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भारत में परिसीमन की आवश्यकता तथा संघवाद की समस्या

Lokesh Pal February 28, 2025 05:30 43 0

संदर्भ:

हाल ही में, तमिलनाडु राज्य के मुख्यमंत्री ने परिसीमन पर विचार-विमर्श करने के लिए एक सर्वदलीय बैठक बुलाई है, जिसका उद्देश्य इस मुद्दे पर राष्ट्रव्यापी चर्चा शुरू करना है।

परिसीमन

  • उद्देश्य: परिसीमन संसद और राज्य विधानसभाओं में सीटों की संख्या को समायोजित करता है। यह जनसंख्या परिवर्तन के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं को पुनः परिभाषित करता है।
  • संवैधानिक आधार:
    • अनुच्छेद 82: प्रत्येक जनगणना के बाद सीटों के आवंटन हेतु परिसीमन की आवश्यकता होती है।
    • अनुच्छेद 81: लोकसभा की संख्या को 550 (राज्यों से 530, संघ राज्यक्षेत्रों से 20) तक सीमित करता है। राज्यों में जनसंख्या अनुपात के आधार पर सीटों का समान आवंटन  सुनिश्चित करता है।
  • पृष्ठभूमि: 1971 की जनगणना के आधार पर 1973 से विधानसभा सीटें एकसमान बनी हुई हैं। इसने अधिक जनसंख्या वाले राज्यों को अन्य की कीमत पर अधिक सीटें प्राप्त करने से रोका।
    • परिसीमन आयोग अधिनियम, 1952 में लागू किया गया। 
    • अब तक, 1952, 1962, 1972 और 2002 के अधिनियमों के आधार पर, परिसीमन आयोगों का गठन चार बार—1952, 1963, 1973 और 2002 में किया गया है। 
    • प्रत्येक जनगणना के बाद, संसद द्वारा परिसीमन अधिनियम लागू करने के बाद अनुच्छेद 82 के तहत एक स्वतंत्र निकाय के रूप में परिसीमन आयोग गठित किया जाता है।
    • हालाँकि, 1981 और 1991 की जनगणना के बाद परिसीमन नहीं किया गया था।
  • संवैधानिक जनादेश: 84वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2001 वर्ष 2026 के बाद की गई  जनगणना के बाद परिसीमन को अनिवार्य बनाता है।
  • जनगणना में देरी: 2021 की जनगणना में देरी हुई है, जिससे संभावित समय से पहले परिसीमन के संबंध में चिंताएँ बढ़ गई हैं।
    • सामान्य परिस्थिति में परिसीमन 2021 की जनगणना के बाद किया जाना था, किन्तु अब यह 2026 के बाद हो सकता है। 
    • एक अन्य प्रश्न यह है, कि क्या केंद्र सरकार परिसीमन को आगे बढ़ाने के लिए जानबूझकर जनगणना में देरी कर रही है।

परिसीमन से जुड़ी चुनौतियाँ:

  • जनसांख्यिकीय असंतुलन: TFR (कुल प्रजनन दर) प्रत्येक राज्यों में अलग-अलग होती है। हिंदी भाषी राज्यों (जैसे- बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ आदि) में टीएफआर अधिक (≈3.5) तथा गैर-हिंदी भाषी राज्यों (जैसे- केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल आदि) में  (1.6-1.8, प्रतिस्थापन स्तर से नीचे) कम है।
  • प्रभाव: दक्षिण भारतीय राज्यों की संसद सीटों में भागीदारी 25% से घटकर 17% हो सकती है। जबकि उत्तर भारतीय राज्यों की भागीदारी 40% से बढ़कर 60% हो सकती है, जिससे राजनीतिक गतिशीलता परिवर्तित हो सकती है।
  • राजकोषीय असमानता: कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु जैसे राज्य केन्द्रीय राजस्व या करों में  अधिक योगदान करते हैं, लेकिन बदले में उन्हें केवल 30% वित्त (वित्त आयोग द्वारा कर-विभाजन)  प्राप्त होता है। बिहार तथा उत्तर प्रदेश को उनके योगदान का 250%-350% मिलता है।
    • 16वें वित्त आयोग द्वारा वित्त हस्तांतरण के लिए 2011 की जनगणना को अपनाने से विकसित राज्यों को और अधिक हानि हो सकती है।
  • संघवाद को खतरा: भारत की बहु-जातीय, बहुभाषी संरचना खतरे में है। हिंदी भाषी आबादी 36% (1947) से बढ़कर आज लगभग 43% हो गई है।
    • परिसीमन से सुशासन और बेहतर आर्थिक प्रदर्शन के ऊपर जनसंख्या वृद्धि को बढ़ावा मिलेगा।
  • क्षेत्रीय अलगाव: क्षेत्रीय अलगाव में वृद्धि होगी तथा हितधारक सूचकांक या स्टेक होल्डर्स इंडेक्स  (प्रति राज्य लोकसभा सीटें) निम्नलिखित होगा:
    • बिहार और मध्य प्रदेश का प्रभाव लगभग दुगुना हो जाएगा।
    • केरल और तमिलनाडु में 30%-40% प्रतिनिधित्व कम हो सकता है।
    • इससे गैर-हिंदी भाषी क्षेत्र और अलग-थलग पड़ सकते हैं, जिससे राष्ट्रीय नीति में उनकी भूमिका कम हो सकती है।

संबंधित उपाय

  • संतुलन की आवश्यकता: चुनावी प्रतिनिधित्व और संघवाद के बीच एक व्यापक संतुलन की आवश्यकता है। अनियंत्रित परिसीमन से प्रतिनिधित्व के बिना कराधान हो सकता है, जो पहले की  समस्याओं को उजागर करता है।
    • यह सुनिश्चित करने के लिए एक न्यायपूर्ण दृष्टिकोण की आवश्यकता है, कि कोई भी राज्य स्वयं को संघ का ‘उपनिवेश’ न समझने लगे।
  • संघीय सुधार: परिसीमन की प्रक्रिया को पूर्ण करने के साथ शक्ति संतुलन के लिए एक नया संघीय ढाँचा प्रस्तुत करना आवश्यक है, जिसके लिए आर्थिक विकास के आधार पर कर-विभाजन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है|
  • वित्त आयोग द्वारा जनसंख्या के आधार पर किए जाने वाले कर-विभाजन को आर्थिक एवं सामाजिक  विकास के आधार पर सुनिश्चित किया जा सकता है|   

निष्कर्ष

परिसीमन का प्रमुख उद्देश्य देश के सभी नागरिकों को समान प्रतिनिधित्व का अधिकार सुनिश्चित करना है। इसके माध्यम से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख जैसे संघ राज्यक्षेत्रों में विभाजन के बाद उत्पन्न राजनीतिक असंतुलन को दूर करने में सहायता मिलेगी। साथ ही, पूर्वोत्तर राज्यों में भी परिसीमन के जरिए 1973 से अब तक जनसंख्या में हुए परिवर्तनों के अनुसार निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण किया जा सकेगा। इसलिए आवश्यक है कि उपर्युक्त चुनौतियों का समाधान करते हुए परिसीमन की प्रक्रिया को पूर्ण किया जाए|

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

भारत में 1976 के पश्चात परिसीमन प्रक्रिया 2026 की जनगणना के आधार पर की जाएगी, जिससे दक्षिण भारतीय राज्यों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व को लेकर चिंताएँ बढ़ रही हैं।  उपयुक्त सुझावों के साथ संघवाद और न्यायसंगत राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर इसके प्रभावों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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