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Sep 30 2025

जल संचय जन भागीदारी पुरस्कार

कर्नाटक के बीदर जिले ने ‘जल शक्ति अभियान: कैच द रेन’ के अंतर्गत अपने उत्कृष्ट जल संरक्षण प्रयासों के लिए केंद्र सरकार का जल संचय जन भागीदारी पुरस्कार प्राप्त किया है। इस पुरस्कार में ₹25 लाख की नकद राशि सम्मिलित है।

जल संचय जन भागीदारी (JSJB) पहल के बारे में

  • प्रारंभ: 6 सितंबर, 2024 को गुजरात के सूरत में ‘जल शक्ति अभियान: कैच द रेन’ के सामुदायिक-आधारित विस्तार के रूप में शुरू किया गया, जिसकी प्रेरणा गुजरात के जल संचय मॉडल से ग्रहण की गई।
  • पुरस्कार प्रदान करने वाली संस्था: जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण विभाग।
  • उद्देश्य: ‘प्रत्येक  बूंद का संरक्षण’ सुनिश्चित करना, समाज और शासन के समग्र दृष्टिकोण से सामुदायिक स्वामित्व को बढ़ावा देना।
  • सहयोग: सरकार, CSR निधि, उद्योग, नगरीय निकाय और सामुदायिक समूहों की साझेदारी से जल सुरक्षा को मजबूत करना।
  • मुख्य लक्ष्य: 10 लाख पुनर्भरण संरचनाओं (चेक डैम, परकुलेशन टैंक, रिचार्ज कुएँ/शाफ्ट) का निर्माण कर भू-जल पुनर्भरण में सुधार करना, अब तक लगभग 25,000 संरचनाएँ निर्मित की जा चुकी हैं।

बीदर का मॉडल

  • चेक डैम, गैबियन संरचनाएँ, गली प्लग, परकुलेशन तालाब और सोक पिट का निर्माण।
  • पारंपरिक प्रणालियों जैसे टाँका और बावड़ी का पुनरुद्धार।
    मनरेगा के अंतर्गत ‘डी-सिल्टिंग’ कार्य तथा कृषि क्षेत्रों में ट्रेंच निर्माण द्वारा भूजल पुनर्भरण में सुधार।
  • सामुदायिक भागीदारी पर विशेष बल।

मोटोक समुदाय

मोटोक समुदाय के सदस्यों ने असम के तिनसुकिया जिले के सदिया में विशाल विरोध प्रदर्शन किया, जिसमें उन्होंने अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा और अपने स्वायत्त परिषद को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की माँग की है।

मोटोक समुदाय के बारे में

  • यह असम के स्वदेशी नृजातीय समूहों में से एक है, जिसकी अलग सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान क्षेत्र में गहराई से जुड़ी हुई है।
  • यह मुख्यतः कृषि आधारित समुदाय है और ऊपरी असम के तिनसुकिया, डिब्रूगढ़ और शिवसागर जिलों में संकेंद्रित है।
  • वर्तमान में असम में इसे अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है।
  • स्वायत्तता: वर्ष 2020 में असम ने मोटोक (मटक) स्वायत्त परिषद के गठन हेतु एक विधेयक पारित किया था, ताकि समुदाय की विकास और प्रशासनिक आवश्यकताओं का समाधान किया जा सके।

मोटोक समुदाय की प्रमुख माँगें

  • अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा: प्रदर्शनकारियों ने मोटोक समुदाय को ST के रूप में मान्यता देने की माँग की, यह रेखांकित करते हुए कि यह प्रतिबद्धता लगभग एक दशक पहले तय की गई थी।
  • स्वायत्त परिषद का उन्नयन: समुदाय ने अपनी परिषद को छठी अनुसूची के ढाँचे में लाने की माँग की, जो जनजातीय क्षेत्रों की स्वशासन और स्वायत्तता के लिए संवैधानिक संरक्षण प्रदान करती है।

सबकी योजना, सबका विकास अभियान

केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय 2 अक्टूबर, 2025 को “पीपुल्स प्लान कैंपेन (PPC) 2025–26: सबकी योजना, सबका विकास अभियान” प्रारंभ करेगा, जिसका उद्देश्य वित्त वर्ष 2026–27 के लिए पंचायत विकास योजनाएँ (PDPs) तैयार करना है।

पीपुल्स प्लान कैंपेन (PPC) के बारे में

  • उद्देश्य: पंचायतों को साक्ष्य-आधारित, समन्वित एवं समावेशी पंचायत विकास योजनाएँ तैयार करने में सक्षम बनाना, जो स्थानीय प्राथमिकताओं एवं राष्ट्रीय विकास लक्ष्यों दोनों से संरेखित हो।
  • क्रियान्वयन तंत्र: विशेष ग्राम सभाओं के माध्यम से संचालित, ताकि सहभागी लोकतंत्र सुनिश्चित हो सके।
  • वर्तमान  प्रगति
    • वर्ष 2019–20 से अब तक 18.13 लाख से अधिक पंचायत विकास योजनाएँ ई ग्राम स्वराज पोर्टल पर अपलोड की गई हैं।
    • इनमें ग्राम पंचायत विकास योजनाएँ (GPDPs), ब्लॉक पंचायत विकास योजनाएँ (BPDPs) और जिला पंचायत विकास योजनाएँ (DPDPs) सम्मिलित हैं।
    • वर्ष 2025–26 चक्र के अंतर्गत अब तक 2.52 लाख से अधिक योजनाएँ अपलोड की गई हैं।

‘पीपुल्स प्लान कैंपेन 2025–26: सबकी योजना, सबका विकास’ की विशेषताएँ

  • डिजिटल निगरानी: ग्राम सभाएँ पूर्ववर्ती GPDPs की समीक्षा  ई-ग्राम स्वराज पोर्टल, मेरी पंचायत ऐप और पंचायत निर्णय (NIRNAY) के माध्यम से करेंगी।
  • संसाधन उपयोग: शेष केंद्रीय वित्त आयोग अनुदानों से अधूरे कार्यों को प्राथमिकता देना।
  • मार्गदर्शन उपकरण
    • पंचायत एडवांसमेंट इंडेक्स (PAI) प्रदर्शन की बेंचमार्किंग हेतु।
    • सभासार योजना निर्माण एवं समीक्षा उपकरण के रूप में।
  • वित्तीय सुदृढ़ीकरण: पंचायतों के अपने स्रोत राजस्व (Own Source Revenue – OSR) को बढ़ाने पर बल देना।
  • सामुदायिक सहभागिता: पंचायत प्रतिनिधियों, सामुदायिक सदस्यों, विभागीय अधिकारियों एवं अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं की व्यापक भागीदारी।
  • जनजातीयकरण: आदि कर्मयोगी अभियान के अंतर्गत विशेष बल।

गोकुल जलाशय और उदयपुर झील को रामसर सूची में शामिल किया गया

बिहार की गोकुल जलाशय और उदयपुर झील को रामसर स्थल घोषित किया गया है, जिससे भारत में कुल रामसर स्थलों की संख्या बढ़कर 93 हो गई है। रामसर स्थलों की संख्या के मामले में भारत एशिया में प्रथम तथा वैश्विक स्तर पर यूनाइटेड किंगडम (176) और मैक्सिको (144) के बाद तीसरे स्थान पर है।

गोकुल जलाशय के बारे में

  • यह गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गोखुर (ऑक्सबो) झील है।
  • यह बाढ़ के दौरान प्राकृतिक अवरोधक के रूप में कार्य करता है और आस-पास के गाँवों की रक्षा करता है।
  • 50 से अधिक पक्षी प्रजातियों का आवास स्थल है।
  • वर्ष 2025 की जल पक्षी गणना में, गोकुल जलाशय और गंगा के निकटवर्ती बक्सर खंड में 65 प्रजातियों के लगभग 3,500 जल पक्षी दर्ज किए गए।
  • स्थानीय आजीविका को मत्स्यपालन, कृषि और सिंचाई के माध्यम से सहयोग करता है।
  • प्रत्येक वर्ष एक पारंपरिक उत्सव के दौरान इसका प्रबंधन होता है, जब ग्रामीण जलग्रहण क्षेत्र की सफाई और खरपतवारों को हटाने का कार्य करते हैं।

उदयपुर झील के बारे में

  • उदयपुर झील बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले में अवस्थित है।
  • यह आर्द्रभूमि उदयपुर वन्यजीव अभयारण्य के अंतर्गत आती है।
  • यह भी एक गोखुर (ऑक्सबो) झील है।
  • यहाँ 280 से अधिक पादप प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें एलिसिकार्पस रॉक्सबर्गियानस  (भारत में पाई जाने वाली एक बहुवर्षीय शाकीय प्रजाति) शामिल है।
  • यह लगभग 35 प्रवासी पक्षी प्रजातियों का प्रमुख शीतकालीन आवास है, जिनमें संवेदनशील प्रजाति कॉमन पोकर्ड (Common Pochard) भी सम्मिलित है।

एंजेल्स पॉज (Engels’ Pause)

हाल ही में AI विशेषज्ञ और नोबेल पुरस्कार विजेता ज्योफ्री हिंटन ने चेतावनी दी कि AI कुछ लोगों को अत्यधिक धनी बनाएगा और बाकी को अधिक गरीब कर देगा, जिसे उन्होंने ‘एंजेल्स पॉज’ से जोड़ा।

एंजेल्स पॉज के बारे में

  • उत्पत्ति: इस शब्द को रॉबर्ट एलन (वर्ष 2009) ने लोकप्रिय बनाया, जो फ्रेडरिक एंजेल्स के 19वीं सदी के ब्रिटेन संबंधी अवलोकनों पर आधारित था, जहाँ औद्योगिक समृद्धि के बावजूद मजदूरी दर स्थिर रहीं।
  • परिभाषा: एक ऐसा चरण, जहाँ आर्थिक उत्पादकता में वृद्धि होती है, लेकिन औसत मजदूरी एवं कल्याण में स्थिरता बनी रहती है, जिससे असमानता बढ़ती है।
    • उदाहरण के लिए, फिलीपींस में AI ने BPO और कॉल सेंटर जैसे क्षेत्रों में उत्पादकता को बढ़ावा दिया है (30%-50% दक्षता लाभ), लेकिन मजदूरी काफी हद तक स्थिर बनी हुई है।
  • ऐतिहासिक आधार: 19वीं सदी का ब्रिटेन में औद्योगिक उत्पादन बढ़ा, लेकिन खाद्य लागत और स्थिर मजदूरी ने श्रमिकों को गरीबी में बनाए रखा।
  • उदाहरण: PwC का अनुमान है कि वर्ष 2030 तक AI वैश्विक GDP में 15.7 ट्रिलियन डॉलर जोड़ सकता है, परंतु लाभ मुख्यतः अमेरिका, चीन जैसे देशों और कुछ चुनिंदा कंपनियों तक सीमित रहेंगे, जो आधारभूत मॉडलों को नियंत्रित करती हैं।
    • IMF (वर्ष 2024) का अनुमान है कि पूरे विश्व में 40% रोजगार AI से प्रभावित होंगी, विशेषकर उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, जहाँ उच्च-कुशल रोजगार का प्रतिस्थापन अधिक संभावित है।
  • भारतीय परिप्रेक्ष्य: IT क्षेत्र में रोजगार का हानि, कठोर बौद्धिक संपदा अधिकार के साथ वेतन असमानता में वृद्धि। IT कंपनियों ने AI पर ध्यान केंद्रित करते हुए 12,000 रोजगार में कटौती की है।

