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Q. विशिष्ट उदाहरणों के साथ भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर एकात्मक भारत बनाम राष्ट्रीयताओं के संघ के निहितार्थ पर चर्चा कीजिए। (250 शब्द, 15 अंक)

उत्तर:

दृष्टिकोण:

  • भूमिका: एकात्मक और संघीय संरचनाओं का मिश्रण होने के कारण, भारत के शासन प्रणाली की  विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  • मुख्य भाग:
    • एकात्मक संरचना और राष्ट्रीयताओं के संघ के संदर्भ में लोकतांत्रिक भागीदारी की अवधारणा पर चर्चा कीजिए।
    • दोनों प्रणालियों के संबंध में विकेंद्रीकरण पर चर्चा कीजिए।
    • संघर्ष के समाधान पर चर्चा करते हुए यह यह समझाइए, कि दोनों प्रणालियाँ समाधान के  सन्दर्भ में कितना  मददगार है।
    • सामाजिक न्याय पर चर्चा कीजिए  और इस बात पर जोर दें कि दोनों प्रणालियों के तहत वंचित समुदायों की विशेष आवश्यकताओं को कैसे संबोधित किया जा सकता है।
    • राष्ट्रीय एकता पर चर्चा कीजिए एवं यह समझाइए कि दोनों प्रणालियाँ एकता और विविधता को कैसे संतुलित करती हैं।
    • उचित उदाहरणों सहित पुष्टि कीजिए।
  • निष्कर्ष: ‘विविधता में एकता’ के लोकाचार को बनाए रखने के लिए एकात्मक संरचना और राष्ट्रीयताओं के संघ के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता का सार प्रस्तुत कीजिए।

भूमिका:

भारत, जिसे अक्सर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है, ने अपनी स्वतंत्रता के बाद से एकात्मक और संघीय संरचनाओं का एक अनूठा मिश्रण प्रदर्शित किया है। शक्तियों के विभाजन और स्वतंत्र न्यायपालिका जैसे संघीय सिद्धांतों को स्थापित करते हुए, संविधान एक मजबूत केंद्र प्रदान करता है, जिससे भारत को एक अर्धसंघीय ढांचा प्राप्त होता है। हालाँकि, भारत की विविध जातीय, भाषाई और धार्मिक संरचना के कारण अधिक संघीय स्वायत्तता की लगातार माँग होती रही है।

मुख्य भाग: 

एकात्मक भारत और राष्ट्रीयताओं के संघ के बीच तनाव का इसकी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है:

  • लोकतांत्रिक भागीदारी:
    • एकात्मक संरचना एकरूपता और मानकीकरण को बढ़ावा देती है।
    • चुनाव संबंधी कानून, राजनीतिक दल की संरचनाएं और नागरिक अधिकार सभी राज्यों में एक समान हैं, जिसके कारण शासन करना सरल हो गया है।
    • उदाहरण के लिए, एक राष्ट्र, एक चुनावप्रस्ताव दक्षता के उद्देश्य से केंद्र और राज्य स्तर पर समकालिक चुनावों की वकालत करता है। हालाँकि, यह उन स्थानीय मुद्दों को कमजोर कर सकता है, जिन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है और जिससे लोकतांत्रिक भागीदारी कमजोर हो सकती है।
    • इसके विपरीत, राष्ट्रीयताओं का एक संघ विविध समूहों के बेहतर प्रतिनिधित्व की सुविधा भी प्रदान कर सकता है।
    • उदाहरण के लिए, 1950 के दशक में महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे भाषाई राज्यों के निर्माण ने स्थानीय पहचान को सशक्त बनाकर राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाया।
  • विकेन्द्रीकरण:
    • हालाँकि, एकात्मक प्रणाली तेजी से निर्णय लेने की सुविधा प्रदान करती है, जैसे कि जीएसटी का कार्यान्वयन, लेकिन यह क्षेत्रीय असमानताओं की भी उपेक्षा कर सकता है।
    • दूसरी ओर, राष्ट्रीयताओं का संघ विकेंद्रीकरण और स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देता है।
    • उदाहरण के लिए, 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों को सशक्त बनाते हैं, जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को सुचारू बनाते हैं।
  • संघर्ष का समाधान:
    • एकात्मक संरचना विविध दृष्टिकोणों को दबा सकती है, जिससे असंतोष और संघर्ष पैदा हो सकता है, जैसा कि गोरखालैंड या तेलंगाना के मामले में अलग राज्य की मांगों के सन्दर्भ में देखा गया है।
    • इसके विपरीत, विवाद सम्बन्धी समाधानों (जैसे अंतर-राज्य परिषद) के लिए संवैधानिक तंत्र प्रदान करके, राष्ट्रीयताओं का एक संघ सहकारी संघवाद को बढ़ावा देते हुए, विभिन्न क्षेत्रीय हितों को समायोजित कर सकता है।
  • सामाजिक न्याय:
    • एकात्मक भारत हाशिए पर रहने वाले समुदायों की विशिष्ट आवश्यकताओं की अनदेखी कर सकता है।
    • इसके विपरीत, राष्ट्रीयताओं का एक संघ ऐसी नीतियां बना सकता है जो सामाजिक-सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा करती हैं।
    • उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 15(4) के तहत संविधान राज्यों को सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय एकता:
    • हालाँकि, एकात्मक प्रणाली राष्ट्रीय एकता और अखंडता को रेखांकित करती है, लेकिन यह सांस्कृतिक एकरूपता की आशंकाओं को भी बढ़ावा दे सकती है।
    • इसके विपरीत, राष्ट्रीयताओं के एक संघ ने, राज्यों के भाषाई पुनर्गठन की तरह, राष्ट्रीय एकता से समझौता किए बिना विविधता को समायोजित किया है।

निष्कर्ष:

जबकि, एकात्मक संरचना सुसंगतता और दक्षता लाती है, लेकिन राष्ट्रीयताओं का संघ प्रतिनिधित्व, विकेंद्रीकरण, संघर्ष संबंधी समाधान और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है। भारत को किसी भी चरम सीमा की ओर जाने के बजाय, ‘अनेकता में एकता’ के लोकाचार को बरकरार रखते हुए, दोनों के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। इसलिए, एक ऐसी संरचना, जो क्षेत्रीय विविधता को प्रभावित किए बिना राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दे और स्थानीय विशेषताओं की अनदेखी किए बिना कुशल कानून सुनिश्चित करे, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को बनाए रखने और मजबूत करने के लिए आवश्यक है।

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