100% तक छात्रवृत्ति जीतें

रजिस्टर करें

वन संरक्षण के लिए जनजातीय समुदाय की भूमिका

Lokesh Pal May 28, 2024 03:38 451 0

संदर्भ

हाल ही में भारतीय राष्ट्रपति ने वनों को संरक्षित करने के लिए जनजातीय समुदायों के प्रयासों के महत्त्व पर प्रकाश डाला, क्योंकि सदियों से उनके द्वारा संचित सामूहिक ज्ञान, पारिस्थितिकी रूप से टिकाऊ मार्ग पर आगे बढ़ने में मदद कर सकता है।

संबंधित तथ्य 

  • जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौती के कारण, उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में निर्णय दिया कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद-14 और अनुच्छेद-21 के तहत एक मौलिक अधिकार है।

भारत में जनजातियाँ

  • परिभाषित नहीं: भारतीय संविधान में ‘जनजाति’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद-342 राष्ट्रपति को अनुसूचित जनजातियों को निर्दिष्ट करने का अधिकार देता है।
  • पाँचवीं अनुसूची जनजातियों की सलाहकार परिषदों की स्थापना करती है। यह अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करती है।
  • राष्ट्रीय जनजातीय नीति, 2006 के मसौदे के अनुसार, भारत में 698 अनुसूचित जनजातियाँ हैं।
    • भील सबसे बड़ा आदिवासी समूह है, जिसके बाद गोंड आते हैं।
    • भारत में सबसे अधिक आदिवासी आबादी मध्य प्रदेश में हैं।
    • संथाल भारत का सबसे पुराना आदिवासी समूह है।

