प्रश्न को कैसे हल करें:
- प्रस्तावना: पितृसत्ता की व्यापक प्रकृति को उजागर करने वाली विविध संस्कृतियों और परंपराओं से प्रभावित समाज में भारतीय न्यायपालिका की भूमिका को स्वीकार करते हुए संदर्भ लिखिये।
- मुख्य विषयवस्तु:
- भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्ता पर चर्चा कीजिये, जो कानूनी और विधिक कार्यों को प्रभावित कर रही है।
- न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व और उसके निहितार्थों पर वर्तमान आँकड़े प्रस्तुत कीजिये।
- न्यायिक निर्णयों में लैंगिक पूर्वाग्रह प्रदर्शित करने वाले विशिष्ट मामलों का उल्लेख कीजिये।
- लैंगिक पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए न्यायपालिका द्वारा हालिया पहलों का विवरण दीजिये, जैसे लैंगिक रूढ़िवादिता से निपटने पर विवरण पुस्तिका ।
- लैंगिक समानता को बढ़ावा देने वाले हाल के ऐतिहासिक निर्णयों पर प्रकाश डालिये।
- निष्कर्ष: पितृसत्तात्मक मानदंडों द्वारा उत्पन्न चुनौतियों को स्वीकार करते हुए और उसके साथ लैंगिक समानता की दिशा में न्यायपालिका द्वारा उठाए गए सकारात्मक कदमों को भी स्वीकार करते हुए निष्कर्ष लिखें।
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प्रस्तावना:
न्याय और समानता की मशाल के रूप में प्रतिष्ठित भारतीय न्यायपालिका, विविध संस्कृतियों और परंपराओं से लबालब देश भारत के व्यापक सामाजिक संदर्भ में काम करती है। इन सांस्कृतिक आधारों में व्यापक तत्वों में से एक पितृसत्तात्मक है, एक सामाजिक व्यवस्था जहां पुरुष प्रमुख वर्चस्वशाली होते हैं और राजनीतिक नेतृत्व, नैतिक अधिकार, सामाजिक विशेषाधिकार और संपत्ति के नियंत्रण की भूमिकाओं में प्रमुख होते हैं ।
मुख्य विषय-वस्तु:
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ:
- भारतीय समाज में पितृसत्ता की जड़ें बहुत गहरी हैं, जो विधि व्यवस्था सहित जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती हैं।
- ऐतिहासिक रूप से, कानूनी और विधिक कार्य में पुरुष प्रभुत्वशाली है, जो विरासत, विवाह और परिवार से संबंधित कानूनों से स्पष्ट होता है।
न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व :
- 2023 तक, भारत में 33 सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों में से केवल तीन महिलाएँ हैं।
- शीर्ष स्तर पर यह कम प्रतिनिधित्व उच्च न्यायालयों में प्रतिबिंबित होता है, जहां 782 न्यायाधीशों में से केवल 107 महिलाएं हैं, जो लगभग 13% है ।
- महिला प्रतिनिधित्व में ऐसी असमानता संभावित रूप से लिंग-संबंधी मुद्दों पर न्यायपालिका के दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकती है।
निर्णयों में लैंगिक पूर्वाग्रह:
- नारी विरोधी भाषा का प्रयोग करने और पितृसत्तात्मक रूप से प्रभावित फैसले देने के लिए भारतीय अदालतों की आलोचना की गई है।
- ऐसा ही एक उदाहरण 2017 में महमूद फारूकी मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला है, जहां अदालत ने विवादास्पद रूप से ‘थोड़ी बहुत असहमति‘ (Feeble No) की व्याख्या सहमति के रूप में की ।
- यह मामला इस बात पर प्रकाश डालता है कि पितृसत्तात्मक मानसिकता न्यायिक तर्क-वितर्क में कैसे व्याप्त हो सकती है।
न्यायिक सुधार और संवेदनशीलता:
- हाल ही में, इन मुद्दों के समाधान के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं।
- मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक रूढ़िवादिता का मुकाबला करने पर एक पुस्तिका जारी की, जिसका उद्देश्य न्यायाधीशों को अपने फैसलों में महिलाओं के बारे में गलत भाषा और प्रतिगामी विचारों से बचने में मार्गदर्शन करना है ।
प्रगतिशील निर्णय:
- इन चुनौतियों के बावजूद, न्यायपालिका ने लैंगिक समानता में उल्लेखनीय प्रगति की है।
- हाल के फैसलों में कर्नाटक के हिजाब प्रतिबंध पर खंडित फैसला शामिल है, जो लिंग, धार्मिक अधिकार और शिक्षा के जटिल अंतर्संबंध को दर्शाता है और 2022 का एक ऐतिहासिक निर्णय है जिसमें पुष्टि की गई है कि अविवाहित महिलाओं को भी विवाहित महिलाओं के समान गर्भपात का अधिकार है, जिससे वैवाहिक स्थिति की परवाह किए बिना प्रजनन स्वायत्तता के अधिकार को बरकरार रखा जा सके।
निष्कर्ष:
भारतीय न्यायपालिका हालांकि अभी भी पितृसत्तात्मक मानदंडों से प्रभावित है, परन्तु लैंगिक पूर्वाग्रह से निपटने के लिए आत्म-निरीक्षण और सुधारों में सक्रिय रूप से लगी हुई है। न्यायपालिका में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व और कुछ निर्णयों में पितृसत्तात्मक भाव लैंगिक समानता के साथ जारी संघर्ष को दर्शाते हैं। हालाँकि, हालिया न्यायिक पहल और प्रगतिशील निर्णय अधिक लिंग-संवेदनशील कानूनी प्रणाली की ओर सकारात्मक बदलाव का संकेत देते हैं। गहराई तक व्याप्त पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों को खत्म करने की दिशा में यात्रा चुनौतीपूर्ण है लेकिन न्याय प्रशासन में वास्तव में लैंगिक समानता हासिल करने के लिए यह आवश्यक है।
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