उत्तर:
दृष्टिकोण:
- परिचय: भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में महिलाओं के ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर होने को संबोधित करते हुए संदर्भ निर्धारित कीजिए।
- मुख्य भाग:
- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से लेकर संवैधानिक संशोधन तक, राजनीति में स्थान बनाने के लिए महिलाओं के ऊपर ऐतिहासिक दबाव का परिचय दीजिए।
- दोहरे प्रभाव पर चर्चा कीजिए: जमीनी स्तर की राजनीति में सकारात्मक बदलाव बनाम निरंतर पितृसत्तात्मक प्रभुत्व।
- पड़ोसी देशों के साथ तुलना करके महिलाओं के प्रतिनिधित्व के व्यापक परिदृश्य की जांच कीजिए।
- राजनीति में महिलाओं को पितृसत्तात्मक मानदंडों में निहित विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें रूढ़िवादिता, सुरक्षा मुद्दे और ऊर्ध्वगामी गतिशीलता का सीमित दायरा शामिल है।
- राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं को वास्तव में सशक्त बनाने के लिए आरक्षण से परे उपायों को संबोधित कीजिए।
- निष्कर्ष: आरक्षण के महत्व को दोहराते हुए, लेकिन भारतीय राजनीतिक प्रक्रिया में पितृसत्तात्मक चरित्र को वास्तव में चुनौती देने और सोच को बदलने के लिए व्यापक सुधारों और सामाजिक परिवर्तनों की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए निष्कर्ष निकालें।
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परिचय:
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था व्यापक रूप से पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित है, जिसने ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को मुख्यधारा की राजनीतिक भागीदारी से हाशिए पर ही रखा है। जबकि स्थानीय स्व-शासन संस्थानों में महिलाओं के लिए आरक्षण उनकी राजनीतिक भागीदारी में परिवर्तन लाने के इरादे से स्थापित किया गया था, लेकिन गहरी जड़ें जमा चुके पितृसत्तात्मक मानदंडों को खत्म करने पर इसका प्रभाव सीमित रहा है।
मुख्य भाग:
महिला आरक्षण का ऐतिहासिक अवलोकन:
- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, सरोजिनी नायडू जैसे नेताओं ने महिलाओं के सशक्तिकरण पर जोर दिया था।
- 73वें और 74वें संविधान संशोधन, जिसमें पंचायती राज संस्थानों और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण अनिवार्य था, महिलाओं के लिए राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में ऐतिहासिक कदम थे।
स्थानीय शासन पर आरक्षण का प्रभाव:
- सकारात्मक प्रगति: आरक्षण की शुरूआत के बाद से, जमीनी स्तर की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। स्थानीय प्रशासन, विशेष रूप से केरल और बिहार जैसे राज्यों में, महिलाओं को नीति निर्माण में सक्रिय रूप से शामिल होते देखा गया है।
- पितृसत्तात्मक विरोध: संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद, जमीनी हकीकत अकसर परिवार के पुरुष सदस्यों को निर्वाचित महिला प्रतिनिधि की ओर से अधिकार का प्रयोग करते हुए प्रदर्शित करती है, इस घटना को आम बोलचाल की भाषा में “प्रधान पति” (मुखिया का पति) कहा जाता है।
व्यापक राजनीतिक परिदृश्य:
- संसद में महिला प्रतिनिधित्व के मामले में भारत अपने कुछ पड़ोसियों, जैसे नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश से पीछे है।
- वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2022 महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण में भारत की चुनौतियों को भी रेखांकित करती है।
पितृसत्तात्मक परिदृश्य से उत्पन्न चुनौतियाँ:
- शीर्ष की ओर सीमित गतिशीलता: चूंकि स्थानीय निकायों में आरक्षण ने महिलाओं को राजनीति में प्रवेश प्रदान किया है, किन्तु स्थानीय से राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में उनके लिए प्रवेश करना कठिन रहता है।
- रूढ़िवादिता और पूर्वाग्रह: महिला राजनेताओं की क्षमताओं को अकसर संदेह की दृष्टि से देखा जाता है, जो पितृसत्तात्मक विचारों से प्रबल होता है जिससे राजनीतिक भूमिकाओं में उनकी प्रभावशीलता पर सवाल उठाते हैं।
- सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: लिंग आधारित हिंसा और उत्पीड़न कई महिला नेताओं को राजनीति में प्रवेश करने या उसमें बने रहने से रोकती है।
- समरूपता धारणा: आलोचकों का तर्क है कि महिलाएं एक समरूप समूह नहीं हैं, जिसका अर्थ है कि आरक्षण एक समान हित की पूर्ति नहीं कर सकता है। हालाँकि, यह परिप्रेक्ष्य अकसर शासन में विविध महिलाओं की आवाज़ों को बढ़ावा देने के व्यापक लक्ष्य की अनदेखी करता है।
व्यापक रणनीतियों की आवश्यकता:
- केवल आरक्षण से परे, महिलाओं के लिए एक समान राजनीतिक मंच सुनिश्चित करने के लिए जागरूकता अभियान, लिंग आधारित हिंसा को संबोधित करना और चुनाव सुधार जैसे समग्र उपायों की आवश्यकता है।
निष्कर्ष:
हालांकि स्थानीय स्वशासन में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण महिला नेतृत्व को बढ़ावा देने की दिशा में एक सराहनीय कदम है, लेकिन यह भारतीय राजनीतिक प्रक्रिया में गहराई से अंतर्निहित पितृसत्तात्मक चरित्र को खत्म करने के लिए एक चांदी की गोली(किसी कठिन समस्या का त्वरित समाधान) नहीं है। राजनीति में सच्ची लैंगिक समानता हासिल करने के लिए बहुआयामी सुधारों, सामाजिक मानसिकता में बदलाव और सभी राजनीतिक क्षेत्रों में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए लगातार प्रयासों की आवश्यकता होगी।
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