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Q. [साप्ताहिक निबंध] मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो अपने मूल स्वरूप से इतर बनने हेतु प्रयासरत रहता है। (1200 शब्द)

उत्तर:

निबंध कैसे लिखें:

भूमिका :

  • यह निबंध अज्ञात भविष्य की खोज के बीच अपनी वास्तविकता को स्वीकार करने के संबंध में है। इसकी भूमिका में आप कोई भी ऐसा किस्सा बता सकते हैं, जो मनुष्य की अपनी वास्तविकता को बदलने की निरंतर खोज का प्रतीक हो।

मुख्य भाग :

  • मुख्य विषय में उक्त कथन के दोनों पहलुओं का अन्वेषण होना चाहिए।
  • प्रथम भाग: अपनी वास्तविकता स्वीकार न करने से किस प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
  • द्वितीय भाग: यह निरंतर प्रयास किस प्रकार प्रगति के लिए मौलिक होता है।
  • तृतीय भाग: प्रगति एवं विकास को जारी रखने हेतु इस जिज्ञासा की आवश्यकता को प्रतिस्थापित करने के लिए नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में इस मुद्दे पर चर्चा कीजिए।

निष्कर्ष:

  • अंत में, मुख्य भाग में चर्चा किए गए दोनों पहलुओं को कुछ नैतिक अर्थ प्रदान करते हुए संतुलन बनाने का प्रयास कीजिए।

 

भूमिका

अस्तित्व के जटिल चित्रपट में, मनुष्य एक रहस्यमयी आकृति है, जिसमें अपार क्षमताएं हैं, फिर भी प्राय: अपने वास्तविक स्वरूप को नकारने की उसकी एक सहज प्रवृत्ति है। फ्रांसीसी दार्शनिक अल्बर्ट कैमस का दावा है कि, “मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपने मूल स्वरूप से इतर बनने हेतु प्रयासरत रहता है”, यह मानवता के एक मूलभूत विरोधाभास को दर्शाता है। प्राकृतिक दुनिया के अन्य प्राणियों, जो अपने जन्मजात गुणों को अपनाते हैं और अपने आंतरिक सत्व का पालन करते हैं, के विपरीत मनुष्य के पास अपने प्रामाणिक स्व का प्रतिरोध करने की उल्लेखनीय क्षमता होती है। यह प्रतिरोध अनेक तरीकों से प्रकट होता है – अपनी कमजोरियों को नकारना, वास्तविक भावनाओं को दबाना या उन सामाजिक संरचनाओं के अनुरूप होना, जो उसकी वास्तविक पहचान से भिन्न हैं। अपने प्रामाणिक स्वरूप से यह विचलन न केवल व्यक्तिगत आत्म-बोध को जटिल बनाता है, बल्कि समानुरूपता एवं आत्म-अभिव्यक्ति के बीच सामूहिक संघर्ष को बढ़ावा देते हुए सामाजिक गतिशीलता को भी आकार प्रदान करता है। इस पेचीदा द्वंद्व की खोज से मानव अस्तित्व की एक जटिल कथा का पता चलता है, जो अंतर्निहित प्रकृति, सामाजिक प्रभावों और आत्म-खोज की सतत अनुशीलनता के बीच जटिल अंतर्संबंध को प्रकट करता है।

मानवता को अग्नि एवं ज्ञान प्रदान करने हेतु देवताओं की अवहेलना करने वाले टाइटन प्रोमेथियस की कहानी, उज्जवल भविष्य की खोज एवं स्थापित व्यवस्था को चुनौती देने के परिणामों का एक कालजयी रूपक है। यह अवज्ञा पूर्व निर्धारित भाग्य को स्वीकार न करने एवं अनवरत मानव संघर्ष को दर्शाता है – जिसमें वर्तमान यथार्थ एवं अज्ञात, संभावित उज्जवल भविष्य के आकर्षण के मध्य अनवरत संघर्ष के साथ, स्वत्व की खोज एवं प्रगति हेतु निरंतर प्रयास शामिल है।

हममें से कितने लोग यह दावा कर सकते हैं कि हम अपनी वर्तमान वास्तविकता को स्वीकार करते हैं और इसे सम्पूर्णतः जीने का प्रयास करते हैं? मनुष्य के रूप में, हमने अपने चारों ओर एक बहुत ही जटिल दुनिया बुनी है, जहाँ हम लगातार कुछ बेहतर करने की दिशा में अग्रसर हैं। यह जाने बिना कि इस प्रकार व्यतीत किया गया समय किसी अज्ञात भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु ही नहीं, बल्कि अपने वर्तमान यथार्थ को जीने हेतु भी है।

