100% तक छात्रवृत्ति जीतें

रजिस्टर करें

राज्यपाल की राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में प्रासंगिकता

Lokesh Pal January 27, 2025 05:30 141 0

संदर्भ:

हाल ही में, राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की भूमिका और वर्तमान समय में उसकी प्रासंगिकता के मुद्दे पर राजनीतिक दलों के मध्य बहस जारी है , जिससे स्वायत्तता खत्म हो रही है। इससे विशेष रूप से विपक्ष के नेतृत्व वाले राज्यों में शासन संबंधी समस्याएं पैदा हो रही हैं।

राज्यपाल की भूमिका की पृष्ठभूमि:

  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : औपनिवेशिक उत्पत्ति अंग्रेजों ने 1857 में कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में पहले तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना की, और संबंधित प्रेसीडेंसी के राज्यपालों को उनके पदेन कुलपति के रूप में नियुक्त किया।
  • उद्देश्य: औपनिवेशिक शासन का प्राथमिक लक्ष्य विश्वविद्यालयों पर सीधा नियंत्रण बनाए रखना था, उनकी स्वायत्तता को बढ़ावा देने के बजाय उसे सीमित करना था।
  • पुनर्मूल्यांकन के बगैर अपनाना: स्वतंत्रता के बाद, राज्यपाल को कुलाधिपति के रूप में औपनिवेशिक मॉडल को लोकतांत्रिक और संघीय संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता पर विचार किए बिना राज्य विश्वविद्यालयों के लिए अपनाया गया था।
    • राज्यपाल को यह भूमिका सौंपने वाले किसी भी संवैधानिक प्रावधान की अनुपस्थिति के बावजूद यह निर्णय लिया गया था।

कुलाधिपति के रूप में राज्यपालों की प्रमुख जिम्मेदारियाँ:

  • कुलपतियों की नियुक्ति: राज्यपाल, कुलाधिपति के रूप में, विश्वविद्यालय प्रमुखों की नियुक्ति करने का अधिकार रखते हैं।
  • सिंडिकेट सदस्यों को नामित करना: राज्यपाल प्रमुख विश्वविद्यालय निकायों, जैसे कि सिंडिकेट या कार्यकारी परिषद के सदस्यों को नामित करते हैं।
  • विश्वविद्यालय क़ानूनों का अनुमोदन: वे क़ानूनों और विनियमों को अनुमोदित करते हैं, जो विश्वविद्यालयों के कामकाज को नियंत्रित करते हैं।
  • दीक्षांत समारोह: राज्यपाल प्रमुख विश्वविद्यालय निकायों के दीक्षांत समारोहों की अध्यक्षता करते  हैं।

वर्तमान प्रणाली की चुनौतियाँ:

  • कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व की अवधि : इस अवधि के दौरान, केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व ने सुनिश्चित किया कि राज्यपाल मुख्य रूप से औपचारिक व्यक्ति बने रहें।
    • मुख्यमंत्रियों के पास वास्तविक शक्ति थी, जिससे राज्यपालों के लिए विश्वविद्यालय के मामलों में हस्तक्षेप करने की बहुत कम गुंजाइश थी।
  • औपनिवेशिक प्रावधानों की निरंतरता: राज्यपालों की कुलपति के रूप में औपनिवेशिक युग की भूमिका में संशोधन करने के लिए कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रेरणा नहीं थी, क्योंकि उनके कार्य को तटस्थ और गैर-विवादास्पद माना जाता था।
  • राज्यपाल की भूमिका का राजनीतिकरण: 1967 के बाद राजनीतिक परिदृश्य बदल गया, कई राज्यों में केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन के बाहर की पार्टियों द्वारा शासन किया जाने लगा।
    • राज्यपाल तटस्थ संवैधानिक पदाधिकारियों से केंद्र सरकार के राजनीतिक उपकरणों में परिवर्तित हो गए।
  • विरोधी प्राधिकारी: राज्यपालों ने विश्वविद्यालय के मामलों पर नियंत्रण स्थापित करना शुरू कर दिया, जिससे विपक्षी नेतृत्व वाली राज्य सरकारों के साथ अक्सर टकराव होने लगे।
    • कुलपति की भूमिका को बदलने के लिए विश्वविद्यालय के कानूनों में संशोधन करने के प्रयासों को प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि राज्यपालों ने या तो:
    • संशोधनों को मंजूरी देने के प्रश्न पर विलंब किया।
    • उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज दिया, जिससे सुधारों में और देरी हुई।
  • विधायी निरीक्षण का अभाव: राष्ट्रपति के विपरीत, कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल के कार्य राज्य विधानमंडल द्वारा जांच के अधीन नहीं होते हैं। यह दोष औपनिवेशिक युग की प्रथाओं की निरंतरता में निहित है, जिन्हें नियंत्रण को केंद्रीकृत करने के लिए डिज़ाइन किया गया था।
  • विपक्ष शासित राज्यों में संघर्ष: राज्यपालों की एकतरफा कार्रवाई अक्सर प्रशासनिक संघर्षों को जन्म देती है, खासकर जब राज्य सरकार का नेतृत्व केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन के विरोधी दल द्वारा किया जाता है।
  • जवाबदेही का अभाव: हालांकि राज्य सरकारें विश्वविद्यालयों को वित्तपोषित करती हैं, राज्यपालों के पास बिना किसी जवाबदेही के पर्याप्त शक्तियाँ होती हैं।
  • विरोधाभासी माँगें: विश्वविद्यालय नेतृत्व अक्सर खुद को राज्यपाल और राज्य सरकार के अधिकार के बीच दबाव में महसूस करता है, जिससे प्रशासनिक जटिलताएँ पैदा होती हैं।
  • नियुक्तियों में देरी: राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच मतभेद, विशेष रूप से विपक्ष शासित राज्यों में, कुलपतियों की नियुक्ति में देरी का कारण बनते हैं।
  • विश्वविद्यालय संचालन पर प्रभाव: विलंबित निर्णय निम्नलिखित को प्रभावित करते हैं:
    • स्टाफ की भर्ती।
    • विश्वविद्यालय परियोजनाओं का क्रियान्वयन।
    • डिग्रियाँ प्रदान करना।
  • अकादमिक विशेषज्ञता का अभाव: कई राज्यपालों के पास शैक्षणिक संस्थानों को प्रभावी ढंग से मार्गदर्शन करने के लिए आवश्यक योग्यता या अनुभव का अभाव है। उनके निर्णय अक्सर सीमित और गैर-पारदर्शी सलाह पर निर्भर करते हैं, जिससे संदिग्ध परिणाम सामने आते हैं।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: विश्वविद्यालयों को राजनीति से अलग रखने के बजाय, कुछ राज्यपाल विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पर केंद्र के राजनीतिक एजेंडे को प्राथमिकता देकर राजनीतिक हस्तक्षेप को बढ़ावा देने में योगदान करते हैं।
  • संघीय सिद्धांतों का उल्लंघन: राज्यपाल, केंद्र द्वारा नियुक्त होने के नाते, राज्य द्वारा वित्तपोषित विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण रखते हैं, जिससे संघवाद के सिद्धांत को कमजोर किया जाता है। यह राज्य सरकारों की अपने शैक्षणिक संस्थानों के प्रबंधन में स्वायत्तता से समझौता करता है।

राज्यपाल की भूमिका के राजनीतिकरण की आलोचना: 

  • प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1966-77): इस आयोग ने राज्यपाल के कार्यालय के बढ़ते राजनीतिकरण की आलोचना की।
    • इसने पद पर पराजित राजनेताओं की नियुक्ति पर प्रकाश डाला, जिससे कार्यालय की गरिमा और तटस्थता कम हुई।
  • सरकारिया आयोग (1983-88) के निष्कर्ष: केंद्र-राज्य संबंधों पर सरकारिया आयोग ने खुलासा किया कि 60% से अधिक राज्यपाल सक्रिय राजनेता थे, उनमें से कई अपनी नियुक्ति से ठीक पहले सक्रिय राजनेता थे।
    • नेहरू युग के बाद राज्यपाल के कार्यालय में नियुक्तियों की गुणवत्ता में भारी गिरावट आई, जिससे इसकी विश्वसनीयता कम हुई।
  • हाल का अध्ययन: प्रोफेसर अशोक पंकज के अध्ययन (1950-2015) में पाया गया:
    • 52% राज्यपाल राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित थे या स्वयं राजनैतिक थे।
    • 26% सेवानिवृत्त नौकरशाह थे।
    • केवल 22% शिक्षाविदों, न्यायपालिका या सशस्त्र बलों से थे।
    • इस प्रवृत्ति ने राजनीतिक निष्ठा के आधार पर राज्यपालों की नियुक्ति के लिए बढ़ती प्राथमिकता को उजागर किया, जिससे कार्यालय का दुरुपयोग और बढ़ गया।