AI एंजेल्स पॉज (AI Engels’ Pause) को कम करने हेतु नीतिगत उपाय

  • कौशल और पुनः कौशल कार्यक्रम: सिंगापुर का स्किल्सफ्यूचर (SkillsFuture) और अबू धाबी का मोहम्मद बिन जायद यूनिवर्सिटी ऑफ AI (MBZUAI) निरंतर AI-केंद्रित शिक्षा एवं प्रशिक्षण उपलब्ध कराते हैं।
  • पुनर्वितरण तंत्र: रोबोट टैक्स, यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI) तथा परोपकारी पहलों के माध्यम से AI से उत्पन्न आय को जनकल्याण हेतु लगाया जा सकता है।
  • AI को सार्वजनिक संपदा के रूप में मानना: कंप्यूटिंग एवं डेटा तक किफायती पहुँच सुनिश्चित करने से उत्पादकता में वृद्धि प्रत्यक्ष रूप से कल्याण सुधार में परिवर्तित हो सकेगी।

एस्ट्रोसैट 

भारत की पहली अंतरिक्ष वेधशाला एस्ट्रोसैट ने 10 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। न्यूनतम उपयोग हेतु एस्ट्रोसैट मिशन की अवधि केवल 5 वर्ष अपेक्षित की गई थी।

एस्ट्रोसैट  (AstroSat) के बारे में

  • परिचय: ‘एस्ट्रोसैट’ भारत का पहला समर्पित खगोल विज्ञान उपग्रह है, जिसे खगोलीय स्रोतों का अध्ययन करने हेतु एक्स-रे, पराबैंगनी (UV) और दृश्य (ऑप्टिकल) स्पेक्ट्रल बैंड्स में एक साथ अवलोकन करने के लिए डिजाइन किया गया है।
  • बहु-तरंगदैर्ध्य अवलोकन: यह एक ही उपग्रह से UV, ऑप्टिकल और एक्स-रे (0.3–100 keV) बैंड्स में एक साथ अवलोकन सक्षम करता है।
  • प्रक्षेपण: 28 सितंबर 2015 को PSLV-C30 को सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से 650 किमी ऊँचाई और 6° झुकाव वाली कक्षा में प्रक्षेपित किया गया था।
  • भार एवं मिशन आयु: उपग्रह का भार 1,515 किग्रा. था तथा न्यूनतम अपेक्षित आयु 5 वर्ष निर्धारित की गई थी, वर्तमान में यह 10 वर्षों से सफलतापूर्वक कार्यरत है।
  • संचालन: बंगलूरू स्थित इसरो मिशन ऑपरेशन्स कॉम्प्लेक्स (MOX) द्वारा प्रबंधित, वैज्ञानिक डाटा का प्रसंस्करण एवं अभिलेखीकरण भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान डेटा केंद्र (ISSDC), बैलालु, बंगलूूरू में किया जाता है।

उपलब्धियाँ

  • ब्लैकहोल से लेकर न्यूट्रॉन स्टार तक की खोजों को संभव बनाया तथा निकटतम तारा प्रोक्सिमा सेंचुरी का अवलोकन किया।
  • पहली बार 9.3 अरब प्रकाश-वर्ष दूर आकाशगंगाओं से फार-अल्ट्रावॉयलेट (FUV) फोटॉन्स का पता लगाया।
  • विद्युत चुंबकीय स्पेक्ट्रम में महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान की, जिससे वैश्विक अंतरिक्ष खगोल विज्ञान में भारत की उपस्थिति सशक्त हुई।
  • सहयोगी मिशन जिसमें इसरो, IUCAA पुणे, TIFR मुंबई, IIAP, RRI बंगलूरू तथा कनाडा और ब्रिटेन के संस्थान सम्मिलित रहे।

एस्ट्रोसैट आज भी मूल्यवान वैज्ञानिक डेटा उपलब्ध करा रहा है, जिससे भारत की बहु-तरंगदैर्ध्य अंतरिक्ष खगोल विज्ञान क्षमताएँ सिद्ध होती हैं और अंतरिक्ष-आधारित खगोल भौतिकीय अनुसंधान की दशक-लंबी विरासत स्थापित होती है।

एकीकृत

ऑन्कोलॉजी अनुसंधान और देखभाल केंद्र

हाल ही में केंद्रीय आयुष मंत्रालय ने ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ आयुर्वेद (AIIA), गोवा में भारत के पहले एकीकृत ऑन्कोलॉजी अनुसंधान एवं देखभाल केंद्र (Integrative Oncology Research and Care Centre–IORCC) का उद्घाटन किया।

एकीकृत ऑन्कोलॉजी अनुसंधान एवं देखभाल केंद्र (IORCC) के बारे में

  • परिभाषा: यह अपने प्रकार का पहला बहु-विषयी केंद्र है, जिसे पारंपरिक आयुष प्रणालियों और आधुनिक ऑन्कोलॉजी को एकीकृत कर कैंसर रोगियों के समग्र पुनर्वास हेतु स्थापित किया गया है।
  • विकास: इसे ACTREC – टाटा मेमोरियल सेंटर (एक प्रमुख कैंसर अनुसंधान और उपचार संस्थान) के सहयोग से विकसित किया गया है।

मुख्य विशेषताएँ

  • आयुर्वेद, योग, पंचकर्म, फिजियोथेरेपी और आहार चिकित्सा को कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी और सर्जरी के साथ संयोजित करता है।
  • रोगियों की रिकवरी, दुष्प्रभावों में कमी, प्रतिरक्षा प्रणाली की मजबूती तथा मनो-सामाजिक कल्याण पर केंद्रित।
  • एकीकृत ऑन्कोलॉजी में क्लीनिकल सेवाएँ, उन्नत अनुसंधान, प्रशिक्षण एवं नवाचार के केंद्र के रूप में कार्य करेगा।
  • वैश्विक समानांतर: अमेरिका, यूरोप और जापान में एकीकृत ऑन्कोलॉजी केंद्र विकसित हो रहे हैं, जहाँ पूरक उपचारों को मुख्यधारा के कैंसर उपचार के साथ मिलाया जा रहा है।

महत्त्व

  • स्वास्थ्य नवाचार: पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों और आधुनिक चिकित्सा के बीच सेतु निर्माण में आयुष की भूमिका को प्रदर्शित करता है।
  • रोगी लाभ: कैंसर उपचार के दुष्प्रभावों को कम कर, रिकवरी को बेहतर बनाने, जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने और वहनीय उपचार उपलब्ध कराना।
  • विस्तृत दायरा: ऑन्कोलॉजी से आगे बढ़कर समेकित पुनर्वास मॉडल को तंत्रिका संबंधी एवं विकासात्मक विकारों तक विस्तारित किया जाएगा।
  • राष्ट्रीय पुनरावृत्ति: यह मॉडल देशभर में समेकित स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों की स्थापना के लिए आदर्श रूप में कार्य करेगा।

टाइफून बुआलोई

टाइफून बुआलोई (Bualoi) ने 133 किमी. प्रति घंटा (83 मील प्रति घंटा) तक की हवाओं के साथ वियतनाम को प्रभावित किया।

टाइफून के बारे में

  • परिभाषा: टाइफून उत्तर-पश्चिम प्रशांत महासागर (विशेष रूप से 180° और 100°E के बीच) में विकसित होने वाला एक उष्णकटिबंधीय चक्रवात है।
  • चक्रवात: निम्न दाबयुक्त क्षेत्र के चारों ओर वायु का तीव्र अंदर की ओर प्रवाह, जो घूर्णनशील पवनों, गरज-तूफान और प्रतिकूल मौसम के रूप में प्रकट होता है।
  • चक्रवात के केंद्र को ‘चक्रवात की आँख’ के रूप में जाना जाता है, और कोरिओलिस बल के कारण पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में वामावर्त और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणावर्त घूमती हैं।
  • तंत्र (Mechanism)
    • समुद्र की सतह से उठने वाली गर्म, आर्द्र वायु निम्न दाब क्षेत्र बनाती है।
    • इससे वायु का अंदर की ओर तीव्र प्रवाह होता है (उत्तरी गोलार्द्ध में वामावर्त, दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणावर्त)।

क्षेत्रीय नाम

  • टाइफून: प्रशांत/चीन सागर
  • तूफान: कैरेबियन/अटलांटिक
  • टोरनाडो: दक्षिणी अमेरिका/पश्चिम अफ्रीका
  • विली-विलीज: उत्तर-पश्चिम ऑस्ट्रेलिया
  • उष्णकटिबंधीय चक्रवात: हिंद महासागर

दक्षिण-पूर्व एशिया में टाइफून बार-बार क्यों आते हैं?

  • समुद्र सतह तापमान में वृद्धि: वैश्विक ऊष्मीकरण से चक्रवात निर्माण की ऊर्जा बढ़ती है।
  • वायुमंडलीय परिसंचरण में बदलाव: ‘वॉकर’ परिसंचरण में परिवर्तन चक्रवात मार्गों को प्रभावित करता है।
  • ENSO घटनाएँ (अलनीनो/ला नीना): प्रशांत क्षेत्र में चक्रवात की आवृत्ति और तीव्रता को बदलती हैं।
  • अधिक वायुमंडलीय नमी: अधिक वाष्पीकरण से अधिक शक्तिशाली और अधिक वर्षायुक्त तूफान उत्पन्न होते है।
  • भूगोल: दक्षिण-पूर्व एशिया की लंबी तटरेखाएँ और गर्म प्रशांत धाराओं की निकटता इसे टाइफून निर्माण का हॉटस्पॉट बनाती है।
  • समुद्री हीटवेव्स: जलवायु परिवर्तन से महासागरों का गर्म होना टाइफून की शक्ति को बढ़ाता है।
  • भूमि–समुद्र तापमान प्रवणता का कमजोर होना: चक्रवात का धीमा क्षय, जिससे इनके प्रभाव लंबे समय तक बने रहते हैं।

संदर्भ

केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री ने अंडमान बेसिन में प्राकृतिक गैस की खोज की घोषणा की है, जिससे हाइड्रोकार्बन क्षमता के संबंध में पुरानी भू-वैज्ञानिक अपेक्षाओं की पुष्टि हुई है।

प्राकृतिक गैस के बारे में

  • प्राकृतिक गैस एक जीवाश्म ईंधन एवं सबसे स्वच्छ दहनशील हाइड्रोकार्बन है, जिसका उपयोग विद्युत उत्पादन, उद्योग, परिवहन तथा घरेलू ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए किया जाता है।
  • निर्माण: यह लाखों वर्षों से अवसादी शैल संरचनाओं में उच्च दाब एवं तापमान के तहत अपशिष्ट कार्बनिक पदार्थों से प्राकृतिक रूप से बनता है।
  • संरचना: प्राकृतिक गैस में मुख्य रूप से मेथेन (CH₄) के साथ-साथ थोड़ी मात्रा में एथेन, प्रोपेन, ब्यूटेन, कार्बन डाइऑक्साइड एवं सूक्ष्म गैसें होती हैं।

भारत में प्राकृतिक गैस के प्रमुख स्रोत

  • तटीय प्राकृतिक गैस स्रोत: ये भूमि की सतह के नीचे के भंडार हैं, जिन्हें असम, राजस्थान, गुजरात एवं त्रिपुरा जैसे राज्यों में भूमि पर कुओं की खुदाई के माध्यम से निकाला जाता है।
  • अपतटीय प्राकृतिक गैस स्रोत: ये समुद्र तल के नीचे के भंडार हैं, जिन तक तटीय जल में ड्रिलिंग प्लेटफॉर्मों के माध्यम से पहुँचा जा सकता है, जैसे- मुंबई हाई, कृष्णा-गोदावरी (KG) बेसिन एवं अंडमान बेसिन।
  • कोल बेड मेथेन (CBM) स्रोत: कोल बेड मेथेन, कोयला परतों में आच्छादित मेथेन है, जिसे स्वच्छ ऊर्जा स्रोत के रूप में निष्कर्षित किया जाता है। इसके भंडार पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश एवं झारखंड में हैं।