अपनी मूल प्रकृति को स्वीकारने की दुविधा

मनुष्य के पास आत्म-चेतना एवं चयन की विशिष्ट क्षमता होती है, परंतु उसे अपने मूल स्वरूप को स्वीकारने में कठिनाई होती है। मूल प्रवृत्ति का पालन करने वाले अन्य प्राणियों के विपरीत, मनुष्य में मानदंडों पर प्रश्न चिह्न लगाने एवं अपना मार्ग निर्धारित करने की क्षमता है। अपने मूल स्वरूप का अस्वीकरण विभिन्न तरीकों से प्रकट हो सकता है, जिसमें वर्तमान यथार्थ से भागने या उसे पुनःपरिभाषित करने का प्रयास भी शामिल है, जो समानुरूपता एवं सामाजिक अपेक्षाओं का विरोध करने की मानवीय प्रवृत्ति को दर्शाता है।

वे प्रायः आत्म-छलावा या अपने वास्तविक स्वरूप के अस्वीकरण में रत रहते हैं, जिसमें भ्रम पैदा करना या आंतरिक संघर्षों या सामाजिक दबावों से निपटने के लिए झूठे व्यक्तित्व को अपनाना शामिल हो सकता है। मानव जीवन का यह पहलू अंधकारपूर्ण युग में प्रतिबिंबित हुआ, जब मानव जाति की प्रगति कुछ झूठे यथार्थ एवं भविष्य की झूठी कल्पनाओं के कारण रुक गई, जिन्हें कुछ लोगों ने निर्धारित किया था एवं अधिकांश ने जिया था। यद्यपि, जब कुछ लोगों ने इस पर प्रश्न चिह्न खड़ा किया एवं अपने वर्तमान अस्तित्व के यथार्थ को स्वीकारना आरंभ किया, तो वह युग प्रबोधन के युग में बदल गया। पुनर्जागरण काल में शास्त्रीय ज्ञान को स्वीकारने एवं नवाचार को अपनाने के बीच संतुलन देखा गया। पुनर्जन्म की इस अवधि में ऐतिहासिक सच्चाइयों की समझ और कला, विज्ञान एवं संस्कृति के प्रति दूरदर्शी दृष्टिकोण दोनों पर जोर दिया गया।

सामाजिक आदर्शों की खोज में, कोई व्यक्ति सामाजिक मानदंडों या अपेक्षाओं के अनुरूप अपनी पहचान के पहलुओं को दबा सकता है। अनिश्चित भविष्य हेतु वर्तमान यथार्थ को नजरअंदाज करने से पहचान संबंधी संकट उत्पन्न हो सकता है। अपने मूल गुणों को दबाने से अपने मूल स्वरूप एवं अनुमानित भावी स्वरूप में दुराव हो सकता है। केवल वित्तीय लाभ हेतु रोजगार करने वाला व्यक्ति स्वयं को अपने मूल हितों एवं मूल्यों से अलग-थलग पा सकता है, जिससे उसमें आंतरिक संघर्ष की भावना पैदा होती है, जो उसके अस्तित्व एवं मानसिक स्वास्थ्य संबंधी संकट के रूप में प्रकट होती है।

जब कोई व्यक्ति अनिश्चित भविष्य के पक्ष में वर्तमान की उपेक्षा करता है, तो कई समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, जिनमें वियोग की भावना, अतृप्ति एवं वर्तमान यथार्थ की मूलभूत समझ के बिना निर्णय लेने का जोखिम शामिल है। चिंता एवं बोझ, मानवीय स्वतंत्रता एवं उत्तरदायित्व के साथ आते हैं, जो किसी के भी अस्तित्व को परिभाषित करते हैं। लोग सौंदर्य मानकों के इर्द-गिर्द सामाजिक अपेक्षाओं के प्रति विभिन्न तरीकों से प्रतिक्रिया करते हैं जो व्यक्तिगत भिन्नताओं का ज्वलंत उदाहरण हैं। आत्म-सम्मान एवं शरीरिक छवि पर सोशल मीडिया का प्रभाव यह दर्शाता है कि किस प्रकार कोई ऑनलाइन अपना आदर्श संस्करण प्रस्तुत कर सकता है। अपने अपूर्ण होने के यथार्थ का अस्वीकरण मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा कर सकता है और स्वयं में विकृत भाव पैदा कर सकता है।

सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के व्यापक उपयोग से कोई अपने वर्तमान जीवन की तुलना दूसरों के क्यूरेटेड एवं प्रायः अयथार्थ तरीके से प्रस्तुत जीवन से कर सकता है। इससे किसी को अपनी वर्तमान वास्तविकता से असंतोष हो सकता है एवं वह बाह्य मानक आधारित आदर्श भविष्य की निरंतर खोज में रत हो सकता है। प्रौद्योगिकीय उन्नत समाजों में, अपने मूल स्वरूप में जीने का विचार मानव पहचान पर प्रौद्योगिकी के प्रभाव एवं डिजिटल युग में अपना मूल स्वरूप बनाए रखने संबंधी चुनौतियों पर चर्चा हेतु लागू किया जा सकता है।

