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वायकोम सत्याग्रह

Lokesh Pal December 13, 2024 04:33 47 0

संदर्भ 

इस वर्ष केरल और तमिलनाडु ने वायकोम सत्याग्रह की 100वीं वर्षगाँठ मनाई, जो इसके स्थायी महत्त्व को रेखांकित करता है।

  • तमिलनाडु ने सामाजिक न्याय संबंधी कार्य करने वाले व्यक्तियों को सम्मानित करने के लिए ‘वायकोम पुरस्कार’ की शुरुआत की है।

वायकोम सत्याग्रह

पृष्ठभूमि

  • वायकोम सत्याग्रह (वर्ष 1924-25) ब्रिटिश भारत के त्रावणकोर रियासत (वर्तमान केरल) में हिंदू समुदाय में अस्पृश्यता के खिलाफ एक सामाजिक विरोध था।
  • यह आंदोलन वायकोम के महादेव मंदिर में केंद्रित था, जो वर्तमान में केरल राज्य के कोट्टायम के निकट स्थित है।
  • उद्देश्य: वायकोम में श्री महादेव मंदिर तक जाने वाली सार्वजनिक सड़कों के उपयोग के माध्यम से समाज के सभी वर्गों को स्वतंत्रता सुनिश्चित करना।
  • कोट्टायम शहर ऐतिहासिक रूप से वर्ष 1924 में जाति-आधारित भेदभाव और मंदिर प्रवेश प्रतिबंधों के खिलाफ अहिंसक संघर्ष के केंद्र के रूप में महत्त्वपूर्ण है। (संलग्न मैप वायकोम की स्थिति को दर्शाता है, साथ ही कोच्चि और अलप्पुझा जैसे आस-पास के प्रमुख स्थलों को भी दर्शाता है।)

ऐतिहासिक संदर्भ

  • केरल और शेष भारत में प्रचलित जाति व्यवस्था के अनुसार, निम्न जाति के लोगों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। केरल में, उन्हें मंदिरों की ओर जाने वाली सड़कों पर चलने की भी अनुमति नहीं थी। 

  • वर्ष 1923 में कांग्रेस पार्टी की काकीनाडा बैठक में, टी. के. माधवन ने केरल में दलित जातियों के लोगों के साथ हो रहे भेदभाव का हवाला देते हुए एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस सत्र के बाद ही अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलनों को बढ़ावा दिया गया। 
  • वायकोम सत्याग्रह (वर्ष 1924-1925) केरल में जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ एक महत्त्वपूर्ण अहिंसक आंदोलन था। इसका प्राथमिक लक्ष्य वायकोम महादेव मंदिर के आसपास की सड़कों तक सार्वजनिक पहुँच प्रदान करना था, जो निम्न जाति के व्यक्तियों के लिए प्रतिबंधित थीं। 
  • आदर्श वाक्य: वायकोम सत्याग्रह का आदर्श वाक्य ‘एक जाति, एक ईश्वर, एक मानवता’ था। यह नारा नारायण गुरु द्वारा दिया गया था।

प्रमुख नेता और प्रमुख रणनीतियाँ

  • टी के. माधवन, के पी. केशव मेनन और के. केलप्पन ने आंदोलन का नेतृत्व किया और समझौते  और बातचीत पर जोर दिया। 
  • महात्मा गांधी बाद में इसमें शामिल हुए और आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाई तथा नैतिक मार्गदर्शन दिया। गांधीजी ने तीन प्रस्ताव रखे।
    • पहला यह था कि वायकोम या त्रावणकोर में सभी वयस्कों के बीच जनमत संग्रह कराया जाए।
    • दूसरा मध्यस्थता का मार्ग था जिसमे प्रत्येक पक्ष से एक विद्वान अपना तर्क प्रस्तुत करेगा और दीवान इस पर फैसला सुनाएगा।
    • तीसरा यह था कि रूढ़िवादी लोगों को एक ऐसा धर्मग्रंथ प्रस्तुत करना चाहिए जो अस्पृश्यता के अभ्यास को अधिकृत करता हो।
  • गांधीजी ने इसे रूढ़िवादी लोगों पर छोड़ दिया। उन्होंने आगे यह भी कहा कि सत्याग्रही किसी भी निर्णय से बंधे रहेंगे, चाहे उसके परिणाम कुछ भी हों, जबकि रूढ़िवादी लोग अंतिम निर्णय को न मानने के लिए स्वतंत्र हैं। इससे स्थानीय नेताओं और गांधीजी के बीच रणनीति में मतभेद उत्पन्न हो गए।

व्यापक समर्थन

  • इस आंदोलन को तमिलनाडु से समर्थन मिला, मुख्य रूप से पेरियार ई वी रामासामी से, जिनकी भागीदारी ने इस मुद्दे की अखिल भारतीय प्रासंगिकता को उजागर किया। पेरियार की गिरफ्तारी ने इस मुद्दे पर काफी ध्यान आकर्षित किया।
  • महिलाओं की भूमिका: पेरियार की पत्नी नागम्माई और बहन कन्नम्माल ने समर्थन जुटाने और सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रकार, यह एक समावेशी आंदोलन था।

