Q. पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6.2 दक्षिण-दक्षिण जलवायु सहयोग के लिए अवसर प्रदान करता है, फिर भी भारत के लिए अद्वितीय चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है। अपनी विकासात्मक आवश्यकताओं और तकनीकी बाधाओं को संतुलित करते हुए जलवायु कूटनीति में भारत की संभावित भूमिका का विश्लेषण कीजिए। साथ ही भारत की स्थिति को मजबूत करने के उपाय भी सुझाएँ। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6.2, साउथ-साउथ जलवायु सहयोग के लिए किस प्रकार अवसर प्रदान करता है, इसका परीक्षण कीजिए।
  • पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6.2 द्वारा भारत के लिए प्रस्तुत विशिष्ट चुनौतियों पर चर्चा कीजिए।
  • अपनी विकासात्मक आवश्यकताओं और तकनीकी बाधाओं को संतुलित करते हुए जलवायु कूटनीति में भारत की संभावित भूमिका का विश्लेषण कीजिए।
  • भारत की स्थिति मजबूत करने के उपाय सुझाएँ।

उत्तर

पेरिस समझौता का अनुच्छेद 6.2, राष्ट्रों को उनके राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) को पूरा करने में सहायता प्रदान  करता है, जिसमें अनुरूप समझौतों के लिए लचीलापन प्रदान किया जाता है। यह प्रौद्योगिकी विनिमय को भी बढ़ावा देता है, क्षमता निर्माण को बढ़ावा देता है, और भागीदार देश (विकसित देश) से वित्तीय संसाधनों की प्राप्ति की सुविधा प्रदान करता है, जिससे वैश्विक जलवायु कूटनीति में एक प्रमुख राष्ट्र के रूप में भारत की स्थिति मजबूत होती है।

पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6.2 और साउथ-साउथ जलवायु सहयोग

  • जलवायु वित्त के लिए ITMO लेनदेन: अनुच्छेद 6.2 विकासशील देशों को जलवायु वित्तपोषण के लिए अंतर्राष्ट्रीय रूप से हस्तांतरित शमन परिणाम (ITMOs) उत्पन्न करने में सक्षम बनाता है, जिससे ग्लोबल साउथ देशों की संधारणीय परियोजनाओं में मदद मिलती है। 
    • उदाहरण के लिए: भारत केन्या और इथियोपिया में सौर पार्क जैसी नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं को उन्नत करने के लिए अफ्रीकी देशों के साथ ITMO का व्यापार कर सकता है।
  • प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और क्षमता निर्माण: यह स्वच्छ ऊर्जा और संधारणीयता में विशेषज्ञता रखने वाले देशों को प्रौद्योगिकी-साझाकरण और कौशल विकास के माध्यम से दूसरों की सहायता करने की सुविधा प्रदान करता है। 
    • उदाहरण के लिए: ग्रीन हाइड्रोजन में भारत की प्रगति को दक्षिण एशिया में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में स्थानांतरित किया जा सकता है ताकि उनके ऊर्जा संक्रमण में तेजी आए।
  • जलवायु साझेदारी में विविधता लाना: अनुच्छेद 6.2 के तहत साउथ-साउथ सहयोग, विकासशील देशों के बीच जलवायु कार्रवाई साझेदारी को सक्षम बनाता है, जिससे विकसित देशों पर निर्भरता कम होती है। 
    • उदाहरण के लिए: भारत और ब्राजील जैव ईंधन प्रौद्योगिकी पर सहयोग कर सकते हैं, जिससे दोनों देशों में ऊर्जा सुरक्षा बढ़ेगी और उत्सर्जन कम होगा।
  • सतत विकास लक्ष्यों (SDG) को बढ़ाना: जलवायु सहयोग स्वच्छ ऊर्जा, संधारणीय कृषि और जलवायु प्रत्यास्थ परियोजनाओं में निवेश को सक्षम करके SDG उपलब्धि को बढ़ावा देता है। 
    • उदाहरण के लिए: अफ्रीका में भारत की सौर माइक्रोग्रिड परियोजनाएँ, स्थानीय रोजगार उत्पन्न करते हुए SDG 7 (सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा) प्राप्त करने में मदद करती हैं।
  • कार्बन फुटप्रिंट में कमी: ITMO परियोजनाएँ विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में निम्न कार्बन वृद्धि को बढ़ावा देते हुए रोजगार सृजन करती हैं। 
    • उदाहरण के लिए: भारत की पवन ऊर्जा विशेषज्ञता वियतनाम जैसे देशों को अपतटीय पवन फार्म विकसित करने में मदद कर सकती है, जिससे हजारों स्थानीय नौकरियाँ सृजित होंगी।

