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दृष्टिकोण:
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एक बार प्राचीन चीन में मुलान नाम की एक लड़की रहती थी। एक दिन, उसके पिता अपने खराब स्वास्थ्य के कारण सेना में शामिल नहीं हो पाये। दंडित होने से बचने के लिए, मुलान, एक रूढ़िवादी समाज में एक सभ्य लड़की के रूप में पली-बढ़ी होने के बावजूद, खुद को एक पुरुष के रूप में अपनी वास्तविकता को छिपाने और अपने पिता के स्थान पर सेना में शामिल होने का फैसला करती है। इसके साथ जीवन भर की यात्रा शुरू हुई, अपने अनुभवों से सीखते हुए, मुलान ने पूरे दृढ़ संकल्प, साहस और बुद्धिमत्ता के साथ चुनौतियों का सामना किया और सेना में प्रमुखता हासिल की। अंत में, जीवन ने उसे जो सबक सिखाया, उससे मुलान की आत्म-खोज न केवल उसके परिवार के लिए सम्मान लाती है, बल्कि उसकी अपनी पहचान और उद्देश्य की भावना को भी नया आकार देती है।
मनुष्य जिज्ञासु पैदा होता है, और यह जिज्ञासा हमारे जन्म के दिन से ही उसके जीवन को आकार देना शुरू कर देती है। यह माना जा सकता है कि जितने मनुष्य हैं उतनी ही प्रकार की जिज्ञासाएँ भी हैं। हम सभी की रुचियां, शौक और योग्यताएं अलग-अलग होती हैं। अधिकांश समय, इन विशेषताओं को जिस तरह निखारा जाता है, और जिस प्रकार का वातावरण प्रदान किया जाता है, उससे मनुष्य को अपनी वास्तविक क्षमता का एहसास करने में मदद मिलती है।
यह सब उस प्रकार के समाजवादीकरण से शुरू होता है जो एक व्यक्ति को परिवार, स्कूल और समाज से मिलता है। परिवार उन मूल्यों को विकसित करने में मदद करता है जिनके साथ एक व्यक्ति अपना जीवन जिएगा। साथ ही, स्कूल व्यक्ति को उनकी रुचियों को पहचानने और आवश्यक कौशल प्राप्त करने में मदद करता है। दूसरी ओर, समाज व्यक्ति को इन सभी मूल्यों और कौशलों को बाकी लोगों के साथ सुसंगत एवं अनुकूल तरीके से संलग्न करने में मदद करता है।
महात्मा गांधी ने अपनी सख्त वैष्णव परवरिश से सत्य और अहिंसा के मूल्य सीखे। अपनी प्रारंभिक अनिच्छा और संघर्षों के बावजूद, उन्होंने अपनी शिक्षा एवं अनुभव से वकील बनने का कौशल सीखा। जब वह औपनिवेशिक भारत में इन विशेषताओं के साथ जुड़े, तो इससे न केवल उनकी व्यक्तिगत आत्म-खोज का मार्ग प्रशस्त हुआ, बल्कि पूरे देश ने उनके आदर्शों और मूल्यों में बहुत विश्वास दिखाया। उन्होंने मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे कई ऐसे नेताओं का मार्ग प्रशस्त किया, जिन्होंने अपने समाज के लिए इसका अनुकरण किया।
एकलव्य, जिसे द्रोणाचार्य ने निम्न जाति में जन्म होने के कारण धनुर्विद्या का प्रशिक्षण देने से इनकार कर दिया था, ने अपने गुरु पर पूरा विश्वास रखते हुए, धनुर्विद्या की कला में महारत हासिल की। उनके गुरु और वे स्वयं ऐसे थे कि, अपने दाहिने हाथ का अंगूठा नहीं होने के बावजूद, वे महाभारत के युद्ध में पांडवों के साथ शामिल हुए और अपने बाएं हाथ से युद्ध लड़ा।
