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भारत में जलवायु परिवर्तन और शमन उपाय

Lokesh Pal July 25, 2024 02:31 151 0

संदर्भ

हालिया आर्थिक सर्वेक्षण में उस बात को संबोधित किया गया है जिसे विकसित देश अक्सर स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं और जिसकी भारत ने हमेशा सिफारिश की है, स्वीकृत जलवायु-उपयुक्त मार्गों को उनके मूल में इष्टतमता के साथ विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोणों को ध्यान में रखना होगा।

आर्थिक सर्वेक्षण के जलवायु पहलू पर महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि

समीक्षा में कहा गया है कि भारत की विकास रणनीति की विशेषता जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का प्रबंधन करना और साथ ही विकासात्मक प्राथमिकताओं पर वांछित ध्यान देना है।

  • एक जिम्मेदार राष्ट्र: अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम (International Finance Corporation) की एक हालिया रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि भारत एकमात्र G-20 देश है, जो 2 डिग्री सेल्सियस वैश्विक तापमान वृद्धि की सीमा के अनुरूप है तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए मिशन मोड में है।
  • बढ़ती ऊर्जा में वृद्धि: भारत की बढ़ती विकासात्मक प्राथमिकताओं को देखते हुए, वर्ष 2047 तक देश की ऊर्जा आवश्यकताओं में 2 से 2.5 गुना वृद्धि होने की उम्मीद है।

  • सकल घरेलू उत्पाद द्वारा योगदान: भारत का कुल अनुकूलन-प्रासंगिक व्यय वर्ष 2015-16 में सकल घरेलू उत्पाद के 3.7% से बढ़कर वर्ष 2021-2022 में सकल घरेलू उत्पाद का 5.60% हो गया है, जो विकास योजनाओं में जलवायु लचीलेपन एवं अनुकूलन के एकीकरण का संकेत देता है।
    • वर्ष 2005 और वर्ष 2019 के बीच भारत की GDP लगभग 7% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (Compound Annual Growth Rate- CAGR) से बढ़ी है, जबकि उत्सर्जन लगभग 4% की CAGR से बढ़ा है, यानी उत्सर्जन वृद्धि की दर भारत की GDP की वृद्धि दर से कम है।
      • इससे पता चलता है कि भारत ने अपने आर्थिक विकास को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से सफलतापूर्वक अलग कर लिया है, जिससे उसके सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता कम हो गई है।

जलवायु कार्रवाई पर भारत द्वारा की गई महत्त्वपूर्ण प्रगति

हाल के वर्षों में, जलवायु परिवर्तन से निपटने की तात्कालिकता तेजी से स्पष्ट हो गई है, जिससे दुनिया भर के राष्ट्र महत्त्वाकांक्षी स्वच्छ ऊर्जा लक्ष्यों के लिए प्रतिबद्ध हो रहे हैं। इन देशों में, भारत सतत् विकास और जलवायु कार्रवाई में अग्रणी के रूप में उभरा है।

  • उत्सर्जन में कमी: विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के बावजूद, भारत का वार्षिक प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन वैश्विक औसत का केवल एक-तिहाई है।
    • भारत ने वर्ष 2005 और वर्ष 2019 के बीच अपने सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में उत्सर्जन तीव्रता को 33% तक सफलतापूर्वक कम कर दिया है, इस प्रकार निर्धारित समय से 11 वर्ष पहले ही वर्ष 2030 के लिए प्रारंभिक राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions- NDC) लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है।
  • नवीकरणीय ऊर्जा पर प्रगति: भारत ने गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों के माध्यम से 40% विद्युत स्थापित क्षमता हासिल कर ली है, जो वर्ष 2030 के लक्ष्य से 9 वर्ष पहले है। 
    • वर्ष 2017 और वर्ष 2023 के बीच, भारत ने लगभग 100 गीगावाट स्थापित विद्युत क्षमता जोड़ी है, जिसमें से लगभग 80% गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित संसाधनों से प्राप्त हुई है।
    • 31 मई, 2024 तक, स्थापित विद्युत उत्पादन क्षमता में गैर-जीवाश्म स्रोतों की हिस्सेदारी अप्रैल 2014 के 32% से बढ़कर 45.4% तक पहुँच गई है।
  • वृक्ष एवं वन क्षेत्र में वृद्धि: भारत वर्ष 2030 तक वृक्षों और वनों के माध्यम से 2.5 से 3.0 बिलियन टन का अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाने की दिशा में भी आगे बढ़ रहा है, जिसमें वर्ष 2005 से वर्ष 2019 तक 1.97 बिलियन टन CO2 समतुल्य कार्बन सिंक पहले ही बनाया जा चुका है।
  • अच्छा प्रदर्शन (Well Performer): दुबई में COP 28 के दौरान प्रकाशित जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक (CCPI) 2024 की रिपोर्ट में भारत को 7वाँ स्थान मिला है।
    • भारत प्रभावी रूप से चौथे स्थान पर है, क्योंकि ‘बहुत उच्च’ प्रदर्शन श्रेणी में पहले तीन स्थान खाली रहे।

