उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में दूरसंचार एवं विद्युत क्षेत्रों के समान एक ‘स्थायी पर्यावरण नियामक’ की आवश्यकता की जाँच करने का निर्णय लिया है।
समाचार की पृष्ठभूमि
सितंबर 2024 में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के वर्ष 2023 के आदेश के उत्तर में एक ‘स्थायी’ केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (Central Empowered Committee- CEC) के गठन की अधिसूचना जारी की थी।
प्रारंभिक गठन: CEC का गठन मूल रूप से वर्ष 2002 में TN गोदावर्मन बनाम भारत संघ मामले के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा वनों एवं वन्यजीवों से संबंधित न्यायालयी आदेशों के अनुपालन की निगरानी के लिए किया गया था।
स्थायीकरण में परिवर्तन: पहले तदर्थ निकाय के रूप में, CEC अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए एक स्थायी निकाय है।
इन मुद्दों की सुनवाई के दौरान, सुप्रीम कोर्ट ने एक स्थायी निकाय की आवश्यकता की जाँच करने का निर्णय लिया।
केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) की भूमिका
पर्यावरण प्रहरी: CEC ने काजीरंगा टाइगर रिजर्व एवं मोल्लेम गोवा परियोजना जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों की सुरक्षा में प्रमुख भूमिका निभाई है।
इसने उन परियोजनाओं के विपक्ष में सिफारिश की है, जो पर्यावरण संरक्षण को खतरे में डालती हैं, जैसे मोल्लेम में दक्षिण-पश्चिम रेलवे परियोजना।
CEC की स्वतंत्रता पर चिंताएँ
सरकारी प्राधिकरण: CEC’s की सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार करने पर अंतिम निर्णय सरकार के पास रहता है, किसी भी अस्वीकृति के लिए लिखित संदर्भ की आवश्यकता होगी।
स्वतंत्रता के मुद्दे: इस संरचना ने CEC’s की स्वतंत्रता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न कर दी हैं, क्योंकि केंद्र सरकार संभावित रूप से राज्य-स्तरीय निर्णयों को रद्द कर सकती है।
CAMPA फंड का उपयोग करने का निर्देश: इसके अतिरिक्त, इसी पीठ द्वारा एक अलग सुनवाई में आदेश दिया गया, कि राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों को अपने प्रतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंधन तथा योजना प्राधिकरण (Compensatory Afforestation Fund Management and Planning Authority- CAMPA) फंड का उपयोग विशेष रूप से वनों की कटाई के कारण हरित आवरण की क्षति की पुनर्स्थापना करने के लिए करना चाहिए, न कि किसी अन्य उद्देश्य के लिए।
अमीकस द्वारा उच्चतम न्यायालय को सूचित किया गया, कि वर्ष 2018 से 2024 के बीच कई राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों में CAMPA फंड का उपयोग 50% से कम रहा है।
हाल की कुछ पर्यावरणीय आपदाएँ
केरल भूस्खलन (2023-2024): केरल में मानसून के दौरान गंभीर भूस्खलन हुआ, मुख्य रूप से इडुक्की, वायनाड एवं मलप्पुरम् जिलों में, जो भारी वर्षा तथा वनों की कटाई के कारण हुआ।
उत्तराखंड हिमनद विस्फोट (2021): उत्तराखंड के चमोली में एक हिमनद झील के फटने से भयावह बाढ़ आ गई, जिससे जलविद्युत स्टेशन बह गए और गाँवों को नुकसान पहुँचा।
असम बाढ़ (2023): असम को वर्ष 2023 में भारी मानसूनी बारिश एवं नदी तट के कटाव के कारण विशेष रूप से गंभीर बाढ़ का सामना करना पड़ा, जिसमें ब्रह्मपुत्र तथा उसकी सहायक नदियों के कारण बड़े क्षेत्र जलमग्न हो गए।
महाराष्ट्र बाढ़ (2021): जुलाई 2021 में भारी मानसूनी वर्षा के कारण मुंबई एवं रत्नागिरी सहित पूरे महाराष्ट्र में भीषण बाढ़ तथा भूस्खलन हुआ।
बिहार बाढ़ (2022): बिहार में हर वर्ष आने वाली बाढ़, जो वर्ष 2022 में तटबंधों के टूटने तथा वनों की कटाई के कारण और भी भीषण हो गई, ने व्यापक विनाश किया एवं लाखों लोगों को विस्थापित किया।
दिल्ली वायु प्रदूषण संकट (वार्षिक): फसल अवशेष जलाने, वाहन उत्सर्जन एवं औद्योगिक गतिविधियों के कारण दिल्ली को प्रत्येक सर्दियों में गंभीर वायु प्रदूषण का सामना करना पड़ता है।
प्रतिपूरक वनरोपण निधि अधिनियम (Compensatory Afforestation Fund Act- CAMPA), 2016।
वर्ष 2016 का प्रतिपूरक वनरोपण निधि अधिनियम (CAMPA अधिनियम) भारत के पर्यावरण कानूनों के दायरे में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
उद्देश्य: प्रकृति के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए वनीकरण निधि का उपयोग करने के लिए एक उचित संस्थागत तंत्र प्रदान करना।
सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2002 में प्रतिपूरक वनीकरण गतिविधियों की निगरानी, तकनीकी सहायता एवं मूल्यांकन और प्रतिपूरक वनीकरण निधि(Compensatory Afforestation Fund- CAF) के प्रशासन के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में CAMPA की स्थापना की।
भारत में मौजूदा नियामक प्राधिकरण
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority- NTCA): यह प्रोजेक्ट टाइगर का नियमन करता है एवं पूरे भारत में बाघों तथा उनके आवासों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है। इसकी स्थापना वर्ष 2005 में टाइगर टास्क फोर्स की सिफारिशों के बाद वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम,1972 के तहत की गई थी।
वन सलाहकार समिति (Forest Advisory Committee- FAC): यह न्यूनतम पर्यावरणीय क्षति सुनिश्चित करते हुए, गैर-वन गतिविधियों के लिए वन भूमि परिवर्तन पर सलाह देती है। इसका गठन वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के तहत किया गया था।
राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (National Board for Wildlife- NBWL): यह सरकार को वन्यजीव संरक्षण नीतियों एवं संरक्षित क्षेत्रों में परियोजना अनुमोदन पर सलाह देता है। इसकी स्थापना प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत की गई थी।
राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति: NBWL के प्राथमिक निर्णय लेने वाले निकाय के रूप में कार्य करते हुए, वन्यजीवों को प्रभावित करने वाली परियोजनाओं की समीक्षा एवं मंजूरी देती है। इसका गठन NBWL की परियोजना अनुमोदन प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए किया गया था।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board- CPCB): यह बोर्ड वायु, जल एवं ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित तथा मॉनिटर करता है एवं प्रदूषण नियंत्रण नीतियों पर सलाह देता है। इसे जल अधिनियम, 1974 के तहत स्थापित किया गया था, तथा वायु अधिनियम, 1981 के तहत विस्तारित किया गया था।
केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (Central Empowered Committee- CEC): वन एवं वन्यजीवन से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के अनुपालन पर निगरानी रखता है तथा रिपोर्ट तैयार करता है। इसका गठन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 2002 में किया गया था।
वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो (Wildlife Crime Control Bureau- WCCB): यह संगठित वन्यजीव अपराध पर नियंत्रण करता है एवं वन्यजीव संरक्षण कानूनों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करता है। इसकी स्थापना वर्ष 2006 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के तहत की गई थी।
राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (National Biodiversity Authority- NBA): यह जैव विविधता संरक्षण और जैविक संसाधनों से लाभ के न्यायसंगत बँटवारे को बढ़ावा देता है। इसकी स्थापना वर्ष 2003 में जैव विविधता अधिनियम, 2002 के तहत की गई थी।
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (National Green Tribunal- NGT): यह पर्यावरणीय विवादों पर निर्णय देता है एवं पर्यावरण कानूनों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करता है। इसकी स्थापना वर्ष 2010 में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम, 2010 के तहत की गई थी।
एक स्थायी पर्यावरण नियामक संगठन की आवश्यकता
विकेंद्रीयकृत जिम्मेदारियाँ: NTCA, FAC एवं CPCB जैसे मौजूदा निकायों की विशिष्ट भूमिकाएँ हैं, लेकिन समग्र निरीक्षण का अभाव है। एक स्थायी नियामक पर्यावरण प्रशासन को एकीकृत तथा सुव्यवस्थित करेगा।
सीमित क्षेत्राधिकार एवं प्रवर्तन: मौजूदा प्राधिकरणों को क्षेत्राधिकार की सीमाओं के कारण प्रवर्तन में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। एक समर्पित नियामक सभी क्षेत्रों में व्यापक एवं सुसंगत प्रवर्तन सुनिश्चित करेगा।
चुनौतियों की जटिलता: जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय खतरों के लिए अनुकूल रणनीतियों की आवश्यकता होती है। एक स्थायी नियामक उभरते मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए उन्नत वैज्ञानिक अनुसंधान को एकीकृत करेगा।
जवाबदेही एवं पारदर्शिता: वर्तमान प्रणाली में पारदर्शिता और स्थिरता का अभाव है। एक केंद्रीकृत विनियामक स्पष्ट दिशा-निर्देशों के साथ निर्णय लेने की प्रक्रिया को बेहतर बनाएगा और मनमाने निर्णयों को कम करेगा।
