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धर्म आधारित आरक्षण: मुस्लिम कोटा विवाद

Lokesh Pal May 08, 2024 05:15 119 0

संदर्भ

हाल ही में भारत में धर्म आधारित आरक्षण, विशेष रूप से मुस्लिम कोटा से संबंधित बुनियादी संवैधानिक सवालों पर चर्चा शुरू हो गई है।

संबंधित तथ्य 

  • हाल ही में, वर्ष 2004 में आंध्र प्रदेश में मुसलमानों को दिए गए 5% आरक्षण कोटा के मुद्दे ने भी धर्म आधारित आरक्षण को लेकर बहस पुनः शुरू कर दी है।

औपचारिक समानता (Formal equality)

  • इसका संबंध उपचार की समानता (Equality of Treatment) से है, परिणामों की परवाह किए बिना सभी के साथ समान व्यवहार करना, जो कभी-कभी ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों के लिए गंभीर असमानताओं का कारण बन सकता है।

मौलिक समानता (Substantive Equality)

  • इसका संबंध परिणामों की समानता से है।
  • स्वीकारात्मक कार्रवाई मौलिक समानता के इस विचार को बढ़ावा देती है।

धर्म आधारित आरक्षण पर संवैधानिकता

  • समता बनाम समानता: भारतीय संविधान समानता से आगे बढ़कर समता सुनिश्चित करता है, ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों के लिए विभेदक व्यवहार या विशेष उपायों की अनुमति देता है।
    • समानता की क्रियाशील अवधारणा: ई. पी. रॉयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य, 1973 मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि समानता कई पहलुओं एवं आयामों वाली एक क्रियाशील अवधारणा है और इसे पारंपरिक एवं सैद्धांतिक सीमाओं के भीतर ‘कैद एवं सीमित’ नहीं किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद-16(4) और 15(4): ये अनुच्छेद स्टेट को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सहित पिछड़े वर्गों और सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के पक्ष में आरक्षण के प्रावधान करने का अधिकार देते हैं।
    • अनुच्छेद-15 विशेष रूप से स्टेट को केवल धर्म और जाति (लिंग, नस्ल और जन्म स्थान के साथ) दोनों के आधार पर नागरिकों के खिलाफ भेदभाव करने से रोकता है।
    • गैर-भेदभाव खंड: केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस (1975) में उच्चतम न्यायालय के फैसले में, आरक्षण को अनुच्छेद-15(1) और 16(1) के समानता/गैर-भेदभाव खंड का अपवाद नहीं माना जाता है, बल्कि समानता के विस्तार के रूप में माना जाता है।
      • अनुच्छेद-15 और अनुच्छेद-16 में महत्त्वपूर्ण शब्द ‘केवल’ है- जिसका अर्थ है कि यदि कोई धार्मिक, नस्लीय या जाति समूह अनुच्छेद-46 के तहत ‘संवेदनशील वर्ग’ के तहत आता है या पिछड़े वर्ग के तहत आता है यह सामाजिक आर्थिक विकास के लिए विशेष प्रावधानों का हकदार होगा।

क्या कभी मुसलमानों को अनुसूचित जाति (SCs), अनुसूचित जनजाति (STs) या अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) का कोटा कम करके आरक्षण दिया गया है?

  • कुछ मुस्लिम जातियों को आरक्षण इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि वे मुस्लिम थे, बल्कि इसलिए कि ये जातियाँ पिछड़े वर्ग में शामिल थीं और OBC के भीतर एक उप-कोटा बनाकर SC, ST और OBC के लिए कोटा कम किए बिना आरक्षण दिया गया था।