इस प्रकार, प्रत्येक संस्कृति में शिक्षक और गुरु की भूमिका को पवित्र माना जाता है। ये वे लोग हैं जो न केवल आपको अपना सच्चा जुनून ढूँढ़ने में मदद करते हैं, बल्कि आपको उस तक पहुँचने का मार्ग भी दिखाते हैं। एक शिक्षक का अपने बच्चों के प्रति रवैया उनके भविष्य को बनाने या बिगाड़ने की क्षमता रखता है। किसी को आत्म-खोज की ओर ले जाने के लिए तीन महत्वपूर्ण घटक हैं – साहस, दृढ़ संकल्प और किसी की क्षमताओं में विश्वास करना। ये न केवल किसी व्यक्ति को उच्च लक्ष्य प्राप्त करने में मदद करते हैं, बल्कि उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बने रहने में मदद करते हैं। जब थॉमस अल्वा एडिसन को उनके अपरंपरागत स्वभाव के कारण पारंपरिक शिक्षा से वंचित कर दिया गया, तो उनकी माँ ने अपने बेटे को उस तरीके से शिक्षित करने का जिम्मा उठाया, जिस तरह से वह इसे समझता है। परिणामस्वरूप, उनके विश्वास की एक झलक आज हमारे पूरे अस्तित्व को रोशन करती है।
इसी प्रकार, किसी के वातावरण और परिस्थितियों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। जब सही समय पर सही इनपुट प्रदान किया जाता है तो एक सकारात्मक वातावरण रुचि को मजबूत करता है। महेंद्र सिंह धोनी भारतीय क्रिकेट टीम के सबसे सफल कप्तानों में से एक बनकर उभरे क्योंकि उनकी प्रतिभा को पहचाना गया और उनके करियर की शुरुआत में उन्हें सकारात्मक एवं सहायक माहौल मिला। हालाँकि यह मामला सभी के लिए नहीं हो सकता है।
हालाँकि, किसी व्यक्ति को सिखाना हमेशा आसान नहीं होता है। किसी को कुछ नया सिखाना एक जटिल प्रयास हो सकता है, जो विभिन्न कारकों से प्रभावित होता है जो सीखने की प्रक्रिया में बाधा डाल सकते हैं। एक छात्र के रूप में, आइंस्टीन अपने शिक्षकों के लिए एक बुरे स्वप्न की तरह थे क्योंकि उन्हें इतिहास में कोई दिलचस्पी नहीं थी और उनकी प्रेरणा की कमी ने उनकी व्यस्तता तथा उस विषय पर सीखने की इच्छा को प्रभावित किया।
इसके अलावा, जब कोई व्यक्ति मजबूत पूर्वकल्पित धारणाएं या विश्वास रखता है तथा सिखाई गई नई जानकारी के साथ वह संघर्ष करता है, तो यह प्रतिरोध पैदा कर सकता है और अवधारणा को समझने की उनकी क्षमता में बाधा उत्पन्न कर सकता है। उदाहरण के लिए, एक रूढ़िवादी परिवार में पले-बढ़े व्यक्ति को विविध लैंगिक पहचान और यौन रुझानों के बारे में चर्चा को स्वीकार करने एवं समझने में कठिनाई हो सकती है।
संज्ञानात्मक सीमाएँ भी हो सकती हैं जैसे कि स्मृति क्षमता या प्रसंस्करण गति किसी व्यक्ति की नई जानकारी को खपाने और उसे बनाए रखने की क्षमता को प्रभावित कर सकती है। स्मार्टफोन के इस युग में, उम्र से संबंधित संज्ञानात्मक परिवर्तनों या भाषायी बाधाओं के कारण एक बुजुर्ग व्यक्ति को जटिल स्मार्टफोन कार्यप्रणाली सीखना चुनौतीपूर्ण लग सकता है। इसी तरह, सीखने की अक्षमताएं या डिस्लेक्सिया, एडीएचडी(ADHD), या ऑटिज्म जैसी बीमारियाँ किसी व्यक्ति द्वारा जानकारी को संसाधित करने और समझने के तरीके को प्रभावित कर सकती हैं। इस प्रकार, शिक्षण और सीखना जैसे विभिन्न कारकों की एक बहुत ही जटिल अंतर्क्रिया है जो अक्सर उस वातावरण द्वारा प्रबलित होते हैं जिसमें उनका अभ्यास किया जाता है।
एक नकारात्मक सीखने का माहौल, जिसमें विफलता का डर, समर्थन की कमी या अत्यधिक दबाव शामिल है, किसी व्यक्ति की सीखने और प्रयोग करने की इच्छा में बाधा उत्पन्न कर सकता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रतिदिन औसतन 35 छात्र आत्महत्या करते हैं। हम एक बहुत ही असमान और ध्रुवीकृत समाज में रहते हैं जहाँ सभी के लिए सकारात्मक माहौल बनाना हमेशा संभव नहीं होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि उन्हें उनकी प्रतिभा और रुचियों की परवाह किए बिना चूहे की दौड़ और रटने की प्रणाली में धकेल दिया जाता है, जहाँ वे बढ़ते दबाव का सामना करने में असमर्थ होते हैं। आज सफलता के पैमाने के रूप में भौतिक संपदा पर आधारित जो विषाक्त मानक तय किए गए हैं, वे मछली को उसकी पेड़ पर चढ़ने की क्षमता से परखने की कोशिश कर रहे हैं।
