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SC और ST श्रेणियों का उप-वर्गीकरण

Lokesh Pal August 05, 2024 04:40 221 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राज्यों को आरक्षण लाभ प्रदान करने के लिए पिछड़ेपन के विभिन्न स्तरों के आधार पर आरक्षित श्रेणी समूहों को उप-विभाजित करने का अधिकार है।

  • ऐसा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ई. वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (EV Chinnaiah vs State of Andhra Pradesh) मामले में वर्ष 2004 के निर्णय को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि इस तरह का उप-वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि अनुसूचित जाति (SC)/अनुसूचित जनजाति (ST) एक ‘सजातीय’ (Homogenous) वर्ग हैं। 

अनुसूचित जाति के उप-वर्गीकरण की पृष्ठभूमि (Background for Sub-Categorisation of Scheduled Caste) 

भारतीय संविधान का अनुच्छेद-341 राष्ट्रपति को सार्वजनिक अधिसूचना के माध्यम से उन ‘जातियों, नस्लों या जनजातियों’ को अनुसूचित जातियों में सूचीबद्ध करने की अनुमति देता है, जो अस्पृश्यता के ऐतिहासिक अन्याय से पीड़ित हैं। अनुसूचित जाति समूहों को शिक्षा एवं सार्वजनिक रोजगार में संयुक्त रूप से 15% आरक्षण दिया जाता है। 

  • पंजाब सरकार द्वारा उप-वर्गीकरण, 1975 (Sub-Categorisation by Punjab Government, 1975): पंजाब सरकार ने अपने 25% अनुसूचित जाति आरक्षण को दो श्रेणियों में विभाजित किया है:
    • बाल्मीकि और मजहबी सिख समुदायों (आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से सबसे पिछड़े समुदाय) के लिए आरक्षित।
    • इस प्रकार, उन्हें शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार में किसी भी आरक्षण के लिए पहली वरीयता दी जानी थी।
    • शेष अनुसूचित जाति समुदाय, जिन्हें यह विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हुआ।
  • न्यायमूर्ति रामचंद्रन आयोग का गठन, 1996 (Formation of Justice Ramachandran Commission, 1996): आंध्र प्रदेश सरकार ने आयोग का गठन किया।
    • आयोग ने राज्य में अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण का प्रस्ताव इस साक्ष्य के आधार पर रखा कि कुछ समुदाय अधिक पिछड़े हैं तथा उनका प्रतिनिधित्व अन्य की तुलना में कम है।
  • आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम, 2000 [Andhra Pradesh Scheduled Castes (Rationalisation of Reservations) Act, 2000]: आंध्र प्रदेश सरकार ने राज्य में पहचाने गए अनुसूचित जाति समुदायों की एक विस्तृत सूची एवं उनमें से प्रत्येक को प्रदान किए जाने वाले आरक्षण लाभ के कोटे के लिए यह अधिनियम प्रस्तुत किया।
  • ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 2004 (E.V. Chinnaiah v State of Andhra Pradesh, 2004): पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने समानता के अधिकार का उल्लंघन करने के कारण आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम, 2000 को रद्द कर दिया।
    • न्यायालय ने कहा कि उप-वर्गीकरण इस श्रेणी के समुदायों के साथ अलग-अलग व्यवहार करके समानता के अधिकार का उल्लंघन करेगा और अनुसूचित जाति सूची को एकल, समरूप समूह के रूप में माना जाना चाहिए।
  • पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का निर्णय (Decision by Punjab & Haryana High Court): वर्ष 2004 में, न्यायालय ने डॉ. किशन पाल बनाम पंजाब राज्य (Dr. Kishan Pal vs State of Punjab) मामले में ई. वी. चिन्नैया निर्णय का समर्थन करते हुए वर्ष 1975 की अधिसूचना को रद्द कर दिया।
  • पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 [Punjab Scheduled Caste and Backward Classes (Reservation in Services) Act, 2006]: पंजाब सरकार ने इस अधिनियम को पारित करके कानून को वापस लाने का प्रयास किया।
  • सर्वोच्च न्यायालय में अपील: वर्ष 2010 में पंजाब सरकार ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील की, जिसमें तर्क दिया गया कि सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2004 के निर्णय में गलत निष्कर्ष निकाला गया था कि अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत उप-वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं है।
  • दविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य, 2014 (Davinder Singh v State of Punjab, 2014): सर्वोच्च न्यायालय ने अपील को पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ को भेज दिया ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि क्या वर्ष 2004 के ई. वी. चिन्नैया मामले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है, क्योंकि इसमें कई संवैधानिक प्रावधानों के परस्पर प्रभाव की जाँच की आवश्यकता थी। 
    • संविधान की व्याख्या के लिए सर्वोच्च न्यायालय के कम-से-कम पाँच न्यायाधीशों की पीठ की आवश्यकता होती है।
  • जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता, 2018 (Jarnail Singh v Lachhmi Narain Gupta, 2018): इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जातियों के भीतर भी ‘क्रीमी लेयर’ (Creamy Layer) की अवधारणा को बरकरार रखा।
    • ‘क्रीमी लेयर’ अवधारणा आरक्षण के लिए पात्र लोगों पर आय की एक सीमा लगाती है।
    • यह अवधारणा अन्य पिछड़ी जातियों (Other Backward Castes- OBC) पर लागू होती है, लेकिन इसे पहली बार वर्ष 2018 में एससी की पदोन्नति पर लागू किया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि

