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भारतीय संविधान की आत्मा

Lokesh Pal April 08, 2025 02:44 70 0

संदर्भ

हाल ही में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने उज्बेकिस्तान के ताशकंद में अंतर-संसदीय संघ (IPU) की ऐतिहासिक 150वीं सभा में ‘सामाजिक विकास और न्याय के लिए संसदीय कार्रवाई’ (Parliamentary Action for Social Development and Justice) को संबोधित किया।

  • उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि “भारतीय संविधान की आत्मा सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करना, उन्हें समान अवसर प्रदान करना और समाज के हाशिए पर स्थित तथा पिछड़े वर्गों को ‘प्रगति की मुख्यधारा’ में शामिल करना है।”

“संविधान महज वकीलों का दस्तावेज नहीं है, यह जीवन का माध्यम है और इसकी भावना सदैव युग की भावना है।” – बी. आर. अंबेडकर

भारतीय संविधान की आत्मा

  • भारतीय संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र के मूल्यों, आकांक्षाओं और आदर्शों का प्रतीक है।
  • यह प्रस्तावना में निहित न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के दर्शन को दर्शाता है।
  • संविधान की भावना इसकी समावेशी, कल्याणकारी और लोकतांत्रिक प्रकृति में निहित है, जो सभी नागरिकों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करती है।

संविधान की भावना के प्रमुख सिद्धांत

  • संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य
    • संप्रभु: भारत बाह्य नियंत्रण से मुक्त है और इसके प्रशासन पर भारत का सर्वोच्च अधिकार है।
    • समाजवादी: असमानताओं को कम करने की प्रतिबद्धता (42वें संशोधन, 1976 द्वारा जोड़ा गया) का उल्लेख किया गया है।
    • धर्मनिरपेक्ष: राष्ट्र का कोई धर्म नहीं होगा; सभी धर्मों के लिए समान सम्मान (42वें संशोधन, 1976 द्वारा जोड़ा गया) रखा जाएगा।
    • लोकतांत्रिक: सत्ता निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से लोगों के पास होती है।
    • गणतंत्र: राष्ट्र का मुखिया (राष्ट्रपति) निर्वाचित होता है, वंशानुगत नहीं होता है।

  • न्याय (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक)
    • सामाजिक न्याय: भेदभाव को दूर करना (जैसे- अनुच्छेद-17 के तहत अस्पृश्यता का उन्मूलन)। 
    • आर्थिक न्याय: धन असमानताओं को कम करना (जैसे- राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत)। 
    • राजनीतिक न्याय: समान मताधिकार (सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार)।
  • स्वतंत्रता (विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था, उपासना)
    • मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद 19-22) के तहत गारंटीकृत।
    • वाक्, धर्म और आवागमन की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।
  • समानता (स्थिति एवं अवसर)
    • अनुच्छेद-14: कानून के समक्ष समानता।
    • अनुच्छेद-15: भेदभाव का निषेध।
    • अनुच्छेद-16: सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर।
  • बंधुत्व (राष्ट्र की एकता एवं अखंडता)
    • राष्ट्रीय एकीकरण और व्यक्ति की गरिमा को बढ़ावा देता है।
    • मौलिक कर्तव्य (अनुच्छेद-51A) इस भावना को मजबूत करते हैं।

अंतर-संसदीय संघ (Inter-Parliamentary Union- IPU) 

  • वर्ष 1889 में स्थापित IPU राष्ट्रीय संसदों का वैश्विक संगठन है।
  • विजन: एक ऐसी दुनिया जहाँ प्रत्येक मुद्दे की अहमियत होती है और जहाँ संसद शांति तथा विकास के लिए लोगों की सेवा करती हैं।
  • मिशन: लोकतांत्रिक शासन, संस्थाओं और मूल्यों को बढ़ावा देना:-
    • संसदों और सांसदों के साथ कार्य करना
    • लोगों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं पर प्रतिक्रिया करना
  • मुख्यालय: जिनेवा, स्विट्जरलैंड।
    • कार्यालय: न्यूयॉर्क (यू.एस.ए) और वियना (ऑस्ट्रिया)
  • सदस्य: 182 राष्ट्रीय संसदें
    • सहयोगी सदस्य: 15
    • भारत: संस्थापक सदस्य
  • वित्तपोषण: मुख्य रूप से सार्वजनिक निधि से संसद सदस्यों द्वारा वित्त पोषित।

