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भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में सुधार

Lokesh Pal December 07, 2024 02:24 40 0

संदर्भ

हाल ही में किए गए बैंकिंग कानूनों में संशोधनों से प्रावधान आसान हो गए हैं तथा प्रति खाता अधिकतम चार नॉमिनी दर्ज करने की अनुमति मिल गई है।

बैंकिंग कानून (संशोधन) विधेयक के प्रमुख प्रावधान

  • नॉमिनी की संख्या में वृद्धि: यह विधेयक जमाकर्ताओं को एक साथ अधिकतम चार नॉमिनी को नामित करने की अनुमति देता है, जिसमें उनके शेयरों का अनुपात निर्दिष्ट होता है।
  • क्रमिक नामांकन: यह क्रमिक नामांकन विकल्प प्रस्तुत करता है, जिससे जमाकर्ता एक विशिष्ट क्रम में कई नामांकित व्यक्तियों को सूचीबद्ध कर सकते हैं।
    • जमाकर्ता द्वारा निर्दिष्ट क्रम में नॉमिनी से धनराशि का दावा करने के लिए संपर्क किया जाएगा।
  • शेयरधारिता में पर्याप्त रुचि: निदेशक पद के लिए शेयरधारिता में ‘पर्याप्त रुचि’ (Substantial Interest) निर्धारित करने की सीमा ₹5 लाख से बढ़ाकर ₹2 करोड़ कर दी गई है।
  • सहकारी बैंकों के लिए प्रावधान: नियामक परिवर्तनों के अनुरूप सहकारी बैंकों में निदेशकों का कार्यकाल 8 वर्ष से बढ़ाकर 10 वर्ष कर दिया गया है।
    • केंद्रीय सहकारी बैंक के निदेशक को अब राज्य सहकारी बैंक के बोर्ड में सेवा देने की अनुमति होगी।
  • निवेशक शिक्षा और संरक्षण कोष (Investor Education and Protection Fund- IEPF): इस विधेयक में दावा न किए गए लाभांश, शेयर, ब्याज या बॉण्ड की मोचन राशि को IEPF में स्थानांतरित करने का प्रावधान शामिल है, यदि वे लगातार सात वर्षों तक दावा न किए गए हों।
    • व्यक्तियों को IEPF में स्थानांतरित की गई राशि या प्रतिभूतियों के लिए स्थानांतरण या रिफंड का दावा करने की अनुमति होगी।

निवेशक शिक्षा और संरक्षण कोष (IEPF)

  • IEPF की स्थापना कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत की गई थी, जिसे कंपनी (संशोधन) अधिनियम, 1999 द्वारा संशोधित किया गया।
  • उद्देश्य: निवेशकों में जागरूकता को बढ़ावा देना और निवेशकों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित करना।

नॉमिनी के बारे में

  • नॉमिनी वह व्यक्ति होता है, जिसे किसी अन्य व्यक्ति की ओर से लाभ या संपत्ति प्राप्त करने के लिए नामित किया जाता है। इस व्यक्ति को अक्सर सुविधा, गोपनीयता या कानूनी कारणों से चुना जाता है।
  • नॉमिनी हो सकता है:-
    • पारिवारिक सदस्य: जीवनसाथी, बच्चे या माता-पिता सामान्य विकल्प हैं।
    • विश्वसनीय मित्र: यदि वे विश्वसनीय हैं तो करीबी मित्रों को नॉमिनी बनाया जा सकता है।
    • कानूनी संस्थाएँ: ट्रस्ट या कंपनियों को नॉमिनी बनाया जा सकता है।
  • भारत में नॉमिनी के लिए कानूनी प्रावधान: भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 खाताधारक और नामांकित व्यक्ति के बीच कानूनी संबंधों को नियंत्रित करता है।

मुख्य आँकड़े

  • भारतीय बैंकिंग प्रणाली: भारतीय बैंकिंग प्रणाली में 13 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, 21 निजी क्षेत्र के बैंक, 44 विदेशी बैंक, 12 लघु वित्त बैंक शामिल हैं।