6:1 के बहुमत से दिए गए निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि किसी वर्ग के भीतर उप-वर्गीकरण, मौलिक समानता सुनिश्चित करने के लिए एक संवैधानिक आवश्यकता है।

  • विधिक कल्पना पर (On Legal Fiction): सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, अनुसूचित जातियों की राष्ट्रपति सूची एक ‘कानूनी कल्पना’ (Legal Fiction) है, जो वास्तविकता में मौजूद नहीं है, लेकिन ‘कानून के उद्देश्य के लिए इसे वास्तविक एवं विद्यमान माना जाता है’।
    • अनुसूचित जाति कोई ऐसी चीज नहीं है, जो संविधान लागू होने से पहले अस्तित्व में थी और इसे इसलिए मान्यता दी गई है ताकि सूची में शामिल समुदायों को लाभ प्रदान किया जा सके।
    • इस विधिक कल्पना को यह दावा करने के लिए ‘बढ़ाया’ नहीं जा सकता कि अनुसूचित जातियों के बीच कोई ‘आंतरिक मतभेद’ नहीं हैं।
  • राष्ट्रपति सूची के उप-वर्गीकरण पर: बहुमत की राय में कहा गया कि ‘अनुच्छेद-15 और अनुच्छेद-16 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए राज्य सामाजिक पिछड़ेपन की विभिन्न डिग्री की पहचान करने और पहचान की गई हानि की विशिष्ट डिग्री को प्राप्त करने के लिए विशेष प्रावधान (जैसे आरक्षण) प्रदान करने के लिए स्वतंत्र है”।
    • संविधान का अनुच्छेद-15(4) राज्यों को अनुसूचित जातियों की उन्नति के लिए ‘कोई विशेष प्रावधान’ करने की शक्ति देता है।
    • अनुच्छेद-16(4) राज्यों को नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों में आरक्षण प्रदान करने की विशिष्ट शक्ति प्रदान करता है, जिसका राज्य की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
    • अवसर की समानता (अनुच्छेद-16) में विभिन्न समुदायों की अलग-अलग सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखा जाना चाहिए। जब ​​अलग-अलग पायदान पर स्थित SC समुदायों को समान अवसर प्रदान किए जाते हैं तो इसका मतलब ‘सिर्फ असमानता को बढ़ाना’ हो सकता है।
  • उप-वर्गीकरण के मानदंड पर (On the Yardstick for Sub-Classification): बहुमत की राय ने राज्यों के लिए उप-कोटा तय करने के तरीके पर सख्त सीमाएँ तय कीं। राज्यों को व्यापक सुरक्षा की आवश्यकता को प्रदर्शित करना होगा, अनुभवजन्य साक्ष्य लाना होगा और उप-समूहों को वर्गीकृत करने के लिए ‘उचित’ तर्क देना होगा। इस तर्क का आगे न्यायालय में परीक्षण किया जा सकता है।
    • भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस बात पर जोर दिया कि सार्वजनिक सेवाओं में प्रतिनिधित्व का कोई भी रूप ‘प्रभावी प्रतिनिधित्व’ (Effective Representation) के रूप में होना चाहिए, न कि केवल ‘संख्यात्मक प्रतिनिधित्व’ (Numerical Representation) के रूप में।

