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केरल में भूस्खलन

Lokesh Pal August 02, 2024 03:28 146 0

संदर्भ

हाल ही में केरल में चाय बागानों और आवासीय क्षेत्र में भूस्खलन (Landslide) के कारण 50 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई।

भूस्खलन (Landslide) क्या है?

  • भूस्खलन: किसी ढलान से चट्टान, पत्थर, मिट्टी या मलबे का अचानक खिसकना भूस्खलन कहलाता है। 
  • कारक: जब गुरुत्वाकर्षण बल भू-सामग्री को बाँधे रखने की क्षमता (जिससे पहाड़ी या पर्वत की ढलान बनती है) से अधिक हो जाता है तो भूस्खलन जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

भूस्खलन का कारण (मानवीय दबाव)

  • प्राकृतिक कारकों के कारण: यह मुख्य रूप से पहाड़ी इलाकों में होता है जहाँ मिट्टी, चट्टान, भूविज्ञान और ढलान की अनुकूल परिस्थितियाँ होती हैं। 
    • इसके उत्पन्न होने वाले प्राकृतिक कारणों में भारी वर्षा, भूकंप, बर्फ पिघलना और बाढ़ के कारण ढलानों का कटाव शामिल हैं।
  • मानवजनित गतिविधियों के कारण: जैसे कि उत्खनन, पहाड़ियों और पेड़ों की कटाई, अत्यधिक बुनियादी ढाँचे का विकास और मवेशियों द्वारा अत्यधिक चराई।
    • अतिरिक्त भार: भूस्खलन का खतरा इसलिए बढ़ गया है क्योंकि भू-भाग की भार सहने की क्षमता पर ध्यान नहीं दिया गया।
    • नियमों का अभाव: कई पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण संबंधी कोई प्रभावी नियम नहीं हैं और जो हैं भी उनका प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन नहीं किया जाता है।
    • निर्माण एवं विकास: नये निर्माण, बुनियादी ढाँचे का विकास और यहाँ तक ​​कि कृषि संबंधी कार्य भी भूस्खलन के जोखिम को बढ़ा सकते हैं।
    • वहन क्षमता से अधिक (Exceeding Carrying Capacity): प्रत्येक पहाड़ी क्षेत्र की एक वहन क्षमता होती है। 
      • पहाड़ी क्षेत्रों में विकास आवश्यक है और कोई भी वहाँ की स्थानीय आबादी के लिए बुनियादी ढाँचे या नई सुविधाओं या आर्थिक गतिविधियों को रोक नहीं सकता है लेकिन इन्हें विनियमित किया जाना चाहिए। स्थिरता को ध्यान में रखना होगा, ताकि भार वहन क्षमता से अधिक न हो। 
      • यहीं पर जोनिंग विनियमन (Zoning Regulations) की बात आती है। इन्हें अंतिम रूप दिया जाना चाहिए और सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। 

भूस्खलन संबंधी चिंताएँ एवं संवेदनशीलता

भारत विश्व स्तर पर भूस्खलन की संवेदनशीलता वाले शीर्ष पाँच देशों में से एक है, जहाँ प्रति वर्ष प्रति 100 वर्ग किमी. में भूस्खलन की घटना के कारण कम-से-कम एक व्यक्ति की मृत्यु दर्ज की जाती  है।

  • भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण (Geological Survey of India- GSI) के अनुसार, भारत का लगभग 0.42 मिलियन वर्ग किमी. भूभाग या इसका लगभग 13% क्षेत्र, जो 15 राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों में फैला हुआ है, भूस्खलन की संवेदनशीलता वाला क्षेत्र है। 

  • इसमें देश के लगभग सभी पहाड़ी क्षेत्र शामिल हैं।
    • पूर्वोत्तर राज्य: लगभग 0.18 मिलियन वर्ग किमी या भारत के कुल संवेदनशील क्षेत्र का 42% हिस्सा पूर्वोत्तर क्षेत्र में है, जहाँ का अधिकांश भू-भाग पहाड़ी है।
    • वर्ष 2015 और वर्ष 2022 के बीच, सिक्किम सहित इस क्षेत्र के आठ राज्यों में 378 बड़ी भूस्खलन घटनाएँ दर्ज की गईं, जिसके परिणामस्वरूप जान-माल की हानि हुई।
  • इस अवधि के दौरान भारत में हुए सभी प्रमुख भूस्खलनों में इन घटनाओं का योगदान 10% था।
  • पूरे देश में केरल में सबसे अधिक 2,239 भूस्खलन हुए, जिनमें से अधिकांश राज्य में वर्ष 2018 की विनाशकारी बाढ़ के बाद हुए।

भूस्खलन की भविष्यवाणी करना कठिन क्यों है?

