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भारत में जलवायु अधिकार

Lokesh Pal July 03, 2024 03:18 128 0

संदर्भ

एम. के. रंजीतसिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय, जलवायु परिवर्तन के बारे में अधिक व्यवस्थित ढंग से सोचने एवं शासन लागू करने का एक अवसर प्रदान करता है। 

  • इस निर्णय में ‘जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने’ (Be free From the Adverse Effects of Climate Change) के अधिकार की सिफारिश की गई तथा जीवन के अधिकार (Right to Life) एवं समानता के अधिकार (Right to Equality) को इसका स्रोत बताया गया है। 

निर्णय की पृष्ठभूमि एवं विकास

सर्वोच्च न्यायालय ने IUCN की रेड लिस्ट में शामिल दो गंभीर रूप से संकटग्रस्त पक्षी प्रजातियों [ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Great Indian Bustard- GIB) और लेसर फ्लोरिकन (Lesser Florican)] के संरक्षण के संबंध में एम. के. रंजीत सिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में अपना निर्णय दिया। 

  • दोनों वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची I (Schedule I) के भाग III के अंतर्गत सूचीबद्ध अनुसूचित प्रजातियाँ हैं। 
  • याचिका: यह निर्णय वन्यजीव कार्यकर्ता एम. के. रंजीत सिंह और अन्य द्वारा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Great Indian Bustard- GIB) [वैज्ञानिक नाम- अर्डियोटिस नाइग्रिसेप्स (Ardeotis Nigriceps)] को संरक्षित करने के लिए लंबे समय से लंबित याचिका पर दिया गया है।
  • पूर्व निर्णय: अप्रैल 2021 में न्यायालय ने ओवरहेड ट्रांसमिशन लाइनों की स्थापना पर प्रतिबंध लगा दिया था।
    • विशेषज्ञ समिति का गठन: भूमिगत उच्च-वोल्टेज लाइनों को बिछाने का मूल्यांकन करने के लिए एक समिति नियुक्त की गई थी। 
    • विद्युत लाइनों पर: भविष्य में GIB के ‘प्राथमिकता’ और ‘संभावित’ आवासों में सभी कम वोल्टेज विद्युत लाइनों को भूमिगत बिछाने का निर्देश दिया गया। 
      • मौजूदा विद्युत लाइनों के लिए बर्ड डायवर्टर लगाए जाने थे, जो ओवरहेड विद्युत लाइनों को भूमिगत विद्युत लाइनों में परिवर्तित करने के लिए लंबित थे।
  • केंद्र सरकार का रुख: चूँकि भारत में प्रमुख सौर और पवन ऊर्जा उत्पादक प्रतिष्ठान राजस्थान और गुजरात क्षेत्र में हैं, इसलिए केंद्र ने दावा किया कि न्यायालय के निर्देश अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता बढ़ाकर कार्बन उत्सर्जन को कम करने की भारत की वैश्विक प्रतिबद्धताओं को नुकसान पहुँचाएँगे। 
  • सर्वोच्च न्यायालय की कार्रवाई: न्यायालय ने दोनों राज्यों में 80,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में ओवरहेड ट्रांसमिशन लाइनों को भूमिगत करने की आवश्यकता वाले पहले के आदेश को वापस ले लिया।
  • हालिया निर्णय: अप्रैल 2024 में, न्यायालय ने भारतीय वन्यजीव संस्थान की कई रिपोर्टों पर भरोसा किया, जिसमें 13,663 वर्ग किमी. को ‘प्राथमिकता क्षेत्र’ के रूप में पहचाना गया; 80,680 वर्ग किमी. को ‘संभावित क्षेत्र’ के रूप में; और 6,654 वर्ग किमी. को GIB के लिए ‘अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण क्षेत्र’ के रूप में पहचाना गया।
    • विशेषज्ञ समिति का गठन: पीठ ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जिसमें स्वतंत्र विशेषज्ञ, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के सदस्य, विद्युत कंपनियों के प्रतिनिधि तथा पर्यावरण एवं वन विभाग और नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (MNRE) के पूर्व व वर्तमान नौकरशाह शामिल थे। 
    • उद्देश्य: इस समिति का गठन दो उद्देश्यों (पक्षी का संरक्षण और भारत के सतत् विकास लक्ष्यों) के बीच संतुलन बनाने के उपाय सुझाने के लिए किया गया है।
      • समिति की पहली रिपोर्ट 31 जुलाई तक आने की उम्मीद है।