  • ‘क्रीमी लेयर’ सिद्धांत की प्रयोज्यता पर (On Applicability of ‘Creamy Layer’ Principle): केवल न्यायमूर्ति गवई की राय ही अनुसूचित जातियों (और अनुसूचित जनजातियों) के लिए ‘क्रीमी लेयर’ अपवाद को लागू करने की सिफारिश करती है, जिसका पालन अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए पहले से ही किया जा रहा है, जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में उजागर किया गया है।
    • यह अवधारणा आरक्षण पात्रता पर आय की एक सीमा निर्धारित करती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि लाभार्थी उस समुदाय के लोग हैं, जिन्हें कोटे की सबसे अधिक आवश्यकता है।
  • संबंधित चिंताएँ: हालाँकि, विशेषज्ञों ने सवाल उठाया है कि न्यायाधीशों ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए क्रीमी लेयर सिद्धांत की प्रयोज्यता पर विचार क्यों किया, जबकि उनके समक्ष प्रस्तुत याचिकाएँ केवल उप-वर्गीकरण के मुद्दे से संबंधित थीं। 
    • हालाँकि, इस तरह की टिप्पणियाँ ओबिटर डिक्टा (Obiter Dicta) के दायरे में आती हैं, अर्थात् न्यायिक राय के वे खंड जो न्यायालय के निर्णय के लिए प्रासंगिक नहीं हैं और इसलिए उनमें कानून की ताकत और किसी बाध्यकारी मिसाल का अभाव होगा। 
    • ओबिटर डिक्टम (Obiter Dictum) एक लैटिन वाक्यांश है, जिसका अर्थ है ‘अन्य बातें कही गई’ (other things said), अर्थात्, किसी कानूनी राय में एक टिप्पणी जो किसी न्यायाधीश या मध्यस्थ द्वारा ‘बीच में कही गई’ (said in passing) होती है। यह इंग्लिश कॉमन लॉ (English common law) से ली गई अवधारणा है। 

