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मृदा स्वास्थ्य: कृषि के लिए बढ़ती चिंता

Lokesh Pal December 11, 2024 01:32 32 0

संदर्भ 

5 दिसंबर, 2024 को 10वाँ विश्व मृदा दिवस (World Soil Day) मनाया जाएगा, जिसका विषय है ‘मृदा की देखभाल – माप, निगरानी और प्रबंधन।’ (Caring for Soils – Measure, Monitor, and Manage)

मृदा स्वास्थ्य में प्रौद्योगिकी की भूमिका

  • खाद्य एवं कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization-FAO) के मृदा पर अंतर-सरकारी तकनीकी पैनल (Intergovernmental Technical Panel on Soils-ITPS) के अनुसार, मृदा स्वास्थ्य ‘स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता, विविधता और पर्यावरणीय सेवाओं को बनाए रखने की मृदा की क्षमता है।’

मृदा स्वास्थ्य में प्रौद्योगिकी की भूमिका

  • परिशुद्ध कृषि: GPS और IoT-सक्षम उपकरणों जैसी तकनीकें किसानों को वास्तविक समय में नमी, pH और पोषक तत्वों के स्तर जैसे मृदा के स्वास्थ्य मापदंडों की निगरानी करने की अनुमति देती हैं, जिससे लक्षित हस्तक्षेप संभव हो पाता है।
  • मृदा की जाँच और मानचित्रण: उन्नत परीक्षण किट और ‘डिजिटल मानचित्रण उपकरण’ मृदा की गुणवत्ता का आकलन करते हैं और विस्तृत उर्वरता मानचित्र बनाते हैं, जिससे उर्वरकों और संशोधनों के कुशल उपयोग का मार्गदर्शन होता है।
  • रिमोट सेंसिंग और ड्रोन: सैटेलाइट इमेजरी और ड्रोन मृदा के क्षरण, कटाव पैटर्न और वनस्पति आवरण के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं, जिससे बड़े पैमाने पर मृदा संरक्षण प्रयासों को समर्थन मिलता है।
  • जल प्रबंधन प्रणाली: ड्रिप सिंचाई और मृदा की नमी सेंसर जैसी तकनीकें अत्यधिक सिंचाई और लवणीकरण को रोकती हैं, जिससे मृदा की संरचना और उत्पादकता बनी रहती है।

विश्व मृदा दिवस 

  • प्रस्तावित किया गया: अंतरराष्ट्रीय मृदा विज्ञान संघ (International Union of Soil Sciences-IUSS) द्वारा वर्ष 2002 में मृदा की गुणवत्ता में सुधार के लिए एक अंतरराष्ट्रीय दिवस का विचार प्रस्तावित किया गया था।
  • प्रमुख संस्थान: थाईलैंड के नेतृत्व में और वैश्विक मृदा भागीदारी ढाँचे द्वारा समर्थित, खाद्य और कृषि संगठन (FAO) ने औपचारिक रूप से विश्व मृदा दिवस (WSD) की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • विश्व मृदा दिवस की औपचारिक स्थापना: FAO सम्मेलन के अंतर्गत जून 2013 में सर्वसम्मति से विश्व मृदा दिवस का प्रस्ताव पारित किया गया और 68वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसे आधिकारिक रूप से अपनाने का अनुरोध किया।
  • विश्व मृदा दिवस की आधिकारिक मान्यता: दिसंबर 2013 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 5 दिसंबर, 2014 को पहला आधिकारिक विश्व मृदा दिवस घोषित किया।

संगठन

  • अंतरराष्ट्रीय मृदा विज्ञान संघ (IUSS)
    • IUSS की स्थापना 19 मई, 1924 को ‘इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ सॉइल साइंस’ (ISSS) के रूप में की गई थी।
    • यह मृदा वैज्ञानिकों का एक वैश्विक संघ है।
    • इसका उद्देश्य मृदा विज्ञान को बढ़ावा देना, वैज्ञानिकों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना, अनुसंधान को प्रोत्साहित करना और मृदा विज्ञान के अनुप्रयोग को आगे बढ़ाना है।
  • खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) 
    • यह संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी है जो भूखमरी से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का नेतृत्व करती है। 
    • इसका लक्ष्य सभी के लिए खाद्य सुरक्षा हासिल करना और यह सुनिश्चित करना है कि लोगों को सक्रिय, स्वस्थ जीवन जीने के लिए पर्याप्त उच्च गुणवत्ता वाले भोजन तक नियमित पहुँच हो। 
    • 195 सदस्यों अर्थात् 194 देशों और यूरोपीय संघ के साथ, FAO दुनिया भर में 130 से अधिक देशों में कार्य करता है।