पर्यावरण न्यायशास्त्र के लिए निर्णय के निहितार्थ

इसमें ऐतिहासिक रूप से कहा गया है कि लोगों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 और अनुच्छेद-21 द्वारा मान्यता प्राप्त जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने का अधिकार है।

  • पर्यावरण और जलवायु न्याय को प्रभावी बनाना: यह निर्णय विभिन्न समुदायों पर जलवायु परिवर्तन के कई प्रभावों को उजागर करके पर्यावरण एवं जलवायु न्याय को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित करता है।
  • अनुच्छेद-14 और अनुच्छेद-21 का विस्तार: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को शामिल करने के लिए इनका विस्तार किया गया है।
    • यह निर्णय न केवल पर्यावरण प्रदूषण पर अंकुश लगाने पर केंद्रित है, बल्कि हमारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण और जलवायु न्याय के मुद्दों को भी सक्रियता से रेखांकित करता है।
  • कानूनी मिसाल कायम करना: विशेषज्ञों के अनुसार, यह निर्णय एक महत्त्वपूर्ण कानूनी मिसाल कायम करेगा और पर्यावरण संबंधी मामलों पर व्यापक सार्वजनिक चर्चा को प्रभावित करेगा तथा इसमें भविष्य की सरकारी नीतियों को आकार देने की क्षमता है।

निर्णय से संबंधित मुद्दे

यह निर्णय जलवायु संबंधी मुकदमेबाजी के लिए द्वार खोलता है, नागरिकों को सरकार से यह माँग करने का अधिकार देता है कि इस अधिकार की रक्षा की जाए। लेकिन, यह निम्नलिखित चुनौतियाँ भी प्रस्तुत करता है:

  • अनसुलझे प्रश्न: यह निर्णय जलवायु संबंधी नुकसान से बचने के मुख्य मार्ग के रूप में बड़े पैमाने पर स्वच्छ ऊर्जा एजेंडे पर न्यायालय के जोर और तदनुसार, जलवायु अनुकूलन तथा स्थानीय पर्यावरणीय लचीलेपन को कम करके आँकने के संबंध में अनसुलझे प्रश्न भी खड़े करता है।
  • अस्पष्टता: न्यायालय ने यह भी स्पष्ट नहीं किया कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध इस अधिकार की सुरक्षा किस प्रकार की जाएगी।
  • कोई व्यापक कानून नहीं: निर्णय में स्वयं कहा गया है कि भारत में जलवायु परिवर्तन से संबंधित कोई ‘व्यापक कानून’ नहीं है।

जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध अधिकार प्राप्त करने के संभावित उपाय

जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए निम्नलिखित दो दृष्टिकोण अपनाए जा सकते हैं:

  • न्यायालय आधारित कार्रवाई: जलवायु दावों के इर्द-गिर्द मुकदमेबाजी में वृद्धि के माध्यम से न्यायालय आधारित कार्रवाई का प्रसार, धीरे-धीरे और समय के साथ, (न्यायपालिका के नेतृत्व वाली) सुरक्षा के अधूरे पैचवर्क को जन्म देगा।
    • इसके अलावा, एक पैचवर्क दृष्टिकोण से भविष्य की नीति को निर्देशित करने के लिए एक व्यापक रूपरेखा तैयार करने की संभावना कम है।
  • जलवायु कानून: एक पसंदीदा दृष्टिकोण, जलवायु कानून का अधिनियमन भविष्य की नीति को निर्देशित करने के लिए एक व्यापक, रूपरेखा कानून प्रदान कर सकता है।
    • अन्य देशों के अनुभव से लाभ उठाते हुए, रूपरेखा कानून कई लाभ ला सकती है।
    • यह विभिन्न क्षेत्रों और क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दृष्टिकोण निर्धारित कर सकता है, आवश्यक संस्थाओं का निर्माण कर सकता है और उन्हें अधिकार प्रदान कर सकता है तथा जलवायु परिवर्तन की आशंका एवं प्रतिक्रिया के लिए संरचित व विचार-विमर्शपूर्ण शासन के लिए प्रक्रियाएँ स्थापित कर सकता है।