निर्णय किए जाने वाले मुद्दे

लिए गए निर्णय

  • क्या उप-वर्गीकरण अनुमेय (Permissible) है?
  • हाँ, अनुसूचित जातियों को आगे वर्गीकृत किया जा सकता है यदि:-
    • भेदभाव के लिए एक तर्कसंगत सिद्धांत है।
    • यदि तर्कसंगत सिद्धांत का उप-वर्गीकरण के उद्देश्य से संबंध है।
  • “उप-वर्गीकरण मौलिक समानता प्राप्त करने के साधनों में से एक है”।
  • क्या अनुसूचित जाति समरूप है?
  • नहीं, अनुसूचित जातियाँ एक समरूप एकीकृत वर्ग नहीं हैं क्योंकि अनुभवजन्य साक्ष्य दर्शाते हैं कि अनुसूचित जातियों के भीतर भी असमानता है।
  • क्या अनुच्छेद-341 काल्पनिक मानकर एक समरूप वर्ग का निर्माण करता है?
  • नहीं, क्योंकि राष्ट्रपति सूची में शामिल होने से स्वचालित रूप से एक समान एवं आंतरिक रूप से समरूप वर्ग का गठन नहीं हो जाता है, जिसे आगे वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।
  • अनुच्छेद-341 अनुसूचित जातियों को अन्य समूहों से अलग करके उनकी पहचान के सीमित उद्देश्य के लिए एक विधिक कल्पना का निर्माण करता है।
  • क्या राज्य आरक्षित श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण बनाने में सक्षम हैं?
  • यद्यपि राज्य उप-वर्गीकरण की प्रक्रिया शुरू कर सकता है, परंतु उसे ऐसा राज्य की सेवाओं में पिछड़ेपन और प्रतिनिधित्व के स्तर से संबंधित मात्रात्मक और प्रदर्शन योग्य आँकड़ों के आधार पर करना होगा।
  • उप-वर्गीकरण का मॉडल असंवैधानिक होगा यदि यह कुछ अनुसूचित जातियों को लाभ से बाहर रखता है।

जाति (Caste) और उपजाति (Sub-Caste) के बारे में

भारत में जाति व्यवस्था एक सामाजिक पदानुक्रम है, जो सदियों से अस्तित्व में है, जो पारंपरिक रूप से लोगों को उनके व्यवसायों एवं सामाजिक भूमिकाओं के आधार पर विभिन्न समूहों में विभाजित करती है।

  • श्रेणियाँ: यह मुख्य श्रेणियों से जुड़ा हुआ है- ब्राह्मण (पुजारी एवं विद्वान), क्षत्रिय (योद्धा एवं शासक), वैश्य (व्यापारी एवं किसान), और शूद्र (मजदूर एवं सेवा प्रदाता) और बहिष्कृत वर्ग (Outcastes)।
  • उपजाति (Sub-Caste): इनमें से प्रत्येक मुख्य श्रेणी में अनेक उप-जातियाँ और उप-समूह हैं। ये उप-जातियाँ अक्सर क्षेत्रीय, व्यावसायिक या सामाजिक भेदभाव से उत्पन्न होती हैं।

अनुसूचित जाति (SC)/अनुसूचित जनजाति (ST) के उप-वर्गीकरण के बारे में

यह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के भीतर उप-समूह बनाने की प्रक्रिया है, ताकि आरक्षण लाभों का अधिक न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित किया जा सके तथा इन समुदायों के सबसे पिछड़े या हाशिए पर पड़े लोगों को लक्ष्य बनाया जा सके।

