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भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली

Lokesh Pal May 27, 2024 02:34 209 0

संदर्भ 

हाल ही में एक 17 वर्षीय लड़के को अपनी तेज रफ्तार पोर्श कार से दो लोगों को कुचलने के आरोप में हिरासत में लिए जाने के 15 घंटे के भीतर पुणे के एक न्यायालय द्वारा दी गई जमानत पर रिहा कर दिया गया।

संबंधित तथ्य

  • इस घटना से यह बात सामने आती है कि कैसे देश में सर्वाधिक सड़क दुर्घटनाएँ और मौतें शराब पीकर गाड़ी चलाने के कारण होती हैं।
  • यह आपराधिक न्याय प्रणाली, मुकदमों में देरी और किशोर अपराधियों से अपर्याप्त तरीके से निपटने के मुद्दों पर भी प्रकाश डालता है और त्वरित एवं प्रभावी न्याय सुधारों का आह्वान करता है।

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में

  • भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली भारतीय दंड संहिता (IPC) पर आधारित है, जिसे वर्ष 1860 में अधिनियमित किया गया था। यह संहिता देश में आपराधिक गतिविधियों को नियंत्रित करने वाले कानूनों एवं प्रक्रियाओं को निर्धारित करती है।
    • लॉर्ड थॉमस बबिंग्टन मैकाले (Lord Thomas Babington Macaulay) ने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के आपराधिक कानूनों को संहिताबद्ध किया और उन्हें भारत में आपराधिक कानूनों के संहिताकरण का मुख्य वास्तुकार माना जाता है।
  • घटक: भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली पुलिस, न्यायपालिका और सुधारात्मक प्रणाली से मिलकर गठित की गई है।
    • पुलिस: यह अपराध से प्रभावित लोगों के लिए संपर्क का पहला बिंदु है और अपराधियों की जाँच करने तथा उन्हें गिरफ्तार करने के लिए जिम्मेदार है।
    • न्यायपालिका: यह परीक्षणों और सजा के माध्यम से न्याय देने के लिए जिम्मेदार है।
    • सुधारात्मक प्रणाली: यह अपराधियों के पुनर्वास और यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है कि वे दोबारा अपराध न करें।
  • उद्देश्य 
    • न्याय प्रदान करना: यह सुनिश्चित करना कि न्याय मिले। साथ ही दोषियों को सजा मिले और जिनके साथ अन्याय हुआ है उन्हें मुआवजा मिले।
    • सुरक्षा प्रदान करना: यह जनता को सुरक्षा की भावना प्रदान करता है, क्योंकि अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाया जाता है।
      • यह अपराध निवारक के रूप में भी कार्य करता है, क्योंकि अपराधियों को उनके कार्यों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है।
    • अधिकारों की सुरक्षा: यह अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा करने और पीड़ितों को न्याय प्रदान करने के लिए भी जिम्मेदार है। यह सुनिश्चित करना कि आपराधिक गतिविधियों के आरोपियों के साथ उचित व्यवहार किया जाए और उन्हें उनके उचित अधिकार दिए जाएँ।
      • यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि समाज के हितों की रक्षा की जाए और जनता को आपराधिक गतिविधियों से बचाया जाए।
  • अधिदेश: आपराधिक न्याय प्रणाली यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है कि अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाया जाए और पीड़ितों को न्याय प्रदान किया जाए।
    • यह प्रणाली यह भी सुनिश्चित करती है कि आपराधिक गतिविधियों के आरोपियों के साथ उचित व्यवहार किया जाए और उन्हें उनके उचित अधिकार दिए जाएँ।
  • सजा का प्रावधान: भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली IPC के अनुसार, सजा का प्रावधान करती है। आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा दी जाने वाली सजाओं के प्रकार, अपराध की गंभीरता के आधार पर भिन्न-भिन्न होते हैं। आम तौर पर, सजाओं को तीन मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है: कारावास, जुर्माना और मृत्युदंड।
    • कारावास (Imprisonment): यह सजा का सबसे सामान्य रूप है और इसका उपयोग अपराधियों के सुधार एवं पुनर्वास के साधन के रूप में किया जाता है।
    • जुर्माना: यह भी सजा का एक रूप है और अपराधियों को आगे अपराध करने से रोकने के लिए उन पर लगाया जाता है।
    • मृत्युदंड: यह हत्या और दुष्कर्म जैसे सबसे गंभीर अपराधों के लिए आरक्षित है। 
      • यह सजा का एक विवादास्पद रूप है और कुछ लोग इसे सजा के क्रूर एवं असामान्य रूप के रूप में देखते हैं।

आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार से जुड़ी समितियाँ

  • वोहरा समिति, 1993: इसने सिफारिश की थी कि विभिन्न स्रोतों से खुफिया जानकारी एकत्र करके और उचित कार्रवाई करके आपराधिक न्याय प्रणाली के मुद्दों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए एक संस्था की स्थापना की जाए।
  • मलिमथ समिति, 2003: इसने आपराधिक न्याय प्रणाली के मुद्दों से निपटने के लिए विभिन्न सिफारिशें कीं, जैसे कि छोटे-मोटे उल्लंघनों के लिए ‘सामाजिक कल्याण अपराध‘ नामक अपराधों की एक नई श्रेणी शुरू करना, जिसे जुर्माना लगाकर या सामुदायिक सेवा द्वारा निपटाया जा सकता है।
  • माधव मेनन समिति, 2007: इसका गठन आपराधिक न्याय पर एक राष्ट्रीय नीति का मसौदा तैयार करने के लिए किया गया था। इसने सुधार प्रक्रिया को निर्देशित करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों एवं रणनीतियों का सुझाव दिया जैसे कि आपराधिक न्याय के हर चरण में मानवीय गरिमा और मानवाधिकारों के लिए सम्मान सुनिश्चित करना।

भारत में शराब पीने की कानूनी उम्र और नशे में गाड़ी चलाने पर नियमों के बारे में

  • निश्चित नहीं: भारत में अलग-अलग राज्यों के कानूनों के अनुसार, शराब पीने की कानूनी उम्र 18 से 25 वर्ष के बीच है।
    • उदाहरण: गुजरात, बिहार, नागालैंड और मणिपुर जैसे कुछ राज्यों ने शराब पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया है। हरियाणा, गोवा और अन्य में शराब पीने की कानूनी उम्र 25 वर्ष है, जबकि अन्य राज्य 21 वर्ष या उससे अधिक उम्र वालों को शराब पीने की अनुमति देते हैं।

  • विनियम: मोटर वाहन अधिनियम 1988, जिसे वर्ष 2019 में संशोधित किया गया, में नशे में गाड़ी चलाने के खतरे को संबोधित करने के प्रावधान शामिल हैं। 
    • इस अधिनियम की धारा 185 विशेष रूप से शराब या नशीली दवाओं के प्रभाव में गाड़ी चलाने, अपराधियों के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश और दंड निर्धारित करने से संबंधित है।

किशोर के लिए नियम एवं सजा

  • किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015: यह जघन्य अपराधों के आरोपी 16-18 वर्ष के बच्चों पर भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत वयस्कों के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति देता है।
  • अभिभावकों पर दायित्व: मोटर वाहन अधिनियम की धारा 199A के अनुसार, जहाँ किसी किशोर ने अपराध किया है, वहाँ नाबालिग के अभिभावक या मोटर वाहन के मालिक को उल्लंघन का दोषी माना जाएगा और सजा के लिए उत्तरदायी होगा।
  • अन्य सजा के रूप में: अभिभावक को 3 वर्ष तक की कैद और 25,000 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा। अपराध के लिए प्रयुक्त मोटर वाहन का पंजीकरण 12 महीने के लिए रद्द कर दिया जाएगा।

    • किशोर को धारा 9 के अंतर्गत ड्राइविंग लाइसेंस या धारा 8 के तहत शिक्षार्थी लाइसेंस तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि वह 25 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता।
    • किशोर को अधिनियम में दिए गए जुर्माने से दंडित किया जाएगा, जबकि किसी भी हिरासत की सजा को किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के प्रावधानों के अनुसार संशोधित किया जा सकता है।
      • यह बदलाव एक संसदीय पैनल द्वारा यातायात अपराधों के लिए उच्च दंड का सुझाव देने के बाद प्रस्तुत किया गया था। पैनल ने शराब पीकर गाड़ी चलाने से होने वाली दुर्घटनाओं को ‘लापरवाही’ के मामलों के बजाय पूर्व-निर्धारित अपराध मानने की सिफारिश की थी।

