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शरणार्थी अधिकार, विस्थापन की लैंगिक प्रकृति

Lokesh Pal August 12, 2024 02:38 68 0

संदर्भ

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR) के अनुसार, वर्ष 2023 के अंत तक दुनिया भर में 11.73 करोड़ लोग उत्पीड़न, संघर्ष, हिंसा, मानवाधिकार उल्लंघन आदि घटनाओं के कारण जबरन विस्थापित हो चुके हैं। इनमें से 3.76 करोड़ शरणार्थी थे। 

  • इजरायल-हमास युद्ध, यूक्रेन-रूस युद्ध तथा म्याँमार में रोहिंग्याओं के लिए नए खतरों जैसे चल रहे संघर्षों को देखते हुए, शरणार्थियों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि होने की संभावना है।
  • विस्थापन की लैंगिक आधारित प्रकृति इस बात पर प्रकाश डालती है कि शरणार्थियों को किस तरह अपने लिंग के आधार पर अनूठी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। प्रभावी मानवीय प्रतिक्रियाओं को सभी शरणार्थियों के लिए समान सहायता सुनिश्चित करने के लिए इन लिंग-विशिष्ट आवश्यकताओं को संबोधित करना चाहिए।

शरणार्थी (Refugee)

  • परिचय: वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन (Refugee Convention) में शरणार्थी को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जो ‘नृजाति, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता या राजनीतिक विचारधारा के कारण शोषित होने के भय के कारण अपना देश छोड़ चुके हैं।’
  • वैश्विक विस्थापन: वर्ष 2023 के अंत तक, दुनिया भर में 117.3 मिलियन लोग उत्पीड़न, संघर्ष, हिंसा, मानवाधिकार उल्लंघन या गंभीर सार्वजनिक अव्यवस्था के कारण जबरन विस्थापित हो चुके होंगे।
    • संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी, संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (United Nations High Commissioner for Refugees- UNHCR) के आँकड़ों के अनुसार, विश्व भर में 43.4 मिलियन शरणार्थी हैं।
    • अनुमान है कि विश्व के 40 प्रतिशत शरणार्थी बच्चे हैं।
    • UNHCR 31.6 मिलियन शरणार्थियों और अंतरराष्ट्रीय संरक्षण की आवश्यकता वाले 5.8 मिलियन अन्य लोगों की सुरक्षा करता है।
    • यूनाइटेड नेशन्स रिलीफ एंड वर्क्स एजेंसी फॉर फिलिस्तीन रिफ्यूजी इन द नियर ईस्ट (UNRWA) 6 मिलियन फिलिस्तीन शरणार्थियों को सहायता प्रदान करता  है।
  • शरणार्थी की स्थिति का निर्धारण: शरणार्थी की स्थिति का निर्धारण शरणार्थी स्थिति निर्धारण नामक प्रक्रिया के माध्यम से किया जाता है, जो आमतौर पर मेजबान देशों या UNHCR द्वारा संचालित की जाती है।
    • सामूहिक विस्थापन के मामलों में, भागने वाले व्यक्तियों को व्यक्तिगत जांच के बिना ही ‘प्रथम दृष्टया’ आधार पर स्वतः शरणार्थी का दर्जा प्राप्त हो सकता है।
  • जारी संघर्ष: इजरायल-हमास युद्ध के बढ़ने, यूक्रेन-रूस युद्ध जारी रहने तथा म्याँमार में रोहिंग्याओं के लिए नए खतरे के कारण विश्व स्तर पर शरणार्थियों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि होने की आशंका है।

शरणार्थी (Refugee), प्रवासी (Migrant), आंतरिक रूप से विस्थापित लोग (IDP) और राज्यविहीन व्यक्तियों (Stateless Persons) के बीच अंतर