  • आवश्यकता: पिछले कई वर्षों से राज्य यह तर्क देते रहे हैं कि अनुसूचित जाति सूची में कुछ समूहों का प्रतिनिधित्व अन्य की तुलना में कम है।
    • उनका मानना ​​है कि 15% अनुसूचित जाति कोटे के भीतर कुछ जातियों के लिए अलग कोटा बनाया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लाभ सभी जातियों के बीच समान रूप से वितरित हो।
  • माँग: समय के साथ, कुछ समुदायों ने अपनी विशिष्ट विशेषताओं, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि या सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर मान्यता और विशिष्ट विशेषाधिकारों की माँग की है।
    • उप-वर्गीकरण का प्रयास बड़े जाति समूहों के भीतर विविधता को संबोधित करना तथा उन विशिष्ट उप-समूहों को लक्षित लाभ प्रदान करना है, जिन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित माना जाता है।
  • शक्ति निहित है: भारतीय संविधान का अनुच्छेद-341(1) राष्ट्रपति को किसी राज्य में ‘जातियों, मूलवंशों या जनजातियों को विनिर्दिष्ट करने’ की शक्ति देता है, जिन्हें ‘इस संविधान के प्रयोजनों के लिए उस राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जातियाँ माना जाएगा, जैसा भी मामला हो’।
    • ऐसी अधिसूचना के बाद, अनुच्छेद-341(2) में कहा गया है कि केवल संसद ही ‘किसी भी जाति, नस्ल या जनजाति’ को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल या बाहर कर सकती है।
  • प्रचलित उप-वर्गीकरण नीति (Sub-Categorisation Policy)
    • तमिलनाडु: वर्ष 2009 में, इसने राज्य में अनुसूचित जातियों के लिए 18 प्रतिशत आरक्षण के अंतर्गत अरुंथथियार (Arunthathiyars) के लिए रोजगार एवं शिक्षा में विशेष आरक्षण का प्रावधान किया।
    • बिहार: वर्ष 2007 में इसने ‘महादलित’ (सबसे पिछड़े दलित) नामक एक समूह बनाया, जिसमें 22 अनुसूचित जातियों में से चमार, धोबी, पासवान और दुषाद जातियों को बाहर रखा गया। 
      • बाद में वर्ष 2015 में पासवानों को छोड़कर सभी जातियों को महादलित घोषित कर दिया गया।
      • बिहार ने कल्याणकारी योजनाओं में महादलितों को प्राथमिकता दी और संवैधानिक आरक्षण से छेड़छाड़ नहीं की।
    • हरियाणा: वर्ष 2020 में, इसने ‘वंचित अनुसूचित जाति’ (Deprived Scheduled Castes) नामक SC का एक नया समूह बनाकर कानून के माध्यम से प्रवेश में आरक्षण को विभाजित कर दिया।
      • इस समूह में चमार और रविदासिया समुदायों को छोड़कर 36 अनुसूचित जातियाँ शामिल थीं।

जातियों के उप-वर्गीकरण की आवश्यकता

समानता हासिल करने के लिए, राज्य को SC/ST वर्ग के बीच क्रीमी लेयर की पहचान करने और उन्हें सकारात्मक कार्रवाई के दायरे से बाहर करने के लिए एक नीति विकसित करनी होगी।

  • असमान अवसर: सुरक्षात्मक और प्रतिपूरक भेदभाव की नीति रोजगार, शिक्षा और विधायिका में उप-जातियों के अनुपातहीन प्रतिनिधित्व को जन्म देती है।
    • तमिलनाडु में अनुसूचित जाति कोटे के अंतर्गत  अरुंथथियार जाति (Arunthathiyar Caste) को 3% कोटा दिया गया है, क्योंकि न्यायमूर्ति एम. एस. जनार्थनम् की रिपोर्ट में कहा गया था कि राज्य में अनुसूचित जाति की आबादी 16% होने के बावजूद उनके पास केवल 0-5% नौकरियाँ हैं।
  • श्रेणीबद्ध असमानताएँ: अनुसूचित जाति समुदायों और यहाँ तक कि हाशिए पर पड़े लोगों के बीच भी श्रेणीबद्ध असमानताएँ रही हैं, कुछ समुदायों की बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच कम है।
    • इनमें से अपेक्षाकृत अधिक उन्नत समुदाय लगातार लाभ प्राप्त करने में सफल रहे हैं, जबकि अधिक पिछड़े समुदायों को बाहर कर दिया है।
  • पदानुक्रम पर नियंत्रण पाना: SC श्रेणी समरूप नहीं है और इसमें विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक विशेषताओं वाले समुदायों की एक विस्तृत शृंखला शामिल है।
    • सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय (भारत सरकार) की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018-19 में देश में अनुसूचित जातियों की संख्या 1,263 थी। 
    • कुछ अनुसूचित जाति समुदायों ने शिक्षा, रोजगार और सामाजिक-आर्थिक विकास में प्रगति की है, जबकि अन्य को अभी भी महत्त्वपूर्ण नुकसान का सामना करना पड़ रहा है।
  • सामाजिक गतिशीलता को सुरक्षित करना: आरक्षण नीति प्रत्येक उप-जाति समूह को एक समान स्तर पर लाभ प्रदान करने में अप्रभावी है, जिसके परिणामस्वरूप अनुसूचित जातियों के विभिन्न उप-जाति समूहों के बीच प्रतिस्पर्द्धा और संघर्ष हुआ है।
    • राजनीतिक सत्ता का अधिग्रहण, शैक्षिक सुधार और व्यावसायिक परिवर्तन अनुसूचित जातियों की ऊर्ध्वगामी गतिशीलता के लिए प्रमुख परिसंपत्ति बन सकते हैं, जो उप-वर्गीकरण की माँग के लिए एक प्रमुख कारक के रूप में कार्य करता है।
  • सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना: सामाजिक न्याय इस बात पर जोर देता है कि ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों के साथ निष्पक्ष और न्यायपूर्ण व्यवहार हो तथा उनकी विशिष्ट चिंताओं का पर्याप्त रूप से समाधान किया जाए।
    • उप-वर्गीकरण, विशेष SC उप-समूहों की विशिष्ट कमजोरियों एवं आवश्यकताओं को संबोधित करने में अधिक लक्षित दृष्टिकोण की अनुमति देता है।
  • संसाधनों का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करना: उप-वर्गीकरण से कुछ समुदायों में लाभों के संकेंद्रण से बचने में मदद मिल सकती है, जबकि अन्य समुदाय वंचित रह जाते हैं।
    • इसके लिए राज्यों ने अनुसूचित जाति कोटे को इस आधार पर विभाजित करने का प्रयास किया है कि जाति एक प्रकार की श्रेणीबद्ध असमानता है।
    • पंजाब ने वर्ष 1975 में भर्ती के लिए अनुसूचित जातियों के भीतर वरीयता का एक क्रम बनाया।

