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पुनर्योजी कृषि

Lokesh Pal December 27, 2024 03:42 18 0

संदर्भ

भारत की बढ़ती जनसंख्या 145 करोड़ है तथा उसे खाद्यान्न माँग में प्रतिवर्ष 2-3% की वृद्धि का सामना करना पड़ रहा है, जिसके लिए वर्ष 2050 तक खाद्यान्न उत्पादन में 50% की वृद्धि की आवश्यकता होगी।

  • खाद्य एवं पोषण के मामले में आत्मनिर्भर होने के बावजूद, देश की वर्तमान कृषि पद्धतियाँ सतत नहीं हैं।

पुनर्योजी कृषि 

  • पुनर्योजी कृषि एक कृषि-पारिस्थितिकी दृष्टिकोण है, जिसे मृदा स्वास्थ्य को पुनर्स्थापित करने, जैव विविधता को बढ़ाने और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं में सुधार करने के लिए डिजाइन किया गया है।
  • ‘पुनर्योजी कृषि’ शब्द 1980 के दशक में रोडेल इंस्टिट्यूट, एक गैर-लाभकारी अनुसंधान संस्थान द्वारा गढ़ा गया था।

पुनर्योजी कृषि के अद्वितीय बिंदु

  • स्थिरता से परे: स्थायी कृषि के विपरीत, जो यथास्थिति को बनाए रखती है, पुनर्योजी कृषि मृदा स्वास्थ्य, जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र के लचीलेपन को बेहतर बनाने पर ध्यान केंद्रित करती है।
  • मृदा केंद्रित दृष्टिकोण: पुनर्योजी कृषि सूक्ष्मजीव-पौधे सहजीवन के माध्यम से मृदा पुनर्जनन को प्राथमिकता देती है, पोषक चक्रण और कार्बन पृथक्करण को बढ़ाती है।
  • समग्र अभ्यास: स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल बने रहते हुए कृषि पारिस्थितिकी और संरक्षण कृषि के सिद्धांतों को जोड़ती है।
  • गतिशील और समावेशी: विशिष्ट वातावरण के अनुरूप शून्य जुताई, फसल विविधीकरण और पशुधन एकीकरण जैसी विधियों में लचीलापन प्रदान करता है।
  • पारस्परिक लाभ: स्वस्थ मृदा, पोषक तत्त्वों से भरपूर फसलें और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी का समर्थन करता है, जिससे पर्यावरण और खाद्य प्रणालियों दोनों को लाभ होता है।

पुनर्योजी कृषि में सामान्य प्रथाएँ

  • मृदा एवं फसल प्रबंधन: बिना जुताई वाली खेती, कवर क्रॉपिंग, फसल चक्रण और जैविक लागत जैसी प्रथाएँ मृदा की उर्वरता में सुधार करती हैं, कटाव को कम करती हैं और जैव विविधता को बढ़ाती हैं।
  • एकीकृत प्रणाली: सिल्वोपेस्टर, एग्रोफॉरेस्ट्री, पर्माकल्चर और बायोडायनामिक खेती जैसी विधियाँ स्थायी परिदृश्य और पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को बढ़ावा देती हैं।
  • भारत की शून्य बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जो स्थायी कृषि को प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक लागत और समग्र मृदा पुनर्जनन पर जोर देती है।

लाभ

  • उत्सर्जन में कमी: यह कार्बन पृथक्करण और जलवायु प्रभावों के लिए बेहतर फसल लचीलापन जैसे हानिकारक उत्सर्जन को कम करने में सहायता करता है।
    • उदाहरण के लिए: विश्व की 40% कृषि योग्य भूमि पर पुनर्योजी कृषि से लगभग 600 मिलियन टन उत्सर्जन की बचत होगी। यह कुल उत्सर्जन का लगभग 2% है, जो जर्मनी के ‘फुटप्रिंट’ के बराबर है।
  • मृदा स्वास्थ्य: पुनर्योजी कृषि मृदा स्वास्थ्य को बेहतर बनाती है:
    • कृषि अपशिष्ट का पुनर्चक्रण और खाद सामग्री का उपयोग।
    • मृदा क्षरण को रोकने और कटाव को कम करने के लिए वर्ष भर कवर फसलों का उपयोग करना।
    • फसल उत्पादन में पशुधन को शामिल करना।
    • बारहमासी फसलों की सक्रिय जड़ों को संरक्षित करना।
  • जैव विविधता: पुनर्योजी कृषि जैव विविधता को बढ़ाती है: फसल चक्र, कृषि वानिकी और सिल्वोपेस्टर तकनीकों का उपयोग करके।
  • जल संरक्षण: पुनर्योजी कृषि भूजल के विवेकपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देकर जल का संरक्षण करती है।
  • आर्थिक कल्याण: पुनर्योजी कृषि किसानों के आर्थिक कल्याण में सुधार करती है:
    • इनपुट लागत को कम करना।
    • खेती की उत्पादकता और लाभ को बढ़ाना।

