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इज़राइल द्वारा भारत को सैन्य निर्यात और संबंधित विवाद

Lokesh Pal September 17, 2024 05:15 14 0

संदर्भ :

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने गाजा में चल रहे संघर्ष के बीच इज़राइल को भारत के सैन्य निर्यात को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया। यह याचिका पूर्व सिविल सेवकों, शिक्षाविदों और कार्यकर्त्ताओं द्वारा दायर की गई थी, जिन्होंने वर्तमान में इज़राइल को सैन्य उपकरण निर्यात करने वाली कंपनियों के मौजूदा लाइसेंस को निलंबित करने की माँग की थी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ऐसे निर्यात के लिए भविष्य में लाइसेंस जारी करने पर रोक लगाने का भी आह्वान किया। “अशोक कुमार शर्मा और अन्य बनाम भारत संघ वाद, 2024” नामक इस मामले ने संघर्ष में भारत की भूमिका और अंतरराष्ट्रीय मानवीय दायित्वों के पालन के बारे में महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए।

याचिकाकर्त्ताओं का तर्क

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) के निर्णय

  • जनवरी 2024 : ICJ ने इज़राइल के खिलाफ अनंतिम उपाय जारी किए, जिसमें उसे गाजा में सभी हत्याओं और विनाश को रोकने का आदेश दिया गया। यह निर्णय इज़राइल द्वारा नरसंहार सम्मेलन, 1948 (Genocide Convention) के उल्लंघन पर आधारित था।
  • जुलाई 2024 : ICJ ने कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्र में इज़राइल की उपस्थिति को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था । इसने सभी देशों से इस अवैध स्थिति को बनाए रखने में इज़राइल की सहायता करने से बचने का आग्रह किया।
  • निकारागुआ तथा जर्मनी का मामला : निकारागुआ तथा जर्मनी के मामले में, ICJ ने सभी राज्यों को संघर्षरत पक्षों को हथियार हस्तांतरण के संबंध में उनके दायित्वों के विषय में बताया । इसने यह सुनिश्चित करने के महत्त्व पर बल दिया, कि हथियारों का प्रयोग गैर-कानूनी स्थितियों को बनाए रखने या अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के उल्लंघन को सुविधाजनक बनाने के लिए नहीं किया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञ

  • संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि युद्धरत देशों को हथियार मुहैया कराने वाले देश, जैसे कि इज़राइल, अंतरराष्ट्रीय अपराधों में शामिल हो सकते हैं। गाजा में हो रहे मानवाधिकारों के हनन को देखते हुए यह बात मुख्य रूप से महत्त्वपूर्ण है।
  • उन्होंने इज़राइल को हथियार हस्तांतरित करने के खिलाफ चेतावनी जारी की, क्योंकि संघर्ष में इन हथियारों का दुरुपयोग होने की सम्भावना है।

अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन

  • नरसंहार सम्मेलन (Genocide Convention) : भारत नरसंहार (Genocide) के अपराध की रोकथाम और दंड पर सम्मेलन का एक हस्ताक्षरकर्त्ता राष्ट्र है, जिसने इस पर हस्ताक्षर और अनुसमर्थन दोनों किए हैं। इस प्रकार, भारत नरसंहार को रोकने और ऐसे अपराधों में योगदान देने वाले कार्यों में भागीदारी से बचने के लिए बाध्य है। याचिकाकर्त्ताओं का तर्क है कि इज़राइल को हथियार आपूर्ति करके, भारत इस दायित्व का उल्लंघन कर रहा है और नरसंहार को रोकने के लिए कार्रवाई करने में विफल हो रहा है। नरसंहार सम्मेलन का अनुच्छेद 3 निर्दिष्ट करता है कि नरसंहार में भागीदारी एक दंडनीय अपराध है।
  • जिनेवा कन्वेंशन (Geneva Conventions) : जिनेवा सम्मेलनों का सामान्य अनुच्छेद 1 हस्ताक्षरकर्त्ता राज्यों को ऐसे हथियारों की आपूर्ति नहीं करने के लिए बाध्य करता है, जिनका उपयोग युद्ध अपराध करने या अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का उल्लंघन करने के लिए किया जा सकता है।

उपर्युक्त चिंताओं के उत्तर में कनाडा, स्पेन और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों ने इज़राइल को हथियार आपूर्ति करने वाली कंपनियों के हथियार निर्यात लाइसेंस निलंबित कर दिए हैं।

जिनेवा कन्वेंशन (Geneva Conventions)