भारत में मृदा स्वास्थ्य संकट

  • हालिया अनुमानों के अनुसार, लगभग 115 से 120 मिलियन हेक्टेयर (Mha) अर्थात देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र (TGA) का लगभग 33% हिस्सा मृदा क्षरण से प्रभावित है, जिसमें जल क्षरण, वायु क्षरण, लवणता और वनस्पति हानि शामिल है। 
  • भारत का मरुस्थलीकरण एवं भूमि क्षरण एटलस (अंतरिक्ष उपयोग केंद्र रिपोर्ट)
    • वर्ष 2018-19 में देश में भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण का अनुमान 97.84 मिलियन हेक्टेयर लगाया गया है।
    • जल क्षरण का मुख्य कारण: जल क्षरण भूमि क्षरण का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है, जो भारत के 11.01% भूमि क्षेत्र को प्रभावित करता है।
    • अन्य प्रमुख क्षरण प्रक्रियाएँ
      • वनस्पति क्षरण: 9.15% भूमि प्रभावित।
      • वायु क्षरण: 5.46% भूमि प्रभावित।

भारतीय मरुस्थलीकरण एवं भूमि क्षरण एटलस (Desertification and Land Degradation Atlas of India) अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (Space Applications Centre-SAC) भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह भारत में भूमि क्षरण एवं मरुस्थलीकरण की सीमा को दर्शाता है। 

