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29वाँ संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन

Lokesh Pal November 25, 2024 01:12 9 0

संदर्भ

हाल ही में, वार्षिक वैश्विक जलवायु सम्मेलन, COP-29, बाकू, अजरबैजान में संपन्न हुआ।

COP और UNFCCC 

  • COP (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज): जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) का प्राथमिक शासी निकाय।
  • UNFCCC: वर्ष 1992 में रियो डी जेनेरियो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन के दौरान वैश्विक जलवायु वार्ता का मार्गदर्शन करने के लिए बनाई गई एक अंतरराष्ट्रीय संधि, जिसका उद्देश्य गंभीर मानव-जनित जलवायु व्यवधानों से बचने के लिए ग्रीनहाउस गैस सांद्रता को सुरक्षित स्तर पर स्थिर करना था।
  • सदस्यता: UNFCCC में 198 पक्षकार शामिल हैं, जिनमें 197 देश और यूरोपीय संघ शामिल हैं, जो जलवायु कार्रवाई के लिए लगभग सार्वभौमिक वैश्विक प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
  • UNFCCC, COP सम्मेलनों के इतिहास में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण समझौते हैं:
    • क्योटो प्रोटोकॉल (1997): COP-3 में एक ऐतिहासिक समझौता, जिसने विकसित देशों के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी उत्सर्जन कटौती लक्ष्य निर्धारित किए।
    • कोपेनहेगन समझौता (2009): COP-15, कोपेनहेगन समझौते में, विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने में विकासशील देशों की मदद करने के लिए वर्ष 2020 तक वार्षिक रूप से 100 बिलियन डॉलर जलवायु वित्त प्रदान करने का संकल्प लिया।
    • पेरिस समझौता (2015): COP-21 में, राष्ट्रों ने वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे सीमित करने पर सहमति व्यक्त की, जिसका लक्ष्य इसे 1.5°C पर सीमित करना था।
    • ग्लासगो जलवायु समझौता (2021): COP-26 में, राष्ट्रों ने कोयले के चरणबद्ध उन्मूलन और जलवायु वित्त प्रतिबद्धताओं को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया।
    • ‘लॉस एंड डैमेज’ कोष (2023): COP-28 ने जलवायु आपदाओं से प्रभावित देशों का समर्थन करने के लिए एक कोष प्रारंभ किया।

COP-29 की पृष्ठभूमि

  • जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन: संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार कोयला, तेल और गैस जलाने से वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 75 प्रतिशत से अधिक और संपूर्ण कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग 90 प्रतिशत होता है।
  • तापमान में वृद्धि: विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) का अनुमान है, कि वर्ष 2024 रिकॉर्ड पर सबसे गर्म वर्ष होगा, जिसमें वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1.3 डिग्री सेल्सियस अधिक होगा और पिछला दशक भी इतिहास का सबसे गर्म दशक रहा है, जिसके लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है।
  • राजनीतिक अनिश्चितता (Political Uncertainty): डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में संभावित अमेरिकी नीतिगत परिवर्तन, जो पहले पेरिस समझौते से हट गए थे, वैश्विक जलवायु प्रतिबद्धताओं और कूटनीति को कमजोर कर सकते हैं।
  • जलवायु वित्त का पूरा न होना (Unmet Climate Finance): वर्ष 2009 से 100 बिलियन डॉलर की वार्षिक प्रतिबद्धता अभी तकअभी तक पूर्ण नहीं हुई है, जो पश्चिम एशिया और यूक्रेन में संघर्षों तथा वित्तपोषण संबंधी बहसों के कारण जटिल हो गया है।
    • इस अंतर को कम करने तथा भविष्य की प्रतिबद्धताओं पर स्पष्टता प्रदान करने के लिए एक महत्वाकांक्षी नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) की स्थापना महत्त्वपूर्ण है।

नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (New Collective Quantified Goal-NCQG)

  • NCQG उस धन को संदर्भित करता है, जो विकसित देशों द्वारा जलवायु वित्त प्रदान करने के लिए विकासशील देशों को दिया जाएगा।
  • NCQG से यह अपेक्षा की जाती है कि यह वर्ष 2009 में विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को दिए जाने वाले 100 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष का अद्यतित रूप होगा, जिसे वर्ष 2020-2025 तक जुटाया जाएगा।
  • वर्ष 2015 के पेरिस COP में वर्ष 2025 तक NCQG के लिए प्रतिबद्धता जताई गई थी।