वन पारिस्थितिकी तंत्र के लिए जनजातीय समुदायों द्वारा महत्त्वपूर्ण योगदान

  • सतत् कृषि एवं मत्स्यपालन पद्धतियाँ
    • अपातानी जनजाति: अरुणाचल प्रदेश के जीरो घाटी जैसे क्षेत्रों में अपातानी जनजातियाँ चावल की खेती की अपनी सतत् कृषि प्रथाओं के लिए जानी जाती हैं।
      • खेतों की सिंचाई के लिए पहाड़ियों से खोदी गई नहरों एवं नालों से जुड़ी नहरों का उपयोग किया जाता है। जैविक अपशिष्ट और फसल अवशेषों के पुनर्चक्रण से मृदा की उर्वरता बनी रहती है। 
      • इसी तरह, हिमालयी गिलहरी जैसी देशज वन्य जीव आबादी को ‘दापो’ नामक एक तंत्र के माध्यम से संरक्षित किया जाता है, जहाँ समुदाय का मुखिया शिकार और निष्कर्षण पर नियम बनाता है, जिसका पालन न करने पर दंड हो सकता है।
    • कदार: तमिलनाडु के कदार पौधे के परिपक्व तने से ही फल और सब्जियाँ तोड़ते हैं, जिन्हें बाद में काटकर भविष्य की फसल के लिए दोबारा लगाया जाता है। 
    • इरुला, मुथुवा और मलयाली: दक्षिण भारत की ये जनजातियाँ मिश्रित फसल प्रणाली का पालन करती हैं, जिसमें एक विशिष्ट क्षेत्र में एक साथ कई प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं।
      • इससे जल स्तर और मृदा पोषक तत्त्वों के अतिदोहन को रोका जा सकता है, क्योंकि विभिन्न फसलों की आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं और इसके अतिरिक्त, मृदा क्षरण को भी रोका जा सकता है।
    • गोंड, प्रधान और बैगा: मध्य प्रदेश के ये समुदाय उतेरा (Utera) खेती करते हैं।
      • उतेरा खेती: यह एक ऐसी विधि है, जिसमें प्राथमिक फसलों की कटाई से पहले धान के खेतों में अगले बीज बो दिए जाते हैं ताकि भूमि के सूखने से पहले मिट्टी से मौजूदा नमी का उपयोग किया जा सके।
      • वे बादी फसल प्रणाली (Badi Cropping System) का भी पालन करते हैं, जिसमें फलों की फसलें एवं पेड़ लगाए जाते हैं, जो सूखे और भारी वर्षा से बचाव करते हैं और मृदा के कटाव को रोकते हैं।
      • मल्चिंग, अवशेषों के लिए पत्तियों को जलाना और जड़ों एवं ठूँठ को बनाए रखना मृदा की उर्वरता और पोषक चक्रण को बनाए रखने की अनुमति देता है।
    • वांचो (Wancho) और नोक्टे (Nocte): अरुणाचल प्रदेश की ये जनजातियाँ बाँस, पत्थर, नारियल की जटाएँ और पेड़ की शाखाओं का उपयोग करके नदियों में अवरोध उत्पन्न करती हैं, जिसमें मछलियाँ फँस जाती हैं और फिर उन्हें इकट्ठा करके समुदायों में बाँट दिया जाता है, जिसे भेटा (Bheta) कहते हैं।
    • आदि (Adi) और गालो (Galo): वे लिपम (Lipum) मछली पकड़ने की तकनीक का उपयोग करते हैं, जिसमें समुद्री शैवाल से लदे बड़े बाँस की टोकरियाँ बनाई जाती हैं और उन्हें नदियों के तल पर रखा जाता है। समुद्री शैवाल छोटे कीटों को आकर्षित करते हैं, जो बदले में मछलियों का ध्यान आकर्षित करते हैं।
      • पकड़ी गई मछलियों का निरीक्षण किया जाता है और छोटी मछलियों को वापस नदी में छोड़ दिया जाता है और यह अभ्यास सर्दियों के महीनों के दौरान भी किया जाता है ताकि लोगों को प्रजनन के मौसम में मछली पकड़ने से रोका जा सके। इस तरह, मछलियों की आबादी बरकरार रहती है और स्थानीय जरूरतें पूरी होती हैं।
  • पवित्र उपवनों (Sacred Groves) का संरक्षण
    • गरासिया (Garasia): राजस्थान की गरासिया जनजातियाँ नृजातीय औषधीय पौधों के बारे में व्यापक ज्ञान रखने के लिए जानी जाती हैं, जिनमें से कई IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में सूचीबद्ध हैं। उनकी रक्षा के लिए, आदिवासी समुदायों ने लोक देवताओं के लिए पवित्र उपवन कहे जाने वाले वन के कुछ हिस्सों को विकसित किया है।
  • सतत् उपयोग और ट्रांसह्यूमन्स (Transhumance)
    • भोटिया: मध्य हिमालय की यह जनजाति औषधीय पौधों की अत्यधिक कटाई को रोकने के लिए पत्तियों की परिपक्वता का निरीक्षण करके उनका संग्रह करती है।
      • जनजाति के सदस्य गर्मियों के दौरान ऊपरी घाटियों में जौ और अनाज की खेती भी करते हैं। इन फसलों की कटाई के बाद, मवेशियों और भेड़ों को जमीन पर चरने की अनुमति दी जाती है।
      •  इस दौरान, ऊपरी घाटियों को फसलों की खेती के लिए तैयार किया जाता है, जिसका उपयोग फसल कटने के बाद चराई गतिविधियों के लिए किया जाता है।
      •  खेती और चराई का यह मौसमी चक्र चरागाहों के उपयोग की अनुमति देता है और इसे ट्रांसह्यूमन्स कहा जाता है।
  • वन्यजीव संरक्षण
    • आदि जनजाति: वन्यजीव संरक्षण के संदर्भ में, आदिवासी समुदाय अक्सर कुलदेवता और धार्मिक मान्यताओं का उपयोग करते हैं, जो जानवरों और कुछ पौधों को नष्ट करने पर प्रतिबंध लगाते हैं। अरुणाचल प्रदेश में आदि जनजातियों के लिए, बाघ, गौरैया और पैंगोलिन को मानव जाति के शुभचिंतक माना जाता है और इसलिए उनका शिकार नहीं किया जाता है।
      • यह भी माना जाता है कि बरगद के पेड़ों को काटने से अकाल और मृत्यु हो सकती है।
    • आकास: माउंट वोजो फु को अरुणाचल प्रदेश के आदिवासी समुदाय, आकास के लिए एक पवित्र पर्वत माना जाता है और इसलिए, स्थानीय वनस्पतियों और जीवों को संरक्षित करने में मदद करने के प्रयास में पहाड़ तक पहुँच प्रतिबंधित है।
  • पारिस्थितिकी पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए
    • अंगामी: नागालैंड का खोनोमा गाँव (भारत का पहला हरित गाँव), जिसका प्रबंधन अंगामी जनजाति द्वारा किया जाता है, यह गाँव वनों और पारंपरिक प्रथाओं को संरक्षित करते हुए समुदाय आधारित पारिस्थितिकी पर्यटन को बढ़ावा देता है।

