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वैश्विक अर्थव्यवस्था में ग्लोबल साउथ की बदलती भूमिका

Lokesh Pal June 24, 2024 02:56 158 0

संदर्भ

वैश्विक अर्थव्यवस्था में ग्लोबल साउथ की भूमिका बदल रही है और इसके विकास को बढ़ावा देने के लिए इसे बेहतर वित्तीय सहायता, डिजिटल बुनियादी ढाँचे तथा जलवायु वित्तपोषण की आवश्यकता है, जो वैश्विक वित्तीय प्रणाली में सुधारों को उजागर करता है।

 ग्लोबल साउथ के बारे में 

  • संक्षेप में: ग्लोबल साउथ से तात्पर्य दुनिया भर के विभिन्न देशों से है, जिन्हें कभी-कभी ‘विकासशील’, ‘कम विकसित’ या ‘अविकसित’ के रूप में वर्णित किया जाता है।
    • ग्लोबल साउथ शब्द का प्रयोग पहली बार वर्ष 1969 में कार्ल ओग्लेसबी द्वारा किया गया था, लेकिन वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद इसका प्रचलन बढ़ गया।
    • ‘ग्लोबल साउथ’ शब्द भौगोलिक नहीं है। दरअसल, ग्लोबल साउथ में शामिल दो सबसे बड़े देश (चीन और भारत) पूरी तरह से उत्तरी गोलार्द्ध में अवस्थित हैं।
    • इसका प्रयोग राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, भू-राजनीतिक और आर्थिक समानताओं के संतुलन को दर्शाता है।

  • क्षेत्रीय विस्तार: ग्लोबल साउथ के कई देश दक्षिणी गोलार्द्ध में हैं, मुख्यतः अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में। 
  • ग्लोबल साउथ देशों की विशेषताएँ
    • आय असमानता के उच्च स्तर के साथ गरीबी से ग्रस्त।
    • कम जीवन प्रत्याशा और कठोर जीवन स्थितियाँ।
  • ग्लोबल साउथ देशों के भीतर भिन्नताएँ
    • जनसंख्या स्तर: विश्व के 5 सर्वाधिक जनसंख्या वाले देशों में से 4 एशिया में हैं। (चीन और भारत सहित)
    • आर्थिक विकास: हाल के दशकों में, एशियाई अर्थव्यवस्थाएँ (विशेष रूप से पूर्वी एशिया में) सबसे तेजी से बढ़ी हैं और भविष्य में भी ऐसा ही होने की उम्मीद है।
    • आय का स्तर: वेनेजुएला को छोड़कर लैटिन अमेरिकी देश या तो उच्च-मध्यम या उच्च आय वाले हैं, जबकि ग्लोबल साउथ क्षेत्र के अफ्रीकी सदस्य आम तौर पर गरीब हैं, जहाँ 20 देशों में से 7 देशों की प्रति व्यक्ति आय 1,000 डॉलर से कम है।
    • संघर्ष की स्थिति: तीन बड़े अफ्रीकी देश (इथियोपिया, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य और सूडान) आतंरिक जटिलताओं जैसे लंबे और खूनी संघर्ष से प्रभावित हैं।

ग्लोबल नार्थ के बारे में

  • ग्लोबल नॉर्थ में वे अमीर देश शामिल हैं, जो ज्यादातर उत्तरी अमेरिका और यूरोप में अवस्थित हैं, साथ ही ओशिनिया और अन्य जगहों पर भी कुछ देश हैं।
  • ‘ग्लोबल नॉर्थ’ का तात्पर्य मोटे तौर पर अमेरिका, कनाडा, यूरोप, रूस, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों से है।

शीतयुद्ध के मानदंडों के अनुसार देशों का वर्गीकरण

  • फर्स्ट वर्ल्ड: इसका तात्पर्य उन्नत पूँजीवादी राष्ट्रों से था।
    • उदाहरण: संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, फ्राँस, जर्मनी, आदि।
  • सेकंड वर्ल्ड: इसमें सोवियत संघ के नेतृत्व वाले समाजवादी राष्ट्रों का उल्लेख था।
    • उदाहरण: सोवियत संघ रूस, चीन, क्यूबा, आदि।
  • थर्ड वर्ल्ड: इसमें विकासशील देशों का उल्लेख था, जिनमें से अनेक अभी भी औपनिवेशिक शासन के अधीन थे। 
    • उदाहरण: एशिया, अफ्रीका के देश जैसे भारत, इंडोनेशिया आदि।