जाति के उप-वर्गीकरण से संबंधित चुनौतियाँ

जातियों के उप-वर्गीकरण से जुड़ी कुछ चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं, जिनसे निपटने की आवश्यकता है:-

  • पहचान और मानदंड: उप-वर्गीकरण के लिए मानदंड निर्धारित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शैक्षिक उपलब्धि या क्षेत्रीय कारकों जैसे मापदंडों पर विचार किया जा सकता है, लेकिन इन मानदंडों पर आम सहमति तक पहुँचना मुश्किल हो सकता है।
    • वर्ष 1976 और वर्ष 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में इस बात पर जोर दिया गया है कि ‘अनुसूचित जातियाँ कोई जाति नहीं हैं, वे एक वर्ग हैं’ और उनकी सुरक्षा अस्पृश्यता को दूर करने पर आधारित है, अन्य कारकों पर नहीं।
  • डेटा की सटीकता और उपलब्धता: प्रत्येक समुदाय और उप-समुदाय की ठोस जनसंख्या और उनके संबंधित सामाजिक-आर्थिक डेटा यह तय करने के लिए आवश्यक हैं कि जातियों को कैसे वर्गीकृत किया जा सकता है, कितना प्रतिशत दिया जाना चाहिए आदि।
    • विभिन्न अनुसूचित जाति समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर सटीक एवं अद्यतन आँकड़े प्राप्त करना एक चुनौती है।
  • अंतर-समूह विवादों की संभावना: उप-वर्गीकरण से एससी समुदायों के बीच आंतरिक विभाजन और विवाद हो सकते हैं।
    • कुछ समूह लाभ से वंचित महसूस कर सकते हैं, जिससे व्यापक अनुसूचित जाति वर्ग के भीतर सामाजिक तनाव उत्पन्न हो सकता है। 
    • उदाहरण के लिए, अनुसूचित जातियों के बीच पिछड़ापन अस्पृश्यता की प्रथा से भी जुड़ा है, और उप-वर्गीकरण के कारण भीतर मतभेद से प्रतिस्पर्द्धी सकारात्मक कार्रवाई हो सकती है।
  • विखंडन की संभावना: यह जोखिम है कि उप-वर्गीकरण से SC समुदाय का विखंडन हो सकता है, जिससे उनकी राजनीतिक और सामाजिक पहचान कमजोर हो सकती है।
    • इससे उनके अधिकारों की वकालत करने में उनकी सामूहिक शक्ति कमजोर हो सकती है।
      • कोटा पर्याप्त नहीं हो सकता: राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग ने इस कदम का विरोध किया था, उनका तर्क था कि कोटे के भीतर कोटा निर्धारित करना पर्याप्त नहीं होगा।
    • उन्होंने तर्क दिया है कि असमानता को देखते हुए, यदि उच्च स्तर पर भी पद आरक्षित कर दिए जाएं, तो भी इन सबसे पिछड़ी अनुसूचित जातियों के पास पर्याप्त उम्मीदवार नहीं होंगे।
    • इसलिए, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मौजूदा योजनाएं और लाभ प्राथमिकता के आधार पर उन तक पहुंचें।