आदिवासियों के लिए नीतिगत कार्यवाहियाँ

  • उच्च निर्भरता: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में लगभग 6,50,000 गाँव हैं, जिनमें से लगभग 1,70,000 गाँव वन क्षेत्रों के निकट स्थित हैं, जिन्हें अक्सर वन सीमांत गाँव कहा जाता है।
    • भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित भारत वन स्थिति रिपोर्ट, 2019 के अनुसार, लगभग 300 मिलियन लोग वनों पर निर्भर हैं।
  • राष्ट्रीय वन नीति, 1988: जनजातीय लोगों और वनों के बीच सहजीवी संबंध को ध्यान में रखते हुए, नीति का उद्देश्य वनों के संरक्षण, पुनर्जनन और विकास में जनजातीय समुदायों को निकटता से जोड़ना तथा वनों में और उसके आसपास रहने वाले लोगों को लाभकारी रोजगार उपलब्ध कराना है।
    • इसमें इस बात पर भी जोर दिया गया है कि वनों के भीतर और आसपास रहने वाले आदिवासियों और अन्य गरीब लोगों का जीवन वनों के इर्द-गिर्द घूमता है और उनको प्राप्त अधिकारों और रियायतों की पूरी तरह से रक्षा की जानी चाहिए।
  • संयुक्त वन प्रबंधन समितियों (Joint Forest Management Committees- JFMCs) और ग्राम पारिस्थितिकी विकास समितियों (Eco-Development Committees- EDC) की स्थापना: वनों की सुरक्षा, संरक्षण और वनों के प्रबंधन में स्थानीय समुदायों को शामिल करते हुए, भागीदारी दृष्टिकोण के माध्यम से, गाँव के स्तर पर JFMCs और EDC की स्थापना की गई है, जिसमें वनों पर निर्भर समुदायों की आजीविका को बढ़ाना भी शामिल है।
  • अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (FRA, 2006): इस अधिनियम में स्व-खेती और निवास के अधिकार, सामुदायिक अधिकारों के साथ-साथ पारंपरिक प्रथागत अधिकारों की मान्यता और स्थायी उपयोग के लिए किसी भी सामुदायिक वन संसाधन की रक्षा, पुनर्जनन या संरक्षण अथवा प्रबंधन का अधिकार शामिल है।
    • यह वनों में रहने वाले जनजातीय समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के वन संसाधनों पर अधिकारों को मान्यता देता है, जिन पर ये समुदाय आजीविका, आवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं सहित विभिन्न आवश्यकताओं के लिए निर्भर थे।

वन के बारे में

  • वर्ष 1996 के गोदावर्मन फैसले के अनुसार: ‘वन’ में शामिल हैं- 
    • सरकारी अभिलेखों में ‘वन’ के रूप में दर्ज कोई भी भूमि; और
    • कोई भी भूमि जो वन की शब्दकोश परिभाषा को पूरा करती है। (ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी वन को ‘पेड़ों’ और झाड़ियों से ढका एक बड़े क्षेत्र’ के रूप में परिभाषित करती है।)