राष्ट्रीय नीतियों को अंतरराष्ट्रीय लक्ष्यों के साथ संरेखित करना: मौजूदा निकायों के सीमित अधिदेशों के कारण भारत के वैश्विक पर्यावरण दायित्व अक्सर पूरे नहीं हो पाते हैं। एक स्थायी नियामक राष्ट्रीय नीतियों को अंतररा य लक्ष्यों के साथ संरेखित करेगा।
पर्यावरण नियामक संगठन के गठन के विरुद्ध तर्क
प्रयासों का दोहराव: भारत में पहले से ही NTCA , CPCB एवं NGT जैसे विशेष नियामक निकाय हैं, जो विशिष्ट पर्यावरणीय मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करते हैं।
एक नया नियामक पेश करने से नौकरशाही ओवरलैप हो सकती है,कार्यो में दोहराव हो सकता है एवं निर्णय लेने की प्रक्रिया धीमी हो सकती है।
वर्तमान निकायों में विशेषज्ञता: वर्तमान निकायों के पास उनके अधिदेशों के अनुरूप विशेषज्ञता है, जो सूक्ष्म एवं सूचित निर्णय लेने को सुनिश्चित करती है। एक केंद्रीकृत विनियामक के पास विविध पर्यावरणीय चुनौतियों के लिए आवश्यक विस्तृत समझ की कमी हो सकती है, जिससे विनियामक प्रभावशीलता कम हो सकती है।
विनियामकीय अतिक्रमण की संभावना: एक एकल विनियामक, प्राधिकरण को केंद्रीकृत कर सकता है, जिससे अतिक्रमण का जोखिम उत्पन्न हो सकता है और स्थानीय पहलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
शक्ति का संकेंद्रण: मौजूदा बहु-स्तरीय प्रणाली विविध दृष्टिकोण एवं संतुलित निर्णय लेने को सुनिश्चित करती है, जो केंद्रीकृत प्राधिकरण के तहत समझौतापूर्ण हो सकती है।
परिचालन चुनौतियाँ: मौजूदा नियामकों को एक इकाई में विलय करना जटिल हो सकता है, जिससे अकुशलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। नएनियामक की स्थापना से मंजूरी में देरी हो सकती है, जिससे चल रही परियोजनाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
सरकार की मिश्रित प्रतिक्रिया: सरकार संभावित लाभों को स्वीकार करती है, लेकिन मौजूदा ढाँचे में अनावश्यक जटिलता जोड़ने के जोखिम पर भी प्रकाश डालती है। मंत्रालयों और न्यायिक निकायों सहित मौजूदा निगरानी तंत्र एक नए नियामक को अनावश्यक बना सकते हैं।
क्षेत्र-विशिष्ट विनियम: विभिन्न पर्यावरणीय क्षेत्रों को अलग-अलग नियामक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जिसे सँभालने के लिए मौजूदा विशेष निकाय बेहतर ढंग से सक्षम हैं।
न्यायिक निरीक्षण: उच्चतम न्यायालय एवं NGT पहले से ही पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं तथा एक नया नियामक उनके अधिकार को कमजोर कर सकता है।
आगे की राह
मौजूदा निकायों को मजबूत करना: दोहराव से बचने, प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने और उभरती पर्यावरणीय चुनौतियों का अधिक प्रभावी ढंग से समाधान करने के लिए क्षमता निर्माण हेतु NTCA, CPCB तथा NGT जैसे मौजूदा नियामकों के बीच सहयोग बढ़ाना।
हाइब्रिड मॉडल को अपनाना: विशिष्ट निकायों की देखरेख के लिए एक केंद्रीय समन्वय प्राधिकरण का निर्माण करना तथा स्थानीयकृत, संदर्भ-विशिष्ट निर्णय लेने हेतु क्षेत्रीय शाखाएँ स्थापित करना, जिससे पर्यावरणीय प्रशासन के लिए एकीकृत तथा लचीला दृष्टिकोण सुनिश्चित हो सके।
जवाबदेही एवं पारदर्शिता बढ़ाना: पर्यावरणीय प्रभाव आकलन एवं अनुमोदन के लिए मानकीकृत प्रक्रियाओं को लागू करना तथा सुसंगत, पारदर्शी एवं जवाबदेह निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ाना।
प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: वास्तविक समय की निगरानी (Real-time Monitoring), पारदर्शिता एवं डेटा-संचालित निर्णयों के लिए AI GIS एवं ब्लॉकचेन जैसी उन्नत तकनीकों का उपयोग करना। जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों के लिए अनुकूली रणनीतियों को बढ़ावा देने के लिए नियामक निकायों के भीतर नवाचार केंद्र स्थापित करना।
स्वतंत्रता सुनिश्चित करना: नियामक निकायों को उनकी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए राजनीतिक प्रभाव से बचाना, सुदृढ़ न्यायिक निगरानी सुनिश्चित करना कि निर्णय बाहरी दबावों के बजाय पर्यावरणीय योग्यता के आधार पर लिए जाएँ।
स्थिरता पर ध्यान: सभी विनियामक कार्यों को सतत् विकास लक्ष्यों के साथ संरेखित करना एवं नई चुनौतियों के अनुकूल होने तथा दीर्घकालिक पारिस्थितिकी स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए नियामक ढाँचे की नियमित समीक्षा करना।
अंतरराष्ट्रीय सहयोग: पर्यावरण विनियमन में वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाने एवं अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय निकायों के साथ सहयोग करना, वैश्विक पर्यावरण प्रशासन में भारत की भूमिका को बढ़ाना।
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