पर्यावरणीय संधारणीयता पर विचार किए बिना प्रगति के नाम पर आर्थिक विकास पर अत्यधिक जोर देने से अपूर्णीय क्षति हो सकती है। अल्पकालिक आर्थिक लाभ के लिए वर्तमान पारिस्थितिकीय यथार्थ को नजरअंदाज करना भावी पीढ़ी हेतु महत्वपूर्ण खतरा है। संवहनीय जीवन की दिशा में किए जाने वाले प्रयासों में अधिक टिकाऊ एवं उज्जवल भविष्य की दिशा में सक्रिय रूप से कार्य करते हुए वर्तमान पर्यावरणीय चुनौतियों को पहचानना एवं स्वीकारना शामिल है। इस प्रकार मानव पहचान निश्चित या पूर्व निर्धारित नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसमें आत्म-खोज, अनुकूलनता और विभिन्न आंतरिक एवं बाह्य कारकों संबंधी विमर्श की सतत प्रक्रिया शामिल होनी चाहिए।

यथार्थ को स्वीकारने का निरंतर प्रयास प्रगति हेतु किस प्रकार मूलभूत है:

हाल के दिनों में, हमने स्वयं सहायता साहित्य की बढ़ती लोकप्रियता देखी है। स्व-सहायता साहित्य, प्रेरक वक्ताओं और व्यक्तित्व विकास कार्यक्रमों में रुचि आत्म-सुधार की व्यापक इच्छा को दर्शाती है। कई व्यक्ति सक्रिय रूप से अपने कौशल को बढ़ाने, व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने और अधिक संतोषप्रद जीवन जीने के मार्ग तलाशते हैं। मानसिकता में यह बदलाव दर्शाता है कि विश्वभर में स्वयं मार्ग तलाशने की बजाय दूसरों की बात सुनकर अपनी वर्तमान परिस्थितियों में सुधार करने की इच्छा उनके जीवन का मूलभूत पहलू बन गया है।

स्वयं को बेहतर बनाने के लिए निरंतर संघर्ष का यह प्रयास हमेशा बुरा नहीं है। यह मनुष्य को नई परिस्थितियों के अनुरूप ढलने एवं समय के साथ विकसित होने की क्षमता प्रदान करता है। व्यक्ति का अपने मूल स्वरूप का अस्वीकरण उसकी आकांक्षी एवं अनुकूलित प्रकृति का भी संकेत हो सकता है, जिससे व्यक्ति बदलते परिवेश एवं व्यक्तिगत अनुभवों संबंधी प्रतिक्रिया दे पाते हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान दूरस्थ कार्य के प्रति तेजी से अनुकूलन मानव अनुकूलन क्षमता को दर्शाता है। कई व्यक्तियों ने प्रौद्योगिकी को अपनाकर और पेशेवर परिदृश्य में आए बदलावों को समायोजित करने हेतु अपनी दैनिक दिनचर्या में बदलाव करके नए कार्य वातावरण में समायोजन किया। यह अनुकूलन क्षमता ही है, जिसने मानव समाज को बचाए रखा है और उस संपूर्ण प्रगति को बढ़ावा दिया है, जो हम आज अपने चारों ओर देखते हैं और भविष्य में देखेंगे।

वर्तमान में, व्यक्ति और संगठन प्रायः तेजी से बदलती दुनिया में इस संतुलन को पाने के लिए जूझते हैं। संवहनीय प्रथाओं का समर्थन करने वाले जलवायु कार्यकर्ता वर्तमान पर्यावरणीय चुनौतियों को स्वीकार करने एवं बेहतर भविष्य हेतु प्रयास करने के बीच संतुलन को प्रदर्शित करते हैं। उनके प्रयास अधिक संवहनीय दुनिया की कल्पना करने एवं उसे कार्यरूप में परिणत करते हुए जलवायु परिवर्तन की वास्तविक समस्याओं का समाधान करते हैं। इसी तरह, मिलेनियल्स और जेनरेशन जेड के लोग प्रायः रोजगार के पारंपरिक मार्गों एवं सामाजिक अपेक्षाओं पर प्रश्न उठाते हुए अस्तित्व संबंधी अन्वेषण में रत रहते हैं। फ्रीलांसिंग, दूरस्थ कार्य और वैकल्पिक जीवन शैली का उदय पारंपरिक मानदंडों से परे अर्थ एवं उद्देश्य हेतु सामूहिक इच्छा को प्रदर्शित करते हैं।

