Q. 102वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2018 के माध्यम से राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) को एक संवैधानिक निकाय में बदलने से भारत में पिछड़ी जातियों के सामने आने वाली चुनौतियों और मुद्दों का किस हद तक समाधान हुआ है? (10 अंक, 150 शब्द)

उत्तर:

प्रश्न का समाधान कैसे करें

  • भूमिका
    • एनसीबीसी के संवैधानिकीकरण के बारे में संक्षेप में लिखें
  • मुख्य भाग
    • एनसीबीसी के संवैधानिकीकरण से इसकी प्रभावशीलता किस प्रकार मजबूत हुई, बताइए?
    • एनसीबीसी की प्रभावशीलता में बाधा डालने वाली चुनौतियों और सीमाओं का उल्लेख करें
    • इस संबंध में आगे के उपयुक्त मार्ग का उल्लेख करें।
  • निष्कर्ष
    • इस संबंध में उचित निष्कर्ष दीजिए

 

भूमिका    

102वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2018 के माध्यम से अनुच्छेद 338B को शामिल करते हुए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) को संवैधानिक दर्जा प्रदान करना  , पिछड़े वर्गों  के उत्थान के लिए देश के प्रयासों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। यह एनसीबीसी को सशक्त बनाता है,एवं   पिछड़े वर्गों के समक्ष  आने वाली बहुआयामी चुनौतियों का समाधान करने में इसकी भूमिका को मजबूत करता है।

मुख्य भाग

जिन तरीकों से एनसीबीसी को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने से इसकी प्रभावशीलता मजबूत हुई

  • संवैधानिक समर्थन: इसने NCBC को अधिक वैधता प्रदान की। उदाहरण के लिए: राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) की तरह, NCBC को अब अपने विचार-विमर्श एवं  निर्णयों में अधिक अधिकार प्राप्त हैं।
  • भूमिका में वृद्धि : संवैधानिक दर्जा प्राप्त करने से पहले अपने दायरे में सीमित एनसीबीसी अब पिछड़े वर्गों के लिए सुरक्षा उपायों से संबंधित मामलों की सक्रिय रूप से जांच एवं निगरानी कर सकता है। हाल ही में शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण में विसंगतियों के संबंध  में शिकायतों की जांच की गई है जो इसकी सशक्त भूमिका पर प्रकाश डालता है।
  • बाध्यकारी सिफारिशें: संशोधन के बाद, पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल करने या बाहर करने जैसे मामलों पर एनसीबीसी की सिफारिशों का महत्व और अधिक बढ़ गया है। ओबीसी के उप-वर्गीकरण के संबंध में हाल ही में की गई सिफारिशें इसका प्रमाण हैं।
  • व्यापक पहुंच: संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद एनसीबीसी की पहुंच का विस्तार हुआ है। यह राज्य सरकारों के साथ अधिक प्रभावी ढंग से जुड़ सकता है, जैसा कि पिछड़े वर्ग के आरक्षण के मुद्दों पर महाराष्ट्र एवं तेलंगाना जैसे राज्यों के साथ इसके संवाद से प्रतिलक्षित होता है।
  • केंद्रित शोध: पिछड़े वर्गों के मुद्दों को बेहतर ढंग से समझने के लिए एनसीबीसी विशेष अध्ययन आयोजित कर सकता है। उदाहरण के लिए, ओबीसी उप-श्रेणियों के मध्य शैक्षिक एवं  रोजगार असमानताओं पर अध्ययन नीति-निर्माण के लिए डेटा-संचालित अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
  • अधिक जवाबदेही: राष्ट्रपति को वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का अधिदेश पारदर्शिता सुनिश्चित करता है। ये रिपोर्ट, जो एनसीबीसी की गतिविधियों एवं सिफारिशों का विवरण देती हैं साथ ही पिछड़े वर्ग के अधिकारों एवं मुद्दों पर चर्चा को आगे बढ़ाती हैं।
  • समावेशी विकास: एनसीबीसी यह सुनिश्चित करता है कि प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ ओबीसी लाभार्थियों तक प्रभावी रूप से पहुंचे। इसकी समीक्षा एवं सलाह ऐसी पहलों की अधिक समावेशी पहुंच सुनिश्चित करती है।
  • नीतिगत इनपुट: अपनी भूमिकामें वृद्धि के साथ, एनसीबीसी कल्याणकारी नीतियों को आकार देने वाले महत्वपूर्ण इनपुट प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, ओबीसी क्रीमी लेयर मानदंड को आकार देने में इसके सुझाव प्रभावशाली थे , जिससे आरक्षण लाभों का अधिक न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित हुआ।

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) की प्रभावशीलता में बाधा डालने वाली चुनौतियां और सीमाएं