भारत में मृदा स्वास्थ्य से संबंधित  चुनौतियाँ

  • पोषक तत्वों की कमी
    • नाइट्रोजन की कमी: भारतीय मृदा के 5% से भी कम हिस्से में पर्याप्त नाइट्रोजन है।
    • फॉस्फेट की कमी: केवल 40% मृदा में पर्याप्त मात्रा में फॉस्फेट है।
    • पोटाश की कमी: 32% मृदा में पोटाश पर्याप्त मात्रा में है।
    • कार्बनिक कार्बन की कमी: केवल 20% मृदा में पर्याप्त मात्रा में कार्बनिक कार्बन है।
    • सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी: मृदा में सल्फर, आयरन, जिंक और बोरॉन जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों की मध्यम से लेकर गंभीर कमी भी पाई जाती है।
  • मृदा क्षरण
    • अपरदन: जल अपरदन क्षरण का सबसे व्यापक रूप है और यह भारत के सभी कृषि-जलवायु क्षेत्रों में व्यापक रूप से होता है।
      • वायु अपरदन में मूल रूप से वायु की क्रिया द्वारा मृदा के कणों का विस्थापन शामिल होता है।
      • त्वरक कारक: गहन कृषि पद्धतियाँ, वनों की कटाई और तेजी से शहरीकरण मृदा के अपरदन में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
    • कार्बनिक पदार्थ की हानि: रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से कार्बनिक पदार्थ कम हो जाते हैं, जिससे मृदा की उर्वरता कम हो जाती है।
    • अम्लीय मृदा: ये मृदा उच्च वर्षा के साथ धनायनों के अत्यधिक निक्षालन के कारण आर्द्र और प्रति-आर्द्र क्षेत्रों में विकसित होती है, जिसके परिणामस्वरूप pH मान कम हो जाता है और मृदा की उर्वरता कम हो जाती है।
  • प्रदूषण
    • कृषि रसायन: लंबे समय तक मृदा स्वास्थ्य पर विचार किए बिना रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग, अधिक पैदावार की आवश्यकता से प्रेरित होकर, मृदा के प्राकृतिक पोषक संतुलन को बाधित करके और लाभकारी मृदा के जीवों को नुकसान पहुँचाकर मृदा की गुणवत्ता को खराब करता है।
    • औद्योगिक अपशिष्ट: उद्योगों से निकलने वाले जहरीले प्रदूषक मृदा की गुणवत्ता को खराब करते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन
    • वर्षा के बदलते पैटर्न: अपरदन एवं जलभराव में वृद्धि से मृदा की उर्वरता कम हो जाती है।
    • तापमान में अत्यधिक परिवर्तन: पोषक चक्रण के लिए महत्त्वपूर्ण सूक्ष्मजीवी गतिविधि पर प्रभाव पड़ता है।
  • अतिशोषण
    • मोनोक्रॉपिंग: मोनोकल्चर से तात्पर्य वर्ष दर वर्ष एक ही फसल उगाने की प्रथा से है।
      • जैव विविधता कम हो जाती है और विशिष्ट पोषक तत्वों का ह्रास होता है।
    • अत्यधिक चराई: मृदा को संकुचित करती है और वनस्पति आवरण को नुकसान पहुँचाती है।
    • भूजल का अत्यधिक दोहन: भूजल के अत्यधिक दोहन और असंवहनीय सिंचाई पद्धतियों के कारण मृदा में लवणता बढ़ गई है, जिससे भूमि की उर्वरता कम हो गई है।
  • सामाजिक आर्थिक परिवर्तन
    • भूमि विखंडन: उत्तराधिकार कानूनों एवं जनसंख्या दबावों के कारण भूमि विखंडन में वृद्धि, किसानों के लिए मृदा स्वास्थ्य में निवेश करना मुश्किल बनाती है, क्योंकि उनके पास मापक अर्थव्यवस्थाओं और स्थायी प्रथाओं के लिए पूँजी तक पहुँच की कमी है।
    • शहरीकरण और भूमि उपयोग में परिवर्तन: तेजी से हो रहे शहरीकरण के कारण कृषि भूमि शहरी क्षेत्रों में परिवर्तित हो रही है, जिससे उपजाऊ भूमि की उपलब्धता कम हो रही है।
      • यह परिवर्तन पारंपरिक कृषि प्रणालियों को बाधित करता है और पूर्व कृषि क्षेत्रों में मृदा स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है।
      • उदाहरण: खनन और औद्योगिक उद्देश्यों के लिए कृषि भूमि का उपयोग करने से मृदा का क्षरण होता है और बंजर भूमि का निर्माण होता है, जिससे मृदा का पुनर्जनन चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
  • जागरूकता का अभाव: ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, संसाधनों और प्रौद्योगिकी तक सीमित पहुँच के कारण किसान मृदा संरक्षण पद्धतियों को अपनाने से वंचित रह जाते हैं, जिससे मृदा का और अधिक क्षरण होता है।

भारत का उर्वरक उद्योग

  • उर्वरकों के प्रकार: 3 मूल प्रकार के उर्वरक उपयोग किए जाते हैं: यूरिया, डायमोनियम फॉस्फेट (DAP) और ‘म्यूरेट ऑफ पोटाश’ (MOP)।
    • यूरिया नाइट्रोजन (N) प्रदान करता है।
    • DAP फॉस्फोरस (P) प्रदान करता है।
    • MOP पोटेशियम (K) प्रदान करता है।
  • इष्टतम अनुपात: इष्टतम N:P:K अनुपात मृदा के प्रकारों के अनुसार अलग-अलग होता है, लेकिन आमतौर पर यह 4:2:1 के आसपास होता है।
  • यूरिया
    • यूरिया सभी उर्वरकों में से सर्वाधिक उत्पादित (86 प्रतिशत), सर्वाधिक खपत (74 प्रतिशत हिस्सा) और सर्वाधिक आयातित (52 प्रतिशत) उर्वरक है।
    • इसे सरकारी हस्तक्षेप का भी सर्वाधिक सामना करना पड़ता है।
    • यूरिया सर्वाधिक भौतिक रूप से नियंत्रित उर्वरक है, जिसका 50 प्रतिशत उर्वरक मंत्रालय के आवागमन नियंत्रण आदेश के अंतर्गत आता है, जबकि DAP और MOP के लिए यह 20 प्रतिशत है।
    • इसे DAP और MOP की तुलना में सर्वाधिक सब्सिडी भी मिलती है।
  • आयात निर्भरता 
    • संसद की स्थायी समिति की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार,
      • यूरिया: घरेलू आवश्यकता का 20% आयात किया जाता है।
      • डायमोनियम फॉस्फेट (DAP): माँग का 50-60% आयात के माध्यम से पूरा किया जाता है।
      • ‘म्यूरेट ऑफ पोटाश’ (MOP): आयात पर 100% निर्भरता।