  • छोड़ने का कारण
    • शरणार्थी (Refugee): उत्पीड़न, संघर्ष या हिंसा से बचकर भागना; वापस लौटना असुरक्षित है।
    • प्रवासी (Migrant): आर्थिक, शैक्षिक या जीवनशैली संबंधी कारणों से स्वेच्छा से स्थानांतरित होना; वापसी संभव है।
    • आंतरिक रूप से विस्थापित लोग (IDP): संघर्ष, हिंसा या आपदाओं के कारण अपने ही देश से पलायन करने को मजबूर होने पर वे अपने ही देश के अधिकार क्षेत्र में रहते हैं तथा परिस्थितियाँ सुधरने पर वापस लौटने का इरादा कर सकते हैं।
    • राज्यविहीन व्यक्तिय (Stateless Persons): राज्यविहीन व्यक्तियों को ऐसे व्यक्तियों के रूप में परिभाषित किया जाता है जिन्हें किसी भी देश का नागरिक नहीं माना जाता है और जो शरणार्थी की परिभाषा को पूरा करते हैं। उदाहरण के लिए, न तो म्याँमार (बर्मा) और न ही बांग्लादेश, म्यांमार की रोहिंग्या आबादी को नागरिक मानते हैं।
      • राष्ट्रीयता का अभाव और किसी भी देश की नागरिकता का दावा करने में असमर्थ होना; अक्सर कानूनी, राजनीतिक या ऐतिहासिक कारणों से।
  • विधिक स्थिति
    • शरणार्थी (Refugee): विशिष्ट अधिकारों के साथ अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत संरक्षित।
    • प्रवासी (Migrant): मेजबान देश के आव्रजन कानूनों के अधीन; कम कानूनी सुरक्षा।
    • IDPs: राष्ट्रीय कानूनों और मानवीय मानकों द्वारा संरक्षित, लेकिन विशिष्ट अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा का अभाव; उनके अधिकार एवं समर्थन देश के अनुसार अलग-अलग होते हैं।
    • राज्यविहीन व्यक्ति (Stateless Persons): ऐसे व्यक्तियों को कानूनी संरक्षण और मान्यता का अभाव रहता है, उनके अधिकार एवं सुरक्षा आमतौर पर न्यूनतम होते हैं और मेजबान देश एवं अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर व्यापक रूप से भिन्न होते हैं।
  • स्थिति और उद्देश्य
    • शरणार्थी (Refugee): ये अक्सर अनिश्चित स्थिति में होते हैं, इनका दीर्घकालिक भविष्य अनिश्चित होता है।
    • प्रवासी (Migrant): आमतौर पर यह एक निश्चित इरादे या लक्ष्य के साथ चलता है, जिसमें स्थायी बसावट की संभावना होती है।
    • IDPs: आमतौर पर वे अपने देश में अनिश्चितता की स्थिति में रहते हैं तथा अक्सर घर लौटने या देश के भीतर सुरक्षित क्षेत्रों में स्थानांतरित होने की आशा करते हैं।
    • राज्यविहीन व्यक्ति (Stateless Persons): मान्यता प्राप्त राष्ट्रीयता के अभाव के कारण ऐसे व्यक्तियों को अक्सर दीर्घकालिक अनिश्चितता और कानूनी अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है, तथा एकीकरण या पुनर्वास के अवसर भी सीमित होते हैं।