आगे की राह 

सकारात्मक उपलब्धि हासिल करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिए:

  • उप-वर्गीकरण लागू करने के लिए विकल्प तलाशना: केंद्र सरकार को इसके लिए कानूनी विकल्प तलाशने की आवश्यकता है।
    • उदाहरण के लिए, भारत के अटॉर्नी जनरल (AGI) ने कहा था कि इसे सुविधाजनक बनाने के लिए एक संवैधानिक संशोधन लाया जा सकता है।
    • NCSC और NCST ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-16(4) में पहले से ही राज्यों के संबंध में यह प्रावधान है कि वे किसी भी पिछड़े वर्ग के लिए विशेष कानून बना सकते हैं, जिसके बारे में उन्हें लगता है कि उसका प्रतिनिधित्व कम है। 
    • न्यायमूर्ति उषा मेहरा समिति (Justice Usha Mehra Committee) ने अपनी वर्ष 2008 की रिपोर्ट में संविधान संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद-341 में खंड (3) को शामिल करने की सिफारिश की थी, जिससे राज्य विधानमंडल को राष्ट्रपति की पुष्टि के अधीन अनुसूचित जाति श्रेणी के पुनर्वर्गीकरण को अधिनियमित करने का अधिकार मिल सके।
  • डेटा संग्रह और विश्लेषण: कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, संविधान संसद को SC या ST को उप-वर्गीकृत करने से नहीं रोकता है।
    • हालाँकि, सरकार को विभिन्न अनुसूचित जाति समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर व्यापक और सटीक डेटा संग्रह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
    • लाभों के उप-वर्गीकरण को उचित ठहराने तथा प्रत्येक समुदाय द्वारा अपेक्षित लाभों के अतिरिक्त हिस्से का मूल्यांकन करने के लिए यह एकमात्र अनुभवजन्य आधार हो सकता है।
  • विकास के लिए मानदंड: सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शैक्षिक उपलब्धियाँ और क्षेत्रीय असमानताओं जैसे कारकों पर विचार करते हुए उप-वर्गीकरण के लिए पारदर्शी तथा समावेशी मानदंड विकसित करना।
    • आंध्र प्रदेश सरकार ने वर्ष 1996 में न्यायमूर्ति रामचंद्र राजू की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया, जिसने इस साक्ष्य के आधार पर राज्य में अनुसूचित जाति के उप-वर्गीकरण की सिफारिश की कि कुछ समुदाय अधिक पिछड़े हैं तथा उनका प्रतिनिधित्व अन्य की तुलना में कम है।
  • मध्यम मार्ग का अनुसरण: अनुसूचित जाति वर्ग के भीतर विविधता को पहचानने और समुदाय की समग्र एकता को बनाए रखने के बीच संतुलन बनाए रखना।
    • नीतियों को उप-समूहों की विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए बनाया जाना चाहिए, ताकि अनुसूचित जाति समुदाय में विखंडन या सामूहिक शक्ति कमजोर न हो।