कुछ राज्यों में धर्म आधारित आरक्षण

  • केरल: मुसलमानों को OBC श्रेणी में शामिल किया गया, जिससे समग्र OBC आरक्षण के भीतर एक उप-कोटा बन गया।
    • मुस्लिम उप-कोटा धर्म-आधारित आरक्षण पहली बार वर्ष 1936 में त्रावणकोर-कोचीन राज्य में शुरू किया गया था।
    • वर्ष 1956 में केरल राज्य के गठन के बाद, सभी मुसलमानों को आठ उप-कोटा श्रेणियों में से एक में शामिल किया गया था और OBC कोटा के भीतर 10% (अब 12%) का एक उप-कोटा बनाया गया था।
  • कर्नाटक: वर्ष 1995 में, OBC कोटा के भीतर 4% मुस्लिम आरक्षण लागू किया गया।
    • OBC की केंद्रीय सूची में शामिल 36 मुस्लिम जातियों को कोटा में शामिल किया गया था।
  • तमिलनाडु: वर्ष 2007 में कानून के आधार पर, 30% OBC कोटा के भीतर आरक्षण प्रदान किया गया, जो 3.5% आरक्षण के साथ मुसलमानों की एक उपश्रेणी है।
    • इसमें उच्च जाति के मुसलमान शामिल नहीं थे।
    • इस अधिनियम में कुछ ईसाई जातियों को आरक्षण दिया गया था, लेकिन बाद में ईसाइयों की ही माँग पर इस प्रावधान को हटा दिया गया। 
  • आंध्र प्रदेश और तेलंगाना: 112 अन्य समुदायों/जातियों के साथ मुसलमानों को आरक्षण देने का सवाल वर्ष 1994 में आंध्र प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग को भेजा गया था।
    • वर्ष 2004 में, मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन पर अल्पसंख्यक कल्याण आयुक्त की एक रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने पूरे समुदाय को पिछड़ा मानकर 5% आरक्षण दिया।
    • हालाँकि, बाद में उच्च न्यायालय ने तकनीकी आधार पर कोटा रद्द कर दिया।
      • पिछड़ा वर्ग के लिए आंध्र प्रदेश आयोग के साथ अनिवार्य परामर्श नहीं किया गया था।
      • यह भी माना गया कि अल्पसंख्यक कल्याण रिपोर्ट कानून की दृष्टि से खराब थी क्योंकि इसमें पिछड़ेपन का निर्धारण करने के लिए कोई मानदंड नहीं रखा गया था।
    • इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती का सामना करना पड़ा, जिसने वर्ष 2010 में मामले की पूरी सुनवाई एवं निर्णय होने तक मौजूदा स्थिति को बनाए रखने का आदेश दिया।
    • तेलंगाना में: वर्ष 2014 में आंध्र प्रदेश के विभाजन के बाद, तेलंगाना में TRS सरकार ने वर्ष 2017 में जी. सुधीर आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट के आधार पर OBC मुसलमानों के लिए 12% आरक्षण का प्रस्ताव करते हुए एक कानून पारित किया।

धर्म के आधार पर आरक्षण पर उच्चतम न्यायालय के कुछ अन्य निर्णय

  • एम. आर. बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1962) में, न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि- 
    • अनुच्छेद-15(4) या 16(4) के तहत लाभ प्रदान करने के उद्देश्य से ‘मुसलमानों या उस मामले में ईसाई और सिख आदि को बाहर नहीं रखा गया है’।
    • यह संभावना नहीं है कि कुछ राज्यों में कुछ मुस्लिम या ईसाई या जैन समूह वाले लोग सामाजिक रूप से पिछड़े हो सकते हैं। 
  • इंदिरा साहनी (1992) मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि कोई भी सामाजिक समूह, चाहे उसकी पहचान का कोई भी चिह्न हो, यदि अन्य के समान मानदंडों के तहत पिछड़ा पाया जाता है, तो वह पिछड़ा वर्ग के रूप में माने जाने का हकदार होगा।
  • टी मुरलीधर राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, वर्ष 2004 मामले में, न्यायालय ने कहा कि ‘मुसलमानों या उनके वर्गों/समूहों के लिए आरक्षण, किसी भी तरह से धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ नहीं है, जो संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है

समिति की सिफारिशें और कार्यकारी आदेश

  • सच्चर और मिश्रा पैनल
    • न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर समिति (2006) ने पाया कि समग्र रूप से मुस्लिम समुदाय लगभग SC और ST के समान ही पिछड़ा है और गैर-मुस्लिम OBC की तुलना में अधिक पिछड़ा है।
      • मुसलमानों सहित अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का सुझाव दिया।
    • न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा समिति (2007) ने अल्पसंख्यकों के लिए 15% आरक्षण का सुझाव दिया, जिसमें मुसलमानों के लिए 10% आरक्षण शामिल था।
  • मंडल आयोग ने कई राज्यों द्वारा प्रस्तुत उदाहरण का अनुसरण करते हुए कई मुस्लिम जातियों को OBC की सूची में शामिल किया।
  • UPA सरकार ने वर्ष 2012 में एक कार्यकारी आदेश जारी कर 27% के मौजूदा OBC कोटा के भीतर न केवल मुसलमानों को बल्कि अल्पसंख्यकों को भी 4.5% आरक्षण प्रदान किया लेकिन इसे कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

