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भारत में लिव-इन रिलेशनशिप वाले दंपतियों से संबंधित मुद्दे

Lokesh Pal September 10, 2024 01:42 134 0

संदर्भ 

लिव-इन रिलेशनशिप वाले दंपत्तियों  के लिए कानूनी प्रावधानों की प्रतिबंधात्मक प्रकृति सामाजिक रूढ़िवादिता और न्याय प्रणाली को प्रभावित करने की अनुमति देती है।

लिव-इन रिलेशनशिप

  • लिव-इन रिलेशनशिप मूल रूप से दो लोगों द्वारा रोमांटिक और यौन संबंध में बनाई गई एक व्यवस्था है, जहाँ दोनों पार्टनर एक-दूसरे के साथ वैसे ही रहते हैं जैसे शादीशुदा दंपति रहते हैं। यह शब्द आम तौर पर उन दंपतियों पर लागू होता है जिनकी शादी नहीं हुई है।
  • भारत में स्थिति: भारतीय कानून में लिव-इन रिलेशनशिप को स्पष्ट मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन यह अवैध भी नहीं है।
  • लिव-इन रिलेशनशिप का समर्थन करने वाले कानूनी प्रावधान
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद-19: वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा भारत के किसी भी भाग में निवास करने और बसने का अधिकार प्रदान करता है। 
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21:  जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करता है।
  • न्यायालय में पहली बार मान्यता
    • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत पहली बार लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता प्रदान की गई थी। 
    • यह उन महिलाओं को अधिकार और सुरक्षा प्रदान करता है, जो कानूनी रूप से विवाहित नहीं हैं, लेकिन विवाह जैसे रिश्ते में किसी पुरुष के साथ रहती हैं, जिससे उन्हें पत्नी के समान अधिकार प्राप्त होते हैं। 
    • यह कानून ऐसी व्यवस्थाओं में रहने वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षा प्रदान करता है तथा ऐसे दंपतियों के बच्चों को संपत्ति पर अधिकार प्रदान करता है।

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 

  • इस अधिनियम की धारा (2) की उपधारा (F) के अनुसार, ‘घरेलू संबंध’ को दो लोगों के बीच के रिश्ते के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो एक साझा घर में एक साथ रहते हैं या कभी भी साथ रह चुके हैं। इसमें रक्त, विवाह, गोद लेने या संयुक्त परिवार के रूप में एक साथ रहने वाले परिवार के सदस्यों के समान संबंध शामिल हैं। 

एक संस्था के रूप में विवाह पर लिव-इन रिलेशनशिप का प्रभाव

  • बदलते सामाजिक मानदंड: लिव-इन रिलेशनशिप युवा पीढ़ी के बीच पारंपरिक विवाह के प्रति बदलते नजरिए को दर्शाते हैं।
  • प्रतिबद्धता की पुनर्परिभाषा: लिव-इन रिलेशनशिप प्रतिबद्धता की पारंपरिक धारणा को चुनौती देते हैं, यह दर्शाते हुए कि औपचारिक विवाह के बिना भी दीर्घकालिक संबंध स्थापित रह सकते हैं। 
  • वैवाहिक दरों पर प्रभाव: लिव-इन रिलेशनशिप के बढ़ने से वैवाहिक दरों में गिरावट आ सकती है, क्योंकि कुछ व्यक्ति औपचारिक विवाह के बजाय लिव-इन रिलेशनशिप को प्राथमिकता दे सकते हैं। यह बदलाव विवाह के संबंध में जनसांख्यिकीय पैटर्न और सामाजिक अपेक्षाओं को परिवर्तित कर सकता है। 
  • पारिवारिक संरचनाओं पर प्रभाव: लिव-इन रिलेशनशिप से पारिवारिक संरचना और गतिशीलता में विविधता आ सकती है। यह बदलाव इस बात को प्रभावित कर सकता है कि समाज पारिवारिक भूमिकाओं और पालन-पोषण को कैसे परिभाषित करता है। 
  • तलाक की दरों पर प्रभाव: कुछ लोगों का तर्क है, कि लिव-इन रिलेशनशिप से दंपति को विवाह से पहले अनुकूलता का आकलन करने की अनुमति मिलने से तलाक की दरें कम हो सकती हैं। 
    • लिव-इन रिलेशनशिप, विवाह से पहले जोड़ों के लिए एक ‘परीक्षण’ के रूप में कार्य कर सकता है। 