संवैधानिक प्रावधान भावना को प्रतिबिंबित करते हैं:

  • मौलिक अधिकार (भाग III): व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करना (जैसे- समानता का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता)।
    • अनुच्छेद-32: संवैधानिक उपचारों का अधिकार (डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने इसे ‘संविधान का हृदय एवं आत्मा’ कहा है)।
  • राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (भाग IV): कल्याणकारी राज्य सिद्धांत (जैसे- समान कार्य के लिए समान वेतन, निःशुल्क कानूनी सहायता)।
    • अनुच्छेद-39A: गरीबों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता।
  • मौलिक कर्तव्य (भाग IV-A)
    • अनुच्छेद-51A: संविधान का सम्मान करना, सद्भाव को बढ़ावा देना जैसे मौलिक कर्तव्य निर्धारित किए गए हैं।
  • संसदीय लोकतंत्र और संघवाद: मध्यस्थ के रूप में स्वतंत्र न्यायपालिका के साथ संतुलित केंद्र-राज्य संबंध।
    • न्यायिक समीक्षा संवैधानिक सर्वोच्चता सुनिश्चित करती है।
  • समावेशी विकास और सामाजिक न्याय: SC/ST/OBC के लिए आरक्षण नीतियाँ [अनुच्छेद-15(4), 16(4)]।
    • दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 और ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिनियम, 2019

इतिहास के ऐसे उदाहरण जब भारतीय संवैधानिक मूल्यों का हनन किया गया

  • आपातकाल (1975-77): संवैधानिक नैतिकता का पतन
    • इंदिरा गांधी सरकार ने अनुच्छेद-352 के तहत आपातकाल लागू किया, अनुच्छेद-21 (जीवन एवं स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद-19 (वाक् की स्वतंत्रता) को निलंबित कर दिया।
    • नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया, प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई और विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया।
  • शाहबानो मामला और उसके बाद (1985-86): समानता और धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करना
    • शाहबानो नामक मुस्लिम महिला को CrPC की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता दिया गया था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने उनके अधिकार को बरकरार रखा, लेकिन सरकार ने राजनीतिक दबाव में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 बनाकर निर्णय को पलट दिया।
  • जाति आधारित हिंसा एवं भेदभाव: मेलवलवु नरसंहार (1997, तमिलनाडु)
    • निर्वाचित दलित पंचायत अध्यक्ष और पाँच अन्य लोगों की उच्च जाति के लोगों द्वारा बेरहमी से हत्या कर दी गई।
    • यह घटना गहरी जड़ जमाए जातिगत नफरत और लोकतांत्रिक संस्थाओं में दलितों के प्रतिनिधित्व की रक्षा करने में राज्य की विफलता का प्रतीक है।
  • IT अधिनियम (2000) की धारा 66A: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन किया गया
    • IT अधिनियम की धारा 66A ने अस्पष्ट ऑनलाइन भाषण को अपराध घोषित कर दिया, जिसके कारण मनमाने ढंग से गिरफ्तारियाँ की गईं और वैचारिक असहमति का दमन किया गया।
    • श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) में संविधान के अनुच्छेद-19(1)(a) का उल्लंघन करने के कारण इसे रद्द कर दिया गया।

न्यायिक व्याख्याएँ भारतीय संविधान की भावना को मजबूत कर रही हैं:

  • मूल संरचना सिद्धांत
    • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन इसके ‘मूल ढाँचे’ को नहीं बदल सकती है।
      • बुनियादी ढाँचे में शामिल हैं: संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन, शक्तियों का पृथक्करण, न्यायिक समीक्षा और मौलिक अधिकार।
      • यह निर्णय अधिनायकवाद और मनमानी शक्ति के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है।
    • संविधान की अखंडता और भावना को सुरक्षित रखता है।
  • अनुच्छेद-21 की विस्तृत व्याख्या: जीवन का अधिकार
    • मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): अनुच्छेद-21 की व्याख्या प्रक्रियागत उचित प्रक्रिया को शामिल करने के लिए की गई।
      • जीवन का अधिकार मात्र पशुवत अस्तित्व को संदर्भित नहीं करता, बल्कि गरिमापूर्ण जीवन को भी संदर्भित करता है।
    • फ्राँसिस कोरली मुलिन केस (1981): जीवन के अधिकार में आश्रय, आजीविका, स्वास्थ्य, शिक्षा और गरिमा शामिल हैं।
      • अनुच्छेद-21 को मानवाधिकारों के भंडार में परिवर्तित कर दिया।
  • समानता और सामाजिक न्याय
    • इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (मंडल मामला) (1992): अनुच्छेद-16(4) के तहत ओबीसी के लिए आरक्षण को बरकरार रखा।
      • सही लाभार्थियों की सुरक्षा के लिए क्रीमी लेयर की अवधारणा शुरू की गई।
    • तमिलनाडु राज्य बनाम के. श्याम सुंदर (2011): समानता के हिस्से के रूप में शिक्षा की एकसमान गुणवत्ता को बरकरार रखा (अनुच्छेद-14)।
      • सामाजिक और शैक्षिक असमानताओं को पाटने का लक्ष्य रखा गया।
    • समावेशी विकास और सकारात्मक कार्रवाई पर जोर दिया गया।
  • जनहित याचिका (PIL): एक सामाजिक क्रांति
    • एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981): ‘लोकस स्टैंडी’ के सिद्धांत को शिथिल किया, जिससे जनहित याचिकाएँ सक्षम हुईं।
    • बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ (1984): अनुच्छेद-21 के तहत बंधुआ मजदूरों के अधिकारों को लागू किया।
    • विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997): कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध दिशा-निर्देश निर्धारित किए गए।
    • जनहित याचिकाओं ने न्यायालयों को अभिव्यक्तिहीन और हाशिए पर स्थित लोगों का संरक्षक बनने का अधिकार दिया।
  • पर्यावरणीय न्याय
    • एम.सी. मेहता के मामलों की शृंखला: प्रदूषक भुगतान सिद्धांत और निवारक सिद्धांत पेश किया।
      • स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को अनुच्छेद-21 से जोड़ा गया।
    • अंतर-पीढ़ीगत समानता और सतत् विकास की भावना को प्रतिबिंबित किया गया।
  • न्यायिक समीक्षा और संवैधानिक सर्वोच्चता
    • मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों के बीच संतुलन को मजबूत किया गया।
      • 42वें संशोधन के कुछ हिस्सों को मूल संरचना का उल्लंघन करने के कारण रद्द कर दिया गया।
    • आई. आर. कोएल्हो वनाम तमिलनाडु राज्य (2007): यदि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो 9वीं अनुसूची के अंतर्गत रखे गए कानूनों की न्यायिक समीक्षा की जाती है।
    • कानून के शासन और विधायी अतिक्रमण पर संविधान की सर्वोच्चता सुनिश्चित करता है।
  • लैंगिक और LGBTQ अधिकार
    • नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): समलैंगिकता को अपराध से मुक्त किया (IPC की धारा 377 को निरस्त किया)।
      • गरिमा, समानता और निजता को बरकरार रखा।
    • जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018): IPC की धारा 497 (व्यभिचार) को असंवैधानिक करार दिया।
      • व्यक्तिगत अधिकारों, गरिमा और प्रगतिशील मूल्यों को सुदृढ़ बनाया।
  • निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में घोषित किया गया
    • के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017): अनुच्छेद-21 के भाग के रूप में निजता के अधिकार की घोषणा की।
      • डेटा संरक्षण और सूचना स्वायत्तता के लिए आधारशिला रखी।
    • 21वीं सदी की डिजिटल चुनौतियों से निपटने के लिए संविधान का विकास किया।
  • धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक स्वतंत्रता
    • शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017): तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया।
      • धार्मिक स्वतंत्रता के ढाँचे के भीतर लैंगिक न्याय और समानता को बरकरार रखा।
    • संतुलित धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकों के अधिकार और महिला सशक्तीकरण।
  • न्यायपालिका ‘क्वी विवे’ सिद्धांत के प्रहरी के रूप में (वाचफुल गार्जियन)
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में हस्तक्षेप किया है, जहाँ कार्यकारी या विधायी कार्यवाहियाँ निम्नलिखित को बनाए रखने में विफल रहीं हैं:
      • सामाजिक न्याय
      • जवाबदेही
      • संवैधानिक शासन
    • न्यायमूर्ति भगवती: ‘न्यायाधीशों को सामाजिक दृष्टि और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता वाले न्यायिक राजनेता होना चाहिए।’