राज्यपालों की शक्तियां:

  • राज्यपाल के रूप में (संवैधानिक भूमिका): किसी भी राज्य का राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 163(1) के अनुसार मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने के लिए बाध्य है।
  • कुलाधिपति के रूप में (वैधानिक भूमिका): उसे राज्य विश्वविद्यालय कानूनों द्वारा शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं, जिससे राज्यपाल को स्वतंत्र रूप से कार्य करने की अनुमति मिलती है जब तक कि क़ानून में मंत्रिपरिषद की सलाह अनिवार्य न हो।
  • कुलाधिपति के रूप में विवेकाधीन भूमिका: सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि राज्यपाल विश्वविद्यालय के मामलों में विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं, जैसे:
    • कुलपतियों की नियुक्ति करना।
    • विश्वविद्यालय निकायों में सदस्यों को नामित करना।
    • विश्वविद्यालय कानूनों के तहत अधीनस्थ विधान को मंजूरी देना
  • मंत्रिपरिषद की सलाह को दरकिनार करना: राज्यपालों ने महत्वपूर्ण निर्णयों में राज्य की मंत्रिपरिषद को दरकिनार करने के लिए, खासकर विपक्ष शासित राज्यों में, अपनी विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल किया है।
    • इस प्रथा के कारण अक्सर राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है।

विश्वविद्यालय प्रशासन में राज्यपाल बनाम राष्ट्रपति

  • विजिटर के रूप में राष्ट्रपति की भूमिका: राष्ट्रपति केंद्रीय विश्वविद्यालय कानूनों के तहत केंद्रीय विश्वविद्यालयों के विजिटर के रूप में कार्य करते हैं। राष्ट्रपति शिक्षा मंत्रालय के माध्यम से कार्य करते हैं। 
    • नियुक्तियों, नामांकन और विधियों के अनुमोदन के लिए मंत्रालय से परामर्श करते हैं। 
    • प्रत्यायोजित विधान (क़ानून, अध्यादेश और विनियम) को संसद के समक्ष रखा जाना चाहिए, ताकि विधायी निरीक्षण सुनिश्चित हो सके। 
  • कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की भूमिका: वह कुलाधिपति के रूप में, राज्य विश्वविद्यालयों से संबंधित मामलों में एकतरफा कार्य करता है। 
    • अक्सर ऐसे आरोप लगाए गए हैं जब राज्य के उच्च शिक्षा मंत्रालय को पूरी तरह से दरकिनार किया गया है। 
    • राज्य विश्वविद्यालयों में प्रत्यायोजित विधान (क़ानून, अध्यादेश और विनियम) को राज्य विधानमंडल के समक्ष रखा जाना अनिवार्य नहीं है, जिससे निरीक्षण की कमी होती है।

विभिन्न आयोगों द्वारा प्रस्तावित प्रमुख सिफारिशें:

  • राजमन्नार समिति (1969-71): इस समिति को तमिलनाडु सरकार द्वारा केंद्र-राज्य संबंधों की जांच करने के लिए नियुक्त किया गया था। कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल के वैधानिक कार्यों को अनुच्छेद 163(1) के तहत ‘कार्यों’ के दायरे में शामिल किया जाना चाहिए।
    • राज्यपाल को राज्य सरकार की सलाह पर कुलाधिपति के रूप में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस व्याख्या को बरकरार नहीं रखा है।
  • सरकारिया आयोग (1983-88): केंद्र-राज्य संबंध और कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की भूमिका की वैधानिक प्रकृति पर विचार करने के लिए इस आयोग की स्थापना की गई थी ।
    • कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की भूमिका संवैधानिक नहीं, बल्कि वैधानिक है और इसे राज्य के कानूनों द्वारा परिभाषित किया जाता है।
    • राज्यपालों को विश्वविद्यालय के मामलों में स्वतंत्र निर्णय लेते हुए मुख्यमंत्रियों से परामर्श करना चाहिए।
  • संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (2000-02): राजनीतिक तटस्थता सुनिश्चित करने के लिए राज्यपाल की भूमिका को फिर से परिभाषित किया जाना चाहिए।
    • अस्पष्टता को कम करने के लिए कुलाधिपति के कार्यों की स्पष्ट परिभाषा आवश्यक है। राज्यपाल की भूमिका सहायक होनी चाहिए, न कि अधिकारपूर्ण, ताकि विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को बढ़ावा मिल सके।
  • एम.एम. पुंछी आयोग (2007-10): केंद्र-राज्य संबंधों को मजबूत करना और राज्यपाल की भूमिका को फिर से परिभाषित किया जाना चाहिए।
    • राज्यपाल को संवैधानिक जिम्मेदारियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, पद की गरिमा बनाए रखने के लिए कुलाधिपति जैसी वैधानिक भूमिकाओं से बचना चाहिए।
    • राज्यों को अकादमिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने और टकराव को कम करने के लिए प्रतिष्ठित शिक्षाविदों या विशेषज्ञों को कुलाधिपति के रूप में नियुक्त करना चाहिए।

सुधार मॉडल:

  • वैश्विक उदाहरण:
    • यूनाइटेड किंगडम (यूके): ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और एडिनबर्ग जैसे विश्वविद्यालय बिना किसी कार्यकारी शक्तियों के औपचारिक कुलपतियों का चुनाव करते हैं।
    • कनाडा और ऑस्ट्रेलिया: मैकगिल (कनाडा) और मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया) जैसे विश्वविद्यालय पारदर्शी प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करते हुए कार्यकारी परिषदों या बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के माध्यम से औपचारिक कुलपतियों की नियुक्ति करते हैं।
  • औपचारिक कुलपति की भूमिका : औपचारिक कुलपति राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को हटा देता है, यह अनिवार्य करता है कि वे राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करें।
    • उदाहरण: गुजरात (1978), कर्नाटक (2000), महाराष्ट्र (2021): राज्यपाल की कार्यकारी भूमिका को सीमित करने के लिए इस दृष्टिकोण के विभिन्न रूपों को अपनाया गया।
  • कुलाधिपति के रूप में मुख्यमंत्री: राज्य सरकार के प्रति जवाबदेही को मजबूत करने के लिए कुलाधिपति की भूमिका मुख्यमंत्री को हस्तांतरित की जाती है। हालांकि इस संदर्भ में विभिन्न आलोचकों का तर्क है कि मुख्यमंत्री जैसा शक्तिशाली राजनीतिक व्यक्ति इस भूमिका की औपचारिक प्रकृति के अनुकूल नहीं है।
    • पश्चिम बंगाल और पंजाब (2023): इस प्रणाली को अपनाने के लिए विधेयक पारित किए गए हैं जो कि राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु लंबित है।
    • तमिलनाडु (2022): ‘कुलाधिपति’ के स्थान पर ‘सरकार’ रखने वाला विधेयक पारित किया गया परंतु इस पर राष्ट्रपति की स्वीकृति का इंतजार है।
  • राज्य द्वारा नियुक्त कुलाधिपति: राज्य सरकार राजनेताओं को छोड़कर, एक औपचारिक कुलाधिपति, आमतौर पर एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद या सार्वजनिक व्यक्ति को नियुक्त करती है।
    • उदाहरण के लिए : तेलंगाना (2015): इस मॉडल को सफलतापूर्वक लागू किया गया।
    • केरल (2022): एक विधेयक पारित किया गया जिसमें निर्दिष्ट किया गया कि नियुक्त व्यक्ति एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद या सार्वजनिक व्यक्ति होना चाहिए परंतु इस विधेयक के लिए भी राष्ट्रपति की स्वीकृति की प्रतीक्षा है।
    • एम.एम. पुंछी आयोग ने इस मॉडल को भारत के लिए सबसे व्यावहारिक बताया।