लिव-इन रिलेशनशिप दंपति से संबंधित मुद्दे

  • लिव-इन रिलेशनशिप में कानूनी अस्पष्टता: हालाँकि लिव-इन रिलेशनशिप अवैध नहीं हैं, लेकिन उनमें विवाह के साथ आने वाले अधिकारों और सामाजिक स्वीकृति का अभाव है। 
  • भावनात्मक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक जोखिम: चावली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने लिव-इन रिलेशनशिप के भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक जोखिमों के बारे में आगाह किया था। 
    • न्यायालय ने कहा, “कुछ मामलों में, लिव-इन रिलेशनशिप के नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं, जैसे यौन शोषण, शारीरिक हिंसा, भावनात्मक दुर्व्यवहार या अपराधों में संलिप्तता।”
    • हालाँकि सभी लिव-इन रिलेशनशिप के हानिकारक परिणाम नहीं होते, लेकिन न्यायालय के पास ऐसे रिश्तों में प्रवेश करने वाले व्यक्तियों के वास्तविक उद्देश्यों का आकलन करने के लिए कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है।
  • गोपनीयता की चिंताएँ: श्रद्धा वाकर जैसे मामले इस बात पर प्रकाश डालते हैं, कि कैसे लिव-इन रिलेशनशिप कभी-कभी गोपनीयता और व्यक्तिगत डेटा के उल्लंघन का कारण बन सकते हैं, विशेषकर जब वे मीडिया का ध्यान आकर्षित करने वाले केंद्र बन जाते हैं। 
  • सामाजिक स्वीकृति का अभाव: लिव-इन-रिलेशनशिप भारत में परिवार और विवाह के पारंपरिक मानदंडों को चुनौती देता है। कई लोग इसे ‘पश्चिमी अवधारणा’ मानते हैं, जिसके कारण परिवारों में सामाजिक अस्वीकृति होती है। 
  • कानूनी मानक/मानदंड लिव-इन रिलेशनशिप वाले दंपतियों के लिए एक चुनौती है: न्यायालय की व्याख्याएँ अक्सर लिव-इन दंपतियों के लिए असुरक्षित स्थिति उत्पन्न करती  हैं, क्योंकि वे मुकदमों के दौरान पारंपरिक प्रथाओं को कायम रखते हैं, जिससे लिव-इन दंपति को पूर्ण कानूनी सुरक्षा नहीं मिल पाती है। 
    • उदाहरण के रूप में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय (2024): वर्ष 2024 में, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक अंतर-धार्मिक दंपति की पुलिस सुरक्षा और विवाह पंजीकरण की माँग वाली याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उनका लिव-इन रिलेशनशिप  (मुस्लिम पुरुष और ‘अग्नि-पूजक’ महिला) मुस्लिम कानून के तहत वैध नहीं था। 
  • सामाजिक कलंक: लिव-इन रिलेशनशिप को अभी भी संदेह या अस्वीकृति की दृष्टि से देखा जाता है। इससे सामाजिक अलगाव और परिवार तथा सहयोगियों से समर्थन की कमी हो सकती है। 

भारत में कानूनों और सामाजिक प्रथाओं पर पुनर्विचार की आवश्यकता

  • कानून को सुधारात्मक उपकरण के रूप में उपयोग करना: प्रचलित भेदभाव को संबोधित करने और सुधारने के साधन के रूप में कानून की भूमिका पर बहस करना तथा उसे परिष्कृत करना महत्त्वपूर्ण है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कानूनी ढाँचा सभी व्यक्तियों को बेहतर समर्थन और सुरक्षा प्रदान करे। 
  • गैर-सरकारी अभिकर्ताओं को सशक्त बनाना: यह व्यक्तियों को उनकी स्वायत्तता व्यक्त करने में मदद करते हैं। इससे सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव आ सकता है और सकारात्मक परिवर्तन को बढ़ावा मिल सकता है। 
  • सामाजीकरण और सामुदायिक नेटवर्क में परिवर्तन: पहल का उद्देश्य सामाजीकरण के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना और सहायक सामुदायिक नेटवर्क का निर्माण करना जो विविधता और समावेशिता को अपनाना। 