वैश्विक प्रणाली दृष्टिकोण (World Systems Approach)

  • इसे वर्ष 1974 में समाजशास्त्री इमैनुअल वालरस्टीन (Immanuel Wallerstein) ने प्रस्तुत किया था, जिसमें वैश्विक राजनीति को देखने के एक परस्पर जुड़े दृष्टिकोण पर जोर दिया गया था।
  • इस प्रणाली के अनुसार, उत्पादन के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं: कोर, परिधीय और अर्द्ध-परिधीय
  • कोर जोन (Core Zone) अमेरिका या जापान जैसी अत्याधुनिक तकनीकों से लैस होने के कारण लाभ कमाते हैं।
  • परिधीय क्षेत्र (Peripheral Zone) कम परिष्कृत उत्पादन में लगे हुए हैं, जो अधिक श्रम-प्रधान है। जैसे-  भारत और ब्राजील।
  • अर्द्ध-परिधीय क्षेत्र (Semi-peripheral Zone) कभी-कभी अन्य देशों का शोषण करते हैं, लेकिन कभी-कभी उनका स्वयं भी शोषण होता है, जैसे अर्जेंटीना और ईरान।

ब्रांट लाइन (Brandt Line) के बारे में

  • इसे 1980 के दशक में विली ब्रांट (Willy Brandt) द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
  • यह एक काल्पनिक रेखा है, जो विश्व को अमीर देशों (मुख्यतः उत्तरी गोलार्द्ध में) और गरीब देशों (अधिकांशतः दक्षिणी गोलार्द्ध में) में विभाजित करती है।
    • यह मूलतः उत्तरी देशों और दक्षिणी देशों के बीच सामाजिक-आर्थिक विभाजन को दर्शाता है।

ग्लोबल साउथ के बारे में हालिया आर्थिक पूर्वानुमान

  • वृद्धि एवं विकास: विश्व बैंक/IMF के नवीनतम पूर्वानुमानों से संकेत मिलता है कि ग्लोबल साउथ की वृद्धि दर लगभग 3% पर स्थिर रहेगी और यह दशकों में सबसे कम है।
  • क्षेत्रीय उपलब्धियाँ: अगले दो से तीन दशकों तक, वैश्विक विकास का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा मध्यम और निम्न आय वाले देशों से आएगा, जिसमें एशिया अग्रणी रहेगा।
  • वृद्धि के कारण: दशकों तक सहायक भू-राजनीति, जनसांख्यिकी, वैश्वीकरण और तकनीकी प्रगति के परिणामस्वरूप उच्च वृद्धि का दौर आया। 

हाल की वैश्विक घटनाओं का ग्लोबल साउथ पर प्रभाव

  • वैश्वीकरण और सामाजिक सुरक्षा जाल: जैसे-जैसे वैश्वीकरण गहराता गया, अलग-अलग देशों में सुरक्षा जाल आजीविका के विस्थापन के साथ सामंजस्य नहीं बना पाए, जिससे सामाजिक सामंजस्य और बहुपक्षीय प्रणाली के लिए समर्थन प्रभावित हुआ।
  • महामारी का प्रभाव: COVID-19 ने बाजार, व्यापार, आपूर्ति शृंखला, वित्तीय वैश्वीकरण को बाधित किया, जिससे वैश्विक विकास प्रभावित हुआ।
  • भू-राजनीतिक चिंताएँ: यूक्रेन में युद्ध, बिगड़ती भू-राजनीति और सामरिक प्रतिस्पर्द्धा के बढ़ने से नीति-संचालित विखंडन का खतरा बढ़ गया है, जिससे वैश्विक सहयोग और आर्थिक स्थिरता प्रभावित हो रही है।

