हाल ही में भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान (IIA) के खगोलविदों ने आगामी सौर चक्र के आयाम की भविष्यवाणी करने के लिए नई विधि खोजी।
इसके अलावा, उनका शोध अंतरिक्ष मौसम पूर्वानुमान में भी मदद कर सकता है।
संबंधित तथ्य
खगोलविदों ने IIA की कोडईकनाल सौर वेधशाला से 100 वर्षों के सौर डेटा का उपयोग करके एक नया सहसंबंध खोजा है।
भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान (IIA)
IIA खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी एवं सापेक्षिक भौतिकी में अनुसंधान के लिए समर्पित एक प्रमुख संस्थान है।
इस संस्थान को वर्ष 1786 में मद्रास में एक वेधशाला से प्रारंभ किया गया था, जिसे बाद में वर्ष 1899 में इसे कोडईकनाल स्थानांतरित कर दिया गया।
वर्ष 1971 में यह भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान के नाम से स्थापित हुआ तथा वर्ष 1975 में इसका मुख्यालय बंगलूरू में स्थानांतरित कर दिया गया।
वर्तमान में संस्थान के मुख्य प्रेक्षण स्थल कोडईकनाल, कवलूर, गौरीबिदानूर और हानले में स्थित हैं।
यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (DST) के अंतर्गत भौतिक विज्ञान, इंजीनियरिंग, खगोल विज्ञान एवं अंतरिक्ष विज्ञान में अनुसंधान करता है।
शोध क्षेत्र
सौर चक्र की जटिलताएँ और अंतरिक्ष मौसम का पूर्वानुमान भारत सहित वर्तमान शोध के महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं।
अंतरिक्ष मौसम सौर मंडल और उसके हेलियोस्फीयर के भीतर बदलती स्थितियों से संबंधित है, जो सूर्य और सौर पवन से प्रभावित होते हैं।
अंतरिक्ष मौसम
अंतरिक्ष मौसम के मुख्य घटक सौर पवन, कोरोनल मास इजेक्शन और ‘सोलर फ्लेयर्स’ हैं।
प्रभाव
ये पृथ्वी के मैग्नेटोस्फीयर को संकुचित कर सकते हैं और भू-चुंबकीय तूफानों को उत्प्रेरित कर सकते हैं, जो संचार और बिजली संचरण को प्रभावित कर सकते हैं।
अंतरिक्ष यान इलेक्ट्रॉनिक्स को नुकसान पहुँचा सकते हैं और अंतरिक्ष यात्रियों के जीवन को खतरे में डाल सकते हैं।
इस प्रकार, अंतरिक्ष मौसम का आधुनिक सभ्यता पर गहरा प्रभाव है।
प्रयुक्त विधियाँ
खगोलविद अगले सौर चक्र की शक्ति का पूर्वानुमान लगाने के लिए कई अलग-अलग तरीकों का उपयोग करते हैं। इसमें डायनेमो मॉडल, एक्सट्रपलेशन, प्रीकर्सर विधियों आदि पर आधारित सैद्धांतिक गणनाएँ शामिल हैं।
प्रीकर्सर विधि किसी निर्दिष्ट समय पर सौर गतिविधियों के कुछ माप के मान का उपयोग करके अगले सौर अधिकतम की ताकत का अनुमान लगाती है।
सौर कलंक (सनस्पॉट) की संख्या
हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में, IIA शोधकर्ताओं ने पाया कि सौर चक्र के न्यूनतम वर्ष के दौरान सौर सतह पर सुपरग्रेनुलर सेल्स की चौड़ाई अगले सौर चक्र के दौरान देखे गए सौर कलंक की संख्या से संबंधित है।
इस सरल विधि का उपयोग अंतरिक्ष मौसम पूर्वानुमान में किया जा सकता है।
वैज्ञानिकों ने कोडईकनाल सौर वेधशाला में संचालित दूरबीन का उपयोग करके लिए गए Ca-K आयन की 393.3 एनएम तरंग दैर्ध्य पर देखी गई सौर क्रोमोस्फेरिक छवियों का अध्ययन किया।
सौर कलंक
सौर-कलंक सूर्य की सतह का ऐसा क्षेत्र होता है, जिसकी सतह आसपास के हिस्सों की तुलना अपेक्षाकृत काली (DARK) होती है तथा तापमान कम होता है। इनका व्यास लगभग 50,000 किमी. होता है।
ये सूर्य की बाहरी सतह अर्थात् फोटोस्फीयर (Photosphere) के ऐसे क्षेत्र होते हैं, जहाँ किसी तारे का चुंबकीय क्षेत्र सबसे अधिक होता है। यहाँ का चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी की तुलना में लगभग 2,500 गुना अधिक होता है।
सामान्यत: चुंबकीय क्षेत्र तथा तापमान में व्युत्क्रमानुपाती संबंध होता है, अर्थात् तापमान बढ़ने पर चुंबकीय क्षेत्र घटता है।
विश्लेषण से पता चलता है कि ये सुपरग्रेनुलर लेन की चौड़ाई सौर कलंक संख्या के साथ सकारात्मक रूप से सहसंबंधित थी।