संवैधानिक भावना को प्रतिबिंबित करने वाले हालिया विधायी और नीतिगत उपाय

  • भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023: आपराधिक कानून सुधार
    • औपनिवेशिक भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 का स्थान लेता है।
    • इस पर ध्यान केंद्रित करता है: दंड-केंद्रित कानून पर न्याय-उन्मुख ढाँचा।
      • आतंकवाद, संगठित अपराध और घृणा अपराधों को परिभाषित करता है।
      • इसमें जीरो एफआईआर और अनिवार्य फोरेंसिक जाँच जैसे- पीड़ित-केंद्रित प्रावधान शामिल हैं।
    • न्याय प्रदान करने को मजबूत करता है, कानून के शासन को बढ़ावा देता है, संवैधानिक नैतिकता के साथ संरेखित करता है।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023
    • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 का स्थान लेता है।
    • मुख्य सुधार
      • 7 वर्ष से अधिक की सजा वाले अपराधों के लिए अनिवार्य फोरेंसिक जाँच।
      • डिजिटल एफआईआर और जीरो एफआईआर से सुगमता में सुधार होगा।
      • समयबद्ध परीक्षण (तर्क के बाद 45 दिनों के भीतर निर्णय)।
    • संवैधानिक लिंक: त्वरित न्याय (अनुच्छेद-21) और पुलिस की जवाबदेही सुनिश्चित करता है।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA), 2023
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का स्थान लेता है।
    • मुख्य परिवर्तन: इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड (ईमेल, डिजिटल अनुबंध) प्राथमिक साक्ष्य के रूप में।
      • डिजिटल साक्ष्य (जैसे- सीसीटीवी, सोशल मीडिया पोस्ट) की स्वीकार्यता का विस्तार करता है।
    • निष्पक्ष सुनवाई के अधिकारों को मजबूत करता है (अनुच्छेद-20, 21)।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019
    • शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा में भेदभाव को रोकता है।
    • कल्याणकारी उपायों (जैसे, बचाव, पुनर्वास) को अनिवार्य बनाता है।
    • गरिमा (प्रस्तावना) और समानता (अनुच्छेद-14-18) को बनाए रखता है।
  • हमारा संविधान, हमारा सम्मान अभियान (2024)
    • संवैधानिक जागरूकता को बढ़ावा देता है (जैसे- प्रस्तावना पढ़ना, कानूनी साक्षरता)।
    • उप-अभियान
      • सबको न्याय, हर घर न्याय (न्याय तक पहुँच)।
      • विधि जागृति अभियान (कानूनी अधिकार जागरूकता)।
    • संवैधानिक लिंक: नागरिक सशक्तीकरण (प्रस्तावना, अनुच्छेद-51A)।
  • नारी शक्ति वंदन अधिनियम (106वाँ संविधान संशोधन), 2023
    • लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित की गईं।
    • इसे लैंगिक न्याय और राजनीतिक सशक्तीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है।
  • आयुष्मान भारत: PM-JAY
    • भारत की 40% आबादी के निचले समुदाय को 5 लाख रुपये तक का निःशुल्क स्वास्थ्य बीमा प्रदान करता है।
    • इसका लक्ष्य सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा और कमजोर आबादी को शामिल करना है।
  • दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016
    • दिव्यांगता की परिभाषा का विस्तार करते हुए इसमें 21 शर्तें शामिल की गई हैं।
    • भेदभाव न करने, सुलभता, शिक्षा और रोजगार के अवसरों का प्रावधान करता है।
    • शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण अनिवार्य करता है।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019
    • ट्रांसजेंडर पहचान को मान्यता देता है और भेदभाव को रोकता है।
    • सरकार को कल्याणकारी उपाय, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच सुनिश्चित करने का अधिकार देता है।

