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साधारण कानून की वैधता की जाँच में मूल संरचना सिद्धांत की सीमा

Lokesh Pal November 08, 2024 12:58 41 0

संदर्भ

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 की वैधता निर्धारित करने वाले मामले से निपटते समय मूल संरचना सिद्धांत के उल्लंघन के आधार पर किसी कानून की वैधता को चुनौती नही दी जा सकती है।

फैसले के मुख्य बिंदु

  • अमूर्त शब्द (Abstract Terms): मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि ऐसे दावों को मूल ढाँचे के अमूर्त तत्त्वों के बजाय विशिष्ट संवैधानिक प्रावधानों से जोड़ा जाना चाहिए।
    • मूल ढाँचे में लोकतंत्र, संघवाद तथा धर्मनिरपेक्षता जैसे अपरिभाषित सिद्धांत शामिल हैं।
    • न्यायालय के अनुसार, किसी कानून की वैधता को चुनौती देने के लिए इन अमूर्त अवधारणाओं का उपयोग करने से संवैधानिक व्याख्या में अनिश्चितता उत्पन्न हो सकती है।
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर प्रतिक्रिया: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पहले माना था कि उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 धर्मनिरपेक्षता की अवहेलना करता है।
  • साधारण कानून बनाम संवैधानिक संशोधन: सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि संवैधानिक संशोधन और साधारण कानून अलग-अलग कानूनी ढाँचों के भीतर कार्य करते हैं।
    • हालाँकि संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा मूल संरचना सिद्धांत के तहत की जा सकती है, सामान्य कानून को इस आधार पर अमान्य नहीं किया जा सकता है।

भारत में साधारण कानून और संवैधानिक कानून के बीच अंतर

पहलू

सामान्य कानून 

संवैधानिक कानून 

परिभाषा 

संविधान के अंतर्गत संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए कानून।

भारत का सर्वोच्च कानून, जिसमें सरकार की संरचना, कार्य और शक्तियों का विवरण दिया गया है।

उद्देश्य 

सिविल, आपराधिक और प्रशासनिक मामलों जैसे विशिष्ट क्षेत्रों को नियंत्रित करना।

शासन और नागरिक अधिकारों के मौलिक सिद्धांतों को रेखांकित करना।

संशोधन प्रक्रिया  अधिकार क्षेत्र के आधार पर संसद या राज्य विधानसभाओं में साधारण बहुमत द्वारा इसमें संशोधन किया जा सकता है।

इसके लिए एक विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, अनुच्छेद-368 के अनुसार, या तो साधारण बहुमत, दो-तिहाई बहुमत अथवा राज्यों द्वारा अनुसमर्थन।

न्यायिक समीक्षा 

यदि वे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं या विधायी क्षमता से परे हैं तो उनकी समीक्षा की जा सकती है और उन्हें रद्द किया जा सकता है।

न्यायिक समीक्षा के अधीन, लेकिन कुछ संशोधनों का परीक्षण मूल संरचना सिद्धांत के विरुद्ध किया जाता है।

मूल संरचना सिद्धांत की प्रयोज्यता 

साधारण कानूनों पर लागू नहीं। साधारण कानूनों को केवल मूल ढाँचे का उल्लंघन करने के कारण चुनौती नहीं दी जा सकती।

संवैधानिक संशोधनों पर लागू संशोधन मूल संरचना को नहीं बदल सकते (केशवानंद भारती मामले, 1973 के अनुसार)।

उदाहरण 
  • भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860
  • सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005
  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019।
  • मौलिक अधिकार (संविधान का भाग III)
  • राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (भाग IV)
  • संविधान (42वाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 
अनुप्रयोग का दायरा

संविधान की संघ, राज्य या समवर्ती सूची में परिभाषित विशिष्ट क्षेत्रों या विषयों तक सीमित।

यह देश की संरचना और शासन पर व्यापक रूप से लागू होता है, जिसमें व्यापक शक्ति वितरण और सभी सरकारी अंगों पर सीमाएँ शामिल हैं।

संशोधन या परिवर्तन 

इसे विधायिका में किसी अन्य साधारण कानून को पारित करके संशोधित, निरस्त या प्रतिस्थापित किया जा सकता है।

संशोधनों के लिए अनुच्छेद-368 के तहत प्रक्रियाओं का पालन करना आवश्यक है। उल्लेखनीय मामलों में 24वाँ संशोधन, 1971 और 44वाँ संशोधन, 1978 शामिल हैं।

