Q. संवैधानिक अधिकारों, सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों और न्यायिक हस्तक्षेपों के साथ उनके अंतर्संबंध पर चर्चा करते हुए आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए कि भारत के भिक्षावृति-विरोधी कानून औपनिवेशिक विरासत को कैसे दर्शाते हैं। साथ ही शहरी गरीबी को संबोधित करने के लिए एक व्यापक रूपरेखा का सुझाव दीजिए जो व्यक्ति के कल्याण को गरिमा के साथ संतुलित करे। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • विश्लेषण कीजिए कि भारत के भिक्षावृत्ति-विरोधी कानून किस प्रकार औपनिवेशिक विरासत को प्रतिबिम्बित करते हैं।
  • भिक्षावृत्ति से संबंधित कानूनों और संवैधानिक अधिकारों, सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों और न्यायिक हस्तक्षेपों के बीच संबंध पर चर्चा कीजिए।
  • शहरी गरीबी को दूर करने के लिए एक व्यापक ढाँचे का सुझाव दीजिए जो कल्याण और सम्मान के बीच संतुलन स्थापित करे।

उत्तर

भारत के भिक्षावृत्ति विरोधी कानून, जैसे कि बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट 1959, काफी हद तक औपनिवेशिक नीतियों को दर्शाते हैं,जिनका उद्देश्य गरीबी का अपराधीकरण करना था न कि इसके मूल कारणों को संबोधित करना। ये कानून अक्सर अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) जैसे संवैधानिक अधिकारों के साथ संघर्ष करते हैं और बेरोजगारी, बेघर होने व प्रणालीगत असमानता जैसी सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं पर विचार करने में विफल रहते हैं।न्यायिक मध्यक्षेप, जैसे कि दिल्ली उच्च न्यायालय का 2018 का निर्णय जिसमें भिक्षावृत्ति को अपराध से मुक्त किया गया, अधिकार-आधारित और मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

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भारत के भिक्षावृत्ति-विरोधी कानून औपनिवेशिक विरासत को दर्शाते हैं

  • औपनिवेशिक उत्पत्ति: भिक्षावृत्ति के खिलाफ़ कानून, आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 जैसी औपनिवेशिक नीतियों से प्रेरित हैं, जिसने यायावर जनजातियों को अपराधी के रूप में कलंकित किया और उन्हें स्थायी निवास प्राप्त करने से बाध्य किया। 
    • उदाहरण के लिए:औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों को बरकरार रखते हुए, बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट‌ 1959, निराश्रितता, प्रदर्शन कला और सड़क पर आजीविका प्राप्त करने को “भिक्षावृत्ति” के रूप में अपराध मानता है।
  • सामाजिक पूर्वाग्रह: ब्रिटिश कानूनों ने गरीबों को नैतिक रूप से हीन और आलसी माना, जिससे भारतीयों में यह धारणा आई कि भिखारी सहायता के अयोग्य होते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: इंग्लैंड में ऑर्डिनेंस ऑफ लेबरर्स (1349) ने गरीब व्यक्तियों को “आवारा” माना और गरीबी की सार्वजनिक दृश्यता को दंडित किया।
  • आर्थिक उद्देश्य: औपनिवेशिक कानूनों ने बागानों के लिए श्रम प्राप्त करने और भू-राजस्व को अधिकतम करने हेतु यायावर समुदायों की गतिशीलता को प्रतिबंधित कर दिया, जो आज गरीबों पर लागू प्रतिबंधों की याद दिलाता है।
  • दंडात्मक रूपरेखाएँ: भिक्षावृत्ति से संबंधित कानून,कल्याण की तुलना में शहरी सौंदर्य को अधिक प्राथमिकता देते हैं, तथा सामाजिक-आर्थिक समाधानों के बजाय दंडात्मक उपायों के माध्यम से “सुधार” के औपनिवेशिक तर्क को बढ़ावा देते हैं।
  • न्यायिक आलोचना: न्यायालयों ने पाया है कि पुराने औपनिवेशिक ढाँचे के तहत गरीबी को अपराध घोषित करना, संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है और इसमें सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के साथ संरेखण का अभाव है। 
    • उदाहरण के लिए: दिल्ली उच्च न्यायालय (2018) ने अनुच्छेद 21 (गरिमा का अधिकार) के उल्लंघन का हवाला देते हुए बॉम्बे अधिनियम के मनमाने प्रावधानों को खारिज कर दिया।

भिक्षावृत्ति से संबंधित कानूनों का संवैधानिक अधिकारों, सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों और न्यायिक मध्यक्षेपों के साथ अंतर्संबंध