अपने मूल यथार्थ को स्वीकारने एवं आकांक्षी भविष्य को आकार देने में संतुलन साधना :

इस प्रकार, अपने मूल यथार्थ को स्वीकारने एवं भिन्न, प्रायः आकांक्षी भविष्य को आकार देने की मानवीय प्रवृत्ति के बीच एक अंतर्निहित तनाव है। इन पहलुओं के बीच संतुलन साधने में वर्तमान को स्वीकारना, यथार्थपूर्ण लक्ष्य निर्धारित करना और व्यक्तिगत एवं सामूहिक विकास हेतु सायास विकल्प बनाना शामिल है। अपने मूल स्वरूप को स्वीकारने एवं परिवर्तनकारी भविष्य की कल्पना करने के बीच तनाव प्रामाणिकता एवं उत्तरदायित्व के महत्व को रेखांकित करता है। अपने वर्तमान स्वरूप को स्वीकारना व्यक्तिगत सत्य के प्रति नैतिक प्रतिबद्धता, दूसरों के साथ वास्तविक संबंध विकसित करना और सामूहिक कल्याण में योगदान की मांग करता है।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अहिंसक प्रतिरोध के प्रति महात्मा गांधी की प्रतिबद्धता वर्तमान उत्पीड़न को स्वीकार करने और स्वतंत्रता की भावी कल्पना के बीच संतुलन को दर्शाता है। उनके कार्य अन्याय के वर्तमान यथार्थ में निहित थे जबकि वे उज्जवल भविष्य की दिशा में कार्यरत थें। इस प्रकार, महात्मा गांधी ने सार्त्र के इस कथन में निहित स्वतंत्रता एवं उत्तरदायित्व को मूर्त रूप प्रदान किया कि “मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त है।” नैतिक अनिवार्यता अतीत को स्वीकार करते हुए, वर्तमान को अपनाते हुए और स्वयं पर, दूसरों पर एवं दुनिया पर हमारे प्रभाव के प्रति सचेत जागरूकता के साथ भविष्य को आकार देते हुए इस स्वतंत्रता का विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करने में निहित है।

व्यक्तिगत विकास की आकांक्षा रखते हुए वर्तमान उत्तरदायित्वों में संतुलन साधना परंपरा एवं प्रगति के सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व को दर्शाती हैं। प्रोमेथियस की कहानी, किसी भी अन्य मानव की तरह, विद्रोह एवं प्रबोधन का प्रतीक है और उच्च सत्य की खोज में, परंतु उत्तरदायित्व की भावना के साथ, वर्तमान सीमाओं को पार करने के शाश्वत मानव प्रयास को दर्शाती है। व्यक्तियों को व्यक्तिगत विकास एवं अधिक सकारात्मक भविष्य की दिशा में कार्य करते हुए अपनी वर्तमान भावनाओं को स्वीकारना सीखना चाहिए।

निष्कर्ष

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, धर्म की अवधारणा नैतिक एवं लौकिक व्यवस्था के अनुसार जीवन जीने पर जोर देती है। जैसे ही हम ज्ञान की लौ से मार्गदर्शित एवं नैतिक विचारों से प्रकाशित भावी आकांक्षाओं के क्षितिज की ओर देखते हैं, स्वीकरण एवं आकांक्षाओं के मध्य संतुलन परीक्षा बन जाती है जहां मानवता अपनी नियति बनाती है। इसलिए, हमारी भावी आकांक्षाओं को अपने मूल स्वत्व को स्वीकारने एव पहचानने की विनम्रता के साथ महत्वाकांक्षा की धृष्टता में संतुलन साधने की बुद्धिमत्ता पर आधारित होना चाहिए।

उपयोगी उद्धरण:

“स्वयं से इतर बनने में निरंतर प्रयासरत  इस दुनिया में अपने मूल स्वत्व को बनाए रखना सबसे बड़ी उपलब्धि है।” – राल्फ वाल्डो इमर्सन

“आप जो हैं, वह बनना जीवन भर का विशेषाधिकार है।” – कार्ल यंग

“कभी न गिरना हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि नहीं है, बल्कि गिरकर हर बार उठने में है।” -कन्फ्यूशियस

“जो दूसरों के बनाए रास्ते पर चलता है, उसके कोई पदचिह्न नहीं होते।” – जोन एल ब्रैनन

“आप नीचे की ओर जाने पर विचार करते हुए ऊपर की ओर नहीं चढ़ सकते।” – जिग जिग्लर

“वही व्यक्ति बनना आपके भाग्य में लिखा है, जो बनना आप ठानते हैं।” – राल्फ वाल्डो इमर्सन।

“स्वयं को जानना ही ज्ञान प्राप्ति का आरंभ है।” – अरस्तू

 

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