  • भू-सामग्रियों की जटिलता: जमीन के नीचे, भू-सामग्रियाँ विभिन्न चट्टानों और रेत, गाद तथा मिट्टी जैसे कणीय पदार्थों की कई परस्पर जुड़ी हुई परतों से मिलकर बनी होती हैं। 
    • उनकी क्षमता 1 से 1,000 तक के कारक से काफी भिन्न हो सकती है और उनका स्थानिक वितरण ढलान स्थिरता (Slope Stability) को प्रभावित करता है।
  • अपूर्ण डेटा और अनिश्चितता: सटीक ढलान स्थिरता आकलन (Accurate Slope Stability Assessment) के लिए इन सामग्रियों और उनकी क्षमता का त्रि-आयामी मानचित्रण आवश्यक है।
    • कोई भी सेंसर इतनी व्यापक जानकारी प्रदान नहीं कर सकता है, जिसके कारण भू-वैज्ञानिकों और भू-तकनीकी इंजीनियरों को चुनिंदा स्थानों से प्राप्त आंशिक डेटा पर निर्भर रहना पड़ता है और उसे संपूर्ण ढलान पर लागू करना पड़ता है।
  • रनआउट डिस्टेंस और सुरक्षित क्षेत्र (Runout Distance and Safe Zones): हालाँकि यह ज्ञात है कि बड़े भूस्खलनों की रनआउट डिस्टेंस अधिक होती है, लेकिन भूस्खलन के सटीक आकार का अनुमान लगाना कठिन है, जिससे रनआउट डिस्टेंस और सुरक्षित क्षेत्रों का निर्धारण अनिश्चित हो जाता है। 
  • भूस्खलन का समय: यह निर्धारित करना भी अनिश्चित है कि भूस्खलन कब होगा।
    • केवल यांत्रिक विश्लेषण ही भूकंप की तीव्रता और भूजल वितरण सहित विशिष्ट परिदृश्यों के तहत ढलान की भेद्यता का अनुमान लगा सकता है। 
    • हालाँकि, इन ट्रिगर्स के समय का पूर्वानुमान लगाना मौसम और भूकंपीय गतिविधियों की भविष्यवाणी करने जितना ही चुनौतीपूर्ण है। 

ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (Glacial Lake Outburst Floods- GLOF)

  • परिभाषा: ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (Glacial lake outburst floods-GLOF) हिमोढ़ या हिमनद बर्फ जैसी प्राकृतिक बाधाओं द्वारा अवरुद्ध झीलों से जल और तलछट का अचानक विखंडन होना है। 
    • ये क्षेत्र मीठे जल की सबसे शक्तिशाली बाढ़ के लिए जाने जाते हैं, जिनमें अत्यधिक मात्रा, निर्वहन और तलछट परिवहन दर होती है। 
  • भूदृश्यों का निर्माण (Formation of landscapes): वे कटाव, तलछट निर्माण और नदी के मार्गों में परिवर्तन करके भूदृश्यों को पुनः आकार देते हैं। 
  • हाल की घटना ‘हिमालयन ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट’
    • अक्टूबर 2023 में पूर्वोत्तर राज्य सिक्किम में भारी वर्षा के बाद एक हिमालयी हिमनद झील के तटबंध टूट गए थे, जिससे क्षेत्र में 50 से अधिक वर्षों में सबसे विनाशकारी बाढ़ आ गई थी, जिसमें 179 लोगों की मृत्यु हो गई थी और घर एवं पुल बह गए थे।

हीटवेव (Heatwave)

  • यदि किसी स्थान का अधिकतम तापमान मैदानी क्षेत्रों के लिए कम-से-कम 40°C या उससे अधिक तथा पहाड़ी क्षेत्रों के लिए कम-से-कम 30°C या उससे अधिक हो जाए तो उसे हीटवेव माना जाता है।
  • तटीय क्षेत्रों के लिए यह तब होता है जब अधिकतम तापमान 37°C या सामान्य से अधिक होता है।
  • इस तरह के तापमान को मौसम विज्ञान उप-विभाग के कम-से-कम दो स्टेशनों पर लगातार दो दिनों तक दर्ज किया जाना चाहिए। दूसरे दिन हीटवेव की घोषणा की जाती है।