भारत में प्राकृतिक गैस उत्पादन

  • कुल उत्पादन (वर्ष 2021-22): 34,024 मिलियन मीट्रिक स्टैंडर्ड क्यूबिक मीटर (Million Metric Standard Cubic Metres-MMSCM)।
  • अपतटीय बनाम तटवर्ती: अपतटीय क्षेत्र सबसे बड़ा योगदानकर्ता बने हुए हैं।
    • अपतटीय उत्पादन: 22,869 MMSCM (वर्ष 2021-22)
    • तटीय उत्पादन: 11,155 MMSCM (वर्ष 2021-22)
  • शीर्ष उत्पादक राज्य (वर्ष 2021-22)
    1. असम: 3,371 MMSCM 
    2. राजस्थान: 2,619 MMSCM 
    3. त्रिपुरा: 1,531 MMSCM 
    4. तमिलनाडु: 1,067 MMSCM 

नई खोज का महत्त्व

  • ऊर्जा सुरक्षा: अंडमान बेसिन में यह खोज भारत की ऊर्जा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को बढ़ाती है एवं वर्ष 2030 तक ऊर्जा मिश्रण में गैस की हिस्सेदारी को वर्तमान लगभग 6% से बढ़ाकर 15% करने के लक्ष्य का समर्थन करती है।
  • सामरिक महत्त्व: अंडमान सागर में ऊर्जा भंडारों की स्थिति भारत के समुद्री ऊर्जा फुटप्रिंट को बढ़ाती है, जो म्याँमार से इंडोनेशिया तक अपतटीय अन्वेषण को पूरक बनाती है।
  • नीतिगत संरेखण: यह खोज राष्ट्रीय गहन जल अन्वेषण मिशन (समुद्र मंथन) के अनुरूप है, जो अमृत काल के दौरान मिशन-मोड हाइड्रोकार्बन अन्वेषण को सक्षम बनाता है।

संदर्भ

हाल ही में चीन के ‘हांग्जो’ में आयोजित मैन एंड द बायोस्फीयर (MAB) प्रोग्राम के 37वें अंतरराष्ट्रीय समन्वय परिषद के सत्र के दौरान हिमाचल प्रदेश में स्थित भारत के शीत मरुस्थल जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र (Cold Desert Biosphere Reserve) को यूनेस्को के विश्व जैवमंडल रिजर्व नेटवर्क (World Network of Biosphere Reserves- WNBR) में शामिल किया गया।

  • इसने जैवमंडल आरक्षित क्षेत्रों की समीक्षा, स्थायित्व को बढ़ावा देने और जैव विविधता संरक्षण पर वैश्विक सहयोग को मजबूत करने के लिए यूनेस्को के सदस्य देशों, वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों को एकत्रित किया।

मैन एंड द बायोस्फीयर (Man and the Biosphere Programme- MAB) प्रोग्राम के बारे में

  • MAB एक अंतर-सरकारी वैज्ञानिक कार्यक्रम है, जिसे वर्ष 1971 में यूनेस्को द्वारा शुरू किया गया था।
  • इसका उद्देश्य लोगों एवं उनके पर्यावरण के बीच संबंधों में सुधार के लिए एक वैज्ञानिक आधार स्थापित करना है।

विश्व जैवमंडल आरक्षित क्षेत्र नेटवर्क (WNBR) के बारे में

  • यह यूनेस्को के मैन एंड द बायोस्फीयर (MAB) प्रोग्राम के अंतर्गत संरक्षित क्षेत्रों का एक वैश्विक नेटवर्क है।
  • उद्देश्य: यह संरक्षित पारिस्थितिकी तंत्रों के माध्यम से जैव विविधता संरक्षण, सतत् विकास एवं सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देता है।
  • सहयोग: यह नेटवर्क उत्तर-दक्षिण एवं दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देता है, जिससे पारिस्थितिकी प्रबंधन के लिए ज्ञान, प्रथाओं तथा क्षमता निर्माण का आदान-प्रदान संभव होता है।
  • जैवमंडल आरक्षित क्षेत्रों के विश्व नेटवर्क में अब 142 देशों के 785 स्थल शामिल हैं।

WNBR में भारतीय स्थल (वर्ष 2025 तक इसनकी संख्या 13 है।)

आरक्षित जैवमंडल  राज्य/केंद्रशासित प्रदेश MAB समावेशन का वर्ष पारिस्थितिकी महत्त्व
नीलगिरि तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक वर्ष  2000 पश्चिमी घाट

  • नीलगिरी तहर, लायन-टेल मकाॅक एवं बाघ का क्षेत्र।
मन्नार की खाड़ी तमिलनाडु वर्ष 2001 तटीय पारिस्थितिकी तंत्र

  • डुगोंग, प्रवाल भित्तियों एवं समुद्री घास के संस्तरों को समर्थन देता है।
सुंदरवन पश्चिम बंगाल वर्ष 2001 सबसे बड़ा ज्वारीय लवणमृदु मैंग्रोव वन

  • रॉयल बंगाल टाइगर का आवास क्षेत्र।
नंदा देवी उत्तराखंड वर्ष 2004 पश्चिमी हिमालय

  • हिम तेंदुआ एवं हिमालयी काले भालू सहित समृद्ध जैव विविधता।
नोकरेक मेघालय वर्ष 2009 पूर्वी पहाड़ियाँ

  • लाल पांडा एवं विविध वनस्पतियों का क्षेत्र।
पंचमढ़ी मध्य प्रदेश वर्ष 2009 मध्य भारत

  • जैव विविधता एवं स्थानिक प्रजातियों से समृद्ध है।
  • ‘इंडियन जाइंट स्क्विरल’ (जिसे ‘नन्ही’ भी कहा जाता है) तथा ‘फ्लाइंग स्क्विरल’ पाई जाती हैं।
सिमलीपाल ओडिशा वर्ष 2009 दक्कन प्रायद्वीप

  • बाघ आबादी एवं समृद्ध वनस्पतियों के लिए जाना जाता है।
ग्रेट निकोबार अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह वर्ष 2013 यह द्वीपसमूह ‘निकोबार पिजन’ और विविध समुद्री जीवन के लिए आवास स्थल है।
अचानकमार-

अमरकंटक

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ वर्ष 2012 मध्य भारत 

  • जैव विविधता एवं जल संसाधनों से समृद्ध।
  • बाघ अभयारण्य के लिए जाना जाता है।
अगस्त्यमलाई केरल,

तमिलनाडु

वर्ष 2016 पश्चिमी घाट

  • एशियाई हाथियों के संरक्षण के लिए जाना जाता है।
  • अगस्त्यामलाई बम्बूटेल डैमसेल्फाई जैसी अद्वितीय वनस्पतियों और जीवों का क्षेत्र है।
कंचनजंगा सिक्किम वर्ष 2018 पूर्वी हिमालय

  • हिम तेंदुए, लाल पांडा, हिमालयी काले भालू, आदि।
  • समृद्ध जैव विविधता एवं सांस्कृतिक महत्त्व के लिए जाना जाता है।
पन्ना मध्य प्रदेश वर्ष 2020 मध्य भारत

  • अपनी बाघ आबादी एवं समृद्ध वनस्पतियों के लिए जाना जाता है।
शीत मरुस्थल हिमाचल प्रदेश वर्ष 2025 इसे वर्ष 2009 में एक जैवमंडल क्षेत्र घोषित किया गया था।

ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र (लाहुल-स्पीति जिला)।

  • इसमें पिन वैली राष्ट्रीय उद्यान और उसके आस-पास के क्षेत्र, चंद्रताल और सरचू एवं किब्बर वन्यजीव अभयारण्य शामिल हैं।
  • हिम तेंदुआ, नीली भेड़ और अद्वितीय अल्पाइन वनस्पतियों का आवास।

संदर्भ

नीदरलैंड और स्विट्जरलैंड के सहयोग से झेजियांग विश्वविद्यालय (चीन) के शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि मक्के के पौधों का समूहन करने से पौधे-मृदा संकेतन (Plant–Soil Signalling) के माध्यम से कीट प्रतिरोध में वृद्धि होती है।

पौधों के संचार तंत्र (Plant Communication Mechanism) के बारे में

  • कार्यविधि: जब मक्के के पौधों पर कीटों का हमला होता है, तो सघन रोपाई वाली फसलें अधिक लिनालूल (Linalool) उत्सर्जित करती हैं, जिससे आस-पास के पौधे सतर्क हो जाते हैं और रक्षात्मक प्रतिक्रियाएँ शुरू हो जाती हैं।
  • अवलोकन: सघन आबादी वाले भूखंडों की बीच की पंक्तियों में लगे पौधों को किनारे के पौधों की तुलना में कीटों से कम नुकसान हुआ, जो समूहों में मजबूत सुरक्षा का संकेत देता है।
  • समझौता: कीटों से सुरक्षा तो बढ़ी, लेकिन पौधों की वृद्धि धीमी रही और जैवभार भी कम उत्पन्न हुआ, जिससे वृद्धि और सुरक्षा के बीच संतुलन को समझने में मदद मिली।

  • लिनालूल (Linalool): पुष्प में सुगंध वाला एक वाष्पशील यौगिक, जिसका उपयोग पौधों द्वारा संकेतन के लिए और मानव उद्योगों (इत्र, साबुन) में किया जाता है।
  • जैस्मोनेट्स (Jasmonates): पादप हार्मोन जो तनाव और सुरक्षा प्रतिक्रियाओं में शामिल होते हैं।
  • HDMBOA-Glc: लाभकारी बैक्टीरिया को बढ़ावा देने के लिए मृदा में उत्सर्जित किया जाने वाला सुरक्षात्मक मेटाबोलाइट है।

रक्षा का तंत्र

  • हार्मोनल संकेतन (Hormonal Signalling): लिनालूल के संपर्क में आने से पौधों की जड़ों में जैस्मोनेट का हार्मोनल संकेतन सक्रिय हो जाता है।
  • मेटाबोलाइट का उत्सर्जन: जैस्मोनेट्स मृदा में एक रक्षात्मक मेटाबोलाइट, HDMBOA-Glc, के उत्सर्जन को प्रेरित करते हैं।
  • सूक्ष्मजीवी अंतःक्रिया (Microbial Interaction): HDMBOA-Glc लाभकारी जीवाणुओं को संवर्द्धित करता है, जिससे उसके निकट स्थित पौधों में सैलिसिलिक अम्ल का संकेत प्राप्त होता है।
  • परिणाम: पौधों को विभिन्न खतरों से बचाने के लिए तैयार किया गया है।

व्यापक सुरक्षा

  • कीट जनित रोग (Insect pests): फॉल आर्मीवर्म (स्पोडोप्टेरा फ्रुजीपरडा) से होने वाली क्षति में कमी आती है।
  • निमेटोड: रूट-नॉट निमेटोड (मेलोइडोगाइन इनकॉग्निटा) से कम गाँठें निर्मित हुई।
  • कवक रोगजनक: एक्ससेरोहिलम टर्सिकम (Exserohilum Turcicum) के प्रति प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि देखी गई।
  • विषाणु रोग: चावल ‘ब्लैक-स्ट्रिप्ड ड्वार्फ’ वायरस (Black-Streaked Dwarf Virus- RBSDV) का प्रसार कम हुआ।

व्यापक निहितार्थ

  • वृद्धि-रक्षा संतुलन: पौधे संसाधनों का आवंटन या तो सुरक्षा (कीटों से) या वृद्धि (उपज) के लिए करते हैं। लिनालूल सिग्नलिंग (Linalool Signalling) इस संतुलन का मध्यस्थ है।
  • किसान की भूमिका: कीट संबंधी खतरों की व्यापक जानकारी रखने वाले किसान, ‘लिनालूल सिग्नलिंग’ को बाहरी रूप से नियंत्रित कर सकते हैं।
  • पौधों में सुधार: पौधों को इस तरह से संशोधित किया जा सकता है कि:-
    • कम कीट प्रादुर्भाव वाले लिनालूल सिग्नलिंग की उपेक्षा करना → अधिक उत्पादकता।
    • अधिक कीड़ों वाले वातावरण में तुरंत प्रतिक्रिया देना → फसल की कम हानि।
  • सतत् खेती: लिनालूल सिग्नलिंग के उपयोग से रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग में कमी लाई जा सकती है तथा यह उच्च घनत्व वाली खेती प्रणालियों के प्रजनन को समर्थन प्रदान कर सकता है।

