Q. भारत में सार्वजनिक नीति संस्थानों की संरचनात्मक और कार्यात्मक सीमाओं का विश्लेषण कीजिए। यह सीमाएँ शासन और राष्ट्र निर्माण को प्रभावित करने की उनकी क्षमता को कैसे प्रभावित करती हैं? (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • भारत में सार्वजनिक नीति संस्थाओं की संरचनात्मक कमियों का विश्लेषण कीजिए।
  • भारत में सार्वजनिक नीति संस्थाओं की कार्यात्मक कमियों का विश्लेषण कीजिए।
  • इस बात पर प्रकाश डालिये कि ये कमियाँ शासन को प्रभावित करने की उनकी क्षमता को किस प्रकार प्रभावित करती हैं।
  • इस बात पर प्रकाश डालिये कि ये कमियाँ राष्ट्र-निर्माण को प्रभावित करने की उनकी क्षमता को किस प्रकार प्रभावित करती हैं।
  • आगे की राह लिखिये।

उत्तर

भारत की सार्वजनिक नीति संस्थाएँ, सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सरकारी नीतियों को डिजाइन करने, लागू करने और उनका मूल्यांकन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। भारत की वैश्विक लोकतांत्रिक प्रकृति के बावजूद, यहां हार्वर्ड केनेडी स्कूल या लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसे मान्यता प्राप्त संस्थानों का अभाव है जो नीतिगत चर्चा में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

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भारत में सार्वजनिक नीति संस्थाओं की संरचनात्मक कमियाँ

  • सत्ता का केंद्रीकरण: भारत में निर्णय लेने का अधिकार, कार्यकारी शाखा में अत्यधिक केंद्रीकृत है, जिससे इसमें नीति विशेषज्ञों और नागरिक समाज की भूमिका सीमित हो जाती है। 
    • उदाहरण के लिए: अमेरिका जैसे देशों में नीति निर्माण के स्तर पर विकेंद्रीकरण के कारण थिंक टैंक्स मौजूद होते हैं।
  • सीमित विधायी निगरानी: भारतीय विधायिका, कार्यपालिका पर सीमित निगरानी रखती है, जिससे व्यापक नीति मूल्यांकन और फीडबैक के अवसर कम हो जाते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: U.K. में, संसद नियमित रूप से नीतियों की समीक्षा करती है, जबकि भारत में, विधायिका द्वारा बहुत कम नीति विश्लेषण होता है।
  • राजनीतिक नियंत्रण और सत्ता की  अस्थिरता: सार्वजनिक नीति संस्थाओं को अक्सर राजनीतिक परिवर्तनों के कारण व्यवधानों का सामना करना पड़ता है, जिससे स्थिरता और निरंतरता प्रभावित होती है। 
    • उदाहरण के लिए: नीति आयोग के गठन के साथ योजना आयोग को भंग कर दिया गया, जो नीति निकायों पर राजनीतिक परिवर्तनों के प्रभावों को दर्शाता है।
  • संस्थागत स्वायत्तता का अभाव: कई सार्वजनिक नीति संस्थाएँ सरकारी निगरानी में कार्य  करती हैं, जिससे स्वतंत्र, निष्पक्ष सिफारिशें देने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है। 
    • उदाहरण के लिए: पश्चिमी लोकतंत्रों में स्वायत्त संस्थाओं के विपरीत, सरकारी वित्तपोषित निकायों को निगरानी और प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है जो महत्त्वपूर्ण विश्लेषण में बाधा डालते हैं।
  • संसाधन की कमी: अपर्याप्त निधि और संसाधन अनुसंधान क्षमताओं को सीमित करते हैं , जिससे मजबूत नीति ढाँचे के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। 
    • उदाहरण के लिए: ब्रूकिंग्स इंडिया की एक रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया  कि कई थिंक टैंकों के पास उन्नत अनुसंधान के लिए धन की कमी है, जिससे नीति की गुणवत्ता प्रभावित होती है।