  • ATM की संख्या: जून 2024 तक, भारत में माइक्रो ATM की कुल संख्या 15,17,580 तक पहुँच गई।
  • संपत्ति: वर्ष 2024 में, सार्वजनिक और निजी बैंकिंग क्षेत्रों में कुल संपत्ति क्रमशः 1861.72 बिलियन अमेरिकी डॉलर और 1264.28 बिलियन अमेरिकी डॉलर थी।
    • सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की परिसंपत्तियाँ कुल बैंकिंग परिसंपत्तियों (सार्वजनिक, निजी क्षेत्र और विदेशी बैंकों सहित) का 59.53% थीं।
  • ब्याज आय: सार्वजनिक बैंकों की ब्याज आय वर्ष 2024 में 128.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएगी।
    • वर्ष 2024 में निजी बैंकिंग क्षेत्र में ब्याज आय 95.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गई।
  • डिजिटल लेनदेन: विश्व के डिजिटल लेनदेन में भारत की हिस्सेदारी लगभग (वर्ष 2022 के आँकड़ों के अनुसार) 46% है।
    • जुलाई 2024 तक 602 बैंक सक्रिय रूप से UPI का उपयोग कर रहे थे।

भारतीय बैंकिंग क्षेत्र 

  • बैंक उधारकर्ताओं तथा उधारदाताओं के बीच वित्तीय मध्यस्थ हैं।
    • यह जनता से जमा स्वीकार करता है तथा व्यवसायों और उपभोक्ताओं को पैसा उधार देता है।
    • इसकी प्राथमिक देनदारियाँ जमा हैं और प्राथमिक परिसंपत्तियाँ ऋण तथा बॉण्ड हैं।
  • वर्गीकरण: भारत में बैंकों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:- अनुसूचित बैंक और गैर-अनुसूचित बैंक।
    • अनुसूचित बैंक: वे वित्तीय संस्थान जो भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 की दूसरी अनुसूची में सूचीबद्ध हैं।
      • इस समावेशन का अर्थ है कि वे RBI द्वारा निर्धारित विशिष्ट मानदंडों को पूरा करते हैं और इसके सख्त नियमों के अधीन हैं।
      • RBI अधिनियम, 1934 की दूसरी अनुसूची के अनुसार, इन बैंकों को कम-से-कम 5 लाख रुपये पूँजी जुटानी चाहिए।
    • गैर-अनुसूचित बैंक: वे वित्तीय संस्थान जो भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 की दूसरी अनुसूची में शामिल होने के मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं।
      • वे अनुसूचित बैंकों की तुलना में अलग नियमों के तहत कार्य करते हैं।

बैंकिंग प्रणाली की संरचना

  • भारतीय रिजर्व बैंक भारत में बैंकिंग प्रणाली की संरचना के शीर्ष पर है और भारत के केंद्रीय बैंक के रूप में कार्य करता है। 
  • भारत में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों को उनके स्वामित्व तथा/या परिचालन की प्रकृति के अनुसार पाँच अलग-अलग समूहों में वर्गीकृत किया गया है।
    • ये बैंक समूह हैं 
      • भारतीय स्टेट बैंक और उसके सहयोगी बैंक
      • राष्ट्रीयकृत बैंक
      • क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
      • विदेशी बैंक 
      • अन्य भारतीय अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक (निजी क्षेत्र में)।