भारत की मृदा स्वास्थ्य और कृषि उत्पादकता में उर्वरक उद्योग की भूमिका

  • उर्वरक उद्योग नाइट्रोजन (N), फॉस्फेट (P), पोटाश (K) और सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिससे उच्च कृषि उत्पादकता सुनिश्चित होती है।
  • पोषक तत्वों का उत्पादन या तो घरेलू स्तर पर किया जाता है या आयात करके किसानों को समय पर वितरित किया जाता है।
  • भारत विश्व का सबसे बड़ा चावल निर्यातक है।
  • वर्ष 2020-21 से वर्ष 2022-23 तक, भारत ने 813 मिलियन से अधिक लोगों को लगभग मुफ्त चावल और गेंहूँ उपलब्ध कराने के बावजूद लगभग 85 मिलियन टन अनाज का निर्यात किया।

उर्वरक क्षेत्र में उत्पन्न चुनौतियाँ

  • सब्सिडी
    • वित्त वर्ष 2023-24 के लिए देश का उर्वरक सब्सिडी बजट 175103 करोड़ रुपये है। 
    • उर्वरक क्षेत्र को भारी सब्सिडी दी जाती है, जो 1.88 लाख करोड़ रुपये है तथा केंद्रीय बजट का लगभग 4% है। 
    • दो-तिहाई सब्सिडी वाला यूरिया दुनिया में सबसे सस्ता बना हुआ है, जो एक दशक से अधिक समय से स्थिर है।
  • असंतुलित उर्वरक उपयोग: उर्वरकों पर भारी सब्सिडी के कारण उर्वरकों का असंतुलित उपयोग हुआ है, विशेषकर पंजाब और तेलंगाना जैसे प्रमुख कृषि राज्यों में, जहाँ नाइट्रोजन (N) का अत्यधिक उपयोग किया जाता है तथा फास्फोरस (P) और पोटाश (K) का कम उपयोग किया जाता है।
    • नाइट्रोजन (N) का अधिक उपयोग तथा पोटेशियम (K) और फास्फोरस (P) के कम उपयोग के परिणामस्वरूप फसल की उपज कम होती है।
  • उर्वरक कुप्रबंधन का प्रभाव
    • प्रदूषण: पोषक तत्व उपयोग दक्षता (NUE) केवल 35-40% है, अतिरिक्त नाइट्रोजन हानिकारक नाइट्रस ऑक्साइड में बदल जाती है, जो वायुमंडलीय प्रदूषण में योगदान देती है।
    • पथांतरण और रिसाव: लगभग 20-25% यूरिया को गैर-कृषि उपयोगों या रिसाव के माध्यम से पड़ोसी देशों में भेज दिया जाता है।
  • स्वास्थ्य खतरे
    • अत्यधिक उर्वरक उपयोग से नाइट्रेट संदूषण एक बड़ी चुनौती बन गया है, जिसके कारण ‘ब्लू बेबी सिंड्रोम’ जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं, जो कि उच्च स्तर के नाइट्रेट से संदूषित जल के सेवन के कारण शिशुओं को प्रभावित करने वाली स्थिति है।

