिक को सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में समान अधिकार प्राप्त हैं।
  • निवास: एक कानूनी निवास स्थिति, जिसका उपयोग राज्य प्रायः सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक प्रवेश, भूमि अधिकारों और कल्याणकारी योजनाओं के लिए पात्रता निर्धारित करने के लिए करते हैं।
  • प्रवासी: आंतरिक प्रवासी (जो आजीविका के लिए राज्यों के मध्य प्रवास करते हैं) भारत की शहरी अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन प्रायः अधिवास नियमों के कारण उन्हें बहिष्कार और पहुँच की कमी का सामना करना पड़ता है।
  • प्रांतीय नागरिकता: एक अनौपचारिक, राजनीतिक रूप से निर्मित पहचान, जहाँ अधिकारों, लाभों तक पहुँच किसी विशेष राज्य के ‘मूल निवासी’ या ‘स्थानीय’ होने पर निर्भर करती है।

‘सन ऑफ द साइल’ (Sons of the Soil)

  • यह मूलनिवासी राजनीति को संदर्भित करता है, जहाँ स्थानीय पहचान को प्रवासियों की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है, जिससे मूल निवासियों और बाहरी लोगों के बीच विभाजन उत्पन्न होता है। इस अवधारणा का उपयोग रोजगार, शिक्षा और कल्याण में क्षेत्रीय प्राथमिकताओं को उचित ठहराने के लिए किया जाता है।

प्रांतीय नागरिकता के बारे में

  • परिभाषा: प्रांतीय नागरिकता, क्षेत्र-आधारित संबद्धता की परिभाषाओं को संदर्भित करती है, जहाँ निवास स्थान या नृजातीय पहचान अधिकारों, नौकरियों अथवा कल्याण तक पहुँचने का आधार बन जाती है।
  • प्रकृति: यह आधिकारिक नागरिकता कानून का हिस्सा नहीं है, बल्कि राज्य की नीतियों, निवास आवश्यकताओं और राजनीतिक बयानबाजी के माध्यम से कार्य करता है।
  • केस स्टडीज
    • झारखंड: वर्ष 2000 में राज्य के निर्माण के बाद अधिवास नियम लागू हुए, जो प्रवासी अभिजात वर्ग के प्रति बहुसंख्यकों की शिकायतों को दर्शाते हैं और अनुच्छेद-16(2) के भेदभाव निषेध को कमजोर करते हैं।
    • जम्मू और कश्मीर: वर्ष 2019 के बाद, अधिवास प्रावधानों को हाशिए पर स्थित समूहों (वाल्मीकि, गोरखा, पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थी) को शामिल करने के लिए नया रूप दिया गया, जिससे अधिवास को एक समावेशी और बहिष्कृत करने वाले साधन के रूप में प्रदर्शित किया गया।
    • असम (NRC): राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) जैसी बहिष्करण संबंधी गतिविधियाँ दर्शाती हैं कि कैसे स्वदेशी बनाम बाहरी होने का प्रश्न प्राथमिकताओं को नए सिरे से परिभाषित करता है।

राष्ट्रीय नागरिकता बनाम प्रांतीय नागरिकता

आयाम

राष्ट्रीय नागरिकता (National Citizenship)

प्रांतीय नागरिकता (Provincial Citizenship)

संवैधानिक आधार अनुच्छेद-5-11 के तहत पूरे भारत के लिए एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है।  अनौपचारिक निर्माण, अधिवास नियमों और राज्य स्तरीय राजनीति द्वारा आकार दिया गया।
पहचान अखिल भारतीय; विविधता में एकता को बढ़ावा देता है। क्षेत्रीय/नृजातीय/भाषायी; ‘सन ऑफ द साइल’  की भावना से जुड़ा हुआ।
गतिशीलता और अधिकार राज्यों में मुक्त आवागमन, निवास और समान अवसर सुनिश्चित करता है (अनुच्छेद-14, 15, 16, 19)। गैर-स्थानीय लोगों के लिए नौकरियों, भूमि, शिक्षा तक पहुँच को प्रतिबंधित किया जा सकता है।
संघवाद राष्ट्रीय एकीकरण को मजबूत करना; नागरिकता के मामले में राज्य संघ के अधीन हैं राज्य की स्वायत्तता को बढ़ाता है; संघीय संतुलन को चुनौती देता है।
राजनीतिक उपकरण चुनावी लामबंदी में कम प्रयोग मूलनिवासी राजनीति के लिए सशक्त उपकरण, विशेष रूप से संसाधन-विहीन राज्यों में।
न्यायिक समीक्षा न्यायालयों ने एकल नागरिकता सिद्धांत को बरकरार रखा। सीमित सहनशीलता (उदाहरण के लिए, निवास-आधारित आरक्षण जाँच के दायरे में)।
उदाहरण वर्ष 1947 के बाद अखिल भारतीय अधिकार झारखंड, महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर राज्य, जम्मू-कश्मीर (वर्ष 2019 के बाद के अधिवास नियम)।