भारत में धर्म-आधारित आरक्षण के पक्ष में तर्क

  • समानता को बढ़ावा देना: आरक्षण की अवधारणा का उद्देश्य समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों को उचित एवं समान अवसर प्रदान करना है।
    • धर्म के आधार पर आरक्षण लागू करने से इस सिद्धांत का विस्तार उन धार्मिक अल्पसंख्यकों तक हो सकता है, जो ऐतिहासिक रूप से शिक्षा और वित्तीय स्थिरता में पीछे हैं।
  • संवैधानिक आदेश: भारतीय संविधान का अनुच्छेद-15(1) धर्म के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। नैनसुलेह दास बनाम उत्तर प्रदेश राज्य जैसे मामलों में उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया है कि यह संवैधानिक प्रावधान सभी राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों तक विस्तृत है।
    • संविधान के अनुच्छेद-341 और वर्ष 1950 के राष्ट्रपति आदेश में कहा गया है कि केवल हिंदू ही SC में शामिल होने के हकदार हैं। हालाँकि वर्ष 1956 में सिखों को और वर्ष 1990 में बौद्धों को SC में शामिल किया गया था। मुस्लिम और ईसाई अभी भी बाहर हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि यह भी ‘धर्म-आधारित’ आरक्षण है।
  • सशक्तीकरण और सामाजिक उत्थान: धर्म आधारित आरक्षण संभावित रूप से उन धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्थान कर सकता है, जो सामाजिक-आर्थिक असमानताओं का सामना करते हैं।
    • असमानता का समाधान: धार्मिक अल्पसंख्यकों के सामने आने वाली अनूठी चुनौतियों को पहचानकर, धर्म आधारित आरक्षण प्रणालीगत असमानताओं को संबोधित कर सकता है। ऐसे उपाय विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में अंतर को कम करने में मदद कर सकते हैं।

भारत में धर्म आधारित आरक्षण के विरुद्ध तर्क

  • सामाजिक सद्भाव के लिए खतरा: धर्म के आधार पर आरक्षण लागू करने से सामाजिक अशांति और समाज के भीतर विभाजन हो सकता है।
    • एक धर्म को दूसरे धर्म से अधिक महत्त्व देना विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच अविश्वास उत्पन्न कर सकता है और सामाजिक एकता को कमजोर कर सकता है।
  • धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करना: आलोचकों का तर्क है कि धर्म के आधार पर आरक्षण की पेशकश भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत के विपरीत है, जो राज्य द्वारा सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार को बढ़ावा देता है।
    • धर्म के आधार पर आरक्षण देना भारतीय संविधान के मूलभूत सिद्धांतों के विपरीत है, जिसकी सिफारिश डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने की थी
      • भारत का संविधान समानता पर जोर देता है तथा धर्म के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है, जिससे धर्म आधारित आरक्षण असंवैधानिक हो जाता है।
  • धर्मांतरण का जोखिम: धर्म आधारित आरक्षण अनजाने में धार्मिक रूपांतरण को बढ़ावा दे सकता है क्योंकि व्यक्ति आरक्षण नीतियों से लाभ उठाना चाहते हैं।
    • इससे विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच तनाव और बढ़ सकता है और धर्मनिरपेक्ष मूल्य कमजोर हो सकते हैं।
  • सामाजिक-आर्थिक कारकों की अनदेखी: धर्म पर आधारित आरक्षण धार्मिक समुदायों के भीतर विविध सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं की अनदेखी करता है।
    • गरीबी और असुविधा सभी धर्मों में मौजूद है और केवल धार्मिक पहचान के आधार पर आरक्षण देना वंचित पृष्ठभूमि के व्यक्तियों की सूक्ष्म आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहता है।

निष्कर्ष 

हालाँकि धर्म आधारित आरक्षण से धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने में संभावित लाभ हो सकते हैं, वे सामाजिक सद्भाव, संवैधानिक मूल्यों और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के समग्र समाधान के लिए महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ भी उत्पन्न करते हैं।

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