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संविधान की प्रस्तावना तथा उसमें निहित मूल्य

Lokesh Pal November 27, 2024 05:45 5 0

संदर्भ : 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को शामिल करने के अपने पूर्ववर्ती निर्णय को बनाए रखा है तथा उसको हटाने के संबंध में भेजी गई रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया है, जिनमें इन शब्दों को 42वें संविधान संशोधन, 1976 में जोड़े जाने के 44 वर्ष बाद चुनौती दी गई थी।

प्रस्तावना का दृष्टिकोण

  • भारतीय संविधान की प्रस्तावना उसके पहचान पत्र के रूप में कार्य करती है, जो संविधान के  मूल्यों और दर्शन को समाहित करती है । 
  • यह भारतीय राज्य के दृष्टिकोण और उद्देश्यों को रेखांकित करता है, साथ ही संविधान की व्याख्या के लिए एक मार्गदर्शक ढाँचा भी प्रस्तुत करता है 
  • यद्यपि प्रस्तावना संविधान का न्यायोचित हिस्सा नहीं है, फिर भी यह दस्तावेज़ के सार और आकांक्षाओं को समझने के लिए स्पष्ट दिशा प्रदान करती है।

मूल प्रस्तावना 

  • वर्ष 1949 में अपनाई गई मूल प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया था।
  • संविधान निर्माताओं का मानना ​​था कि पंथनिरपेक्षता का सार पहले से ही व्यापक ढाँचे में अंतर्निहित था । 
    • पंथनिरपेक्षता को कानून के समक्ष समानता, सभी वर्गों के साथ समान व्यवहार तथा धार्मिक स्वतंत्रता की सुरक्षा  के सिद्धांत के रूप में समझा गया।
    • ये मूल्य मूल अधिकारों में प्रतिबिंबित होते हैं, जैसे- धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25), साथ ही सभी नागरिकों की समानता सुनिश्चित करने वाले प्रावधान (अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 16)।
    • अनुच्छेद 38 और अनुच्छेद 39 ने राज्य द्वारा धन के पुनर्वितरण और सामाजिक असमानताओं को दूर करने की दिशा में कार्य करने की आवश्यकता पर बल दिया, जो संविधान के पंथनिरपेक्ष और समाजवादी ढाँचे के अनुरूप हैं।

‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘समाजवादी’ शब्द का समावेशन

  • ‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘समाजवादी’ शब्द 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान संविधान में 42वें संशोधन के माध्यम से जोड़े गए थे।

42वें संविधान संशोधन को चुनौती देने वाली याचिका

  • वर्ष 2020 में प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को शामिल करने पर प्रश्न उठाते हुए एक याचिका दायर की गई थी। 
  • याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि ये शब्द आपातकाल के दौरान जोड़े गए थे, यह वह अवधि थी जब कथित तौर पर संसदीय स्वायत्तता से समझौता किया गया और इनके शामिल किए जाने में लोकतांत्रिक वैधता का अभाव था।

विधिक और न्यायिक व्याख्याएँ

  • एस. आर. बोम्मई मामले (1994) में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि पंथनिरपेक्षता भारतीय संविधान की एक मूलभूत विशेषता है तथा इसे भारतीय राज्य का एक अभिन्न अंग स्थापित किया।
  • न्यायालय द्वारा परिभाषित पंथनिरपेक्षता का तात्पर्य राज्य द्वारा  सभी धार्मिक समुदायों के साथ समान व्यवहार से है तथा यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी धर्म का पक्ष न लिया जाए या उसे दंडित न किया जाए। यह व्याख्या राज्य को धर्म के संबंध में तटस्थ रहने की आवश्यकता पर बल देती है।
  • न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया, कि भारत में पंथनिरपेक्षता का अर्थ राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म का विरोध या उसे बढ़ावा देना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ यह सुनिश्चित करना है कि सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार किया जाए, जो संविधान निर्माताओं के दृष्टिकोण के अनुरूप है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया, कि ये शब्द आपातकाल के दौरान गैर-लोकतांत्रिक संदर्भ में जोड़े गए थे। 
    • न्यायालय ने कहा कि आपातकाल के बाद संसद में इन शब्दों पर चर्चाएँ हुई थी और इन्हें बरकरार रखा गया था, जिससे यह पुष्टि हुई कि प्रस्तावना में इन्हें शामिल करने को संसदीय वैधता प्राप्त थी 

वर्तमान प्रासंगिकता 

  • प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्षता’ शब्दों का महत्त्व आज भी उतना ही है जितना उनके शामिल किए जाने के समय था।
  • चूँकि भारत एक बहु-धार्मिक समाज है, इसलिए सभी नागरिकों के लिए धार्मिक अधिकारों और स्वतंत्रता की आवश्यकता अभी भी सर्वोपरि है तथा ये मूल्य वर्तमान संदर्भ में भी सत्य हैं।
  • न्यायालय की व्याख्या इस बात पर भी बल देती है, कि आर्थिक असमानता और सामाजिक न्याय भारत में सतत विद्यमान चुनौतियाँ हैं। 
  • संविधान में प्रतिबिम्बित समाजवाद के आदर्श आज भी इन मुद्दों के समाधान हेतु प्रासंगिक हैं।

निष्कर्ष

स्पष्ट है, जबकि संविधान अपने अस्तित्व के 75 वर्ष पूरे कर रहा है, सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय इन मौलिक विशेषताओं की समयोचित याद दिलाता है तथा समानता, न्याय और पंथनिरपेक्षता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

संविधान के अभिन्न अंग के रूप में प्रस्तावना की व्याख्या करने के क्या निहितार्थ हैं? प्रासंगिक निर्णयों या मामलों के साथ स्पष्ट कीजिए ।

(10 अंक, 150 शब्द)

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