COP-29 के बारे में

  • COP-29 का तात्पर्य, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज  की 29वीं बैठक से है।
    • ये सम्मेलन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए देशों के बीच चर्चा करने और निर्णय लेने हेतु प्रमुख मंच के रूप में कार्य करते हैं।
  • आयोजन: बाकू, अजरबैजान।
  • थीम: “सभी के लिए रहने योग्य ग्रह में निवेश करना/Investing In A Livable Planet For All”
  • COP29 का लक्ष्य:
    • ‘फाइनेंस-COP’ नाम से जाना जाने वाला यह सम्मेलन जलवायु कार्रवाई के लिए विशेषतः विकासशील देशों के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने हेतु एक नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) स्थापित करने का लक्ष्य रखता है।
    • जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा में ऊर्जा संक्रमण को गति देने के उपाय की खोज करना।
    • जलवायु भेद्यता से निपटने और 1.5°C (2.7°F) पूर्व-औद्योगिक स्तरों से नीचे वैश्विक तापमान वृद्धि को रोकने के लिए वैश्विक अनुकूलन रणनीतियाँ।
    • COP26 में शुरू की गई पहली वैश्विक स्टॉकटेक की परिणति, COP-29 का केंद्रीय विषय है।
    • सबसे अधिक प्रभावित देशों की जरूरतों को पूरा करने के लिए लॉस एंड डैमेज फण्ड का संचालन करना।
    • पेरिस समझौते का अनुच्छेद-6: पेरिस समझौते के अनुच्छेद-6 ने कार्बन मार्केट के लिए सिद्धांत बनाए और ऐसे तरीके बताए जिनसे देश जलवायु लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए सहयोग कर सकते हैं।
      • यद्यपि COP-26 में नियमों पर सहमति हो गई थी, फिर भी इसे कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक मार्गदर्शन स्थापित करने की आवश्यकता है।

COP-29 के मुख्य परिणाम:

  • वैश्विक कार्बन बाजार: पेरिस समझौते के अनुच्छेद-6 के तहत अंतरराष्ट्रीय कार्बन बाजार मानकों पर एक समझौता हुआ है।
    • यह देशों और कंपनियों को ‘कार्बन ऑफसेट’ का व्यापार करने के लिए दो मार्ग प्रदान करता है, जो उनकी जलवायु कार्य योजनाओं में निर्धारित उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों की प्राप्ति या राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान का समर्थन करते हैं।
    • यह ढाँचा विकासशील देशों को संसाधन उपलब्ध कराने में मदद कर सकता है तथा सीमा पार सहयोग को सक्षम बनाकर प्रतिवर्ष 250 बिलियन डॉलर तक की बचत कर सकता है।
  • लॉस एंड डैमेज फण्ड को लागू करना: COP-29 ने लॉस एंड डैमेज फण्ड को क्रियान्वित करने में प्रगति की है, जो जलवायु प्रभावों के प्रति संवेदनशील देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
  • वैश्विक ऊर्जा भंडारण और ग्रिड संबंधी प्रतिज्ञा: यह प्रतिज्ञा, हस्ताक्षरकर्ताओं को वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर 1,500 गीगावाट ऊर्जा भंडारण करने के सामूहिक लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध करती है।
  • COP हाइड्रोजन घोषणा का शुभारंभ: यह घोषणा हस्ताक्षरकर्ता देशो को नवीकरणीय, शून्य-उत्सर्जन और कम कार्बन हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ाने और निरंतर जीवाश्म ईंधन से मौजूदा हाइड्रोजन उत्पादन के डीकार्बोनाइजेशन में तेजी लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
  • हाइड्रो-4 नेटजीरो-LAC (Hydro4 NetZero-LAC) पहल का शुभारंभ का उद्देश्य स्थायी जलविद्युत अवसंरचना का विकास और आधुनिकीकरण करना है।
  • बाकू हार्मोनिया जलवायु पहल: FAO के सहयोग से शुरू की गई, जिसका उद्देश्य अनुकूलन और शमन के माध्यम से कृषि में जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिए विभिन्न प्रयासों को एकजुट करना है। 
  • वैश्विक ऊर्जा दक्षता गठबंधन, COP-29: वैश्विक ऊर्जा दक्षता गठबंधन को UAE द्वारा अजरबैजान में COP-29 में लॉन्च किया गया था, जो COP-28 के दौरान ‘UAE सर्वसम्मति-UAE Consensus’ के आधार पर स्थापित किया गया।
    • यह पहल वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देकर कार्बन उत्सर्जन को कम करने और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए UAE की प्रतिबद्धता को उजागर करती है।
  • जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक 2025 का प्रकाशन: जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक (CCPI) 63 देशों और यूरोपीय संघ (जो वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 90% से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं) के जलवायु प्रदर्शन की तुलना करने के लिए एक मानकीकृत ढाँचे का उपयोग करता है,
    • जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक चार श्रेणियों के अंतर्गत निर्मित किया जाता है- GHG उत्सर्जन, नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा उपयोग और जलवायु नीति।
  • जलवायु पारदर्शिता पर बाकू घोषणा: घोषणा में संवर्द्धितत पारदर्शिता ढाँचे (ETF) के पूर्ण संचालन के लिए वैश्विक प्रतिबद्धता का आह्वान किया गया है।
  • राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (NDC) को मजबूत करना: देशों की प्रतिबद्धताओं को अद्यतन करने के लिए वर्ष 2025 की समय-सीमा के साथ अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (NDC) को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है