विस्थापन की लैंगिक आधारित प्रकृति

  • लिंग आधारित विस्थापन की स्वीकृति: संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष मानता है कि ‘विस्थापन में महिलाओं की संख्या सबसे अधिक है।’
  • विस्थापन की लिंग आधारित प्रकृति: विस्थापन की लैंगिक आधारित प्रकृति का अर्थ है कि महिलाओं और लड़कियों को अक्सर विशिष्ट कमजोरियों और बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो सेवाओं, सुरक्षा और कल्याण तक उनकी पहुँच को प्रभावित करता हैं, जो पुरुषों और लड़कों से भिन्न होती हैं।
  • जीवन और संसाधनों का व्यवधान: विस्थापन के दौरान, परिवार प्रायः अलग हो जाते हैं, परिसंपत्तियाँ और आजीविकाएँ नष्ट हो जाती हैं या बाधित हो जाती हैं तथा भाषा संबंधी बाधाएँ, कानूनी अड़चनें और भेदभाव जैसी चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • लैंगिक-विशिष्ट प्रभाव और अवसर: ये प्रभाव और बाधाएँ, साथ ही समर्थन के अवसर, लिंग के आधार पर काफी भिन्न होते हैं।
  • विभेदक प्रभाव: विस्थापन पुरुषों, महिलाओं, दिव्यांग लोगों आदि को अलग-अलग तरीकों से प्रभावित करता है।
    • महिलाएँ और लड़कियाँ: उन्हें अक्सर लैंगिक हिंसा, जिसमें यौन हिंसा, शोषण, जबरन वेश्यावृत्ति आदि शामिल हैं, के बढ़ते खतरों का सामना करना पड़ता है। उन्हें देखभाल और परिवार की देखभाल के लिए भी असंगत जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं।
    • महिलाएँ प्रायः बच्चों के लिए अकेले ही जिम्मेदार होती हैं, प्रायः वे सबसे अंत में घर से भागती हैं, तथा वृद्धों और युवाओं दोनों की देखभाल की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर होती है।
    • वे अक्सर परिवार के भरण-पोषण की प्राथमिक जिम्मेदारी उठाती हैं।
    • सामुदायिक नेटवर्क तक सीमित पहुँच और कम सुरक्षा के कारण उनकी भेद्यता बढ़ जाती है।
      • लैंगिक आधारित हिंसा में सार्वजनिक या निजी तौर पर यौन, शारीरिक, मानसिक और आर्थिक नुकसान पहुँचाना शामिल हो सकता है।
      • इसमें हिंसा, जबरदस्ती और धमकियाँ भी शामिल हैं।
      • इसके कई रूप हो सकते हैं, जैसे अंतरंग साथी हिंसा, यौन हिंसा, बाल विवाह, महिला जननांग विकृति और तथाकथित ‘सम्मान अपराध’।
    • पुरुष और लड़के: पुरुषों को प्रायः विभिन्न सामाजिक-आर्थिक जिम्मेदारियों और दबावों का सामना करना पड़ता है, जैसे अपने परिवार का भरण-पोषण करना या मेजबान देशों में श्रम बाजार में कार्य करना।
      • उन्हें विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, जैसे हिंसा का अधिक जोखिम या सशस्त्र समूहों में भर्ती होने का खतरा।
    • अक्षमताओं वाले लोग: दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (UN Convention on the Rights of Persons with Disabilities- UNCRPD) ‘मनोसामाजिक दिव्यांगता’ को दीर्घकालिक मानसिक या बौद्धिक दिव्यांगता के रूप में मान्यता देता है, जो पूर्ण सामाजिक भागीदारी में बाधा डालती है और प्रभावित व्यक्तियों को अधिकारों की गारंटी देता है।

भारत और शरणार्थी

  • भारत का शरणार्थी इतिहास: भारत ने अपनी स्वतंत्रता के बाद से विभिन्न समूहों के 2,00,000 से अधिक शरणार्थियों की मेजबानी की है, जिससे उसे ‘शरणार्थी-स्वागत’ करने वाले राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठा मिली है।
  • वर्तमान शरणार्थी जनसांख्यिकी: 31 जनवरी, 2022 तक, 46,000 शरणार्थी और शरण चाहने वाले UNHCR इंडिया के साथ पंजीकृत थे।
  • लैंगिक वितरण: भारत में शरणार्थी आबादी में महिलाओं और लड़कियों की हिस्सेदारी 46% है, जो कि अनुपातहीन रूप से बोझिल और कमजोर समूह का प्रतिनिधित्व करती है।
  • भारत में शरणार्थियों की स्थिति: अपनी आजादी के बाद से भारत ने पड़ोसी देशों से आए शरणार्थियों के कई समूहों की मेजबानी की है। इसमें शामिल हैं: वर्ष 1947 में पाकिस्तान से आए शरणार्थी, वर्ष 1959 में आए तिब्बती शरणार्थी और 1960 के दशक की शुरुआत में बांग्लादेश से आए चकमा और हाजोंग शरणार्थी।
    • इसके अतिरिक्त, भारत ने वर्ष 1965 और वर्ष 1971 में बांग्लादेशी शरणार्थियों, 1980 के दशक में श्रीलंकाई तमिल शरणार्थियों और हाल ही में वर्ष 2022 में म्याँमार से रोहिंग्या शरणार्थियों का स्वागत किया।

