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भारत की संसदीय समिति प्रणाली : उत्पत्ति, महत्व और चुनौतियाँ

Lokesh Pal September 10, 2024 05:15 462 0

संदर्भ : 

18वीं लोकसभा के चुनाव पश्चात, 9 जून को सरकार के प्रमुख शपथ भी ले चुके थे , लेकिन विभाग-संबंधित संसदीय स्थायी समितियों (डीआरएससी) के गठन में काफी विलंब हो गया है। सदस्यों के चयन को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच चल रही चर्चाओं और गहन बातचीत के बावजूद इन महत्वपूर्ण समितियों का गठन अभी तक नहीं हो पाया है।

संसद की समितियां क्या हैं?

  • संसदीय समिति से तात्पर्य ऐसी समिति से है जो सदन द्वारा नियुक्त या निर्वाचित होती है अथवा अध्यक्ष द्वारा मनोनीत होती है तथा जो अध्यक्ष के निर्देशन में कार्य करती है तथा सदन या अध्यक्ष को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करती है तथा जिसके लिए सचिवालय की व्यवस्था लोक सभा सचिवालय द्वारा की जाती है।

संसदीय समितियों की आवश्यकता

  • संसद की प्राथमिक भूमिका कानून बनाना है, लेकिन लोकसभा में 545 सदस्यों के साथ, विशाल आकार अक्सर कुशल कामकाज में बाधा डालता है। संसदीय सत्रों के दौरान, बहस कभी-कभी अराजकता में बदल सकती है, जिसमें सांसद सार्थक चर्चाओं में शामिल होने के बजाय मीडिया का ध्यान आकर्षित करने पर अधिक जोर देते हैं। सरकार और विपक्ष के बीच संबंधों की प्रतिकूल प्रकृति अक्सर संघर्ष की ओर ले जाती है, और जब कोई विधेयक पेश किया जाता है, तो सार्थक बहस इस प्रकार की गतिशीलता से प्रभावित हो सकती है।
  • संसदीय समितियाँ इन चुनौतियों से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लोकसभा के अक्सर अराजक माहौल के विपरीत, समिति की बैठकें बंद दरवाजों के पीछे होती हैं, जिससे सदस्यों को पार्टी संबद्धता की परवाह किए बिना सहयोगात्मक रूप से काम करने का मौका मिलता है। ये समितियाँ केंद्रित, गहन चर्चाओं के लिए एक मंच प्रदान करती हैं जो पूर्ण सदन में हमेशा संभव नहीं होती हैं।
  • उदाहरण के लिए, बजट, एक महत्वपूर्ण विधेयक है। बजट पर चर्चा होनी आवश्यक है परंतु समय की कमी या विपक्ष के बहिष्कार के कारण लोकसभा में हमेशा गहन चर्चा नहीं हो पाती। हालांकि, समिति कक्षों में बजट के हर पहलू की सावधानीपूर्वक जांच की जाती है, जिसमें सदस्य प्रत्येक बिंदु पर विस्तार से विचार करते हैं। यह गहन समीक्षा प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि संसद का काम प्रभावी ढंग से हो।

उपयोगी उद्धरण 

  • “बड़ी बैठक कभी कुछ नहीं करती”: यह उद्धरण इस बात पर प्रकाश डालता है कि बड़ी विधानसभाओं को अपने आकार और संरचना के कारण जटिल मुद्दों से निपटने में कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। दूसरी ओर, समितियाँ केंद्रित, गहन जांच और विचार-विमर्श की अनुमति देती हैं, जिससे वे संसदीय प्रणालियों के कुशल कामकाज के लिए आवश्यक हो जाती हैं।
  • “समिति कक्षों की कांग्रेस काम पर लगी कांग्रेस है”: यह उद्धरण संसदीय समितियों के महत्व को उजागर करता है। अक्सर “छोटी विधायिकाओं” के रूप में संदर्भित, ये समितियाँ वे हैं जहाँ संसद का वास्तविक, विस्तृत कार्य होता है, जो उन्हें विधायी प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण बनाता है।

संसदीय समिति से संबंधित प्रणालियों  की उत्पत्ति

  • भारत की आधुनिक संसदीय समिति प्रणाली, जो ब्रिटिश संसदीय मॉडल से विरासत में मिली है, को भारतीय शासन की अनूठी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अनुकूलित और परिष्कृत किया गया है। इसी तरह की समिति संरचनाएँ अन्य लोकतांत्रिक प्रणालियों, जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका (यू.एस.ए.) कांग्रेस में भी मौजूद हैं। जबकि भारतीय संसदीय प्रणाली की जड़ें ब्रिटिश प्रथाओं से प्रेरित हैं, इसके बावजूद भी भारत ने अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल बेहतर तरीके से नवाचार पेश किए हैं। 
  • भारत में संसदीय समिति प्रणाली की उत्पत्ति 1921 में भारत सरकार अधिनियम, 1919 के तहत लोक लेखा समिति (पीएसी) की स्थापना के साथ हुई थी । यह सरकारी व्यय की जांच करने और वित्तीय जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक प्रणाली विकसित करने में एक महत्वपूर्ण कदम था।
  • भारत में वर्ष 1952 में प्रथम लोक सभा के निर्वाचित होने के बाद स्थायी सलाहकार समितियों को समाप्त कर दिया गया, जिनका चुनाव जनता द्वारा नहीं किया गया था।