भारत की जलवायु नीति के बारे में

जलवायु कार्रवाई के प्रति भारत की प्रतिबद्धता फरवरी 1972 में राष्ट्रीय पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय समिति (National Committee for Environmental Planning and Coordination- NCEPC) की स्थापना के समय से ही चली आ रही है। 

  • वर्ष 1972 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्टॉकहोम सम्मेलन को संबोधित करते हुए भारत के साथ-साथ वैश्विक दक्षिण के जलवायु रुख को रेखांकित किया था।
  • 1990 के दशक में पर्यावरण सहित कई क्षेत्रों में दुनिया भर में नई नीतियाँ उभरीं।
    • वर्ष 1992 के रियो शिखर सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (United Nations Framework Convention on Climate Change- UNFCCC) और जैव विविधता एवं वन सिद्धांतों पर कन्वेंशन का उदय हुआ। 
    • भारत ने अपनी जलवायु संवेदनशीलता को कम करने के लिए मिशनों और कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी नीति प्रतिक्रिया विकसित की है। 30 जून 2008 को जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan on Climate Change- NAPCC) जारी की गई।
      • भारत की जलवायु नीति सदैव स्पष्ट, सुसंगत और समन्वित रही है।
      • जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत के प्रयास तात्कालिक, महत्त्वाकांक्षी और योजनाबद्ध हैं तथा इसमें अर्थव्यवस्था का हर क्षेत्र शामिल है।
  • कानून (Statute): रियो शिखर सम्मेलन के बाद, भारत के तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्रालय में जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता प्रभाग धीरे-धीरे और स्थिर रूप से अस्तित्व में आए।
  • विजन: भारत की जलवायु नीति सर्वांगीण आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए समावेशी विकास, गरीबी उन्मूलन, घटते कार्बन बजट, UNFCCC के आधारभूत सिद्धांतों के प्रति दृढ़ अनुपालन और जलवायु अनुकूल जीवन शैली के दृष्टिकोण से आकार लेती है।

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत द्वारा उठाए गए विभिन्न कदम

जलवायु के महत्त्व को समझते हुए और ऊर्जा सुरक्षा को समर्थन देते हुए भारत द्वारा निम्नलिखित उपाय किए गए हैं:

  • ऊर्जा दक्षता पर: भवनों के लिए ऊर्जा संरक्षण भवन कोड (Energy Conservation Building Code- ECBC) का क्रियान्वयन, उपकरणों के लिए मानक और लेबलिंग (S&L) और स्टार-रेटेड कार्यक्रम, सतत् जीवन शैली को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु पर्यावरण के लिए जीवन शैली (LiFE) पहल, औद्योगिक क्षेत्र के लिए प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार ( Perform, Achieve, and Trade- PAT) योजना, तथा परिवहन क्षेत्र के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए चार्जिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि। 
    • उपर्युक्त सभी पहलों से लगभग ₹1,94,320 करोड़ की कुल वार्षिक लागत बचत और लगभग 306 मिलियन टन वार्षिक CO2 उत्सर्जन में कमी आएगी।
  • सतत विकास के लिए वित्त: भारत ने कारोबारी माहौल को बेहतर बनाने तथा अधिक मात्रा में संसाधन जुटाने के लिए कई कदम उठाए हैं।
    • सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड: सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए आय बढ़ाने हेतु जनवरी-फरवरी 2023 में 16,000 करोड़ रुपये की राशि के सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड जारी करने का कार्य शुरू किया, जो अर्थव्यवस्था के उत्सर्जन की तीव्रता को कम करने के प्रयासों में योगदान देगा।
    • इसके बाद अक्टूबर-दिसंबर 2023 में सॉवरेन ग्रीन बॉण्ड के माध्यम से 20,000 करोड़ रुपये जुटाए जाएँगे।