  • राष्ट्रीयकृत बैंक: राष्ट्रीयकृत बैंक वाणिज्यिक बैंक होते हैं, जिनका स्वामित्व एवं नियंत्रण किसी देश की सरकार के पास होता है।
    • बैंकों का राष्ट्रीयकरण वह प्रक्रिया है, जिसमें सरकार निजी बैंकों पर नियंत्रण लेकर उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं में बदल देती है।
    • यह कार्य तीन चरणों में किया गया है:-
      • वर्ष 1969: राष्ट्रीयकरण में पहला बड़ा कदम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उठाया था।
      • वर्ष 1980: राष्ट्रीयकरण के दूसरे दौर में छह बैंक शामिल हुए: ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, विजया बैंक, पंजाब और सिंध बैंक, न्यू बैंक ऑफ इंडिया, कॉरपोरेशन बैंक और आंध्रा बैंक।
      • वर्ष 1991: तीसरा चरण के अंतर्गत जहाँ कुछ बैंकों को अधिकृत किया गया तथा उन्हें नई पीढ़ी के बैंक कहा गया।
        • सरकार ने देश में निवेश करने के लिए निजी निवेशकों को आमंत्रित किया।
  • क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक: RBI को ग्रामीण बैंक के रूप में भी जाना जाता है।
    • छोटे किसानों, कृषि मजदूरों, कारीगरों तथा छोटे उद्यमियों को ऋण और अन्य सेवाएँ प्रदान करके ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं को विकसित करने में मदद के लिए वर्ष 1975 में RBI की स्थापना की गई थी।
    • RBI का स्वामित्व वित्त मंत्रालय, प्रायोजित बैंक तथा राज्य सरकार के पास क्रमशः 50:35:15 के अनुपात में होता है।
  • विदेशी बैंक: विदेशी बैंक वह बैंक है, जिसका मुख्यालय एक देश में होता है लेकिन वह अन्य देशों में परिचालन करता है।
    • उदाहरणों में सिटीबैंक, HSBC तथा स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक शामिल हैं।
  • अन्य भारतीय अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक (निजी क्षेत्र में): भारत में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक (SCB) एक निजी क्षेत्र का बैंक है, जो भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 की अनुसूची II में सूचीबद्ध है।
    • उदाहरणों में HDFC बैंक, ICICI बैंक, एक्सिस बैंक शामिल हैं।
  • सहकारी बैंक: सहकारी बैंक एक वित्तीय संस्था है, जिसका स्वामित्व एवं संचालन उसके सदस्यों द्वारा किया जाता है, जो बैंक के ग्राहक भी होते हैं।
    • इन बैंकों की स्थापना प्रायः ऐसे लोगों द्वारा की जाती है, जिनके हित समान होते हैं तथा जो एक ही व्यावसायिक या क्षेत्रीय समूह का हिस्सा होते हैं।
    • उदाहरणों में भारत सहकारी बैंक, सारस्वत सहकारी बैंक, कॉसमॉस सहकारी बैंक आदि शामिल हैं।
  • डेवलपमेंट बैंक: डेवलपमेंट बैंक एक वित्तीय संस्था है, जो कृषि, भूमि और उत्पादन जैसे क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देने के लिए दीर्घकालिक वित्तपोषण और तकनीकी सहायता प्रदान करती है।
    • डेवलपमेंट बैंक, जमा स्वीकार कर सकते हैं, निवेश उत्पाद पेश कर सकते हैं तथा व्यवसाय ऋण भी दे सकते हैं।
      • राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (NABARD) (1982) 
      • भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) (1990)
      • भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) (1964) 
  • विभेदित बैंक (Differentiated Banks): विभेदित बैंक वे बैंक होते हैं, जो ग्राहकों के एक विशिष्ट समूह को विशेष सेवाएँ या उत्पाद प्रदान करते हैं।
    • भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने नचिकेत मोर समिति की सिफारिशों के बाद वर्ष 2013 में भारत में विभेदित बैंकों की अवधारणा पेश की।
    • लघु वित्त बैंक (Small finance banks-SFB): ये बैंक बुनियादी बैंकिंग सेवाएँ प्रदान करते हैं, जैसे कि जमा स्वीकार करना और छोटे व्यवसायों, सूक्ष्म और लघु उद्योगों तथा अन्य असंगठित क्षेत्र की संस्थाओं को ऋण देना। 
      • उदाहरण: उज्जीवन लघु वित्त बैंक (Ujjivan Small Finance Bank), जनलक्ष्मी लघु वित्त बैंक (Janalakshmi Small Finance Bank)।
    • भुगतान बैंक: ये बैंक मोबाइल बैंकिंग, मोबाइल भुगतान, धन प्रेषण सेवाएँ और अन्य बैंकिंग सेवाएँ प्रदान करते हैं। 
      • उदाहरण: एयरटेल पेमेंट्स बैंक, इंडिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक।
  • गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी (NBFC): ये कंपनी अधिनियम, 1956 के तहत पंजीकृत एक कंपनी है, जो बैंकों के समान विभिन्न वित्तीय सेवाएँ प्रदान करती है, लेकिन बैंक नहीं होती है।

