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दलहन आत्मनिर्भरता मिशन

Lokesh Pal February 04, 2025 01:00 11 0

संदर्भ

वित्त मंत्री ने वर्ष 2025-2026 के केंद्रीय बजट में छह वर्ष की अवधि हेतु ‘दलहन आत्मनिर्भरता मिशन’ की शुरुआत की घोषणा की है।

दलहन आत्मनिर्भरता मिशन 

  • बजट आवंटन: मिशन के लिए ₹1,000 करोड़ आवंटित।

  • उद्देश्य
    • दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
    • MSP आधारित खरीद तथा कटाई के बाद भंडारण समाधान प्रदान करना।
    • आयात पर निर्भरता कम करना।

मिशन की प्रमुख विशेषताएँ

  • MSP आधारित खरीद: भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (NAFED) तथा भारतीय राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता संघ (NCCF) उन किसानों से दालें खरीदेंगे, जो पंजीकरण तथा समझौते करते हैं।
    • उद्देश्य: किसानों के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित करना तथा बाजार मूल्यों को स्थिर करना।
  • फसल के बाद भंडारण: फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान को कम करने तथा भंडारण के बुनियादी ढाँचे में सुधार पर ध्यान केंद्रित करना।
  • लक्षित फसलें
    • तुअर/अरहर: पारंपरिक रूप से लंबी अवधि की फसल (250-270 दिन), अब घटकर 150-180 दिन रह गई है तथा उपज भी कम (20 क्विंटल/हेक्टेयर से घटकर 15-16 क्विंटल/हेक्टेयर) हो गई है।
    • उड़द: काला चना, एक प्रमुख दलहन फसल।
    • मसूर: लाल मसूर, जिसका हाल के वर्षों में रिकॉर्ड आयात हुआ है।

तुअर/अरहर 

  • तुअर/अरहर एक फलीदार पौधा है, जो भारत में मुख्य भोजन है। 
  • इसे ‘पिजन पी’ तथा लाल चना के नाम से भी जाना जाता है।
  • विशेषताएँ
    • जलवायु: उचित जल निकासी वाली मृदा वाले अर्द्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सबसे अच्छी तरह से विकसित होती है।
    • तापमान: वर्षा ऋतु (जून से अक्टूबर) में 26 डिग्री सेल्सियस से 30 डिग्री सेल्सियस तथा वर्षा के बाद (नवंबर से मार्च) मौसम में 17 डिग्री सेल्सियस से 22 डिग्री सेल्सियस के मध्य तापमान अनुकूल होता है।
    • वर्षा: शुरुआती आठ सप्ताह के लिए आर्द्र परिस्थितियों तथा इसके फूल और फली के विकास चरण के दौरान शुष्क परिस्थितियों के साथ 600-650 मिमी. वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है।
    • नाइट्रोजन स्थिरीकरण: अपनी नाइट्रोजन स्थिरीकरण क्षमताओं के लिए जानी जाती है, जो मृदा की उर्वरता में सुधार करता है।
    • उपयोग: मुख्य रूप से ‘दाल’ के रूप में खाया जाता है।
    • पोषण: आयरन, आयोडीन और आवश्यक अमीनो एसिड से भरपूर।
  • भारत: विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक।

उड़द दाल 

  • उड़द दाल, जिसे काले चने के नाम से भी जाना जाता है, जो भारतीय व्यंजनों का मुख्य हिस्सा है।
  • यह प्रोटीन तथा विटामिन का एक समृद्ध स्रोत है और इसका उपयोग मीठे एवं लवणीय दोनों तरह के व्यंजनों में किया जाता है।
  • विशेषताएँ
    • जलवायु: गर्म तथा आर्द्र परिस्थितियाँ आदर्श हैं, जो इसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्र की फसल बनाती हैं।
    • तापमान: 25-35 डिग्री सेल्सियस के बीच के तापमान पर इसकी वृद्धि सबसे अच्छी होती है, 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर का तापमान इसके उत्पादन में बाधा उत्पन्न करता है।
    • मृदा का प्रकार: उचित जल निकासी वाली दोमट या चिकनी मिट्टी को प्राथमिकता दी जाती है, जिसमें जलग्रहण बनाए रखने की अच्छी क्षमता होती है।
    • वर्षा: इष्टतम वर्षा सीमा 600-1000 मिमी. प्रतिवर्ष है।
    • मौसम: मुख्य रूप से खरीफ मौसम (मानसून के महीनों) के दौरान कृषि की जाती है।
  • भारत उड़द का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है।