संसदीय समितियों के माध्यम से संवैधानिक आदर्शों को प्रतिबिंबित करना

  • शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत: हालाँकि भारत में इस सिद्धांत को कठोरता से लागू नहीं किया जाता है, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका के बीच कार्यात्मक सीमाओं को बनाए रखने में समितियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
    • निरीक्षण कार्यों के माध्यम से, वे सुनिश्चित करती हैं कि कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी बनी रहे, संस्थागत जाँच और संतुलन को बनाए रखे।
    • उदाहरण: सार्वजनिक लेखा समिति (PAC) CAG रिपोर्ट का उपयोग करके सरकारी व्यय का ऑडिट करती है, जिससे वित्तीय अनुशासन सुनिश्चित होता है।
  • कानून का शासन: समितियाँ कानूनों और कार्यकारी कार्यों की जाँच करती हैं तथा इस बात पर बल देती हैं कि सभी कार्य संविधान और कानूनी मानदंडों के अनुरूप होने चाहिए।
    • उनका गैर-पक्षपातपूर्ण, साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण मनमाने ढंग से कानून बनाने से रोकने में मदद करता है और विधायी अखंडता को बढ़ावा देता है।
    • उदाहरण: स्थायी समितियाँ अक्सर कानूनी और संवैधानिक चिंताओं के साथ विधेयकों को वापस भेजती हैं, जिसके परिणामस्वरूप संशोधन या वापसी होती है।
  • लोकतांत्रिक आदर्श 
    • प्रतिनिधित्व और भागीदारी: समितियों में विभिन्न दलों और राज्यों के सदस्य शामिल होते हैं, जिससे व्यापक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है और बहुसंख्यकवाद का प्रभुत्व कम होता है।
    • गहन बहस, विचार-विमर्श और परामर्श के लिए एक मंच प्रदान करना, जिससे सहभागी लोकतंत्र को बढ़ावा मिले।
    • उदाहरण: खाद्य, उपभोक्ता मामले और सार्वजनिक वितरण समिति में विचार-विमर्श में अक्सर नागरिक समाज के हितधारक और गैर-सरकारी संगठन शामिल होते हैं।
  • सामाजिक न्याय और समानता: समितियाँ कमजोर वर्गों- अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग, महिलाओं, अल्पसंख्यकों- को लक्षित करने वाली योजनाओं और विधेयकों की समीक्षा करती हैं, जो न्याय (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक) के संवैधानिक जनादेश के अनुरूप होती हैं।
    • संसाधनों का न्यायसंगत आवंटन सुनिश्चित करना और सकारात्मक कार्रवाई नीतियों की जाँच करना।
    • उदाहरण: अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण पर समिति कल्याणकारी योजनाओं में कार्यान्वयन अंतराल की जाँच करती है।
  • संघवाद: विभिन्न राज्यों से चुने गए सदस्यों के साथ, समितियाँ राष्ट्रीय नीति-निर्माण में क्षेत्रीय चिंताओं को अभिव्यक्ति देने की अनुमति देती हैं।
    • विधायी मामलों में, विशेष रूप से संघ-राज्य विषयों में, केंद्र और राज्यों के बीच सेतु का काम करता है।
    • उदाहरण: विभाग संबंधी समितियाँ सभी राज्यों के सांसदों को केंद्र प्रायोजित योजनाओं पर चर्चा करने के लिए एक साथ लाती हैं, जिससे संघीय दृष्टिकोण सुनिश्चित होता है।
  • पारदर्शिता और जवाबदेही: समितियाँ मंत्रालयों और विभागों के कामकाज की समीक्षा करके संस्थागत जवाबदेही को बढ़ावा देती हैं।
    • उनकी रिपोर्ट संसद के समक्ष रखी जाती है और अक्सर उन पर बहस होती है, जिससे शासन में पारदर्शिता को बढ़ावा मिलता है।
    • उदाहरण: सार्वजनिक उपक्रमों की समिति सार्वजनिक उपक्रमों की दक्षता और ईमानदारी का मूल्यांकन करती है।
  • संवैधानिक नैतिकता और नैतिक शासन: सार्वजनिक जीवन में बंधुत्व, धर्मनिरपेक्षता और ईमानदारी जैसे संवैधानिक मूल्यों के पालन को प्रोत्साहित करना।
    • विशेषाधिकार समितियों और नैतिकता पैनलों के माध्यम से, वे सुनिश्चित करती हैं कि जन प्रतिनिधि, संसद की गरिमा और सार्वजनिक विश्वास को बनाए रखें।

