26 नवंबर को भारत ने वर्ष 1949 में संविधान सभा द्वारा संविधान को अपनाए जाने की 75वीं वर्षगाँठ मनाई।
संविधान दिवस: इतिहास
संविधान निर्माण प्राधिकरण: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने का कार्य एक विधायी निकाय को सौंपा गया, जिसे संविधान सभा के नाम से जाना जाता है।
संविधान सभा की स्थापना वर्ष 1946 की कैबिनेट मिशन योजना के तहत की गई थी।
संविधान सभा का गठन
संविधान सभा के पहले सत्र की अध्यक्षता सबसे वृद्ध सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने की थी, जो अंतरिम अध्यक्ष के रूप में कार्यरत थे।
11 दिसंबर, 1946 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद को सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया।
संविधान निर्माण के लिए गठित समितियाँ: संविधान सभा ने संविधान निर्माण के लिए 13 समितियाँ गठित कीं।
प्रारूप समिति प्राथमिक निकाय थी, जिसके अध्यक्ष डॉ. बी. आर. अंबेडकर थे।
संविधान सभा के सत्र: संविधान सभा ने दो वर्ष, 11 महीने और 18 दिनों में 11 सत्र आयोजित किए।
अपनाया गया: संविधान 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था।
भारतीय संविधान का विकास
भारत का संविधान प्रारंभ होने पर: इसके प्रारंभ होने के समय इसमें 22 भागों में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियाँ थीं।
संशोधन और अनुकूलनशीलता: भारत के विकसित होते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाते हुए, संविधान को इसके अपनाए जाने के बाद से 105 बार संशोधित किया गया है।
वर्तमान स्थिति: भारत का संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान बना हुआ है।
जो भारत की लोकतांत्रिक और कानूनी प्रणाली की नींव के रूप में कार्य करता है।
साथ ही यह एक जीवंत दस्तावेज बना हुआ है, जो समकालीन आवश्यकताओं के अनुकूल है।
वर्तमान में, भारत के संविधान में 25 भागों में 448 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर, जिन्हें व्यापक रूप से भारतीय संविधान के ‘मुख्य वास्तुकार’ या ‘पिता’ के रूप में माना जाता है, ने कहा: “संविधान केवल वकीलों का दस्तावेज नहीं है; यह जीवन का एक माध्यम है और इसकी भावना हमेशा युग की भावना होती है।”
संवैधानिक व्याख्याओं के विभिन्न प्रकार
पाठ्यवाद (Textualism): संवैधानिक पाठ के स्पष्ट या ऐतिहासिक अर्थ पर ध्यान केंद्रित करना।
उदाहरण: ए. के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) में अनुच्छेद-19, 21 और 22 की शाब्दिक व्याख्या।
मौलिकता (Originalism): संविधान निर्माताओं की मंशा पर विचार करना।
उदाहरण: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में संसद की संशोधन शक्ति के बारे में संविधान निर्माताओं की मंशा पर विचार किया गया।
न्यायिक उदाहरण: पिछले न्यायालय के निर्णयों पर भरोसा करना।
उदाहरण: मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में अनुच्छेद-21 की व्याख्या का विस्तार करने के लिए पिछले निर्णयों पर निर्भरता।
व्यावहारिकता (Pragmatism): व्यावहारिक परिणामों पर विचार करना।
उदाहरण: विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) में विशिष्ट कानून के अभाव में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को संबोधित करने के लिए दिशा-निर्देशों का निर्माण।
नैतिक तर्क: नैतिक सिद्धांतों को लागू करना।
उदाहरण: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) में सम्मान और समानता के सिद्धांतों के आधार पर सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध से मुक्त करना।
लचीले और कठोर संविधान के बीच अंतर
पहलू
लचीला संविधान
कठोर संविधान
संशोधन प्रक्रिया
संशोधन करना आसान है; इसके लिए विधानमंडल में साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है।
संशोधन करना कठिन है; इसके लिए विशेष प्रक्रिया या बहुमत की आवश्यकता होती है।
उदाहरण
यूनाइटेड किंगडम, न्यूजीलैंड,
संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी
परिवर्तन अनुकूलनशीलता
बिना किसी बड़ी बाधा के सामाजिक परिवर्तनों के प्रति अत्यधिक अनुकूलनशील
संशोधन के लिए औपचारिक, प्रायः लंबी प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।
लचीलापन
उभरती जरूरतों और चुनौतियों से निपटने के लिए अधिक लचीला