मकई के बारे में (Zea mays)

  • मूल स्थान: इसकी उत्पत्ति टीओसिन्टे (Teosinte) नामक एक जंगली घास से हुई है, जिसे लगभग 9,000 वर्ष पूर्व मेसोअमेरिका में उपयोग में लाया गया था।
  • वैश्विक महत्त्व: इसकी उच्च उपज क्षमता के कारण इसे ‘अनाज की रानी’ के रूप में जाना जाता है।
  • उपयोग: इसे पशु आहार, बायोफ्यूल और औद्योगिक कच्चे माल (स्टार्च, एल्कोहल, स्वीटनर, प्लास्टिक) के रूप में उपयोग किया जाता है।
  • भारत में स्थिति
    • 17वीं शताब्दी में पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा भारत में लाया गया।
    • भारत मक्का उत्पादन में विश्व स्तर पर पाँचवें स्थान पर और 14वाँ सबसे बड़ा निर्यातक है।
    • खरीफ और रबी दोनों मौसमों में उगाई जाती है; प्रमुख राज्यों में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, तेलंगाना, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश शामिल हैं।
    • उत्पादन और क्षेत्रफल (वर्ष 2023-24, तीसरा अग्रिम अनुमान)
      • उत्पादन: 35.67 मिलियन टन (MT)
      • क्षेत्र: 9.96 मिलियन हेक्टेयर
    • औसत उत्पादकता: भारत में यह लगभग 3.1 टन/हेक्टेयर है, जो वैश्विक औसत (लगभग 5.7 टन/हेक्टेयर) से कम है।
  • कृषि-जलवायु संबंधी आवश्यकताएँ
    • उच्च प्रकाश संश्लेषण क्षमता वाला एक उष्णकटिबंधीय पौधा है।
    • 21-27°C तापमान वाली गर्म, नम जलवायु में सर्वाधिक वृद्धि करता है।
    • 50-90 सेमी. वर्षा की आवश्यकता होती है, जो अच्छी तरह से वितरित हो।
    • उपजाऊ, अच्छी जल निकासी वाली जलोढ़ और दोमट मृदा में अच्छा प्रदर्शन करता है।
  • चुनौतियाँ: बड़े पैमाने पर एकल-कृषि कीटों और बीमारियों के प्रति संवेदनशील होती है।
    • जलवायु परिवर्तन से जोखिम और बढ़ गया है, अनुमानों के अनुसार 21वीं सदी के अंत तक वैश्विक रूप से मकई की उत्पादकता में 24% तक की गिरावट आ सकती है।

संदर्भ

हाल ही में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने भारत के 28 राज्यों की राजकोषीय स्थिति का दशकीय विश्लेषण जारी किया है, जिसमें पिछले दशक में सार्वजनिक ऋण में तीव्र वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है।

  • यह तथ्य कि राज्य सरकारें सामूहिक रूप से कल्याण और विकास पर केंद्र सरकार की तुलना में अधिक व्यय करती हैं, संघवाद, कल्याणकारी वितरण तथा सतत् विकास के लिए गहन निहितार्थ प्रस्तुत करता है।

महत्त्वपूर्ण शब्दावली

  • सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP): यह किसी राज्य की भौगोलिक सीमाओं के भीतर उत्पादित सभी तैयार वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य है।
  • GSDP के प्रतिशत के रूप में ऋण (Debt as % of GSDP): यह किसी राज्य के कुल बकाया सार्वजनिक ऋण और उसके सकल राज्य घरेलू उत्पाद का अनुपात है।
    • प्रासंगिकता: राज्य की अर्थव्यवस्था के आकार के सापेक्ष ऋण के बोझ को दर्शाता है।
  • राजस्व के सापेक्ष बढ़ता ऋण (Rising Debt Relative to Revenues): यह किसी राज्य के कुल बकाया सार्वजनिक ऋण और उसकी राजस्व प्राप्तियों का अनुपात है।
    • प्रासंगिकता: यह इस बात को दर्शाता है कि उसकी आय कितनी बार उसके ऋण दायित्वों को पूरा करने में बाध्य है।
  • कुल गैर-ऋण प्राप्तियों के प्रतिशत के रूप में ऋण: यह उधार को छोड़कर सभी प्राप्तियों और कुल सार्वजनिक ऋण का अनुपात है।
    • प्रासंगिकता: यह दर्शाता है कि किसी राज्य की नियमित आय उसके ऋण भार को किस सीमा तक पूरा कर सकती है।

राज्यों की राजकोषीय स्थिति पर CAG रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष

  • एक दशक में ऋण वृद्धि: राज्यों का कुल सार्वजनिक ऋण वर्ष 2013-14 में ₹17.57 लाख करोड़ से 3.39 गुना बढ़कर वर्ष 2022-23 में ₹59.60 लाख करोड़ हो गया।
    • GSDP के प्रतिशत के रूप में ऋण: संयुक्त GSDP के 16.66% से बढ़कर 22.96% हो गया, जो अधिक राजकोषीय बोझ दर्शाता है।
  • राज्यवार ऋण परिदृश्य
    • GSDP की तुलना में सर्वाधिक ऋण: पंजाब (40.35%) > नागालैंड (37.15%) > पश्चिम बंगाल (33.70%)।
    • GSDP की तुलना में सबसे कम ऋण: ओडिशा (8.45%) < महाराष्ट्र (14.64%) < गुजरात (16.37%)।
    • मार्च 2023 तक स्थिति
      • 8 राज्यों का ऋण GSDP के 30% से अधिक था।
      • 6 राज्यों का ऋण GSDP के 20% से कम था।
      • 14 राज्य 20-30% की सीमा में थे।
  • राजस्व के सापेक्ष बढ़ता ऋण: वर्ष 2014-15 में ऋण राजस्व प्राप्तियों का 128% था, जो वर्ष 2020-21 (कोविड वर्ष) में 191% के शिखर पर पहुँच गया।
    • औसतन, ऋण राज्यों के राजस्व का लगभग 150% रहा है, जिससे स्थिरता संबंधी चिंताएँ बढ़ रही हैं।
    • इसी अवधि में कुल गैर-ऋण प्राप्तियों के प्रतिशत के रूप में यह 127% से 190% के बीच था।
  • राजस्व पर निर्भरता: महाराष्ट्र जैसे राज्य अपनी राजस्व प्राप्तियों का लगभग 70% आंतरिक स्रोतों से जुटाते हैं, जबकि अरुणाचल प्रदेश केवल 9% और उत्तर प्रदेश लगभग 42% जुटा पाते हैं। अधिशेष होने के बावजूद, उत्तर प्रदेश, केंद्र सरकार के हस्तांतरण पर अत्यधिक निर्भर है।
    • कई राज्य अस्थिर गैर-कर स्रोतों पर निर्भर हैं: लॉटरी उद्योग (केरल), खनन रॉयल्टी (ओडिशा), भूमि बिक्री (तेलंगाना)। 
      • ये दीर्घकालिक रूप से स्थायी नहीं हैं।

भारत में राज्यों पर अत्यधिक ऋण होने के कारण

  • GST के बाद राजकोषीय स्वायत्तता में कमी: GST (2017) ने अप्रत्यक्ष कर संग्रह को केंद्रीकृत कर दिया, जिससे राज्यों की राजस्व जुटाने की शक्ति सीमित हो गई।
    • केंद्रीय उपकरों और अधिभारों में वृद्धि से विभाज्य पूल और संकुचित हो गया, जिससे राज्यों की राजकोषीय क्षमता कम हो गई।
      • उदाहरण के लिए: उपकर और अधिभार वर्ष 2011-12 में 10.4% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 20% हो गए। यह प्रवृत्ति राज्यों के साथ साझा किए जाने वाले करों के पूल को प्रभावी रूप से कम कर देती है।

  • उपकर (Cess): उपकर एक प्रकार का कर है, जो किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए लगाया जाता है। यह ‘कर पर कर’ होता है, जो उत्पाद शुल्क या आयकर जैसे किसी मौजूदा कर के अतिरिक्त लगाया जाता है, और इसका राजस्व किसी विशेष उपयोग के लिए निर्धारित होता है।
    • उपकरों को संविधान में अनुच्छेद-277 और अनुच्छेद-270 (जो केंद्र और राज्यों के मध्य राजस्व-साझाकरण ढाँचे को रेखांकित करता है) के तहत मान्यता प्राप्त है।
  • अधिभार (Surcharge): अधिभार मौजूदा शुल्कों या करों पर लगाया गया एक अतिरिक्त कर या लेवी है। यह अनिवार्य रूप से एक “कर पर कर” है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद-270 और 271 में इसका उल्लेख किया गया है।

  • राजस्व और खर्च में असंतुलन: राज्य कुल राजस्व का एक-तिहाई से भी कम संग्रह करते हैं, लेकिन सार्वजनिक व्यय का लगभग दो-तिहाई हिस्सा उनका ही है।
    • यह असंतुलन संरचनात्मक रूप से अधिक उधार लेने के लिए बाध्य करता है।
  • लोकलुभावन व्यय और सब्सिडी: मुफ्त विद्युत, कृषि ऋण माफी और व्यापक कल्याणकारी योजनाएँ आवर्ती लागतों को बढ़ाती हैं।
    • कई मामलों में, उधार ली गई धनराशि का उपयोग बुनियादी ढाँचे के बजाय सब्सिडी, वेतन और पेंशन के लिए किया जाता है।
  • कोविड 19 महामारी का प्रभाव: कोविड-19 महामारी के दौरान कर संग्रह में भारी गिरावट आई। राज्यों का स्वास्थ्य और कल्याण पर आपातकालीन खर्च बढ़ गया, जिससे ऋण का स्तर विकृत हो गया।
  • बाजार उधार (SDL) पर बढ़ती निर्भरता: बाजार ऋण अब राज्य ऋण के सबसे बड़े घटक बन गए हैं। इन पर केंद्रीय उधार की तुलना में अधिक ब्याज दरें होती हैं, जिससे पुनर्भुगतान का दबाव बढ़ जाता है।
    • कुछ राज्य राजस्व प्राप्तियों का 20-25% केवल ब्याज भुगतान पर खर्च करते हैं।

गोल्डन रूल ऑफ बॉरोइंग (Golden Rule of Borrowing)

  • सरकारों को केवल पूँजीगत व्यय (बुनियादी ढाँचे जैसे दीर्घकालिक निवेश) के लिए उधार लेना चाहिए, न कि वर्तमान व्यय (जैसे- वेतन, सब्सिडी या पेंशन) के वित्तपोषण के लिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ऋण, उत्पादक परिसंपत्तियों का निर्माण करे, जिससे भावी पीढ़ियों को लाभ हो।

  • ‘गोल्डन रूल ऑफ बॉरोइंग’ का उल्लंघन: 11 राज्यों (आंध्र प्रदेश, पंजाब, बिहार, केरल, तमिलनाडु, आदि) ने निवेश के लिए नहीं, बल्कि चालू व्यय के लिए उधार लिया।
    • आंध्र प्रदेश और पंजाब में, पूँजीगत व्यय, शुद्ध उधारी का केवल 17-26% था।
    • यह राजकोषीय स्थिरता और अंतर-पीढ़ीगत समता को लेकर चिंताएँ उत्पन्न करता है।
  • कोविड-19 महामारी का प्रभाव: आर्थिक संकुचन और आपातकालीन उधारी के कारण ऋण-GSDP अनुपात 21% (2019-20) से बढ़कर 25% (2020-21) हो गया।
    • GST क्षतिपूर्ति में कमी ने तनाव को और बढ़ा दिया, जिसके कारण केंद्र को लगातार ऋण और विशेष सहायता प्रदान करनी पड़ी।
    • कुल मिलाकर, महामारी के दौरान राज्यों की केंद्र पर राजकोषीय निर्भरता और भी बढ़ गई।
  • कल्याण का विरोधाभास: अधिशेष का अर्थ हमेशा लोगों के लिए बेहतर कल्याण नहीं होता है।
    • कई राज्य केंद्रीय हस्तांतरण, प्रछन्न ऋणों या लागतों को स्थगित करने के कारण अधिशेष दिखाते हैं, न कि मजबूत वित्तीय स्थिति के कारण।
    • उदाहरण: आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश में कृषि ऋण माफी और मुफ्त बिजली का वित्तपोषण उधार या विलंबित भुगतान से किया जाता है।