भारत में जलवायु कानून की आवश्यकता

ये महत्त्वपूर्ण लाभ हैं और भारत के लिए जलवायु कानून पर विचार करने के अच्छे कारण हैं। लेकिन साथ ही, यह भी जरूरी है कि भारतीय जलवायु कानून दूसरे देशों की नकल न करके भारतीय संदर्भ के अनुरूप हो अधिनियमित किए जाने चाहिए।

  • निम्न-कार्बन ऊर्जा भविष्य की ओर संक्रमण: रंजीत सिंह निर्णय में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध अधिकार लागू करने के लिए भारत को निम्न-कार्बन ऊर्जा भविष्य की ओर संक्रमण करने की आवश्यकता है।
  • सहायक विनियामक वातावरण के लिए: जलवायु कानून को अधिक सतत् शहरों, इमारतों और परिवहन नेटवर्क के लिए एक सहायक विनियामक वातावरण भी बनाना चाहिए।
  • जलवायु परिवर्तन संबंधी विचारों को मुख्यधारा में लाना और आंतरिकता देना: इससे भारत के विकास में जलवायु परिवर्तन संबंधी विचारों को मुख्यधारा में लाने और आंतरिक बनाने का एक तरीका उपलब्ध होना चाहिए।
    • स्थानीय संदर्भ के प्रति संवेदनशील तापीय कार्रवाई योजनाओं जैसे अनुकूलन उपायों को सक्षम बनाना।
    • अधिक जलवायु-लचीली फसलों की ओर जाने के लिए तंत्र तैयार करना।
    • मैंग्रोव जैसे प्रमुख पारिस्थितिकी तंत्रों की रक्षा करना, जो चरम मौसम की घटनाओं के विरुद्ध बफर के रूप में कार्य करते हैं।
    • इन कार्यों को कैसे प्राप्त किया जाए, इस बारे में सामाजिक समानता के प्रश्नों पर सक्रिय रूप से विचार करना।

चुनौतियाँ जिन पर विचार करने और उनसे निपटने की आवश्यकता है

इन सभी क्षेत्रों को कवर करने वाला एकल, सर्वव्यापी कानून बनाना व्यवहार्य नहीं है, विशेष रूप से मौजूदा कानूनी ढाँचे के मद्देनजर, जो इनमें से अधिकांश मुद्दों पर कानून बनाता है।

आगे की राह

निम्नलिखित बिंदु भारत के लिए अनुकूलित जलवायु कानून के लिए सिद्धांतों का एक सेट प्रदान करते हैं, जो रंजीत सिंह निर्णय के वादे को आगे बढ़ाने और पूरा करने के लिए एक आधार प्रदान करता है।