कम लचीला, स्थिरता सुनिश्चित करता है लेकिन त्वरित अनुकूलन के साथ संघर्ष कर सकता है।
संवैधानिक प्रकृति
आमतौर पर ये कानून अलिखित या आंशिक रूप से लिखित होते हैं तथा समय के साथ इनमें बदलाव होते रहते हैं।
लिखित, संशोधन के लिए विशिष्ट प्रावधानों के साथ।
स्थिरता बनाम परिवर्तन
प्रगति और स्थिरता के बीच संतुलन के लिए त्वरित समायोजन की अनुमति देता है।
स्थिरता के मामले में मजबूत, लेकिन सामाजिक परिवर्तनों के साथ विकसित होने में धीमी हो सकती है।
भारत के संविधान दिवस के बारे में
वार्षिक पालन: भारत में संविधान दिवस प्रतिवर्ष 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा भारतीय संविधान को अपनाने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।
इस दिन अपनाया गया संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ, यह दिन वर्ष 1930 के पूर्ण स्वराज (पूर्ण स्वतंत्रता) घोषणा का सम्मान करने के लिए चुना गया था।
सरकारी पदनाम
वर्ष 2015 में, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने आधिकारिक तौर पर 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में नामित किया।
यह दिन संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देने और डॉ. बी.आर. अंबेडकर की 125वीं जयंती के साथ मेल खाने के लिए चुना गया था।
पूर्व पालन: संविधान दिवस के रूप में इसकी औपचारिक घोषणा से पहले, 26 नवंबर को कानून दिवस के रूप में मनाया जाता था।
संविधान दिवस का महत्त्व
संवैधानिक आदर्शों के प्रति जागरूकता: संविधान दिवस संवैधानिक आदर्शों, अधिकारों और प्रतिबद्धताओं के बारे में जागरूकता बढ़ाता है, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर ध्यान केंद्रित करता है, साथ ही राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देता है।
भारत की परिवर्तनकारी यात्रा पर चिंतन करना: यह दिन भारत की परिवर्तनकारी यात्रा को दर्शाता है और लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।
अपनी स्थापना के बाद से, संविधान पिछले 75 वर्षों में राष्ट्र की प्रगति को आकार देने वाले मार्गदर्शक ढाँचे के रूप में कार्य करता है।
संविधान सभा के विजन का सम्मान: यह दिन एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव रखने में संविधान सभा के विजन और प्रयासों का भी सम्मान करता है।
नागरिक भागीदारी को बढ़ावा देना: संविधान दिवस सक्रिय नागरिक भागीदारी और जिम्मेदारी को प्रोत्साहित करता है, एक प्रगतिशील, समावेशी और समतावादी समाज के निर्माण के लिए भारत के समर्पण को मजबूत करता है।
भारत और संवैधानिक शासन
संवैधानिक शासन के बारे में: यह सरकार की उस प्रणाली को संदर्भित करता है, जिसमें राज्य के अधिकार को संविधान द्वारा परिभाषित, सीमित और विनियमित किया जाता है।
यह सुनिश्चित करता है कि विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा सत्ता का प्रयोग संविधान द्वारा स्थापित कानूनी ढाँचे के भीतर रहे।
एक संवैधानिक लोकतंत्र के रूप में भारत की यात्रा इसके संविधान को अपनाने और उसके कार्यान्वयन में निहित है, जो देश के राजनीतिक और कानूनी ढाँचे को नियंत्रित करता है।
भारत की संवैधानिक यात्रा को आकार देने वाले ऐतिहासिक निर्णय
केशवानंद भारती (1973): ‘मूल संरचना सिद्धांत’ की स्थापना की, जिससे संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति सीमित हो गई।
मेनका गांधी (1978): अनुच्छेद-21 के दायरे का विस्तार किया, गरिमा के साथ जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी दी।
मिनर्वा मिल्स (1980): मौलिक अधिकारों और राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन को मजबूत किया।
इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992): अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण को बरकरार रखा, लेकिन इसे 50% तक सीमित कर दिया, जिससे सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों को नया रूप मिला और भारत में जाति और वर्ग पर बहस छिड़ गई।
विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997): न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए दिशा-निर्देश स्थापित किए, जिसके परिणामस्वरूप कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 लागू हुआ।
नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): एक ऐतिहासिक फैसले में, न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को निरस्त करते हुए समलैंगिकता को अपराध से मुक्त कर दिया।
पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017): न्यायालय ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी, जिसका प्रभाव डेटा सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वायत्तता पर पड़ा।
भारत का संविधान किस प्रकार राष्ट्र की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है।
राजनीतिक आयाम
संविधान प्राथमिक स्रोत के रूप में: भारत का संविधान कानूनी अधिकार के प्राथमिक स्रोत के रूप में कार्य करता है, जो संसद और राज्य विधानसभाओं को कानून बनाने का अधिकार देता है।
भारत की संविधान सभा में महिलाओं की भूमिका
299 सदस्यीय संविधान सभा में 15 महिला सदस्य थीं (जिनमें से दो ने बाद में इस्तीफा दे दिया), जिनमें सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी और विजया लक्ष्मी पंडित जैसी प्रमुख हस्तियाँ शामिल थीं।
यहाँ संविधान सभा की पाँच उल्लेखनीय महिलाएँ हैं
अम्मू स्वामीनाथन (वर्ष 1894- वर्ष 1978): संविधान सभा में उन्होंने पुरुष-प्रधान विरोध का सामना करने के बावजूद हिंदू कोड बिल और लैंगिक समानता के बारे में बात की।
स्वतंत्रता के बाद, वह तमिलनाडु के डिंडीगुल से चुनी गईं तथा रूस, चीन और अमेरिका जैसे देशों में भारत की सद्भावना राजदूत के रूप में कार्य किया।
एनी मैस्करेन (1902-1963): संविधान सभा के सदस्य के रूप में, उन्होंने गणतंत्र के शुरुआती दिनों में एक मजबूत केंद्र की आवश्यकता के बारे में बात की, साथ ही स्थानीय सरकारों की स्वायत्तता पर भी जोर दिया।
बेगम कुदसिया एजाज रसूल (वर्ष 1909-2001): उन्होंने महिलाओं के मुद्दों का समर्थन किया और अलग धार्मिक निर्वाचन क्षेत्रों का विरोध किया।
दक्षायनी वेलायुधन (वर्ष 1912-1978): वे अलग निर्वाचन क्षेत्रों की आवश्यकता पर अंबेडकर से असहमत थीं, उनका कहना था कि यह प्रावधान मतभेदों को उजागर करता है और राष्ट्रवाद के खिलाफ है।
रेणुका रे (वर्ष 1904-1997): वर्ष 1946 में, वे संविधान सभा के लिए चुनी गईं और उन्होंने हिंदू कोड बिल जैसे मुद्दों पर चर्चा की और विधायिकाओं में महिलाओं के आरक्षण का विरोध किया, यह कहते हुए कि यह ‘हमारे विकास में बाधा बनेगा और हमारी बुद्धिमत्ता और क्षमता का अपमान होगा’।
कानून का शासन: सर्वोच्च न्यायालय ने कानून के शासन को संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक घोषित किया है। इसका मतलब है कि कानून की सर्वोच्चता होनी चाहिए तथा कोई भी कानून से ऊपर नहीं होना चाहिए, कानून के सामने हर कोई समान है।
शक्तियों का पृथक्करण: संविधान विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच एक अच्छा संतुलन स्थापित करता है। नियंत्रण तथा संतुलन सुनिश्चित करने के लिए शक्तियों को तीन शाखाओं में विभाजित किया गया है:
विधानमंडल (संसद): कानून बनाता है।
कार्यपालिका (राष्ट्रपति तथा मंत्री): कानूनों को लागू करता है।
न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय): कानून की व्याख्या करती है तथा उसे कायम रखती है।
चुनाव सुधार: भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव जैसे संवैधानिक प्रावधानों पर आधारित है।
भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जहाँ सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार है।
चुनाव आयोग जैसी संस्थाएँ चुनावी अखंडता को बनाए रखने के लिए संविधान से अपना अधिकार प्राप्त करती हैं।
संशोधनीयता: सामाजिक परिवर्तनों के अनुकूल संविधान में संशोधन (भारतीय संविधान के भाग-XX में अनुच्छेद-368) किया जा सकता है।
उभरते लोकतंत्रों के लिए प्रेरणा का स्रोत
आर्थिक आयाम
राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत (DPSP): ये वे दिशा-निर्देश हैं, जिनका पालन भारत सरकार को देश के शासन के लिए करना है। वे अदालतों द्वारा लागू करने योग्य नहीं हैं।
उदाहरण: मनरेगा तथा शिक्षा का अधिकार जैसी पहल अनुच्छेद-39 तथा अनुच्छेद-45 के अनुरूप हैं, जो कल्याणकारी नीतियों को आकार देने में संविधान की भूमिका को प्रदर्शित करती हैं।
सामाजिक आयाम