भारत में बढ़ते राज्य सार्वजनिक ऋण के निहितार्थ

  • राजकोषीय संघवाद के लिए खतरा: बढ़ते ऋण ने कई राज्यों को केंद्रीय हस्तांतरण और ऋणों पर निर्भर बना दिया है, उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश का अधिशेष अभी भी 58% केंद्रीय हस्तांतरण पर निर्भर है।
    • GST ने पहले ही राज्यों की कराधान शक्तियों को कम कर दिया है, जबकि केंद्रीय उपकर/अधिभार उनके राजस्व हिस्से को और कम कर रहे हैं।
    • बढ़ती देनदारियों के साथ, केंद्र राज्य की व्यय प्राथमिकताओं पर अधिक नियंत्रण प्राप्त कर लेता है, जिससे वित्तीय स्वायत्तता कमजोर हो जाती है, जो प्रभावी सहकारी संघवाद के लिए आवश्यक है।
  • राजकोषीय भ्रम संबंधी जोखिम: कॉरपोरेट कर में कटौती, बजट से इतर उधारी और ‘प्रतीकात्मक कल्याणकारी योजनाएँ’ (पीएम-किसान, उज्ज्वला, आयुष्मान भारत) कल्याणकारी विस्तार का एक परिदृश्य प्रस्तुत कर सकती हैं, लेकिन वास्तव में राज्यों का राजकोषीय आधार कमजोर बना हुआ है, जिससे अस्थिरता का जोखिम बढ़ रहा है।
  • केंद्र-राज्य राजकोषीय संतुलन: केंद्र सरकार का अपना ऋण (वित्त वर्ष 2024 में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 57%) तथा बढ़ता हुआ राज्य ऋण (GDP का लगभग 23%) भारत के सामान्य सरकारी ऋण को सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 80% तक पहुँचा देते हैं, जो FRBM समीक्षा समिति के निर्धारित 60% लक्ष्य से काफी अधिक है।
  • अस्थिर राजस्व निर्भरता: कुछ राज्य लॉटरी राजस्व (केरल), खनन रॉयल्टी (ओडिशा), या भूमि बिक्री (तेलंगाना) जैसे अस्थिर आय स्रोतों पर निर्भर हैं। जब इन स्रोतों में उतार-चढ़ाव होता है, तो ऋण चुकाना कठिन हो जाता है।
  • अंतर-पीढ़ीगत समता: वर्तमान व्यय के लिए अत्यधिक उधार लेने से उत्पादक परिसंपत्तियाँ सृजित किए बिना ही भविष्य के करदाताओं पर बोझ पड़ता है।

आगे की राह

  • राज्यों के राजस्व आधार का विस्तार करना: संपत्ति कर को मजबूत करना, GST अनुपालन में सुधार करना और गैर-कर राजस्व में विविधता लाना ताकि राज्य लॉटरी, भूमि बिक्री या खनन रॉयल्टी जैसे अस्थिर स्रोतों पर अत्यधिक निर्भर न रहें।
  • उत्पादक व्यय को प्राथमिकता देना: उधारों को सब्सिडी या वेतन बिलों के बजाय सड़कों, स्वास्थ्य अवसंरचना और स्कूलों जैसे पूँजीगत निवेशों में अधिक लगाया जाना चाहिए।
    • यह ‘गोल्डन रूल ऑफ बॉरोइंग’ के अनुरूप है।
  • ऋण पुनर्गठन: राज्यों को महँगे ऋणों का पुनर्वित्त करना चाहिए, कम लागत वाले स्रोतों [जैसे- राष्ट्रीय लघु बचत कोष (National Small Savings Fund- NSSF), ग्रीन बॉण्ड, इन्फ्रास्ट्रक्चर बॉण्ड] का उपयोग करना चाहिए और ऋण सीमा के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए, जो ऋण-GSDP अनुपात को FRBM अधिनियम (2003) की सीमाओं के अंतर्गत रखे।
  • सामाजिक सुरक्षा तंत्र को मजबूत बनाना: वहनीय, लक्षित सामाजिक सुरक्षा प्रणालियाँ स्थापित करना ताकि कमजोर समूहों को अत्यधिक बजटीय दबाव के बिना सहायता मिल सके।
  • वित्तपोषण में नवाचार: बुनियादी ढाँचे के स्थायी वित्तपोषण के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP), म्युनिसिपल बॉन्ड और मिश्रित वित्त मॉडल का उपयोग करना।
  • सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन में सुधार: परिणामों से जुड़े प्रदर्शन-आधारित बजट की शुरुआत करना, बेंचमार्किंग के लिए राजकोषीय स्वास्थ्य सूचकांक (FHI) जैसे उपकरणों का उपयोग करना और खरीद तथा व्यय में लीकेज एवं अक्षमताओं को रोकने के लिए डिजिटल प्रणालियों को अपनाना।

राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम, 2003 क्या है?

  • परिचय: वर्ष 2003 में अधिनियमित, FRBM अधिनियम का उद्देश्य राजकोषीय अनुशासन सुनिश्चित करना, घाटे को कम करना और अंतर-पीढ़ीगत समानता की रक्षा करते हुए दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देना है। वैश्विक वित्तीय मंदी और कोविड-19 महामारी जैसे संकटों के दौरान लक्ष्यों को अद्यतन करने और लचीलापन प्रदान करने के लिए इसमें कई बार संशोधन (वर्ष 2004, 2012, 2015, 2018) किया गया है।
  • मुख्य प्रावधान
    • राजकोषीय उत्तरदायित्व: केंद्रीय वित्त मंत्री को संसद में राजकोषीय प्रदर्शन और सुधारात्मक उपायों पर नियमित रिपोर्ट प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है।
    • मध्य-अवधि राजकोषीय नीति (MTFP): राजस्व घाटा, राजकोषीय घाटा और सरकारी ऋण के लक्ष्यों को रेखांकित करने वाला एक तीन-वर्षीय सतत् ढाँचा अनिवार्य करता है।
    • पर्यवेक्षण: CAG अनुपालन का मूल्यांकन करता है, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करता है।
  • FRBM लक्ष्य
    • ऋण लक्ष्य (वर्ष 2018 में संशोधन)
      • सामान्य सरकारी ऋण (केंद्र + राज्य): इसे GDP के 60% तक कम किया जाएगा।
      • केंद्र सरकार का ऋण: इसे वित्तीय वर्ष 2024-25 तक GDP के 40% तक कम किया जाएगा।
    • राजकोषीय घाटा लक्ष्य
      • पूर्व लक्ष्य: मार्च 2021 तक GDP का 3% (कोविड 19 महामारी के कारण स्थगित)।
      • वर्तमान प्रतिबद्धता: वित्त वर्ष 2025-26 तक GDP का 4.5% से कम।
      • जून 2025 में, भारत ने वित्त वर्ष 2024-25 के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 4.8% का राजकोषीय घाटा हासिल किया।
    • ऋण गारंटी: भारत के संचित कोष पर अतिरिक्त गारंटी एक वर्ष में GDP का 0.5% से अधिक नहीं हो सकती।
  • राज्यों से संबंधित: 12वें वित्त आयोग ने राज्यों को अपने स्वयं के FRBM कानून बनाने की सिफारिश की थी, जिसमें आमतौर पर ऋण-GSDP अनुपात को लगभग 20-25% तक सीमित रखा जाता था।
    • आज कई राज्य इन सांकेतिक सीमाओं का उल्लंघन कर रहे हैं, जिससे राजकोषीय स्थिरता को लेकर चिंताएँ बढ़ रही हैं।

निष्कर्ष

राज्यों का बढ़ता हुआ ऋण, प्रछन्न राजकोषीय अंतराल और केंद्र पर अत्यधिक निर्भरता, कल्याणकारी योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन और संघीय संतुलन दोनों के लिए गंभीर खतरा हैं। इसलिए राजस्व आधार को सुदृढ़ करना और उत्पादक तथा पारदर्शी उधारी सुनिश्चित करना सतत् विकास की कुंजी है।

संदर्भ 

29 सितंबर को ‘अंतरराष्ट्रीय खाद्य हानि एवं अपव्यय जागरूकता दिवस’ (International Day of Awareness of Food Loss and Waste – IDAFLW) मनाया जाता है, ताकि खाद्य अपव्यय के वैश्विक संकट को उजागर किया जा सके।

  • विश्व स्तर पर उत्पादित कुल भोजन का लगभग एक-तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है।

IDAFLW के प्रमुख वैश्विक निष्कर्ष

  • ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि: वर्ष 2021 में वैश्विक खाद्यान्न का लगभग 13% (लगभग 1.25 अरब टन) फसल कटाई के पश्चात, लेकिन खुदरा दुकानों तक पहुँचने से पूर्व नष्ट हो गया।
  • उपभोक्ता-स्तरीय अपव्यय: वर्ष 2022 में घरों, खुदरा दुकानों और खाद्य सेवाओं में 19% खाद्यान्न (लगभग 1.05 अरब टन) की हानि हुई।
  • घरेलू योगदान: घरेलू स्तर पर 60% वैश्विक खाद्य अपव्यय होता है, जो उपभोक्ता व्यवहार के प्रभाव को दर्शाता है।
  • खाद्य असुरक्षा: वर्ष 2023 में, विश्व की लगभग 28.9% आबादी (2.33 अरब लोग) मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा से पीड़ित होगी, जबकि 11 में से 1 व्यक्ति भुखमरी का सामना करेगा।
  • जलवायु प्रभाव: खाद्य हानि और अपव्यय वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन में 8-10% का योगदान करते हैं, जो विमानन और शिपिंग क्षेत्रों के संयुक्त उत्सर्जन से भी अधिक है।

खाद्य हानि और खाद्य अपव्यय के बारे में

  • खाद्य हानि खेत से बाजार तक, मुख्यतः कटाई, परिवहन और भंडारण के दौरान होती है।
    • खाद्य हानि और अपव्यय के प्रमुख कारणों में कटाई के पश्चात् अप्रत्याशित वर्षा से फसलों को होने वाली क्षति, बाजार तक पहुँचने से पूर्व फलों एवं सब्जियों जैसी वस्तुओं का खराब होना तथा भंडारण चरण में चूहों के कारण या कुप्रबंधन से उत्पन्न हानियाँ शामिल हैं।
  • खाद्यान्न की बर्बादी खुदरा और उपभोक्ता स्तर पर होती है।
    • यह तब देखा जाता है, जब सुपरमार्केट दिखावटी कारणों से उत्पादों को अस्वीकार कर देते हैं, घरों में लोग आवश्यकता से अधिक खाना पकाते हैं या बचा हुआ खाना फेंक देते हैं, अथवा जब ग्राहक आवश्यकता से अधिक खाना परोस लेते हैं और प्लेट में खाना बर्बाद कर देते हैं।