प्रांतीय नागरिकता की आवश्यकता

  • स्थानीय पहचान और संसाधनों की रक्षा: समर्थकों का तर्क है कि प्रांतीय नागरिकता मूलनिवासी और आदिवासी समूहों की भूमि, रोजगार तथा  सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करती है, विशेषकर उन परिस्थितियों में, जहाँ उन्हें बाहरी लोगों के प्रभुत्व का डर रहता है।
  • हाशिये पर होने की समस्या का समाधान: यह ऐतिहासिक रूप से विकास लाभों से वंचित समुदायों को राजनीतिक मान्यता प्रदान करता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रतिस्पर्द्धी संघीय राजनीति में उनके मुद्दे पीछे न रह जाए।
  • चुनावी लामबंदी: प्रांतीय नागरिकता क्षेत्रीय दलों के लिए ‘सन ऑफ द साइल’ की भावनाओं को आकर्षित करके मतदाताओं को लामबंद करने का एक शक्तिशाली साधन है, जिससे प्रायः तत्काल चुनावी लाभ प्राप्त होता है।
  • सुधारात्मक उपकरण: इसे प्रवासन के जनसांख्यिकीय दबावों को कम करने के एक तंत्र के रूप में देखा जाता है, विशेष रूप से उन राज्यों में जहाँ गरीब क्षेत्रों से तीव्र गति से लोग आ रहे हैं।

प्रांतीय नागरिकता का महत्त्व 

  • राजनीतिक दृश्यता और स्थानीय सौदेबाजी की शक्ति: स्थानीय समुदायों और हाशिए पर स्थित समूहों (आदिवासी, दलित, जनजातियाँ) को एक दृष्टिकोण और लाभ प्रदान करता है,  जो राष्ट्रीय नीति-निर्माण में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं पा सकते।
  • क्षेत्रीय स्वायत्तता और संघीय अभिकथन: राज्यों को रोजगार, भूमि, संसाधनों और कल्याण पर नियंत्रण स्थापित करने की अनुमति देकर संघीय ढाँचे को मजबूत करता है, जिससे ‘उप-राष्ट्रीय’ पहचान की राजनीति को बल मिलता है।
  • राष्ट्रीय बहस के लिए उत्प्रेरक: यह प्रवासन, अधिवास कानूनों और कल्याणकारी उपलब्धियों पर संचालित चर्चा को प्रोत्साहन देता है, जिन्हें प्रायः मुख्यधारा की नीतिगत चर्चाओं में अनदेखा कर दिया जाता है।
  • लोकतांत्रिक संवेदनशीलता: राज्य की स्वायत्तता और राष्ट्रीय एकजुटता के बीच संचालित तनाव को दर्शाता है, यह दर्शाता है कि कैसे क्षेत्रीय आकांक्षाएँ नागरिकता के केंद्रीकृत मॉडलों को चुनौती दे सकती हैं।
  • वैश्विक रुझानों की प्रतिध्वनि: यह प्रवासन और इसकी संबद्धता पर विश्व स्तर पर चल रही बहसों के अनुरूप है; जहाँ एक ओर गतिशीलता वैश्विक रूप से प्रशंसनीय है, वहीं दूसरी ओर भारत अंतर-राज्यीय प्रवासन को विरोधाभासी रूप में संदेह की दृष्टि से देखता है।