ग्लोबल साउथ के लिए भारत की पहल

  • नई दिल्ली घोषणा: यह वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने तथा अधिक समृद्ध, शांतिपूर्ण और सतत् विश्व के लिए प्रयास करने में G20 सदस्य देशों के सहयोगात्मक प्रयासों का प्रमाण है।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non-Aligned Movement- NAM): भारत ने वर्ष 1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 
    • उद्देश्य: उन देशों के हितों को बढ़ावा देना जो किसी भी प्रमुख शक्ति समूह के साथ संरेखित नहीं हैं तथा ग्लोबल साउथ के अधिकारों की वकालत करना।
  • साउथ-साउथ सहयोग: भारत ने अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के देशों के साथ विभिन्न द्विपक्षीय समझौते एवं साझेदारियाँ की हैं।
    • ये समझौते व्यापार, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और क्षमता निर्माण पर केंद्रित हैं।
  • ब्रिक्स (BRICS): भारत ब्रिक्स का सदस्य है, जो उभरती अर्थव्यवस्थाओं का एक समूह है, जो अधिक न्यायसंगत वैश्विक व्यवस्था की सिफारिश करता है।
  • ग्रुप ऑफ 77 (G77): भारत संयुक्त राष्ट्र में विकासशील देशों के गठबंधन G-77 में सक्रिय भागीदार है। 
    • यह ग्लोबल साउथ के सामने आने वाली आर्थिक और विकासात्मक चुनौतियों का समाधान करने के लिए कार्य करता है।
  • जलवायु परिवर्तन वार्ता: भारत ने जलवायु परिवर्तन वार्ता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है तथा ‘साझा किंतु विभेदित जिम्मेदारियों’ (Common but Differentiated Responsibilities) के सिद्धांत की वकालत की है।
    • इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में विकसित देशों की अगुवाई की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है।
    • COP 28 में हाल ही में स्थापित हानि और क्षति कोष जलवायु संकट के अग्रिम मोर्चे पर रहने वाले संवेदनशील समुदायों को तत्काल सहायता प्रदान करेगा। सभी अमीर और उच्च उत्सर्जन वाले देशों की अब यह जिम्मेदारी है कि वे आगे आएँ और कोष में अपना योगदान दें।
  • विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organization- WTO) और व्यापार मुद्दे: भारत WTO में दोहा विकास एजेंडा का प्रमुख समर्थक रहा है, जो व्यापार असंतुलन और विकास संबंधी चिंताओं को दूर करने के महत्त्व पर जोर देता है।
  • शांति स्थापना अभियान: भारत लगातार संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना अभियानों में सबसे बड़े योगदानकर्ताओं में से एक रहा है, जो वैश्विक शांति और सुरक्षा के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
  • वर्ष 2023 में, भारतीय प्रधानमंत्री ने भारत द्वारा आयोजित ‘वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट’ में निम्नलिखित पाँच पहलों की घोषणा की:
    • ग्लोबल साउथ सेंटर ऑफ एक्सीलेंस: अनुसंधान विकास समाधान और सर्वोत्तम प्रथाओं के लिए।
    • ग्लोबल साउथ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इनिशिएटिव: अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी और परमाणु ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में भारतीय विशेषज्ञता को साझा करना।
    • आरोग्य मैत्री परियोजना: प्राकृतिक आपदाओं या मानवीय संकटों से प्रभावित किसी भी विकासशील देश को आवश्यक चिकित्सा आपूर्ति प्रदान करना।
    • ग्लोबल साउथ यंग डिप्लोमैट्स फोरम: विदेश मंत्रालयों के युवा अधिकारियों को जोड़ना।
    • ग्लोबल साउथ स्कॉलरशिप: विकासशील देशों के छात्रों के लिए भारत में उच्च शिक्षा के अवसर प्रदान करना।
  • बौद्धिक संपदा, आनुवंशिक संसाधन और संबद्ध पारंपरिक ज्ञान पर विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (World Intellectual Property Organization- WIPO) संधि: यह ग्लोबल साउथ के देशों और भारत के लिए एक महत्त्वपूर्ण जीत है, जो पारंपरिक ज्ञान और बुद्धिमत्ता की प्रचुरता के साथ एक मेगा जैव-विविधता हॉटस्पॉट है।
  • अन्य 
    • कोविड-19 महामारी के दौरान वैक्सीन कूटनीति।
    • प्राकृतिक आपदाओं और संकटों के समय मानवीय सहायता।
    • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की माँग ताकि इसे और अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण तथा समावेशी बनाया जा सके तथा ग्लोबल साउथ के हितों को प्रतिबिंबित किया जा सके।
    • भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (Indian Council for Cultural Relations- ICCR) जैसी पहलों और सांस्कृतिक महोत्सवों के आयोजन के माध्यम से सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी।