भारत और शरणार्थी नीति

  • विशिष्ट कानून का अभाव: शरणार्थियों की बढ़ती संख्या के बावजूद भारत में शरणार्थी मुद्दों को संबोधित करने के लिए कोई विशिष्ट कानून नहीं है।
  • प्रमुख सम्मेलनों में गैर-पक्षकार: भारत वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और उसके वर्ष 1967 के प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, जो शरणार्थियों के संरक्षण के लिए महत्त्वपूर्ण कानूनी दस्तावेज हैं।
  • संरक्षण का ऐतिहासिक रिकॉर्ड: भारत में शरणार्थियों के संरक्षण का एक उल्लेखनीय इतिहास है, जो विदेशी लोगों और संस्कृतियों को आत्मसात करने की नैतिक परंपरा द्वारा निर्देशित है।
  • मौजूदा कानूनों की सीमाएँ: विदेशी अधिनियम, 1946 (Foreigners Act, 1946), शरणार्थियों के सामने आने वाली अनूठी चुनौतियों का समाधान नहीं करता है और केंद्र सरकार को विदेशी नागरिकों को निर्वासित करने के लिए व्यापक शक्ति प्रदान करता है।
  • संवैधानिक सुरक्षा: भारतीय संविधान सभी व्यक्तियों के लिए जीवन, स्वतंत्रता और सम्मान के अधिकारों को बरकरार रखता है।
    • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की है कि विदेशी नागरिकों को समानता और जीवन के अधिकार जैसे मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य, 1996)
  • अवापसी नियम (Principle of Non-Refoulement): भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21 अवापसी नियम के समर्थन करता है, जो उत्पीड़न से बचने वाले व्यक्तियों को उनके मूल देश में लौटने के लिए मजबूर करने पर रोक लगाता है।
    • अवापसी नियम (Principle of Non-Refoulement): यह अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी कानून में एक मौलिक सिद्धांत है, जो किसी व्यक्ति को उस देश में वापस लौटने से रोकता है, जहाँ उसे अपने जीवन या स्वतंत्रता के लिए गंभीर खतरों का सामना करना पड़ता है।
    • वर्ष 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और उसके वर्ष 1967 के प्रोटोकॉल में सन्निहित।

शरणार्थियों से निपटने के लिए भारत का विधायी ढाँचा

  • मौलिक कर्तव्य: महिलाओं और बाल शरणार्थियों को अधिकारियों या स्थानीय निवासियों द्वारा हिंसा तथा उत्पीड़न से बचाना हमारे संविधान में निहित मौलिक कर्तव्य के अनुरूप है।
  • वर्ष 1946 का विदेशी अधिनियम: केंद्र सरकार को अवैध विदेशी नागरिकों का पता लगाने, उन्हें हिरासत में लेने और निर्वासित करने का अधिकार देता है।
  • पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920: संविधान के अनुच्छेद-258(1) के अनुसार, यह अधिकारियों को बलपूर्वक अवैध विदेशियों को बाहर निकालने की अनुमति देता है।
  • विदेशियों के पंजीकरण अधिनियम, 1939: यह अनिवार्य करता है कि दीर्घकालिक वीजा (180 दिनों से अधिक) पर आने वाले विदेशी नागरिकों (भारत के विदेशी नागरिकों को छोड़कर) को आगमन के 14 दिनों के भीतर पंजीकरण अधिकारी के पास पंजीकरण कराना होगा।
  • नागरिकता अधिनियम, 1955: नागरिकता के त्याग, समाप्ति और वंचना के लिए प्रावधान प्रदान करता है।
  • नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019: इसका उद्देश्य बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सताए गए हिंदू, ईसाई, जैन, पारसी, सिख और बौद्ध प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करना है।