संवैधानिक भावना को चुनौतियाँ

  • विधायिका पर कार्यपालिका का प्रभुत्व
    • संसदीय समितियों को दरकिनार किया गया: समितियों को विधेयक भेजने की घटती प्रवृत्ति विस्तृत जाँच और विचार-विमर्श को कमजोर करती है।
      • 17वीं लोकसभा (वर्ष 2019-2024) में, 16% से भी कम विधेयक समितियों को भेजे गए।
    • अध्यादेश का प्रयोग: अध्यादेशों का बार-बार इस्तेमाल विधायी बहस को दरकिनार कर देता है, जिससे संसदीय संप्रभुता कमजोर हो जाती है (अनुच्छेद-123 का दुरुपयोग)।
    • व्हिप संस्कृति: स्वतंत्र विचार को दबाती है और सांसदों को ‘रबर स्टैंप’ में बदल देती है, जो स्वतंत्र और तर्कपूर्ण बहस के विचार के विपरीत है।
  • राजनीतीकरण और पक्षपात
    • समितियों को अक्सर नियुक्तियों और कामकाज में राजनीतिक पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है, जिससे वस्तुनिष्ठ विश्लेषण सीमित हो जाता है।
    • विचार-विमर्श कभी-कभी जनहित के बजाय ‘पार्टी लाइन’ को दर्शाता है, जिससे समितियों का गैर-पक्षपातपूर्ण आदर्श कमजोर होता है।
  • बाध्यकारी प्राधिकार का अभाव
    • समिति की सिफारिशें सलाहकारी होती हैं, बाध्यकारी नहीं।
    • कार्यपालिका सुझावों को अनदेखा कर सकती है, विशेषकर अगर वे राजनीतिक रूप से असुविधाजनक हों, जिससे समितियाँ प्रतीकात्मक प्रासंगिकता तक सीमित हो जाती हैं।
  • कम उपस्थिति और बहस का अभाव
    • कई सांसद समिति की बैठकों में भाग नहीं लेते हैं और चर्चा हमेशा सार्थक नहीं होती।
    • रिपोर्ट की गुणवत्ता को प्रभावित करता है और प्रभावी विधायी भागीदारी के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
  • न्यायिक अतिक्रमण और सक्रियता
    • कभी-कभी, न्यायालयों पर विधायी और कार्यकारी डोमेन में अतिक्रमण करने का आरोप लगाया जाता है (उदाहरण के लिए- कानूनों की अनुपस्थिति में जारी किए गए दिशा-निर्देश)।
    • यह शक्तियों के पृथक्करण (संविधान की एक बुनियादी संरचना) को बाधित करता है और न्यायिक दुस्साहस को दर्शाता है।
    • हालाँकि, कभी-कभी न्यायिक हस्तक्षेप आवश्यक होता है, जब अन्य शाखाएँ कार्य करने में विफल रहती हैं (उदाहरण के लिए- विशाखा दिशा-निर्देश, 1997)।
  • संघवाद का कमजोर होना
    • सत्ता का केंद्रीकरण (विशेष रूप से जीएसटी के बाद और केंद्रीय एजेंसियों के साथ राजकोषीय मामलों में) सहकारी संघवाद को नष्ट कर देता है।
    • राज्यों के पास अक्सर राष्ट्रीय नीति निर्णयों में महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं होती है, जो संविधान में परिकल्पित संघीय ढाँचे के विपरीत है।
  • समितियों का अपर्याप्त अधिकार
    • संसदीय समितियों में विशेषज्ञ कर्मचारियों और तकनीकी संसाधनों की कमी होती है।
    • कई समिति रिपोर्ट में देरी होती है या अनुवर्ती कार्रवाई की कमी रहती है, जिससे जवाबदेही तंत्र कमजोर होता है।
  • संस्थागत नैतिकता को कमजोर करना
    • ADR (2024) के अनुसार, वर्तमान लोकसभा में 44% से अधिक सांसदों पर आपराधिक आरोप हैं, जिससे संस्थागत अखंडता कमजोर होती है।
    • नैतिकता समितियों के पास सीमित प्रवर्तन शक्तियाँ हैं, जिससे संवैधानिक नैतिकता के प्रति प्रतिबद्धता प्रभावित होती है।
  • सार्वजनिक उदासीनता और जागरूकता की कमी
    • नागरिकों में अक्सर समिति की कार्यवाही या उनके महत्त्व के बारे में जागरूकता की कमी होती है।
    • इससे जवाबदेही और प्रदर्शन के उच्च मानकों को बनाए रखने के लिए तंत्र पर बाहरी दबाव कम होता है।
  • विधायी शून्यता और न्यायिक क्षतिपूर्ति
    • कई क्षेत्रों (जैसे- डेटा सुरक्षा, अभद्र भाषा) में, विधायी कार्रवाई में देरी के कारण न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा है।
    • सर्वोच्च न्यायालय की कई टिप्पणियों (जैसे- आपराधिक उम्मीदवार, चुनावी बॉण्ड) के बावजूद, संसद ने पर्याप्त रूप से कार्रवाई नहीं की है, जिससे न्यायपालिका को नीतिगत अंतराल को भरने के लिए छोड़ दिया गया है।