बैंकिंग क्षेत्र सुधार समितियाँ

  • नरसिम्हम समिति (वर्ष 1991): सरकारी हस्तक्षेप को कम करने, कमजोर बैंकों को पुनः पूँजीकृत करने तथा प्रबंधन को मजबूत करने का सुझाव दिया गया।
    • तरलता में सुधार लाने और विवेकपूर्ण मानदंड अपनाने के लिए सांविधिक तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio-SLR) और नकद आरक्षित अनुपात (Cash Reserve Ratio-CRR) को कम करने का प्रस्ताव किया गया।
  • आर. एच. खान समिति (वर्ष 1997): लघु उद्योग क्षेत्र में ऋण वितरण को बढ़ाने और वित्तीय प्रणाली में प्राथमिक डीलरों की भूमिका में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित किया गया।
  • नरसिम्हम समिति II (वर्ष 1998): संरचनात्मक सुधार, बैंकों का एकीकरण तथा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी को 33% से कम करने की सिफारिश की गई।
    • अंतरराष्ट्रीय लेखांकन मानकों और जोखिम-आधारित पर्यवेक्षण को अपनाने की सिफारिश की गई।
  • रघुराम राजन समिति (वर्ष 2008): वित्तीय समावेशन, स्थिरता और बैंकिंग क्षेत्र को मजबूत बनाने के लिए उपाय सुझाए।
  • वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (वर्षं 2011): न्यायमूर्ति बी. एन. श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में, इसका उद्देश्य बैंकिंग, बीमा तथा पेंशन को नियंत्रित करने वाले कानूनों को सुव्यवस्थित करना था।
  • पी. जे. नायक समिति (वर्ष 2014): सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में शासन संबंधी मुद्दों पर प्रकाश डाला, बोर्डों को सशक्त बनाने और सरकारी हस्तक्षेप को कम करने के लिए सुधारों का प्रस्ताव दिया।
  • नचिकेत मोर समिति (वर्ष 2014): भुगतान बैंक तथा सार्वभौमिक इलेक्ट्रॉनिक खाते स्थापित करने जैसे वित्तीय समावेशन उपायों की सिफारिश की।
  • एच. आर. खान समिति (वर्ष 2015): मौद्रिक नीति, मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण तथा RBI की मौद्रिक नीति समिति के कामकाज में सुधार से संबंधित मुद्दों को संबोधित किया।