  • कार्यान्वयन: एनसीबीसी के सशक्त अधिदेश के बावजूद, इसकी सिफारिशों का स्थानीय स्तर पर कार्यान्वयन अक्सर बाधित हो जाता है। उदाहरण के लिए: ओबीसी के उप-वर्गीकरण पर इसके निर्देश को अभी तक सभी राज्यों में समान रूप से नहीं अपनाया गया है।
  • राज्य सूचियों के साथ ओवरलैप: केंद्रीय एवं राज्य सूचियों के मध्य  पिछड़े वर्ग के वर्गीकरण में भिन्नता के कारण अक्सर संघर्ष उत्पन्न होते हैं। इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण महाराष्ट्र में मराठों को शामिल करना है, जिससे वैधानिक  एवं  राजनीतिक विवाद उत्त्पन्न  हुआ।
  • राजनीतिक शोषण: पिछड़े वर्गों का निर्धारण एवं वर्गीकरण राजनीतिक विचारों से प्रभावित हो सकता है। हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन जाति को लेकर राजनीतिक लामबंदी से उत्पन्न जटिलताओं का एक उदाहरण है ।
  • पहचान के मुद्दे: वर्गीकरण के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थिति का सटीक निर्धारण करना जटिल है। सरकारी नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी आरक्षण के लिए “क्रीमी लेयर” मानदंड पर विवाद इस चुनौती का उदाहरण है।
  • सीमित संसाधन: अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, एनसीबीसी अक्सर जनशक्ति एवं वित्तीय संसाधनों के मामले में बाधाओं का सामना करता है , जिससे इसकी दक्षता प्रभावित होती है।
  • अंतर-विभागीय समन्वय: एनसीबीसी के प्रयासों को अक्सर अन्य सरकारी संस्थाओं के साथ सहयोग की आवश्यकता होती है। हालांकि, केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण नीतियों के कुछ क्षेत्रों में देखे गए साइलो (silos) एवं समन्वय की कमी, प्रभावकारिता को बाधित कर सकती है।

आगे की दिशा

  • डेटा एनालिटिक्स के साथ नियमित समीक्षा: पिछड़े वर्गों की सूची की प्रासंगिकता सुनिश्चित करने के लिए, इसे उन्नत डेटा एनालिटिक्स का उपयोग करके समय-समय पर समीक्षा करनी चाहिए। बड़े डेटा जैसे उपकरण समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का विश्लेषण करने में सहायता कर सकते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि सबसे जरूरतमंदों को लाभ मिले।
  • डिजिटल जागरूकता अभियान: सोशल मीडिया एवं सामुदायिक रेडियो जैसे डिजिटल प्लेटफार्मों को अपनाने से एनसीबीसी लक्षित अभियान शुरू करने में सक्षम हो सकता है, जिससे पिछड़ी जातियों को उनके अधिकारों तथा  उपलब्ध कल्याणकारी योजनाओं के बारे में जानकारी मिल सके एवं इस प्रकार जागरूकता की खाई को काम किया जा सके।
  • एकीकृत डिजिटल पोर्टल: एक सुलभ एवं उपयोगकर्ता के अनुकूल डिजिटल पोर्टल शिकायत निवारण, आवेदनों की स्थिति पर नज़र रखने एवं  प्रासंगिक जानकारी तक पहुँचने के लिए वन-स्टॉप प्लेटफॉर्म के रूप में काम कर सकता है, जिससे पारदर्शिता तथा दक्षता में वृद्धि होगी ।
  • शोध एवं नीति थिंक टैंक: शैक्षणिक एवं शोध संस्थानों के साथ साझेदारी स्थापित करने से पिछड़े वर्गों पर गहन अध्ययन में मदद मिल सकती है। थिंक टैंक अनुभवजन्य साक्ष्य के आधार पर नीतिगत सिफारिशें प्रदान कर सकते हैं , जिससे प्रभावी रणनीतियों के निर्माण में सहायता मिलती है।
  • क्षमता निर्माण कार्यशालाएं: अधिकारियों एवं सामुदायिक प्रतिनिधियों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन करके यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वे प्रभावी नीति कार्यान्वयन और सामुदायिक सहभागिता के लिए आवश्यक नवीनतम ज्ञान तथा कौशल से सुसज्जित हैं।
  • वास्तविक समय प्रतिक्रिया तंत्र: इंटरैक्टिव वॉयस रिस्पांस सिस्टम (आईवीआरएस) या मोबाइल ऐप जैसी तकनीकों का लाभ उठाकर , एनसीबीसी पिछड़े वर्गों से वास्तविक समय पर प्रतिक्रिया एकत्र कर सकता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि उनकी नीतियां और योजनाएं समुदाय की जरूरतों के प्रति उत्तरदायी हैं।
  • राज्य-स्तरीय सामंजस्य : पिछड़े वर्गों के लिए राज्य आयोगों को मजबूत करना एवं उनके साथ सहजीवी संबंध बनाना यह सुनिश्चित करता है कि स्थानीय मुद्दों का त्वरित  समाधान किया जाए। एनसीबीसी एवं  राज्य आयोगों के बीच साझा किया गया एक केंद्रीकृत डेटाबेस संचालन को और अधिक सुव्यवस्थित कर सकता है।
  • केंद्रित समावेशित उपाय: पिछड़े वर्गों के भीतर, ऐसे खंड हैं जो प्रायः दूसरों की तुलना में अधिक उपेक्षित   हैं। एनसीबीसी को इन उप-समूहों को लक्षित करते हुए विशेष पहल शुरू करनी चाहिए , जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि लाभ सबसे कमजोर लोगों तक पहुंचे।

निष्कर्ष

एनसीबीसी के संवैधानिकीकरण ने वास्तव में इसके जनादेश को मजबूत किया है, लेकिन पिछड़े वर्गों  के जीवन में ठोस परिवर्तन  के लिए राज्य, नागरिक समाज तथा  आयोग के संयुक्त प्रयास की आवश्यकता है । नवीन उपायों को एकीकृत करके, एनसीबीसी वास्तव में भारत के पिछड़े वर्गों को सशक्त बनाने एवं उत्थान करने के अपने मिशन को साकार कर सकता है।

 

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