भारत में वनों के लिए संवैधानिक ढाँचा

  • समवर्ती सूची में शामिल करना: वनों को भारत के संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है।
  • अधिकार क्षेत्र का हस्तांतरण: वर्ष 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम ने वनों और वनस्पतियों तथा जीवों के संरक्षण पर अधिकार क्षेत्र को राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित कर दिया।
  • मौलिक कर्तव्य: अनुच्छेद-51A (G) नागरिकों के आवश्यक दायित्व पर जोर देता है कि वे वनों से मिलकर बने प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और संरक्षण करें।
  • राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (DPSP): DPSP का अनुच्छेद-48A वनों और प्राकृतिक दुनिया की सुरक्षा सहित पर्यावरण के संरक्षण और सुधार के लिए सरकार के प्रयासों को अनिवार्य बनाता है।

भारतीय जनजातियों की सुरक्षा का महत्त्व

  • स्वदेशी ज्ञान के हितधारक: आदिवासी समुदायों को बढ़ाने पर पारिस्थितिकी संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करना अनिवार्य है क्योंकि वे स्वदेशी ज्ञान के प्रमुख हितधारक हैं।
    • इस प्रकार, आदिवासी समुदायों को संरक्षण और स्वदेशी तरीकों के बारे में अपने ज्ञान को साझा करने के लिए प्रोत्साहन प्रदान किया जाना चाहिए जो शोधकर्ताओं, नीति निर्माताओं और संरक्षणवादियों को सक्षम बनाता है।
  • नीति निर्माण: उनकी कुछ प्रथाओं ने संरक्षण पर नीतियाँ बनाने में मदद की है।
    •  उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले में भारतीय जनजातियाँ मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए चावल के साथ लाल चना उगाती हैं, मृदा की उर्वरता को पुनः बढ़ाने के लिए इन्हें महुआ के फूलों और काले चने से बदला जाता है।
      • इस सतत् मॉडल को क्षेत्रीय कृषि स्टेशन द्वारा अपनाया गया तथा सतत् कृषि पद्धतियों के प्रचार-प्रसार के लिए इसे और परिष्कृत किया गया।
    • इसी प्रकार, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research-ICAR) ने वर्ष 1999 में उतेरा फसल प्रणाली का परीक्षण करने के लिए राष्ट्रीय कृषि प्रौद्योगिकी परियोजना लागू की।
  • महत्त्वपूर्ण योगदान: आदिवासी समुदाय भारतीय आबादी का लगभग 9% हिस्सा हैं, जिनमें से अधिकांश मध्य भारत में रहते हैं। इन समुदायों ने कृषि और वनों के साथ रहने के संदर्भ में स्वदेशी ज्ञान एकत्र किया है, जिसका वन पारिस्थितिकी तंत्र पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है।
    • सदियों से भारतीय जनजातियों ने खेती, मछली पकड़ने और वन्यजीवों के साथ साथ रहने में टिकाऊ प्रथाओं के माध्यम से प्राकृतिक आवासों को संरक्षित करने और संरक्षण को बढ़ावा देने में मदद की है। उनके रीति-रिवाज और विश्वास पर्यावरण संरक्षण में और भी योगदान देते हैं।
  • लागत प्रभावी रणनीति प्रदाता: पारंपरिक ज्ञान के संबंध में, खाद्य और कृषि संगठन (Food and Agriculture Organisation- FAO) ने खुलासा किया है कि स्वदेशी और स्थानीय समुदाय उत्पादन की ऐसी प्रणालियों का उपयोग करते हैं, जो वनों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए कम हानिकारक हैं।
  • अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा मान्यता प्राप्त: COP26 संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन के दौरान, 100 देशों द्वारा वर्ष 2030 तक वनों की कटाई को समाप्त करने के लिए एक ऐतिहासिक प्रतिज्ञा (19.2 बिलियन डॉलर की) की गई थी और इस निधि का एक बड़ा हिस्सा स्वदेशी समुदायों का समर्थन करने के लिए आवंटित किया जाना है।
    • जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर पहली वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट, जिसने पृथ्वी पर जैव विविधता की स्थिति का आकलन किया, ने यह भी कहा कि उन क्षेत्रों में जैव विविधता में गिरावट की दर कम है जहाँ मूल निवासियों के पास भूमि है।
      • हालाँकि, संरक्षण के वैश्विक दृष्टिकोण में स्वदेशी समुदायों का ज्ञान और परिप्रेक्ष्य अनुपस्थित है।

