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भारत में जेनेरिक दवाओं का विकास तथा उनकी विश्वसनीयता

Lokesh Pal December 19, 2024 05:15 18 0

संदर्भ:

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का सामर्थ्य बढ़ाने और आय असमानताओं को दूर करने के लिए जेनेरिक दवाएँ अत्यंत आवश्यक हैं। हालाँकि, उनकी गुणवत्ता और प्रभावकारिता को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

जेनेरिक दवाएँ : मुख्य बिन्दु

  • जब कोई नई दवा विकसित की जाती है, तो उसे 20 वर्षों के पेटेंट द्वारा संरक्षित किया जाता है 
  • इससे नवप्रवर्तक कंपनी को पेटेंट अवधि के दौरान विशेष बिक्री के माध्यम से अपने अनुसंधान और विकास (R & D) लागत की वसूली करने में सहायता मिलती है।
  • जेनेरिक दवाएँ ब्रांडेड या इनोवेटर दवाओं के समान जैव समतुल्य होती हैं, जिसका अर्थ है कि उनमें मूल दवाओं के समान ही सक्रिय तत्त्वखुराक का रूपस्वास्थ्य शक्ति क्षमता होती है।
  • जेनेरिक दवाएँ ब्रांड नाम के बजाय उनके रासायनिक नाम से बेची जाती हैं।

जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं के बीच मुख्य अंतर

  • जेनेरिक दवाओं में अलग-अलग बाइंडर (सामग्री को एक साथ रखने के लिए) और फिलर्स (भार बढ़ाने या स्थिरता में सुधार करने के लिए) का उपयोग किया जा सकता है।
  • जेनेरिक दवा निर्माता नई दवा के विकास या व्यापक नैदानिक ​​परीक्षणों से जुड़े उच्च खर्च को वहन नहीं करते, जिससे जेनेरिक दवाएँ काफी सस्ती हो जाती हैं।

जेनेरिक दवाओं का प्रभाव

  • जेनेरिक दवाओं की कम लागत उन्हें अधिक सुलभ बनाती हैं, जिससे रोगियों के लिए किफायती स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित होता है।
    • अगस्त 2024 तक एक दशक में प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना के माध्यम से बेची गई ₹5,600 करोड़ की जेनेरिक दवाओं से उपभोक्ताओं को अनुमानित ₹30,000 करोड़ की बचत हुई।                  
  • लागत प्रभावी विकल्प प्रदान करके, जेनेरिक दवाएँ उपचार अनुपालन में सुधार लाने और स्वास्थ्य देखभाल व्यय को कम करने में विशेष भूमिका निभाती हैं ।                  
    • 2021-22 में कुल स्वास्थ्य व्यय का 39.4% स्वास्थ्य देखभाल पर होने वाला खर्च, जेनेरिक दवाओं से वित्तीय बोझ कम होता है और उपचार अनुपालन में सुधार होता है। 

जेनेरिक दवाओं से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ  

  • गुणवत्ता नियंत्रण में खामियाँ : हालाँकि जेनेरिक दवाओं को ब्रांडेड दवाओं के समान जैव-समतुल्य माना जाता है, फिर भी ऐसे कई उदाहरण हैं, जहाँ उनकी गुणवत्ता अपेक्षित मानकों के अनुरूप नहीं होती, जिससे उनकी सुरक्षा और प्रभावकारिता संबंधी चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
    • PGIMER चंडीगढ़ के चिकित्सकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में इस मुद्दे पर प्रकाश डाला गया। 
    • एंटीफंगल (कवकरोधी) दवा इट्राकोनाजोल के साथ क्रोनिक पल्मोनरी एस्परजिलोसिस का इलाज करते समय इनोवेटर (ब्रांडेड) दवा ने दो सप्ताह के भीतर 73% रोगियों में चिकित्सीय दवा के स्तर को प्राप्त कर लिया । 
    • इसके विपरीत, जेनेरिक दवाएँ केवल 29% रोगियों में ही समान चिकित्सीय स्तर तक पहुँच पाती हैं तथा समान परिणाम प्राप्त करने के लिए सामान्तः लंबी उपचार अवधि या उच्च खुराक की आवश्यकता होती है।

