महान क्रांतिकारी भगत सिंह के जन्मदिन पर, उनके प्रभावशाली कार्यों के लिए उन्हें याद किया गया , जिन्होंने ब्रिटिश शासन से आज़ादी के संघर्ष में अपने प्राणों की आहुति दी थी। एक विद्वान और बहुभाषाविद, होने के साथ ही भगत सिंह ने सांप्रदायिकता, असमानता, धर्म, आस्था और विरोध के अधिकार सहित अनेक विषयों को अपने लेखन में शामिल किया । उनके शब्द आज के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक हैं, जो हमें न्याय और समानता के लिए किए गए संघर्षों की याद दिलाते हैं।
1. स्वतंत्रता सेनानी के वंशज
पारिवारिक पृष्ठभूमि : भगत सिंह का जन्म प्रगतिशील स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार में हुआ था। उनके पिता किशन सिंह संधू और उनके चाचा अजीत सिंह दोनों ही ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ़ संघर्ष में राजनीतिक रूप से सक्रिय थे।
उनके पिता की राजनीतिक सक्रियता : उनके पिताकिशन सिंह अक्सर खुद को औपनिवेशिक सरकार के साथ असहमत पाते थे, यहाँ तक कि 1910 में “ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ देशद्रोही साहित्य सृजन कर पंजाब में प्रसारित करने” के लिए उन्हें कारावास का सामना भी करना पड़ा। उपनिवेशवाद विरोधी गतिविधियों में इस शुरुआती भागीदारी ने भगत सिंह के दृष्टिकोण को गहराई से प्रभावित किया।
अजीत सिंहका मांडले में निर्वासन : भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह को 1907 में पंजाब उपनिवेशीकरण विधेयक 1906 के खिलाफ उनके भड़काऊ भाषणों और आंदोलन के कारण मांडले में निर्वासित कर दिया गया था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को भारतीय भूमि पर अधिक शक्ति प्रदान करना था। अपनी रिहाई के बाद, अजीत सिंह ने यूरोप और अमेरिका की यात्रा की, जहाँ वे सैन फ्रांसिस्को स्थित ग़दर पार्टी से जुड़े, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्पित थी।
उपनिवेशवाद विरोधी परवरिश : उपनिवेशवाद विरोधी भावना से भरे माहौल में पले-बढ़े भगत सिंह को ब्रिटिश शासन के तहत भारतीयों द्वारा झेले जा रहे शोषण से अवगत था। हंसराज रहबर ने भगत सिंह और उनके विचार (1990) में उल्लेख किया है कि युवा भगत सिंह “अपनी माँ का दूध पीते हुए भी राष्ट्रवादी परंपराओं को आत्मसात करने में सक्षम थे” ।
उपाख्यान 1 :
मौत के सामने भगत सिंह के दृढ़ सिद्धांत :
जब फांसी की सजा सुनाई जाने वाली थी, तो भगत सिंह के पिता ने उन्हें फांसी रुकवाने के लिए वायसराय के पास दया याचिका दायर करने के लिए मनाने की कोशिश की। भगत सिंह ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि अपने सिद्धांतों से समझौता करने से राष्ट्रवाद और देश के लिए न्याय का उद्देश्य कमज़ोर हो जाएगा।
जब भगत सिंह को इस बात का पता चल कि उनके पिता ने फांसी रुकवाने के लिए एक याचिका भेजी है, उन्होंने सार्वजनिक रूप से एक पत्र में उन्हें फटकार लगाई, जिसमें कहा गया कि इस तरह की हरकतें उनकी इच्छा के विरुद्ध हैं। हालाँकि वह अपने पिता का बहुत सम्मान करते थे, लेकिन वह औपनिवेशिक शासन और उनके सिद्धांतों के सामने आत्मसमर्पण और स्वीकृति के रूप में जो कुछ भी देखते थे, उसे बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।