  • ग्रीन डिपॉजिट्स: सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया ने देश में हरित वित्त पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देने और विकसित करने के लिए विनियमित संस्थाओं के लिए ग्रीन डिपॉजिट्स की स्वीकृति हेतु रूपरेखा लागू की है।
    • यह अपने प्राथमिकता क्षेत्र ऋण (Priority Sector Lending- PSL) नियमों के माध्यम से नवीकरणीय ऊर्जा को भी बढ़ावा देता है।
  • सतत् जीवन शैली के लिए आह्वान: भारत और स्वीडन ‘उद्योग परिवर्तन के लिए नेतृत्व समूह’ (The Leadership Group for Industry Transition) के प्रमुख हैं। ‘पर्यावरण के लिए जीवनशैली’ (Lifestyle for Environment) अभियान के साथ, भारत ने दिखाया है कि सुविधाजनक कार्य ही एकमात्र संभव तरीका है और भारत की सतत् जीवन शैली ही आगे बढ़ने का रास्ता है।
  • ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम (Green Credit Program): COP 28 में भारत ने कार्बन क्रेडिट की वाणिज्यिक प्रकृति से आगे बढ़कर ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम की शुरुआत करके अपनी उपस्थिति का एहसास कराया।
    • प्रतिभागी पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देने वाली विभिन्न गतिविधियों के लिए ग्रीन क्रेडिट अर्जित कर सकते हैं।
  • प्रतिबद्ध कार्य (Committed Actions): भारत अभूतपूर्व रूप से बुनियादी सेवाएँ जैसे- पक्के आवास, चौबीसों घंटे विद्युत, स्वच्छ पेयजल, सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा और स्वच्छ रसोई गैस उपलब्ध कराने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।
    • जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई में ये उल्लेखनीय कदम हैं।
  • ग्रीन क्लाइमेट फंड (GCF): GCF में भारत की भागीदारी, जहाँ इसने योगदान देने का वचन दिया है तथा G20 सदस्यों और विकसित देशों को अपना समर्थन बढ़ाने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया है।
  • राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC): उत्सर्जन में कटौती करने और जलवायु प्रभावों के अनुकूल होने के लिए एक जलवायु कार्य योजना।
    • अगस्त 2022 में, भारत ने अपने NDC को अद्यतन किया, जिसके अनुसार अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को कम करने का लक्ष्य वर्ष 2005 के स्तर से वर्ष 2030 तक 45% तक बढ़ा दिया गया है और गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संसाधनों से संचयी विद्युत शक्ति स्थापित क्षमता का लक्ष्य वर्ष 2030 तक 50% तक बढ़ा दिया गया है।
    • भारत का पंचामृत (Panchamrit)
      • वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता तक पहुँचना।
      • वर्ष 2030 तक अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50% नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा करना।
      • अभी से वर्ष 2030 तक कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में 1 बिलियन टन की कमी।
      • वर्ष 2030 तक अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता में वर्ष 2005 के स्तर से 45% की कमी।
      • वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना।
  • समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्त्व तथा संबंधित क्षमताएँ Common but Differentiated Responsibilities and Respective Capabilities- CBDR–RC): यह जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के अंतर्गत एक सिद्धांत है, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने में अलग-अलग देशों की भिन्न-भिन्न क्षमताओं और जिम्मेदारियों को स्वीकार करता है। 
    • भारत, ग्लोबल साउथ की लगातार एक सशक्त आवाज रहा है, क्योंकि CBDR–RC सिद्धांत का विकास मुख्यतः रियो शिखर सम्मेलन, 1992 में भारतीय हस्तक्षेप के माध्यम से हुआ था।
  • जलवायु परिवर्तन के मुद्दों से निपटने में अंतरराष्ट्रीय पहल में भारत अग्रणी: भारत जलवायु परिवर्तन शमन और लचीलापन निर्माण की दिशा में कई अंतरराष्ट्रीय पहलों का नेतृत्व कर रहा है, जैसे अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance- ISA), एक विश्व, एक सूर्य, एक ग्रिड (OSOWOG), आपदा रोधी अवसंरचना के लिए गठबंधन (Coalition for Disaster Resilient Infrastructure- CDRI), लचीले द्वीपीय राज्यों के लिए अवसंरचना (Infrastructure for Resilient Island States- IRIS) और उद्योग परिवर्तन के लिए नेतृत्व समूह (Leadership Group for Industry Transition- LeadIT)। 
    • भारत आज जलवायु कार्रवाई में विश्व में अग्रणी है। इसने अपनी जलवायु नीति में दो और ‘C’ जोड़े हैं: आत्मविश्वास (confidence) और सुविधाजनक कार्रवाई (Convenient Action)
    • UNFCCC के लिए भारत की दीर्घकालिक निम्न उत्सर्जन विकास रणनीति वर्ष 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन हासिल करने की बहुपक्षीय प्रक्रिया में उसके विश्वास को दर्शाती है।
  • एक मौलिक अधिकार: हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक अधिकारों के दायरे का विस्तार करते हुए इसमें ‘जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने का अधिकार’ भी शामिल कर लिया है।

