उत्तर:
दृष्टिकोण:
- भूमिका: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361 का परिचय दीजिए तथा राज्यपालों और राष्ट्रपति को उन्मुक्ति प्रदान करने के इसके उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
- मुख्य भाग:
- प्रतिरक्षा प्रदान करने के कारणों पर चर्चा कीजिये, जैसे कि गलत मुकदमों से सुरक्षा तथा पद की गरिमा और अधिकार को बनाए रखना।
- इस प्रतिरक्षा का दुरुपयोग किस प्रकार किया जा सकता है, इसकी जांच करें, जिसमें कदाचार को छुपाना, न्याय में देरी करना आदि शामिल है।
- प्रतिरक्षा और जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए उपाय सुझायें जैसे स्पष्ट दिशा-निर्देश, स्वतंत्र निरीक्षण तंत्र आदि स्थापित करना।
- निष्कर्ष: संवैधानिक प्रमुखों की सुरक्षा के लिए अनुच्छेद 361 की आवश्यकता का सारांश दीजिए तथा दुरुपयोग को रोकने और जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपायों के कार्यान्वयन के महत्व पर बल दीजिए।
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भूमिका:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 361 राष्ट्रपति और राज्यपालों को उनके कार्यकाल के दौरान अदालती कार्यवाही से छूट प्रदान करता है। यह प्रावधान विवादास्पद रहा है, खासकर उन मामलों में जिनमें कदाचार या सत्ता के दुरुपयोग के आरोप शामिल हैं। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल पर राजभवन के एक कर्मचारी द्वारा छेड़छाड़ के आरोप लगे, जिससे ऐसी छूट के दुरुपयोग के बारे में सवाल उठे।
मुख्य भाग:
अनुच्छेद 361 के तहत प्रतिरक्षा के पीछे तर्क:
- गलत मुकदमेबाजी से संरक्षण:
- इसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्रपति और राज्यपालों को ऐसे गलत मुकदमों से बचाना है जो उनके आधिकारिक कर्तव्यों को प्रभावी ढंग से निभाने की क्षमता में बाधा डाल सकते हैं।
- यह प्रतिरक्षा सुनिश्चित करती है कि संवैधानिक प्रमुख अपने दायित्वों का निर्वहन करते समय कानूनी लड़ाई में उलझे न रहें ।
- गरिमा और अधिकार बनाए रखना:
- प्रतिरक्षा से कार्यालय की गरिमा और प्राधिकार सुरक्षित रहता है, तथा राज्यपालों को अपने आधिकारिक कार्यों के व्यक्तिगत कानूनी परिणामों के भय के बिना कार्य करने की अनुमति मिलती है।
- संवैधानिक भूमिका के सम्मान और प्रभावशीलता को बनाए रखने के लिए यह महत्वपूर्ण है ।
दुरुपयोग की संभावना:
- कदाचार से बचाव:
- गंभीर कदाचार के मामलों में राज्यपालों को जवाबदेही से बचाने के लिए इस प्रतिरक्षा का दुरुपयोग किया जा सकता है ।
- उदाहरण के लिए: पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के खिलाफ आरोप और अन्य राज्यपालों से जुड़े पिछले विवाद इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कानूनी जांच से बचने के लिए किस प्रकार छूट का दुरुपयोग किया जा सकता है।
- न्याय में देरी:
- उन्मुक्ति के कारण न्याय में काफी देरी हो सकती है, क्योंकि कानूनी कार्यवाही केवल राज्यपाल का कार्यकाल समाप्त होने के बाद ही शुरू हो सकती है।
- यह देरी साक्ष्य जुटाने में बाधा उत्पन्न कर सकती है और मुकदमे की निष्पक्षता को प्रभावित कर सकती है ।
- तत्काल जवाबदेही का अभाव:
- यह प्रावधान तत्काल जवाबदेही में अंतर पैदा करता है, जिससे पद पर बैठे लोगों में दंड से मुक्ति की भावना पैदा हो सकती है।
- वास्तविक समय में जवाबदेही की कमी सत्ता के दुरुपयोग और अनैतिक व्यवहार को बढ़ावा दे सकती है ।
गरिमा से समझौता किए बिना जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपाय:
- स्पष्ट दिशानिर्देश और दायरा:
- प्रतिरक्षा के अंतर्गत आने वाली गतिविधियों के दायरे को रेखांकित करते हुए स्पष्ट दिशानिर्देश स्थापित करें।
- आधिकारिक कृत्यों और व्यक्तिगत कदाचार के बीच अंतर करने में मदद मिलेगी , तथा यह सुनिश्चित होगा कि प्रतिरक्षा का उपयोग अनैतिक व्यवहार के लिए ढाल के रूप में न किया जाए।
- स्वतंत्र निरीक्षण तंत्र:
- राज्यपालों के विरुद्ध आरोपों की जांच के लिए स्वतंत्र निरीक्षण निकाय बनाएं ।
- कार्यालय की गरिमा बनाए रखते हुए निष्पक्ष जांच करने तथा कार्रवाई की सिफारिश करने का अधिकार होना चाहिए ।
- कार्यकाल-पश्चात जवाबदेही:
- राज्यपालों का कार्यकाल समाप्त होने के बाद उन्हें जवाबदेह ठहराने के लिए मजबूत तंत्र सुनिश्चित करना।
- इसमें उन्मुक्ति अवधि समाप्त होने के बाद कानूनी कार्यवाही में तेजी लाना शामिल है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि न्याय में न तो देरी हो और न ही न्याय से इनकार किया जाए।
- संसदीय निगरानी को मजबूत किया गया:
- राज्यपालों के आचरण पर संसदीय निगरानी को मजबूत बनाना।
- इससे सत्ता के संभावित दुरुपयोग पर अंकुश लग सकता है तथा अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित हो सकती है।
निष्कर्ष:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 361 राष्ट्रपति और राज्यपालों को कानूनी उत्पीड़न के बिना अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए संरक्षण प्रदान करता है । दुरुपयोग को रोकने के लिए, राज्यपाल के कार्यालय की गरिमा को बनाए रखते हुए जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपाय आवश्यक हैं । स्पष्ट दिशा-निर्देश, स्वतंत्र निरीक्षण तंत्र और पद-पश्चात जवाबदेही प्रतिरक्षा और जवाबदेही को संतुलित कर सकती है। यह दृष्टिकोण नागरिकों के अधिकारों और हितों की रक्षा करते हुए संवैधानिक कार्यालयों की अखंडता को बनाए रखता है ।
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