अनुच्छेद 6.2 के अंतर्गत भारत के लिए विशिष्ट चुनौतियाँ

  • विकसित देशों द्वारा अत्यधिक निर्भरता का जोखिम: धनी देश अपने घरेलू उत्सर्जन को कम करने के बजाय भारत से निम्न लागत वाले ITMO पर निर्भर हो सकते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: भारत से ITMO खरीदने वाला जापान अपने औद्योगिक डीकार्बोनाइजेशन में देरी कर सकता है जबकि भारत पर उत्सर्जन में कमी का बोझ बढ़ सकता है।
  • अवसर लागत: ITMO हस्तांतरण, भारत की घरेलू कार्बन कटौती क्षमता को सीमित कर सकता है जिससे उसके अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) पर असर पड़ सकता है। 
    • उदाहरण के लिए: यदि भारत सौर परियोजनाओं से बहुत अधिक क्रेडिट बेचता है, तो उसे वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय क्षमता के अपने लक्ष्य को पूरा करने में समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
  • शासन और पारदर्शिता के मुद्दे: कार्बन बाजारों में कमजोर विनियामक तंत्र, दोहरी गणना और ITMO हस्तांतरण में जवाबदेही की कमी का कारण बन सकते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: यदि ITMO को ठीक से ट्रैक नहीं किया जाता है, तो भारत और भागीदार देश दोनों, उत्सर्जन में समान कमी का दावा कर सकते हैं।
  • तकनीकी और वित्तीय बाधाएँ: कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण (CCUS) जैसी उन्नत शमन तकनीकों के लिए अत्यधिक निवेश की आवश्यकता होती है, जिसकी भारत में कमी हो सकती है। 
    • उदाहरण के लिए: भारत के ग्रीन हाइड्रोजन क्षेत्र को महत्वपूर्ण अनुसंधान और विकास निधि की आवश्यकता है, जो बड़े पैमाने की ITMO परियोजनाओं के लिए इसकी क्षमता को सीमित करता है।
  • जलवायु परिवर्तन के साथ आर्थिक विकास को संतुलित करना: भारत को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि उत्सर्जन में कमी औद्योगिक विस्तार और गरीबी उन्मूलन प्रयासों में बाधा न बने। 
    • उदाहरण के लिए: कठोर कार्बन मूल्य निर्धारण, MSMEs को प्रभावित कर सकता है, जिससे वे वैश्विक बाजारों में कम प्रतिस्पर्धी बन सकते हैं।