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली के मुद्दे

  • फैसले में देरी: भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को फैसले देने में वर्षों लग जाते हैं और लंबी देरी से कानून के प्रति सम्मान कम हो जाता है।
    • उदाहरण: वर्ष 2002 में फिल्म अभिनेता सलमान खान के साथ एक दुर्घटना हुई। 13 वर्ष बाद आरोपी को बरी कर दिए जाने के साथ मामला समाप्त हो गया।
    • 2nd ARC में बताया गया कि भारत में पुलिस-पब्लिक संबंध असंतोषजनक हैं क्योंकि लोग पुलिस को भ्रष्ट, अक्षम और अनुत्तरदायी मानते हैं तथा अक्सर उनसे संपर्क करने में संकोच करते हैं।
  • कमजोर अभियोजन: देरी के परिणामस्वरूप जब मुकदमे अंततः शुरू होते हैं तो पुलिस गवाहों का पता लगाने में सक्षम नहीं होती है और नागरिकों को न्यायालयों में घटनाओं का क्रम याद नहीं रहता है। इनसे आपराधिक मामलों की पैरवी को नुकसान पहुँचता है।
    • आम धारणा यह है कि जहाँ भारत में न्यायिक प्रक्रियाएँ समय लेने वाली और बोझिल हैं, वहीं कई अपराधी छूट जाते हैं। 
    • जाँच और अभियोजन एजेंसियाँ अक्सर संपूर्ण, निष्पक्ष और पेशेवर जाँच करने में विफल रहती हैं। उन्हें राजनीतिक और अन्य प्रभावों के हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार तथा जवाबदेही की कमी का सामना करना पड़ता है।
  • कम दोषसिद्धि दरें (Low Conviction Rates): राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau- NCRB) द्वारा प्रकाशित क्राइम इन इंडिया (2022) के अनुसार, लापरवाही से गाड़ी चलाने और हिट एंड रन के कारण होने वाली मौतों के 90% से अधिक मामले न्यायालयों में लंबित हैं और महानगरीय शहरों में सजा की दर 30% से भी कम है।
  • अपर्याप्त प्रतिनिधित्व: दिसंबर 2023 में, संसद को सूचित किया गया कि भारत में प्रति दस लाख की आबादी पर 21 न्यायिक अधिकारी हैं, जबकि विधि आयोग (1987) की प्रति दस लाख की आबादी पर 50 न्यायाधीशों की सिफारिश है।
    • इसी प्रकार, पुलिस जनसंख्या अनुपात लगभग 152 प्रति लाख नागरिक है, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत मानदंड लगभग 222 प्रति लाख है।
    • हाल ही में ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (Bureau of Police Research and Development) द्वारा जारी ‘1 जनवरी, 2022 तक पुलिस संगठन पर डेटा‘ देश में पुलिस कर्मियों की लगभग चार लाख रिक्तियों को दर्शाता है।
  • बुनियादी ढाँचे के निर्माण पर कोई प्राथमिकता नहीं: राज्य और केंद्र सरकारें त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक बुनियादी ढाँचे में निवेश नहीं कर रही हैं।
    • आपराधिक न्याय प्रणाली अपर्याप्त धन, जनशक्ति और सुविधाओं से ग्रस्त है। न्यायाधीशों, अभियोजकों, पुलिस कर्मियों, फोरेंसिक विशेषज्ञों और कानूनी सहायता वकीलों की कमी है।
  • सार्वजनिक जाँच में किशोर न्याय बोर्डों की भूमिका: अभी भी किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 का प्रावधान है, जो जघन्य अपराधों के आरोपी 16-18 वर्ष के बच्चों पर वयस्कों के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति देता है, बोर्ड उदारता दिखाता है।
    • उदाहरण: पुणे के इस मामले में, उन्होंने आरोपी युवक को कुछ ही घंटों में रिहा कर दिया और उससे दुर्घटनाओं पर एक निबंध लिखने, 15 दिनों के लिए ट्रैफिक पुलिस के साथ काम करने और शराब पीने के विरुद्ध परामर्श लेने को कहा।