वित्तीय समितियां:

  • लोक लेखा समिति (PAC): लोक लेखा समिति का प्रमुख कार्य  नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट की जांच करना है। यह वित्तीय अनियमितताओं की पहचान करने और यह सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित करता है कि सरकारी व्यय न्यायोचित और पारदर्शी हों। परंपरागत रूप से, लोक लेखा समिति का अध्यक्ष विपक्ष से होता है, अक्सर विपक्ष का नेता, जो निष्पक्ष निगरानी प्रदान करने में समिति की भूमिका को रेखांकित करता  है।
  • अनुमान समिति: अनुमान समिति का मुख्य कार्य बजट में प्रस्तुत अनुमानों की समीक्षा करना है। यह आकलन करती है कि क्या अनुमान सरकार की नीतियों के अनुरूप हैं और दक्षता और लागत-प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए वैकल्पिक उपाय सुझाती है। यह समिति बजटीय आवंटन को परिष्कृत करने और यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है कि सार्वजनिक धन का विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग किया जाए।
  • सार्वजनिक उपक्रमों पर समिति: यह समिति ONGC और NTPC जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के प्रदर्शन की समीक्षा करती है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे कुशलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से काम कर रहे हैं। समिति द्वारा इस संबंध में भी विस्तृत जांच की जाती है कि क्या ये संगठन भ्रष्टाचार या कुप्रबंधन जैसी समस्याओं का सामना कर रहे हैं , और यदि समिति को ऐसा प्रतीत होता है तो वह सुधार के लिए सिफारिशें प्रदान करता है।

लोक लेखा समिति, अनुमान समिति और सार्वजनिक उपक्रम समिति सहित अन्य समितियाँ भारत की संसदीय प्रणाली की वित्तीय निगरानी और प्रभावी कामकाज के लिए अभिन्न अंग हैं। वे भारतीय लोकतंत्र की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विरासत में मिली प्रथाओं के विकास और अनुकूलन को मूर्त रूप देते हैं।

अन्य समितियां

  • नियम समिति: यह समिति स्वतंत्रता से पहले अस्तित्व में थी और स्वतंत्रता के उपरांत भी अस्तित्व में बनी रही। यह संसदीय प्रक्रियाओं और सदन के नियमों में आवश्यकतानुसार बदलावों की देखरेख और सिफ़ारिश करने के लिए ज़िम्मेदार है।
  • कार्य मंत्रणा समिति: इसकी अध्यक्षता लोकसभा के अध्यक्ष करते हैं, यह समिति सदन का दैनिक एजेंडा तय करती है। यह कार्य का क्रम निर्धारित करती है, जिसमें यह भी शामिल है कि किन विधेयकों पर चर्चा की जाएगी और बहस के विभिन्न चरणों के लिए कितना समय आवंटित किया जाएगा।
  • सरकारी आश्वासन समिति: यह समिति लोकसभा और राज्यसभा में मंत्रियों द्वारा किए गए वादों की पूर्ति की निगरानी करती है। यह आश्वासनों की एक सूची रखती है और मूल्यांकन करती है कि क्या इन प्रतिबद्धताओं को लागू किया गया है, जिससे मंत्रियों की जवाबदेही सुनिश्चित होती है।
  • कार्य मंत्रणा समिति और सरकारी आश्वासन समितियाँ संसदीय लोकतंत्र में भारतीय नवाचार थे। तीसरी लोकसभा के दौरान सार्वजनिक उपक्रमों पर समितियों की स्थापना एक और उपलब्धि थी ।

समिति प्रणाली का विस्तार

भारतीय समिति प्रणाली में 1990 के दशक के दौरान महत्वपूर्ण विस्तार किया गया, जो संसदीय निगरानी में उल्लेखनीय विकास और वृद्धि का काल था।

विभाग-संबंधित स्थायी समितियों की स्थापना (DRSCs):

