Q. हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी संवेदनशीलता और चीन की यारलुंग त्संगपो परियोजना द्वारा उत्पन्न चुनौतियों के संदर्भ में, इन मुद्दों को हल करने के लिए भारत और चीन के बीच सीमा पार नदियों पर क्या समन्वय तंत्र मौजूद हैं? इन चुनौतियों को कम करने के लिए भारत विभिन्न मंचों के साथ रणनीतिक रूप से कैसे जुड़ सकता है? (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी संवेदनशीलता और चीन की यारलुंग त्सांगपो परियोजना से उत्पन्न चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।
  • इन मुद्दों के समाधान के लिए भारत और चीन के बीच अंतर-सीमावर्ती नदियों पर मौजूद समन्वय तंत्रों पर चर्चा कीजिए।
  • इन चुनौतियों को कम करने के लिए भारत विभिन्न मंचों के साथ रणनीतिक रूप से कैसे जुड़ सकता है, इसका परीक्षण कीजिए।

उत्तर

हिमालय क्षेत्र, जो संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र और ब्रह्मपुत्र जैसी महत्त्वपूर्ण नदियों का निवास-स्थल है, जो अभी चीन की यारलुंग त्संगपो परियोजना के कारण पारिस्थितिकी चुनौतियों का सामना कर रहा है। यह जलविद्युत पहल भारत पर जल प्रवाह व्यवधान और डाउनस्ट्रीम प्रभावों को लेकर चिंताएँ उत्पन्न करती है। भारत-चीन जल सहयोग समझौता (2002) डेटा साझा करने की सुविधा प्रदान करता है, लेकिन इस संबंध में तनाव बना हुआ है।

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हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता और चीन की यारलुंग त्सांगपो परियोजना से उत्पन्न चुनौतियाँ

  • संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र: हिमालयी क्षेत्र पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील होता है। यह भूस्खलन, भूकंप और अन्य प्राकृतिक खतरों के प्रति संवेदनशील है, जिससे यारलुंग त्संगपो बांध जैसी बड़े पैमाने की परियोजनाओं का जोखिम बढ़ जाता है। 
    • उदाहरण के लिए: तिब्बत में वर्ष 2004 में हुए भूस्खलन से पारेचू झील बनी जो वर्ष 2005 में प्रस्फुटित हुई, जिससे इस क्षेत्र में भूकंपीय जोखिम उजागर हुआ।
  • जैव विविधता के लिए खतरा: बड़े बांध नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करते हैं, जिससे निचले इलाकों में जल का प्रवाह और अवसाद निक्षेप होने से स्थानीय जैव विविधता और कृषि प्रभावित होती है। 
    • उदाहरण के लिए: थ्री गॉर्जेस डैम के विशाल जल भंडारण ने लाखों लोगों को विस्थापित कर दिया है और यांग्त्सी नदी के प्राकृतिक प्रवाह को बदल दिया है, जिससे वन्यजीवों के आवास प्रभावित हुए हैं।
  • जल प्रवाह में व्यवधान: यारलुंग त्सांगपो का यह बांध भारत में पर्याप्त जल प्रवाह को बाधित कर सकता है, जिससे ब्रह्मपुत्र प्रणाली प्रभावित हो सकती है, जो लाखों लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण जल स्रोत है। 
    • उदाहरण के लिए: मेकांग क्षेत्र में, चीन के बांधों ने जल प्रवाह को काफी कम कर दिया है, जिससे निचले देशों में कृषि और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है।
  • भूकंपीय और भूवैज्ञानिक जोखिम: इस क्षेत्र की भूकंप-प्रवण प्रकृति बांध सुरक्षा पर चिंता उत्पन्न करती है, क्योंकि बड़े जलाशय भूकंपीय गतिविधि को बढ़ावा दे सकते हैं और आपदाओं का कारण बन सकते हैं।
  • पर्यावरणीय आपदाएँ: बड़े जलाशयों के निर्माण से अचानक बाढ़ या संरचनात्मक विफलताएँ हो सकती हैं, जिससे निचले इलाकों के समुदायों और उनकी आजीविका पर असर पड़ सकता है। 
    • उदाहरण के लिए: चीन में वर्ष 1975 में बानकिआओ बांध की विफलता जैसी बांध-प्रेरित आपदाओं में विफल जलाशय से अचानक बाढ़ आने के कारण 200,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।