ग्लोबल साउथ का महत्त्व

  • आर्थिक और राजनीतिक शक्ति में परिवर्तन: ग्लोबल साउथ ने राजनीतिक और आर्थिक दोनों शक्तियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का अनुभव किया है।
    • विश्व बैंक ने उत्तरी अटलांटिक से एशिया-प्रशांत क्षेत्र की ओर ‘धन के स्थानांतरण’ को स्वीकार किया है।
    • ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2030 तक चार सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से तीन ग्लोबल साउथ से होंगी, जिसमें क्रमशः चीन, भारत, अमेरिका और इंडोनेशिया होंगे।
    • पहले से ही ग्लोबल साउथ के प्रभुत्व वाले ब्रिक्स देशों की क्रय शक्ति के संदर्भ में जीडीपी वैश्विक उत्तर के G7 क्लब से आगे निकल गई है।
    • ब्रिक्स देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) का संयुक्त सकल घरेलू उत्पाद पहले ही G-7 देशों से आगे निकल चुका है।
    • ये मुद्दे वैश्विक परिदृश्य पर तेजी से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं, चाहे वह ईरान और सऊदी अरब के बीच सुलह के लिए चीन की मध्यस्थता हो या यूक्रेन में युद्ध समाप्त करने के लिए शांति योजना को आगे बढ़ाने का ब्राजील का प्रयास हो।
  • भू-राजनीति पर प्रभाव: एशियाई देशों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने का अनुमान है और विशेषज्ञों द्वारा इसे ‘एशियाई सदी’ के रूप में जाना जाता है।
    • उत्तर-निर्मित महत्त्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, जैसे IMF, WTO और संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों में भागीदारी में वृद्धि।
    • OPEC, आसियान और अफ्रीकी संघ जैसे विभिन्न संगठनों में सहयोग बढ़ा।

ग्लोबल साउथ के समक्ष चुनौतियाँ

  • वैश्विक प्रतिकूलताओं के प्रति संवेदनशीलता: जलवायु परिवर्तन, जीवन-यापन की लागत में संकट, सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने में असमर्थता, घटती उत्पादकता, तरलता वित्तपोषण की अनुपस्थिति और खंडित ऋण संरचना जैसे कई स्रोतों से उत्पन्न होने वाली विकास संबंधी बाधाएँ ग्लोबल साउथ को सबसे अधिक प्रभावित करती हैं।
  • ग्लोबल साउथ में वित्तीय चुनौतियाँ
    • गहन वित्तीय बाजारों का अभाव: गहन वित्तीय बाजारों के बिना, सतत् वित्तपोषण की उपलब्धता ग्लोबल साउथ में विकास के लिए और वैश्विक विकास हेतु एक बाध्यकारी बाधा होगी क्योंकि ग्लोबल साउथ निषेधात्मक दरों और छोटी अवधि के लिए पूँजी आकर्षित करता है।
    • अपर्याप्त वित्तीय प्रणालियाँ: वर्तमान अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संरचना ग्लोबल साउथ की विकास क्षमता का समर्थन करने के लिए अनुपयुक्त प्रतीत होती है।
      • विभिन्न विशेषज्ञों के अनुसार, वैश्विक वित्तीय प्रणाली उभरते बाजारों को बड़े पैमाने पर और समय पर वित्तपोषण उपलब्ध नहीं करा रही है।
  • तकनीकी असमानताएँ: डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI) की कमी वाले देशों को महामारी के दौरान संघर्ष करना पड़ा, जबकि प्रभावी DPI वाले देश आपातकालीन सेवाएँ प्रदान कर सकते थे। यह अधिक DPI के विकास की आवश्यकता को उजागर करता है।
  • अन्य
    • संसाधनों तक अपर्याप्त पहुँच: वैश्विक उत्तर-दक्षिण विभाजन महत्त्वपूर्ण विकास के लिए आवश्यक संसाधनों तक पहुँच में बड़े अंतराल के कारण है।
    • चीन द्वारा हस्तक्षेप: यह बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के माध्यम से क्षेत्र में पैठ बनाने के माध्यम से है, जबकि यह अभी भी एक सवाल है कि क्या BRI सभी संबंधित क्षेत्रों को लाभ पहुँचाएगा या केवल चीन को।
    • अमेरिकी आधिपत्य: दुनिया को अब बहुध्रुवीय माना जाता है, लेकिन अभी भी अमेरिका अपनी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और व्यापार एवं मुद्रा में प्रभुत्व के कारण अंतरराष्ट्रीय मामलों पर अकेले हावी है।

