चॉकलेट की निर्माण प्रक्रिया के लिए महत्त्वपूर्ण कोको बीन्स की कीमत में वृद्धि के कारण चॉकलेट उद्योग को बड़ी समस्या का सामना करना पड़ रहा है।
संबंधित तथ्य
अप्रैल में इसकी कीमत 12,000 डॉलर प्रति टन तक पहुँच गई, जो पिछले वर्ष से चार गुना अधिक है।
कोको की फलियों को संसाधित करके चॉकलेट सामग्री बनाई जाती है, किंतु इसका उत्पादन कम हो गया है क्योंकि ये फलियाँ महंगी हो गईं हैं।
कोको (Cocoa)
उत्पत्ति और वितरण (Origin and Distribution): कोको के छोटे पौधे होते हैं, जो मूल रूप से अमेरिकी उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं, किंतु अब दुनिया भर के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में इसकी खेती की जा रही है।
कोको पौधे के सूखे और पूरी तरह से किण्वित वसायुक्त बीज का उपयोग चॉकलेट के निर्माण में किया जाता है।
प्राथमिक निर्माता (Primary Producers): विश्व स्तर पर कोको उत्पादन में अग्रणी प्रमुख देशों में घाना, नाइजीरिया, आइवरी कोस्ट और ब्राजील शामिल है।
अनुकूल जलवायु की आवश्यकता
कोको का उत्पादन समुद्र तल से 300 मीटर की ऊँचाई तक आसानी से होता है।
उत्पत्ति: इसकी उत्पत्ति अमेजन के जंगलों में पेड़ों के नीचे उगने वाले पौधों के रूप में हुई थी।
कोको की खेती: इसकी खेती जंगल के पेड़ों की छाया में या अन्य फसलों के साथ की जाती है (जिस प्रक्रिया को इंटरक्रॉपिंग (Intercropping के रूप में जाना जाता है)।
वार्षिक वर्षा: इसे प्रति माह न्यूनतम 90-100 मिमी. वर्षा की आवश्यकता होती है, जबकि 1,500-2,000 मिमी वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है।
वर्षा के समान वितरण के साथ समतापूर्ण जलवायु आवश्यक है तथा लंबे समय तक शुष्क मौसम के दौरान सिंचाई की आवश्यकता पड़ सकती है।
काली फली रोग (Black Pod Disease)
यह कोको को प्रभावित करने वाली प्राथमिक रोगों में से एक है।
यह फाइटोफ्थोरा पाल्मिवोरा (Phytophthora Palmivora) नामक कवक के कारण होता है।
यह रोग आमतौर पर मानसून के मौसम में होता है।
संक्रमित फलियों का रंग हल्का भूरा हो जाता है, जिसके कारण कोको बीन्स की गुणवत्ता खराब हो जाती है।
निवारण हेतु उपाय: कोको में काली फली रोग को रोकने के लिए फाइटोसैनिटेशन (Phytosanitation) और रोगनिरोधी (Prophylactic) दवा के साथ 1% बोर्डो (Bordeaux) को मिलाकर छिड़काव किया जाता है।
आदर्श तापमान: इसके उत्पादन के लिए आदर्श तापमान 15°-39°C है, जिसमें 25°C तापमान को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
अनुकूल मिट्टी: कोको की अधिकांश खेती वाले क्षेत्रों में चिकनी दोमट और बलुई दोमट मिट्टी की उपलब्धता है।
छाया की जरूरत (Shade Requirements): व्यावसायिक स्तर पर कोको की खेती के लिए लगभग 50% सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है।
भारत में कोको का उत्पादन
भारत में कोको मुख्य रूप से कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में उगाया जाता है तथा आमतौर इसका उत्पादन सुपारी और नारियल के साथ एक माध्यमिक फसल के रूप में किया जाता है।
अनुकूल वातावरण
भारत में कोको की खेती खासकर नारियल और सुपारी के बगीचों में आसानी से की जाती है।
यह वातावरण कोको के उत्पादन के लिए अनुकूलतम परिस्थितियाँ प्रदान करता है।
सूर्य के प्रकाश की पहुँच
सुपारी के बगीचे में सूर्य का 30-50% प्रकाश ही जमीन तक पहुँचता है।
कोको के पौधों को इस विशिष्ट मात्रा में सूर्य के प्रकाश का लाभ होता है, जो उनकी वृद्धि और उत्पादन में सहायक है।
कोको की कीमतों को प्रभावित करने वाले कारक