वैश्विक जलवायु शासन में भारत की उभरती भूमिका

  • प्रारंभिक सावधानी (1970 का दशक): भारत ने वैश्विक जलवायु कार्रवाई के प्रति सावधानी बरती, तथा पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन पर जोर दिया।
    • 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन में, भारत ने पर्यावरणीय चिंताओं को आर्थिक आवश्यकताओं के साथ संतुलित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
  • विकास में बाधा के रूप में पर्यावरणीय कार्रवाई की धारणा: प्रारंभ में, पर्यावरण संरक्षण को आर्थिक गतिविधियों और औद्योगीकरण में कमी की आवश्यकता के रूप में देखा गया, जो आर्थिक विकास और मानव विकास में बाधा उत्पन्न कर सकता था।
  • सतत विकास को अपनाना: सतत विकास की अवधारणा ने पर्यावरण संरक्षण के साथ आर्थिक विकास को संतुलित करने के लिए एक रूपरेखा प्रदान की।
    • इस परिवर्तन ने भारत सहित विकासशील देशों को वैश्विक जलवायु कार्रवाई चर्चाओं में लाने में मदद की।
  • जलवायु न्याय के लिए सिफारिश: भारत ने लगातार साझा लेकिन विभेदित उत्तरदायित्व (CBDR) का समर्थन किया है और विकासशील देशों के लिए वित्त, प्रौद्योगिकी और क्षमता निर्माण सहायता का आह्वान किया है।
  • अधिक सहभागिता (2000 का दशक): भारत जलवायु वार्ता में एक सक्रिय भागीदार बन गया, जिसने वर्ष 2002 में नई दिल्ली में COP-8 की मेजबानी की और घरेलू जलवायु प्रयासों को मजबूत करने के लिए वर्ष 2008 में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) प्रारंभ की।

शमन कार्य कार्यक्रम (Mitigation Work Programme-MWP) जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) द्वारा स्थापित एक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य पेरिस समझौते के 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए देशों को अपने शमन महत्वाकांक्षा और कार्यान्वयन को बढ़ाने में मदद करना है।

UNFCCC-CoP-29 के पूर्ण अधिवेशन में भारत की भूमिका 

  • शमन कार्य कार्यक्रम (MWP): भारत ने बाकू, अजरबैजान में आयोजित CoP-29 में जलवायु वित्त और शमन कार्य कार्यक्रम में शामिल होने के लिए विकसित देशों की अनिच्छा पर असंतोष व्यक्त किया है।
    • MWP के अधिदेश पर भारत का रुख यह है कि इसे खुले संवाद और विचारों के आदान-प्रदान के लिए एक मंच के रूप में कार्य करना चाहिए।
    • अतः इसे गैर-दंडात्मक और गैर-निर्देशात्मक होना चाहिए।
  • यूरोपीय संघ के कार्बन सीमा कर का विरोध: बाकू में COP-29 में, भारत और चीन ने यूरोपीय संघ के प्रस्तावित कार्बन सीमा कर का विरोध किया, जो उत्सर्जन को कम करते हुए यूरोपीय संघ के उत्पादों के लिए निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित करने के लिए स्टील, सीमेंट और एल्यूमीनियम जैसे आयातित सामग्री पर शुल्क लगाने का प्रयास करता है। उनका तर्क है, कि यह कर संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर अनुचित रूप से बोझ डालता है।
  • जलवायु कार्रवाई वित्त की जलवायु शमन से तुलना: भारत ने दृढ़ता से कहा कि वित्त से ध्यान हटाकर शमन पर बार-बार जोर देने के किसी भी प्रयास को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
  • नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG): भारत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि चूँकि अनुदान-आधारित रियायती जलवायु फाइनेंस नए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) को तैयार करने और लागू करने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण सक्षमकर्ता है, इसलिए कार्यान्वयन के पर्याप्त साधनों की अनुपस्थिति में कार्रवाई गंभीर रूप से प्रभावित होगी।
  • ग्लोबल स्टॉकटेक (GST): भारत GST परिणामों के अनुसरण के लिए सहमत नहीं है। पेरिस समझौते के अनुसार, GST को केवल जलवायु कार्रवाई करने के लिए पक्षों को सूचित करना चाहिए। 
  • न्यायसंगत परिवर्तन पर भारत: भारत ने दुबई के निर्णय में ‘न्यायसंगत परिवर्तन’ पर प्रचलित साझा समझ पर किसी भी तरह की पुनःवार्ता को स्वीकार करने से दृढ़तापूर्वक इनकार कर दिया। न्यायसंगत परिवर्तन को अक्सर एक घरेलू मुद्दा माना जाता है, जिसमें निष्पक्षता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सरकारों की होती है।
    • तथापि, भारत इस बात पर जोर देता है कि वास्तविक न्यायोचित परिवर्तन वैश्विक स्तर पर शुरू होगा, जिसमें विकसित देश शमन में अग्रणी होंगे तथा विकासशील देशों को सहायता प्रदान करेंगे।”