भारत में चरम मौसम की स्थिति के लिए मानवजनित कारण

1. ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन

  • जीवाश्म ईंधन का दहन: ऊर्जा और परिवहन के लिए कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के दहन से वायुमंडल में बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) और अन्य ग्रीनहाउस गैसें (GHG) निकलती हैं। 
  • औद्योगिक गतिविधियाँ (Industrial Activities): विनिर्माण और औद्योगिक प्रक्रियाएँ GHG उत्सर्जन में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। 
  • प्रभाव

a. ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (Glacial Lake Outburst Floods- GLOF): वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण GLOF घटनाओं में वृद्धि हुई है, क्योंकि गर्म तापमान जल को रोकने वाले बर्फ या तलछट अवरोधों को कमजोर कर सकता है, जिससे उनके टूटने की संभावना अधिक हो जाती है। 

      1. वर्ष 2021 में ‘लॉक्ड हाउस, फैलो लैंड्स: उत्तराखंड, भारत में जलवायु परिवर्तन और पलायन’ (Locked Houses, Fallow Lands: Climate Change and Migration in Uttarakhand, India) शीर्षक से किए गए एक अध्ययन के अनुसार: पहाड़ों का वार्षिक औसत अधिकतम तापमान 1.6-1.9 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है। 
      2. यह तापमान वृद्धि वर्ष 2021 और वर्ष 2050 के बीच बढ़ने का अनुमान है।

b. हीटवेव (Heatwave): प्रत्येक क्षेत्र के लिए, हीटवेव का निर्धारण उसके सामान्य तापमान से अंतर की डिग्री के आधार पर किया जाता है। 

2. वनों की कटाई और भूमि उपयोग में परिवर्तन (Deforestation and Land Use Changes)

  • वनों की कटाई (Deforestation): कृषि, शहरी विकास और लकड़ी काटने के लिए वनों की कटाई से पृथ्वी की CO2 को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ जाती है।
  • कृषि पद्धतियाँ (Agricultural Practices): सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग सहित गहन कृषि पद्धतियाँ, नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन में योगदान करती हैं, जो एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है। 
  • प्रभाव
    • बाढ़: प्राकृतिक वनस्पतियों की हानि और अभेद्य सतहों में वृद्धि से अंतः निस्पंदन में बाधा उत्पन्न होती है, जिससे तेजी से अपवाह होता है और जल निकासी प्रणाली पर बोझ पड़ता है।
    • उदाहरण: ICED 2022 रिपोर्ट के अनुसार, देश में अंतः निस्पंदन में कमी और सतही अपवाह में वृद्धि के कारण वार्षिक अपवाह में लगभग 1.3 बिलियन क्यूबिक मीटर की उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। 

3. शहरीकरण

  • शहरी ऊष्मा द्वीप (Urban Heat Islands): तीव्र शहरीकरण के कारण ऊष्मा द्वीपों का निर्माण होता है, जहाँ कंक्रीट और डामर ताप को अवशोषित कर पुनः विकीर्णित करते हैं, जिससे स्थानीय तापमान में वृद्धि होती है। 
  • जल प्रबंधन: खराब शहरी नियोजन और अपर्याप्त जल निकासी प्रणालियाँ भारी वर्षा के प्रभाव को बढ़ा देती हैं, जिससे शहरी बाढ़ आती है।
  • प्रभाव
    • बाढ़: शहरी क्षेत्रों में बार-बार आने वाली बाढ़ का मुख्य कारण अनियोजित शहरीकरण है। 
      • केरल, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात राज्य सबसे अधिक प्रभावित हुए।

बाढ़ (Flood)

  • अनुमान है कि वर्ष 2030 तक भारत की शहरी आबादी 40.76% तक पहुँच जाएगी, जो आर्थिक विकास के लिए शहरीकरण के महत्त्व पर बल देता है। 
  • अपर्याप्त शहरी नियोजन और जलवायु परिवर्तन शहरी बाढ़ में योगदान करते हैं, जैसा कि हैदराबाद (2020), चेन्नई (2015) और बेंगलुरु (हाल ही में) में देखा गया है। 
  • केरल में बाढ़ की हालिया घटना
    • दक्षिणी राज्य केरल ने वर्ष 2018 में सदी की सबसे भीषण बाढ़ देखी, जिसमें कम-से-कम 373 लोगों की मौत हो गई और 1.2 मिलियन लोग आश्रय शिविरों में विस्थापित हो गए। राज्य में सामान्य से 40% अधिक वर्षा हुई थी।