प्रांतीय नागरिकता की चुनौतियाँ

  • एकल नागरिकता का क्षरण: एकल भारतीय नागरिकता के विचार को स्तरित प्रांतीय पहचानों में विभाजित करती है, यह प्रश्न उठाती है कि क्या सभी भारतीयों को सभी राज्यों में समान अधिकार प्राप्त हैं।
    • उदाहरण: असम NRC (2019) – 19 लाख लोगों को बाहर करने से “मूल निवासी” और “बाहरी” के बीच विभाजन उत्पन्न हो गया, जिससे एकल भारतीय नागरिकता की अवधारणा कमजोर हुई।
  • संवैधानिक संघर्ष: अनुच्छेद-14, 15, 16 और 19 का उल्लंघन करती है, जो समानता, गैर-भेदभाव, समान अवसर और आवागमन व निवास की स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।
    • उदाहरण: महाराष्ट्र अधिवास कानून (2020) – राज्य की नौकरियों के लिए अधिवास आरक्षण का प्रावधान करके समान अवसर और आवागमन की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करके अनुच्छेद-14, 15, 16, 19 का उल्लंघन करता है।
  • प्रवासियों का बहिष्कार: यह द्वितीय श्रेणी के नागरिकों का निर्माण करता है, क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्थाओं के लिए आवश्यक प्रवासियों को नौकरियों, कोटा, कल्याण और आवास से वंचित किया जाता है। कोविड-19 संकट ने इस भेद्यता को स्पष्ट रूप से उजागर किया है।
    • उदाहरण: कोविड-19 प्रवासी संकट (2020) ने निवास-आधारित प्रतिबंधों के कारण कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँच से वंचित लाखों लोगों की स्थिति के माध्यम से भेद्यता और बहिष्कार को उजागर किया।
  • मूलनिवासी राजनीति और चुनावी शोषण: यह ‘सन ऑफ द सॉइल’ संबंधी अवधारणा को प्रोत्साहित करता है, बाहरी लोगों के प्रति विद्वेष और शत्रुता को बढ़ाता है, क्षेत्रीय विभाजन को तीव्र करता है तथा लोकतांत्रिक राजनीति को अस्थिर करता है।
    • उदाहरण: महाराष्ट्र में ‘सन ऑफ द सॉइल’ अवधारणा आधारित राजनीति (2019) ने बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रवासियों को लक्षित करने वाली मूलनिवासी अवधारणा  के माध्यम से क्षेत्रीय विभाजन को और गहरा किया।

जेनोफोबिया (Xenophobia) के बारे में

  • परिभाषा: यह दूसरे देशों या संस्कृतियों के लोगों के प्रति भय, अविश्वास या द्वेष को दर्शाता है। यह प्रायः बाहरी लोगों, अप्रवासियों या सांस्कृतिक रूप से भिन्न माने जाने वाले लोगों के प्रति शत्रुता, पूर्वाग्रह और भेदभाव के रूप में प्रकट होता है।
  • जेनोफोबिया के प्रमुख पहलू
    • सांस्कृतिक भय: यह भय कि विदेशी या विभिन्न संस्कृतियों के लोग स्थानीय रीति-रिवाजों, मूल्यों और जीवन शैली को खतरे में डाल देंगे।
    • सामाजिक बहिष्कार: बाह्य लोगों के प्रति द्वेष कुछ समूहों को हाशिए पर धकेल देता है और उन्हें बहिष्कृत कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रायः समाज में भेदभावपूर्ण कानून, रूढ़िबद्धता और अलगाव उत्पन्न होता है।
    • आर्थिक प्रभाव: जेनोफोबिया प्रवासियों के लिए नौकरी, शिक्षा या आवास तक पहुँचने में बाधाएँ उत्पन्न कर सकती हैं, भले ही वे अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हों।