भारत के लिए COP का महत्त्व

  • COP वार्ता भारत के लिए अपने जलवायु लक्ष्यों को आगे बढ़ाने, जलवायु वित्त तक पहुँच प्राप्त करने और स्वच्छ ऊर्जा भविष्य की ओर संक्रमण की चुनौतियों का समाधान करने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
  • भारत की जलवायु प्रतिबद्धताएँ और NDC 
    • पहला NDC सबमिशन: भारत ने 2 अक्टूबर, 2015 को UNFCCC को अपना पहला राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (NDC) प्रस्तुत किया।
    • संशोधित NDC (2022): अगस्त 2022 में, भारत ने वर्ष 2030 के लिए जलवायु लक्ष्यों को रेखांकित करते हुए अपने NDC को संशोधित किया है।
  • जलवायु लक्ष्यों में उपलब्धियाँ
    • उत्सर्जन तीव्रता में कमी: भारत ने वर्ष 2005 के स्तर से अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को पहले ही 33-35% तक कम कर दिया है।
    • गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा क्षमता: भारत ने गैर-जीवाश्म ईंधन-आधारित ऊर्जा स्रोतों से अपनी विद्युत शक्ति स्थापित क्षमता का लगभग 40% हासिल किया है।
    • भारत ने पेरिस समझौते के तहत वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने की प्रतिबद्धता जताई है।
  • जलवायु वित्त में भारत की भूमिका
    • कार्बन क्रेडिट बाजार: भारत भी जलवायु वित्त का लाभार्थी रहा है। वैश्विक कार्बन क्रेडिट बाजार में इसकी हिस्सेदारी लगभग 31% है।
    • CDM परियोजनाएँ: क्योटो प्रोटोकॉल के स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) के तहत पंजीकृत परियोजनाओं की दूसरी सबसे बड़ी संख्या भारत में है।
      • क्योटो प्रोटोकॉल के CDM जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन के नवीकरणीय स्रोतों की ओर भारत के स्थिर ऊर्जा संक्रमण को सुविधाजनक बनाने और तीव्र  करने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
      • भारत में CDM पहलों में नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाएँ लगभग 50 प्रतिशत का योगदान देती हैं।
    • LiFE पहल: भारत LiFE पहल को बढ़ावा देता है, जो वैश्विक संधारणीय उपभोग पैटर्न और पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं को प्रोत्साहित करता है।
  • निवेश और तकनीकी उन्नयन की आवश्यकता 
    • जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता: अपनी ऊर्जा की 78% आवश्यकतओं को जीवाश्म ईंधन, मुख्य रूप से कोयले से पूरा करने के साथ, भारत को अक्षय ऊर्जा परिवर्तन करने में महत्त्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
  • लॉस एंड डैमेज फण्ड: लॉस एंड डैमेज फण्ड के तहत, भारत को महत्त्वपूर्ण संभावित वित्तीय सहायता प्राप्त होगी, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में बाढ़, चक्रवात आदि के रूप में कई चरम घटनाओं का सामना करना पड़ा है, जिससे स्थानीय समुदाय प्रभावित हुए हैं।


अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) न्यायोचित परिवर्तन को इस प्रकार परिभाषित करता है: “अर्थव्यवस्था को इस प्रकार हरित रूप प्रदान करना, जो सभी संबंधित लोगों के लिए यथासंभव निष्पक्ष और समावेशी हो, अच्छे कार्य अवसर सृजित हो और किसी को भी पीछे न छोड़ा जाए।”