निष्कर्ष

भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को तेजी से मान्यता मिल रही है, जो सामाजिक दृष्टिकोण और कानूनी ढाँचे में परिवर्तन को दर्शाता है, जबकि कानूनी सुरक्षा मौजूद है, सामाजिक कलंक अभी भी कायम है। समाज में लिव-इन दंपति के लिए समान अधिकार और सम्मान सुनिश्चित करने के लिए निरंतर सुधार और जागरूकता प्रयासों की आवश्यकता है। 

भारत में लिव-इन रिलेशनशिप पर न्यायालयों द्वारा दिए गए प्रमुख निर्णय

  • बद्री प्रसाद बनाम चकबंदी निदेशक,1978: सर्वोच्च न्यायालय ने 50 वर्ष के लिव-इन रिलेशनशिप की वैधता को बरकरार रखा तथा कानून के तहत इसकी वैधता को मान्यता दी। 
    • न्यायालय ने कहा कि भारत में लिव-इन रिलेशनशिप वैध है, लेकिन इसमें विवाह की आयु, सहमति और मानसिक स्वस्थता जैसी शर्तें शामिल हैं। 
  • पायल शर्मा बनाम नारी निकेतन (2001)
    • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि कोई पुरुष और महिला चाहें तो बिना विवाह के भी साथ रह सकते हैं।
    • न्यायालय ने कहा कि यद्यपि समाज इसे अनैतिक मान सकता है, परंतु यह कानून द्वारा निषिद्ध नहीं है।
    • इस निर्णय में कानून और नैतिकता के बीच अंतर पर जोर दिया गया।
  • लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि लिव-इन या विवाह जैसा संबंध न तो अपराध है और न ही पाप, हालाँकि इस देश में सामाजिक रूप से अस्वीकार्य है।
  • डी. वेलुसामी बनाम डी. पटचैअम्मल (2010): सर्वोच्च न्यायालय ने लिव-इन रिलेशनशिप को वैध बनाने के लिए मानदंड निर्धारित किए।
    • दंपति को समाज के सामने स्वयं को पति-पत्नी के समान प्रस्तुत करना होगा। 
    • उनकी विवाह योग्य कानूनी उम्र होनी चाहिए। 
    • उन्हें कानूनी विवाह करने के लिए अन्य योग्यताएँ भी होनी चाहिए, जिसमें अविवाहित होना भी शामिल है।
    • उन्होंने स्वेच्छा से एक साथ रहकर काफी समय तक दुनिया के सामने अपने आपको जीवनसाथी के समान प्रस्तुत किया हो।
  • कट्टुकंडी एडाथिल कृष्णन एवं अन्य बनाम कट्टुकंडी एडाथिल वलसन एवं अन्य (2022): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय  दिया कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले दंपति से जन्मे बच्चों को वैध माना जा सकता है।
    • ऐसे बच्चे पारिवारिक उत्तराधिकार का हिस्सा बनने के पात्र हैं।
  • लिव-इन रिलेशनशिप पर  सर्वोच्च न्यायालय  की टिप्पणी 
    • मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति दीपक वर्मा और न्यायमूर्ति बी.  एस.  चौहान की तीन सदस्यीय विशेष पीठ ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप स्वाभाविक रूप से अमान्य नहीं है।
    • पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत एक साथ रहना एक अधिकार है तथा प्रश्न  किया कि क्या ऐसी व्यवस्था कोई कानूनी अपराध है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2009 में कहा था कि CrPC की धारा-125 के तहत भरण-पोषण का दावा करने के लिए महिला के लिए विवाह को प्रमाणित करना आवश्यक नहीं है।
      • लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला भी CrPC की धारा 125 के तहत भरण-पोषण का दावा कर सकती है।

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