  • न्यायिक अधिभार और अनिश्चितता: निवास-आधारित आरक्षण और बहिष्करण पर लगातार मुकदमेबाजी न्यायपालिका पर बोझ डालती है, जिससे मौजूदा कानूनी ढाँचे की अपर्याप्तता उजागर होती है।
    • उदाहरण: जम्मू और कश्मीर के अधिवास कोटा संबंधी मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में दर्ज कई मामलों ने न्यायपालिका पर असाधारण बोझ डाला है, जो एक स्पष्ट विधायी ढाँचे की अनुपस्थिति और नीति-निर्माण में देरी का प्रतीक है।
  • पूर्व उदाहरण और संस्थाकरण: कई राज्य पहले से ही नौकरियों, शिक्षा और सब्सिडी में अधिवास नियमों का उपयोग करते हैं; प्रांतीय नागरिकता से बहिष्कार को और औपचारिक बनाने का जोखिम है।
    • उदाहरण: असम की अधिवास नीतियाँ तथा संस्थागत अधिवास-आधारित रोजगार आरक्षण अब अन्य राज्यों के लिए एक अनुकरणीय मॉडल बन चुका है।
  • राष्ट्रीय लक्ष्यों पर सीमांत प्रभाव: यह श्रम गतिशीलता और अंतर-राज्यीय बाजारों को सीमित करता है, जिससे आर्थिक विकास, प्रतिस्पर्द्धात्मकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और भारत के 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य में बाधा उत्पन्न होती है।
    • उदाहरण: COVID-19 संकट के दौरान प्रवासी प्रतिबंधों ने श्रम गतिशीलता में बाधा उत्पन्न की, जिससे भारत के 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य पर प्रभाव पड़ा।

प्रांतीय नागरिकता पर भारत की पहल और कार्यवाहियाँ

  • राज्य-स्तरीय अधिवास नीतियाँ
    • झारखंड: नौकरियों/शिक्षा में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता (वर्ष 2000 के बाद राज्य का दर्जा)।
    • जम्मू और कश्मीर (वर्ष 2019 के बाद): जम्मू और कश्मीर (वर्ष 2019 के बाद) में लागू नए अधिवास नियम, स्थानीय सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए वाल्मीकि, गोरखा और पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों के अधिकारों का संवर्द्धन करते हैं।
    • असम (NRC): लगभग 19 लाख निवासियों को छोड़कर, “मूल निवासियों” की पहचान करने का प्रयास किया गया।
    • अन्य राज्य: महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात नौकरियों, शिक्षा और भूमि अधिकारों में अधिवास मानदंड लागू करते हैं।
  • संवैधानिक सुरक्षा उपाय
    • अनुच्छेद 14-19 समानता, गैर-भेदभाव, समान अवसर और मुक्त आवागमन सुनिश्चित करते हैं।
    • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय प्रायः भेदभावपूर्ण कोटा को रद्द कर देते हैं, लेकिन निवास-आधारित सीमित वरीयताओं की अनुमति देते हैं।
  • प्रवासन और कल्याण संबंधी सुगमता
    • एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड (ONORC): राज्यों के मध्य खाद्य सुरक्षा संबंधी सुगमता को सक्षम बनाता है।
    • ई-श्रम पोर्टल: सुगम सामाजिक सुरक्षा के लिए प्रवासी/असंगठित श्रमिकों का राष्ट्रीय डेटाबेस।
    • श्रम संहिता (2020): अंतर-राज्यीय प्रवासी श्रमिकों के लिए कवरेज का सार्वभौमीकरण।
  • चुनावी समावेशन
    • भारत निर्वाचन आयोग (ECI): प्रवासियों के लिए दूरस्थ मतदान और बेहतर मतदाता पंजीकरण की संभावना तलाशना।
  • नीतिगत चेतावनियाँ
    • SRC रिपोर्ट (1955): चेतावनीपूर्ण अधिवास प्रतिबंध सामान्य नागरिकता की अवधारणा को कमजोर करते हैं।
    • कोविड के पश्चात् नागरिक समाज: प्रवासियों की भेद्यता पर प्रकाश डाला गया और उनके अधिकारों की राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत सुरक्षा सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया।

वैश्विक पहल एवं सर्वोत्तम प्रथाएँ

  • यूरोपीय संघ (EU): 27 सदस्य देशों में मुक्त आवागमन, निवास अधिकार और समान व्यवहार की गारंटी प्रदान करता है, राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय एकीकरण के बीच संतुलन बनाता है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: एकल संघीय नागरिकता सभी राज्यों पर समान रूप से लागू होती है, केवल निवास-आधारित कल्याण पात्रता स्थानीय स्तर पर भिन्न होती है।
  • दक्षिण अफ्रीका: रंगभेदोपरांत संरचना संवैधानिक अधिकारों के तहत प्रांतों के भीतर भेदभाव रहित, समान अवसर एवं गतिशीलता सुनिश्चित करने का आधार प्रदान करती है।
  • रवांडा और कनाडा: समावेशी प्रवासन नीतियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व कोटा के साथ संयोजित करना, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रवासियों को शासन में एकीकृत किया जाए।