  • संवैधानिक संघर्ष:भिक्षावृत्ति विरोधी कानून अनुच्छेद 21 को कमजोर करते हैं, जो गरिमा और आजीविका की गारंटी देता है और इस तरह से ये गरीबी उन्मूलन पर राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
  • उदाहरण के लिए: गरीबी की सामाजिक-आर्थिक जड़ों पर बल देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक स्थानों से भिखारियों को हटाने के लिए एक जनहित याचिका (2021) को खारिज कर दिया।
  • सामाजिक-आर्थिक असमानता: कानून, व्यवस्थागत गरीबी के कारणों जैसे कि बेरोजगारी और आवास की कमी को नजरअंदाज करते हैं और लक्षणों को लक्षित करते हैं जबकि मूल समस्याओं को संबोधित करने में विफल रहते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: मुंबई जैसे शहरों में भिक्षावृत्ति के खिलाफ अभियान के तहत शहरी गरीबों को बेदखल किया जाता है, जबकि उनके पास स्वच्छता और आवास जैसी बुनियादी सेवाओं तक पहुंच नहीं होती है
  • न्यायिक समानुभूति: न्यायालयों ने गरीबी को एक संरचनात्मक मुद्दे के रूप में संबोधित करने के लिए दंडात्मक उपायों के बजाय पुनर्वास और प्रणालीगत सुधार की वकालत की है। उदाहरण के लिए:दिल्ली उच्च न्यायालय (2018) ने गरीबी को अपराध घोषित करने से पहले गरीबों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने में राज्य की जवाबदेही पर बल दिया।
  • नीतिगत कमियाँ: वर्तमान कानून SMILE जैसी योजनाओं को कल्याण और समावेशी विकास के लिए संवैधानिक दायित्वों के साथ एकीकृत करने में विफल हैं। 
    • उदाहरण के लिए: SMILE योजना का उद्देश्य भिखारियों का पुनर्वास करना है,लेकिन इसमें पुरानी परिभाषाएं बरकरार रखी गई हैं,जिससे इसकी परिवर्तनकारी क्षमता सीमित हो गई है।
  • मानवाधिकार संबंधित चिंताएँ: भिक्षावृत्ति विरोधी कानून सुभेद्य समूहों को हाशिए पर ले जाते हैं,और इस तरह से ये गरीबी उन्मूलन और मानव सम्मान पर वैश्विक मानदंडों का उल्लंघन करते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: भारत का रुख संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों, विशेष रूप से SDG 1 (गरीबी उन्मूलन) और SDG 10 (असमानताओं में कमी) के विपरीत है।

शहरी गरीबी को दूर करने के लिए कल्याण और गरिमा के बीच संतुलन स्थापित करने हेतु व्यापक रूपरेखा

  • समुदाय-केंद्रित पुनर्वास: भिखारियों को बिना किसी कलंक के समाज में पुनः शामिल करने के लिए कौशल प्रशिक्षण केंद्र,किफायती आवास और चिकित्सा सुविधाएं स्थापित करनी चाहिए।
    • उदाहरण के लिए: केरल का कुदुम्बश्री मॉडल माइक्रोफाइनेंस,स्वयं सहायता समूहों और कौशल प्रशिक्षण के माध्यम से हाशिए पर स्थित समूहों को सशक्त बनाता है।
  • अधिकार-आधारित दृष्टिकोण:गरीबी को अपराध से अलग करने के लिए कानूनों में “भिक्षावृत्ति” को फिर से परिभाषित करना चाहिए।
    •  उदाहरण के लिए: बॉम्बे अधिनियम में महाराष्ट्र के संशोधन ने सुभेद्य समूहों के लिए सुरक्षा उपायों की शुरुआत की, जिसमें दंडात्मक कार्रवाई की तुलना में पुनर्वास पर  बल दिया गया।
  • समावेशी शहरी नियोजन: हाशिए पर स्थित लोगों को शहरी ढाँचे में एकीकृत करने के लिए सार्वजनिक स्थानों,कम लागत वाले आवास और रोजगार के अवसरों तक पहुँच सुनिश्चित करनी चाहिए।
    • उदाहरण के लिए: दिल्ली के आश्रय गृह (रैन बसेरा) बेघर लोगों को रात्रि आवास की सुविधा प्रदान करते हैं, जिससे दंडात्मक कार्रवाई की संभावना कम हो जाती है।
  • सहयोग और जवाबदेही: SMILE जैसे समग्र गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सरकारी एजेंसियों, गैर सरकारी संगठनों और निजी क्षेत्रों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना चाहिए 
    • उदाहरण के लिए: अक्षय पात्र फाउंडेशन शहरी गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए सरकारों के साथ मिलकर काम करता है, जिससे पोषण सुरक्षा में मदद मिलती है।
  • जन जागरूकता अभियान: गरीबी की गतिशीलता और समावेशी नीतियों की आवश्यकता के बारे में नागरिकों को शिक्षित करके सहानुभूति को बढ़ावा देना चाहिए और भिखारियों के खिलाफ सामाजिक कलंक को कम करना चाहिए। 
    • उदाहरण के लिए: स्वाभिमान भारत जैसे अभियान समुदाय-संचालित समाधानों और शहरी गरीबी के उन्मूलन को बढ़ावा देते हैं।

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एक व्यापक ढाँचे में PM गरीब कल्याण योजना और DAY-NULM जैसी कल्याणकारी योजनाओं को कौशल विकास, किफायती आवास और मानसिक स्वास्थ्य सहायता के लिए रणनीतियों के साथ एकीकृत किया जाना चाहिए। फिनलैंड की हाउसिंग फर्स्ट पॉलिसी जैसे वैश्विक मॉडलों से सबक लेते हुए, भारत शहरी गरीबी से प्रभावी ढंग से निपट सकता है। इन उपायों को संवैधानिक सिद्धांतों के साथ जोड़ने से सामाजिक न्याय सुनिश्चित होगा और हाशिए पर स्थित लोगों को अपराधी। 

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