  • जिनेवा कन्वेंशन चार संधियों (घायलों और बीमारों पर; भूमि पर, जहाज़ के डूबे हुए लोगों पर; युद्ध के कैदियों पर; तथा युद्ध के समय नागरिक व्यक्तियों की सुरक्षा) का एक समूह है, जिसे 1949 में औपचारिक रूप दिया गया था; इसके अतिरिक्त तीन अन्य प्रोटोकॉल, जिनमें से पहले दो को 1977 में और तीसरे को 2005 में औपचारिक रूप दिया गया था। जिनेवा कन्वेंशन किसी भी चल रहे युद्ध से प्रभावित लोगों के मानवीय उपचार के लिए व्यापक रूप से स्वीकृत नैतिक और कानूनी अंतरराष्ट्रीय मानक है।
  • भारत ने वर्ष 1950 में जिनेवा कन्वेंशन की पुष्टि की, जो 1949 के कन्वेंशन के लिए कानून को अपनाने और लागू करने वाला दुनिया का 5वाँ देश तथा इस क्षेत्र का पहला देश बन गया। 

नरसंहार के अपराध की रोकथाम और दंड पर कन्वेंशन

  • ‘नरसंहार के अपराध की रोकथाम और दंड पर कन्वेंशन’ एक अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधि है, जिसने पहली बार नरसंहार के अपराध को संहिताबद्ध किया। नरसंहार कन्वेंशन 9 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाई गई पहली मानवाधिकार संधि थी, जो 12 जनवरी, 1951 से प्रभावी है।
    • कन्वेंशन में नरसंहार को पाँच कृत्यों के रूप में परिभाषित किया गया है –

(i) किसी समूह के सदस्यों की हत्या करना; 

(ii) गंभीर शारीरिक या मानसिक क्षति पहुँचाना; 

(iii) समूह पर ऐसी जीवन-स्थितियाँ थोपना, जो उनके शारीरिक विनाश का कारण बनें; 

(iv) किसी समूह में जन्म रोकने के लिए उपाय लागू करना; और 

(v) समूह के बच्चों को जबरन किसी अन्य समूह में स्थानांतरित करना – किसी राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूह को पूर्णतः या आंशिक रूप से नष्ट करने की इच्छा से किया गया कार्य।

  • भारत 29 नवंबर, 1949 से संयुक्त राष्ट्र नरसंहार सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्त्ता राष्ट्र रहा है। भारत ने 27 अगस्त, 1959 को इसकी पुष्टि की।

 

उच्चतम न्यायालय का तर्क

अपने पूर्व के निर्णयों में भारतीय उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया, कि घरेलू कानूनों की व्याख्या अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के आलोक में की जानी चाहिए। हालाँकि, इस विशेष मामले में न्यायालय ने गुण-दोष पर विचार किए बिना याचिका को खारिज कर दिया। मूल मुद्दे पर निर्णय न देने के बावजूद, न्यायालय ने इज़राइल को हथियारों के निर्यात को प्रतिबंधित करने की याचिका को खारिज करने के अपने निर्णय के संबंध में निम्नलिखित तर्क दिए – 

  • अंतरराष्ट्रीय दायित्व बाध्यकारी नहीं : न्यायालय ने तर्क दिया कि इस मामले में अंतरराष्ट्रीय दायित्व बाध्यकारी नहीं थे क्योंकि आरोपी पक्ष के रूप में इज़राइल कार्यवाही में सीधे तौर पर शामिल नहीं था। इसका तात्पर्य यह था कि इज़राइल की भागीदारी के बिना, याचिकाकर्त्ताओं द्वारा उठाए गए अंतरराष्ट्रीय दायित्व लागू नहीं थे।
  • मौजूदा अनुबंधों का उल्लंघन : इज़राइल के साथ मौजूदा अनुबंधों के संभावित उल्लंघन का हवाला देते हुए न्यायालय ने निर्यात लाइसेंसों के निलंबन पर चिंता व्यक्त की । इसने कहा कि हथियारों के निर्यात को रोकने से वित्तीय और कानूनी परिणाम दृष्टिगत हो सकते हैं इसलिए इज़राइल को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाना चाहिए।
  • विदेश नीति में न्यायिक संयम : न्यायालय ने न्यायिक संयम की नीति बनाए रखी, जिसमें जोर दिया गया कि वह विदेश नीति के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा, जो परंपरागत रूप से कार्यकारी शाखा के दायरे में आते हैं।