2. एक प्रतिभावान व विद्वान व्यक्ति
आज, भगत सिंह को अक्सर एक कर्मठ व्यक्ति के रूप में याद किया जाता है, जहाँ उनके बौद्धिक प्रयासों से ज़्यादा उनके मज़बूत क्रांतिकारी व्यक्तित्व के लिए उन्हें याद किया जाता है। रंग दे बसंती (2006) और द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह (2002) जैसी फ़िल्मों में उनके लोकप्रिय चित्रणों में उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों और मज़बूत राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीय गौरव को स्थापित करने का एक आक्रामक तरीका आदि पर ज़ोर दिया गया है ।
उत्साही पाठक और विपुल लेखक : हालाँकि, सिंह जितने क्रांतिकारी थे, उतने ही विद्वान भी थे। वे एक उत्साही पाठक और विपुल लेखक थे। 1920 के दशक में, वे अमृतसर में उर्दू और पंजाबी दोनों अख़बारों के लिए लिखते थे। हालाँकि आज लोग अन्य नेताओं और क्रांतिकारियों से अधिक परिचित हैं जिन्होंने किताबें लिखीं, सिंह अक्सर बलवंत, रंजीत और विद्रोही जैसे छद्म नामों का उपयोग करके लिखते थे, जिसने साहित्यिक हलकों में उनके सापेक्षिक परदे में योगदान दिया है।
पत्रकारिता और राजनीतिक विमर्श में योगदान : उन्होंने कीर्ति किसान पार्टी की पत्रिका के लिए और दिल्ली से प्रकाशित होने वाले वीर अर्जुन अखबार के लिए भी कुछ समय तक लिखा। उनके योगदान में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की आलोचना करने वाले पर्चे और अन्य ‘देशद्रोही’ साहित्य शामिल थे, जो उपनिवेशवाद विरोधी विमर्श के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाते थे।
जेल में साहित्यिक जुड़ाव : उनकी जेल नोटबुक से न केवल उनकी सामाजिक और राजनीतिक चिंताओं का सार ज्ञात होता है, बल्कि जेल में रहते हुए उनके द्वारा पढ़े जाने वाले साहित्य का भी पता चलता है। इसमें रवींद्रनाथ टैगोर, विलियम वर्ड्सवर्थ, वाजिद अली शाह, मिर्जा गालिब और इकबाल जैसे प्रमुख लेखकों की कविताएँ शामिल थीं। विविध साहित्यिक कृतियों के साथ यह जुड़ाव भगत सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ-साथ उनकी बौद्धिक चेतना को भी गहराई को दर्शाता है।
जहाँ एक ओर उन्हें उनके क्रांतिकारी कार्यों के लिए राष्ट्रीय नायक के रूप में सम्मानित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर भगत सिंह के विद्वत्तापूर्ण योगदान से हमें याद आता है कि वे अपने समय की वैचारिक लड़ाइयों में भी गहराई से शामिल थे। उनके लेखन में सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य की सूक्ष्म समझ झलकती है, जो उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी सिद्ध करती है।
3. नास्तिक और मार्क्सवादी
राजनीतिक स्पेक्ट्रम में पार्टियों द्वारा उनके वर्तमान सह-चयन के बावजूद, भगत सिंह एक दृढ़ नास्तिक और अराजकतावादी झुकाव वाले मार्क्सवादी थे। अपने निबंध ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ (1930) में, भगत सिंह ने धर्म की आलोचना करते हुए कहा, “सभी धर्म कई बुनियादी सवालों पर भिन्न हैं, जीवन के प्रति अलग-अलग दृष्टिकोण रखते हैं, जैसे कि हम पुनर्जन्म क्यों लेते हैं, मृत्यु के बाद क्या होता है, और अन्य अस्तित्वगत प्रश्न, लेकिन उनमें से प्रत्येक एकमात्र सच्चा धर्म होने का दावा करता है।” उनका मानना था कि इस तरह के दावे समाज में विभाजन पैदा करते हैं और सांप्रदायिक संघर्ष को जन्म देते हैं।