भारत और चीन के बीच सीमा पार नदियों पर समन्वय तंत्र

  • सीमा पार नदियों पर समझौता ज्ञापन: भारत और चीन ने सीमा पार नदियों पर एक समझौता ज्ञापन (MoU) किया है, जिसका उद्देश्य साझा जल संसाधनों और मुद्दों पर सहयोग सुनिश्चित करना है। 
    • उदाहरण के लिए: 2013 का व्यापक समझौता ज्ञापन सहयोग की सुविधा प्रदान करता है, लेकिन इसमें नदी प्रबंधन पर सूचनाओं के नियमित आदान-प्रदान के लिए परिचालन तंत्र का अभाव है।
  • ब्रह्मपुत्र-विशिष्ट समझौता ज्ञापन: ब्रह्मपुत्र-विशिष्ट समझौता ज्ञापन, जिसे हर पांच वर्ष में नवीनीकृत किया जा सकता है, दोनों देशों के बीच जल बंटवारे और प्रबंधन से संबंधित मुद्दों के समाधान के लिए एक मंच प्रदान करता है।
  • सतलुज-विशिष्ट समझौता ज्ञापन: पारेचू घटना के बाद तैयार किए गए सतलुज नदी पर समझौता ज्ञापन का उद्देश्य अपस्ट्रीम गतिविधियों, विशेष रूप से चीनी बांधों से संबंधित जोखिमों की निगरानी करना और उन्हें कम करना है। 
    • उदाहरण के लिए: सतलुज समझौता ज्ञापन, हालांकि नवीनीकरण के लिए लंबित है, परन्तु यह वर्ष 2005 के पारेचू झील के प्रस्फुटन के दौरान वास्तविक समय के डेटा साझा करने के लिए महत्त्वपूर्ण था, जिससे डाउनस्ट्रीम में बड़े नुकसान से बचा जा सका।
  • विशेषज्ञ स्तरीय तंत्र: वर्ष 2006 में स्थापित विशेषज्ञ स्तरीय तंत्र (ELM ) जल प्रबंधन पर चर्चा की सुविधा प्रदान करता है, तथा भारत और चीन के बीच तकनीकी और कूटनीतिक मुद्दों को सुलझाने में मदद करता है।
  • संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन रूपरेखा: भारत और चीन दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय जलमार्गों के गैर-नौवहन उपयोग पर वर्ष 1997 के संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के प्रमुख सिद्धांतों का पालन करते हैं, जिससे न्यायसंगत जल उपयोग और संघर्ष समाधान सुनिश्चित होता है।

इन चुनौतियों को कम करने के लिए विभिन्न प्लेटफार्मों के साथ रणनीतिक जुड़ाव

  • द्विपक्षीय वार्ता: भारत को बड़े पैमाने पर जल परियोजनाओं के बारे में चिंताओं को उठाने के लिए चीन के साथ अधिक सशक्त रूप से वार्ता करनी चाहिए, पारदर्शी डेटा साझाकरण और जोखिम आकलन की वकालत करनी चाहिए।
  • क्षेत्रीय मंचों के माध्यम से सहभागिता: भारत पड़ोसी देशों से सहयोग प्राप्त करने के लिए BIMSTEC या बंगाल की खाड़ी पहल जैसे क्षेत्रीय मंचों पर सीमा पार नदियों से संबंधित अधिक मजबूत संवाद के लिए दबाव डाल सकता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मंच और मानदंड: भारत संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों का उपयोग सीमा पार नदियों के न्यायसंगत उपयोग को बढ़ावा देने तथा जल-बंटवारे पर बाध्यकारी समझौतों की वकालत करने के लिए कर सकता है।
  • डेटा साझाकरण और निगरानी: भारत को चीन के साथ व्यापक डेटा-साझाकरण समझौतों पर जोर देना चाहिए, ताकि जल प्रवाह, तलछट के स्तर और जलाशय स्थिरता की रियलटाइम निगरानी सुनिश्चित हो सके।
  • वैज्ञानिक और पर्यावरण संगठनों के साथ सहयोग: भारत को त्सांगपो बांध के पारिस्थितिक प्रभाव का आकलन करने के लिए पर्यावरणीय NGO और वैज्ञानिक निकायों के साथ सहयोग करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि परियोजनाएं पर्यावरण की दृष्टि से संधारणीर्य हों। 
    • उदाहरण के लिए: इंटरनेशनल रिवर्स नेटवर्क जैसे संगठनों के साथ सहयोग करने से भारत को तिब्बत में पर्यावरण की दृष्टि से जिम्मेदार बांध निर्माण प्रथाओं के लिए पैरवी करने में मदद मिल सकती है।

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भारत-चीन जल सहयोग समझौते जैसे मौजूदा तंत्र एक आधार प्रदान करते हैं, लेकिन भारत को मेकांग-गंगा सहयोग और संयुक्त राष्ट्र जलमार्ग सम्मेलन जैसे मंचों से जुड़ना चाहिए। कूटनीतिक पहुँच को मजबूत करने और पारदर्शी सूचना-साझाकरण को बढ़ावा देने से पारिस्थितिक जोखिमों को कम करने और सीमा पार नदियों के स्थायी प्रबंधन को सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।

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