आगे की राह :

  • राज्य सरकारों के प्रति जवाबदेही: विश्वविद्यालयों को निर्वाचित राज्य सरकारों के प्रति प्रत्यक्षतः जवाबदेह होना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि निर्णय स्थानीय प्राथमिकताओं और सार्वजनिक हितों के अनुरूप हों।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप को कम करना: सुधारों को राज्यपालों या राजनीतिक रूप से प्रेरित व्यक्तियों को निर्णय लेने वाली भूमिकाओं से बाहर करके विश्वविद्यालय प्रशासन में राजनीतिक पूर्वाग्रह के जोखिम को कम करना चाहिए।
  • संस्थागत स्वशासन को बढ़ावा देना: विश्वविद्यालयों को बिना किसी बाहरी प्रभाव के शैक्षणिक और प्रशासनिक मामलों के बारे में निर्णय लेने की स्वायत्तता होनी चाहिए|
  • सफल कार्यान्वयन: गुजरात (1978), कर्नाटक (2000), तेलंगाना (2015) और महाराष्ट्र (2021) जैसे राज्यों ने राज्यपाल की भूमिका को सफलतापूर्वक पुनर्परिभाषित किया है, विवेकाधीन शक्तियों को कम किया है और विश्वविद्यालय प्रशासन को लोकतांत्रिक सिद्धांतों के साथ जोड़ा है। बाँकी राज्यों को भी इन प्रावधानों को व्यवहार में लाना चाहिए। 

निष्कर्ष: 

यद्यपि औपनिवेशिक युग की प्रथाओं से परे केंद्र को प्रगतिशील सुधारों को बढ़ावा देना चाहिए जो औपनिवेशिक युग के प्रशासनिक ढांचे को समाप्त करके एक निष्पक्ष शिक्षा मॉडल को प्रोत्साहित करते हों। विभिन्न आयोगों और समितियों की सिफ़ारिशों पर विचार करना चाहिए, जो राज्यों को अपने विश्वविद्यालय प्रशासन मॉडल को वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं के साथ संरेखित करने की दिशा में मार्गदर्शित करते हैं।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न . राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में राज्यपाल की भूमिका, औपनिवेशिक युग की प्रथाओं में निहित है, जो तेजी से राजनीतिक होती जा रही है, जिससे विश्वविद्यालय की स्वायत्तता कमजोर हो रही है और शासन संबंधी चुनौतियां पैदा हो रही हैं। भारत के संघीय राष्ट्र के ढांचे में, इसकी प्रासंगिकता का आलोचनात्मक विश्लेषण करें और इन मुद्दों को हल करने के उपाय सुझाएँ।

(15 अंक, 250 शब्द)

Final Result – CIVIL SERVICES EXAMINATION, 2023. PWOnlyIAS is NOW at three new locations Mukherjee Nagar ,Lucknow and Patna , Explore all centers Download UPSC Mains 2023 Question Papers PDF Free Initiative links -1) Download Prahaar 3.0 for Mains Current Affairs PDF both in English and Hindi 2) Daily Main Answer Writing , 3) Daily Current Affairs , Editorial Analysis and quiz , 4) PDF Downloads UPSC Prelims 2023 Trend Analysis cut-off and answer key

THE MOST
LEARNING PLATFORM

Learn From India's Best Faculty

      

Final Result – CIVIL SERVICES EXAMINATION, 2023. PWOnlyIAS is NOW at three new locations Mukherjee Nagar ,Lucknow and Patna , Explore all centers Download UPSC Mains 2023 Question Papers PDF Free Initiative links -1) Download Prahaar 3.0 for Mains Current Affairs PDF both in English and Hindi 2) Daily Main Answer Writing , 3) Daily Current Affairs , Editorial Analysis and quiz , 4) PDF Downloads UPSC Prelims 2023 Trend Analysis cut-off and answer key

<div class="new-fform">







    </div>

    Subscribe our Newsletter
    Sign up now for our exclusive newsletter and be the first to know about our latest Initiatives, Quality Content, and much more.
    *Promise! We won't spam you.
    Yes! I want to Subscribe.