इतना ही नहीं, हम ऐसे समाज में भी रहते हैं जहाँ अपवादों को महिमामंडित किया जाता है और हम यह भूल जाते हैं कि अपवाद सभी के लिए सत्य नहीं हो सकते। असाधारण सफलता को बढ़ावा देने के बजाय, हमें न्यायसंगत मानकों पर आधारित समाज बनाने का प्रयास करना चाहिए और जब भी जरूरत हो, सभी के लिए अवसरों की गुंजाइश होनी चाहिए। यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है और कई वर्ग आज तक बुनियादी अधिकारों एवं अवसरों के लिए भी लड़ रहे हैं। ऐसे कई वर्ग हैं- महिलाएं, गरीब लोग, विकलांग, ट्रांसजेंडर आदि। उन्हें कई समाजों में मूक या अल्पसंख्यक बना दिया गया है और वर्तमान में भी उन्हें बुनियादी अधिकार भी नहीं दिए गए हैं। हमें यह समझना चाहिए कि जब कोई व्यक्ति जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए संघर्ष करने में व्यस्त होता है, तो अपनी वास्तविक क्षमता तक पहुँचने का विचार दूर की कौड़ी लगता है। कोविड महामारी के दौरान, गरीबी का एक नया रूप सामने आया, जिसे लर्निंग पॉवर्टी (अधिगम निर्धनता) के रूप में जाना जाता है, जो गरीबी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच में असमानता और समाज के भेदभावपूर्ण रवैये का परिणाम था।
पूर्वाग्रही एवं भेदभावपूर्ण रवैया एक और कारण है जिसके कारण कई लोगों को अपना मुकाम और पहचान बनाने का अवसर नहीं मिल पाता है। ऐसा ही एक उदाहरण है परमाणु विखंडन की खोज करने वाली महिला वैज्ञानिक लेइस मीटनर। नोबेल पुरस्कार के लिए 49 बार नामांकित होने के बावजूद, उन्हें कभी नोबेल पुरस्कार नहीं मिला, जबकि उसी प्रयोग में उनके पुरुष सहयोगियों को यह पुरस्कार मिला। ऐसी असंख्य कहानियाँ हैं जहाँ कमज़ोर और हाशिए पर रहने वाले वर्गों को प्रभुत्वशाली व्यक्ति को चमकने देने हेतु पीछे हटने के लिए मजबूर किया गया।
हालाँकि, रचनात्मकता, सरलता और नवीनता मनुष्य का दूसरा स्वभाव है, मगर सभी चुनौतियों के बावजूद प्रतिभा हमेशा अपना रास्ता खोज ही लेती है। राजकुमार सिद्धार्थ को अपने महल की सीमा के अंदर सभी दुखों से बचाया गया था। उन्होंने अब तक जो कुछ भी सीखा था, उस पर सवाल उठाने के लिए उन्हें एक ही घटना का सहारा लेना पड़ा और उन्होंने सत्य की खोज के लिए सब कुछ त्याग दिया। आत्म-खोज और बुद्ध बनने की उनकी यात्रा आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है।
स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं को नारा दिया कि ‘उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक अपने लक्ष्य तक न पहुँच जाओ।’ यह आज भारत के लिए और अधिक प्रासंगिक हो जाता है जो आज एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ एक तरफ हम पर विश्व की सबसे बड़ी आबादी का बोझ है, वहीं दूसरी ओर हमारे पास अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ उठाने का अवसर है जो पहले कभी नहीं हुआ था। इस प्रकार, हमारे लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि हम सभी के लिए एक अनुकूल वातावरण को बढ़ावा दें,जहाँ प्रतिभा को उसकी उचित पहचान और समर्थन मिले, जिस भी तरीके से उसे आवश्यकता हो। अब समय आ गया है कि हमें अच्छी मानव पूंजी को सामान्य बनाने और उज्ज्वल भविष्य के लिए विशेष क्षमता निर्माण की ओर बढ़ने की जरूरत है।