भगत सिंह के नास्तिक होने के कारण
बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण : भगत सिंह पर तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का गहरा प्रभाव था। वह तर्क, आलोचनात्मक सोच और साक्ष्य-आधारित समझ की शक्ति में विश्वास करते थे। उनके लिए, वैज्ञानिक सिद्धांत धार्मिक सिद्धांतों की तुलना में दुनिया को समझने के लिए अधिक विश्वसनीय ढांचा प्रदान करते हैं।
समाजवाद और वर्ग संघर्ष : समाजवादी आदर्शों के समर्थक, भगत सिंह मार्क्स और उनके सिद्धांतों के प्रमुख अनुयायी थे, जो सामाजिक और आर्थिक समानता की आवश्यकता पर जोर देते थे। उन्होंने संगठित धर्म को शासक वर्ग द्वारा मजदूर वर्ग को नियंत्रित करने और उसका शोषण करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण के रूप में देखा। उनका नास्तिकवाद समाज के लिए एक धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी दृष्टिकोण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से निकटता से जुड़ा था।
हठधर्मिता और अंधविश्वास का विरोध : भगतसिंह धार्मिक हठधर्मिता, अनुष्ठानों और अंधविश्वासों के प्रबल आलोचक थे। उन्होंने तर्क दिया कि अंधविश्वास और धार्मिक सिद्धांतों बिना किसी स्वीकृति के प्रगति और आलोचनात्मक सोच में बाधा डालती है। उनका मानना था कि तर्क और वैज्ञानिक जांच पर आधारित समाज सामाजिक अन्याय को संबोधित करने के लिए बेहतर ढंग से सुसज्जित होगा।
धर्मनिरपेक्षता और समावेशिता : भगत सिंह ने एक स्वतंत्र भारत की कल्पना की थी जो धर्मनिरपेक्ष और समावेशी हो। उन्होंने एक धर्मशासित राज्य के विचार का विरोध किया और राज्य के मामलों से धर्म को अलग रखने में विश्वास किया। उनके लिए, नास्तिकता एक धर्मनिरपेक्ष समाज के साथ जुड़ी हुई थी जहाँ व्यक्ति राज्य के हस्तक्षेप के बिना अपने अनुसार परंपराओं और मान्यताओं का पालन करने के लिए स्वतंत्र थे।
पश्चिमी विचारकों से प्रेरणा : भगत सिंह पश्चिमी विचारकों, जिनमें समाजवादी और नास्तिक शामिल हैं, के लेखन से बहुत प्रभावित थे। कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स और अन्य समाजवादी दार्शनिकों के विचारों ने उनके बौद्धिक विकास को महत्वपूर्ण रूप से आकार दिया। विशेष रूप से, धर्म की मार्क्स की आलोचना “धर्म जनता के लिए अफीम” के रूप में भगत सिंह ने भी हमेशा इसका समर्थन किया, जिसने उन्हें धार्मिक विश्वासों को सामाजिक प्रगति और समानता में बाधा के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया।
अराजकतावाद की ओर झुकाव : भगत सिंह का भी अराजकतावादी दृष्टिकोण था, उनका मानना था कि किसी शहर या राज्य पर शासन करने वाला कोई केंद्रीकृत प्राधिकरण नहीं होना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि किसी भी तरह का अधिकार, चाहे राजनीतिक दल हो या सरकार, शोषण पैदा करता है। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ व्यक्ति पदानुक्रमिक संरचनाओं के बिना एकजुट होकर प्रसन्न रहते हैं। अंततः किसी भी स्वरूप में चर्च, ईश्वर और धर्म, राज्य और निजी संपत्ति के प्रभाव को समाप्त करते हैं। उनका मानना था कि अराजकतावाद का अंतिम लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता, ईश्वर या भौतिकवादी इच्छाओं के प्रति इच्छाओं से मुक्त और राज्य के नियंत्रण से रहित होना चाहिए।