मौलिक अधिकार: भारत के संविधान के भाग-III में निहित मौलिक अधिकार व्यक्तियों की स्वतंत्रता तथा स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बनाए गए अधिकारों का एक बुनियादी समूह है।
धर्मनिरपेक्षता: भारतीय संविधान का उद्देश्य एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाना है, जहाँ सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जाता है।
सामाजिक असमानताओं को संबोधित करना: संविधान के अनुच्छेद-15 तथा 16 के तहत सकारात्मक कार्रवाई ने हाशिए पर पड़े समुदायों को सशक्त बनाया है।
न्यायिक आयाम
एकीकृत न्यायपालिका: यह संघ तथा राज्य दोनों कानूनों को प्रशासित करने के लिए न्यायालयों की एक एकीकृत प्रणाली प्रदान करता है।
न्यायिक समीक्षा: यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके तहत सरकार की कार्यकारी, विधायी या प्रशासनिक कार्रवाइयों की न्यायपालिका द्वारा समीक्षा की जाती है।
यह न्यायालयों को संविधान को कायम रखने, न्याय सुनिश्चित करने तथा राज्य के अतिक्रमण के विरुद्ध भी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने का अधिकार देता है।
पिछले 75 वर्षों में हुई संवैधानिक प्रगति
राजनीतिक सशक्तीकरण
लोकतांत्रिक चुनाव: भारत सफलतापूर्वक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव कराता है, जिससे यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन गया है।
उदाहरण: विश्व का सबसे बड़ा मतदाता समूह 96.88 करोड़ है, जो भारत में वर्ष 2024 के आम चुनाव के लिए मतदान करने के लिए पंजीकृत है।
विकेंद्रीकरण: 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों ने पंचायती राज संस्थाओं और शहरी स्थानीय निकायों के माध्यम से स्थानीय शासन को सशक्त बनाया, जिससे जमीनी स्तर पर लोकतंत्र मजबूत हुआ।
बढ़ा हुआ प्रतिनिधित्व: विधानसभाओं तथा स्थानीय शासन में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षण ने हाशिए पर पड़े समुदायों की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाया है।
उदाहरण: 18वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित 74 सांसद (14%) महिलाएँ हैं।
आर्थिक विकास
गरीबी निर्मूलन: निदेशक सिद्धांतों पर न्यायिक जोर ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत भोजन के अधिकार को मान्यता देने जैसी कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावित किया है।
नीति आयोग के चर्चा पत्र के अनुसार, भारत में बहुआयामी गरीबी में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है, जो वर्ष 2013-14 में 29.17% से घटकर वर्ष 2022-23 में 11.28% हो गई है, यानी 17.89 प्रतिशत अंकों की कमी।
औद्योगिक विकास: भारत वर्ष 2024 के लिए विश्व की GDP रैंकिंग में 5वें स्थान पर है।
साक्षरता दर: भारतीय राष्ट्रीय सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2023 में भारत की साक्षरता दर 77.7 प्रतिशत है।
मौलिक अधिकारों को मजबूत बनाना
न्यायिक व्याख्याएँ: निर्णयों के माध्यम से अधिकारों का विस्तार, जैसे:
निजता का अधिकार (के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ, 2017)।
86वें संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद-21A के तहत शिक्षा का अधिकार।
भेदभाव विरोधी कानून: SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम जैसे कानूनों के लागू होने से कमजोर समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
हाशिए पर पड़े समूहों की पहचान
LGBTQ+ अधिकार: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (वर्ष 2018) के माध्यम से धारा 377 को अपराधमुक्त करने से अनुच्छेद-14, 15 तथा 21 के तहत LGBTQ+ अधिकारों की पुष्टि हुई।
अल्पसंख्यक अधिकार: अनुच्छेद-30 के माध्यम से अल्पसंख्यकों के लिए शैक्षिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों को मजबूत करना।
समानता में उन्नति
अस्पृश्यता का उन्मूलन: अस्पृश्यता को समाप्त करने के संविधान के निर्देश में सकारात्मक कार्रवाई कार्यक्रमों, विशेष रूप से अनुसूचित जातियों(SC) और अन्य पिछड़ा वर्गों (OBC) के लिए आरक्षण के साथ प्रगति देखी गई है।
अधूरी सामाजिक तथा आर्थिक समानता: इन उपायों के बावजूद, वास्तविक सामाजिक और आर्थिक समानता प्राप्त करने का लक्ष्य अधूरा है।
आगे के अवसरों की निरंतर माँग तथा जाति जनगणना समाज में परिणामों की समानता के लिए चल रहे संघर्षों का संकेत देती है।