4. औद्योगिक एवं कृषि प्रदूषण

  • वायु प्रदूषण: उद्योगों, वाहनों और कृषि उत्पादों के जलने से होने वाले उत्सर्जन से वायु प्रदूषण बढ़ता है, जो मौसम के पैटर्न को प्रभावित कर सकता है और मौसम की घटनाओं की गंभीरता को बढ़ा सकता है।
  • जल प्रदूषण: औद्योगिक उत्सर्जन और कृषि अपशिष्ट जल जल निकायों को दूषित करते हैं, जिससे जल विज्ञान चक्र प्रभावित होता है और चरम मौसम संबंधी घटनाएँ होती हैं।

5. असतत् जल प्रबंधन (Unsustainable Water Management)

  • भूजल का अत्यधिक दोहन (Over Extraction of Groundwater): कृषि और घरेलू उपयोग के लिए भूजल के अत्यधिक दोहन से भूजल स्तर में कमी आ सकती है, जिससे सूखे की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। 
  • अकुशल सिंचाई (Inefficient Irrigation): पारंपरिक और अकुशल सिंचाई पद्धतियों से जल की बर्बादी होती है और सूखे के प्रति सहनशीलता कम हो जाती है। 

आगे की राह : चरम मौसम की स्थिति को कम करना और उसके अनुकूल होना

  • शहरी नियोजन और बुनियादी ढाँचे का विकास
    • लचीला बुनियादी ढाँचा: चरम मौसम की घटनाओं का सामना करने के लिए बुनियादी ढाँचे का निर्माण एवं उन्नयन करना, जैसे बाढ़ प्रतिरोधी भवन और कुशल जल निकासी प्रणाली। 
    • हरित स्थान: शहरी ऊष्मा द्वीप प्रभाव को कम करने के लिए हरित स्थानों और शहरी वनों को शामिल करना। 
  • जल संसाधन प्रबंधन
    • एकीकृत जल प्रबंधन: एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन प्रथाओं को लागू करना, जो जल संसाधनों के सतत् उपयोग को सुनिश्चित करते हैं। 
    • वर्षा जल संचयन: शुष्क अवधि के दौरान जल की उपलब्धता बढ़ाने के लिए वर्षा जल संचयन और भूजल पुनर्भरण को बढ़ावा देना। 
  • आपदा तैयारी और प्रतिक्रिया
    • पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ: बाढ़, चक्रवात और सूखे के लिए पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ विकसित करना और उन्हें तैनात करना ताकि तैयारी को बढ़ाया जा सके और क्षति को न्यूनतम किया जा सके।
    • समुदाय आधारित दृष्टिकोण: चरम मौसम की घटनाओं पर प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया देने के लिए स्थानीय समुदायों को ज्ञान और उपकरणों से सशक्त बनाना। 
  • ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट के लिए
    • मोराइन बाँध का नियंत्रित उल्लंघन: मोराइन बाँध का जानबूझकर उल्लंघन स्थानीय झील से जल के निकास को नियंत्रित करता है। 
    • आउटलेट नियंत्रण संरचना का निर्माण: इस तकनीक में आउटलेट नियंत्रण संरचना का निर्माण शामिल है। यह संरचना जल को नियंत्रित करने और जल के निकलने को नियंत्रित करने में मदद करती है। 
    • जल को पंप करना (Pumping or Siphoning Water): जल को कम करने के लिए पंप का उपयोग करने से जल की मात्रा को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। इस तरह, यह मोरेन बाँध पर हाइड्रोस्टेटिक दबाव को कम करता है, जो आगे चलकर GLOF घटना को कम करता है। 
    • हिमोढ़ अवरोध या बर्फ बाँध के नीचे सुरंग बनाना: यह तकनीक जल के प्रवाह के लिए एक वैकल्पिक मार्ग प्रदान करती है, जिससे GLOF घटनाओं के अचानक विस्फोट में कमी आती है।

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