जेनेरिक दवा परिवर्तनशीलता के कारण

  • सहायक पदार्थ में अंतर : सहायक पदार्थ में भिन्नताएँ, जैसे- बाइंडर, फिलर्स, विघटनकारी और कोटिंग्स- दवा के विघटन दर, स्थिरता और वितरण तंत्र को महत्त्वपूर्ण रूप से परिवर्तित कर  सकती हैं ।
  • विनिर्माण प्रक्रियाओं में भिन्नताएँ : पंचिंग मशीनों के प्रकार, संपीडन बल और टेबलेट बनाने के तरीकों सहित विनिर्माण प्रक्रियाओं में अंतर दवा के भौतिक और रासायनिक गुणों को प्रभावित कर सकता है।
    • टैबलेट (दवा की गोली) की कठोरता, आकारसरंध्रता में भिन्नताएँ रक्तप्रवाह में  दवा के विघटन और अवशोषण को प्रभावित कर सकती हैं।

जेनेरिक दवाइयों में कैप्सूल या टैबलेट के अंदर  छर्रे (छोटे कण) का प्रयोग किया जाता है,  जिससे सक्रिय फार्मास्युटिकल घटक (Active Pharmaceutical Ingredient – API)  और अवशोषण को नियंत्रित किया जा सके। यदि टेबलेट्स एकसमान आकार के नहीं हैं, तो वे अलग-अलग दरों पर घुल सकते हैं, जिससे दवा का अवशोषण असंगत हो सकता है। 

  • जैव-समतुल्यता की सीमाएँ : विनियामक मानक फार्माकोकाइनेटिक मापदंडों को नवप्रवर्तक दवा के प्रदर्शन के 80%-125% रेंज के भीतर आने की अनुमति देते हैं।
    • ये सीमाएँ संकीर्ण चिकित्सीय सूचकांक वाली दवाओं के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती हैं । 
    • यहाँ तक ​​कि दवा की पहुँच या जैव उपलब्धता में मामूली विचलन से उप-चिकित्सीय प्रभाव या प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं 
  • परीक्षण और औषधि निर्माण से संबंधित समस्याएँ : असंगत स्थिरता परीक्षण और औषधि निर्माण में विविधताएँ जेनेरिक दवाओं की शेल्फ लाइफ और विश्वसनीयता को कमजोर कर सकती हैं, जिससे उनके प्रदर्शन और प्रभावशीलता में भिन्नता आ सकती है।

भारत में औषधि विनियमन प्रणाली संबंधी मुद्दे

  • विकेन्द्रीकृत औषधि विनियमन : भारत की विकेन्द्रीकृत नियामक प्रणाली राज्य औषधि नियामक प्राधिकरणों (SDRAs) को महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान करती है, जिसके निम्नलिखित परिणाम देखने को मिलते हैं:
    • असंगत प्रवर्तन: गुणवत्ता मानकों में परिवर्तनशीलता।
    • विनियामक मध्यस्थता: निर्माता कुछ राज्यों में कमजोर निगरानी तंत्र का लाभ उठाते हैं।
  • अपर्याप्त स्थिरता परीक्षण : स्थिरता परीक्षण यह सुनिश्चित करता है, कि दवाएँ विविध जलवायु परिस्थितियों में अपनी गुणवत्ता बनाए रखें। 
    • केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) द्वारा वर्ष 2018 के दौरान अनिवार्य किए गए, असंगत कार्यान्वयन और 2018 से पूर्व निर्मित जेनेरिक दवाओं पर पूर्वव्यापी प्रयोज्यता की कमी के कारण कम गुणवत्ता वाली दवाओं की उपस्थिति बनी हुई है।
  • अनुमेय औषधि अशुद्धता मानक: भारत का फार्माकोपिया अमेरिका और यूरोपीय संघ के मानकों की तुलना में उच्च अशुद्धता स्तर की अनुमति देता है। 
    • कठोर ICH दिशा-निर्देशों को “अत्यधिक महंगा” बताकर अस्वीकार करने से जेनेरिक दवाओं की समग्र गुणवत्ता से समझौता करना होता है।