जलवायु कूटनीति में भारत की संभावित भूमिका

  • दक्षिण-दक्षिण सहयोग को बढ़ावा देना: भारत, समान बाजार आधारित तंत्र की वकालत करके सामूहिक जलवायु वार्ता में विकासशील देशों का नेतृत्व कर सकता है।
    •  उदाहरण के लिए: भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका (IBSA), COP शिखर सम्मेलन में निष्पक्ष कार्बन वित्त नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए जलवायु गठबंधन बना सकते हैं।
  • जलवायु समानता और न्यायोचित परिवर्तन को बढ़ावा देना: भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि जलवायु वित्त तंत्र विकासशील देशों को समान रूप से लाभान्वित करे और साथ ही सतत आर्थिक विकास को भी बढ़ावा दे। 
    • उदाहरण के लिए: भारत का अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) रवांडा जैसे देशों को अत्यधिक वित्तीय बोझ के बिना स्वच्छ ऊर्जा तक पहुँचने में मदद करता है।
  • विकसित देशों के साथ रणनीतिक जुड़ाव: द्विपक्षीय समझौते, भारत के घरेलू जलवायु लक्ष्यों की सुरक्षा करते हुए प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और निवेश को सुरक्षित कर सकते हैं।
    • उदाहरण के लिए: भारत-जापान संयुक्त ऋण तंत्र (JCM), प्रौद्योगिकी पहुँच और उत्सर्जन में कमी के लाभों को संतुलित करता है।
  • हरित प्रौद्योगिकी में क्षेत्रीय नेतृत्व:  सौर ऊर्जा, जैव ईंधन और कार्बन बाजारों में भारत की विशेषज्ञता, इसे दक्षिण एशियाई और अफ्रीकी देशों के लिए प्रौद्योगिकी प्रदाता के रूप में स्थापित करती है। 
    • उदाहरण के लिए: भारत की उज्ज्वला योजना स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन मॉडल को उप-सहारा अफ्रीका में दोहराया जा सकता है।
  • बहुपक्षीय जलवायु नेटवर्क का विस्तार: भारत सहकारी जलवायु कार्रवाई को आगे बढ़ाने के लिए G20, ब्रिक्स और आसियान जैसे मंचों का लाभ उठा सकता है। 
    • उदाहरण के लिए: G20 के माध्यम से, भारत ने ग्लोबल साउथ के लिए संधारणीय वित्त पर बल देते हुए हरित विकास संधि पर बल दिया है ।

भारत की स्थिति मजबूत करने के उपाय

  • घरेलू कार्बन बाजार को बढ़ावा देना: भारत की कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना (CCTS) को मजबूत करने से IMTO लेनदेन अधिक कुशल और पारदर्शी हो सकता है।
  • निष्पक्ष ITMO समझौतों पर वार्ता करना: भारत को अनुचित वित्तीय या तकनीकी निर्भरता से बचने के लिए सभी कार्बन ट्रेडिंग साझेदारियों में समान लाभ-साझाकरण सुनिश्चित करना चाहिए। 
    • उदाहरण के लिए: भारत अवमूल्यन को रोकने के लिए ITMO के लिए न्यूनतम मूल्य मानक निर्धारित कर सकता है।
  • जलवायु प्रौद्योगिकी अनुसंधान एवं विकास में निवेश: ग्रीन हाइड्रोजन, बैटरी स्टोरेज और CCUS के लिए सरकारी सहायता प्रदान करने से भारत की कार्बन बाजार प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ावा मिल सकता है। 
    • उदाहरण के लिए: स्वच्छ तकनीक स्टार्टअप के लिए PLI (प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव) योजनाओं का विस्तार करने से नवाचार को गति मिल सकती है।
  • साउथसाउथ जलवायु वित्त को मजबूत करना: एक समर्पित दक्षिण-दक्षिण जलवायु कोष बनाने से भारत को भागीदार देशों में परियोजनाओं को वित्तपोषित करने में मदद मिल सकती है, साथ ही उत्सर्जन में कमी के लाभ भी मिल सकते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड (B3W) पहल के जैसा एक कोष, अफ्रीका में हरित ऊर्जा परियोजनाओं का समर्थन कर सकता है।
  • संस्थागत ढाँचे को उन्नत करना: राष्ट्रीय कार्बन बाजार प्राधिकरण की स्थापना से पारदर्शी, जवाबदेह और कुशल ITMO लेनदेन की निगरानी की जा सकती है। 
    • उदाहरण के लिए: एक रियलटाइम ITMO ट्रैकिंग पोर्टल, विश्वसनीयता बढ़ा सकता है और कार्बन लीकेज को रोक सकता है

जलवायु कूटनीति में भारत की भूमिका को विकसित देशों से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, नवीकरणीय ऊर्जा निवेश को बढ़ाने और साउथसाउथ सहयोग को मजबूत करने के माध्यम से मजबूत किया जा सकता है। जलवायु वित्त में वृद्धि, हरित प्रौद्योगिकी नवाचार को बढ़ावा देना और सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने जैसे उपाय भारत के विकास लक्ष्यों को जलवायु कार्रवाई के साथ संरेखित कर सकते हैं, जिससे अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करते हुए एक संधारणीय भविष्य सुनिश्चित हो सकता है।

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