आगे की राह

  • तकनीकी उन्नति: कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) सहित तकनीकी नवाचारों में वृद्धि के साथ, शिक्षा, आपातकालीन प्रतिक्रिया, स्वास्थ्य प्रणाली, वाणिज्य आदि जैसे सभी क्षेत्रों में दैनिक जीवन का डिजिटल परिवर्तन सकारात्मक तरीके से देखा जा रहा है।
    • AI में प्रगति से वैश्विक विकास और समावेशन को बढ़ावा देने की काफी संभावनाएँ हैं।
  • एक साझा रिपॉजिटरी की स्थापना: DPI आर्किटेक्चर को लाभ प्राप्त करने और कई उपयोगों में डेटा और साइबर सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक केंद्र और एक मजबूत साझा संरचना की आवश्यकता होती है।
    • सर्वोत्तम प्रथाओं का भंडार बनाने तथा तकनीकी प्रगति को साझा करने के लिए एक मंच प्रदान करने हेतु इच्छुक लोगों का एक गठबंधन बनाने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय प्रयास से प्रणाली-व्यापी असंगतियों को टाला जा सकेगा।
      • विश्वसनीय और सुसंगत आँकड़ों के साथ, शेयरधारक और नागरिक समाज समूह अपनी सक्रियता को अधिक कुशलतापूर्वक संचालित करने की बेहतर स्थिति में होंगे।
      • इससे कॉरपोरेट बोर्ड को अपने संगठनों के लिए प्रभावी दीर्घकालिक योजनाएँ विकसित करने के लिए साधन उपलब्ध होंगे तथा बड़े धन प्रबंधकों के पास अपने स्थिरता-संबंधी लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए डेटा उपलब्ध होगा।
  • बेहतर जलवायु वित्तपोषण: जलवायु वित्तपोषण के संबंध में, कई प्रस्तावों में सार्वजनिक और बहुपक्षीय संसाधनों का लाभ उठाने की परिकल्पना की गई है।
    • हाल ही में ब्रेटन वुड्स कमेटी की रिपोर्ट में पूँजी बाजारों पर अधिक जोर देने के लिए एक पूरक दृष्टिकोण का प्रस्ताव दिया गया है। शोध से पता चलता है कि सार्वजनिक रूप से सूचीबद्ध कंपनियों में से 1% ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 40% के लिए जिम्मेदार हैं।
    • अपनाने की आवश्यकता: ऐसे समाधान में तीन तत्त्व शामिल होंगे:
      • सार्वजनिक रूप से सूचीबद्ध कंपनियों और बड़े राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों के लिए अनिवार्य प्रकटीकरण आवश्यकताएँ विश्व स्तर पर लागू की गईं।
      • एक डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना, जो कंपनियों द्वारा प्रकट किए गए डेटा को मशीन-पठनीय डेटा में अनुवादित करती है।
      • नई रेटिंग एजेंसियों को स्थिरता के मोर्चे पर निगमों की रेटिंग करने की आवश्यकता है।
  • तरलता प्रावधानों में वृद्धि: इस तरलता लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक मजबूत और सुधारित IMF की आवश्यकता है। यह भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों के लिए अमेरिकी डॉलर स्वैप लाइनों की कमी को दूर कर सकता है।
    • इसके अभाव में, देश बड़े भंडार एकत्रित करके आत्म-बीमा करते हैं, जिसका उपयोग अन्य विकासात्मक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता था।

निष्कर्ष

ग्लोबल साउथ का हालिया पुनरुत्थान विकासशील भू-राजनीतिक परिदृश्य और वैश्विक मामलों में विकासशील देशों के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है। भारत का नेतृत्व ग्लोबल साउथ के हितों की वकालत करने और वैश्विक आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था के पुनर्संतुलन की वकालत करके इस बदलाव का उदाहरण प्रस्तुत करता है।

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