2: भगत सिंह की विचारधारा और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता :
एक बार भगत सिंह के एक मित्र ने उनसे प्रार्थना करने को कहा। उनके नास्तिक होने के बारे में जानने पर मित्र ने सुझाव दिया कि वे मृत्यु के निकट आने पर विश्वास करना शुरू कर सकते हैं। भगत सिंह ने दृढ़ता से उत्तर दिया, “नहीं, प्रिय महोदय, ऐसा कभी नहीं होगा। मैं इसे अपने पतन और मनोबल को गिराने वाला कार्य मानता हूँ, और यह अपने सिद्धांतों के साथ विश्वासघात होगा । ऐसे तुच्छ, स्वार्थी उद्देश्यों के लिए मैं कभी प्रार्थना नहीं करूँगा।”
4. महात्मा गांधी और जिन्ना की भगत सिंह के प्रश्न पर प्रतिक्रिया (1929)
मुकदमे को रोकने में गांधी के प्रयास : हालांकि अनेक लोगों का मानना है कि महात्मा गांधी भगत सिंह को फांसी से बचा सकते थे, लेकिन उन्होंने हस्तक्षेप नहीं करने का फैसला किया, परंतु सत्य यह है कि गांधी के कार्यों व प्रयासों के बारे में चर्चा जटिल है।
भगत सिंह के कुछ सहयोगियों का तर्क है कि गांधी ने शराब पर प्रतिबंध जैसे चले आ रहे सामान्य मुद्दों को लेकर अंग्रेजों पर नैतिक दबाव डाला, लेकिन भगत सिंह के जन्म व मरण जैसे अधिक महत्वपूर्ण मामले पर निर्णायक रूप से कार्रवाई करने में विफल रहे।
कुछ लोगों का तर्क है कि गांधी ने हस्तक्षेप करने का प्रयास किया, लेकिन अंग्रेजों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जो पालन करने के लिए तैयार नहीं थे।
कुछ अन्य लोगों का यह भी मानना है कि गांधी शायद बहुत अधिक दबाव डालने के लिए अनिच्छुक थे, क्योंकि उन्हें डर था कि एक असफल प्रयास व्यापक स्वतंत्रता संग्राम को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है।
अन्याय के खिलाफ जिन्ना का रुख : इसके विपरीत, भगत सिंह को उस समय के एक अन्य प्रमुख राष्ट्रवादी व्यक्ति मुहम्मद अली जिन्ना से समर्थन मिला। एक उदार राजनीतिज्ञ होने के बावजूद, जो उच्च समाज में घुलमिल गया था, जिन्ना ने भगत सिंह के मुकदमे के अन्यायपूर्ण करार दिया ।
भगत सिंह के मुकदमे की कार्यवाही के दौरान, अंग्रेजों ने एक प्रावधान पेश किया, जिसके तहत अभियुक्त की अनुपस्थिति में भी मुकदमे जारी रखने की अनुमति दी गई। जिन्ना ने इस विधेयक की निंदा करते हुए कहा कि यह न्यायशास्त्र के मूल सिद्धांतों को कमजोर करता है और ऐसे तर्कहीन सिद्धांतों से बचने के लिए कानून में संशोधन करने का आह्वान किया।
उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “जो व्यक्ति भूख हड़ताल करता है, उसके पास एक ऐसी आत्मिक शक्ति होती है जिससे वह प्रेरित होता है, और वह अपने उद्देश्य के न्याय में विश्वास करता है।” (भगत सिंह और साथी क्रांतिकारियों ने 1929 में उनके कारावास के दौरान 116 दिनों की भूख हड़ताल की थी।)
हालांकि ब्रिटिश सरकार का यह विधेयक पारित नहीं हुआ, लेकिन भगत सिंह के खिलाफ मुकदमा संदिग्ध परिस्थितियों में चलाया गया।