मृदा स्वास्थ्य सुधारने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम

  • समस्याग्रस्त मृदा का सुधार (Reclamation of Problem Soils-RPS): सरकार, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (Rashtriya Krishi Vikas Yojana-RKVY) की एक उप-योजना, समस्याग्रस्त मृदाओं के सुधार (RPS) के अंतर्गत, क्षारीयता, लवणता और अम्लीयता से प्रभावित भूमि के सुधार के लिए सहायता प्रदान कर रही है।
  • मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना: मृदा स्वास्थ्य कार्ड (SHC) एक मुद्रित रिपोर्ट है, जिसमें 12 पोषक तत्वों के संबंध में मृदा की पोषक स्थिति शामिल होती है: pH, विद्युत चालकता (EC), कार्बनिक कार्बन (OC), नाइट्रोजन (N), फास्फोरस (P), पोटेशियम (K), सल्फर (S), जिंक (Zn), बोरॉन (B), आयरन (Fe), मैंगनीज (Mn) और कॉपर (Cu)।
    • राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद (NPC) के अनुसार, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना से रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में 8-10% की कमी आई है तथा उत्पादकता में 5-6% की वृद्धि हुई है।
  • यूरिया की नीम कोटिंग (NCU): उर्वरक विभाग (DoF) ने अनिवार्य किया है कि सभी घरेलू यूरिया उत्पादन 100% नीम लेपित यूरिया (NCU) के रूप में होना चाहिए।
    • NCU के लाभ
      • मृदा स्वास्थ्य को बढ़ाता है और नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (NCU) को बढ़ाता है।
      • पौधों की सुरक्षा के लिए रसायनों एवं कीटों के हमलों की आवश्यकता को कम करता है।
      • गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए डायवर्जन को कम करता है।
      • धीमा नाइट्रोजन निष्कर्षण सुनिश्चित करता है, जिसके परिणामस्वरूप उर्वरक की खपत कम होती है।
  • पोषक तत्व आधारित सब्सिडी (NBS) योजना: NBS योजना उर्वरक की कीमत के स्थान पर वास्तविक पोषक तत्व सामग्री के आधार पर सब्सिडी प्रदान करके उर्वरकों के संतुलित और कुशल उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए शुरू की गई थी।
    • इस योजना का उद्देश्य संतुलित उर्वरक उपयोग को बढ़ावा देना, कृषि उत्पादकता बढ़ाना, स्वदेशी उर्वरक उद्योग को समर्थन देना और सब्सिडी का बोझ कम करना है।
  • परम्परागत कृषि विकास योजना (PKVY): प्रधानमंत्री कृषि विकास योजना (PKVY) रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों पर निर्भरता कम करने के लिए जैविक खेती को बढ़ावा देती है।
    • यह दृष्टिकोण मृदा पोषक तत्वों और कार्बनिक पदार्थों की प्राकृतिक पुनःपूर्ति को प्रोत्साहित करता है, जिससे अंततः मृदा अधिक स्वस्थ बनती है।
  • ICAR द्वारा पहल: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने स्थान-विशिष्ट जैव-इंजीनियरिंग मृदा एवं जल संरक्षण उपाय, वाटरशेड प्रबंधन, लवणीय, क्षारीय, जल-जमाव वाली और अम्लीय मृदाओं के लिए मृदा सुधार उपाय, भूमि क्षरण को रोकने और प्रबंधित करने के लिए कृषि वानिकी हस्तक्षेप सहित उपयुक्त फसलों का चयन विकसित किया है।
  • एक राष्ट्र, एक उर्वरक योजना: यूरिया, डाइ-अमोनियम फॉस्फेट (DAP), म्यूरेट ऑफ पोटाश (MOP) और NPK जैसे सभी सब्सिडी वाले मृदा पोषक तत्वों को पूरे देश में एकल ब्रांड भारत के तहत बेचा जाएगा।
    • इस योजना के शुभारंभ के साथ, पूरे देश में भारत यूरिया, भारत DAP, भारत MOP, भारत NPK आदि की तरह एक ही बैग डिजाइन होगा।