भारत और दिव्यांग शरणार्थी

  • UNCRPD और मनोसामाजिक दिव्यांगता अधिकार
    • इसमें यह स्वीकार किया गया है कि दिव्यांग महिलाओं और लड़कियों को कई प्रकार के भेदभाव का सामना करना पड़ता है तथा उनके सभी मानवाधिकारों तथा स्वतंत्रताओं का पूर्ण आनंद सुनिश्चित करने के लिए उपाय करने का आदेश दिया गया है। (अनुच्छेद-6)
  • भारत का विधायी ढाँचा
    • भारत ने UNCRPD की पुष्टि की और दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 (RPWDA) को अधिनियमित किया, जो मानसिक बीमारी वाले व्यक्तियों सहित दिव्यांग व्यक्तियों को अधिकार प्रदान करता है।
    • RPWDA स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच (धारा 25) सहित विभिन्न अधिकारों की गारंटी देता है, और दिव्यांग महिलाओं के लिए अधिकारों के समान आनंद को अनिवार्य बनाता है। (धारा 4)
  • मनोसामाजिक दिव्यांगता वाली शरणार्थी महिलाओं के लिए चुनौतियाँ
    • मनोवैज्ञानिक दिव्यांगता वाली शरणार्थी महिलाओं को उनकी गैर-नागरिक स्थिति, कानूनी और प्रशासनिक निगरानी, ​​सामाजिक कलंक और वित्तीय बाधाओं के कारण RPWDA के लाभों से बाहर रखा गया है।
  • उच्चतम न्यायलय और स्वास्थ्य तक पहुँच
    • भारत का सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद-21 के तहत शरणार्थियों के जीवन के अधिकार की पुष्टि करता है, जिसमें स्वास्थ्य का अधिकार भी शामिल है। हालाँकि, शरणार्थियों की स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच काफी हद तक सरकारी अस्पतालों तक ही सीमित है और उन्हें अधिकांश सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण कार्यक्रमों से बाहर रखा गया है।
  • अधिकारों के कार्यान्वयन में अंतर
    • शरणार्थियों को RPWDA सुरक्षा प्रदान करने या UNCRPD अधिदेशों के साथ संरेखित करने की स्पष्ट गारंटी के बिना, मनोवैज्ञानिक दिव्यांगता वाली शरणार्थी महिलाओं को स्वास्थ्य और सहायता के अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है।
    • यह स्थिति न केवल सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का खंडन करती है, बल्कि UNCRPD की प्रभावशीलता को भी कमजोर करती है।

विस्थापित महिलाओं के लिए मानसिक स्वास्थ्य सहायता की समग्र चुनौतियाँ और बाधाएँ

  • विकास नीतियों और कार्यक्रमों में लैंगिक अंधता: विकास की नीतियाँ और कार्यक्रम प्रायः इन लिंग आधारित कारकों और अंतरों को ध्यान में रखे बिना तैयार किए जाते हैं तथा प्रायः यह भी निगरानी करने में विफल रहते हैं कि पुरुषों एवं महिलाओं, लड़कियों व लड़कों के बीच परिणाम और प्रभाव किस प्रकार भिन्न होते हैं।
  • मनोवैज्ञानिक भेद्यता में वृद्धि: शारीरिक और यौन उत्पीड़न के कारण विस्थापित महिलाएँ PTSD, चिंता और अवसाद जैसी मनोवैज्ञानिक स्थितियों के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाती हैं।
  • मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की उच्च दर: विस्थापित महिलाओं में PTSD का अनुभव होने की संभावना पुरुषों की तुलना में दोगुनी और अवसाद से पीड़ित होने की संभावना चार गुनी अधिक होती है। डारफुर में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 72% विस्थापित महिलाओं को PTSD और सामान्य संकट का सामना करना पड़ा।
  • ज्ञान-मीमांसा संबंधी अन्याय और कलंक: सामाजिक और लैंगिक असमानताएँ, विशेष रूप से पितृसत्तात्मक समाजों में, विस्थापित महिलाओं के अनुभवों को नजरअंदाज कर देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनकी स्थिति अक्सर अनदेखी हो जाती है और उन्हें कलंकित तथा  अलग-थलग कर दिया जाता है।
  • सहायता और सेवाओं तक सीमित पहुँच: सीमित वित्तीय संसाधनों के कारण, शरणार्थी परिवार अक्सर मानसिक स्वास्थ्य की तुलना में शारीरिक स्वास्थ्य और महिलाओं की तुलना में पुरुषों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हैं। कलंक, शर्म, संचार बाधाओं और सीमित मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता के कारण शरणार्थी महिलाओं के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ कम सुलभ हैं।
  • मेजबान समाज में चुनौतियाँ: भारत जैसे पारंपरिक रूप से पितृसत्तात्मक समाजों में, शरणार्थी महिलाओं को अलगाव का सामना करना पड़ता है और अपनी चिंताओं को व्यक्त करने के लिए उनके पास कोई मंच नहीं होता। उपलब्ध मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ अक्सर सीमित होती हैं, सरकारी अस्पतालों में लंबा इंतजार करना पड़ता है या अनियमित गैर-सरकारी संगठनों से सहायता लेनी पड़ती है, जो आमतौर पर समस्याएँ के बढ़ने के बाद ही मांगी जाती है।