मसूर की दाल 

मसूर, जिसे वैज्ञानिक रूप से ‘लेंस कलिनारिस मेडिकस’ की उपप्रजाति ‘कलिनारिस’ के नाम से जाना जाता है, एक अत्यधिक पौष्टिक दलहन फसल है, जिसका भारत तथा विश्व स्तर पर व्यापक रूप से सेवन किया जाता है।

  • इसे आमतौर पर मसूर या मलका (बोल्ड-सीडेड किस्म) के रूप में जाना जाता है।
  • विशेषताएँ
    • उत्पादन: मसूर की दाल का उत्पादन तुर्किए से लेकर दक्षिण ईरान तक फैले क्षेत्र में होता है।
    • जलवायु: मसूर की दाल का उत्पादन ठंडी जलवायु पर निर्भर कर्ता है तथा यह ठंड और कठोर सर्दियों की स्थितियों को सहन कर सकती है।
    • इष्टतम तापमान: विकास के दौरान 18-30 डिग्री सेल्सियस, परिपक्वता के समय गर्म तापमान की आवश्यकता होती है।
    • मिट्टी: इसके उत्पादन के लिए अच्छी जल निकासी वाली, उदासीन pH वाली दोमट मृदा सबसे अनुकूल है।
      • अम्लीय मृदाओं के लिए अनुपयुक्त।
    • पोषण: दालें प्रोटीन (24-26%), कार्बोहाइड्रेट (57-60%), आयरन, फॉस्फोरस और फाइबर से भरपूर होती हैं, जो उन्हें अत्यधिक पौष्टिक तथा सुपाच्य खाद्य स्रोत बनाती हैं। 
    • उपयोग
      • मानव उपभोग: मुख्य रूप से दाल, स्नैक्स और सूप के रूप में सेवन किया जाता है। यह सुपाच्य होती हैं और प्रायः रोगियों के लिए अनुशंसित हैं।
      • मवेशी चारा: सूखे पत्ते, तने और खाली फली का उपयोग मवेशियों के लिए पौष्टिक चारे के रूप में किया जाता है।
  • सबसे बड़ा उत्पादक: कनाडा।

दालों के आयात का रुझान

  • वर्ष 2017- 2018 से वर्ष 2022-23: आयात में गिरावट आई, जो वर्ष 2022-2023 में 24.96 लाख टन के निचले स्तर पर पहुँच गया।
    • इस अवधि में दालों, विशेषकर मटर (पीले/सफेद मटर) तथा चना (चना) के मामले में सापेक्षिक आत्मनिर्भरता देखी गई।
  • वर्ष 2023-24: सूखे के कारण आयात बढ़कर 47.38 लाख टन (3.75 बिलियन डॉलर) हो गया।
    • मसूर का आयात रिकॉर्ड 16.76 लाख टन पर पहुँच गया तथा मटर का आयात भी बढ़ा।
  • अप्रैल-नवंबर वर्ष 2024: भारत को दालों का आयात 3.28 बिलियन डॉलर रहा, जो वर्ष 2023 की इसी अवधि के 2.09 बिलियन डॉलर से 56.6% अधिक है।
  • वर्ष 2024- 2025 (वर्तमान वित्तीय वर्ष): आयात पहले ही 40 लाख टन तक पहुँच चुका है, जिसमें अरहर का उत्पादन पहली बार 10 लाख टन को पार कर गया है तथा मटर का आयात सात वर्ष के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है।

  • वर्ष 2024-25 के लिए अनुमान: इस दर पर, वित्तीय वर्ष के लिए आयात 5.9 बिलियन डॉलर तक पहुँच सकता है, जो वर्ष 2016- 2017 में 4.24 बिलियन डॉलर के पिछले सर्वकालिक उच्च स्तर को पार कर जाएगा।

बढ़ते आयात के प्रमुख कारण

  • घरेलू कमी: वर्ष 2023-24 में सूखे के कारण घरेलू उत्पादन में गिरावट आई, जिससे आयात पर निर्भरता बढ़ गई।
  • नीतिगत निर्णय
    • शुल्क-मुक्त आयात: सरकार ने अरहर, मसूर तथा उड़द जैसी दालों के शुल्क-मुक्त आयात की अनुमति दी, जिससे घरेलू उत्पादन हतोत्साहित हुआ।
  • वैश्विक बाजार पर निर्भरता: भारत मोजांबिक, तंजानिया, म्याँमार, कनाडा तथा ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से दालों का आयात करता है। जैसे-
    • अरहर: मुख्य रूप से मोजांबिक, तंजानिया और म्याँमार से आयात की जाती है।
    • मसूर: कनाडा, रूस और तुर्किए से आयात की जाती है।
    • मटर: कनाडा, रूस और तुर्किए से आयात की जाती है।

