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Q. विधि के शासन की अवधारणा को परिभाषित कीजिये और भारत में आधुनिक युग में विधि के शासन को बनाए रखने में क्या संभावित जोखिम और चुनौतियाँ हैं। स्पष्ट कीजिये। (15 अंक, 250 शब्द)

उत्तर:

दृष्टिकोण:

  • प्रस्तावना: लोकतांत्रिक शासन में विधि के शासन की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए इसका संछिप्त विवरण दीजिए।
  • मुख्य विषयवस्तु:
    • विधि या कानून के शासन का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
    • विधि के शासन के बारे में ए वी डाइसी(A.V. Dicey) के तीन अर्थों की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए।
    • उल्लिखित सिद्धांतों को भारतीय संविधान के मुख्य प्रावधानों, विशेष रूप से न्यायिक समीक्षा, मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन और सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की भूमिका जैसे बिन्दुओं पर जोर दीजिए।
    • भारत में विधि के शासन की समसामयिक चुनौतियों पर चर्चा कीजिए।
    • इन चुनौतियों और विधि के शासन को बनाए रखने में न्यायपालिका की भूमिका बताते हुए एल चंद्र कुमार बनाम भारत संघ और डीसी वाधवा बनाम बिहार राज्य जैसे ऐतिहासिक मामलों का उपयोग कीजिए ।
  • निष्कर्ष: भारत में लोकतांत्रिक अखंडता बनाए रखने में कानून के शासन की महत्ता को दोहराते हुए निष्कर्ष निकालिए।

 

प्रस्तावना:

विधि के शासन की अवधारणा ब्रिटेन के संविधान का एक मूलभूत सिद्धांत है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सहित दुनिया भर की कानूनी प्रणालियों में गहराई से व्याप्त है। जेम्स प्रथम के शासनकाल के दौरान मुख्य न्यायाधीश सर एडवर्ड कोक ने कानून के शासन की अवधारणा का आविष्कार किया। इसे बाद में ए.वी. डाइसी द्वारा इसे विकसित किया गया था। जस्टिस एडवर्ड कोक के सिद्धांत को डाइसी ने अपने मौलिक कार्य “द लॉ एंड द कॉन्स्टिट्यूशन” में विकसित किया था जो वर्ष 1885 में प्रकाशित हुआ था।

मुख्य विषयवस्तु:

डाइसी का सिद्धांत विधि के शासन के तीन प्राथमिक अर्थों को स्पष्ट करता है:

  • कानून की सर्वोच्चता: यह मनमानी शक्ति पर कानून की पूर्ण सर्वोच्चता या प्रबलता का प्रतीक है। यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी व्यक्ति को कानून की उचित प्रक्रिया के अलावा और देश की सामान्य अदालतों के समक्ष सामान्य कानूनी तरीके से स्थापित कानून के उल्लंघन के लिए दंडित या पीड़ित नहीं किया जा सकता है।
  • कानून के समक्ष समानता: डाइसी के अनुसार कानून के शासन की अवधारणा को पूरा करने के लिए कानून के समक्ष समानता और सामान्य अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) में सभी लोगों की समान अधीनता आवश्यक है लोक सेवकों को सामान्य अदालतों के अधिकार क्षेत्र से छूट और विशेष न्यायाधिकरणों के उनके अधिकार को समानता के निषेध के रूप में देखा।
  • न्यायिक निर्णयों द्वारा निर्मित संविधान: इस संदर्भ में, डाइसी ने उन ठोस मामलों में न्यायिक निर्णयों की भूमिका पर जोर दिया जो वास्तव में किसी वाद में उत्पन्न हुए हैं, विशेष रूप से इंग्लैंड में, जहां कई अधिकार लिखित संविधान के बजाय न्यायालय के निर्णयों का परिणाम हैं।

कानून का शासन भारतीय संविधान के विभिन्न खंडों में सन्निहित है और इसे भाग III में स्थापित किया गया है। सरकार की सभी शाखाएँ – न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका – संविधान के अधीन हैं और उन्हें इसके प्रावधानों के अनुसार कार्य करना चाहिए। न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत, नागरिकों को मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय से संपर्क करने की अनुमति देता है, जो भारत में कानून के शासन का एक प्रमुख घटक है।

हालाँकि, आधुनिक भारत में कानून के शासन को बनाए रखना में महत्वपूर्ण चुनौतियां पेश आ रही हैं:

  • न्यायिक समीक्षा: एल चंद्र कुमार बनाम भारत संघ (1973) और डीसी वाधवा बनाम बिहार राज्य (1987) जैसे ऐतिहासिक मामलों में, उच्चतम न्यायालय ने कानून के शासन को बनाए रखने में न्यायिक समीक्षा की भूमिका को रेखांकित किया, साथ ही प्रशासनिक और विधायी कार्यों  में संवैधानिकता के परीक्षण पर जोर दिया ।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा: भारतीय संविधान, विशेष रूप से भाग 3 में, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है, जो कानून के शासन को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट के माध्यम से न्यायालय गिरफ्तारी का आदेश जारी करने वाले अधिकारी को आदेश देता है कि वह बंदी को न्यायाधीश के सामने उपस्थिति करे और उसके कैद करने की वजह बताए
  • कानून के शासन का संहिताकरण: भारत में कानून के शासन की आधुनिक व्याख्याओं को तीन वाक्यांशों में संक्षेपित किया जा सकता है: कानूनी सर्वोच्चता, कानूनी समानता और कानूनी निश्चितता। ये सिद्धांत इस बात पर जोर देते हैं कि समाज को मनमानी शक्ति के बजाय नियमों और विनियमों द्वारा शासित किया जाना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि कानून सभी पर समान रूप से लागू होते हैं और ये स्पष्ट, सुलभ और पूर्वानुमानित होते हैं।

निष्कर्ष:

कानून का शासन भारत के संवैधानिक लोकतंत्र की आधारशिला है, इसके प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए निरंतर सतर्कता और सुधार की आवश्यकता होती है। इसमें राज्य की शक्तियों और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखना, न्यायिक दक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करना और आधुनिक चुनौतियों के लिए कानूनी ढांचे को अपनाना शामिल है।

 

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