सौर कलंक चक्र के न्यूनतम समय के दौरान मध्य अक्षांशों के पास प्राप्त सुपरग्रेनुलर लेन की चौड़ाई अगले सौर कलंक चक्र के आयाम से दृढ़ता से सहसंबद्ध है।
सौर चक्र
अधिकांश सौर-कलंक समूहों में दिखाई देते हैं तथा उनका अपना चुंबकीय क्षेत्र होता है, जिसकी ध्रुवीयता लगभग 11 वर्ष में बदलती है जिसे एक ‘सौर चक्र’ (Solar Cycle) कहा जाता है।
सौर-कलंकों की संख्या में लगभग 11 वर्षों के चक्र के दौरान वृद्धि तथा कमी होती है, जिन्हें क्रमशः सौर कलंक के विकास तथा ह्रास का चरण कहा जाता है, वर्तमान में इस चक्र की न्यूनतम संख्या या ह्रास का चरण चल रहा है।
वर्तमान सौर चक्र की शुरुआत वर्ष 2008 से मानी जाती है, जो अपने ’सौर न्यूनतम’ (Solar Minimum) चरण में है।
’सौर न्यूनतम’ के दौरान सौर-कलंकों और सौर फ्लेयर्स (Solar Flares) की संख्या में कमी देखी जाती है।
अगला सौर चक्र (सौर चक्र संख्या 25)
अगला सौर चक्र, सौर चक्र संख्या 25, नवंबर 2024 और मार्च 2026 के बीच चरम पर होने की उम्मीद है, जिसमें जुलाई 2025 में अधिकतम 115 सौर कलंक होंगे।
राष्ट्रीय मौसम सेवा का अनुमान है कि सौर चक्र 25, सौर चक्र 24 के समान होगा, जो वर्ष 2019 में शुरू हुआ था।
सौर चक्र के कारण प्रभावित होने वाली गतिविधियाँ
ऑरोरा
जब एक सौर तूफान पृथ्वी की ओर आता है तो ऊर्जा के कुछ कण पृथ्वी के वायुमंडल में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर चुंबकीय रेखाओं तक पहुँच जाते हैं।
ऊर्जा के ये छोटे कण वायुमंडल में गैसों के साथ संपर्क करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप आकाश में आकर्षक प्रकाश दिखाई देता है। ऑक्सीजन हरे तथा लाल रंग में जबकि नाइट्रोजन नीले और बैगनी रंग में चमकती है।
उत्तरी ध्रुव पर इसे ‘ऑरोरा बोरेलिस’ (Aurora Borealis) तथा दक्षिणी ध्रुव पर इसे ‘ऑरोरा ऑस्ट्रेलिस’ (Aurora Australis) कहते हैं।
रेडियो संचार
एक रेडियो तरंग विद्युत स्पेक्ट्रम का हिस्सा है, जो चुंबकीय और विद्युत ऊर्जा दोनों तरंगों की एक शृंखला है। ये तरंगें भिन्न-भिन्न आवृत्तियों वाली होती हैं।
ये आवृत्ति संदेश पृथ्वी के वायुमंडल में आयनमंडल से परावर्तित होते हैं।
अधिकतम सौर्यिक प्रकाश और सौर तूफान के दौरान सूर्य से बड़ी मात्रा में उत्पन्न असामान्य रूप से सक्रिय कणों के प्रभाव में रेडियो तरंगें कम समय में अधिक दूरी तय करने लगती हैं।
सौर न्यूनतम के दौरान आयनमंडल की सामान्य ऊर्जा में कमी के कारण रेडियो तरंगों का पर्याप्त रूप में परावर्तन नहीं हो पाता है।
जलवायु परिवर्तन
पिछले तीन सौर चक्रों के दौरान सौर कलंकों की गतिविधियों में एक कमजोर प्रवृत्ति दिखाई देती है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इसके कारण मिनी हिमयुग और ठंडी जलवायु का आविर्भाव हो सकता है।
विद्युत पारेषण
धात्विक संरचनाओं, जैसे- ट्रांसमिशन लाइंस और सूर्य से आने वाले कई ऊर्जावान आवेशित कणों की गति द्वारा निर्मित विद्युत चुंबकीय क्षेत्रों के मध्य संपर्क के कारण विद्युत प्रणालियों के बाधित होने का खतरा बना रहता है।
यद्यपि इस तरह की घटनाएँ बहुत दुर्लभ हैं, लेकिन फिर भी ये काफी हानिकारक हो सकती हैं।
उपग्रह
सौर गतिविधियाँ उपग्रह प्रक्षेपण को प्रभावित करने के साथ-साथ उनके जीवनकाल को भी सीमित कर सकती हैं।
अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (Internation Space Station-ISS) के बाहर काम करने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिए विकिरण का खतरा हो सकता है।
यदि वैज्ञानिक सौर चक्र में सक्रिय समय की सटीक भविष्यवाणी करते हैं तो उपग्रहों को सुरक्षित मोड में रखा जा सकता है और अंतरिक्ष यात्री अपने स्पेसवॉक को रोक सकते हैं।
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