भारत के बैंकिंग क्षेत्र में प्रमुख चुनौतियाँ

  • कम पूँजी पर्याप्तता: कई भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक (PSB) अपर्याप्त पूँजी निवेश के कारण बेसल III आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संघर्ष करते हैं।
    • भारत सरकार द्वारा पुनर्पूंजीकरण प्रयासों का उद्देश्य इस अंतर को पाटना है, लेकिन यह एक आवर्ती चुनौती बनी हुई है।
  • उच्च गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ (NPA): भारतीय बैंकिंग प्रणाली में NPA से पूँजी क्षरण का जोखिम बढ़ जाता है, जिससे बेसल मानदंडों के तहत आवश्यक CAR को बनाए रखना कठिन हो जाता है।
    • 24 सितंबर, 2024 तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) की सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA) 3.12% थी।
  • ऋण से GDP अनुपात में कमी: भारत में वाणिज्यिक क्षेत्र को दिया जाने वाला बैंक ऋण सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 50% ही है, जो कि अधिकांश विकसित देशों और चीन (जहाँ बैंक ऋण GDP से अधिक है) के स्तर से बहुत कम है।
    • विकसित देशों में इसी प्रकार कम अनुपात वाला एकमात्र अपवाद संयुक्त राज्य अमेरिका है, जो एक सुविकसित ऋण बाजार के माध्यम से इसकी क्षतिपूर्ति करता है।
  • सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में शासन संबंधी मुद्दे: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) को सीमित स्वायत्तता, राजनीतिक हस्तक्षेप और निर्णय लेने में अक्षमता जैसी शासन संबंधी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण अक्सर वित्तीय प्रदर्शन खराब होता है।
    • सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का GNPA अनुपात मार्च 2024 में 3.7% से बढ़कर मार्च 2025 में 4.1% होने का अनुमान है, जबकि निजी बैंकों के लिए यह 1.8% से बढ़कर 2.8% हो जाएगा।
  • MSME के लिए अधूरी ऋण माँग: वर्ष 2022 की लोकसभा स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, MSME की अधूरी ऋण माँग ₹25 ट्रिलियन है, जो उनकी उधारी आवश्यकताओं का 47% है।
    • भारत के 90% से अधिक MSME सूक्ष्म आकार के हैं और इन्हें विशेषीकृत NBFC द्वारा सर्वोत्तम सेवा प्रदान की जाती है, क्योंकि ये संस्थाएँ लघु ऋणों की उच्च प्रसंस्करण लागत को प्रबंधित करने में सक्षम हैं।
    • हालाँकि, बैंक MSME की केवल 15% ऋण आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, जिससे वित्तपोषण में महत्त्वपूर्ण अंतर रह जाता है।
  • परिचालन चुनौतियाँ: बेसल III के तहत जटिल जोखिम मूल्यांकन मॉडल को लागू करने के लिए उन्नत IT अवसंरचना तथा कुशल कर्मियों की आवश्यकता होती है, जिसकी कई भारतीय बैंकों में कमी है।
    • छोटे बैंकों को अक्सर संसाधनों की कमी के कारण प्रौद्योगिकी उन्नयन में निवेश करने में कठिनाई होती है।
  • वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा: भारतीय बैंकों को अच्छी तरह से पूँजीकृत विदेशी बैंकों से प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है, जो आसानी से बेसल III मानदंडों को पूरा करते हैं। यह असमानता भारतीय बैंकों को वैश्विक बाजारों में नुकसान में डालती है।
  • सरकारी सहायता पर निर्भरता: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बेसल मानदंडों को पूरा करने के लिए सरकारी पूँजी पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं, जो उनकी स्वायत्तता और दक्षता में बाधा डालता है।
    • सरकार ने पिछले पाँच वित्तीय वर्षों यानी वर्ष 2016-17 से वर्ष 2020-21 तक बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए 3,10,997 करोड़ रुपये डाले।

बेसल मानदंड

  • इसमें पूँजी पर्याप्तता, जोखिम प्रबंधनर तरलता पर दिशा-निर्देश प्रदान करके स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए डिजाइन किए गए अंतरराष्ट्रीय विनियामक मानक शामिल हैं।
  • बेसल समझौते बैंकिंग विनियमनों की 3 शृंखलाएँ (बेसल I, II और III) हैं, जो बैंक पर्यवेक्षण पर बेसल समिति (Basel Committee on Bank Supervision-BCBS) द्वारा निर्धारित की गई हैं।
  • बेसल III के तहत, किसी बैंक की टियर 1 और टियर 2 परिसंपत्तियाँ उसकी जोखिम-भारित परिसंपत्तियों का कम-से-कम 10.5% होनी चाहिए।
    • टियर 1: बैंक का प्राथमिक वित्तपोषण स्रोत; इसमें शेयरधारकों की इक्विटी और प्रतिधारित आय शामिल है।
    • टियर 2: इसमें पुनर्मूल्यांकन भंडार, हाइब्रिड पूँजी उपकरण और अधीनस्थ अवधि ऋण, सामान्य ऋण-हानि भंडार और अघोषित भंडार शामिल हैं।
  • टियर 2 पूँजी को टियर 1 पूँजी की तुलना में कम विश्वसनीय माना जाता है, क्योंकि इसकी सटीक गणना करना अधिक कठिन है तथा इसका परिसमापन करना भी अधिक कठिन है।
  • बेसल III मानदंडों के तहत भारतीय बैंकों को न्यूनतम पूँजी आधार बनाए रखना होगा, जिसमें शामिल हैं:
    • जोखिम-भारित परिसंपत्तियों का 4.5% का कॉमन इक्विटी टियर 1 (CET1) पूँजी अनुपात।
    • 6% का टियर 1 पूँजी अनुपात।
    • 8% का कुल पूँजी पर्याप्तता अनुपात।