आयात वृद्धि का प्रभाव

  • आर्थिक बोझ: बढ़ते आयात से विदेशी मुद्रा का बहिर्वाह होता है तथा व्यापार घाटा बढ़ता है।
  • किसानों का हतोत्साहन: शुल्क मुक्त आयात तथा कम घरेलू कीमतें किसानों को दाल उगाने से हतोत्साहित करती हैं।
  • खाद्य सुरक्षा चिंताएँ: आयात पर अत्यधिक निर्भरता भारत को वैश्विक मूल्य उतार-चढ़ाव और आपूर्ति शृंखला व्यवधानों के प्रति संवेदनशील बनाती है।

सरकार की प्रतिक्रिया

  • दलहन आत्मनिर्भरता मिशन
    • इसका उद्देश्य अरहर, उड़द तथा मसूर के घरेलू उत्पादन को बढ़ाकर आयात को कम करना है।
    • MSP आधारित खरीद तथा कटाई के बाद के बुनियादी ढाँचे पर ध्यान केंद्रित करना।
  • नीतिगत सुधार: घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए आयात शुल्क बहाल करने की आवश्यकता है।
  • एमएसपी खरीद: चना तथा मूँग की एमएसपी आधारित खरीद में उल्लेखनीय वृद्धि।
  • अनुसंधान तथा विकास: कम अवधि वाली दाल, अधिक उपज देने वाली और जलवायु अनुकूल किस्मों के विकास पर ध्यान केंद्रित करना।
    • वर्ष भर खेती के लिए प्रकाश-ताप-असंवेदनशील किस्मों पर जोर दिया जाएगा।
  • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (National Food Security Mission- NFSM): क्षेत्र विस्तार और उत्पादकता वृद्धि के माध्यम से चावल, गेहूं और दालों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए इसे वर्ष 2007-08 में शुरू किया गया था।

आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में चुनौतियाँ

  • कृषि संबंधी सीमाएँ
    • अरहर: अवधि में कमी (150-180 दिन) के बावजूद, उपज कम (15-16 क्विंटल/हेक्टेयर) बनी हुई है।
    • इसकी खेती मराठवाड़ा-विदर्भ (महाराष्ट्र) तथा उत्तरी कर्नाटक जैसे वर्षा आधारित क्षेत्रों तक ही सीमित है, जहाँ किसानों के पास वैकल्पिक फसल के कम विकल्प हैं।
  • नीति अस्पष्टता
    • शुल्क-मुक्त आयात: सरकार ने अरहर और अन्य दालों के शुल्क-मुक्त आयात की अनुमति दी है, जिससे घरेलू उत्पादन हतोत्साहित होता है।
  • जलवायु भेद्यता
    • दालें प्रायः वर्षा आधारित क्षेत्रों में उगाई जाती हैं, जिससे वे सूखे और जलवायु परिवर्तनशीलता के प्रति संवेदनशील हो जाती हैं।
  • अन्य फसलों से प्रतिस्पर्द्धा
    • अधिक लाभ के कारण किसान दलहन की अपेक्षा गन्ना और अनाज जैसी अधिक जल खपत वाली फसलों को प्राथमिकता देते हैं।

आगे की राह 

  • सँकर विकास: 140-150 दिनों में पकने वाली अरहर की सँकर किस्मों की आवश्यकता है, जिनकी उपज 18-20 क्विंटल/हेक्टेयर हो।
  • नीति सुधार: घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए आयात शुल्क बहाल करना।
    • वर्षा आधारित क्षेत्रों में दलहन की खेती के लिए सब्सिडी तथा बीमा प्रदान करना।
  • किसान जागरूकता: दलहन को एक सतत् और लाभदायक फसल विकल्प के रूप में बढ़ावा देना।

निष्कर्ष

दलहन आत्मनिर्भरता मिशन आयात पर भारत की निर्भरता को कम करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। हालाँकि, दालों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए कृषि संबंधी चुनौतियों, नीतिगत अस्पष्टताओं और जलवायु संबंधी कमजोरियों पर ध्यान देना आवश्यक है। इस मिशन की सफलता प्रभावी कार्यान्वयन, तकनीकी प्रगति और किसान-केंद्रित नीतियों पर निर्भर करेगी।

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