भारत का खाद्यान्न उत्पादन और हानि

  • रिकॉर्ड उत्पादन: तीसरे अग्रिम अनुमान (2024-25) के अनुसार, भारत ने 353.96 मिलियन टन का रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन हासिल किया, जिसमें 117.51 ​​मिलियन टन गेहूँ और 149.07 मिलियन टन चावल शामिल है।
    • भारत विश्व स्तर पर खाद्यान्न का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, फिर भी उसे लगातार ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि का सामना करना पड़ता है, जिससे किसानों की आय और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा दोनों प्रभावित होती है।
  • हानि संबंधी आर्थिक भार: खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय (MoFPI) द्वारा कराए गए नाबार्ड कंसल्टेंसी सर्विसेज (NABCONS) के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि से भारत को वार्षिक रूप से लगभग ₹1.5 ट्रिलियन की हानि होती है, जो कृषि सकल घरेलू उत्पाद के 3.7% के बराबर है।
    • इतने बड़े नुकसान के परिणामस्वरूप जल ऊर्जा और श्रम की बर्बादी होती है तथा लाखों लोगों के लिए भोजन की उपलब्धता कम हो जाती है।
  • फसलवार हानि:: मुख्य फसलों को लगातार भारी नुकसान हो रहा है: धान को 4.8% और गेहूँ को 4.2%।
    • फल और सब्जियों जैसी फसलों को और भी अधिक नुकसान हो रहा है, जिनमें 10-15% तक का नुकसान हो रहा है, जो भंडारण, रखरखाव और परिवहन संबंधी अक्षमताओं को दर्शाता है।
  • खाद्य हानि का जलवायु प्रभाव: खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO), राष्ट्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी उद्यमिता एवं प्रबंधन संस्थान (NIFTEM), और हरित जलवायु कोष (GCF) द्वारा वर्ष 2023 में किए गए एक संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि भारत में खाद्य हानि से प्रतिवर्ष 33 मिलियन टन से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड-समतुल्य उत्सर्जन होता है।
    • अनाज, विशेष रूप से धान (मेथेन उत्सर्जन की तीव्रता के कारण), और पशुधन उत्पाद इन उत्सर्जनों में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय क्षरण बढ़ता है।

भारत में खाद्य अनाज भंडारण प्रणाली

  • भंडारण प्रणालियों के प्रकार: खाद्य पदार्थों के भंडारण के विभिन्न तरीके हैं और कुछ प्रमुखों में शामिल हैं:
    • केंद्रीकृत भंडारण: मुख्य रूप से भारतीय खाद्य निगम (FCI) और राज्य एजेंसियों द्वारा प्रबंधित किया जाता है। केंद्रीय पूल के अंतर्गत अनाज की खरीद, भंडारण और वितरण सुनिश्चित करता है।
    • शीत भंडारण: फल, सब्जियाँ, डेयरी उत्पाद, मांस और समुद्री भोजन जैसी वस्तुओं के लिए उपयोग किया जाता है। ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि को कम करने और पोषण गुणवत्ता बनाए रखने में मदद करता है।
    • विकेंद्रीकृत भंडारण: प्राथमिक कृषि ऋण सहकारी समितियों (Primary Agricultural Credit Societies- PACS), ग्रामीण गोदाम और किसानों द्वारा फार्म स्टोरेज के माध्यम से लागू किया गया। स्थानीय उपलब्धता सुनिश्चित करता है और परिवहन लागत को कम करता है।

भारत में खाद्य अनाज भंडारण प्रणाली

खाद्यान्नों का केंद्रीकृत भंडारण
  • नोडल एजेंसी के रूप में FCI: केंद्रीय पूल के तहत खाद्य पदार्थों की खरीद, भंडारण और वितरण के लिए जिम्मेदार है। खरीद सीधे FCI या राज्य सरकार एजेंसियों (SGA) द्वारा की जा सकती है। SGAs द्वारा खरीदे गए अनाज को FCI को सौंप दिया जाता है, जिसमें लागत प्रतिपूर्ति की जाती है।
  • उद्देश्य: न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीद के माध्यम से किसानों की आय की रक्षा करना, बफर स्टॉक बनाए रखना और खाद्य कीमतों को स्थिर रखना।
  • बुनियादी ढाँचा: अनाज को ढके हुए गोदामों, वेयरहाउस और आधुनिक स्टील ‘साइलो’ में संगृहीत किया जाता है, जिससे सुरक्षा और गुणवत्ता का रखरखाव सुनिश्चित होता है।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS): केंद्रीकृत भंडार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का  आधार हैं, जो देशव्यापी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। अधिशेष अनाज को कमी वाले राज्यों में स्थानांतरित किया जाता है।
  • क्षमता (जुलाई 2025): FCI और राज्य एजेंसियों के पास कुल 917.83 लाख मीट्रिक टन।
    • कवर किया गया भंडारण: गोदामों और साइलो जैसी पूरी तरह से छत/दीवार से घिरी संरचनाएँ।
    • कवर और प्लिंथ (Cover and Plinth- CAP) भंडारण: वायु संचार और सुरक्षा के लिए लकड़ी के बक्सों (डननेज) का उपयोग करके ऊँचे चबूतरे पर अनाज का भंडारण किया जाता है।
कोल्ड स्टोरेज अवसंरचना
  • भूमिका: जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं (फल, सब्जियाँ, डेयरी, मांस, समुद्री भोजन) के लिए आवश्यक। गुणवत्ता में गिरावट को रोकता है और ‘शेल्फ लाइफ’ बढ़ाता है।
  • इसमें शामिल सुविधाएँ: प्री-कूलिंग, तौल, छंटाई, ग्रेडिंग, पैकेजिंग, नियंत्रित वातावरण (CA) भंडारण, ब्लास्ट फ्रीजिंग और रेफ्रिजरेटेड परिवहन (रीफर वैन)
  • प्रभाव: ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि को कम करता है, विपणन योग्य अधिशेष सुनिश्चित करता है और जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं के निर्यात को बढ़ावा देता है।
  • सरकारी सहायता: प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना (PMKSY) और कृषि अवसंरचना कोष (AIF) जैसी योजनाओं के माध्यम से वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
  • स्थिति (जून 2025): भारत भर में 8,815 कोल्ड स्टोरेज, जिनकी संयुक्त क्षमता 402.18 लाख मीट्रिक टन है।
विकेंद्रीकृत भंडारण और PACS भूमिका
  • विकेंद्रीकृत खरीद योजना (DCP): वर्ष 1997-98 में शुरू की गई, जिससे राज्य सरकारों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत सीधे खाद्यान्न की खरीद, भंडारण और वितरण की अनुमति मिलती है।
  • लाभ: स्थानीय खरीद को प्रोत्साहित करती है, परिवहन लागत बचाती है और क्षेत्रीय स्तर पर अनाज की आपूर्ति सुनिश्चित करती है।
  • प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (PACS) की भूमिका
    • सहकारी ऋण संरचना की मूलभूत शाखा के रूप में कार्य करना।
    • 500-2000 मीट्रिक टन तक की ग्राम-स्तरीय भंडारण क्षमताएँ बनाना।
    • खरीद केंद्रों और उचित मूल्य दुकानों (FPS) दोनों के रूप में कार्य करना।
    • स्थानीय भंडारण को सक्षम बनाकर, हानि को कम करके और बेहतर मूल्य प्राप्ति सुनिश्चित करके किसानों की सहायता करना।
  • आधुनिकीकरण के लिए सरकार का प्रयास
    • कंप्यूटरीकरण परियोजना: रिकॉर्ड-कीपिंग, पारदर्शिता और दक्षता में सुधार हेतु ₹2,516 करोड़ के परिव्यय के साथ स्वीकृत।
    • विस्तार: जून 2025 तक।
      • 73,492 PACS को कंप्यूटरीकृत किया गया।
      • 5,937 नए PACS पंजीकृत किए गए, जिससे ग्रामीण भंडारण प्रणाली की पहुँच बढ़ी और उसे मजबूती मिली।

अनाज भंडारण के प्रमुख उद्देश्य

  •  ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि को कम करना: शीत भंडारण और आधुनिक गोदामों सहित उचित भंडारण, कृषि उपज की बर्बादी को अत्यधिक सीमा तक कम करता है।
  • खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना: राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) जैसे कार्यक्रमों के तहत वितरण के लिए खाद्यान्नों का बफर स्टॉक बनाए रखना आवश्यक है।
  • संकटकालीन बिक्री को रोकना: भंडारण सुविधाओं तक पहुँच किसानों को अपनी उपज को सुरक्षित रखने और उसे इष्टतम समय पर बेचने की सुविधा प्रदान करती है, जिससे संकटकालीन बिक्री से बचा जा सकता है और उन्हें बेहतर मूल्य प्राप्त करने में मदद मिलती है।
  • मूल्य स्थिरीकरण: रणनीतिक बफर स्टॉक बनाए रखने से उपभोक्ताओं को आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में अत्यधिक उतार-चढ़ाव से बचाने में मदद मिलती है।
  • गुणवत्ता बनाए रखना: वैज्ञानिक भंडारण नमी और कीटों जैसे कारकों को नियंत्रित करके यह सुनिश्चित करता है कि खाद्यान्न मानव उपभोग के लिए उपयुक्त रहें।

भारत में अनाज भंडारण की आवश्यकता

  • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA): NFSA, 2013 का उद्देश्य पात्र लाभार्थियों को रियायती मूल्यों पर पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराकर खाद्य सुरक्षा प्रदान करना है।
    • इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, मजबूत और वैज्ञानिक भंडारण सुविधाओं की आवश्यकता है, जो खाद्यान्नों के क्षरण को रोके, पोषण संबंधी गुणवत्ता बनाए रखे और अनाज व बीजों की उपयोग अवधि को बढ़ाना।
  • जनसंख्या का दबाव: भारत में विश्व के कृषि योग्य क्षेत्रफल का केवल 11% हिस्सा है, लेकिन यह वैश्विक जनसंख्या के 18% का भरण-पोषण करता है।
    • 1.4 अरब से अधिक की जनसंख्या के साथ, निर्बाध खाद्य आपूर्ति, पर्याप्त भंडारण अवसंरचना पर निर्भर करती है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अनाज पूरे वर्ष समाज के सभी वर्गों तक पहुँचता रहे।
  • भंडारण की कमी: वर्ष 2023-24 में 332.3 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) के रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन और वर्ष 2024-25 में लगभग 354 मिलियन मीट्रिक टन के अनुमानित उत्पादन के बावजूद, उपलब्ध भंडारण क्षमता माँग को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है।
    • अपर्याप्त भंडारण के कारण कुल उत्पादन का अनुमानित 10-15% ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि होती है, जो कीटों, नमी और अनुचित प्रबंधन के कारण होता है।
    • विश्व स्तर पर, अन्य देश अधिशेष भंडारण क्षमता (~131%) बनाए रखते हैं, जबकि भारत में भंडारण क्षमता में उल्लेखनीय कमी (~47%) आई है।
  • क्षेत्रीय असमानताएँ: भारत में भंडारण क्षमता विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक रूप से भिन्न है।
    • कुछ दक्षिणी राज्यों की भंडारण क्षमता 90% से अधिक है, जबकि उत्तरी राज्य, जो गेहूँ और चावल का एक बड़ा हिस्सा उत्पादित करते हैं, की भंडारण क्षमता 50% से कम है।
    • भारतीय खाद्य निगम (FCI) और राज्य एजेंसियों द्वारा प्रबंधित केंद्रीय गोदामों पर अत्यधिक निर्भरता परिवहन लागत और परिवहन के दौरान खराब होने के जोखिम को बढ़ाती है।
  • भंडारण का रणनीतिक महत्त्व: पर्याप्त अनाज भंडारण कई उद्देश्यों की पूर्ति करता है।
    • यह NFSA के तहत बफर स्टॉक की सुरक्षा करता है, किसानों को संकटग्रस्त बिक्री से और उपभोक्ताओं को मुद्रास्फीति से बचाकर कीमतों को स्थिर करता है तथा कवक संदूषण, कीट क्षति और एफ्लाटॉक्सिन को रोककर पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
    • इसके अलावा, पर्याप्त भंडारण अवसंरचना सूखे, बाढ़ या महामारी के दौरान आपूर्ति बनाए रखकर आपदा की तैयारी में सहायक होती है।
    • पर्यावरणीय दृष्टिकोण से, भंडारण हानि को कम करने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन भी कम होता है, जो सतत् विकास लक्ष्य 13 (SDG 13)- जलवायु कार्रवाई के अनुरूप है।