भारत में सार्वजनिक नीति संस्थाओं की कार्यात्मक कमियाँ

  • अपर्याप्त डेटा उपलब्धता: रियल टाइम, सटीक डेटा का अभाव, नीति निर्माण को प्रभावित करता है और सार्वजनिक नीति संस्थानों की जवाबदेही को कम करता है। 
    • उदाहरण के लिए: जनगणना 2021 के डेटा जारी होने में विलम्ब से सही समय पर जनसांख्यिकी-आधारित नीतिगत निर्णय लेने में बाधा आती है।
  • सीमित कौशल विकास: नीति पेशेवरों के प्रशिक्षण में अक्सर भारत की विविध सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं पर ध्यान केंद्रित नहीं किया जाता है , जिससे व्यावहारिक कार्यान्वयन कौशल कमजोर हो जाता है। 
    • उदाहरण के लिए: कई सार्वजनिक नीति कार्यक्रम सैद्धांतिक होते हैं, जिनमें क्षेत्र के अनुभव की कमी होती है, जो कार्यक्रम की दक्षता को प्रभावित करता है।
  • प्रशासनिक विलंब: लालफीताशाही, अक्सर नीति कार्यान्वयन को धीमा कर देती है, जिससे नीति लक्ष्यों को समय रहते प्राप्त करने में समस्यायें आती हैं। 
    • उदाहरण के लिए: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) जैसी नीतियों को प्रशासनिक मुद्दों के कारण फंड वितरण में देरी का सामना करना पड़ता है।
  • गैर-पक्षपातपूर्णता का अभाव: नीति संस्थाओं के भीतर राजनीतिक संबद्धता के परिणामस्वरूप सिफारिशों की विश्वसनीयता और उनकी तटस्थता पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • अपर्याप्त सार्वजनिक सहभागिता: भारत में नीति संस्थाओं में अक्सर सार्थक सार्वजनिक सहभागिता हेतु तंत्र की कमी होती है, जिससे सामाजिक आवश्यकताओं के लिए उनकी प्रासंगिकता कम हो जाती है। 
    • उदाहरण के लिए: पश्चिमी लोकतंत्रों में नीति निर्माण में सार्वजनिक परामर्श को शामिल किया जाता है, जबकि भारत में भागीदारी को ‌शामिल  करते हुए नीति-निर्माण प्रक्रिया के बहुत कम उदाहरण देखने को मिलते हैं।

इन कमियों का प्रभाव

शासन स्तर पर

  • कमजोर नीति कार्यान्वयन: केंद्रीकृत संरचनाएं कार्यान्वयन में लचीलेपन को सीमित करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप नीति परिणाम अप्रभावी हो जाते हैं
  • प्रतिबंधित नीतिगत नवाचार: सीमित स्वायत्तता, नवाचार में बाधा उत्पन्न करती है, जिससे सामाजिक आवश्यकताओं के प्रति उनकी प्रतिक्रियात्मकता प्रभावित होती है। 
    • उदाहरण के लिए: नीति अनुसंधान में प्रतिबंधित नवाचार के कारण शहरी वायु प्रदूषण के प्रति भारत की प्रतिक्रिया में देरी होती है।
  • जवाबदेही में कमी: प्रशासनिक  देरी और सीमित विधायी निगरानी, नीति क्रियान्वयन में
    जवाबदेही को कम करती है। 

    • उदाहरण के लिए: मनरेगा से संबंधित हस्तांतरण में देरी, आंशिक रूप से पॉलिसी फीडबैक तंत्र की कमी के कारण होती है।
  • सार्वजनिक विश्वास में कमी: राजनीतिकरण वाली नीति संस्थाएँ जनता के विश्वास को कम करती हैं , जिससे शासन में नागरिक भागीदारी प्रभावित होती है। 
    • उदाहरण के लिए: कथित राजनीतिक प्रभाव (MoHFW) के कारण COVID-19 महामारी के दौरान सरकारी सलाह के प्रति जनता का संदेह बढ़ गया ।
  • विकास परिणामों में बाधा: संसाधन और वित्त पोषण की कमी दीर्घकालिक योजना बनाने में बाधा डालती है, जिससे सतत विकास पहल प्रभावित होती है।

राष्ट्र निर्माण के स्तर पर

  • सामाजिक सामंजस्य में बाधा: सीमित सार्वजनिक सहभागिता, नीतियों को विविध सामाजिक हितों को प्रतिबिंबित करने से रोकती है , जिससे सामाजिक एकीकरण कम हो जाता है। 
    • उदाहरण के लिए: नीति-निर्माण में जनजातीय प्रतिनिधित्व की कमी एकल राष्ट्र-निर्माण में बाधा उत्पन्न करती है।
  • विलंबित आर्थिक विकास: नीति संस्थाओं में प्रशासनिक अक्षमता आर्थिक सुधारों को धीमा कर देती है , जिससे विकास बाधित होता है। 
    • उदाहरण के लिए: अपर्याप्त अंतर-संस्थागत समन्वय के कारण GST सुधारों में देरी हुई।
  • सांस्कृतिक एकीकरण में कमी: नीति निर्माण में क्षेत्रीय विविधता पर सीमित ध्यान देने से समावेशी विकास के राष्ट्र निर्माण लक्ष्य को नुकसान पहुंचता है। 
    • उदाहरण के लिए: भाषा नीति में स्थानीय इनपुट की कमी के कारण असंतोष उत्पन्न होता है, विशेषकर पूर्वोत्तर भारत में।
  • सीमित वैश्विक प्रभाव: वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी संस्थानों के बिना, अंतर्राष्ट्रीय नीति संवादों में भारत की भूमिका सीमित रह जाती है। 
    • उदाहरण के लिए: विश्व-प्रसिद्ध संस्थानों वाले देशों के विपरीत, भारत का वैश्विक थिंक टैंक नेटवर्क में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।