  • प्रारंभिक विस्तार: 1989 में, नियम समिति ने कृषि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, तथा पर्यावरण और वन पर केंद्रित तीन विभाग संबंधित स्थायी समितियों (DRSCs) की स्थापना को मंजूरी दी। इन समितियों को अपने-अपने मंत्रालयों की निरंतर और विस्तृत निगरानी प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया था।
  • आगे विस्तार: 1993 तक, इस प्रणाली का विस्तार करके 17 विभाग संबंधित स्थायी समितियों (DRSCs) को शामिल किया गया, जिनमें से प्रत्येक में 45 सदस्य थे। इस विस्तार का उद्देश्य संसदीय गतिविधियों की प्रभावशीलता में सुधार करना, कार्यकारी जवाबदेही को बढ़ाना और बेहतर शासन के लिए उपलब्ध विशेषज्ञता और जनमत का उपयोग करना था।
  • भूमिका और दायरा: विभाग संबंधित स्थायी समितियां (DRSC) ऐसी स्थायी समितियाँ हैं जो कार्यकारी शाखा की देखरेख के लिए जिम्मेदार हैं। तदर्थ समितियों के विपरीत, जो अस्थायी और मुद्दे-विशिष्ट होती हैं, विभाग संबंधित स्थायी समितियों द्वारा कार्यकारी के कार्यों की नियमित और निरंतर जांच करती हैं। 
  • उदाहरण के लिए, यदि कृषि मंत्रालय कोई रिपोर्ट प्रकाशित करता है या कोई विधेयक प्रस्तावित करता है, तो संबंधित विभाग संबंधित स्थायी समितियों (DRSCs) के मंत्रालय के काम के सभी पहलुओं की जांच और देखरेख करता है, जिसमें अनुदान और व्यय की मांगें शामिल हैं।
  • जवाबदेही में बढ़त : ये समितियाँ यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं कि मंत्रालय संसदीय सिफारिशों का पालन करें और अपने संचालन में पारदर्शिता बनाए रखें। उन्हें विभागीय रिपोर्ट, व्यय और विधायी प्रस्तावों की समीक्षा करने का अधिकार है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि कार्यकारी शाखा संसद के प्रति जवाबदेह बनी रहे।
  • गठबंधन राजनीति की चुनौतियाँ: 1990 के दशक में गठबंधन की राजनीति का अधिक प्रचलन था, जिसके कारण अक्सर संसदीय कामकाज में अक्षमता और व्यवधान पैदा होते थे। इस अवधि के दौरान, विभाग संबंधित स्थायी समितियां (DRSCs) तेजी से महत्वपूर्ण होने लगी थी क्योंकि उन्होंने संसदीय प्रभावशीलता में सामान्य गिरावट के बावजूद निगरानी और जवाबदेही बनाए रखने में मदद की।

संसदीय समितियों का पुनर्गठन

जुलाई 2004 में विभाग-संबंधित स्थायी समितियों (डीआरएससी) का पुनर्गठन किया गया, जिससे समितियों की संख्या बढ़कर 24 हो गई। इनमें से 16 लोक सभा के अधीन और 8 राज्य सभा के अधीन बाँट दी गयी थी। आगे चलकर इनमें से प्रत्येक समिति की सदस्यता घटाकर 31 कर दी गई, जिसमें 21 सदस्य लोक सभा से और 10 राज्य सभा से थे।

संसदीय समितियों के प्रकार

संसदीय समितियों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है: स्थायी समितियाँ और तदर्थ समितियाँ।

  • स्थायी समितियाँ: संसद के प्रत्येक सदन में स्थायी समितियाँ होती हैं जो स्थायी होती हैं, सालाना गठित होती हैं और निरंतर आधार पर काम करती हैं, हालाँकि उनकी संरचना बदल सकती है।
  • तदर्थ समितियाँ: ये समितियाँ विशिष्ट उद्देश्यों के लिए बनाई जाती हैं और अपने निर्धारित कार्य पूरा करने के बाद भंग हो जाती हैं। उदाहरण के लिए,  बिलों पर चुनिंदा और संयुक्त समितियाँ शामिल हैं, जो जटिल या विवादास्पद बिलों में बदलाव की सिफारिश करने के लिए स्थापित की जाती हैं और बाद में अस्तित्व में नहीं रहती हैं।
  • संवैधानिक प्रावधान: संसदीय समितियाँ अपना अधिकार अनुच्छेद 105 से प्राप्त करती हैं, जो संसद सदस्यों (एमपी) के विशेषाधिकारों को संबोधित करता है, और अनुच्छेद 118, जो संसद को अपनी प्रक्रिया और व्यवसाय के संचालन को विनियमित करने के लिए नियम बनाने की शक्ति देता है।