शासन में भूमिका 

लागू करने योग्य नियमों और नीतियों के माध्यम से सरकार के व्यावहारिक कामकाज को सुविधाजनक बनाता है।

सरकार की शक्ति को परिभाषित और सीमित करता है, लोकतांत्रिक शासन, संघवाद तथा अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।

पिछले ऐतिहासिक मामलों का प्रभाव

  • न्यायालय ने केशवानंद भारती (वर्ष 1973) और इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण (वर्ष 1975) मामलों का उल्लेख किया, जहाँ मूल संरचना सिद्धांत को पहली बार लागू किया गया था।
  • न्यायालय ने राज नारायण मामले में मुख्य न्यायाधीश ए. एन. रे के दृष्टिकोण का हवाला दिया, जिसमें तर्क दिया गया था कि इस सिद्धांत को सामान्य विधियों पर लागू करना ‘संविधान को पुनः लिखने’ के बराबर होगा।
  • न्यायमूर्ति के. के. मैथ्यू ने सामान्य कानूनों की वैधता का आकलन करने के लिए मूल संरचना की अवधारणा को ‘बहुत अस्पष्ट’ (Too Vague) माना।

फैसले के निहितार्थ 

  • विधायी स्वायत्तता: फैसले में इस बात पर जोर दिया गया है कि संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए साधारण कानून को मूल ढाँचे का उल्लंघन करने के कारण रद्द नहीं किया जा सकता है, इस प्रकार संवैधानिक सीमाओं के भीतर विधायी स्वायत्तता को बनाए रखा जा सकता है।
  • न्यायिक स्पष्टता: यह निर्णय मूल ढाँचे के सिद्धांत को संवैधानिक संशोधनों तक सीमित करके न्यायिक समीक्षा के दायरे को मजबूत करता है, जिससे संवैधानिक न्यायनिर्णयन में स्पष्ट सीमाएँ सुनिश्चित होती हैं।
  • न्यायिक उदाहरण: यह निर्णय, जिसने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम को आंशिक रूप से बरकरार रखा, एक मिसाल कायम करता है कि मूल ढाँचे के पालन के लिए केवल संवैधानिक संशोधनों की ही जाँच की जा सकती है, न कि साधारण कानूनों की।

मूल संरचना सिद्धांत (Basic Structure Doctrine) के बारे में 

  • मूल संरचना सिद्धांत भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती मामले (वर्ष 1973) में प्रस्तुत एक ऐतिहासिक न्यायिक नवाचार है।
  • यह स्थापित करता है कि भारतीय संविधान की कुछ मौलिक विशेषताओं को संसद द्वारा संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से बदला या निरस्त नहीं किया जा सकता है।
  • यह संविधान में मनमाने ढंग से किए जाने वाले परिवर्तनों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है और यह सुनिश्चित करता है कि दस्तावेज में निहित मौलिक सिद्धांत बरकरार रहें।
  • यह कई मामलों में भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने और कानून के शासन को बनाए रखने में एक महत्त्वपूर्ण उपकरण रहा है।

मूल संरचना के कुछ प्रमुख पहलू

  • संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of the Constitution): संविधान देश का सर्वोच्च कानून है और कोई भी कानून इसके प्रावधानों को रद्द नहीं कर सकता है।
  • लोकतांत्रिक गणराज्य (Democratic Republic): भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है। इन मूलभूत विशेषताओं को बदला नहीं जा सकता है।
  • धर्मनिरपेक्षता (Secularism): धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत धार्मिक तटस्थता और धर्म की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।
  • संघवाद (Federalism): केंद्र सरकार और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन संविधान की एक मुख्य विशेषता है।
  • शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers): विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत जाँच तथा संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
  • मौलिक अधिकार (Fundamental Rights): संविधान के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों को अनुल्लंघनीय माना जाता है।
  • कानून का शासन (Rule of Law): कानून का शासन यह सुनिश्चित करता है कि हर कोई कानून के अधीन है, जिसमें सत्ता में बैठे लोग भी शामिल हैं।
  • न्यायिक समीक्षा (Judicial Review): कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा करने की न्यायपालिका की शक्ति मनमानी शक्ति के खिलाफ एक महत्त्वपूर्ण सुरक्षा है।

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