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सुप्रीम कोर्ट : उपासना स्थल अधिनियम (1991) की प्रासंगिकता

Lokesh Pal December 02, 2024 05:30 97 0

संदर्भ: 

सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णयों, विशेषकर ज्ञानवापी जैसे धार्मिक स्थलों के सर्वेक्षण की अनुमति दी गई थी। इन निर्णयों के पश्चात उपासना स्थल अधिनियम (1991) की प्रासंगिकता और भारत में धर्मनिरपेक्षता की रक्षा में इसकी भूमिका पर सवाल उठे हैं। 

उपासना स्थल अधिनियम (1991)

पृष्ठभूमि:

  • 1991 में भारत सरकार ने पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को उसी रूप में बनाए रखने के उद्देश्य से पूजा स्थल अधिनियम पारित किया , जैसा कि 15 अगस्त 1947 को वो यथास्थिति में थे। 
  • इसका उद्देश्य इस तिथि से पहले अस्तित्व में रहे किसी भी पूजा स्थल की धार्मिक प्रकृति की पुनः जाँच को रोकना था।
  • यह कानून धार्मिक स्थलों के आसपास बढ़ते तनाव, विशेषकर बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद के बाद, के निर्णय में लाया गया था। 
  • इसका उद्देश्य सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखना था क्योंकि इस अधिनियम को भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की रक्षा करने तथा आगे सांप्रदायिक तनाव को रोकने के लिए एक विधायी हस्तक्षेप के रूप में देखा गया था।

नोट: हालाँकि उपासना स्थल अधिनियम (1991) में, अयोध्या विवाद को विशेष रूप से बाहर रखा गया, अर्थात यह बाबरी मस्जिद स्थल पर लागू नहीं किया गया था ।

सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप

  • अयोध्या फैसला (2019): 2019 के अयोध्या फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के संवैधानिक मूल्यों, विशेष रूप से धर्मनिरपेक्षता के लिए  पूजा स्थल अधिनियम को आवश्यक माना।
    • केशवानंद भारती मामले से प्रेरणा लेते हुए न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि संविधान के मूल ढाँचे के भाग के रूप में धर्मनिरपेक्षता अपरिवर्तनीय है।
    • इसमें गैर-प्रतिगामिता सुनिश्चित करने, कानूनी या न्यायिक कार्रवाइयों द्वारा धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को उलटने या कमजोर होने से बचाने में अधिनियम की भूमिका पर प्रकाश डाला गया।
  • सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (2023) : अगस्त 2023 में, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद सर्वेक्षण की अनुमति दी। जिसमें दावा किया गया था कि यह मस्जिद एक प्राचीन मंदिर के ऊपर बनाया गया था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालत के आदेश पर रोक नहीं लगाई। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सर्वेक्षण अंतरिम था तथा यह उपासना स्थल अधिनियम (1991) का उल्लंघन नहीं करता।
    • न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने आश्वासन दिया कि कार्यवाही के दौरान मस्जिद की संरचना की सुरक्षा की जाएगी। 
    • हालांकि, आलोचकों को डर है कि यह आदेश धार्मिक स्थल विवादों पर पुनर्विचार के लिए एक मिसाल कायम कर सकता है, जो संभवतः पूजा स्थलों की यथास्थिति बनाए रखने के अधिनियम के इरादे के साथ टकराव पैदा करेगा ।

सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से उत्पन्न चिंताएँ:

  • मिसाल कायम करने का जोखिम: ज्ञानवापी मस्जिद सर्वेक्षण की अनुमति देने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से स्थानीय अदालतों के लिए इसी तरह के सर्वेक्षणों की अनुमति देने की मिसाल कायम होने का खतरा है, जिससे धार्मिक विवाद बढ़ने की संभावना है। 
    • उदाहरण के लिए, हाल ही में, उत्तर प्रदेश के संभल में एक मस्जिद सर्वेक्षण को अदालत द्वारा मंजूरी दिए जाने के बाद से लगातार विवाद बढ़ता जा रहा है। 
    • राजस्थान में भी दायर की गई, एक याचिका में अजमेर दरगाह का सर्वेक्षण कराने की मांग की गई है। जिसमें दावा किया गया है कि यह मूलतः शिव मंदिर था। 
  • राजनीतिक और धार्मिक निहितार्थ: ऐसी याचिकाओं की बढ़ती संख्या से भारत में धार्मिक और राजनीतिक वातावरण प्रभावित हो रहा है। 
  • अर्थव्यवस्था पर प्रभाव: इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न सांप्रदायिक वैमनस्य अस्थिरता और अनिश्चितता का वातावरण पैदा करके भारत की आर्थिक वृद्धि और विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।       

आगे की राह:

  • अंतर-समुदाय संवाद: विद्वानों और धार्मिक नेताओं ने सुझाव दिया है कि धार्मिक विवादों को सुलझाने में अंतर-समुदाय संवाद को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। 
    • आपसी समझ और शांति को बढ़ावा देने के लिए अदालतों के बजाय नागरिक समाज और धार्मिक समूहों को इन चर्चाओं का नेतृत्व करना चाहिए।
  • सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्टीकरण: सर्वोच्च न्यायालय को आने वाले समय में, भ्रम से बचने के लिए अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। 
    • यदि धार्मिक विवादों को कानूनी माध्यम से सुलझाने की प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया गया तो इससे भारत में धार्मिक सद्भावना अस्थिर हो सकती है।
  • विधानमंडल की भूमिका: विधानमंडल को पूजा स्थल अधिनियम पर पुनर्विचार करना चाहिए । इस दृष्टिकोण से इसकी प्रयोज्यता को सुदृढ़ किया जा सकेगा और न्यायिक हस्तक्षेप को रोकने में भी मदद मिलेगी। इसके अलावा यह सुनिश्चित किया जा सके कि देश का संवेदनशील धर्मनिरपेक्ष आचरण बाधित न हो।

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले से देश का संवेदनशील धर्मनिरपेक्ष आचरण बाधित हो सकता है। लेकिन धार्मिक विवादों को सुलझाने के लिए एक सूक्ष्म, शांतिपूर्ण और संवैधानिक रूप से मजबूत  दृष्टिकोण अपनाना महत्वपूर्ण है । इसमें भारत की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति की रक्षा करने और आगे सांप्रदायिक कलह को रोकने के लिए कानूनी, राजनीतिक और नागरिक समाज के प्रयासों का संतुलित मिश्रण शामिल होना चाहिए। 

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को कायम रखते हुए धार्मिक स्थलों पर विवादों को सुलझाने में न्यायपालिका के सामने आने वाली चुनौतियों की चर्चा करें।

(10 अंक, 150 शब्द)

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