आगे की राह

  • संसदीय विधान: संसद को एक राष्ट्रीय ढाँचा बनाना चाहिए, जो अधिवास नीतियों की अनुमेय सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करे और यह सुनिश्चित करे कि राज्य एकल भारतीय नागरिकता के सिद्धांत का उल्लंघन न करें।
  • प्रवासी सुरक्षा को मजबूत करना: स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, आवास और रोजगार में कल्याणकारी उपलब्धियों का व्यापक विस्तार, जैसे ‘एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड’ जैसी योजनाएँ, आंतरिक प्रवासियों को स्थानांतरित होने पर भी समान अधिकार एवं अवसर प्रदान करने के लिए आवश्यक है।
  • संतुलित संघवाद: राज्यों को निवास-आधारित लाभ या समयबद्ध पात्रता (जैसे- 3-5 वर्षों के निवास के बाद) डिजाइन करने की सीमित शक्ति प्रदान करना, लेकिन उन्हें समानता और अन्य मूल संवैधानिक अधिकारों के हनन को रोकना।
  • न्यायिक निगरानी और संवैधानिक सीमाएँ: राज्य-स्तरीय कल्याणकारी योजनाओं में भिन्नताएँ कहाँ मान्य हैं, यह निर्धारित करने के लिए स्पष्ट न्यायशास्त्र स्थापित करना, साथ ही अनुच्छेद-14, 15, 16 और 19 के उल्लंघन को रोकना।
  • भारत निर्वाचन आयोग (ECI) निगरानी: प्रवासियों को लक्षित करने वाले मूलनिवासी अभियानों को हतोत्साहित करने और दलगत मान्यता एवं वित्तपोषण नियमों में आचार संहिताओं और समावेशी सुरक्षा उपायों को एकीकृत करने के लिए ECI को सशक्त बनाना।
  • जन जागरूकता और समावेशन: शहरों और अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण में प्रवासियों की भूमिका को प्रदर्शित करने वाले व्यापक जन अभियान आरंभ किए जाने चाहिए, जिससे उन्हें ‘बाहरी’ की बजाय ‘राष्ट्र निर्माता’ के रूप में देखने की सामाजिक धारणा विकसित हो। यह बाह्य लोगों के प्रति-द्वेष को कम करने और सामाजिक एकता को सुदृढ़ करने में सहायक होगा।
  • राजनीतिक जवाबदेही: राजनीतिक दलों एवं नेताओं को प्रवासन संबंधी मुद्दों पर जिम्मेदार बयानबाजी और संतुलित नीतियाँ अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिससे लोकलुभावन बहिष्कार की बजाय सतत् एवं विचारशील एकीकरण की प्रक्रिया को बल मिले।
  • दूसरों से सीख: भारत को राष्ट्रीय एकता बनाए रखने के लिए समान नागरिकता सिद्धांत बनाए रखना चाहिए, साथ ही पहचान-आधारित बहिष्करण को बढ़ावा देने के बजाय निवास-संबंधी कल्याणकारी समावेशन को मजबूत करना चाहिए, जिससे समानता और एकीकरण दोनों सुनिश्चित हों।

निष्कर्ष

प्रांतीय नागरिकता स्थानीय स्तर पर असुरक्षाओं को संबोधित कर सकती है, किंतु इससे भारत की एकता और समानता के सिद्धांतों का विघटन होने का खतरा है। बंधुत्त्व, न्याय एवं समानता जैसे संवैधानिक मूल्यों और सतत् विकास लक्ष्य 10 के अनुरूप, भारत को समावेशी एवं स्थायी एकता सुनिश्चित करने हेतु ‘एक राष्ट्र, एक नागरिकता’ के सिद्धांत को पुनः स्थापित करना आवश्यक है।

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