बैंकिंग क्षेत्र में सुधार के लिए प्रमुख सरकारी एवं नियामक पहल

  • इंद्रधनुष योजना (वर्ष 2015): इसका उद्देश्य नियुक्तियों, पूँजी निवेश और प्रशासन जैसे क्षेत्रों में सुधार के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रदर्शन को बेहतर बनाना है।
    • शीर्ष बैंक पदों पर नियुक्ति की सिफारिश करने और रणनीतिक सलाह देने के लिए बैंक बोर्ड ब्यूरो (BBB) की शुरुआत की गई।
  • बैंकों का पुनर्पूंजीकरण: सरकार द्वारा महत्त्वपूर्ण पूँजी निवेश, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बैलेंस शीट को मजबूत करने के लिए वर्ष 2017 में ₹2.11 लाख करोड़ की पुनर्पूंजीकरण योजना भी शामिल है।
    • बेसल III मानदंडों का अनुपालन सुनिश्चित करता है।
  • दिवाला और दिवालियापन संहिता (IBC), 2016: संकटग्रस्त परिसंपत्तियों के त्वरित समाधान के लिए एक ऐतिहासिक पहल।
    • इससे बैंकों को खराब ऋणों की कुशलतापूर्वक वसूली करने तथा ऋण अनुशासन को मजबूत करने में सहायता मिलती है।
  • पीएसबी एकीकरण अभियान: कमजोर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मजबूत बैंकों के साथ एकीकृत करके बड़ी और अधिक कुशल संस्थाएँ बनाना। उदाहरण के लिए, वर्ष 2019 में बैंक ऑफ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक का विलय।
    • इसका उद्देश्य पैमाने, दक्षता में सुधार लाना तथा अतिरेक को कम करना है।
  • बैड बैंक (नेशनल एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड): बड़ी संकटग्रस्त संपत्तियों को अपने नियंत्रण में लेने और उनके समाधान में सहायता करने के लिए स्थापित किया गया, जिससे बैंक, ऋण देने जैसी मुख्य गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित कर सकें।
    • मौजूदा परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनियों (Asset Reconstruction Companies-ARC) का पूरक है।
  • अकाउंट एग्रीगेटर फ्रेमवर्क: संस्थानों के बीच वित्तीय डेटा साझाकरण को सुव्यवस्थित करने, क्रेडिट मूल्यांकन में सुधार करने और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के लिए RBI द्वारा लॉन्च किया गया।
  • निजीकरण की पहल: केंद्रीय बजट वर्ष 2021-22 के अंतर्गत व्यापक आर्थिक सुधारों के हिस्से के रूप में दो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की योजना की घोषणा की गई।
    • यह विधेयक बैंकों में सरकारी स्वामित्व कम करने के लिए नरसिम्हन तथा  पी. जे. नायक समितियों की सिफारिशों के अनुरूप है।
  • डिजिटल बैंकिंग को बढ़ावा: नकद रहित लेनदेन और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने के लिए यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI), e-RUPI और डिजिटल-ओनली बैंकिंग यूनिट्स जैसी पहल।
    • वर्ष 2022 में भारत की स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में देश के 75 जिलों में 75 DBU की घोषणा की गई।