खाद्यान्न भंडारण को मजबूत करने के लिए भारत की पहल

  • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013: लगभग 67% आबादी को सब्सिडी युक्त खाद्यान्न उपलब्ध कराता है, जिसके लिए मजबूत बफर स्टॉक और भंडारण प्रणालियों की आवश्यकता होती है।
  • कृषि अवसंरचना कोष (AIF): ब्याज अनुदान और ऋण गारंटी के साथ फसल कटाई के बाद और ‘फार्म-गेट’ अवसंरचना के वित्तपोषण के लिए वर्ष 2020 में शुरू किया गया।
    • गोदामों और कोल्ड स्टोर सहित कुल 1.27 लाख परियोजनाओं (सितंबर 2025 तक) के लिए 1.17 लाख करोड़ रुपये के निवेश का प्रस्ताव था, जिसमें से 73,155 करोड़ रुपये की स्वीकृति दी गई है।
  • कृषि विपणन अवसंरचना (AMI): ISAM का एक भाग; गोदामों के निर्माण/नवीनीकरण में सहायता करता है।
    • जून 2025 तक, 27 राज्यों में 49,796 परियोजनाओं ने 4,829.37 करोड़ रुपये की सब्सिडी के साथ 982.94 लाख मीट्रिक टन क्षमता का निर्माण किया।
  • प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना (PMKSY): आधुनिक खाद्य प्रसंस्करण और शीत शृंखला अवसंरचना का निर्माण करना।
    • जून 2025 तक, 1,601 परियोजनाओं को मंजूरी दी गई (1,133 कार्यरत), जिससे 255.66 लाख मीट्रिक टन वार्षिक प्रसंस्करण क्षमता बढ़ेगी।
  • शीत भंडारण के लिए पूँजी निवेश सब्सिडी: 5,000-20,000 मीट्रिक टन के शीत/कैल्शियम-मुक्त भंडारण के लिए 35% सब्सिडी (सामान्य क्षेत्रों में) और 50% सब्सिडी (पूर्वोत्तर, पहाड़ी, अनुसूचित क्षेत्रों में) प्रदान की जाती है।
    • वैज्ञानिक भंडारण, शेल्फ-लाइफ विस्तार और मूल्य शृंखला दक्षता को बढ़ावा देता है।
  • सहकार-से-समृद्धि: भंडारण चुनौतियों का समाधान करने के लिए, सरकार ने सहकारी क्षेत्र में विश्व की सबसे बड़ी अनाज भंडारण योजना (मई 2023) को मंजूरी दी।
    • इस योजना के अंतर्गत, प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (PACS) को बहु-कार्यात्मक इकाइयों के रूप में विकसित किया जा रहा है ताकि वे भंडारण और खरीद सेवाएँ प्रदान कर सकें, अनाज का प्रसंस्करण, छँटाई और ग्रेडिंग कर सकें, उचित मूल्य की दुकानें (FPS) संचालित कर सकें और मूल्यवर्द्धन केंद्र स्थापित कर सकें।
    • इन पहलों का उद्देश्य भंडारण सुविधाओं को किसानों के निकट लाना, परिवहन के दौरान होने वाले नुकसान को कम करना, दक्षता में सुधार लाना और उत्पादकों को उनके उत्पादों के लिए बेहतर मूल्य सुनिश्चित करना है।
    • अगस्त 2025 तक, 11 PACS गोदाम पूरे हो चुके हैं; विस्तार के लिए 500 से अधिक PACS की पहचान की गई है।
  • स्टील ‘साइलो’ पहल: घाटे को कम करने के लिए मशीनीकृत थोक भंडारण को बढ़ावा देता है।
    • जून 2025 तक, 48 साइलो (27.75 LMT) पूरे हो चुके हैं, 87 साइलो (36.875 LMT) निर्माणाधीन हैं, और 54 साइलो (25.125 LMT) निविदा चरण में हैं।
  • परिसंपत्ति मुद्रीकरण (FCI भूमि): खाली FCI भूमि पर गोदामों का निर्माण। 17.47 लाख मीट्रिक टन क्षमता (जुलाई 2025) वाले 177 स्थलों की पहचान की गई है।
  • केंद्रीय क्षेत्र योजना – “भंडारण एवं गोदाम”: पूर्वोत्तर, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और केरल पर केंद्रित है।
    • वर्ष 2025 तक ₹379.50 करोड़ (पूर्वोत्तर) और ₹104.58 करोड़ (अन्य) का परिव्यय पूरी तरह से जारी किया गया है।
  • निजी उद्यमी गारंटी (PEG) योजना: वर्ष 2008 में PPP माध्यम में शुरू की गई।
    • भंडारण क्षमता को किराए पर लेने के लिए सरकारी गारंटी प्रदान करती है, आधुनिक भंडारण में निजी निवेश को प्रोत्साहित करती है।
  • डिजिटल एवं जलवायु प्रतिबद्धताएँ: राष्ट्रीय संकेतक ढाँचे के अंतर्गत सतत् विकास लक्ष्य 12.3.1 (खाद्य हानि एवं अपव्यय) की निगरानी, ​​साथ ही स्टॉक परिवहन की निगरानी के लिए डिजिटल खरीद प्रणाली और AI-आधारित पायलट योजना।

वैश्विक पहल और विश्व की सर्वोत्तम प्रथाएँ

  • अंतरराष्ट्रीय खाद्य हानि एवं अपव्यय जागरूकता दिवस (IDAFLW): खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के नेतृत्व में 29 सितंबर को खाद्य हानि एवं अपव्यय की वैश्विक चुनौती के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है।
  • सतत् विकास लक्ष्य (SDG) 12.3: इसका उद्देश्य खुदरा और उपभोक्ता स्तर पर प्रति व्यक्ति वैश्विक खाद्य अपव्यय को आधा करना और वर्ष 2030 तक उत्पादन एवं आपूर्ति शृंखलाओं में खाद्य हानि को कम करना है।
  • यूरोपीय संघ (EU) खाद्य हानि एवं अपव्यय निवारण कार्यक्रम: यह ‘फार्म टू फूड’ रणनीतियों, खाद्य अपव्यय की अनिवार्य रिपोर्टिंग, खाद्य बैंकों के माध्यम से पुनर्वितरण, तथा चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने पर केंद्रित है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका – खाद्य पुनर्प्राप्ति चुनौती (EPA): अतिरिक्त भोजन दान करके और अपरिहार्य अपशिष्ट को खाद तथा जैव ऊर्जा में पुनर्चक्रित करके खाद्य अपव्यय को रोकने के लिए संगठनों को प्रोत्साहित करता है।
  • जापान का खाद्य पुनर्चक्रण कानून (2001): व्यवसायों को अतिरिक्त खाद्यान्न को पशु आहार, उर्वरक और जैव ईंधन में पुनर्चक्रित करने की आवश्यकता होती है, जिससे पुनर्चक्रण दर 80% से अधिक हो जाती है।
  • दक्षिण कोरिया का अनिवार्य खाद्य अपशिष्ट पुनर्चक्रण: स्मार्ट डिब्बों के साथ ‘पे-एज-यू-थ्रो’ प्रणाली लागू करता है और 95% से अधिक खाद्य अपशिष्ट को चारे, खाद या ऊर्जा में पुनर्चक्रित करता है।
  • चीन का ‘क्लीन प्लेट अभियान’ (2020): अत्यधिक ऑर्डर के विरुद्ध जागरूकता को बढ़ावा देता है, जिम्मेदार उपभोग को प्रोत्साहित करता है।
  • वैश्विक नवीन प्रौद्योगिकियाँ
    • हर्मेटिक स्टोरेज (अफ्रीका): एयरटाइट स्टोरेज बैग और साइलो (जैसे- पर्ड्यू इम्प्रूव्ड क्रॉप स्टोरेज – PICS बैग)  ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि को अत्यधिक कम करते हैं।
    • यूरोप और अमेरिका में IoT और AI: स्मार्ट सेंसर, ब्लॉकचेन ट्रेसेबिलिटी और प्रेडिक्टिव एनालिटिक्स भंडारण, परिवहन और वितरण को अनुकूलित करते हैं।
    • कोल्ड चेन मॉडल (नीदरलैंड, डेनमार्क): एकीकृत ‘फार्म-टू-रिटेल’ कोल्ड चेन जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं का संरक्षण करती हैं, नुकसान कम करती हैं और पोषण संबंधी गुणवत्ता सुनिश्चित करती हैं।

अनाज भंडारण बुनियादी ढाँचे में वृद्धि के लाभ

  • खाद्य एवं पोषण सुरक्षा: NFSA (2013) के अंतर्गत लगभग 67% आबादी के लिए बफर स्टॉक सुनिश्चित करता है, पंचायत/ग्राम स्तर तक खाद्य सुरक्षा को मजबूत करता है और फफूँद संदूषण, कीटों तथा अफ्लाटॉक्सिन को रोकता है।
  • फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान में कमी: वैज्ञानिक भंडारण क्षमता का विस्तार वर्तमान नुकसान को लगभग 10-15% तक कम करता है, जिससे किसानों को बेहतर मूल्य प्राप्त करने और अपव्यय-जनित उत्सर्जन को कम करने में मदद मिलती है (SDG 13 – जलवायु कार्रवाई का समर्थन करते हुए)।
  • मूल्य स्थिरीकरण और किसान सशक्तीकरण: किसानों को संकटकालीन बिक्री से बचाता है, उपभोक्ताओं को मुद्रास्फीति से बचाता है, और किसानों को बाजार चुनने, स्थानीय स्तर पर कृषि-इनपुट तक पहुँचने, आय में विविधता लाने तथा बेहतर मूल्य प्राप्त करने की अनुमति देता है।
  • कम हैंडलिंग और परिवहन लागत: पैक्स (PACS) को खरीद केंद्र और उचित मूल्य की दुकानों (FPS) के रूप में स्थापित करने से, अनाज को कई बार परिवहन करने की आवश्यकता नहीं होती है, जिससे रसद लागत और रिसाव कम होता है।
  • कुशल एवं लचीली आपूर्ति शृंखला: विकेंद्रीकृत भंडारण, खेतों और उपभोक्ताओं के बीच के अंतराल को पाटता है, जिससे एक स्थिर एवं पारदर्शी अनाज वितरण प्रणाली सुनिश्चित होती है।
  • आपदा तैयारी: सूखा, बाढ़ या महामारी जैसी आपात स्थितियों के लिए भंडार बनाए रखता है, जिससे आपूर्ति लचीलापन मजबूत होता है।
  • क्षेत्रीय संतुलन और रणनीतिक महत्त्व: राज्य-स्तरीय असमानताओं को कम करता है, अंतिम छोर तक कनेक्टिविटी में सुधार करता है और जलवायु परिवर्तन एवं जनसंख्या वृद्धि के विरुद्ध राष्ट्रीय खाद्य संप्रभुता में वृद्धि करता है।