मृदा प्रबंधन से संबंधित पहल

  • वैश्विक मृदा भागीदारी (Global Soil Partnership-GSP) 
    • वैश्विक मृदा भागीदारी (GSP) एक वैश्विक रूप से मान्यता प्राप्त तंत्र है, जिसकी स्थापना वर्ष 2012 में वैश्विक एजेंडे में मृदा को स्थान देने और संधारणीय मृदा प्रबंधन को बढ़ावा देने के मिशन के साथ की गई थी।
    • इसे 145वें खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) परिषद में अनुमोदित किया गया था।
    • इसका उद्देश्य संधारणीय मृदा प्रबंधन (SSM) को बढ़ावा देना और दुनिया के मृदा संसाधनों के प्रशासन में सुधार करना है।
    • GSP एक संवादात्मक, उत्तरदायी और स्वैच्छिक भागीदारी है, जो विभिन्न स्तरों पर सरकारों, क्षेत्रीय संगठनों, संस्थानों और अन्य हितधारकों के लिए उपलब्ध है।
  • बॉन चैलेंज: ‘बॉन चैलेंज’ एक वैश्विक लक्ष्य है जिसका लक्ष्य वर्ष 2020 तक 150 मिलियन हेक्टेयर क्षरित और वन-रहित भू-भाग को पुनःस्थापित करना तथा वर्ष 2030 तक 350 मिलियन हेक्टेयर भू-भाग को पुनःस्थापित करना है।
    • इसे जर्मनी सरकार और अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) द्वारा वर्ष 2011 में लॉन्च किया गया था।
    • चैलेंज ने वर्ष 2017 में प्रतिबद्धताओं के लिए 150 मिलियन हेक्टेयर का लक्ष्य पार कर लिया।
    • IUCN बॉन चैलेंज के सचिवालय के रूप में कार्य करता है।
  • भूमि क्षरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality-LDN): यह एक वैश्विक पहल है जिसका उद्देश्य स्थायी प्रथाओं के माध्यम से भूमि संसाधनों की मात्रा और गुणवत्ता को बनाए रखना या सुधारना है।
    • इसे मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCCD) के तहत प्रस्तुत किया गया, LDN उत्पादक भूमि का ‘कोई शुद्ध नुकसान नहीं’ प्राप्त करने के लिए भूमि क्षरण को पुनर्स्थापन प्रयासों के साथ संतुलित करने का प्रयास करता है।
    • भूमि क्षरण तटस्थता (LDN) सिद्धांत, 19 बिंदुओं का एक समूह है जो LDN कार्यान्वयन प्रक्रिया को नियंत्रित करता है।
  • वैश्विक कृषि मृदाओं का पुनः कार्बनीकरण (Recarbonization of Global Agricultural Soils-RECSOIL): RECSOIL मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) को बढ़ाने और समग्र मृदा स्वास्थ्य में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित करते हुए संधारणीय मृदा प्रबंधन (SSM) को बढ़ाने के लिए एक तंत्र है।
    • RECSOIL पहल, संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) द्वारा एक प्रयास है। 

भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय सर्वोत्तम अभ्यास और उदाहरण

  • चीन के लोएस पठार का पुनर्स्थापन करना: उत्तरी चीन में स्थित लोएस पठार, सदियों से चली आ रही अत्यधिक चराई और वनों की कटाई के कारण गंभीर मृदा क्षरण, खराब कृषि उत्पादकता और चरम गरीबी से ग्रस्त था।
    • लोएस पठार पुनर्वास परियोजना को विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित किया गया था।
    • इसमें मृदा के कटाव को कम करने और जल प्रतिधारण में सुधार करने के लिए समुदाय के नेतृत्व में पुनर्वनीकरण के साथ क्षरित ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेती की गई।
    • इन प्रयासों से न केवल भूमि स्थिर हुई बल्कि कृषि उत्पादकता भी दोगुनी हुई, जिससे कार्रवाई में स्थायी भूमि पुनर्स्थापन का प्रदर्शन हुआ।
  • अफ्रीका में पुनर्योजी कृषि: UNFCCC के अनुसार, लगभग 30% दक्षिण अफ्रीकी किसान ‘नो-टिल’ और ‘लो-टिल’ प्रथाओं जैसी सतत मृदा प्रबंधन तकनीकों को अपना रहे हैं।
    • इन विधियों में पिछली फसल से कम या बिना जोती गई मृदा में सीधे फसल बोना शामिल है, तथा प्रायः फसल अवशेषों को गीली घास के रूप में शामिल कर दिया जाता है।