  • भारतीय संघवाद के अनुसार विधान: जलवायु कार्रवाई से संबंधित कई क्षेत्र जैसे शहरी नीति, कृषि और जल, उप-राष्ट्रीय सरकारों (राज्यों या स्थानीय स्तर) के अधिकार क्षेत्र में आते हैं और विद्युत भी एक समवर्ती सूची का विषय है।
    • भारतीय जलवायु कानून को एक साथ सुसंगत राष्ट्रीय कार्रवाई के लिए रूपरेखा तैयार करनी चाहिए, साथ ही राज्यों और स्थानीय सरकारों को सशक्त बनाने के लिए पर्याप्त रूप से विकेंद्रीकरण करना चाहिए तथा उन्हें प्रभावी कार्रवाई करने के लिए सूचना और वित्त उपलब्ध कराना चाहिए।
  • अंतरराष्ट्रीय अनुभव से सीखना: भारत अभी भी विकास कर रहा है, अत्यधिक असुरक्षित है, और अभी भी अपने बुनियादी ढाँचे का निर्माण करने के लिए देश को एक ऐसे कानून की आवश्यकता है, जो कम कार्बन और जलवायु लचीले विकास दोनों की दिशा में प्रगति को सक्षम करे। वांछित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, भारत अन्य देशों से सीख सकता है।
    • नियामक कानून: यह कार्बन उत्सर्जन को विनियमित करने पर केंद्रित है, उदाहरण के लिए, नियमित पाँच वार्षिक राष्ट्रीय कार्बन बजट निर्धारित करके और फिर उन्हें पूरा करने के लिए तंत्र स्थापित करके।
      • उदाहरण: यूनाइटेड किंगडम
    • एक सक्षम कानून: इसे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में विकास-केंद्रित निर्णयों को प्रोत्साहित करने के लिए लिखा जा सकता है, जिसमें व्यवस्थित रूप से यह पूछा जाता है कि क्या प्रत्येक निर्णय देश को निम्न-कार्बन विकास और जलवायु लचीलेपन के करीब ले जाता है या उससे दूर ले जाता है।
      • महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह दृष्टिकोण शमन के साथ-साथ अनुकूलन पर भी जोर देता है।
      • एक सक्षम कानून संभवतः अधिक प्रक्रिया-उन्मुख होगा, जो जलवायु परिवर्तन को मुख्यधारा में लाने के लिए व्यवस्थित रूप से संस्थाओं, प्रक्रियाओं और मानकों का निर्माण करेगा।
      • इस तरह के कानून में ज्ञान साझा करने के लिए प्रक्रियाओं का निर्माण किया जाएगा, पारदर्शिता सुनिश्चित की जाएगी और सार्वजनिक भागीदारी तथा विशेषज्ञ परामर्श के लिए अवसर प्रदान किए जाएँगे, लक्ष्यों और समय सीमाओं का सार्थक निर्धारण (और संशोधन) तथा इनके विरुद्ध रिपोर्टिंग को बढ़ावा दिया जाएगा।
      • उदाहरण: केन्या
  • निर्णय लेने में भागीदारी को सक्षम बनाना: आदर्श रूप से सक्षम बनाने की भूमिका सरकार से आगे भी बढ़नी चाहिए। व्यवसाय, नागरिक समाज और समुदाय, विशेष रूप से जलवायु प्रभावों के अग्रिम प्रभावित लोगों के पास ऊर्जा परिवर्तन और लचीलेपन को लाने के लिए आवश्यक ज्ञान है।
    • निर्णय लेने में भागीदारी को सक्षम बनाने के तरीके खोजने से समाज के सभी वर्ग जलवायु परिवर्तन से निपटने में अपने ज्ञान का उपयोग करने में सक्षम हो सकेंगे।
    • सक्षम प्रक्रियाओं पर आधारित एक प्रभावी भारतीय जलवायु कानून, समाज के विभिन्न वर्गों को अपनी बात कहने का अवसर भी प्रदान करेगा।