ऊर्जा संक्रमण की चुनौतियाँ

विभिन्न विकासों के बावजूद, भारत के सामने निम्नलिखित चुनौतियाँ हैं जिनका समाधान किया जाना आवश्यक है:

  • संसाधनों की अधिक माँग: नवीकरणीय ऊर्जा और स्वच्छ ईंधन के विस्तार से भूमि और जल की माँग बढ़ेगी। अधिकांश नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत भूमि-प्रधान हैं और विभिन्न ऊर्जा स्रोतों में से सबसे अधिक भूमि उपयोग की माँग करते हैं।

  • महत्त्वपूर्ण खनिजों पर निर्भरता: नवीकरणीय ऊर्जा के विस्तार के लिए बैटरी भंडारण प्रौद्योगिकियों की आवश्यकता होती है, जिसके लिए महत्त्वपूर्ण खनिजों की उपलब्धता की आवश्यकता होती है और ऐसे खनिजों का स्रोत भौगोलिक रूप से संकेंद्रित होता है।
  • तकनीकी सीमाएँ: यह प्रभावी जलवायु परिवर्तन नीतियों के विकास और कार्यान्वयन को प्रभावित करता है।
    • यद्यपि नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियाँ हाल के वर्षों में तेजी से विकसित हुई हैं, लेकिन कार्बन कैप्चर और भंडारण प्रौद्योगिकियाँ, जो मौजूदा बुनियादी ढाँचे से उत्सर्जन को कम करने में मदद कर सकती हैं, अभी भी विकास के प्रारंभिक चरण में हैं और तकनीकी चुनौतियों का सामना कर रही हैं।
  • कोयले के उपयोग पर अत्यधिक निर्भरता: भारत नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने वाली स्पष्ट दीर्घकालिक नीतियों के साथ अपने NDCs को पूरा करने का प्रयास कर रहा है, लेकिन तेल और गैस के साथ-साथ कोयले पर इसकी भारी निर्भरता अभी भी इसकी बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा कर रही है।
    • भारत में कोयला सबसे आवश्यक और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध जीवाश्म ईंधन है, जो देश की ऊर्जा आवश्यकताओं का 55% हिस्सा पूरा करता है।
    • अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (International Energy Agency) के अनुसार, वर्ष 2022 में, 310 मिलियन टन वार्षिक उत्पादन और लगभग 25 मिलियन टन आयात के साथ, कोयला भारत में ऊर्जा आपूर्ति का एक-तिहाई हिस्सा प्रदान कर रहा था।
  • जलवायु वित्त (Climate Finance): निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के लिए नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, बुनियादी ढाँचे और सतत् भूमि उपयोग प्रथाओं में पर्याप्त निवेश की आवश्यकता है।
    • भारत को अपने महत्त्वाकांक्षी स्थिरता लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए वर्ष 2050 तक पर्याप्त जलवायु वित्त की आवश्यकता है। विश्व बैंक का अनुमान है कि वर्ष 2070 तक नेट जीरो तक पहुँचने के लिए 10.1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी।
  • भविष्यवाणी में कठिनाई: जलवायु परिवर्तन एक बहुआयामी घटना है, जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, भूमि उपयोग में परिवर्तन, औद्योगिक गतिविधियाँ और प्राकृतिक प्रक्रियाएं तथा उनका परस्पर संबंध शामिल है, जिसके कारण जलवायु परिवर्तन की प्रकृति और प्रभाव का पूर्वानुमान लगाना कठिन हो जाता है।
  • संतुलन की दुविधा: आर्थिक विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच संतुलन बनाना नीति निर्माताओं के लिए एक संवेदनशील कार्य है, विशेष रूप से भारत और जीवाश्म ईंधन पर अत्यधिक निर्भर देशों के लिए।