पुनर्योजी कृषि की आवश्यकता

  • मृदा क्षरण: सिंथेटिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग और असंवहनीय कृषि पद्धतियों ने मृदा की उर्वरता को अत्यधिक कम कर दिया है।
    • मृदा में कार्बन की मात्रा वर्ष 1947 में 2.4% से घटकर वर्तमान में 0.4% रह गई है, जो कृषि योग्य मृदा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक 1.5% की सीमा से बहुत कम है। 
    • इस गिरावट के कारण भारत को पिछले 70 वर्षों में लगभग 47.7 लाख करोड़ रुपये ($564 बिलियन) की हानि हुई है या कार्बन मूल्य में वार्षिक रूप से 68,243 करोड़ रुपये ($8.06 बिलियन) का नुकसान हुआ है।

  • जल की कमी: सिंचाई के लिए भूजल पर अत्यधिक निर्भरता के कारण जल की गंभीर कमी और गुणवत्ता में गिरावट आई है।
  • जलवायु परिवर्तन: सूखे, बाढ़ और अत्यधिक तापमान की घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति, कृषि उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
    • जलवायु प्रभाव, मृदा स्वास्थ्य में गिरावट और अकुशल कार्यप्रणाली के कारण खाद्य सुरक्षा के लिए जोखिम बढ़ जाता है।
  • आर्थिक दबाव: किसानों को उच्च लागत और बाजार मूल्यों में उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है, जिससे उनकी वित्तीय स्थिरता पर प्रभाव पड़ता है।
    • उर्वरक उद्योग को दी जाने वाली वर्तमान 2 लाख करोड़ रुपये (25 बिलियन डॉलर) की वार्षिक सब्सिडी, सिंथेटिक इनपुट के अकुशल उपयोग को बढ़ावा देती है, जिससे मृदा स्वास्थ्य को और अधिक नुकसान पहुँचता है तथा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में प्रतिवर्ष लगभग 25 मिलियन टन (CO2e) की वृद्धि होती है, जिससे 14,813 करोड़ रुपये (1.75 बिलियन डॉलर) की अतिरिक्त लागत आती है।
  • ज्ञान का अभाव: कई ग्रामीण किसानों में सतत कृषि की तकनीकों के बारे में जागरूकता का अभाव है।
    • प्रशिक्षण और संसाधनों तक सीमित पहुँच पुनर्योजी और जलवायु-अनुकूल तरीकों को अपनाने में बाधा डालती है।

आगे की राह

  • नीति समर्थन: स्थायी प्रथाओं को अपनाने और उर्वरक सब्सिडी को कम करने के लिए प्रोत्साहन तैयार करना।
  • अनुसंधान और विकास: पुनर्योजी कृषि के लाभों पर साक्ष्य एकत्रित करने के लिए कृषि-जलवायु क्षेत्रों में गहन क्षेत्र अध्ययन करना।
  • जागरूकता अभियान: किसानों और हितधारकों को इन प्रथाओं के आर्थिक, पर्यावरणीय और स्वास्थ्य लाभों के बारे में शिक्षित करना।
  • सहयोगी मॉडल: स्थायी तकनीकों को बढ़ाने में स्थानीय समुदायों, गैर-सरकारी संगठनों और निजी क्षेत्रों को शामिल करना।

निष्कर्ष

भारत के लिए खाद्य, पोषण और पारिस्थितिकी सुरक्षा के अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पुनर्योजी खेती को अपनाना महत्त्वपूर्ण है, साथ ही वर्ष 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन के अपने दृष्टिकोण की ओर बढ़ना भी महत्त्वपूर्ण है। कृषि पारिस्थितिकी सिद्धांतों के माध्यम से कृषि की पुनर्कल्पना करके, भारत अपनी मृदा की सुरक्षा कर सकता है और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्थायी भविष्य सुनिश्चित कर सकता है।

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