भारत में जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकार 

  • स्वास्थ्य का अधिकार (Right to Health): अनुच्छेद-21 और अनुच्छेद-14 स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार तथा जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध अधिकार के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। 
    • एक स्वच्छ पर्यावरण के बिना, जो स्थिर हो और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से अप्रभावित हो, जीवन का अधिकार पूरी तरह से साकार नहीं हो सकता।
      • अनुच्छेद-21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को मान्यता देता है और स्वास्थ्य का अधिकार इसका महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
      • अनुच्छेद-14 यह बताता है कि सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता तथा कानूनों का समान संरक्षण प्राप्त होगा।
  • अनुच्छेद-48A: इसमें कहा गया है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने तथा देश के वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा करने का प्रयास करेगा। इसे 42वें संशोधन, 1976 द्वारा जोड़ा गया था और यह राज्य पर पर्यावरण और वन्यजीवों की रक्षा करने का दायित्व डालता है।
  • अनुच्छेद-51-A (g): इसमें कहा गया है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे और उसका संवर्द्धन करे तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखे।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार: स्वास्थ्य का अधिकार विभिन्न कारकों के कारण प्रभावित होता है, जैसे वायु प्रदूषण, वेक्टर जनित रोगों में परिवर्तन, बढ़ता तापमान, सूखा, फसल खराब होने के कारण खाद्य आपूर्ति में कमी, तूफान और बाढ़।
    • इसलिए, जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त होने का अधिकार वांछनीय है।
  • न्यायिक हस्तक्षेप (Judicial Intervention) 
    • एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ (1987): सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना।
    • तब से लेकर अब तक सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों में इस बात को रेखांकित किया गया है कि लोगों को प्रदूषण रहित हवा में साँस लेने, स्वच्छ पानी पीने और स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है।

जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध मानव अधिकारों की रक्षा के लिए उठाए गए कदम

  • राष्ट्रीय स्तर पर
    • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan on Climate Change- NAPCC) का कार्यान्वयन: इसमें जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन को लक्षित करने वाले विभिन्न मिशन शामिल हैं।
    • नवीकरणीय ऊर्जा पहलों पर ध्यान केंद्रित करना: जैसे राष्ट्रीय सौर मिशन (National Solar Mission) और स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना।
      • जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (United Nations Framework Convention on Climate Change- UNFCCC) और पेरिस समझौते के तहत अपनी अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं के हिस्से के रूप में, भारत ने गैर-जीवाश्म आधारित बिजली क्षमता को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्धता जताई है। 
    • सतत् कृषि पद्धतियाँ: इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति लचीलापन बढ़ाना है।
    • वनीकरण एवं पुनर्स्थापन कार्यक्रम: वनों की कटाई से निपटने और कार्बन पृथक्करण को बढ़ाने के लिए वनीकरण तथा पुनर्वनीकरण कार्यक्रमों के कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
  • अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 
    • संयुक्त राष्ट्र: संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2022 में एक प्रस्ताव के माध्यम से स्वच्छ, स्वस्थ पर्यावरण तक पहुँच को सार्वभौमिक मानव अधिकार घोषित किया है।
    • जलवायु वित्त के लिए रूपरेखाएँ: जैसे कि ग्रीन क्लाइमेट फंड विकासशील देशों को उनके जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन प्रयासों में सहायता प्रदान करता है।
    • जलवायु-लचीले बुनियादी ढाँचे: चरम मौसम की घटनाओं और समुद्र-स्तर में वृद्धि के प्रति लचीलापन बढ़ाने के लिए।
    • क्षमता-निर्माण पहलों के लिए समर्थन: जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल होने के लिए कमजोर समुदायों की क्षमता को बढ़ाने के लिए।
  • संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की सिफारिशें
    • अंतरराष्ट्रीय सहयोग: पेरिस समझौते में जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकारों के बीच संबंध को मान्यता देना।
    • सुनिश्चित करना कि जलवायु निधियों के सुरक्षा उपायों में मानवाधिकारों को पूरी तरह से ध्यान में रखा जाए।
    • विकासशील देशों को वित्तीय सहायता में वृद्धि करना।
    • जलवायु परिवर्तन कानूनों सहित घरेलू कानूनी ढाँचों में मानवाधिकार मानदंडों को शामिल करना।
    • सहयोगात्मक दृष्टिकोण: स्थानीय सरकारों को व्यापार और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के मार्गदर्शक सिद्धांतों के अनुरूप निजी हितधारकों के साथ मिलकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना चाहिए।

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News Source: The Hindu

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