आईसीएच दिशा-निर्देश

  • अंतर्राष्ट्रीय समन्वय परिषद (International Council for Harmonisation –ICH) विभिन्न क्षेत्रों में फार्मास्यूटिकल उत्पाद पंजीकरण के लिए तकनीकी आवश्यकताओं को सुसंगत बनाने हेतु  दिशा-निर्देश विकसित करती है। 
  • ये दिशा-निर्देश सुनिश्चित करते हैं कि सुरक्षित, प्रभावी और उच्च गुणवत्ता वाली दवाएँ कुशलतापूर्वक विकसित और पंजीकृत की जाएँ, जिससे वैश्विक दवा अनुमोदन प्रक्रिया में सुधार होगा तथा परीक्षण के दोहराव मे कमी आएगी ।

आवश्यक समाधान 

  • औषधि विनियमन का केंद्रीकरण :
    • देश भर में गुणवत्ता मानकों के एकसमान प्रवर्तन के लिए राज्यों द्वारा औषधि विनियमन को समाप्त कर यह उत्तरदायित्व “केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन” (CDSCO) को सौंप देना चाहिए।
    • भाटिया (1954)हाथी (1975) और माशेलकर (2003) समितियों ने लंबे समय से केंद्रीकरण की वकालत की है, इनकी सिफारिशों को बिना देरी के लागू किया जाना चाहिए।
  • CDSCO को मजबूत बनाना :
    • विनियामक निगरानी में सुधार के लिए कार्मिक, वित्त पोषण और बुनियादी ढाँचे में वृद्धि करें।
    • देश भर में सभी जेनेरिक दवाओं की सुसंगत और विश्वसनीय गुणवत्ता जाँच सुनिश्चित करने के लिए अधिक केंद्रीकृत औषधि परीक्षण प्रयोगशालाएँ स्थापित की जाएंगी।
  • उन्नत स्थिरता परीक्षण :
    • सभी अनुमोदित जेनेरिक दवाओं का समय-समय पर पुनर्मूल्यांकन अनिवार्य करें, जिनमें 2018 से पूर्व स्वीकृत दवाएँ भी शामिल हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे आधुनिक स्थिरता परीक्षण मानकों को पूरा करती हैं।
    • गुणवत्ता संबंधी समस्याओं को रोकने के लिए सभी राज्यों में एकसमान स्थिरता परीक्षण प्रोटोकॉल लागू करें तथा यह सुनिश्चित करें कि दवाएँ अपनी शेल्फ लाइफ के दौरान प्रभावी बनी रहें।
  • कठोर मानक :
    • कठोर अंतर्राष्ट्रीय समन्वय परिषद दिशा-निर्देशों को अपनाकर भारत की अशुद्धता सीमाओं को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाना।
    • इससे जेनेरिक दवाओं की सुरक्षा और प्रभावकारिता में सुधार करने में मदद मिलेगी  तथा यह सुनिश्चित होगा कि वे वैश्विक गुणवत्ता अपेक्षाओं को पूरा करें।
  • विनियामक सीमाओं का पुनर्गठन :
    • कठोर नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए संकीर्ण चिकित्सीय सूचकांक (एनटीआई) वाली दवाओं के लिए जैव-समतुल्यता सीमा को संशोधित करें।
    • इससे महत्त्वपूर्ण दवाओं के लिए कठोर मापदंड सुनिश्चित होंगे तथा मामूली विचलन से चिकित्सीय परिणामों पर असर पड़ने या प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ होने से रोका जा सकेगा।

निष्कर्ष

स्पष्ट है कि भारत जैसे विकासशील देश में व्यक्तियों की आर्थिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए तथा स्वास्थ्य सेवा तक समान पहुँच के लिए जेनेरिक दवाइयाँ अत्यंत आवश्यक हैं। हालाँकि, जनता का भरोसा बनाए रखने के लिए उनकी प्रभावशीलता सामर्थ्य के अनुरूप होनी भी आवश्यक है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

भारत में जेनेरिक दवाओं के संबंध में सामर्थ्य और गुणवत्ता के बीच परस्पर क्रिया का आलोचनात्मक परिक्षण  कीजिए। विकेंद्रीकृत दवा विनियमन, विनिर्माण मानकों में भिन्नता और असमान प्रवर्तन तंत्र द्वारा उत्पन्न चुनौतियों पर प्रकाश डालिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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