न्यायालय के तर्क की आलोचना

  • इज़राइल का पक्ष न होना अप्रासंगिक : यह याचिका भारत सरकार और हथियार निर्यात करने वाली निजी कंपनियों के खिलाफ दायर की गई थी, न कि इज़राइल के खिलाफ । न्यायालय का यह तर्क कि मामले में इज़राइल की अनुपस्थिति ने याचिका को प्रभावित किया, अप्रासंगिक था।
    • संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने पहले ही गाजा संघर्ष में इज़राइल को शामिल करने वाले पर्याप्त सबूत एकत्र कर लिए हैं। इसलिए, यह तर्क कि इज़राइल को इसमें अपनी बात रखनी चाहिए थी, इस सबूत के अस्तित्व से खारिज हो जाता है, जो याचिका का आधार बना।
  • अनुबंध उल्लंघन के बारे में अनुचित चिंता : इज़राइल के साथ अनुबंध उल्लंघन से संभावित वित्तीय और कानूनी परिणाम के बारे में न्यायालय की चिंता अनुचित थी।
    • अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत, नरसंहार को रोकने जैसे न्यायोचित कारणों से अनुबंधों को निलंबित किया जा सकता है।
    • इस मामले में, हथियारों के निर्यात को निलंबित करने से मानव जीवन की रक्षा होगी तथा युद्ध अपराधों को रोकने की बड़ी नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी की तुलना में अनुबंधों का उल्लंघन एक छोटा मुद्दा बन जाएगा।
  • विदेश नीति संयम का संदिग्ध अनुप्रयोग : स्वयं लगाए गए विदेश नीति संयम के कारण न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करने में अनिच्छा, उसके अपने पहले के रुख के विपरीत है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का पालन करने और ऐसे समझौतों के तहत दायित्वों को पूरा करने के महत्त्व पर जोर दिया है।
    • इसने यह भी फैसला सुनाया है कि घरेलू कानूनों की व्याख्या इन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के आलोक में की जानी चाहिए।
  • अंतर्राष्ट्रीय कानूनी दायित्वों पर विचार करने में विफलता : न्यायालय नरसंहार सम्मेलन और जिनेवा सम्मेलनों के तहत भारत के दायित्वों को स्वीकार करने में विफल रहा।
    • ये अंतर्राष्ट्रीय समझौते स्पष्ट रूप से भारत को न केवल नरसंहार में शामिल किसी राज्य को हथियार आपूर्ति करने से रोकने के लिए बाध्य करते हैं, बल्कि ऐसे अपराधों को सक्रिय रूप से रोकने के लिए भी बाध्य करते हैं।
    • न्यायालय ने इसे अनदेखा कर दिया, भले ही नरसंहार में भागीदारी अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत दंडनीय अपराध है।

मुद्दे के नैतिक आयाम

इस मुद्दे में नैतिक दुविधा दो परस्पर विरोधी अनिवार्यताओं के इर्द-गिर्द घूमती है :

  • भारत के राष्ट्रीय हित : इज़राइल ऐतिहासिक रूप से भारत का एक महत्त्वपूर्ण रक्षा साझेदार रहा है। उल्लेखनीय रूप से, कारगिल युद्ध के दौरान, इज़राइल ने महत्त्वपूर्ण सैन्य सहायता प्रदान की थी। इस इतिहास को देखते हुए, इज़राइल के साथ एक मजबूत रक्षा संबंध बनाए रखना भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। भविष्य के संघर्षों की स्थिति में, भारत समर्थन के लिए इज़राइल पर भरोसा कर सकता है, जो इस साझेदारी के रणनीतिक मूल्य को रेखांकित करता है।
  • मानवीय चिंताएँ : दूसरी ओर इज़राइल पर नरसंहार करने और गाजा में लगभग 40,000 नागरिकों की मौत का कारण बनने का आरोप है। इन आरोपों के बीच भारत द्वारा इज़राइल को सैन्य निर्यात जारी रखना गंभीर नैतिक प्रश्न उठाता है। ऐसे गंभीर मानवीय उल्लंघनों में शामिल राष्ट्र का समर्थन करना एक नैतिक संघर्ष पैदा करता है, जो अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून और मानवाधिकारों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को चुनौती देता है।                  

निष्कर्ष 

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में, राष्ट्रीय हित अक्सर नैतिक चिंताओं पर हावी हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका रणनीतिक प्राथमिकताओं के कारण मानवीय मुद्दों के बावजूद इज़राइल का समर्थन करता है। भारत को भी इसी तरह की दुविधा का सामना करना पड़ रहा है, उसे अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के तहत अपने दायित्वों के विरुद्ध इज़राइल के साथ अपने रणनीतिक रक्षा संबंधों को संतुलित करने की आवश्यकता है।

 

मुख्य परीक्षा पर आधारित प्रश्न 

ऐसे मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप के दायरे और सीमाओं की जाँच करें, जहाँ विदेश नीति के निर्णय अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के संभावित उल्लंघन की ओर ले जाते हैं।

(10 अंक, 150 शब्द)

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