भारत में शरणार्थी संरक्षण और एकीकरण में संरचनात्मक अंतराल को दूर करने के समाधान

  • संहिताबद्ध कानूनी ढाँचे की आवश्यकता: भारत में शरणार्थियों की महत्त्वपूर्ण आबादी को देखते हुए, अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को लागू करने और सतत् विकास के लिए वर्ष 2030 एजेंडा के साथ संरेखित करने के लिए एक समान, संहिताबद्ध ढाँचा स्थापित करना आवश्यक है।
  • दिव्यांग शरणार्थियों का एकीकरण: दिव्यांग शरणार्थियों को नीतियों और कार्यक्रमों में सुलभ तरीके से एकीकृत करना महत्त्वपूर्ण है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके अधिकारों और जरूरतों को पूरा किया जा सके।
  • डेटा संग्रह का महत्त्व: प्रभावी नीति-निर्माण के लिए शरणार्थियों की स्वास्थ्य स्थितियों पर अलग-अलग डेटा एकत्र करना और व्यवस्थित पहचान और पंजीकरण प्रक्रियाओं का कार्यान्वयन आवश्यक है।

संबंधित संगठन और सम्मेलन

  • संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (UNHCR)
    • UNHCR एक वैश्विक संगठन है, जो शरणार्थियों, जबरन विस्थापित समुदायों और राज्यविहीन लोगों के जीवन को बचाने, अधिकारों की रक्षा करने तथा बेहतर भविष्य बनाने के लिए समर्पित है। यह शरणार्थियों के स्वैच्छिक प्रत्यावर्तन, पुनर्वास या स्थानीय एकीकरण में सहायता करता है।
    • मुख्यालय: जिनेवा, स्विटजरलैंड में स्थित है।
    • प्रमुख कानूनी दस्तावेज: वर्ष 1951 में शरणार्थी सम्मेलन और उसका वर्ष 1967 प्रोटोकॉल UNHCR के कार्य का आधार है।
  • वर्ष 1951 में शरणार्थी सम्मेलन (Refugee Convention)
    • यह विधेयक शरणार्थी को परिभाषित करता है, शरण चाहने वालों के अधिकारों को रेखांकित करता है तथा शरण देने वाले देशों के दायित्वों को निर्दिष्ट करता है।
      • शरण चाहने वाला: UNHCR के अनुसार, इस शब्द का उपयोग ‘किसी ऐसे व्यक्ति को परिभाषित करने के लिए किया जाता है, जिसके शरण के अनुरोध पर अभी तक कार्रवाई नहीं हुई है।’
    • जातीयता, धर्म, राष्ट्रीयता, सामाजिक समूह की सदस्यता या राजनीतिक विश्वासों के आधार पर उत्पीड़न से बचने वाले व्यक्तियों को अधिकार प्रदान करता है।
  • वर्ष 1967 का प्रोटोकॉल: शरणार्थी संरक्षण पर भौगोलिक और लौकिक सीमाओं को हटाने के लिए वर्ष 1951 के कन्वेंशन में संशोधन किया गया।
  • शरणार्थियों पर वैश्विक समझौता (GCR), 2018
    • मेजबान देशों और समुदायों के बीच जिम्मेदारी-साझाकरण को बढ़ावा देता है।
    • इसका उद्देश्य मेजबान देशों पर दबाव कम करना, शरणार्थियों की आत्मनिर्भरता को मजबूत करना, तीसरे देश के समाधानों तक पहुँच में सुधार करना तथा मूल देशों में सुरक्षित वापसी के लिए स्थितियों का समर्थन करना है।

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