प्रमुख उपलब्धियाँ और वर्तमान निहितार्थ

  • जाति प्रतिबंधों का उन्मूलन: यह आंदोलन केरल में सार्वजनिक स्थानों पर जाति-आधारित प्रवेश बाधाओं को हटाने में उत्प्रेरक था।
  • महिलाओं की भागीदारी: सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका में वृद्धि, उस युग के लिए एक प्रगतिशील परिवर्तन।
  • अखिल भारतीय प्रासंगिकता: समुदायों में एकजुटता उत्पन्न की और देश भर में इसी तरह के आंदोलनों को प्रेरित किया।
  • सविनय अवज्ञा के गांधीवादी तरीकों की प्रभावशीलता का प्रदर्शन।
  • भारत में राजनीतिक मुद्दों में अस्पृश्यता को सबसे आगे लाना।

मंदिर प्रवेश उद्घोषणा (वर्ष 1936)

  • त्रावणकोर के महाराजा चिथिरा थिरुनल बलराम वर्मा द्वारा 12 नवंबर, 1936 को जारी की गई इस घोषणा में कहा गया था कि सभी हिंदू, चाहे वे किसी भी जाति के हों, त्रावणकोर सरकार के प्रशासन के तहत मंदिरों में प्रवेश कर सकते हैं।
  • यह घोषणा विभिन्न कारकों से प्रभावित थी, जिसमें उस समय के व्यापक सामाजिक सुधार आंदोलन, श्री नारायण गुरु जैसे नेताओं की पैरवी और श्री नारायण धर्म परिपालन (SNDP) योगम जैसे संगठनों के प्रयास शामिल थे।
  • इसे बढ़ते जन दबाव, टी के माधवन और महात्मा गांधीजी जैसे सुधारकों के प्रयासों और सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग की मानसिकता में प्रगतिशील परिवर्तनों से भी आकार मिला।

संवैधानिक एवं विधायी निहितार्थ

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता को समाप्त किया गया, सत्याग्रह द्वारा समर्थित सिद्धांतों को सुदृढ़ किया गया।
  • सामाजिक सुधार: शिक्षा और सामाजिक न्याय में केरल की बाद की प्रगति आंशिक रूप से इस आंदोलन द्वारा उत्पन्न गति से उपजी थी।

कमियाँ एवं चुनौतियाँ

  • अधूरे सुधार: सार्वजनिक स्थानों पर जातिगत अवरोध कम हो गए, लेकिन व्यवस्थागत असमानताएँ बनी रहीं। उदाहरण: गुप्त रूप से  जाति आधारित भेदभाव जारी रहा।
  • आर्थिक असमानताएँ: कानूनी अधिकारों के बावजूद निम्न जातियों को कई क्षेत्रों में आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है।
  • सांस्कृतिक प्रतिरोध: जातिगत भेदभाव की प्रक्रिया गुप्त रूप में जारी रही, विशेषकर ग्रामीण भारत में। उदाहरण: निम्न जातियों को खाने के लिए अलग बर्तन दिए जाते हैं।
  • मंदिर प्रवेश उद्घोषणा: वर्ष 1936 में, त्रावणकोर के महाराजा ने इस उद्घोषणा पर हस्ताक्षर किए, जिसने निम्न जाति के लोगों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति दी।
  • सड़कों का सार्वजनिक रूप से खुलना: वायकोम मंदिर के आसपास की चार में से तीन सड़कें सभी जातियों के लोगों के लिए खोल दी गईं। किंतु चौथी सड़क ब्राह्मणों के लिए आरक्षित थी।

समकालीन प्रासंगिकता 

  • वायकोम सत्याग्रह को वायकोम सत्याग्रह स्मारक संग्रहालय और पेरियार स्मारक के साथ याद किया जाता है।
  • जाति-आधारित हिंसा में वृद्धि: ऊना दलितों की पिटाई जैसी घटनाएँ नए सिरे से सामाजिक सुधार प्रयासों की आवश्यकता को उजागर करती हैं।
  • आरक्षण पर बहस: जाति-आधारित आरक्षण को निष्पक्ष रूप से लागू करने में चुनौतियाँ मौजूदा सामाजिक असमानताओं से संबद्ध हैं।
  • मंदिर प्रवेश आंदोलन: सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश जैसे समान आंदोलन, वायकोम सत्याग्रह के सिद्धांतों को प्रतिध्वनित करते हैं।

निष्कर्ष

वायकोम सत्याग्रह सामाजिक सुधार और अंतर-जातीय एकजुटता का प्रतीक बना हुआ है। यह समाज में व्याप्त पदानुक्रमों को चुनौती देने और स्थायी परिवर्तन प्राप्त करने में एकजुट, शांतिपूर्ण प्रतिरोध की क्षमता को दर्शाता है।

वायकोम की शताब्दी मनाना न केवल पेरियार की दृढ़ता और बी आर अंबेडकर की सूझबूझ को श्रद्धांजलि है, बल्कि दक्षिण भारत में आधुनिक राजनीति में व्याप्त मजबूत सुधारवादी प्रवृत्तियों की पुनः पुष्टि भी है। जो आज तक भारत की संवैधानिक नैतिकता में निहित है।

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