आगे की राह

  • क्षमता निर्माण: आपराधिक न्याय प्रणाली को मजबूत करने के लिए प्रशिक्षण, भर्ती और बुनियादी ढाँचे में निवेश किया जाना चाहिए।
    • कम अनुपात और रिक्तियों की उच्च दर के बावजूद, राज्य पुलिस संगठनों द्वारा आपराधिक मामलों का निपटान तेजी से होता है और अधिक प्रतिनिधित्व द्वारा गुणवत्ता में और सुधार किया जा सकता है।
  • तकनीकी उन्नति: अधिक जाँच अधिकारियों और अभियोजकों, प्रौद्योगिकी के उपयोग में उनके नियमित प्रशिक्षण और अच्छी तरह से सुसज्जित फोरेंसिक प्रयोगशालाओं को पता लगाने की दर, बेहतर गुणवत्ता वाली जाँच और आरोपियों की सजा में सुधार के लिए आवश्यक है।
    • आपराधिक न्याय प्रक्रिया में प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ाने की आवश्यकता है, जिसमें डिजिटल साक्ष्य संग्रह, ऑनलाइन कार्यवाही और त्वरित सुनवाई के लिए वीडियो-रिकॉर्ड किए गए बयान, बैकलॉग कम करना आदि शामिल हैं।
    • उदाहरण: ई-कोर्ट परियोजना का उद्देश्य भारत में न्यायालयों के कामकाज को कंप्यूटरीकृत करना और न्यायिक प्रणाली को अधिक कुशल बनाना है।
    • सुप्रीम कोर्ट विधिक अनुवाद सॉफ्टवेयर (Supreme Court Vidhik Anuvaad Software- SUVAS) और न्यायालय की दक्षता में सहायता के लिए सुप्रीम कोर्ट पोर्टल (Supreme Court Portal for Assistance in Court’s Efficiency- SUPACE)। 
      • SUVAS आदेशों/निर्णयों को स्थानीय भाषाओं में परिवर्तित करने के लिए एक AI-सक्षम अनुवाद उपकरण है, जबकि SUPACE को AI अनुसंधान सहायक उपकरण के रूप में कार्य करने के लिए विकसित किया जा रहा है। 
  • संबंधित प्राधिकारी द्वारा सख्त कार्रवाई: किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के प्रावधान के अनुसार, किशोरों द्वारा गंभीर अपराधों को सख्त उपायों से सँभालना आवश्यक है।
  • कानून का शासन और जवाबदेही: नागरिकों को यातायात नियमों का पालन करने और जिम्मेदारी से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। कानून को सख्ती से लागू करने की जरूरत है, जिसके परिणामस्वरूप कानून का सम्मान होगा और माता-पिता को नाबालिगों को कार की चाबियाँ सौंपने से डरना होगा और बारटेंडरों को उन्हें शराब परोसने में भी उतनी ही सावधानी बरतनी होगी।
  • तत्काल कार्रवाई: लंबी देरी को कम करने के लिए तत्काल कार्रवाई करने का समय आ गया है। साथ ही, राज्य और केंद्र सरकारों को त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक बुनियादी ढाँचे में निवेश करने की आवश्यकता है।
    • यह कानून के प्रति सम्मान पैदा करेगा और बढ़ाएगा।
  • मानवाधिकारों के लिए सुरक्षा उपाय: संभावित दुरुपयोग को रोकने के लिए स्पष्ट शब्दों के साथ मानवाधिकार सिद्धांतों और सुरक्षा उपायों को स्पष्ट रूप से शामिल करने और अस्पष्ट शर्तों को कम करने की आवश्यकता है।
  • सार्वजनिक जागरूकता पैदा करना: आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर जनता को उनके अधिकारों और जिम्मेदारियों के बारे में शिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान वांछनीय हैं और पुलिस-पब्लिक संबंधों को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक हैं।

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