आज समय एक देश के तौर पर हमारे लिए नहीं, बल्कि पूरे वैश्विक समाज के लिए चुनौतीपूर्ण है। हम मनुष्यों की मूर्खताओं द्वारा परिभाषित युग में रह रहे हैं – चाहे वह एंथ्रोपोसीन हो या प्लीस्टोसीन, जब जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों की बात आती है तो हमारी सामूहिक जवाबदेही होती है। इसके लिए हमें सहानुभूति, करुणा और सहिष्णुता जैसे मूल्यों को आधार बनाकर सामूहिक, समन्वित एवं सहयोगात्मक तरीके से कार्य करने की आवश्यकता है। हमें न केवल मौजूदा संकट को अनुकूलित करने, कम करने और उसके साथ जीने के नए तरीके सीखने की जरूरत है, बल्कि हमें उस पारंपरिक ज्ञान को बचाने तथा बढ़ावा देने की भी जरूरत है जो हमारे पूर्वजों ने अपने असाधारण अनुभव और ज्ञान के लिए सीखा था।
हमें पारिस्थितिकी तंत्र के साथ जीवन जीने का एक नया तरीका चाहिए, जिसमें आधुनिक विकास के साथ-साथ सुसंस्कृत पारंपरिक ज्ञान के बीच सावधानीपूर्वक संतुलन की आवश्यकता है। व्यक्तिगत स्तर पर भी, हमें बदलते परिवेश के अनुसार खुद को ढालने के लिए इस नई सीख को अपनाने की जरूरत है। हमें इस अनुकूलन के प्रति अधिक प्रत्यक्ष दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है – चाहे यह स्वयंसेवा के माध्यम से हो, संवाद में संलग्न हो, अनुसंधान हो या कौशल हो, बुद्धिमानीपूर्ण और दीर्घकालिक शिक्षा को विकसित करने के लिए हर पहलू महत्वपूर्ण है। जैसा कि बेंजामिन फ्रैंकलिन ने सुझाव दिया था- “मुझे बताओ और मैं भूल जाऊंगा। मुझे सिखाओ और मुझे याद रहेगा. मुझे शामिल कीजिए और मैं सीखूंगा।”
हम जो भी सीखते हैं, वह हमें अपने पूर्व स्वरूप से बेहतर बनाने के लिए होता है, वह नैतिक और मूल्य प्रणाली में निहित होना चाहिए जो सामूहिक कल्याण को बढ़ावा देता है। यह न केवल हमें सभी पहलुओं में बुद्धिमान बनने में मदद करता है, बल्कि तब और अधिक उपयोगी हो जाता है जब हमें लगता है कि हम सीढ़ी के शीर्ष पर पहुँच गए हैं। हमें अपनी स्थिति की परवाह किए बिना हमेशा दूसरों के प्रति विनम्र, सम्मानजनक और दयालु होना चाहिए। अन्यथा, बुद्धि तब बुद्धि नहीं रह जाती जब वह रोने के लिए अत्यधिक अहंकारी हो जाती है, हंसने के लिए बहुत गंभीर हो जाती है, और अपने अलावा किसी और को खोजने के लिए अत्यधिक स्वार्थी हो जाती है।
जैसा कि रावण के साथ हुआ था, हालाँकि वह राम से अधिक शिक्षित, अधिक शक्तिशाली और बुद्धिमान था, लेकिन उसके घमंड और अहंकार ने उसे इस हद तक गिरा दिया कि वह आने वाली सभी पीढ़ियों के लिए बुराई का प्रतीक बन गया। वास्तविक ज्ञान में अक्सर अपने स्वयं के ज्ञान की सीमाओं को पहचानना और दूसरों तथा अनुभवों से सीखने एवं बढ़ने की विनम्रता शामिल होती है।
इस प्रकार, जीवन के किसी भी बिंदु पर, हमारा उद्देश्य आजीवन सीखने, विनम्रता और सामूहिक कल्याण का सामंजस्यपूर्ण सम्मिलन होना चाहिए। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था, “ऐसे जियो जैसे कि तुम्हें कल मरना है। ऐसे सीखो जैसे तुम्हें हमेशा के लिए जीना है।”
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