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आगे की राह 

  • निर्णयन प्रक्रिया का विकेंद्रीकरण: नीति कार्यान्वयन में स्थानीय निकायों की भूमिका को बढ़ावा देना चाहिए जिससे उनकी प्रत्यास्थता और प्रभावशीलता को बढ़ावा मिले। 
    • उदाहरण के लिए: PMAY-G जैसी योजनाओं में पंचायतों को सशक्त बनाने से स्थानीय रूप से प्रासंगिक समाधान मिल सकते हैं।
  • विधायी निगरानी को मजबूत करना: विधायिका द्वारा की जाने वाली बेहतर निगरानी, नीति क्रियान्वयन में बेहतर जवाबदेही सुनिश्चित कर सकती है। 
    • उदाहरण के लिए: सार्वजनिक नीति संस्थानों पर एक समर्पित संसदीय समिति की स्थापना से निगरानी में सुधार हो सकता है।
  • गैर-पक्षपातपूर्ण वातावरण को बढ़ावा देना: राजनीतिक प्रभाव को कम करने और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए नीति संस्थानों में स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करना चाहिए । 
    • उदाहरण के लिए: अधिक संस्थागत लोकतंत्रों में, थिंक टैंक, मीडिया और नागरिक समाज समूह इस बात की चिंता किए बिना सापेक्ष प्रभाव बनाए रख सकते हैं कि सत्ता में कौन है। यह नीति पारिस्थितिकी तंत्र को स्थिर करने में मदद करता है।
  • मानव संसाधन की क्षमता निर्माण: भारतीय संस्थानों को छात्रों को अनौपचारिक नेटवर्क, क्षेत्रीय शक्ति संरचनाओं और सामाजिक गतिशीलता के जटिल जाल से निपटना सिखाना चाहिए।
    • उदाहरण के लिए: पाठ्यक्रम को पारंपरिक नीति शिक्षा से आगे बढ़कर इस बात पर आधारित होना चाहिए कि रिश्तों, जातिगत गतिशीलता, क्षेत्रीय अभिजात वर्ग और जमीनी स्तर के आंदोलनों के माध्यम से सत्ता कैसे संचालित होती है।
  • सार्वजनिक सहभागिता को बढ़ाना: विविध सामाजिक इनपुट को शामिल करने के लिए
    सहभागी नीति-निर्माण को अपनाना चाहिए, जो वास्तविक सार्वजनिक आवश्यकताओं को दर्शाता हो। 

    • उदाहरण के लिए: अमेरिका में होने वाले नियमित सार्वजनिक परामर्शों से मिलते-जुलते परामर्श कार्यक्रम, नीतियों को नागरिक अपेक्षाओं के साथ संरेखित करने में मदद कर सकते हैं।
  • वित्त पोषण और संसाधन को बढ़ाना: वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी संस्थानों के निर्माण हेतु
    अनुसंधान और विकास के लिए निधि आवंटन को बढ़ाना चाहिए।

    • उदाहरण के लिए: नीति आयोग को अधिक धनराशि आवंटित करने से डेटा-समर्थित नीति नियोजन को सशक्त किया जा सकता है।

भारत में सार्वजनिक नीति संस्थाएँ ,देश के शासन और राष्ट्र निर्माण लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अभिन्न अंग हैं। हालाँकि, इन संस्थाओं के प्रभावी ढंग से कार्य करने के लिए संरचनात्मक और कार्यात्मक कमियों को दूर  करना आवश्यक है। विकेंद्रीकृत निर्णय लेने , गैर-पक्षपाती शोध और बढ़ी हुई सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ावा देकर, भारत सतत विकास को आगे बढ़ाने और वैश्विक प्रभाव को बढ़ाने में सक्षम प्रत्यास्थ संस्थानों का निर्माण कर सकता है।

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