संवैधानिक भावना को संरक्षित करने के लिए आगे की राह

  • समिति प्रणालियों को वैधानिक रूप से मजबूत करना: प्रमुख विधेयकों के अनिवार्य संदर्भ और सिफारिशों के कार्यान्वयन पर नजर रखने के लिए संसदीय समितियों को कानूनी समर्थन प्रदान करना।
    • अनिवार्य जाँच के लिए कानूनी समर्थन (उदाहरण के लिए- यूके के हाउस ऑफ कॉमन्स के स्थायी आदेश सभी विधेयकों के लिए समिति की समीक्षा को अनिवार्य बनाते हैं)।
  • विचार-विमर्श लोकतंत्र को बढ़ावा देना: संसद में प्रमुख समिति द्वारा रिपोर्टों पर अनिवार्य बहस सुनिश्चित करना; समिति प्रक्रियाओं में सार्वजनिक परामर्श और विशेषज्ञ इनपुट में सुधार करना।
    • प्रमुख रिपोर्टों पर अनिवार्य बहस (उदाहरण के लिए- स्वीडन के रिक्सडैग में सभी समिति निष्कर्षों पर बहस होती है)।
  • संस्थागत शक्तियों को संतुलित करना: शक्तियों के पृथक्करण को बनाए रखने के लिए संस्थागत अनुशासन लागू कर आत्म-संयम का प्रयोग करना चाहिए और कार्यपालिका को संसदीय जवाबदेही को बनाए रखना चाहिए।
    • यू.के. के मंत्रिस्तरीय कोड का पालन करना, जहाँ संसद को गुमराह करने के आरोप पर मंत्री इस्तीफा दे देते हैं।
  • पारदर्शिता और सार्वजनिक पहुँच को बढ़ाना: महत्त्वपूर्ण समिति कार्यवाही का लाइव टेलीकास्ट या डिजिटल प्रकाशन नैतिक शासन के लिए जागरूकता और सार्वजनिक दबाव बढ़ा सकता है।
    • पारदर्शिता बढ़ाने का एक उदाहरण भारत का संसद टीवी है, जो जनता के लिए संसदीय कार्यवाही और समिति की बैठकों का सीधा प्रसारण करता है।
  • राजनीतीकरण पर अंकुश लगाना और नैतिक निगरानी सुनिश्चित करना: तटस्थ अध्यक्षों की नियुक्ति करना, नैतिकता समितियों को सशक्त बनाना और सांसदों के बीच हितों के टकराव एवं अनुपस्थिति पर नकेल कसना।
    • जर्मनी के बुंडेस्टैग मॉडल को अपनाना, जहाँ वरिष्ठ सांसद निष्पक्ष रूप से समितियों की अध्यक्षता करते हैं।
  • संघीय संतुलन को पुनर्जीवित करना: अंतर-राज्यीय परिषद और जीएसटी परिषद को मजबूत करना, राष्ट्रीय निर्णय लेने में राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
    • जीएसटी परिषद का सर्वसम्मति मॉडल शुरू में अच्छा कार्य करता था, इसे स्वास्थ्य/शिक्षा नीतियों तक विस्तारित करना।
  • नागरिकों और नागरिक समाज को सशक्त बनाना: नागरिकों के नेतृत्व वाली ऑडिट, आरटीआई सक्रियता और जनहित याचिकाओं को प्रोत्साहित करना ताकि संस्थाओं को जवाबदेह बनाया जा सके, यह सुनिश्चित किया जा सके कि संवैधानिक आदर्श जमीनी स्तर तक पहुँचें।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने श्रेया सिंघल (2015) मामले में जनहित याचिकाओं के कारण आईटी अधिनियम की धारा 66A को रद्द कर दिया, इस तरह के और अधिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

भारतीय संविधान की भावना न्यायपूर्ण, लोकतांत्रिक और समावेशी समाज की इसकी परिकल्पना में निहित है। इस भावना को बनाए रखने के लिए, संस्थाओं को अपनी संवैधानिक सीमाओं के भीतर काम करना चाहिए और साथ ही उन लोगों की आकांक्षाओं के प्रति उत्तरदायी बने रहना चाहिए जिनकी वे सेवा करते हैं।

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