संसदीय समितियों का महत्व

  • विस्तृत जांच: जैसे-जैसे प्रशासनिक कार्य अधिक जटिल होते जाते हैं, संसदीय बहसों की व्यापक प्रकृति विस्तृत जांच को चुनौतीपूर्ण बनाती है। समितियाँ, जिनमें विशेषज्ञ या विशेषज्ञता शामिल हो सकती हैं, मूल्यवान अंतर्दृष्टि और सिफारिशें प्रदान करती हैं, जिससे सांसदों को मुद्दों की गहराई से जांच करने का मौका मिलता है।
  • दोनों सदनों के बीच सहयोग: समितियाँ लोकसभा और राज्यसभा के बीच सहयोग की सुविधा प्रदान करती हैं, द्विदलीय विचार-विमर्श को बढ़ावा देती हैं और विधायी प्रक्रिया को बढ़ाती हैं।
  • कार्यकारी जवाबदेही: समितियाँ, विशेष रूप से विभाग संबंधित स्थायी समितियां (DRSCs), नीति और प्रशासन को प्रभावित करने वाली विस्तृत रिपोर्ट और सिफारिशें तैयार करके कार्यकारी को जवाबदेह बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
  • गुणवत्तापूर्ण कानून सुनिश्चित करना : संसदीय समितियों की कई सिफारिशों को महत्वपूर्ण कानूनों में शामिल किया गया है, जैसे कि 2019 का उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम और 2019 का राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम।
  • गैर-मंत्रिस्तरीय सांसदों को शामिल करना: समितियों में सदस्यता सांसदों को, जो मंत्री पद पर नहीं हो सकते हैं, विकास कार्यों में योगदान करने का अवसर प्रदान करती है। समिति की चर्चाओं और सिफारिशों में उनकी विशेषज्ञता का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है।

संसदीय समितियों के समक्ष चुनौतियाँ

  • अल्प कार्यकाल: अधिकांश संसदीय समितियों का कार्यकाल एक वर्ष का होता है, जो उनकी प्रभावशीलता और निरंतरता को सीमित करता है। संरचना में परिवर्तन से विशेषज्ञता का नुकसान हो सकता है, और नई समितियों को समायोजित होने में समय लग सकता है।
  • स्थापना में देरी: समितियों की स्थापना में देरी हो सकती है, जिससे उनकी दक्षता प्रभावित होती है।
  • पक्षपात और अनुपस्थिति: राजनीतिक पूर्वाग्रह और कम उपस्थिति कुछ समितियों के कामकाज में बाधा डालती है।
  • संसाधन की कमी: अपर्याप्त कार्यबल (स्टाफिंग) और विशेषज्ञ सलाह की कमी समितियों के प्रदर्शन को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकती है। वेंकटचलैया आयोग (2000) ने अपर्याप्त संसाधन, अपर्याप्त स्टाफ संख्या और विशेषज्ञ सलाहकारों की कमी जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला। ये समस्याएं आज भी समिति प्रणाली को प्रभावित कर रही हैं।
  • समितियों को भेजे जाने वाले विधेयकों की संख्या में कमी: समितियों को भेजे जाने वाले विधेयकों की संख्या में कमी आई है और 2020 में चार किसान बिलों को बिना समिति की जांच के पारित किया गया। 16वीं लोकसभा के बाद से, स्थायी समितियों को भेजे जाने वाले बिलों की संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है, यह प्रवृत्ति 17वीं लोकसभा में भी जारी रही।

आगे की राह 

  • विशेषज्ञता और कार्यकाल की सुरक्षा: यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि समिति के सदस्यों और अध्यक्षों के पास प्रासंगिक विशेषज्ञता हो – जैसे कि कृषि समितियों में कृषि विशेषज्ञ या विज्ञान से संबंधित समितियों में विज्ञान स्नातक हों – और लंबे कार्यकाल प्रदान करने से विचार-विमर्श की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है। 
    • उदाहरण के लिए, केरल का मॉडल, जिसमें 30 महीने का निश्चित कार्यकाल और बिलों को संदर्भित करने के लिए एक स्पष्ट प्रक्रिया और समय सीमा वाली समितियाँ शामिल हैं, प्रभावशीलता में सुधार के लिए अपनाया जा सकता है।
  • अन्य मॉडलों से सीखना: केंद्र सरकार बेहतर परिणाम हेतु अपनी समिति प्रणाली को मजबूत करने के लिए केरल में उपयोग की जाने वाली अन्य प्रणालियों से सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाने से लाभ उठा सकता है।

निष्कर्ष 

भारत की संसदीय समिति प्रणाली लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली के लिए महत्वपूर्ण है, जो कानून की गहन जांच और कार्यकारी जवाबदेही सुनिश्चित करती है। वर्तमान चुनौतियों का समाधान करना और अन्य प्रणालियों से सर्वोत्तम प्रथाओं को शामिल करना इस प्रणाली को संस्थागत स्तर पर  और अधिक  मजबूत कर सकता है।

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