कमजोर वर्गों की सहायता के लिए संवैधानिक प्रावधान

भारतीय संविधान के निम्नलिखित प्रावधान कमजोर वर्गों के समर्थन एवं कल्याण से संबंधित हैं:

  • अनुच्छेद-15(4): उनकी उन्नति के लिए विशेष प्रावधान।
  • अनुच्छेद-16(4A): राज्य के अधीन सेवाओं में अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में आरक्षण की बात की गई है।
  • अनुच्छेद-17: अस्पृश्यता को समाप्त करता है।
  • अनुच्छेद-46: राज्य से अपेक्षा की जाती है कि वह जनता के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक तथा आर्थिक हितों को विशेष ध्यान से बढ़ावा दे एवं उन्हें सामाजिक अन्याय व सभी प्रकार के शोषण से बचाए।
  • अनुच्छेद-330 और अनुच्छेद-332: लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में सीटों के आरक्षण का प्रावधान करना।
  • अनुच्छेद-335: इसमें प्रावधान है कि संघ या राज्य के मामलों से संबंधित सेवाओं और पदों पर नियुक्तियाँ करते समय, प्रशासन की दक्षता बनाए रखने के अनुरूप, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों पर विचार किया जाएगा।
  • अनुच्छेद-338: अनुसूचित जातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग (National Commission for the Scheduled Castes- NCSC) और NCST का प्रावधान करता है।
  • पंचायतों से संबंधित संविधान के भाग IX तथा नगरपालिकाओं से संबंधित भाग IXA में स्थानीय निकायों में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की परिकल्पना तथा व्यवस्था की गई है।

राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित सूची के बारे में

अनुसूचित जातियों और जनजातियों की केंद्रीय सूची संविधान के अनुच्छेद-341 और 342 के तहत राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित की जाती है।

  • संसद की सहमति की आवश्यकता: सूची में जातियों को शामिल करने या बाहर करने के लिए संसद की सहमति आवश्यक है और राज्य एकतरफा रूप से सूची में जातियों को जोड़ या निकाल नहीं सकते हैं।
    • संविधान के अनुच्छेद-341 के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित जातियों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कहा जाता है।
  • राज्यों में भिन्नता: एक राज्य में अनुसूचित जाति के रूप में अधिसूचित जाति दूसरे राज्य में अनुसूचित जाति नहीं हो सकती है।
    • किसी विशेष जाति को आरक्षण दिया जाए या नहीं, इस पर विवाद को रोकने के लिए ये राज्य दर राज्य अलग-अलग हैं।
    • अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड, तथा अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह और लक्षद्वीप में किसी भी समुदाय को अनुसूचित जाति के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया गया है।

राज्यवार, प्रमुख जनजातीय और दलित समुदाय

विभिन्न राज्यों के कुछ महत्त्वपूर्ण कमजोर समुदाय निम्नलिखित हैं:-

  • महाराष्ट्र: महार, मातंग, गोंड, भील, धुले, आदि। 
  • राजस्थान: मेघवाल, बैरवा, जाटव, मीना, भील आदि। 
  • ओडिशा: खोंड, संथाल, गोंड, पान, डोम, धोबा, गांडा, कांड्रा, बाउरी, आदि। 
  • छत्तीसगढ़: गोंड, कावर/कँवर, ओराँव, बैरवा, रैदास, आदि। 
  • मध्य प्रदेश: बलाई, भील, गोंड, आदि। 
  • पश्चिम बंगाल: राजबंशी, मटुआ, बागड़ी, आदि। 
  • गुजरात: वनकर, रोहित, भील, हलपति, आदि। 
  • असम: बोडो, कार्बी, आदि। 
  • त्रिपुरा: देबबर्मा समुदाय, दास, बाद्यकर, शब्दकार, सरकार, आदि। 
  • उत्तराखंड: हरिजन, बाल्मीकि, जौनसारी, थारू, आदि।

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