    • विश्व बैंक के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि बाधित होगी तथा मलेरिया और अन्य बीमारियों के प्रसार में वृद्धि होगी, जिससे वर्ष 2030 तक 100 मिलियन से अधिक लोग अत्यधिक गरीबी में चले जाएँगे।
      • सामाजिक-आर्थिक चिंता: कम आय वाले समुदाय, स्वदेशी लोग और छोटे द्वीपीय राष्ट्र जैसी संवेदनशील आबादी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का गंभीर प्रभाव झेलती है। 
  • वैश्विक रणनीतियों की खामियाँ: जलवायु परिवर्तन के लिए वर्तमान वैश्विक रणनीतियाँ त्रुटिपूर्ण हैं और सार्वभौमिक रूप से लागू नहीं हैं।
    • पश्चिमी दृष्टिकोण समस्या के मूल कारण, जो कि अति उपभोग है, को संबोधित करने में विफल रहता है। इसके बजाय, यह अति उपभोग को प्राप्त करने के लिए वैकल्पिक साधनों पर ध्यान केंद्रित करता है।

स्वच्छ ऊर्जा पर वैश्विक रणनीति

विश्व ऊर्जा परिदृश्य (WEO)-2023 में वर्ष 2030 तक विश्व को सही रास्ते पर लाने के लिए एक वैश्विक रणनीति का प्रस्ताव किया गया है। इस प्रस्ताव के पाँच प्रमुख स्तंभ इस प्रकार हैं:

  • वैश्विक अक्षय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना बढ़ाना।
  • ऊर्जा दक्षता सुधार की दर को दोगुना करना।
  • जीवाश्म ईंधन संचालन से मेथेन उत्सर्जन में 75% की कमी लाना।
  • उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में स्वच्छ ऊर्जा निवेश को तीन गुना करने के लिए अभिनव, बड़े पैमाने पर वित्तपोषण तंत्र।
  • जीवाश्म ईंधन के उपयोग में व्यवस्थित कमी सुनिश्चित करने के उपाय, जिसमें कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों की नई स्वीकृतियों को समाप्त करना शामिल है।

आगे की राह

जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए ऊर्जा परिवर्तन के प्रति संतुलित दृष्टिकोण अपनाने तथा सतत् विकास को महत्त्व देने की आवश्यकता है।

  • वैकल्पिक माँगें: बढ़ती अर्थव्यवस्था की विकासात्मक प्राथमिकताओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारत की ऊर्जा जरूरतें वर्ष 2047 तक 2 से 2.5 गुना बढ़ने की उम्मीद है। यह देखते हुए कि संसाधन सीमित हैं, ऊर्जा संक्रमण की गति को जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलापन बढ़ाने और सतत् सामाजिक तथा आर्थिक विकास के लिए संसाधनों पर वैकल्पिक माँगों को ध्यान में रखना होगा।
  • अनुकूलित दृष्टिकोण की आवश्यकता: हाल ही में आर्थिक सर्वेक्षण में इस बात पर जोर दिया गया है कि भारत को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपना स्वयं का तरीका अपनाना चाहिए। उसे पश्चिमी दृष्टिकोण का अनुसरण नहीं करना चाहिए, जो देश की जरूरतों के अनुरूप नहीं है। जलवायु परिवर्तन को कम करने की भारत की योजना को देश के अद्वितीय सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को ध्यान में रखना चाहिए।
    • भारत प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध पर जोर देता है जैसे मिशन लाइफ मानव-प्रकृति सामंजस्य को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। यह अत्यधिक उपभोग की तुलना में सचेत उपभोग पर जोर देता है, जो वैश्विक जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को संबोधित करने के लिए केंद्रीय है।