जलवायु कारक
अल नीनो का प्रभाव (El Nino Influence): वर्तमान समस्या का तात्कालिक कारण पश्चिम अफ्रीकी देशों घाना और आइवरी कोस्ट में खराब मौसम है, जहाँ से दुनिया भर में 60% कोको बीन्स का निर्यात किया जाता है।
अल नीनो के कारण पश्चिम अफ्रीकी कोको उत्पादक क्षेत्रों में वर्षा आवश्यकता से अधिक हुई, जिसके कारण काली फली रोग (Black Pod Disease)का प्रसार हुआ है, परिणामस्वरूप फसल की पैदावार में कमी आई है।
अंतरराष्ट्रीय कोको संगठन ने वर्ष 2023-2024 में लगभग 3,74,000 टन कोको बीन्स की कमी का अनुमान लगाया है, जबकि पिछले साल 74,000 टन की कमी थी।
जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान के कारण गर्म हवाएँ, सूखा और अनियमित वर्षा हो रही है, जिसके कारण कोको के पौधे बीमारियों और पर्यावरणीय घटनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हुए हैं, फलस्वरूप पैदावार में नुकसान हुआ है।
किसानों के लिए आर्थिक चुनौतियाँ
किसानों की कम आय: पश्चिम अफ्रीका में कोको उत्पादन से जुड़े किसानों की आय काफी कम है, सामान्य तौर पर किसानों को प्रति दिन 1.25 डॉलर से भी कम आय प्राप्त होती है, फलस्वरूप यह स्थिति खेतों में निवेश करने और उत्पादकता में सुधार करने की उनकी क्षमता में बाधा उत्पन्न करती है।
यह संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित प्रतिदिन 2.15 डॉलर की गरीबी रेखा से भी बहुत कम है।
परिणामस्वरूप कोको कृषि क्षेत्रों में दासता और बाल श्रम का व्यापक उपयोग हो रहा है और किसान अपनी जमीन अवैध सोना खनन करने वालों को बेचने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
गरीबी चक्र (Poverty Cycle): कोको किसानों का गरीबी चक्र उनके शोषण का महत्त्वपूर्ण कारण है, जो उन्हें आधुनिक कृषि पद्धतियों को अपनाने या जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने में बाधा डालती है।
ऑक्सफैम द्वारा जारी वर्ष 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, घाना में लगभग 90% किसान भोजन, कपड़े, आवास और चिकित्सा देखभाल जैसी बुनियादी जरूरतों का खर्च वहन करने में असक्षम हैं।
देश भर के 400 किसानों के बीच एक सर्वेक्षण किया गया था, जिसका परिणाम चिंताजनक है। वर्ष 2020 के बाद से इन किसानों की औसत आय में 16% की कमी आई है, जबकि महिला किसानों की आय में लगभग 22% की गिरावट देखी गई है।
महामारी के बाद से दस में से नौ किसानों की आर्थिक स्थिति खराब होने की सूचना है।
उद्योग की प्रथाएँ
उचित मुआवजे का अभाव: प्रमुख चॉकलेट कंपनियाँ उपभोक्ता कीमतों को कम करने को प्राथमिकता देती हैं, जिसके कारण वे कोको किसानों की आजीविका में सुधार के लिए न्यूनतम निवेश करते हैं।
सतत् खेती की चुनौतियाँ (Sustainable Farming Challenges): कम आय और सीमित संसाधनों के साथ कोको किसान को सतत् कृषि पद्धतियों को अपनाने या जलवायु परिवर्तन की स्थिति में अधिक निवेश करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
शोषणकारी प्रथाएँ (Exploitative Practices): पर्याप्त लाभ के बावजूद, चॉकलेट कंपनियों ने कोको किसानों की दुर्दशा को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया है, परिणामस्वरूप वे निरंतर शोषण और गरीबी का शिकार हो रहे हैं।
संभावित वृद्धि: जब तक उद्योग के संचालन के तरीके में पर्याप्त बदलाव नहीं किया जाता है, कोको की कीमत की समस्या बनी रहने की उम्मीद है। इससे किसानों का शोषण बढ़ सकता है तथा संभावित रूप से चॉकलेट की कीमतें भी बढ़ेंगी।
Latest Comments