भारतीय जनजातियों के समक्ष चुनौतियाँ

  • विस्थापन और पुनर्वास: इस्पात संयंत्रों, विद्युत संयंत्रों और बाँधों जैसी बड़े पैमाने की औद्योगिक परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की भूमि के अधिग्रहण के परिणामस्वरूप आदिवासी आबादी का बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है। यह व्यवधान आदिवासियों को शहरी क्षेत्रों में पलायन करने के लिए मजबूर करता है, जहाँ वे एक अलग जीवन शैली के अनुकूल होने के लिए संघर्ष करते हैं।
    • सरकार द्वारा संरक्षित भूमि के निर्माण के कारण कई लोग विस्थापित हुए हैं तथा  वर्ष 2006 का वन अधिकार अधिनियम भूमि अधिकारों के लिए अपर्याप्त प्रतिक्रिया रहा है, जिसके कारण कई जनजातीय निवासियों को जबरन बेदखल होना पड़ा है।

  • पारंपरिक आजीविका प्रथाओं पर खतरा: वन विभागों द्वारा लागू संरक्षण नीतियों और प्रतिबंधों के कारण पारंपरिक आजीविका प्रथाएँ जैसे झूम खेती, शिकार और संग्रहण खतरे में हैं।
    • वन गुज्जर, हिमालय में एक अर्द्ध-खानाबदोश चरवाहा समुदाय, को वन विभागों द्वारा जंगलों में उनके प्रवेश को प्रतिबंधित करने के प्रयासों का सामना करना पड़ा है, जो उनकी पारगमन प्रथाओं के लिए आवश्यक है।
  • पारंपरिक ज्ञान की हानि: बेहतर अवसरों की तलाश में आदिवासियों के शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन के कारण पारंपरिक ज्ञान और प्रथाओं के नष्ट होने का खतरा है, जो वनों और जैव विविधता के संरक्षण के लिए एक बड़ी चुनौती है।
    • जनजातीय जीवन काफी हद तक बिना किसी कमी के सचेत निष्कर्षण और भावी पीढ़ियों के प्रति जिम्मेदारी की भावना का प्रतीक है। कर्नाटक की सोलिगा जनजातियाँ छत्तों से शहद निकालती हैं और कुछ शहद जंगल की ज़मीन पर बाघ और भालू के बच्चों के खाने के लिए छोड़ देती हैं।
    • वे आक्रामक पौधों को रोकने के लिए नियंत्रित रूप से आग भी जलाते हैं, जो जंगलों को नष्ट कर सकते हैं और इस तरह पशु जीवन और वन खाद्य शृंखला को प्रभावित कर सकते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन: जनजातीय समुदाय जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील हैं। मेघालय में खासी जनजाति ने वर्षा के बदलते पैटर्न और तापमान में वृद्धि के कारण अपनी पारंपरिक कृषि पद्धतियों में गिरावट देखी है।
  • अन्य: उत्पीड़न, रिश्वत, दावों के निपटान में देरी और अवैध बेदखली के मामले भी सामने आए हैं। इसके अलावा, संरक्षण का उद्देश्य भी पूरा नहीं हुआ है।