  • सतत् आवास पर ध्यान केंद्रित करना: ‘परंपरागत बहु-पीढ़ीगत घरों’ की ओर रुख करने से सतत् आवास के लिए रास्ते खुल सकते हैं।

  • दीर्घकालिक लक्षित नीतियाँ: भारत के लिए जलवायु परिवर्तन नीति की सभी सिफारिशों के मूल में वित्तीय, राजनीतिक और नीतिगत नेतृत्व है। नीतियों और कार्रवाइयों को उनके दीर्घकालिक प्रभावों पर विचार करते हुए लिया जाना चाहिए।
    • नीति निर्माताओं को सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने तथा समान परिणाम सुनिश्चित करने वाली नीतियाँ विकसित करनी चाहिए।
  • नवाचार को प्रोत्साहित करना: विश्व आर्थिक मंच के अनुसार, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई में योगदान दे सकता है। मौजूदा AI सिस्टम में ऐसे उपकरण शामिल हैं, जो मौसम की भविष्यवाणी करते हैं, हिमखंडों को ट्रैक करते हैं और प्रदूषण की पहचान करते हैं। AI का उपयोग कृषि को बेहतर बनाने और इसके पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिए भी किया जा सकता है।
    • उदाहरण: संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और तेलंगाना सरकार द्वारा शुरू किया गया डेटा इन क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर (Data in Climate Resilient Agriculture- DiCRA) प्लेटफॉर्म, खाद्य प्रणालियों और सुरक्षा में सुधार के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग करता है। 
      • यह मंच किसानों को उनकी फसलों और पशुधन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने, उनका लचीलापन बढ़ाने और उनकी आजीविका को सुरक्षित करने के लिए महत्त्वपूर्ण डेटा और विश्लेषण प्रदान करता है।
  • अधिक निवेश: यद्यपि उत्सर्जन में कमी लाना महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यह भी उतना ही आवश्यक है कि हम प्रौद्योगिकियों और बुनियादी ढाँचे में निवेश करें, ताकि समुदायों को पहले से मौजूद संकट से निपटने में मदद मिल सके।
    • यह बात विकासशील देशों के कमजोर समुदायों के लिए विशेष रूप से सत्य है, जिन्हें जलवायु अनुकूल बुनियादी ढाँचे में निवेश की सख्त जरूरत है, जैसे सूखा-रोधी फसलें, बाढ़ सुरक्षा प्रणालियाँ तथा चरम मौसम की घटनाओं के लिए पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ।
  • अन्य उपाय: भारत के ऊर्जा क्षेत्र में एक प्रमुख हितधारक, कोयला को विनियमित करने की आवश्यकता है, वन जो कार्बन सिंक हैं (कार्बन पृथक्करण में सहायता करते हैं) को स्थानीय समुदायों और सरकार के सहकारी प्रयासों से सतत् प्रबंधन की आवश्यकता है और जलवायु-लचीले ग्रह की आकांक्षाओं को पूरा करने और दीर्घकालिक सतत् विकास प्राप्त करने के लिए एक सहयोगी प्रयास की आवश्यकता है।

निष्कर्ष 

भारत मानता है कि विकास और पर्यावरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और समग्र विकास के लिए इन पर एक साथ विचार किया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्या को हल करने के लिए दुनिया को ‘वसुधैव कुटुंबकम्’- एक पृथ्वी, एक विश्व और एक भविष्य के सदियों पुराने भारतीय सिद्धांत पर विश्वास करने की आवश्यकता है।

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