7 अक्टूबर, 1930 को एक विशेष न्यायाधिकरण ने 300 पन्नों का फैसला सुनाया, जिसमें भगत सिंह को दोषी ठहराया गया और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई।
5.नेहरू द्वारा भगत सिंह के साहस की सराहना
नेहरू द्वारा ब्रिटिश अन्याय की आलोचना : जवाहरलाल नेहरू भगत सिंह के मुकदमे और ब्रिटिशों द्वारा किए गए अन्याय के प्रबल आलोचक थे। भागत सिंह की फांसी के बाद, उन्होंने स्वीकार किया कि हालांकि वे भगत सिंह की सभी विचारधाराओं से तो पूर्णतः सहमत नहीं थे, लेकिन इतनी कम उम्र में एक साहसी युवक और उनके साथियों द्वारा दिखाया गया साहस और आत्म-बलिदान सराहनीय था, क्योंकि बहुत कम लोग अपने देश के प्रति ऐसा समर्पण प्रतिबिंबित करने का साहस रखते हैं।
नेहरू के भगत सिंह पर महत्वपूर्ण तर्क : नेहरू ने भगत सिंह के कार्यों को स्पष्ट करते हुए पूछा, “यदि इंग्लैंड पर जर्मनी या रूस द्वारा आक्रमण किया जाता, तो क्या लॉर्ड इरविन लोगों को आक्रमणकारियों के विरुद्ध हिंसा से दूर रहने की सलाह देते?” उन्होंने यह भी सोचा कि यदि भगत सिंह इंग्लैंड के लिए काम करने वाले अंग्रेज होते, तो क्या अंग्रेज उनके साथ भी ऐसा ही व्यवहार करते।
नेहरू द्वारा जेल यात्रा कर भगत सिंह से मिलना : नेहरू ने अन्य प्रमुख क्रांतिकारियों जैसे सुभाष चंद्र बोस, मोतीलाल नेहरू, के.एफ. नरीमन, रफी अहमद किदवई और मोहनलाल सक्सेना के साथ जेल में भगत सिंह से मुलाकात की, जिससे उनके समकालीनों के बीच उनके प्रति सम्मान और स्वीकृति बढ़ने लगी थी ।
फांसी पर कांग्रेस कीसामूहिक प्रतिक्रिया : भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दिए जाने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में एक आधिकारिक प्रस्ताव पेश किया, जिसका मदन मोहन मालवीय ने समर्थन किया। कांग्रेस पार्टी की आधिकारिक स्थिति में किसी भी हिंसा की निंदा किए जाने के बावजूद, प्रस्ताव में फांसी की निंदा की गई।
कांग्रेस ने कहा कि तीनों क्रांतिकारियों को दी गई फांसी प्रतिशोध की कार्रवाई थी और राष्ट्र की सर्वसम्मत मांग की जानबूझकर अवहेलना थी कि मृत्युदंड को कारावास में बदला जाना चाहिए था। उनका मानना था कि ब्रिटिश अधिकारियों ने इस देश के लाखों लोगों की मांगों के खिलाफ काम किया था।
निष्कर्ष
महान क्रांतिकारी भगत सिंह की विरासत एक क्रांतिकारी के रूप में आज भी युवाओं के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत है। उनके व्यक्तित्व में, गहन बौद्धिक दर्शन, उनके सिद्धांतों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता और सामाजिक अन्याय की आलोचना शामिल है। उनका जीवन स्वतंत्रता और न्याय के लिए किए गए बलिदानों की एक शक्तिशाली याद दिलाता है। समकालीन समाज में समानता और मानवाधिकारों के लिए चल रहे संघर्षों में उनके विचारों की प्रासंगिकता बनी हुई है ।
मुख्य परीक्षा पर आधारित प्रश्न :
प्रश्न: भारत के स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में भगत सिंह और महात्मा गांधी के वैचारिक दृष्टिकोण की तुलना करें। अहिंसा, राजनीतिक सक्रियता और स्वतंत्र भारत के लिए उनके दृष्टिकोण का विश्लेषण करें।
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