भारत में खाद्यान्न भंडारण- प्रमुख आयाम और चुनौतियाँ

  • सामाजिक-आर्थिक आयाम
    • खाद्य संबंधी अन्याय और भुखमरी संबंधी विरोधाभास: यद्यपि भारत ने वर्ष 2024-25 में रिकॉर्ड ~354 मिलियन मीट्रिक टन खाद्यान्न की कटाई की है, फिर भी लाखों लोग खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त हैं। कटाई के बाद होने वाला नुकसान, कमजोर समूहों तक भोजन पहुँचने से रोकता है, जिससे उपलब्धता और पहुँच के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है।
    • कमजोर समूहों पर प्रभाव: कुपोषण महिलाओं, बच्चों और हाशिए पर स्थित समुदायों को सबसे अधिक प्रभावित कर रहा है। दूध, दालें, फल और सब्जियों जैसी वस्तुओं में पोषक तत्त्वों की कमी, प्रछन्न भूख के संकट को और बढ़ा देती है।
    • वैश्विक भूख सूचकांक (2024): भारत 125 देशों में 111वें स्थान पर है, जो भुखमरी के गंभीर स्तर को दर्शाता है। बौनापन (आयु के हिसाब से कम ऊँचाई) और ऊँचाई के हिसाब से कम वजन जैसे संकेतक, खाद्य हानि से बढ़ती पोषण संबंधी गहरी कमी को दर्शाते हैं।
    • सामाजिक असमानता: शहरी मध्यम वर्ग उपभोक्ता स्तर पर भोजन की बर्बादी करता है, जबकि गरीब परिवारों को राशन की कमी का सामना करना पड़ता है, जिससे वितरण तथा उपभोग में असमानताएँ उजागर होती हैं।
  • पर्यावरणीय आयाम
    • बर्बाद प्राकृतिक संसाधन: ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि से जल, भूमि और ऊर्जा की अपव्यय होती है। वैश्विक स्तर पर, बर्बाद भोजन के कारण वार्षिक रूप से लगभग 250 अरब क्यूबिक मीटर ताजे जल की खपत होती है। अकेले भारत में, यह नुकसान लगभग 10 करोड़ लोगों की वार्षिक पेयजल आवश्यकता के बराबर है।
    • मृदा और जल क्षरण: लैंडफिल में फेंका गया भोजन मेथेन उत्सर्जन और विषाक्त निक्षालन उत्पन्न करता है, जिससे भूजल दूषित होता है और मृदा का क्षरण होता है।
    • जलवायु भार: खाद्य अपशिष्ट वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 8-10% का योगदान देता है, जो विमानन और जहाजरानी क्षेत्रों के संयुक्त उत्सर्जन से भी अधिक है। भारत में खाद्य अपशिष्ट से वार्षिक रूप से 33 मिलियन टन से अधिक CO₂ समतुल्य उत्सर्जन होता है।
  • आर्थिक आयाम
    • प्रत्यक्ष मौद्रिक प्रभाव: NABCONS (2022) ने अनुमान लगाया है कि  ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि ₹1.5 ट्रिलियन होगी जो कृषि-जीडीपी के 3.7% के बराबर है।
    • किसानों की आय: खराब होने से विपणन योग्य अधिशेष कम हो जाता है, जिससे बिक्री में संकट उत्पन्न होता है और बीज, उर्वरक और सिंचाई में निवेश क्षमता सीमित हो जाती है।
    • खाद्य मुद्रास्फीति: घाटे से प्रेरित आपूर्ति की कमी से सब्जियों, दालों और प्याज की कीमतें बढ़ जाती हैं, जिससे मुद्रास्फीति संबंधी अस्थिरता बढ़ती है और परिवारों पर बोझ पड़ता है।
    • समष्टि आर्थिक तनाव: खाद्य पदार्थों के खराब होने पर सिंचाई, सब्सिडी, बिजली और खरीद पर सार्वजनिक व्यय निरर्थक हो जाता है, जिससे सामाजिक लाभ प्रदान किए बिना राजकोषीय लागत बढ़ जाती है।
      • कोल्ड चेन और भंडारण प्रणालियाँ आपूर्ति शृंखला की दक्षता को कमजोर करती हैं और चारा खराब होने का कारण बनती हैं, जिससे पशुपालन का अर्थशास्त्र प्रभावित होता है।
  • खाद्यान्न भंडारण में लगातार बाधाएँ
    • अपर्याप्त भंडारण क्षमता: फसल वृद्धि के बावजूद, वर्तमान क्षमता माँग के 60% से भी कम को पूरा कर पाती है, जिससे FCI गोदामों पर अत्यधिक निर्भरता बढ़ जाती है।
    • क्षेत्रीय असंतुलन: दक्षिणी राज्य 90% से अधिक क्षमता बनाए रखते हैं, जबकि उत्तरी राज्य 50% से भी कम क्षमता पर कार्य करते हैं, जिससे रसद संबंधी बाधाएँ और बर्बादी होती है।
    • ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि: कीटों, नमी और अवैज्ञानिक भंडारण के कारण प्रत्येक वर्ष लगभग 10-15% अनाज नष्ट हो जाता है, जिससे राष्ट्रीय भंडार और किसानों की आय दोनों कम हो जाती है।
    • कमजोर कोल्ड चेन अवसंरचना: भारत के 8,815 कोल्ड स्टोरेज (जून 2025 तक 402.18 लाख मीट्रिक टन क्षमता) जल्दी खराब होने वाले, पोषक तत्त्वों से युक्त खाद्य पदार्थों को संरक्षित करने के लिए अपर्याप्त हैं, जिससे प्रछन्न भुखमरी की स्थिति और भी खराब हो रही है।
    • तकनीकी कमियाँ: स्टील साइलो, वायुरोधी भंडारण और IoT-आधारित निगरानी को सीमित रूप से अपनाने के कारण यह प्रणाली पुराने गोदामों पर निर्भर है।
    • शासन संबंधी मुद्दे: FCI, राज्य एजेंसियों और सहकारी समितियों की भूमिकाओं का एक-दूसरे से मेल न खाने से समन्वय में देरी होती है, जबकि रिसाव और अन्यत्र उपयोग से कार्यकुशलता कम होती है।
    • जलवायु जोखिम: बाढ़, लू और अत्यधिक वर्षा में वृद्धि के कारण खुले भंडारण (CAP) पर प्रभाव पड़ता है, जिससे भंडार खराब होने और संदूषण का शिकार हो जाता है।

आगे की राह

  • आधुनिक और जलवायु-अनुकूल अवसंरचना: भंडारण और शीत शृंखला सुविधाओं का उन्नयन आवश्यक है।
    • प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना (PMKSY) जैसी योजनाओं के तहत प्री-कूलिंग इकाइयों, प्रशीतित परिवहन, आधुनिक गोदामों और मशीनीकृत साइलो में निवेश से अनाज आधारित वस्तुओं के नुकसान को अत्यधिक कम किया जा सकता है।
    • सौर ऊर्जा से संचालित कोल्ड स्टोरेज और कम लागत वाले कूलिंग चैंबर्स का विस्तार विशेष रूप से लघु किसानों के लिए मददगार होगा।
  • अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम हस्तक्षेप: ये हस्तक्षेप आपूर्ति शृंखला में खाद्य हानि को कम करते हैं, गुणवत्ता में सुधार करते हैं, कुशल वितरण सुनिश्चित करते हैं, और खाद्य एवं पोषण सुरक्षा को मजबूत करते हैं।
    • अपस्ट्रीम: ‘पोस्ट हार्वेस्ट’ हानि में मशीनीकरण से रिसाव कम होता है; फसल कटाई के बाद की बेहतर देखभाल (सुखाना, थ्रेसिंग, ग्रेडिंग) नुकसान को रोकती है; और जलवायु-प्रतिरोधी बीजों को अपनाने से चरम मौसम से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
    • डाउनस्ट्रीम: ‘फार्म-गेट’ से लेकर खुदरा क्षेत्र तक कोल्ड चेन का विस्तार, अधिशेष अवशोषण के लिए खाद्य प्रसंस्करण पार्कों का निर्माण और रीफर वैन तथा गोदामों के माध्यम से रसद को मजबूत करके खेत से बाजार तक के अंतर को कुशलतापूर्वक पाटा जा सकता है।
  • योजनाओं का अभिसरण: भारत को कृषि अवसंरचना कोष (AIF), PMKSY और विश्व की सबसे बड़ी अनाज भंडारण योजना के बीच सामंजस्य की आवश्यकता है।
    • ये सब मिलकर ‘फार्म टू फूड’ पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण कर सकते हैं:- 
      • PACS, उपज एकत्र करती हैं।
      • AIF भंडारण के लिए धन मुहैया कराता है। 
      • PMKSY प्रसंस्करण क्षमता बढ़ाती है। 
      • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) अंतिम छोर तक वितरण सुनिश्चित करती है।
  • डिजिटल और स्मार्ट समाधान: तकनीक को मुख्यधारा में लाना होगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) माँग का पूर्वानुमान लगा सकता है और भंडारण को अनुकूलित कर सकता है; इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IOT) सेंसर वास्तविक समय में अनाज की गुणवत्ता की निगरानी कर सकते हैं; और ब्लॉकचेन खरीद और वितरण में पारदर्शिता ला सकता है।
    • डिजिटल डैशबोर्ड SDG 12.3 (वर्ष 2030 तक खाद्य अपशिष्ट को आधा करना) की दिशा में प्रगति की निगरानी कर सकते हैं।
  • सहकारी और सामुदायिक संस्थाओं को मजबूत करना: निष्क्रिय PACS को पुनर्जीवित करना और उन्हें पंचायत स्तर पर भंडारण, खरीद और खुदरा गतिविधियों से जोड़ना, परिवहन लागत को कम करेगा और किसानों को सशक्त बनाएगा।
    • किसान उत्पादक संगठनों (FPO) के साथ एकीकरण सामुदायिक स्तर पर एकत्रीकरण और विपणन को मजबूत कर सकता है।
  • टिकाऊ और चक्रीय प्रथाएँ: वायुरोधी भंडारण को बढ़ावा देने से कीटों और कवकों से होने वाले नुकसान में कमी आती है, जबकि चक्रीय अर्थव्यवस्था मॉडल अपनाने से (अतिरिक्त भोजन को खाद, पशु आहार या जैव ऊर्जा में परिवर्तित करने से) लैंडफिल में जमाव को रोका जा सकता है और मेथेन उत्सर्जन में कमी आती है।
  • हितधारक भागीदारी: प्रभावी हितधारक भागीदारी सरकार, निजी क्षेत्र, नागरिक समाज और उपभोक्ताओं के बीच समन्वित कार्रवाई सुनिश्चित करती है ताकि खाद्य हानि को कम किया जा सके और खाद्य सुरक्षा को बढ़ाया जा सके।
    • सरकार: जलवायु और खाद्य सुरक्षा नीतियों में खाद्य हानि में कमी को एकीकृत करना, योजनाओं का अभिसरण सुनिश्चित करना और नवाचार को समर्थन देना आवश्यक है।
    • निजी क्षेत्र: भंडारण, कोल्ड चेन, लॉजिस्टिक्स और खाद्य-तकनीकी समाधानों में निवेश करना चाहिए।
    • नागरिक समाज एवं गैर-सरकारी संगठन: खाद्य बैंकों का विस्तार कर सकते हैं, जागरूकता अभियान संचालित कर सकते हैं और पुनर्वितरण नेटवर्क का समर्थन कर सकते हैं।
    • उपभोक्ता: ‘खाद्य बचाना, खाद्य बाँटना’ जैसे जिम्मेदार उपभोग अभियानों के माध्यम से प्लेट-स्तर पर होने वाली बर्बादी को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना।
  • खाद्य सुरक्षा को जलवायु कार्रवाई से जोड़ना: खाद्यान्न हानि को कम करने से दोहरा लाभ होता है, यह कमजोर आबादी के लिए उपलब्धता में सुधार करता है और साथ ही ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को भी कम करता है।
    • इससे भारत की खाद्य सुरक्षा मजबूत होती है और पेरिस समझौते के तहत उसकी जलवायु प्रतिबद्धताएँ आगे बढ़ती हैं।

निष्कर्ष

खाद्यान्न हानि और बर्बादी को कम करने से SDG 12.3 (जिम्मेदार उपभोग), SDG 2 (शून्य भुखमरी) और SDG 13 (जलवायु कार्रवाई) को बढ़ावा मिलता है, जबकि संवैधानिक मूल्यों [अनुच्छेद-39 (b) – समान संसाधन वितरण; अनुच्छेद-47 – पोषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य] को बनाए रखते हुए एक समावेशी, सतत् और खाद्य रूप से सुरक्षित समाज का निर्माण सुनिश्चित किया जाता है।

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