आगे की राह 

  • परंपरा और आधुनिकता में संतुलन: विकास के दोहरे पहिये (परंपरा और आधुनिकता) को वर्तमान पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए संतुलित किया जाना चाहिए। आधुनिकता की खोज में प्रकृति के दोहन से अक्सर पर्यावरणीय गिरावट आई है।
    • आधुनिक प्रथाओं के साथ-साथ पारंपरिक ज्ञान को अपनाने से पारिस्थितिकी रूप से टिकाऊ, नैतिक रूप से वांछनीय और सामाजिक रूप से न्यायसंगत भविष्य को बढ़ावा मिल सकता है।
  • स्थिरता के लिए जनजातीय ज्ञान: जनजातीय समुदाय, प्रकृति के नियमों के अपने गहन ज्ञान के साथ, स्थायी जीवन के बारे में अमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
  • स्थायी प्रथाओं को सीखना: वन अधिकारियों को जनजातीय समुदायों के साथ निकटता से जुड़ने, उनकी स्थायी प्रथाओं से सीखने और उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने में मदद करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
  • जनजातीय समुदायों के साथ समावेशी विकास: विकास प्रक्रियाओं में जनजातीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित करना समावेशी और सतत् प्रगति के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • पारिस्थितिकी पर्यटन पहल को बढ़ावा देना: यह उनकी सांस्कृतिक विरासत और पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करते हुए उन्हें वैकल्पिक आजीविका के अवसर प्रदान कर सकता है।
  • जनजातीय वन संरक्षक कार्यक्रम लागू करना: इस कार्यक्रम के तहत, जनजातीय समुदायों के सदस्यों को वन रक्षक या इको-गाइड के रूप में प्रशिक्षित और नियोजित किया जाता है। यह स्थानीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के उनके गहन ज्ञान का लाभ उठा सकता है, स्वामित्व को बढ़ावा दे सकता है और स्थायी आजीविका प्रदान कर सकता है।
  • जनजातीय ज्ञान बैंक: सकारात्मक लाभ प्राप्त करने के लिए जनजातीय समुदायों के पारंपरिक पारिस्थितिकी ज्ञान को आधुनिक संरक्षण रणनीतियों में दस्तावेजित और एकीकृत करने की आवश्यकता है।
  • वन उत्पाद मूल्य संवर्द्धन और विपणन: जनजातीय समुदायों द्वारा एकत्रित वन उत्पादों के लिए मूल्य संवर्द्धन और विपणन पहल स्थापित करने की आवश्यकता है, जिससे जनजातियों द्वारा वन संसाधनों के संरक्षण को प्रोत्साहित करते हुए उन्हें स्थायी आजीविका प्रदान की जा सके।
  • सहभागी वन प्रबंधन और संयुक्त वन प्रबंधन (Joint Forest Management- JFM) कार्यक्रम को सुदृढ़ बनाना: यह जनजातीय समुदायों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व और निर्णय लेने की शक्ति सुनिश्चित कर सकता है, उनके पारंपरिक ज्ञान और प्रथाओं को मान्यता प्रदान कर सकता है।

Final Result – CIVIL SERVICES EXAMINATION, 2023. PWOnlyIAS is NOW at three new locations Mukherjee Nagar ,Lucknow and Patna , Explore all centers Download UPSC Mains 2023 Question Papers PDF Free Initiative links -1) Download Prahaar 3.0 for Mains Current Affairs PDF both in English and Hindi 2) Daily Main Answer Writing , 3) Daily Current Affairs , Editorial Analysis and quiz , 4) PDF Downloads UPSC Prelims 2023 Trend Analysis cut-off and answer key

THE MOST
LEARNING PLATFORM

Learn From India's Best Faculty

      

Final Result – CIVIL SERVICES EXAMINATION, 2023. PWOnlyIAS is NOW at three new locations Mukherjee Nagar ,Lucknow and Patna , Explore all centers Download UPSC Mains 2023 Question Papers PDF Free Initiative links -1) Download Prahaar 3.0 for Mains Current Affairs PDF both in English and Hindi 2) Daily Main Answer Writing , 3) Daily Current Affairs , Editorial Analysis and quiz , 4) PDF Downloads UPSC Prelims 2023 Trend Analysis cut-off and answer key

<div class="new-fform">







    </div>

    Subscribe our Newsletter
    Sign up now for our exclusive newsletter and be the first to know about our latest Initiatives, Quality Content, and much more.
    *Promise! We won't spam you.
    Yes! I want to Subscribe.