बंधुत्व एवं राष्ट्रीय एकता
जाति और क्षेत्र के आधार पर लामबंदी: जाति, पंथ, क्षेत्र तथा भाषा के आधार पर वोटों की लामबंदी भारतीय राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता बनी हुई है।
इससे डॉ. अंबेडकर द्वारा परिकल्पित सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक एकता पर प्रभाव पड़ा है तथा बंधुत्व को एक प्रगतिशील कार्य के रूप में बनाए रखा है।
राष्ट्रवाद की भावना: स्थायी स्थानीय पहचान के बावजूद, राष्ट्रवाद की एक मजबूत भावना उभरी है, जिसका प्रमाण अंतरराष्ट्रीय संकट या गौरव के समय में राष्ट्रीय एकता से मिलता है, जैसे कि कारगिल युद्ध (वर्ष 1999) तथा गलवान घटना (वर्ष 2020) के दौरान।
संवैधानिक संस्थाओं के लिए चुनौतियाँ
संसद की भूमिका में कमी: एक मजबूत विधायी निकाय के रूप में कार्य करने की संसद की क्षमता कमजोर हो गई है।
संसदीय दिनों में कमी: संसद की वार्षिक बैठकों की औसत संख्या पहली लोकसभा में 135 दिनों से घटकर 17वीं लोकसभा (वर्ष 2019-24) में मात्र 55 दिनों पर आ गई है।
राजनीतिक हस्तक्षेप: राजनीतिक व्यक्तियों द्वारा चुनाव आयोग, न्यायपालिका जैसी संवैधानिक संस्थाओं तथा प्रवर्तन निदेशालय (ED), केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) जैसी जाँच एजेंसियों को प्रभावित करने के लगातार प्रयास उनके स्वतंत्र कामकाज को कमजोर करते हैं और विश्वास को कम करते हैं।
उदाहरण: संवैधानिक निकायों के प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति में पारदर्शिता का अभाव, निष्पक्षता और राजनीतिक पक्षपात पर प्रश्न उठाता है।
न्यायिक लंबितता तथा अतिक्रमण:न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता तथा विश्वसनीयता के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
लंबित मामलों के कारण न्याय में देरी होती है, जबकि विधायिका या कार्यपालिका के क्षेत्र में अतिक्रमण से शक्तियों के पृथक्करण के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
भ्रष्टाचार और जवाबदेही: संस्थागत भ्रष्टाचार के आरोपों से जनता का भरोसा तथा कार्यकुशलता कमजोर होती है।
निगरानी में कमी: संसदीय समितियों का कमजोर होना तथा अध्यादेशों का अत्यधिक उपयोग विधायी जाँच को कम करता है।
तकनीकी चुनौतियाँ: गलत सूचना तथा साइबर सुरक्षा जोखिम चुनाव एवं न्यायिक पारदर्शिता जैसी प्रक्रियाओं के लिए खतरा हैं।
चुनावी हेरफेर तथा शासन के उदाहरणों के कारण वी-डेम इंस्टिट्यूट ने भारत को ‘चुनावी निरंकुशता’ करार दिया है।
आगे की राह
संस्थागत स्वतंत्रता को बनाए रखना: पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रियाओं और कार्यात्मक स्वतंत्रता के माध्यम से चुनाव आयोग, न्यायपालिका और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) जैसे संवैधानिक निकायों की स्वायत्तता सुनिश्चित करना।
संघवाद को मजबूत करना: समान संसाधन आवंटन सुनिश्चित करके और पक्षपातपूर्ण केंद्रीय हस्तक्षेपों के बारे में चिंताओं को दूर करके सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना।
जागरूकता को बढ़ावा देना: नागरिकों के बीच संवैधानिक अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जागरूकता बढ़ाना जीवंत लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
समावेशी विकास: पर्यावरणीय स्थिरता का सम्मान करते हुए सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को पाटने के लिए नीतियों को संवैधानिक आदर्शों के साथ संरेखित किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
भारत का संविधान कठोरता तथा लचीलेपन के बीच संतुलन बनाता है, जिससे सामाजिक परिवर्तनों के अनुकूल ढलते हुए इसके मूल सिद्धांतों को संरक्षित रखने की अनुमति मिलती है। यह अनुकूलनशीलता, शिक्षा के अधिकार, अनुच्छेद-370 में संशोधन, GST, NCBC तथा गोपनीयता, धारा 377, तीन तलाक तथा नोटा पर प्रमुख निर्णयों जैसे प्रावधानों में स्पष्ट है, यह दर्शाता है कि, जैसा कि डार्विन ने कहा था, अस्तित्व परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता पर निर्भर करता है।
विकसित होने की यह क्षमता ही हमारे लोकतंत्र की निरंतर मजबूती तथा प्रासंगिकता सुनिश्चित करती है।
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