ऋण-से-जीडीपी अनुपात 

  • ऋण-से-जीडीपी अनुपात सभी क्षेत्रों, जैसे कि बैंक और अन्य वित्तीय संस्थानों, द्वारा देश के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में सार्वजनिक सेवा प्रदान करने वाले परिवारों और गैर-लाभकारी संस्थाओं को दिया गया कुल ऋण है।
  • यह किसी देश की अर्थव्यवस्था में उसके सकल घरेलू उत्पाद के सापेक्ष कुल ऋण की एक माप है।

आगे की राह

  • शासन और स्वायत्तता को मजबूत करना: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) के शासन को बढ़ाने के लिए पी.जे. नायक समिति की सिफारिशों को लागू करना।
    • इसमें सरकारी हिस्सेदारी को 50% से कम करना, अधिक स्वायत्तता प्रदान करना और पेशेवर प्रबंधन सुनिश्चित करना शामिल है।
  • निजीकरण तथा समेकन: बैंकिंग क्षेत्र में दक्षता और प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित करते हुए सरकारी संसाधनों पर बोझ कम करने के लिए कमजोर सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण करना तथा मजबूत बैंकों को समेकित करना।
  • MSME को ऋण प्रवाह को मजबूत करना: गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) के साथ सहयोग बढ़ाकर बैंकों को सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSMEs) को अधिक ऋण देने के लिए प्रोत्साहित करना।
    • इससे इस क्षेत्र में 25 ट्रिलियन रुपए की अपूर्ण ऋण माँग पूरी हो जाएगी।
  • प्रौद्योगिकी तथा नवाचार को अपनाना: क्रेडिट मूल्यांकन में सुधार और ग्राहक अनुभव को बढ़ाने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता, बिग डेटा और अकाउंट एग्रीगेटर ढाँचे का लाभ उठाना।
    • अकाउंट एग्रीगेटर फ्रेमवर्क बैंकों को छोटे उधारकर्ताओं पर विस्तृत वित्तीय डेटा एकत्र करने की अनुमति देता है, जिससे बेहतर जोखिम मूल्यांकन संभव हो पाता है।
    • इससे बेहतर जोखिम प्रबंधन के माध्यम से गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) को संबोधित करने में भी मदद मिलेगी।
  • एक मजबूत बॉण्ड बाजार बनाना: बड़ी कंपनियों को बैंक ऋण के बजाय बॉण्ड के माध्यम से धन जुटाने के लिए प्रोत्साहित करना।
    • इससे बैंकों पर बोझ कम होगा और विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह विविध वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा मिलेगा।
    • यह दृष्टिकोण अमेरिका जैसे देशों में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, जहाँ उच्च जोखिम वाले (‘जंक’) बॉण्ड को भी अक्सर खरीदार मिल जाते हैं।
  • निके बैंकिंग (Niche Banking) और विकास वित्त पर ध्यान केंद्रित करना: दीर्घकालिक अवसंरचना परियोजनाओं के लिए विकास वित्त संस्थानों (DFI) की स्थापना तथा कृषि, MSME एवं खुदरा जैसे विशिष्ट क्षेत्रों के लिए विशिष्ट बैंकिंग को बढ़ावा देने से वित्तीय दक्षता और पहुँच में वृद्धि होगी।
  • ‘लेजी बैंकिंग’ (Lazy Banking) को कम करना: भारतीय बैंक ऐसे ऋणों की सुरक्षा तथा लाभप्रदता के कारण बड़े, प्रसिद्ध निगमों को ऋण देने को प्राथमिकता देते हैं।
    • यह ‘लेजी बैंकिंग’ (Lazy Banking) जोखिमों का आकलन करने तथा MSME जैसे छोटे उधारकर्ताओं को ऋण देने की उनकी क्षमता को सीमित कर देती है।

निष्कर्ष

भारत के बैंकिंग क्षेत्र में सुधार वित्तीय स्थिरता में सुधार, ऋण सुलभता बढ़ाने और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। शासन संबंधी चुनौतियों का समाधान करके, वित्तीय समावेशन का विस्तार करके और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर, यह क्षेत्र वैश्विक अर्थव्यवस्था में अधिक लचीला और प्रतिस्पर्द्धी बन सकता है।

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