COP-29 के बाद की चुनौतियाँ:

  • नए जलवायु वित्त लक्ष्य (NCQG) पर गतिरोध: विकसित देशों ने जलवायु वित्त के लिए नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) के रूप में वर्ष 2035 तक 250 बिलियन डॉलर से अधिक की पेशकश नहीं की, जबकि उन्होंने स्वीकार किया कि विकासशील देशों की मदद के लिए वर्ष 2030 तक कम से कम 700 बिलियन डॉलर की आवश्यकता होगी।
    • इसे कई विकासशील देशों ने अस्वीकार्य माना, इससे देशों द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अंशदान (NDC) प्रभावित हो सकता है।
  • लॉस एंड डैमेज फण्ड प्रबंधन: लॉस एंड डैमेज फण्ड का संचालन अभी भी एक जटिल मुद्दा बना हुआ है।
    • जलवायु प्रभावों के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील देशों को निधियों का समान वितरण सुनिश्चित करने तथा इन निधियों का प्रभावी प्रबंधन करने के लिए स्पष्ट शासन संरचना, निगरानी प्रणाली तथा अंतरराष्ट्रीय निकायों के बीच समन्वय की आवश्यकता होगी।
  • समझौतों का क्रियान्वयन: हालाँकि COP-29 महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित कर सकता है, लेकिन वास्तविक चुनौती समझौतों को कार्रवाई में बदलने में है।
    • जलवायु वित्त प्रतिज्ञाओं और उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों जैसी कई पिछली प्रतिबद्धताओं में विलंब हुआ  है या वे पूर्ण ही नहीं हुई हैं।
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति और वैश्विक सहयोग: जलवायु नीतियों को प्रायः राष्ट्रीय हितों, आर्थिक बाधाओं या राजनीतिक विरोध के कारण प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है।
  • निगरानी और जवाबदेही: जलवायु कार्यों के कार्यान्वयन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना मुश्किल होगा।
    • उत्सर्जन में कमी, जलवायु वित्त और अनुकूलन परियोजनाओं पर प्रगति को ट्रैक करने के लिए मजबूत तंत्र की आवश्यकता है ताकि ‘ग्रीनवाशिंग’ या प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विलंब से बचा जा सके।
  • शमन और अनुकूलन प्रतिबद्धताएँ: राष्ट्रों ने शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य का वादा किया है, परंतु विशेष रूप से विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के बीच कार्यान्वयन और महत्वाकांक्षा में असमानताएँ बनी हुई हैं।
  • भू-राजनीतिक संघर्ष (Geopolitical Conflicts): यूक्रेन में युद्ध ने इसी तरह यूरोप का ध्यान ऊर्जा सुरक्षा की ओर आकर्षित किया है।
  • न्यायसंगत संक्रमण सुनिश्चित करना (Ensuring Just Transition): जैसे-जैसे दुनिया कम कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रही है, उच्च कार्बन उद्योगों पर निर्भर श्रमिकों और समुदायों के लिए न्यायसंगत संक्रमण सुनिश्चित करना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती होगी।

आगे की राह 

  • वैश्विक सहयोग को मजबूत करना: भू-राजनीतिक तनावों को दूर करने के लिए, देशों को जलवायु परिवर्तन पर सहयोगात्मक कार्रवाई को प्राथमिकता देनी चाहिए।
    • उत्सर्जन में कमी, नवीकरणीय ऊर्जा और वित्त जुटाने पर समझौतों को सुगम बनाने के लिए कूटनीतिक प्रयासों को बढ़ाने की आवश्यकता है​
  • उन्नत प्रौद्योगिकी हस्तांतरण: COP-29 में विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए।
    • वैश्विक ऊर्जा संक्रमण सुनिश्चित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन जैसी पहलों को बढ़ाया जाना चाहिए।
  • लॉस एंड डैमेज फण्ड का संचालन: लॉस एंड डैमेज फण्ड को संचालित करने के लिए, वित्तपोषण मानदंड, स्पष्ट आवंटन तंत्र के लिए मानदंड विकसित किए जाने चाहिए।

निष्कर्ष

  • COP-29 ने अंतरराष्ट्रीय कार्बन बाजारों के लिए मानक निर्धारित करने, लॉस एंड डैमेज फण्ड को आगे बढ़ाने, तथा जलवायु वित्त में वृद्धि करने का संकल्प लेने में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है।
  • हालाँकि, इन समझौतों को लागू करने, पर्याप्त वित्तपोषण सुनिश्चित करने और दीर्घकालिक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वैश्विक सहयोग बनाए रखने में चुनौतियाँ बनी हुई हैं।

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