आगे की राह

  • उर्वरक
    • किसानों को प्रत्यक्ष आय हस्तांतरण: किसानों को उर्वरक खरीदने के लिए प्रत्यक्ष आय हस्तांतरण के रूप में ‘डिजिटल कूपन’ प्राप्त हो सकते हैं।
      • इससे किसानों को आवश्यकता के आधार पर उर्वरकों का चयन करने में सहायता मिलेगी तथा संतुलित उपयोग को बढ़ावा मिलेगा।
    • संतुलित उर्वरक उपयोग के लिए एग्रीस्टैक का उपयोग: एग्रीस्टैक का उपयोग करके N, P और K के संतुलित अनुप्रयोग को प्रोत्साहित करना, जो हितधारकों को एकीकृत करने और कृषि परिणामों को बेहतर बनाने के लिए एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है।
  • सतत कृषि पद्धतियाँ
    • खेती के तरीके: दीर्घकालिक मृदा स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ जैविक और पुनर्योजी खेती के तरीकों को बढ़ावा देना।
      • किसानों को अधिक सतत प्रथाओं में बदलाव करने में मदद करने के लिए अनुसंधान और विस्तार सेवाओं में निवेश करना।
      • सूक्ष्म पोषक तत्वों को बढ़ावा देना: मृदा के स्वास्थ्य, उत्पादकता और किसानों के लाभ को बेहतर बनाने के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों के उपयोग को प्रोत्साहित करना।
      • कृषि अपशिष्ट का उपयोग: मृदा की जैविक सामग्री और संरचना को बढ़ाने के लिए मृदा के सुधार के रूप में फसल अवशेषों, खेत की खाद और अन्य जैविक अपशिष्ट के उपयोग को बढ़ावा देना।
    • पोषक चक्रीयता: यह शहरी जैविक कचरे से पोषक तत्वों को एकत्रित करने, उन्हें संसाधित करने और उन्हें कृषि मृदा में वापस लौटाने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है।
      • यह रणनीति मृदा पोषक तत्वों की पूर्ति और अपशिष्ट प्रबंधन दोनों को संबोधित करती है।
    • न्यूनतम जुताई (Minimal Tillage): न्यूनतम जुताई प्रथाओं को बढ़ावा देना जो मृदा की संरचना को संरक्षित करती हैं, अपरदन को कम करती हैं, और कार्बनिक पदार्थ को बढ़ाती हैं।
    • फसल चक्र और विविधीकरण: कीट चक्रों को तोड़ने, मृदा के क्षरण को कम करने और मृदा की उर्वरता में सुधार करने के लिए फसल चक्र और अंतर-फसल को बढ़ावा देना।
    • ड्रिप सिंचाई और वर्षा जल संचयन: जलभराव और मृदा के लवणीकरण को रोकने के लिए ड्रिप सिंचाई प्रणाली और वर्षा जल संचयन के माध्यम से कुशल जल उपयोग को प्रोत्साहित करना।
    • अति-निष्कर्षण को कम करना: मृदा के संघनन और लवणता के निर्माण को रोकने के लिए भूजल निष्कर्षण को विनियमित करना।
  • मृदा क्षरण की समस्या का समाधान
    • कटाव नियंत्रण उपाय: मृदा के कटाव को रोकने के लिए, विशेष रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में, सीढ़ीदार खेत, पवन अवरोध और चेक डैम जैसी मृदा संरक्षण तकनीकों को लागू करना।
    • वनीकरण और कृषि वानिकी: मृदा के कटाव को कम करने, मृदा की उर्वरता बढ़ाने और जैव विविधता को बढ़ाने के लिए वनीकरण और कृषि वानिकी प्रथाओं को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष

  • कृषि उत्पादकता बढ़ाने, खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने और सतत कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने के लिए मृदा स्वास्थ्य महत्त्वपूर्ण है।
  • भारत में सतत मृदा प्रबंधन प्राप्त करने के लिए उर्वरक उपयोग, प्रौद्योगिकी एकीकरण और किसान-केंद्रित नीतियों में समन्वित सुधारों की आवश्यकता है।

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